अनुज — ठेले पर ग्लोब — कहानी (Naya Gyanodaya Patrika)


अनुज — ठेले पर ग्लोब — कहानी (Naya Gyanodaya Patrika)
image: Guan Wei, The Journey to Australia (detail), 2013, installation view, Museum of Contemporary Art Australa, image courtesy and © the artist. Photograph: Alex Davies

Thele par Globe

Hindi Kahani By Anuj (Published in Naya Gyanodaya May 2016)


ठेले पर ग्लोब

 — अनुज


     पिछले कई दिनों से यह सब चल रहा था। चौराहे पर मजमा जमा रहता। परसा खटिक का अनशन जारी था। पहले तो किसी ने ध्यान नहीं दिया, लेकिन जब लोग जुटने लगे और परसा के नाम के नारे गूँजने लगे, तब प्रशासन भी जाग गया। चौराहे पर दोपहर में तो कोई खास आवाजाही नहीं रहती थी, लेकिन शाम का समय जैसे सब के लिए तफ़रीह का हो जाता और मजमा सज जाता था। लोग अपने-अपने काम से लौटते और चौराहे पर आकर रुक जाते। वैसे भी चाय पीने के लिए रुकना तो जैसे रोज़मर्रे की बात थी। लोग हाथों में चाय का ग्लास लेते और परसा की चारपायी के इर्द-गिर्द खड़े जो जाते। जिसे जगह मिल जाती, परसा से सटकर बैठ जाता। परसा से चिपककर बैठने के पीछे मुख्य मक़सद यह होता था कि अख़बार वाले जब फोटो खींचे तो उनकी भी तस्वीर आ जाए। अब तो चारपायी भी छोटी पड़ने लगी थी। हालांकि परसा ने शुरुआत अकेले ही की थी लेकिन अब वह अकेला नहीं था। धीरे-धीरे समर्थक जुटने लगे थे। सभी ठेले वाले परसा को अपना नैतिक समर्थन दे रहे थे। कुछेक ठेले वालों ने अपने-अपने ठेले अपनी-अपनी पत्नियों को सौंप कर अधिकतर समय अब परसा के पास बिताने लगे थे। 

      परसा चारपाई पर चादर बिछाकर अधलेटा-सा दिन भर पड़ा रहता और अपने दो-चार समर्थकों से बातचीत करता रहता। उसे अनशन पर बैठे हुए आज कई दिन बीत चुके थे। प्रशासन में सुगबुगाहट होने लगी थी। आम लोगों में भी चर्चा गर्म हो गयी थी। छोटे क़स्बों में लोगों को ख़बर लगते भी तो देर नहीं लगती। बातें बीमारियों की तरह फैल जाती हैं। जिस तरह छोटे-छोटे क़स्बों में बीमारियों की रोकथाम करने वाला कोई नहीं होता, और अगर रोकथाम की भी जाती है तो तब की जाती है जब बीमारी महामारी का रूप धारण कर लेती है, ठीक उसी तरह इस शहर में भी अफवाहों को रोकने वाला कोई नहीं था। फिर इस आँधी को कौन रोक सकता था? पूरे इलाके में परसा का यह अनशन गर्मी भरने लगा था। क़स्बों में मसालों की भी तो कमी नहीं होती! बातों में कोई जायका हो न हो, लोगबाग़ अपनी तरफ से मसाला लगाकर जायका तैयार कर ही लेते हैं। 

     अब कचहरियों से लौटते हुए लोग गाँधी चौराहे की ओर से ही आना पसन्द करने लगे थे। चौराहे पर आते, आधा-एक घंटा ठहरते, एक चाय पीते और फिर अपने-अपने घरों की ओर लौट जाते। घर लौटना भी तो ज़रूरी होता था! बीवियाँ सब्जियों आदि का इन्तज़ार कर रही होतीं। बच्चों का भी मामला ऐसा था कि जबतक पापा पहुँचे नहीं, खेल छोड़कर कहाँ बैठने वाले थे पढ़ने-लिखने! इसीलिए बहुत सारे लोग तो चौराहे पर मिनट भर भी नहीं थमते। कुछेक अपनी-अपनी साईकिलों या मोटर साईकिलों पर बैठे-बैठे ही नज़ारा मार लिया करते। लेकिन लोग अब आने लगे थे और भीड़ जुटने लगी थी। इसीलिए प्रशासन की सिरदर्दी भी बढ़ने लगी थी। 

Hindi Contemporary Kahani 'Thele par Globe' by Anuj, published in 'Naya gyanodaya', May 2016.

अनुज

798, बाबाखड़ग सिंह मार्ग,
नई दिल्ली-110001.
फोन : 09868009750
ईमेल: anuj.writer@gmail.com
      अबतक परसा के समर्थकों की संख्या अच्छी खासी बढ़ चुकी थी। विविध तबकों के लोग समर्थन में जुट गए थे। व्यवस्था भी ठीक-ठाक ही बन गयी थी। चौराहे पर लगे शामियाने में सुविधाएँ बढ़ने लगी थीं। लखौटिया ने अपनी दुकान से कुछ चादर और मसलन्द भिजवा दिए थे। यूँ तो लखौटिया धरना-प्रदर्शन आदि में रूपये-पैसों की मदद करता ही रहता था, लेकिन परसा के इस अनशन में उसने खासी दिलचस्पी दिखाई थी। परसा जिन माँगों के लिए लड़ रहा था उसमें लखौटिया भी अपना हित देख रहा था, इसीलिए वह खुलकर मदद कर रहा था। ‘लखौटिया वस्त्रालय’ नाम की उसकी दुकान पता नहीं किस ज़माने से उसी गाँधी चौराहे पर खड़ी थी। ज़ाहिर है कि परसा अगर अपनी लड़ाई हार जाता तो लखौटिया जैसे छोटे-छोटे साहूकार भी समाप्त हो जाते, ठेले वालों की बात ही क्या थी! इसीलिए लखौटिया न केवल धन से, बल्कि अपने प्रभाव से भी परसा का समर्थन कर रहा था। पहले तो यदि कभी वह किसी राजनैतिक आन्दोलन का समर्थन भी करता तो बात चंदे से आगे नहीं बढ़ पाती थी, और लखौटिया जैसे लोग भले ही चंदे से समाज में होने वाले आन्दोलनों का समर्थन कर देते थे लेकिन अन्तोगत्वा ऐसे लोग प्रशासन का ही साथ दे देते थे और लोकहित के लिए व्यापक स्तर पर खड़े किए जाने वाले आन्दोलनों का भी हश्र वही ढाक के तीन पात हो जाता। लेकिन इस बार लखौटिया जैसे लोग खुद परसा के लिए प्रचार कर रहे थे और अपनी बिरादरी के लोगों से भी परसा को सहयोग देने की बात कर रहे थे। यह इस शहर के लिए एक नई बात थी कि लखौटिया जैसे लोग किसी राजनैतिक धरने का इस तरह खुलकर समर्थन कर रहे थे। लखौटिया के समर्थन से एक बात तो हुई कि छोटे-छोटे साहूकारों ने भी परसा को अपना समर्थन देना शुरु कर दिया। इस तरह परसा का यह अनशन अब धीरे-धीरे एक आन्दोलन का रूप लेने लगा था।

      परसा राजनैतिक रूप से एक प्रखर व्यक्ति था। आख़िर बरियारपुर गाँव का रहने वाला था! बरियारपुर के बारे में यह प्रचारित था कि उस गाँव में जब बच्चा पैदा होता था तो बच्चे को दक्षिण की और मुँह कराकर माँएँ बलाइयाँ लेतीं और टोंटका किया करतीं थीं। पटना स्थित बिहार विधान-सभा बरियारपुर के दक्षिण दिशा में पड़ता था इसीलिए बच्चों का मुँह दक्षिण की ओर करके यह टोंटका किया जाता था। इस प्रक्रिया से यह विश्वास जुड़ा हुआ था कि ऐसा करने से बच्चा बड़ा होकर विधायक बनता है। बरियारपुर के लोगों के लिए पटना की विधान-सभा ऐसी जगह थी मानो मक्का-मदीना हो। गाँव के हर माता-पिता की पहली हसरत यही होती थी कि उनका बच्चा भी बड़ा होकर विधायक बने। मौजूदा विधायकों को देखकर बच्चों के पिताओं के सीने पर साँप लोटता रहता था। बरियारपुर ने कई सारे विधायक पैदा भी तो किए थे! मोतिहारी के वर्तमान विधायक भी तो बरियारपुर के ही थे। पहले तो बरियारपुर नाम का यह छोटा-सा गाँव राज्य के मानचित्र पर वामपंथियों की क्रीड़ा स्थली के रूप में पहचाना जाता था, लेकिन ज्यों-ज्यों देश-दुनिया से वामपंथ का अवसान होने लगा, बरियापुर में भी वामपंथ अपनी अंतिम हिचकी लेने लगा था। 

     परसा की पढ़ाई-लिखाई तो साधारण ही हुई थी लेकिन वह बचपन से ही पढ़ाई में अच्छा रहा था। उसने मैट्रिक की परीक्षा में अच्छा प्रदर्शन भी किया और आगे पढ़ने को इच्छुक भी था, लेकिन घर की हालत ऐसी नहीं थी कि आगे की पढ़ाई जारी रख सकता। ऐसे में, खटिक परिवार में जन्मे बच्चे के लिए व्यवसाय के नाम पर सब्जी का ठेला लगाने के अलावा दूसरा चारा ही क्या बच जाता था! 

     मनोज सहनी और चंदू दोनों परसा के बचपन के मित्र थे। परसा के ही गाँव के थे, लेकिन दोनों थे बहुत लफाड़ी। परसा की तरह धीर-गंभीर और समझदार नहीं थे। दिन-भर धमाचौकड़ी और मारपीट। लेकिन परसा के जिगरी यार थे। जब परसा ने रोजी-रोटी के लिए ठेला लगाया, इन दोनों ने भी साथ-साथ अपने-अपने ठेले लगा लिए। परसा ने ही इन दोनों के ठेलों को भी अपने ठेले की तरह चमकदार बनावाया था। चमचमाती टीन की ‘रस्ट-कोटिंग’ वाली चादर लगे ठेले परसा में आत्मनिर्भरता की स्फूर्ति भरते रहते। तीनों दोस्तों के ठेले सुबह-सुबह गाँधी चौराहे पर साथ-साथ खड़े हो जाते। उनका धंधा भी अच्छा चल रहा था। लेकिन अचानक इसी बीच ऐसी ख़बर आयी कि जैसे सब कुछ उथल-पुथल हो गया। आम लोग तो सह भी लेते लेकिन परसा कहाँ मानने वाला था! उसने सुना नहीं कि उसका मन खौलने लगा। बस क्या था, उसकी नेतागिरी शुरु हो गयी। 

     परसा की शुरुआती पढ़ाई-लिखाई गाँव के मदरसे से हुई थी। शायद इसीलिए उसकी जुबान पर उर्दू चढ़ी रहती थी। उर्दू का एक सबसे बड़ा लाभ यह होता है कि उर्दू जानने वालों को सौ-पचास शे'र तो यूँ ही याद रहते हैं। परसा को भी थे और परसा इसका इस्तेमाल भी ख़ूब किया करता था। लेकिन धीरे-धीरे पूरी देश-दुनिया में बाज़ार ने अपने पाँव इसतरह से फैलाये कि देसी भाषाओं की भी जैसे अपनी अंतिम यात्रा शुरु हो गयी। अब तो हिन्दी माध्यम में भी पढ़ाई-लिखाई प्राचीन काल की चीज़ मानी जाने लगी थी, उर्दू की बख़्त ही क्या थी! अबतक ‘उर्दू दाँ’ कहकर किसी को ख़ास कहने का चलन ख़त्म हो गया था। मदरसे खाली पड़े रहने लगे थे। थोड़े बहुत मुसलमान बच्चे ही दिख जाया करते थे मदरसों में अलीफ़, बे, पे, टे... करते हुए, जबकि पहले तो हिन्दुओं के बच्चे भी मदरसों से ही अपनी पढ़ाई-लिखाई शुरु किया करते थे। लेकिन अब तो हिन्दू क्या, मुसलमानों के भी बच्चे मदरसों की ओर मुँह नहीं करना चाहते थे। मौलवियों के तो दो जून के भी लाले पड़ गए थे और मदरसों के मौलवी अपना-अपना दूसरा रोजगार ढूँढ़ने में लग गए थे। कुछेक ने तो खटिकों के साथ मिलकर सब्जियों के ठेले लगाने शुरु कर दिए थे, जबकि कुछेक ने दिल्ली के गाँधी नगर और टैंक रोड से रेडीमेड कपड़े लाकर ठेलों या पटरियों पर रखकर बेचना शुरु कर दिया था। लेकिन यहाँ भी आफ़त! मदरसे तो छूट ही गए थे, अब पटरियों और ठेलों पर भी संकट!

     धुलिया पासवान की बेटी गौरी पासवान एक सूझ-बूझ वाली लड़की थी और परसा की मेंटॉर थी। उससे उम्र में तो बड़ी थी, लेकिन परसा के साथ ही पढ़ी-बढ़ी थी। चूँकि गाँवों में लड़कियाँ देर से पढ़ाई शुरु करती हैं इसलिए वे दोनों एक ही कक्षा में रहे थे। परसा और गौरी में ख़ूब छनती थी। धीरे-धीरे दोस्ती गहराई और गहराई क्या, कहानी ही बन गयी। गौरी की सामाजिक समझ बड़ी प्रखर थी जबकि परसा अच्छी राजनैतिक समझ का व्यक्ति था, किन्तु था बहुत भावुक और ईमानदार। उसमें सामाजिक व्यवहार की समझ कम ही थी। सामान्यत: परसा के जीने के तरीके से गौरी सहमत नहीं हो पाती थी।

     गौरी उसे समझाती और कहती, “इस तरह हर बात को दिल पर लेकर चलने से राजनीति थोड़े न चलती है! राजनीति में झूठ-फरेब और थोड़ा लबर-तिनों करना पड़ता है। सभी करते हैं, तुम्हीं बने चलते हो बड़ा भारी राजा हरिश्चन्द्र! तुम्हारे अकेले के ईमानदार बनने से पूरी दुनिया थोड़े न ईमानदार हो जाती है! राजनीति में सच बोलने वालों के लिए कोई जगह नहीं होती।” 

     लेकिन इस बात पर परसा मुस्करा-भर देता और बोल पड़ता, “जब गाँधी जी सच बोलकर दुनिया के सबसे बड़े राजनीतिज्ञ हो सकते हैं तो फिर सच बोलकर मैं राजनीति क्यों नहीं कर सकता?” 

     इस बात पर गौरी और परसा में थोड़ी ठन जाती, लेकिन अपने व्यवहार के अनुरूप गौरी चुप हो जाती और परसा को मना लेती। परसा भी था कि चाहे गौरी से कितना भी चिढ़ा क्यों न बैठा हो, गौरी एक बार पास बैठती और प्यार से सिर पर हाथ फेरती हुई बोल देती, “अच्छा छोड़ो, जाने दो, अब गुस्सा छोड़ दो”, बस परसा को जैसे दुनिया मिल जाती। गौरी के हाथों का स्पर्श-भर पाकर परसा नई ताज़गी से भर उठता। 

      गौरी और परसा के प्रेम-संबंध से सारा इलाका वाकिफ़ था। लोग-बाग़ उन दिनों को ख़ूब याद करते हैं जब दोनों ने भाग कर शादी कर ली थी। हालांकि इस इलाके में भागकर शादी करने की पुरानी और समृद्ध परम्परा थी और भागकर शादी करने वालों की फ़ेहरिस्त भी खासी लम्बी थी, इसलिए इन बातों को लेकर कोई बहुत हो-हल्ला भी नहीं मचता था, लेकिन गौरी-परसा के मामले में पूरे इलाके में हड़कम्प मच गया था। यह मामला किसी लड़के-लड़की के माता-पिता की मर्जी के ख़िलाफ़ शादी कर लेने-भर का नहीं था, बल्कि यह मामला दो जातियों की अस्मिता का बन गया था। किसी खटिक लड़के का किसी पासी की लड़की को लेकर भाग जाना, दोनों समाज के गले नहीं उतर रहा था। इसीलिए ख़ूब हड़कम्प मचा था। उन दिनों समाज में एक स्पष्ट और मजबूत जातीय धुव्रीकरण मौजूद था! एक तरफ तो दलित समाज अपनी अस्मिता की लड़ायी लड़ रहा था और उधर दूसरी तरफ, खटिक समाज अपने को अन्य पिछड़ा वर्ग का मानता था। हालांकि खटिक समाज की हालत दलितों से कोई बहुत अच्छी नहीं थी, फिर भी वह अपना स्थान अन्य पिछड़ा वर्ग में ही सुरक्षित रखना चाह रहा था। दलित उसे दलित नहीं मानते थे और अन्य पिछड़ा वर्ग वाले खटिकों को अपने समाज में शामिल करने से गुरेज करते थे। इसलिए किसी दलित लड़की का भागकर किसी खटिक लड़के से शादी कर लेना, इलाके में झगड़े का सबब बन गया था। ग़नीमत तो यह थी कि इस इलाके में हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में पाई जाने वाली खाप पंचायतों जैसी कोई खाप पंचायत नहीं होती थी, नहीं तो इन दोनों प्रेमी-प्रेमिकाओं को भी ठिकाने लगा देना कौन-सी बड़ी बात होती! उन दिनों प्रशान्त खटिक और गौरी पासवान का प्रेम युवाओं के लिए आदर्श बन गया था।

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     आज समिति की बैठक थी। इस बैठक पर महापौर सहित सभी राजनैतिक दलों के लोगों की नज़र बनी हुई थी इसीलिए इस बैठक को महत्वपूर्ण माना जा रहा था। बैठक जिला कलेक्टर की अध्यक्षता में होने वाली थी। कलेक्टेरियट में गहमा-गहमी थी। हालांकि गौरी समय पर पहुँच गयी थी, लेकिन उसे अभी अन्दर जाने की अनुमति नहीं मिली थी। उसने पर्ची भिजवा रखी थी। इस बैठक में परसा की नुमाईंदगी गौरी कर रही थी। पहले यह राय बनी थी कि बैठक में परसा को व्यक्तिगत रूप से उपस्थित होने के लिए कहा जाए लेकिन परामर्शदात्री समिति के कई सदस्यों की अंतिम राय यही बनी थी कि यदि परसा अपना कोई नुमाईंदा भेजता है तो समिति में परसा को व्यक्तिगत रूप से उपस्थित होने की हठ नहीं की जाएगी। यह महापौर सहित सभी बुजुर्ग सदस्यों का ख़्याल था। महापौर ने साफ़-साफ़ कहा था, “जब परसा ने स्वयं गौरी को अपना प्रतिनिधि बनाकर भेजने की पेशकश की है तो परसा को ख़ुद आने के लिए कहना और दबाव बनाना, अपनी ही ताबूत में कील ठोंकने वाली बात होगी। परसा एक आक्रामक और ज़िद्दी इंसान है, उसे बहला लेना संभव नहीं होगा।” यह बात और लोग भी बेहतर समझते थे इसीलिए महापौर की बात बिना किसी हीला-हवाली के सभी मान गए थे। 

     बुजुर्ग सदस्यों में से एक ने तो यह भी कहा कि “अरे भाई, गौरी पासवान को ही आने दीजिए, लड़की की जात, मुँह खोलेगी क्या हम लोगों के सामने? परसा रहेगा तो लगेगा तेरी-मेरी बतियाने। गौरी को फुसलाना आसान होगा।” इसपर बाकी लोग हामी भरते हुए मुस्कराने लगे थे, जैसे उन्हें कोई अज्ञात ज्ञान मिल गया हो।

     एक सदस्य ने थोड़ी सी आशंका जतायी, “ये मत भूलिए कि वह आज की लड़की है, इस ख्याल में बैठे रहना ठीक नहीं है कि लड़की की जात है, चुपचाप हामी भर लेगी।”

     “छोड़िये ना, देख लिया जाएगा”, एक ने हँसते हुए कहा। 

     लेकिन सारी बातचीत के बीच यह आम राय तो बन ही गयी थी कि महापौर का ख़्याल ठीक है कि बैठक में परसा के बदले गौरी हो तो समिति के लिए ज़्यादा सहूलियत वाली स्थिति होगी। गौरी में उन्हें संभावना दिख रही थी और वे यह भी जानते थे कि अगर एकबार उन्होंने गौरी को मना लिया तो फिर परसा को मनाने का काम उन्हें नहीं करना पड़ेगा, गौरी ही सब सम्भाल लेगी।

     “अन्दर और लोग आ गए हैं क्या?” गौरी ने सहायक से पूछा था।

     “वे लोग तो बहुत देर से बैठे हुए हैं, मीटिंग चल रही है। आपको भी अभी बुलवाया जाएगा, थोड़ा इन्तज़ार कीजिए।” सहायक ने टाइप करते हुए हाथ रोककर कहा था।

     “लेकिन मुझे तो साढ़े ग्यारह बजे बुलवाया गया है, मैं तो अपने समय से पहुँच गयी हूँ!”

     “मीटिंग तो दस बजे से ही चल रही है, ग्यारह बजे तो राजीव गोयल साहब आए हैं। एक-दो बार तो झगड़ा भी हो चुका है”, बोलते हुए सहायक मुस्कराने लगा था। 

     “किस बात पर?” गौरी ने पूछा।

     “अब क्या जाने। यह सब बड़े लोगों की बातचीत। लेकिन गौरी जी, कुछ कहिए, हमको तो प्रशान्त बाबू का एस्टैंड बढ़िया लग रहा है। अगर गोयल लोग जीत गया तो ये सब गरीब-गुरबा लोग कहाँ जाएँगे? दूसरों का दर्द तो जैसे समझ में ही नहीं आता इन लोगों को! देखिएगा, जीत तो प्रशान्त बाबू की ही होगी।” सहायक ने लगे हाथ गौरी की थोड़ी ठकुरसोहाती भी कर दी थी। शहर में शायद ही कोई ऐसा था जो गौरी को नहीं जानता हो। 

     परसा का दस्तावेज़ी नाम प्रशान्त खटिक था लेकिन गाँव-घर के लोग उसे परसा ही बुलाते थे। पहले वह प्रशान्त से परसान्त बना और फिर धीरे-धीरे परसा बन गया। अब तो पुराने जानने वाले और अनौपचारिक लोग उसे परसा ही बुलाते थे। ऐसा भी नहीं था कि सहायक ने सिर्फ ठकुरसोहाती में परसा और उसके आन्दोलन की प्रशंसा कर दी थी। छोटे काश्तकार और निम्न आय समूह के लोगों के मन में परसा के आन्दोलन को लेकर एक स्वाभाविक सहानुभूति का भाव था। सहायक ने जो कुछ भी कहा था वह उसी की एक स्वाभाविक अभिव्यक्ति थी। 

     “गौरी जी, आप अन्दर वाले वी.आई.पी. कमरे में ही बैठिये, जब साहब लोग कहेंगे तब हम आपको बता देंगे। वी.आई.पी. कमरे में ए.सी. लगा हुआ है, आप उसी में बैठिये। कहाँ आप बिना पंखा के इस गरमी में उबलिएगा। हमलोगों को तो आदत हो गयी है।” सहायक ने कमरे की ओर इशारा करते हुए गौरी को सलाह दी। गौरी सहायक द्वारा बताये कमरे में चली गयी और वहाँ बैठकर इन्तज़ार करने लगी। थोड़ी देर तक उस कमरे में अपनी बारी का इन्तजार करती रही। फिर उठकर सहायक के पास गई और पूछा, “क्या हुआ, अभी तक मीटिंग में मेरे लिए जगह नहीं बनी क्या?”

     सहायक ने कहा, “जबतक मुझे अन्दर से आदेश नहीं मिलेगा, हम आपको कैसे भेज दें?”

     “लेकिन मुझे यहाँ आए काफी देर हो चुकी है। घड़ी देखिए, डेढ़ बज गए हैं। दो घंटे से मैं बैठी हुई हूँ और आपके साहब को मुझसे बात करने का फुर्सत नहीं है? मीटिंग है कि मीटिंग की पूँछ है? बैठाए चल रहे हैं! जाकर बोल दीजिए अपने साहब से कि गौरी पासवान खटिक के पास इतना फालतू समय नहीं है कि बैठकर इन्तज़ार करती रहे। हम यहाँ एक कम्युनिटी को रिप्रजेन्ट करने और हज़ारों लोगों की समस्या का समाधान करवाने के लिए बात करने आए हैं। हमलोग एक जेनुइन समस्या को लेकर संघर्ष कर रहे हैं, आपके साहब से कोई टेंडर माँगने नहीं आए हैं, जाइये जाकर बोल दीजिए।” गौरी ने सहायक की आँखों में आँखें डालते हुए मेज पर दोनों हाथों को टिकाकर एक ही सांस में सारी बातें कह डाली। गौरी के इस तेवर से सहायक थोड़ा सहम गया। अब वह मिमियाने वाले अंदाज़ में आ गया। उसकी मुस्कराहट ग़ायब हो गयी। उसने गौरी को शान्त रहते हुए इन्तज़ार करने का आग्रह किया और धीरे से बोला, “अब मेरी तो कोई गलती नहीं है ना, हम तो छोटा आदमी हैं। हमें तो जो आदेश मिलेगा, हम वही करेंगे। आप यह सब बात खुद बोलिएगा मीटिंग में। आप बोलिएगा तो लोग सुनेंगे भी। थोड़ा सा धीरज रखिए। हम साहब के पास ख़बर भेजवाते हैं।” 

     सहायक की गुहार पर गौरी चुप हो गयी और बिना बात आगे बढ़ाए वापस कमरे की ओर बढ़ गयी।

      वी.आई.पी. कमरे में साहूकार संघ के अध्यक्ष प्रमोद गुप्ता का प्रवेश हुआ। उन्होंने गौरी को देखते ही उल्लास भरे शब्दों में कहा, “ओह-हो, अहो भाग्य, बड़ी किस्मत से आपसे मुलाक़ात हुई। कैसी हैं आप गौरी जी? प्रशान्त जी का हाल-चाल सुनाइये, क्या हाल है उनका?” प्रमोद गुप्ता ने औपचारिकता तो निभाई ही, परसा का हाल-चाल पूछते हुए और भी बहुत कुछ पूछ गया। गौरी ने उसके अभिवादन और औपचारिकताओं में कोई रुचि नहीं दिखायी, बस ‘हाँ-ना’ में जवाब दे दिया। गौरी की ओर से बातीचीत की कोई पहल होते नहीं देख प्रमोद गुप्ता चुप हो गया। 

     लेकिन थोड़ी देर चुप रहने के बाद बोल पड़ा, “आपने साड़ी तो बहुत सुन्दर पहन रखी है, गौरी जी? अपने मार्केट की तो नहीं दिख रही, कहीं बाहर से मँगायी है?” 

     पूछने के साथ ही गुप्ता ने मुस्कराते हुए अपनी नज़र गौरी पर गहरे गड़ा दी। गौरी ने उसकी लम्पट-दृष्टि को पहचानते हुए ऐसी भाव-भंगिमा बनायी मानो कुछ सुना ही न हो। गौरी ने चेहरे को भाव-विहीन बनाए रखा और पूछा, “आप लोगों की कल रात की बैठक में क्या निर्णय हुआ है?” 

     अब गुप्ता सचेत हो गया था। गौरी के अनमनेपन से थोड़ा ख़फा तो था ही, निराश भी हुआ था। उसने भी ऐसा सपाट चेहरा बनाया मानो इससे पहले उसने कुछ कहा-सुना ही न हो। बोल पड़ा, “देखिए मैडम, हमारे लोग तो वही करते हैं जो पार्टी का राष्ट्रीय नेतृत्व कहता है। शाम की बैठक तो बस मोहर लगवाने के लिए हुई थी, निर्णय तो सुबह में ही हो गया था। दरअसल गौरी जी, क्या है, मेरी पार्टी एक नैशनल पार्टी है, इसीलिए निर्णय भी केन्द्र से ही होता है, पार्टी का जो स्टैंड होता है, हमसब लोगों का उसपर कंशेन्सस बन जाता है। कोई विरोध नहीं होता है। हमारी पार्टी में ऐसा नहीं है कि कोई इर्र बोल रहा है तो कोई टिर्र। हमसब एक ज़ुबान बालते हैं और एक ही ज़ुबान समझते हैं।”

     उसकी बातें सुनकर गौरी थोड़ी झल्ला-सी गई। बोली, “अरे भाई, वही तो पूछ रहे हैं कि आखिर क्या आदेश दिया है आपके आकाओं ने और निर्णय क्या हुआ है?”

     “गौरी जी, हम भी तो वही बता रहे हैं। हमारी पार्टी का हमेशा वही निर्णय होता है जो जनता के व्यापक हित में होता है।” उसने मुस्कराकर जवाब दिया।

     “तो वही पूछ रहे हैं न कि आपलोगों का वह व्यापक हित कौन-सा है?” गौरी व्यंग्यात्मक लहजे में थी।

     “तो हम आपको और क्या बता रहे हैं? हम वही बता रहे हैं, आप समझ नहीं रही हैं। जो कुछ भी जनता के हित में होगा, हमलोग उसी के साथ रहेंगे।”

     “राजनीति मत कीजिए, साफ-साफ बोलिए कि निर्णय क्या हुआ है? सीधे-सीधे बताइये कि आपलोग हमलोगों के साथ हैं या नहीं?” गौरी ने उसके चेहरे पर अपनी नज़रें जमाते हुए पूछा।

     “गौरी जी, अगर हम राजनीति कर रहे हैं तो आप क्या कर रही हैं? आप भी तो यहाँ राजनीति करने ही आई हैं। हम सब राजनीति ही कर रहे हैं। ऐसा नहीं है कि हम राजनीति कर रहे हैं और आप सिर्फ सेवा-भाव से लगी हुई हैं।” गुप्ता थोड़ी तल्खी से बोल गया था।

     “नहीं गुप्ता जी, मैं यहाँ राजनीति करने नहीं आई हूँ, मैं यहाँ ग़रीब-गुरबा के हक़ के लिए लड़ने आई हूँ।” गौरी ने संयम बनाए रखा।

     “अरे मैडम, जो आप बोल रही हैं ना, उसी को राजनीति कहते हैं, और राजनीति होती क्या है?” 

     गुप्ता की बात अभी पूरी भी नहीं हुई थी कि चपरासी ने आकर कहा, “गुप्ता जी और गौरी जी, आप लोगों को साहेब बुला रहे हैं।”

     प्रमोद गुप्ता ने अपने पनबट्टे के ढक्कन को खोला, एक पान का बीड़ा निकाला, मुँह में डाला, पनबट्टे का ढक्कन बंदकर पनबट्टे को वापस कुर्ते की ज़ेब में रखा और फिर धोती ठीक करता हुआ उठ खड़ा हुआ। गौरी ने भी अपना पर्स उठाया, साड़ी को फॉल से पकड़कर थोड़ा नीचे की ओर खींचा, आँचल सम्भाला और फिर दरवाज़े की ओर बढ़ गयी।

     अंदर कई लोग पहले से मौजूद थे। माहौल सख़्त बना हुआ था। 

     “नमस्कार, आइये बैठिए“, कलेक्टर साहब ने गौरी पर एक गहरी नज़र डालते हुए कहा। फिर प्रमोद गुप्ता की ओर मुड़ते हुए बोल पड़े, “अब आप लोगों को क्या हो गया गुप्ता जी, आपसब तो पहले गोयल साहब को समर्थन दे रहे थे, अचानक क्या हो गया? गोयल साहब तो आप लोगों की ही पार्टी के समर्थक हैं, फिर यह सब क्या हो रहा है?”

     गुप्ता ने हँसते हुए कहा, “डी.एम. साहब, हमसब पार्टी से बाहर थोड़े ना हैं। पार्टी का स्टैंड ही हम सब के लिए आख़िरी स्टैंड होता है। पार्टी का जो स्टैंड होता है, हमसब उसको फौलो करते हैं।”

     “अब रहने भी दीजिए ये सब जुमले। मैं दिन-रात यही सब सुनता और देखता रहता हूँ। हाँ, तो गौरी जी, अब आप बताइये आप लोग क्या कह रही हैं? प्रशांत जी का क्या कहना है? पहले तो यह बताइये कि स्वास्थ्य तो ठीक है उनका?" कलेक्टर साहब ने थोड़ दमभर कहा, "हमारे सिविल सर्जन साहब तो कह रहे थे कि उनके लिए अब और अनशन पर रहना उनके लिए फैटल हो सकता है।”

     गौरी ने कलेक्टर साहब की ओर देखते हुए कहा, “डी.एम. साहब, आप सारी समस्याओं से परिचित हैं। ‘ग्लोब-इन-हब लिमिटेड कम्पनी’ सिर्फ एक दुकान नहीं बल्कि कुठाराघात है ग़रीबों की रोजी-रोटी पर, उनकी स्वतंत्रता पर, उनके मौलिक अधिकारों पर। यहाँ इस कंपनी के प्रतिनिधि भी बैठे हुए हैं। मैं यहाँ कोई सौदेबाजी करने नहीं आई हूँ, आपसब को यह अगाह कर देने आई हूँ कि प्रशांत खटिक के जीते जी ‘ग्लोब-इन-हब कं. लि.’ की मंशा इस देश की ग़रीब जनता कभी पूरी नहीं होने देगी। हम सब अपनी जान दे देंगे, लेकिन प्रशांत जी के सपनों को साकार करके रहेंगे। हम लोग इसबात के लिए कृतसंल्प हैं कि फिर से इस देश में किसी कंपनी राज को अपने पैर फैलाने का मौका न मिले।”

     डी.एम. साहब चिढ़कर बोल पड़े, “देखिए गौरी जी, आप यहाँ बातचीत करने आई हैं, सिर्फ बातचीत कीजिए। भाषण देना हो तो जाकर उस चौराहे पर दीजिएगा, यहाँ नहीं, प्लीज़।”

     कंपनी के प्रतिनिधि गोयल बोल पड़े, “गौरी जी, इस तरह ज़िद्द करके आप हमसे कुछ नहीं ले पाएँगी। जो कुछ भी बात बनेगी, बात से ही बनेगी। प्रशान्त जी जजबाती इंसान हैं। आप उनसे ज्यादा पढ़ी-लिखी और समझदार इंसान हैं, आप हमारी परेशानियों को नहीं समझेंगी तो फिर कौन समझेगा?”

     “अच्छा, मतलब हम आपकी हर बात मान लें, आपकी शर्तों पर काम करने लगें, तब तो हम समझदार हैं और तब बात बन जाती है, और अगर हम वह सबकुछ करने को तैयार नहीं होते जो आप हमसे कराना चाह रहे हैं, तो फिर बात बिगड़ जाती है!”

     “अरे नहीं, मैं तो सिर्फ यह समझाना चाह रहा हूँ कि प्रशांत जी को आप समझा सकती हैं और वे आपकी बात मान भी लेंगे। नहीं तो एक समय होगा कि न तो जनता आपके साथ रहेगी और न ही आपके बाकी के नेता।” गोयल शान्तचित्त होकर बोला। 

     “आप धमकी दे रहे हैं”, गौरी ने प्रतिवाद किया।

     “अरे नहीं भाई, मैं तो सिर्फ समझा रहा हूँ कि इस आन्दोलन से आप सिर्फ खोएँगी, पाएँगी कुछ नहीं। अंत में अकेली रह जाएँगी।”

     प्रमोद गुप्ता ने बीच-बचाव करते हुए कहा, “देखिए गोयल साहब, ऐसे नहीं होगा। हमसब को एक बीच का रास्ता तो निकालना ही पड़ेगा। आख़िर हम सभी इसी समाज के अंग हैं और प्रशान्त जी इस शहर के अब एक सम्मानित लीडर हैं। हमें उनकी बात तो सुननी पड़ेगी।” 

     प्रमोद गुप्ता को अपनी तरफ देखकर गौरी ने संतोष की सांस ली, लेकिन गोयल ने कलेक्टर साहब की ओर सवालिया नज़र से देखा। 

     गोयल ने प्रमोद गुप्ता की ओर मुख़ातिब होकर पूछा, “प्रमोद भाई, आपको तो हमारी बातें ठीक लग रही है ना?” 

     “देखिए, टेलीफोन पर जो बातें हुई थीं, वह मुझे ठीक लगी थी, और तभी तो हम यहाँ आए भी हैं लेकिन क्या लखौटिया साहब से आपकी बात हो गयी है? वह तो नहीं मानेंगे। पुराने ख़्याल वाले आदमी हैं।” प्रमोद गुप्ता ने अपनी बात रखी।

     “आप अपनी ओर से ‘हाँ’ कहिए गुप्ता साहब,” इसबार डी.एम. साहब की आवाज़ थी।

     गौरी ने टोका, “डी.एम. साहब, आप कंपनी की तरफ़दारी तो नहीं कर रहे हैं ना?”

     कलेक्टर साहब गौरी की इसबात पर हड़बड़ा गए। उन्होंने अपने को संयमित किया और कहा, “गौरी जी, हम प्रशासन में बैठे लोग हैं, हमारा काम किसी की तरफ़दारी करना नहीं, क़ानून-व्यवस्था बनाए रखने की कोशिश करना है। हम तो बस ये चाहते हैं कि शहर का माहौल ठीक रहे, सुशासन बना रहे। इसी के लिए हरसंभव कोशिश में लगे हुए हैं कि बात, बात से बन जाए।”

     बहुत देर तक झीका-झोरी चलती रही और वाद-विवाद होता रहा। सब के पास अपने-अपने तर्क थे और सभी अपनी-अपनी बात पर चट्टान बने खड़े थे। बात बन नहीं पा रही थी। बैठक का कोई ठोस नतीजा नहीं निकलता देख कलेक्टर साहब ने आज की बैठक को यही समाप्त करने और एक दूसरी बैठक बुलाने का निर्णय ले लिया और आज की सभा को अगली तिथि तक के लिए स्थगित कर दी। सभी लोग बैठक से बाहर निकलने लगे लेकिन संतोष किसी के चेहरे पर न था। कलेक्टर साहब ने ‘ग्लोब-इन-हब कं. लि.’ के प्रतिनिधि गोयल को रुकने का इशारा किया। 

     जब सभी बाहर चले गए, गोयल और कलेक्टर में कुछ व्यक्तिगत मंत्रणा होने लगी।

     “देखिए गोयल साहब, इसतरह से बात नहीं बनेगी। आप सब से अलग-अलग बात करने की कोशिश कीजिए और इस गौरी पासवान को मनाने का ख़्याल अपने मन से निकाल दीजिए। किसी दूसरे ‘सॉफ्ट टार्गेट’ की तलाश कीजिए।” कलेक्टर साहब ने गोयल को समझाया।

     गोयल अपनी नाराज़गी छुपा नहीं पाया और बोल पड़ा, “बड़े अक्खड़ हैं सब, पता नहीं बात क्यों नहीं समझ रहे हैं! यही सब भुखमरे इस देश की प्रगति में सबसे बड़े बाधक बने हुए हैं।”

     “छोड़िए न, परेशान मत होइये, सरकार और प्रशासन आपके साथ हैं। हम आपकी मदद करने के लिए ही यहाँ बैठे हुए हैं। अब सोचना यह है कि बात बनेगी कैसे?” 

     फिर थोड़ी देर चुप रहने के बाद कलेक्टर साहब बोल पड़े, “ये मनोज साहनी से आपने बात की? वह भी टूट सकता है। मुझे रिपोर्ट है कि उसके पास युवाओं का एक अच्छा-खासा ग्रुप भी है। आपको इनसे बातें करनी चाहिए और इन्हें अपना ऑफर देना चाहिए। आफर ल्यूक्रेटिव होगा तो मुझे लगता है कि ये सब मान जाएँगे। भुखमरों को दो रोटी दीजिए और नक्की कीजिए। चंदू पासवान से अलग से बात कीजिए। आपको अब थोड़ा डिप्लोमैटिक हो जाना चाहिए। मुझे लगता है कि तभी बात बनेगी। कोशिश कीजिए।” 

     “मैं कोशिश करके देखता हूँ सर। एकबार अगर आप अपने तरीके से थोड़ा लखौटिया को भी समझा देते तो ठीक हो जाता।” गोयल की परेशानी उसके चेहरे से साफ़ दिख रही थी।

     कलेक्टर साहब मुस्कराये फिर बोल पड़े, “हाँ, ये लखौटिया भी तो एक बड़ा झंझट है! चलिए मैं देखता हूँ लेकिन पहले तो आप इन चंदू और मनोज जैसों को सम्भालिए।"

     गोयल की परेशानी चौथे आसमान में थी। एकबारगी जैसे फूट पड़ा, “मेरा करोड़ो रूपया स्टेक पर है सर, अगर यही सब चलता रहा, मैं तो बरबाद हो जाऊँगा। अब आप ही बचा सकते हैं मुझे इस मुसीबत से।” गोयल गिड़गिड़ाने लगा।

     गोयल की यह हालत देखकर कलेक्टर साहब बोल पड़े, “आप चिन्ता मत कीजिए, सिर्फ चंदू और मनोज से पर्सनल बात कर लीजिएगा। उनका टूटना ज़रूरी है। मैं भी लखौटिया से बात करके देखता हूँ। प्रमोद गुप्ता तो आपके पाले में आ ही जाएगा। छोटी मछली है। जानता है कि आज-ना-कल उसे आपके ही पेट में जाना है। उसका सारा नाटक तो बस इसीलिए है कि आप ‘बार्गेनिंग टेबल’ पर आ जाएँ। वह तो बस विरोध करने का नाटक-भर रच रहा है।” कलेक्टर साहब ने निश्चिंतता दिखाते हुए कहा।

     “जी, मैं आज ही सब से बात करके आपको स्थिति से अपडेट करता हूँ।”

     “तो फिर ठीक, अब आप चलिए।” फिर बोले, “हाँ सुनिए, पिछली बार वो जो लड़का मिला था पटना में, वह कौन था?”

     “वही तो था मेन आदमी सर, कंपनी का सी.ई.ओ. था। मेन मालिक का छोटा बेटा था, इंडिया में कंपनी का सारा काम वही तो देखता है। मेरे पास तो बस यहाँ की फ्रेंचाइज़ी भर है सर, असल मालिक तो वही सब हैं, बूढ़ा तो विदेश में रहता है, एक ही बिजनेस थोड़े ना है इन सब का।” 

     “हूँ, वह बहुत सुलझा हुआ आदमी दिखा था।”

     “बड़े-बड़े स्कूल-कॉलेज में पढ़े-लिखे नए-नए बच्चे हैं सर। बचपन से तो ये लोग घर में बिजनेस ही देखते रहे हैं, बिना सुलझा हुआ रहने पर इतना बड़ा इम्पायर कैसे चला पाएगा!”

     “हाँ, दिख तो रहा था इंटेलिजेन्ट टाईप का। अच्छा, उसके साथ जो एक खूबसूरत-सी लड़की थी, वह कौन थी? उसकी पी.ए. तो नहीं थी?”

     “हमको नहीं मालूम है सर, अगली बार मिलेगा तो पूछ लेंगे।”

     “अरे नहीं, आपलोग भी ना! हद ही आदमी हैं। अरे मैंने उससे पूछने के लिए थोड़े ना कहा है। अच्छा छोड़िए, अब आप चलिए ।”

     गोयल अपनी कुर्सी से उठते हुए बोला, “जी सर, अब मैं चलता हूँ और जैसा होता है, मैं आपको फोन करके बताता हूँ।” गोयल कुर्सी से उठ गया।

     “फोन करना हो तो लैंड लाईन पर कीजिएगा। बल्कि मिलकर ही बातें किया कीजिए तो ज़्यादा अच्छा।” बोलते हुए डी.एम. साहब ने चपरासी को बुलाने के लिए कॉलबेल बजाई और किसी दूसरी फाइल को खोलने लगे।

∎ ∎ ∎ 

     चौराहे पर ज़्यादा गहमागहमी थी। पूरे शहर में अब ‘ग्लोब-इन-हब’ एक चर्चा का विषय बन गया था। अबतक तो लोग यही समझे बैठे थे कि यह एक मॉल बनने भर का मामला है। देश में मॉल का खुलना कोई नई बात नहीं थी, इसलिए लोगों ने यह मान लिया था कि कुछ ठेले वालों ने अपने निजी स्वार्थ के कारण यह सब जंजाल रच रखा है। पहले तो बताया भी यही गया था कि यह एक मॉल होगा जो आकार में थोड़ा बड़ा होगा। इसलिए इसका मास-स्तर पर विरोध नहीं हो रहा था। मध्यवर्गीय लोगों ने तो नैतिक रूप से परसा का विरोध भी किया था। उन्हें यह लगा था कि परसा अपनी तेतागिरी चमकाने के लिए नाहक विकास के कार्य में रोड़ा अटका रहा है। 

     परसा लोगों की ओर मुखातिब था। अनशन के कारण आवाज़ में वह तीव्रता नहीं थी जो अमूमन हुआ करती थी। 

     वह अधलेटा हुआ ही बोल रहा था, “आपसब मेरी बात ग़ौर से सुनिए। आज बहुत अहम दिन है। अभी कलेक्टर साहब के कमरे में गौरी जी के साथ जवाबतलबी चल रही है जिसमें इस पूरे शहर की तक़दीर तय होनी है। मुझे पता चला है कि पीछे से कुछ लोग हमारे लोगों को लालच देकर उन्हें बरगलाने और आन्दोलन को कतर देने की पुरज़ोर कोशिश में लगे हुए हैं। लेकिन आपसब मेरे साथ क़सम लीजिए कि हम उनकी ऐसी किसी भी कोशिश को क़ामयाब नहीं होने देंगे। कलेक्टेरियट में जो भी फ़ैसला होगा, गौरी जी यहाँ आकर आपसब को साझा करेंगी। देखिए, मैं आज आपसे थोड़ी-सी और बात करना चाहता हूँ, आप सुनें।” 

     “परसा तुम आगे बढ़ो, हम तुम्हारे साथ हैं” का नारा गूँजा। अभी एक कोने से आती आवाज़ थमी भी नहीं, कि दूसरे कोने से आवाज़ आई, “नहीं झुके जब अंग्रेजों से, अब तो अपना राज है।” 

     जवाबी नारा फिर गूँजा, “नहीं झुके थे, नहीं झुकेंगे…हमसब तेरे साथ हैं।”

     परसा हाथ के इशारे से सबको शान्त होने का आग्रह करने लगा। जब लोग शान्त होने लगे, उसने बोलना शुरु किया, “दोस्तों, मैं आपसब को सिर्फ यह समझाना चाह रहा हूँ कि आप इसे किसी व्यापारी द्वारा खोला जाने वाला एक छोटा-मोटा व्यापार समझकर चुप न बैठ जाएँ। याद कीजिए कि किस तरह ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपने देश की सरज़मीं पर अपने क़दम तिज़ारत करने के लिए ही रखे थे और अपने ही देश के मीर ज़ाफ़रों ने किस तरह हमारी गर्दनी उनकी मुठ्ठी में थमा दी थी। साथियों, ये सब लोग ठीक उसी तरह आपको अपने यहाँ नौकरी देने का लालच देंगे और नौकरी के बहाने आपको ग़ुलाम बनाएँगे जैसा कि अंग्रेज़ों ने हमारे पुरखों के साथ किया था। उनकी मंशा हमारी युवा-पीढ़ी को अच्छे कॅरिअर का सब्ज-बाग़ दिखाकर हमसे और हमारे बच्चों से ग़ुलामी कराने की है। जिस तरह बरतानी हुक़ूमत ने हमारे बाप-दादाओं को क्लर्क-भर बनाकर रखा हुआ था, हमारी इंटेलिज़ेन्सिया को क्लर्क-समाज में तब्दील कर दिया था, ये मल्टीनैशनल कंपनियाँ भी हमारे साथ ठीक वैसा ही सबकुछ कर रही हैं। आज भी वही हो रहा है। ये कंपनियाँ और उनकी पिछलग्गू हुक़ूमतें हमारे मुस्तक़्विल को कॉल-सेन्टर और बी.पी.ओ. की भठ्ठी में झोंककर बैल बना देने की साजिश रच रही हैं। दोस्तो, हम आगे नहीं पीछे जा रहे हैं। मैं आपको यह यक़ीन दिलाता हूँ कि अगर आपसब इसी तरह से मेरा साथ देते रहें तो मैं उनके नापाक़ इरादों को कभी पूरा नहीं होने दूँगा। बस ज़रूरत आपके साथ की है, आप हमारे साथ डटे रहें।” फिर एक ग्लास पानी पीकर बोलना शुरु किया, “अभी कल शाम में ही, मेरे पास एक वक़ील साहब आए थे। मैं उनका नाम नहीं लूँगा, आपसब उन्हें जानते हैं। वे कह रहे थे कि – प्रशान्त जी, एक मॉल ही तो खुल रहा है, पटना से लेकर मुंबई-दिल्ली तक जाने कितने मॉल खुले हुए हैं, फिर ‘ग्लोब-इन-हब कं. लि.’ को लेकर इतनी अफरा-तफरी क्यों?” 

     “दोस्तों, मैं जानता हूँ कि ऐसी सरग़ोशी चल रही है। देखिए, एक मॉल में क्या होता है? पटना-दिल्ली-मुंबई आदि में जो मॉल होता है, वह एक ऐसी जगह होती है जहाँ आप अपनी दुकान लगा सकते हैं और उस दुकान का किराया देते हैं। दुकान आपकी होती है, धंधा भी आपका होता है, बस जगह मॉल मालिक की होती है। जैसे कि गाँव में मेला लगता है। मेले में आप क्या करते हैं? मेले की एक जगह होती है, वहाँ सभी तरह के लोग अपने-अपने धंधे के अनुसार अपनी दुकान सजाते हैं और उस जगह की पगड़ी या किराया देते हैं। सीधी बात यह है कि एक मॉल को समझ लीजिए कि एक मालिक-ए-मकान है, जिसके पास बहुत सारी दुकानें हैं और वह बहुत सारे लोगों को किराये पर जगह दे देता है, जिसमें आप अपना धंधा कर रहे होते हैं। एक और उदाहरण देता हूँ, मान लीजिए, किसान भाइयों आपसे कहता हूँ - मान लीजिए कि कोई आपको आकर कहे कि तुम अपनी सारी ज़मीन मेरे हाथों बेच दो और मेरे यहाँ मज़दूर बनकर काम करो और हम आपको आपकी ज़मीन से होने वाली उपज से ज्यादा मजदूरी देंगे। क्या आप अपनी ज़मीन उस व्यक्ति के नाम करके अपनी ही ज़मीन पर मजदूरी करना पसंद करेंगे? 

     पूरे माहौल में “नहीं, नहीं….कतई नहीं” की ज़ोरदार आवाज़ गूँज उठी।

     “मैं भी तो यही कह रहा हूँ। और मैं कह क्या रहा हूँ? वे चाहते हैं कि हम सब अपना-अपना धंधा बंद करके उनके यहाँ नौकरी पर लग जाएँ, उनके सेल्समैन बन जाएँ और जीवन-भर उनकी तनख्वाह पर गुज़ारा करते रहें। साथियों, वे हमें जीवन-भर के लिए ग़ुलाम बनाने की साजिश रच रहे हैं। उनकी मंशा है कि वे सूई भी बेचें और हवाई जहाज भी, वे मछली भी बेचें और सब्जी भी, वे हमारे सारे धंधों पर अपना क़ब्ज़ा बनाना चाहते हैं। वे चाहते हैं कि सारा कुछ उन्हीं का हो जाए। वे एक ग्लोबल दुकान खोलना चाहते हैं। बस पूरी दुनिया में उन्हीं लोगों की दुकान हो, सारे धंधे उन्हीं के हों और हम-आप ग़रीब लोग उनके मुलाज़िम हों। वे यही चाहते हैं कि हमसब या तो उनकी दुकान के खरीदार रहें या फिर उनकी दुकान में सेल्समैन बन जाएँ! सिर्फ वे ही रहें इस दुनिया में और बाकी सबलोग जाएँ जहन्नुम में…उनका कहना है कि हमसब अपने-अपने ठेलों को बंद कर दें, अपनी-अपनी दुकानों पर ताला लगा दें और लग जाएँ उनकी चाकरी में। यही है उनकी मंशा। वे कह रहे हैं कि या तो तुम उनकी चाकरी करो या फिर छोड़कर चले जाओ, अपने मादरेवतन को, अपनी इस मिट्टी को…! 

     परसा ने अपनी बात जारी रखी, “सबसे अफ़सोसनाक और शर्मनाक बात तो यह है कि हमारी चुनी हुई हुक़ूमत और हमारे बीच के ही अफ़सरान कंपनी का साथ दे रहे हैं…लेकिन दोस्तो, आज मैं इस चौराहे से, इसी छ: फुट की चारपाई पर खड़े होकर उन्हें ललकारता हूँ और ऐलान करता हूँ कि प्रशान्त खटिक जबतक ज़िन्दा है, कोई ताक़त उसे डरा नहीं सकती और न ही तोड़ सकती है। दोस्तो, मैं आप सब के बलबूते ही यह लड़ाई लड़ रहा हूँ, आपके भरोसे लड़ रहा हूँ और आपके लिए लड़ रहा हूँ। मुझे आप सब का साथ चाहिए। साथियो, यह मेरी नहीं, आप सब की लड़ाई है।” तालियों की गड़गड़ाहट से पूरा चौराहा गूँज उठा था।

     परसा की बात समाप्त हो चुकी थी और वह अब बैठ चुका था। उसकी बातों का लोगों पर गहरा असर हुआ था। उसका भाषण शहर में चर्चा का विषय बन गया था। अब धीर-धीरे लोग यह समझने लगे कि मामला इतना सीधा नहीं है जितना पहले दिखता था। लोगों को तो यही बात समझ में नहीं आ रही थी कि आख़िर परसा ‘ग्लोब-इन-हब कं.लि.’ को लेकर इतना बखेड़ा क्यों खड़ा कर रहा है क्योंकि मॉल तो पटना से लेकर मुंबई तक लगभग हर शहर में बहुतेरे खुले ही पड़े हैं? लेकिन जब परसा ने समझाया तब व्यावसायी वर्ग भी सचेत हो गया था। लखौटिया ने सबसे पहले इस बात को समझा था कि परसा के ठेले से शुरु हुआ यह आन्दोलन एक बड़े आन्दोलन की नींव है। ‘ग्लोब-इन-हब कं. लि.’ एक ऐसी अवधारणा पर कार्य कर रही थी जो अपने देश की व्यावसायिक व्यवस्था के लिए नितान्त नई अवधारणा थी। इसलिए इस व्यवस्था के संभावित प्रतिकूल परिणामों से लोगबाग़ अनभिज्ञ थे और उनमें इसको लेकर कोई विशेष हलचल भी नहीं दिख रही थी। परसा के भाषण ने जैसे कुहासा साफ़ कर दिया था। 

∎ ∎ ∎

     गोयल के बैठकखाने में मनोज सहनी और चंदू को कुछ ज़्यादा ही इज्जत देकर बैठाया गया था। गोयल ने दोनों को अपने घर पर बुलवा रखा था। गोयल जानता था कि यदि परसा को कोई काट सकता है तो वह मनोज सहनी ही है। मनोज के साथ चंदू भी आया था। दोनों हमेशा साथ ही रहते थे। गोयल भी अपने दो सिपहसलाहकारों के साथ बैठा हुआ था। चंदू और मनोज डरे-सहमे से बैठे हुए थे और गोयल के कुछ बोलने का इन्तज़ार कर रहे थे। 

     गोयल ने चुप्पी तोड़ी, “कैसे हो तुम लोग, धंधा-पानी सब बंद करके तो बैठ गए हो, घर-बार कैसे चल रहा है?” दोनों ने कोई जवाब नहीं दिया। गोयल उनकी मुश्किल समझ रहा था। ग़रीब लोग ऐसे भी अमीरों के घर पर आकर भयाक्रांत हो ही जाते हैं। वे दोनों भी सहमे-सहमे से बैठे हुए थे।

     थोड़ी देर चुप रहने के बाद गोयल ने स्वयं बात आगे बढ़ाई, “किस खुशफहमी में बैठे हो तुमलोग? और अबतक क्या मिल गया है तुम लोगों को जो आगे बहुत कुछ मिल जाएगा? परसा के फेरे में रहोगे तो भूखो मरवा देगा एक दिन।” 

     अभी चंदू कुछ बोलना चाहता ही था कि गोयल ने बीच में टोककर पूछा, “नाश्ता-पानी किया है कि नहीं तुम दोनों ने?” उनके जवाब का इन्तज़ार किए बगैर गोयल ने अपने अर्दली को आवाज़ दी और दोनों के लिए नाश्ते की व्यवस्था करने का आदेश दिया। चंदू और मनोज अभी भी आदेश लेने वाली स्थिति में ही बैठे हुए थे, लेकिन वे बिल्कुल चुप रहना भी नहीं चाहते थे। 

     मनोज सहनी ने हिम्मत जुटाई और बोल पड़ा, “साहब, भूखो तो तब भी मरना होगा और अब भी मर रहे हैं। जब हम लोगों को भूखो ही मरना है तो फिर अपने ही साथी लोग के बीच ही क्यों ना मरें!” चंदू ने 'हाँ-हाँ' करके मनोज का समर्थन किया और बात आगे बढ़ाने की कोशिश की लेकिन गोयल तेज तेवर में बोलते हुए बीच में बोल पड़ा।

     "बस, यही बीमारी है तुम लोगों में। कुछ बोलो तो तुम लोगों का वही सब शुरु हो जाता है। अरे भाई, परसा क्या तुम्हारे घर का खर्चा चला देगा? तुम लोगों को समझ में नहीं आता है? बच्चों को पढ़ाना-लिखाना नहीं है, यही सब करते रहोगे जीवन भर? परसा तो अपनी नेतागिरी कर रहा है और फँसा के रखा है तुम लोगों को। वो तो बन जाएगा नेता और तुम लोग रह जाओगे झाल बजाते।" गोयल ने पासा फेंक दिया था। 

     "तो कंपनी ही कौन-सा हमलोगों के हित में सोच रही है सर? कंपनी भी तो हमारे पेट पर लात मारने को ही तैयार है, हमारे पास और चारा ही क्या है, आप ही बताइये," मनोज ने प्रतिकार किया।

     "हाँ, बताते हैं। यही तो बताने के लिए तुम लोगों को यहाँ बुलवाया है। अब तुम दोनों हमको यह बताओ कि ठेला लगाने से पूरे एक दिन में कितनी कमाई हो जाती है? मतलब ठेला से तुमलोग दिन-भर में कितना कमा लेते हो?"

     "अब कमाई क्या होगी, जो हो भी रही है, अब तो वह भी ये कंपनी खा जाएगी। हमलोगों की भुखमरी के अच्छे दिन आ गए हैं मालिक," इसबार चंदू भी पीछे नहीं था।

     "जितना पूछ रहे हैं उतना ही बताओ, फालतू बात सुनने की आदत नहीं है हमको। लगे परसा की तरह तेतागिरी बतियाने। हम पूछ रहे हैं कि एक दिन में ठेला से कितना कमा लेते हो?"

     "सौ-दो सौ कमा लें वही बहुत है मलिक", चंदू का जवाब था।

     "अच्छा! अच्छा यह मान लो कि हम तुम लोगों के लिए उससे अधिक पैसों का इन्तज़ाम करा दें तो कैसा रहेगा? तुम लोग अभी जो धंधा कर रहे हो, थोड़ा समझ भी है कि उसमें तुमलोग दिन-रात कितनी परेशानी उठाते रहते हो? किसानों से सब्जी लाते होगे, उसको साफ करते होगे, दिन-भर बोल-बोलकर बेचते होगे और अगर कभी नहीं बिका तो? तब तो उस दिन काम हो जाता होगा तुम लोगों का! जो माल नहीं बिकता है, वह तो तुम्हारा ही जाता है ना? क्यूँ, मैं ठीक कह रहा हूँ ना? कभी सोचा है तुमलोगों ने कि कितनी माथा-पच्ची का काम करते रहते हो दिन-रात? हम लोग चाहते हैं कि तुमसब इसतरह के झंझट से छुटकारा पा जाओ। तुम लोग मेरी बात मानो। कंपनी का साथ दो। कंपनी तुम लोगों को अपने यहाँ वेतन पर अच्छी नौकरी दे देगी। आराम से इज्जत की नौकरी करो, अच्छा खाओ, अच्छा पहनो और निश्चिन्त होकर बच्चों को पढ़ाओ-लिखाओ। जीवन सुख-चैन से कटता रहेगा। न कोई हर-हर, न खट-खट। कहाँ ठेला-ठेली के चक्कर में पड़े रहोगे जीवन-भर!" गोयल ने तुरुप के इक्के की चाल चल दी थी।

     मनोज और चंदू हतप्रभ अवस्था में एक-दूसरे का चेहरा देखने लगे। उनके लिए यह एक ऐसा ऑफर था जिसकी उन्होंने कल्पना नहीं की थी। 

     गोयल ने फिर से बात आगे बढ़ाई, "देख मनोज, और चंदू तुम भी सुनो, इंसान के पास अवसर एक ही बार आता है, अब इंसान के अपने ऊपर होता है कि वह उसका कितना लाभ उठा पाता है, या फिर कि वह फालतूगिरी में अपना सारा समय बरबाद कर लेता है। ज्यादा सोचो मत, बहुत नहीं सोचना चाहिए। जाओ जाके नौकरी ज्वॉयन करने की तैयारी करो।"

     मनोज ने सहमते हुए पूछा, "काम क्या करना होगा साहब?"

     "तुम तो पढ़े-लिखे आदमी हो, हिसाब-किताब का काम देख लेना, नहीं तो काम की कमी थोड़े ना है, और फिर तुम बाहर के लोग थोड़े ना हो! पूरी कंपनी तुम्हारी होगी, जो काम तुम्हें अच्छा लगे, तुम वही करना। चंदू, तुम्हारे लिए भी अच्छा काम है हमारे पास और हाँ, परसा के साथ जो लफंदरों की भीड़ है, वह सब भी तो तुम्हारे यार-दोस्तों में ही हैं ना?"

     "हाँ, हैं तो, सब अपने ही लोग हैं मालिक, लेकिन लफंदर थोड़े न हैं!” चंदू बोल पड़ा।

     “अरे, प्यार से बोल रहा हूँ भाई, नौजवानों को हमलोग प्यार से लफंदर ही कहते हैं”, गोयल ने मुस्कराकर कहा। गोयल के प्यार भरे शब्दों को सुनकर चंदू खुश हो गया। 

     “उन सबको भी कहो कि कंपनी की तरफ आ जाएँ, फायदे में रहेंगे।” गोयल ने प्रस्ताव रखा।

     चंदू ने दबी ज़ुबान में कहा, “परसा भी तो अपना यार ही है मालिक।"

     "छोड़ो उसको, वह बहुत जिद्दी और बेवक़ूफ इंसान है, नहीं मानने वाला। उसको समझाना, मतलब पानी पीटना। वह हमारे किसी काम का नहीं है। तुम बस अपने-अपने आदमियों को कहो कि कंपनी के काम में हाथ बँटाए और इस देश के प्रधानमंत्री एवं विकास-पुरुष का हाथ मजबूत करें। हमसब मिल-जुलकर विकास-पुरुष के सपनों को साकार करेंगे। इसी से देश का विकास होगा और हम सबका भी। घबराना नहीं, पैसा भी ख़ूब मिलेगा, उसकी चिन्ता बिल्कुल मत करना, यह हमारी गारंटी है। कंपनी तुम सब को जितना पैसा देगी, उतना पैसा ठेला लगा के तो नहीं ही कमा पाओगे इस जनम में।"

     गोयल इसबात को समझ चुका था कि मनोज और चंदू उसके शीशे में पूरी तरह से उतर चुके हैं। वे दोनों भी इस ऑफर में अपना हित सधता देख रहे थे। पिछली बैठक में ही गोयल यह भांप गया था कि मनोज सहनी के साथ युवाओं का एक मजबूत जत्था है जो परसा का साथ दे रहा है। मनोज सहनी उस इलाके के बहेलिया समाज का प्रतिनिधित्व करता था, इसलिए उसे तोड़ना बहुत ज़रूरी था और गोयल की यह जरूरत अब पूरी होती-सी दिख रही थी। वह निश्चिन्त हो गया था। उसे तो अब बस इसबात का इंतज़ार था कि दोनों जल्दी से अपना नाश्ता ख़त्म करें और जाएँ। गोयल का काम पूरा हो चुका था इसलिए अब उन दोनों की वहाँ उपस्थिति उसे भारी तो दिख ही रही थी, उनके साथ बैठे रहना भी उसे अपने समय की बरबादी दिख रही थी। 

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     गोयल ने अपनी पूरी ताक़त झोंक रखी थी। कलेक्टर साहब ने भी लखौटिया को बुलाकर उसे उसकी कुछ पुरानी फाइलें दिखा दी थीं और इसी बहाने उसे समझा-बुझा लिया था। लखौटिया ने मजबूरी में उनकी बात तो मान ली, लेकिन उसने गोयल के सामने अपनी एकाध शर्तें भी रख दी थीं। गोयल भी किसी तरह से काम निकाल लेना चाहता था। इसलिए आख़िरकार इसबात पर सहमति बन गयी थी कि लखौटिया की दुकान ज्यों-की-त्यों ‘ग्लोब-इन-हब’ में स्थानान्तरित हो जाएगी और उसकी दुकान का मालिकाना हक़ लखौटियया के साथ साझे में रहेगा। बदले में कंपनी उसे अपनी अवसंरचनात्मक सुविधाओं सहित अपने प्रचार-प्रसार से तैयार लुभाए हुए ग्राहक मुहैया कराएगी। दोनों ने इस मौन संधि-पत्र पर हस्ताक्षर कर दी थी। गोयल इस बात को ख़ूब समझता था कि लखौटिया का समर्थन पाने का अर्थ था पूरे मारवाड़ी समाज का समर्थन प्राप्त करना। इसतरह छोटी मछली ने बड़ी मछली का भोजन बन जाना स्वेच्छा से स्वीकार कर लिया था। शायद समाज में यह ख़्याल विकसित होने लगा था कि बड़े-बड़े घड़ियालों की दुनिया में बड़ी मछलियों का पेट ही छोटी मछलियों के लिए महफूज़ ज़गह होती है। इधर प्रमोद गुप्ता भी इस शर्त पर कंपनी को अपना समर्थन देने पर राज़ी हो गया था कि कंपनी उसके अगले चुनाव का आधा बोझ वहन करेगी। उधर मनोज सहनी के पासा पलटते ही उसकी बिरादरी का एक बड़ा जत्था आन्दोलन से तितर-बितर होने लगा था। चंदू तो वही करता जो मनोज कहता, इसलिए चंदू भी परसा के विरोधी स्वर-में-स्वर मिलाने लगा था और परसा के आन्दोलन से अपने को सीधे अलग कर लिया था। उन दोनों द्वारा अपने-अपने समाज से कंपनी को समर्थन देने की गुहार ने आन्दोलन समर्थक कार्यकर्ताओं के बीच असमंजस की स्थिति पैदा कर दी थी। दूसरी ओर, कंपनी ने भी छोटी-मोटी नौकरी के एवज में आन्दोलन से जुड़े छोटे-छोटे काश्तकारों की निष्ठा की ख़रीद-फ़रोख्त शुरु कर दी थी। 

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     परसा की तबियत कुछ ठीक नहीं दिख रही थी। थोड़ा उदास भी दिख रहा था। गौरी उसका सर अपनी गोद में रखकर उसके बालों पर ऊँगलिया फेरती हुई उसे समझा-बुझा रही थी। 

     “ऐेसे निराश थोड़े न हुआ जाता है, जबतक हमारे लोग हमारे साथ हैं, ये हमें नहीं हटा पाएँगे, तुम बिल्कुल चिन्ता मत करो। मैं आज ही अपने लोगों को इकठ्ठा करती हूँ।”

     “ग़फूर भाई को बुलवाया था, आए नहीं क्या?” परसा ने पूछा।

     “हम आ गए हैं भईया, आप सो रहे थे तो सोचे की उठाना ठीक नहीं है।” गफ़ूर मीयाँ ने अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराते हुए कहा और सामने की ओर आकर खड़ा हो गया। अबतक वह सिराहने के पीछे बैठा हुआ था। 

     परसा ने उसे पास बुलाकर बोला, “देखिए ग़फूर भाई, यह बात सिर्फ नाक की नहीं है, यह हमसब के वज़ूद का सवाल है, अब यह सवाल इस बात का हो गया है कि हम रहेंगे, कि नहीं रहेंगे, । 

     “हाँ भईया, कुछ अपने साथी बता रहे थे कि कल वे लोग हम सबके ठेलों को वहाँ से हटवा देंगे?” ग़फूर की चिन्ता चेहरे से झलक रही थी।

     “नहीं, ठेला तो नहीं हटवा पाएँगे, कोर्ट का स्टे मिल गया है,” गौरी ने जवाब दिया।

     “देखिए ग़फूर भाई, सवाल ठेले के हटने का नहीं है, ज़रूरी है कि कल हमारे लोग ज़्यादा-से-ज़्यादा संख्या में वहाँ हमारे साथ मौजूद रहें। बरियारपुर के मुखिया जी को भी बुलवाया है, उनसे भी बात करनी है। साबिर लोग आपके साथ हैं ना?”

     “आप उन लोगों की चिन्ता मत कीजिए, सब हमारे साथ हैं, मौलवी लोग भी फेंटा बाँध लिया है, अब हो जाना चाहिए फैसला। हमारे लोग साथ हैं भईया।” 

     ग़फूर गौरी की ओर मुख़ातिब होकर बोला, “भाभी, सुनने में आया है कि चंदू और मनोज पाला बदल लिया है, बउरा गया है क्या ई दोनों!”

     परसा ने शांत भाव से कहा, “छोड़िए ग़फूर भाई, कई बार हालात भी इंसान को जयचंद बना देते हैं। आपलोगों के लिए आज की रात बहुत मायने रखेगी, आज भर का ही समय है अपनी ताक़त दिखाने के लिए। कम-से-कम चालीस ठेला एकसाथ लगना चाहिए। ख़ुदा नगर चौक वाले अपने लोगों को भी बोलिए कि कल अपना ठेला लेकर ग्लोब के सामने ही लगाएँ।”

     “सब हो जाएगा, आप चिन्ता मत कीजिए।” ग़फूर के आत्मविश्वास और सहयोग के वायदे ने परसा को एक नई स्फूर्ति दी थी।

     इसीबीच बरियारपुर के मुखिया जी आ गए। मुखिया जी को देखकर गौरी ने परसा को कंधे से पकड़कर उठाया और परसा सीधे होकर बैठ गया। मुखिया जी ने हाथ जोड़कर पहले गौरी को प्रणाम किया फिर परसा की ओर मुड़े।

     मुखिया जी बगैर किसी औपचारिकता के बोलने लगे, “एक मनोज सहनी के नहीं रहने से चौराहा ठेलों से खाली हो जाएगा, ऐसा मत सोचिएगा। अपने किसान भाई सब अपने साथ हैं। जिवधारा से भी ट्रैक्टर चल चुका है। सब्जी-फल सब का कोई दिक्कत नहीं होने देंगे, ये तो हमरा गारंटी है। हमारा लोग धोखा नहीं देगा।”

     परसा ने संतोष की सांस ली, फिर बोला, “ये तो हुई एक बात, अब इसका भी इन्तज़ाम किया जाए कि हमारे ग्राहक हमारे साथ रहें।”

     मुखिया जी ने हँसते हुए कहा, “अब ई तो भाभी का डिपार्टमेंट है, भाभी सम्भालें सभी होम मिनिस्टरों को।” इसबात पर सभी हँस पड़े।

     “हमको तो यही चिन्ता सता रही थी कि हमारे लोग उत्साहित तो हैं, लेकिन अगर किसान हमारे लोगों के हाथों अपना माल ही नहीं बेचेंगे तो हम कर क्या पाएँगे। हमने सुना है कि वे ऊँची कीमत पर एकमुश्त सबकुछ खरीद ले रहे हैं। ऐसे में तो उनसब के सामने हमसब का टिक पाना बहुत मुश्किल होगा!” परसा ने मुखिया जी से आशंका व्यक्त की।

     “देखिए प्रशान्त भाई, यह खतरा तो लगा रहेगा। अब यह हथियार तो उनके पास है ही ना, इसका क्या करेंगे? बड़ी मछलियाँ तो यह करती ही हैं।”

     इसबात पर गौरी ने परसा को बल देने की कोशिश की, “तुम इसकी चिन्ता मत करो, मैं लोगों को समझाऊँगी। और फिर ऊँची कीमत देकर कितने दिनों तक काम करते रहेंगे? हमें बरबाद करने के लिए वे सब ख़ुद को तो बरबाद नहीं कर लेंगे न?” 

     “कर लेंगे गौरी, उनके पास पचास धंधे हैं, हमें हाशिए पर ढकेलने के लिए वे एक धंधे को घाटे में भी चला सकते हैं। उनकी हालत हमारी तरह थोड़े न है कि रोज कुँआ खोदो और पानी पीओ।” 

     मुखिया ने बीच में टोंका, “छोड़िए ना प्रशान्त भाई, हमलोग सारी निगेटिव बातें क्या अभी ही कर लेंगे? भाभी, आपलोग अपनी ओर से पूरी तैयारी रखिए, हम अपना मोर्चा सम्भालते हैं। किसानों से भी बात कर लेता हूँ। देखिए, बरियारपुर, बड़हड़वा, बड़का गाँव, बोकाने इन सब गाँवों के किसान तो मेरी बात नहीं काटेंगे, दूसरों को भी देखूँगा। अब ओखल में सिर दे दिया है तो मूसल से क्या डरना! चलिए, सब हो जाएगा, आप चिन्ता मत कीजिए। अच्छा तो अब प्रशान्त भाई, हमें अनुमति दीजिए, कल मिलते हैं। कल कर ही दिया जाए गाँधी चौक पर बक्सर वाला युद्ध...।” 

     मुखिया की इस बात पर सभी मुस्कराने लगे थे। परसा भी मुस्कराने लगा। मुखिया जी की स्कॉर्पियो अपना रास्ता ले चुकी थी। लोग एक-एक करके आते, परसा से बातें करते, परसा उन्हें कुछ निर्देश देता और वे चले जाते। कार्यकर्ताओं में उत्साह था। कुछ कार्यकर्ता विभिन्न मुहल्लों में अपने-अपने लोगों से बातें करने और उन्हें समझाने-बुझाने चले गए थे तो कुछ जा रहे थे। दरअसल, क़स्बों में आय समूहों के उतने पॉकेट्स नहीं होते हैं जितने कि बड़े शहरों में होते हैं। छोटे शहरों में निम्न आय समूह के लोगों और मध्यम वर्ग लगभग एक ही वर्ग में खड़े होते हैं। इसी समूह में मज़दूर तबका भी खप जाता है जबकि उच्च मध्य वर्ग और उच्च वर्ग साथ-साथ खड़े होते हैं। इसीलिए परसा के कार्यकर्ताओं को इतनी सुविधा तो थी कि वे मध्य वर्ग से सीधे-सीधे संवाद कर पाते। अगर यही दिल्ली आदि बड़े शहरों की बात होती तो शायद उन्हें इतनी सुविधाएँ प्राप्त नहीं हो पातीं। सभी अपने-अपने काम में लग गए थे। एक दो खास कार्यकर्ता वहाँ बच गए थे। ये परसा के लिए बच्चे जैसे थे। वे भी परसा और गौरी का बहुत लिहाज करते थे इसीलिए जब परसा और गौरी अकेले होते तो वे उन्हें और भी अकेला छोड़ देने का भरसक प्रयास करते और चारपाई से थोड़ी दूर चहलकदमी करने लगते। 

     गौरी उठने को हुई और बोली, “अब मैं भी चलती हूँ प्रशान्त। बहुत लोगों से बातें करनी हैं।”

     “नहीं, तुम थोड़ा मेरे पास बैठो। मेरा मन थोड़ा ख़राब हो रहा है। गौरी, जिन बातों को लेकर हमने यह सब शुरु किया था, बात वैसी नहीं बन पायी। हमारा सवाल सिर्फ ठेले का सवाल नहीं था, और ना ही हमने अपने धंधे की सुविधा-भर का सवाल उठाया था, मैंने तो सोचा था कि हम इस अनशन के जरिए पूरे समाज को इस पूरी व्यवस्था के विरद्ध खड़ा कर पाएँगे, लेकिन बात तो बहुत महदूद हो गयी, एक खास दायरे में सिमट गयी।”

     “तुम फालतू बात बहुत सोचते हो, चलो अब सो जाओ, मुझे बहुत काम है।”

     “यह सब देखकर नींद कहाँ आएगी गौरी?”

     “तो फिर क्या उपाय है? जितनी बड़ी चादर होगी उतना ही तो पाँव भी फैला पाएँगे? वे सारे संसाधनों में हमसे बीस ही नहीं बाईस हैं, उनके पास सबकुछ है, हमारे पास कुछ भी नहीं, किया भी क्या जा सकता है? लेकिन तुम चिन्ता मत करो, हम लोगों ने लड़ाई शुरु कर दी है, आगे की लड़ाई लोग खुद-ब-खुद लड़ लेंगे।” गौरी ने परसा में हिम्मत भरते हुए उसके अशान्त मन को थोड़ा शान्त करने की कोशिश की।

     “तुमने मेरा कितना साथ दिया है गौरी, हर पल मेरे साथ खड़ी रही हो, पूरे जीवन, जबसे मेरे साथ आई हो। और मैंने तुम्हें दु:ख के सिवाय दिया ही क्या है, मैं तुम्हें कोई भी सुख नहीं दे पाया। फिर भी तुम मेरे साथ डटी रही हो, हर समय, हर हालत में।” 

     “क्यों, तुम मुझे छोड़कर भाग गए थे?”

     “तुम तो बस…! एक बात जानती हो?”

     “क्या?”

     “तुम जब मुझे प्यार से समझाती हो न, तो तुम मुझे बहुत प्यारी लगती हो,”

     “और जब तुम इस तरह उदास हो जाते हो तो मुझे बहुत ही बुरे लगते हो,” गौरी ने अपनी तर्जनी और अंगूठे से उसकी नाक दबाते हुए कहा।

     इस बात पर परसा ने गौरी की बाहें पकड़कर उसे अपनी ओर खींचना चाहा लेकिन वह छिटककर अलग हो गयी और बोल पड़ी, “छोड़ो हटो, सारे बच्चे लोग देख रहे हैं।” फिर थोड़ा थमकर बोल पड़ी, “मैं अब चलती हूँ, मुझे पच्चीस-तीस ठेलों का इन्तजाम देखना है, लोगों को समझाना है, और भी बहुत काम है, तुम आराम से लेटो, मैं सब करके आती हूँ। और हाँ, सो जाना ठीक से। तुम्हारी तबियत ख़राब हो गयी तो सारा खेल ख़राब हो जाएगा।” 

     इसी बीच जमुना दास भी आ गया। जमुना को देखकर गौरी उठकर खड़ी हो गयी और उन्हें अभिवादन करती हुई बाहर की ओर चल पड़ी। परसा गौरी को जाते हुए बहुत देर तक देखता रहा। 

     जमुना ने परसा के कानों के पास अपना मुँह लाकर सूचना दी, “भाई जी, ग़फूर मीयाँ ने ख़बर भिजवाई है कि ट्रक से कंपनी का माल ढोया जा रहा है और किसान लोग ठेले वालों को खुदरा माल बेचने को तैयार नहीं है। किसान लोग कह रहे हैं कि ‘जहाँ से ज़्यादा पइसा मिलेगा माल वहीं बेचेंगे। सब कहने लगे हैं कि जब माल एकमुश्त बिक रहा है तो खुदरा काहे बेचेंगे।’ 

     “सहनी चाचा क्या कह रहे हैं?”

     “वो तो तैयार हैं, लेकिन ललन जी और शमीम भाई लोगों ने सीधे-सीधे ‘ना’ बोल दिया है”

     “साबिर तो अपने साथ है ना?”

     “हाँ, वो साथ हैं, शायद !”

     “अच्छा चलो, देखा जाएगा। ठेला लगाने के लिए सबलोग रेडी है ना?”

     “हाँ भइया, वो तो हो जाएगा”

     “चलो तब दिक्कत नहीं है, बोल दो सबको कि अपनी रोजी-रोटी और वज़ूद का सवाल है, कोई कोताही ना करे। दो-चार दिन का तक़लीफ़ ही सही, लेकिन अपनी ताक़त दिखा देनी है।” परसा अपने लोगों की हौसला अफ़जाई में कोई कसर नहीं रहने देना चाह रहा था। 

      गौरी घूम-घूमकर परसा के नाम पर समर्थन जुटा रही थी। लोग-बाग़ गौरी को पहले से ही जानते थे, उसकी इज्जत भी करते थे इसलिए सभी उसे अपने घर के अन्दर बुलाते, बैठाते और उसे समर्थन का आश्वासन दे रहे थे। हालांकि निम्न और मध्यवर्ग की महिलाएँ तो पहले से ही मानसिक तौर पर इसबात के लिए तैयार थीं कि सब्जी-भाजी आदि तो ठेले वालों की ही ठीक होती है। उन्हें ठेलों से सब्जी खरीदने के पीछे मुख्य आकर्षण यह दिखता था कि ठेले वालों के साथ मोल-मोलाई की गुंजाइश होती थी और लावा-दुआ में भी धनिया-पत्ता जैसी चीज़ें मुफ्त में मिल जाती थीं, लेकिन ‘ग्लोब-इन-हब’ में यह सुविधा शायद उन्हें उपलब्ध नहीं हो पातीं। दूसरी तरफ, उन्हें ठेले वालों में जो अपनापन दिखता था, वह ‘ग्लोब’ में कहाँ मिल पाता! गौरी को आम समाज की महिलाओं से सहयोग का आश्वासन मिलता जा रहा था। 

     अगला दिन…।

     पूरा चौराहा जैसे ठेलों से ठसाठस भर उठा था। दो-तीन दर्जन ठेले क़तार से खम-खम खड़े हो गए थे। ठेलों पर सब्जियाँ और फल-मूल जगमग कर रहे थे। ठेले वाले अपने-अपने तौलियों को कंधों पर सम्भाले सब्जियों पर पानी का फुआर डालते जा रहे थे और ग्राहकों को ठेलों के क़रीब आने का आमंत्रण दे रहे थे। ठेले वाले अपनी-अपनी सब्जियों पर पानी का छिड़काव करके अपनी-अपनी सब्जियों को अधिक ताज़ी दिखाने की अपनी कोशिश में सतत लगे हुए थे। वे ज़ोर-ज़ोर से हाँक लगाकर लोगों का ध्यान अपनी ओर खींच रहे थे। लोग आते, थोड़ा ठहरते, इधर-उधर मोल-तोल करते और कुछ खरीदारी कर लेते। जबकि कुछ लोग मोल-तोल करते और फिर सीढ़ियाँ चढ़कर 'ग्लोब-इन-हब' में समा जा रहे थे। ठेलों पर ठोंकी गयी टीन की चादरें चम-चम चमक रही थी। ठेले की चमचम करती टीन की चादर में ‘ग्लोब-इन-हब’ का अक्स साफ-साफ दिख रहा था। ठेलों की टीन की दीवारों पर सूर्य की किरणें ऐसे छिटक रही थीं जैसे चाँदनी-सी बिखर पड़ी हो। दूसरी ओर जब शीशे में लिपटे ‘ग्लोब-इन-हब’ पर सूरज की किरणें पड़तीं, ऐसा लगता मानो वह बड़ी-बड़ी 'फ्लड लाइटों' में नहा उठा हो। ख़ूब रौनक थी। लोग लगातार आ-जा रहे थे। अन्य दिनों की तुलना में आज ग्राहकों की भीड़ थोड़ी ज़्यादा थी। शायद लोग कुछ अनहोनी की घटना के चश्मदीद गवाह बनना चाह रहे हों। हालांकि लोगबाग़ सशंकित थे लेकिन किसी अनहोनी की आशंका उस कदर नहीं दिख रही थी क्योंकि प्रशासन तो अपनी ओर से पूरी तरह तैयार बैठा था। परसा ने अपने लोगों किसी भी तरह की हिंसा नहीं करने का सख़्त निर्देश दे रखा था। इतने के बाद भी, ठेलों वालों और ‘ग्लोब’ के वर्दीधारी सुरक्षाकर्मियों के बीच थोड़े-थोड़े समय पर हल्की-फुल्की झड़प हो ही जा रही थी। सुरक्षा गार्ड बार-बार आकर ठेले वालों को सीढ़ियों से थोड़ी दूरी बनाये रखने की हिदायत दे देते और इसबात पर ठेले वाले भड़क उठते। चूँकि अधिकतर सुरक्षाकर्मी कल तक ठेले वालों के साथी ही रहे थे और परसा के आन्दोलन में कंधे-से-कंधा मिला कर लड़ते रहे थे, इसीलिए उनकी 'ग्लोब-इन-हब' के प्रति की वफ़ादारी ठेले वालों को और भी ज्यादा चिढ़ा जा रही थी।

     सुरक्षा गार्ड की वर्दी में चंदू आने-जाने वाले लोगों का मुस्तैदी से अभिवादन कर रहा था। उसने वहीं खड़े-खड़े ही ठेले वालों को सीढ़ियों से दूर रहने की सख्त हिदायत दी। ठेले वालों को चंदू की बात अंदर तक चुभ गयी और ठेले वाले और चंदू के बीच बहस शुरु हो गयी।

     “काहे दूर हट जाएँ? हम अपने जगह पर खड़ा हैं, तुम्हारे मालिक ने क्या रोड भी अपने नाम लिखवा लिया है?”

     “दूर हो जाओ, सुनाई नहीं दे रहा है? लोगों को आने-जाने में दिक्कत हो रहा है, दिख नहीं रहा है तुम लोगों को, भगवान नयन नहीं दिए हैं का?” 

     इसीबीच एक ठेले वाला अपना ठेला छोड़ सीढ़ियाँ चढ़ने लगा और चंदू को ललकार उठा, “अरे निमकहराम, आज ग्लोब के साथ चला गया है तो तेरी-मेरी बतिया रहा है? परसा भईया और गौरी भाभी के घर में थरिया-भर खाता था, तब कहाँ गया था तुम्हारा ई तेरी-मेरी?” 

     उसे सीढ़ियाँ चढ़ते देख और दो ठेले वाले उसके पीछे भागे। दोनों ने उसे थाम लिया और खींचकर वापस चलने को मनाने लगे। इधर चंदू भी ताव में आ गया, ललकार का जवाब देते हुए सीढ़ियाँ उतरने लगा। चंदू को भी दूसरे सुरक्षा गार्डों ने पकड़ लिया और खींचकर ऊपर की ओर ले जाने लगे। एक ठेले वाले को दो लोग पीछे की ओर खींच रहे थे। 

     वह चिल्लाता जा रहा था, “अरे ठेला क्यों हटाएँगे? किसी के बाप का जगह नहीं है। तुमको ले जाना है तो अपना ग्लोब लेके भागो यहाँ से, बाप-दादा का पुश्तैनी धंधा इनके कहने से छोड़ दें?” 

     बाकी के दो ठेले वाले उसे नीचे की ओर ले जाते हुए ज़ोर-ज़ोर से बोलकर पहले वाले का समर्थन करते जा रहे थे, “तुमको जो बेचना है बेचो, हम क्या रोक रहे हैं? हम भी बेच रहे हैं, तुम्हारा छीनकर थोड़े ना बेच रहे हैं। गाहक को जहाँ अच्छा लगेगा वहाँ से खरीदेगा।” 

     चंदू को दो-तीन गार्ड खींचकर ऊपर बरामदे तक ले जा चुके थे। वे दोनों सुरक्षा गार्ड भी चिल्लाकर ठेले वालों को भला-बुरा बोलते जा रहे थे। शोर-शराबा सुनकर मनोज सहनी अन्दर से बाहर निकला। वह पूरे सूट-बूट में था। हाथ में वॉकी-टॉकी लिए था। उसे सामने देखकर सुरक्षागार्ड शान्त हो आए और चंदू का भी ताव जाता रहा। उसने शान्त भाव से मनोज की ओर देखकर बोला, “मनोज भाईजी सर, ये सब अंटर-शंटर बोल रहे हैं।” मनोज सहनी ने सीढ़ियों से नीचे देखा। मनोज को सूट-बूट में देखकर ठेले वाले और भड़क गए। ठेले वाले उसे भी भला-बुरा कहने लगे। एक ठेले वाला आधी सीढ़ियाँ चढ़कर ज़ोर से बोला, “नमकहराम….!” 

     मनोज सहनी ने अपने गार्डों की ओर देखा और शान्त रहने का इशारा किया। फिर चंदू के नज़दीक जाकर, समझाने वाले अंदाज़ में धीरे से बोला, “अंदर जाओ, छोटे लोगों के मुँह नहीं लगना चाहिए।”

     मनोज सहनी ने ठेले वालों पर एक क्रोध भरी नज़र डाली और शीशे के बड़े से स्वचालित दरवाज़े के अन्दर समा गया। ठेले वाले भी उसकी ओर हिकारत भरी नज़रों से देखते रहे।
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