राजदीप सरदेसाई —क्या CBI की तरह NIA भी ‘पिंजरे में बंद तोता’ है @sardesairajdeep #Malegaonblasts


Rajdeep Sardesai on politics and India's Defense

सच की अनदेखी, सुरक्षा से समझौता 

— राजदीप सरदेसाई 


आप कहां खड़े हैं, यह इससे तय होता है कि आप बैठे कहां हैं,’ कांग्रेस सांसद शशि थरूर ने हाल में सत्ता के बाहर और भीतर रहने पर राजनीतिक दलों के बदलते रुख पर टिप्पणी करते हुए यह कहा था। मसलन, आप विपक्ष में होते हैं तो आर्थिक सुधार को पटरी से उतार देते हैं, सरकार में आते ही इस पर जोर देने लगते हैं : जीएसटी पर हो रही बहस को देखिए। चुनाव प्रचार में आप कहते हैं कि भ्रष्टाचार को बिल्कुल सहन नहीं करेंगे, लेकिन सत्ता में आने के बाद इस पर समझौता करते हैं : ममता के बंगाल में ‘सिंडिकेट’ का प्रभाव देखिए। आप विपक्ष में रहते अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के समर्थक होते हैं, सत्ता में आते ही इसकी आवाज दबाना चाहते हैं : इंटरनेट की स्वतंत्रता और आईटी अधिनियम की धारा 66 ए पर पाखंड देखें। घोषणा-पत्र तैयार करते हैं तो वैचारिक दृढ़ता दिखाते हैं, लेकिन सत्ता के लिए लचीलापन अपनाते हैं : जम्मू-कश्मीर में भाजपा-पीडीपी या बंगाल में कांग्रेस-वाम गठबंधन को लीजिए।

राष्ट्रीय सुरक्षा

किंतु तब क्या होगा जब ऐसे रवैये का संबंध आतंकवाद से हो? राष्ट्रीय सुरक्षा ऐसा मुद्‌दा है, जिस पर राजनीतिक समझौता स्वीकार्य नहीं हो सकता या हमारे नेता नैतिक रूप से इतने दीवालिया हो गए हैं कि दलगत एजेंडे के लिए आतंकवाद की भी अनदेखी कर देंगे? इशरत जहां ‘मुठभेड़’ मामला और ‘भगवा’ आतंक से जुड़े मामले देखिए : पता चलेगा कि दोनों मुख्य दल भाजपा व कांग्रेस सुरक्षा तंत्र का (और मीडिया का भी) इस्तेमाल अपने विरोधियों को ठिकाने लगाने में कर रहे हैं।

इशरत जहां

पहले इशरत जहां मामला। ‘मुठभेड़’ 2004 में हुई, यूपीए के सत्ता में आने के एक माह से भी कम समय बाद। इसके 12 साल बाद भी तीन प्रमुख प्रश्नों के उत्तर नहीं मिले हैं। एक, क्या इशरत जहां वाकई लश्कर की आतंकी थी या गुजरात के तब के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को खत्म करने की आतंकी साजिश की मासूम ‘शिकार’ थी? अखबारी खबरों, इलेक्ट्रॉनिक साधनों से पकड़ी गई कथित खुफिया जानकारी तथा लश्कर वेबसाइट से मिली जानकारी पर आधारित आईबी की शुरुआती रिपोर्ट में उसे आतंकी बताया गया था। किंतु बाद में अदालत की निगरानी में गुजरात के वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी के नेतृत्व में गठित एसआईटी की रिपोर्ट और सीबीआई के आरोप-पत्र में इशरत के आतंकी संपर्क को महत्व नहीं दिया गया। अब 26/ 11 हमले के आरोपी डेविड हेडली के ‘कबूलनामे’ के हवाले से हमें बताया जा रहा है कि हेडली ने लश्कर के किसी ऐसे आतंकी मॉड्यूल के बारे में ‘सुना’ था, जिसमें इशरत नाम की महिला थी। किंतु क्या ‘सुनी’ हुई बात मबजूत मामला तैयार करने के लिए पर्याप्त है?

गृह मंत्रालय के हलफनामे को क्यों बदला गया

दूसरा प्रश्न तो इससे भी विचलित करने वाला है: मामले में गृह मंत्रालय के हलफनामे को क्यों बदला गया? पहला हलफनामा मूल आईबी रिपोर्ट पर आधारित था, जिसमें कहा गया था कि इशरत आतंकी साजिश में शामिल थी। दूसरे हलफनामे में उसके आतंकी गुट से संबंध का संदर्भ चुपचाप हटा दिया गया। उस समय पी. चिदंबरम गृह मंत्री थे, जो अनुभवी वकील और राजनेता हैं। उनसे अपेक्षा रहती है कि वे ऐसे बदलाव लाने में पूरी मेहनत करें, उचित सतर्कता बरते जिसमें मंत्रालय के वरिष्ठ अधिकारियों की अनदेखी न की गई हो। ये बदलाव इतनी गोपनीयता में और आईबी की राय की खुली अवहेलना करके क्यों किए गए? क्या ऐसा इसलिए था कि इशरत मामले का संबंध गुजरात सरकार और मोदी से था? क्या मुठभेड़ का कोई अन्य मामला है, जिसमें गृहमंत्री ने ऐसी व्यक्तिगत रुचि दिखाई हो?

केंद्र में सत्ता का समीकरण बदल गया है ?

अब तीसरा महत्वपूर्ण प्रश्न : इशरत फर्जी मुठभेड़ में मारी गई या नहीं? जस्टिस एसपी तमांग की मेट्रोपोलिटन अदालत के 2010 के विस्तृत फैसले में इसे फर्जी मुठभेड़ कहा गया था और सालभर बाद दायर सीबीआई के आरोप-पत्र में अहमदाबाद पुलिस की अपराध शाखा और आईबी अधिकारियों पर साजिश का सीधा आरोप लगाया गया था। गुजरात पुलिस के एक वरिष्ठ अधिकारी ने धारा 164 के तहत बयान दर्ज कराते हुए पुष्टि की थी कि यह फर्जी मुठभेड़ थी। किंतु पिछले कुछ महीनों से सेवानिवृत्त नौकरशाह और पुलिस अधिकारी विपरीत बयान दे रहे हैं। क्या तब सीबीआई की जांच गुजरात सरकार को घेरने के उद्‌देश्य से थी या अब मामले में खास जानकारी सिर्फ इसलिए ‘लीक’ की जा रही है, क्योंकि मामला निर्णायक दौर में है और केंद्र में सत्ता का समीकरण बदल गया है? खेद है कि कर्कश मीडिया बहस से रेखांकित ध्रुवीकृत राजनीति में प्रश्न सुविधा के अनुसार तय किए जा रहे हैं, सच की तलाश के लिए नहीं।

अब ‘हिंदू अातंकवाद’ की जांच। यूपीए के सत्ता में रहते पूरे एक दशक एनआईए ने दक्षिणपंथी गुटों से जुड़े विस्फोट के कई मामले उजागर करने का दावा किया था। अब गत दो वर्षों में कई गवाह बयान से मुकरे हैं, सरकारी वकील ‘नरम रवैया’ अपनाने के दवाब का आरोप लगाते हुए इस्तीफा दे रहे हैं और जांचकर्ता आरोपियों को क्लीन चिट दे रहे हैं। 2008 के मालेगांव मामले को ही लीजिए : आठ साल से मुख्य अभियुक्त प्रज्ञा ठाकुर और कर्नल एस. पुरोहित आतंकवाद विरोधी कानूनों के तहत जेल में बंद हैं। अब गवाह दबाव डालकर बयान लेने की बात कर रहे हैं। क्या इसका आशय यह है कि जांच का नेतृत्व करने वाले दिवंगत हेमंत करकरे जैसे असंदिग्ध सत्यनिष्ठा वाले अधिकारी आरोपियों को ‘ठिकाने’ लगा रहे थे? समझौता एक्सप्रेस विस्फोट मामले में दक्षिणपंथी गुटों से जुड़े आठ व्यक्तियों पर आरोप-पत्र दायर करने के बाद एनआईए इसमें लश्कर के रोल का पता लगा रही है।


स्वामी असीमानंद के धारा 164 के तहत दिए इकबालिया बयान का क्या होगा

क्या कुछ ही माह में कोई मामला इतना बदल सकता है कि लगभग हर गवाह ही मुकर रहा है? फिर प्रमुख अभियुक्त स्वामी असीमानंद के धारा 164 के तहत दिए इकबालिया बयान का क्या होगा, जिसमें व्यापक ‘हिंदुत्व’ आतंकी नेटवर्क होने की बात स्वीकारी गई थी या यह बयान भी दबाव डालकर हासिल किया गया था? इससे हम यह सोचने पर मजबूर होते हैं कि या तो यूपीए के तहत पुलिस जान-बूझकर संघ परिवार से जुड़े ‘हिंदुत्व’ आतंकी गुटों को निशाना बना रही थी या वही अधिकारी एनडीए के मातहत ये मामले खत्म करने के लिए उत्सुक हैं। क्या सीबीआई की तरह एनआईए भी ‘पिंजरे में बंद तोता’ है, जिसकी जांच उसके राजनीतिक आकाओं के हितों से तय होती है? यदि आतंकवाद से जुड़े मामले भी राजनीति के बंधक होंगे तो फिर अापराधिक न्याय प्रणाली पर किसे भरोसा होगा? बहुत सारे सवाल हैं, लेकिन जवाब थोड़े ही हैं!

पुनश्च : इस हफ्ते मालेगांव के आठ रहवासियों को 2006 में हुए विस्फोट मामले में बरी कर दिया गया। ये सभी मुस्लिम हैं और एनआईए का दावा है कि उसके पास उनके खिलाफ कोई सबूत नहीं है। इन लोगों ने जेल से अंदर-बाहर होते हुए पूरा दशक गुजार दिया। वे चाहे अंतत: रिहा हो गए, लेकिन उन्हें उनके खोए हुए दस साल कौन लौटाएगा?

(ये लेखक के अपने विचार हैं।)

राजदीप सरदेसाई
वरिष्ठ पत्रकार
rajdeepsardesai52@gmail.com

दैनिक भास्कर से साभार
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