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धर्म की स्वतंत्रता परम नहीं वरन... राजदीप देसाई #TripleTalaq



राजदीप देसाई : मेरी बात

My Take: Freedom of religion is not absolute, can be subject to right to equality

सुप्रीम कोर्ट के द्वारा एक बड़ा कदम उठाते हुए, तीन तलाक़ को असंवैधानिक क़रार देने से, इस्लामिक शरीयत के तहत, पीछे धकेलने वाली सामाजिक प्रथा का अंत हुआ है।




सन्देश स्पष्ट है कि अनुच्छेद 25 के तहत मिलने वाली, धर्म की स्वतंत्रता परम नहीं वरन समानता के अधिकार पर निर्भर है

सबकी सहमति बनाने के लिए, इससे, एक बड़ी बहस —  हर समुदाय को जेंडर जस्टिस की कसौटी पर परखने वाली 'समान नागरिक संहिता' और निजी कानूनों को संहिताबद्ध करने की आवश्यकता पर — छिड़नी चाहिए।

यह बहस मुस्लिम-केन्द्रित नहीं हो सकती इसमें नागरिक पहले होगा: हिन्दू उत्तराधिकार से लेकर मुस्लिम तलाक कानून तक; हर धर्म की कुप्रथाओं पर बहस करते हुए ‘न्यू’ इण्डिया का निर्माण किया जाए। लेकिन भूलियेगा नहीं, सिर्फ कानूनी बदलावों से कुछ नहीं होगा, सोच भी बदलनी होगी।



तब तक, भविष्य के प्रति आशा जगाने वाले बहुमत के निर्णय और हिम्मती महिलाओं के लिए कि वो मुल्लाओं से टक्कर ले सकीं.... थ्री चियर्स !!!   ।


(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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मुद्दा बेटा बचाओ न बनने पाए — #राजदीप_सरदेसाई | #ChandigarhStalking


Varnika Kundu

मेरी बात

— राजदीप सरदेसाई

वर्णिका (Varnika Kundu) के साथ जो हुआ वह  हमारी किसी भी बेटी की कहानी हो सकती है। क्योंकि वह एक आईएस ऑफिसर की बेटी है तो हो सकता है, अपना पीछा करने वालों —  जिनमें से एक राज्य बीजेपी अध्यक्ष का बेटा है — से मुकाबला करने कि उसे थोड़ी अधिक शक्ति मिलती हो। मीडिया ट्रायल करने की हमारी कोई इच्छा नहीं है लेकिन जब आरोपों को कमज़ोर बनाया जाए, जब पुलिस स्टेशन पर पार्टी कार्यकर्ताओं का जमावड़ा हो, जब आरोपी को फौरन जमानत मिल जाये, जब सोशल मीडिया पर पीड़िता को नीचा दिखाने का अभियान चलाया जाये, तब यही संदेह होगा कि राजनीतिक दबाव पूरे ज़ोर पर है। और इसलिए बीजेपी आलाकमान को यह निश्चित करना होगा कि बिना किसी वीवीआईपी-दबाव के मामले की निष्पक्ष जांच हो। आखिरकार, प्रधानमंत्री बार-बार बेटी बचाओ की बात करते हैं: देखियेगा, यह मुद्दा बेटा बचाओ न बनने पाए। 





(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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भ्रष्टाचार Vs सांप्रदायिकता: भटकाती राजनीति — #राजदीप_सरदेसाई



राजनीतिक दोगलेपन ढंकते नारों का पर्दा...

Rajdeep Sardesai


‘हम नरेंद्र मोदी, अमित शाह और आरएसएस को हराकर धर्मनिरपेक्षता का बचाव करने के लिए एकजुट हो रहे हैं,’ अपने खास अंदाज़ में लालू यादव ने सितंबर 2015 में बिहार विधानसभा चुनाव के ठीक पहले मुझे दिए इंटरव्यू में कहा था। नीतीश कुमार ने भी पूरे जोश के साथ दलील दी थी, ‘हमारी सबसे बड़ी चुनौती सांप्रदायिक ताकतों को पराजित करना है, जिसका प्रतिनिधित्व मोदी करते हैं।’ फरमा तैयार था: 2015 के पतझड़ में धर्मनिरपेक्षता के दुर्ग को केसरिया हमले से बचाया जाना था। अब लगभग दो साल बाद राजनीति के ये उसूल बदल दिए गए और अब: अब धर्मनिरपेक्षता ऐसा आदर्श नहीं रहा, जिसके लिए संघर्ष किया जाए, क्योंकि बिहार के मुख्यमंत्री के शब्दों में भ्रष्टाचार के खिलाफ ‘जीरो टॉलरेंस’ (बिल्कुल बर्दाश्त न करना) होना चाहिए।



Triple Talaq Essay
प्रशंसकों के बीच सेल्फी खिंचवाते राजदीप सरदेसाई (फ़ोटो: भरत तिवारी)

भ्रष्टाचार और सांप्रदायिकता को दो ऐसी (प्रतिद्वंद्वी) ताकतों की तरह दिखाया जा रहा है, जो एक-दूसरे को खत्म करने की लड़ाई में उलझे हैं। पूरी बहस को इतनी चतुराई से गढ़ा गया है जैसे कि आपको यह तय करना है कि भ्रष्टाचार से लड़ना है अथवा सांप्रदायिकता का बहिष्कार करना है और आप दोनों के खिलाफ़ हो कर राजनीति नहीं कर सकते। इस प्रक्रिया में हमारे नेताओं का नैतिक दीवालियापन एक बार फिर उजागर हो गया है। जैसा कि नीतीश कुमार और लालू यादव की जीवनी के लेखक संकर्षण ठाकुर ने लिखा, ‘अब अंतरात्मा की आवाज पर फैसले की नहीं, फैसले को आत्मा से स्वीकार करने की बात है।’

यह ‘धर्मनिरपेक्षता’ और ‘भ्रष्टाचार विरोध’ दोनों को साथ खड़ा किये जाने का क्लासिक केस है। राजनीतिक दोगलेपन ढंकते नारों का पर्दा। मसलन, जब नीतीश मोदी विरोधी ‘महागठबंधन’ के हिस्से बने तो क्या वे ‘धर्मनिरपेक्ष’ हो गए और मोदी का हाथ थामते ही ‘सांप्रदायिक’ हो जाते हैं? क्या मोदी विरोध ही ‘धर्मनिरपेक्षता’ को परिभाषित करने की कसौटी है या फिर देश की उस बहुलतावादी नीति के प्रति अकाट्य निष्ठा है जो जो बहुसंख्यक राज्य को समर्थन देने वालों से कोई समझौता नहीं करेगी। वैसे भी नीतीश भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए में 17 साल रहे और 2002 गुजरात दंगों के खिलाफ कोई आवाज नहीं उठाई, जबकि वे वाजपेयी मंत्रिमंडल में रेल मंत्री थे। क्या आरएसएस की विचारधारा उन्हें तभी अभिशप्त लगी जब जून 2013 में मोदी ने भाजपा का नेतृत्व हाथ में लिया?




यदि नीतीश को लगता है कि उन्हें ‘भ्रष्ट’ लालू व परिवार के साथ नहीं देखा जाना चाहिए, तो क्या विधानसभा को भंग कर बिहार की जनता के सामने जाना बेहतर नहीं होता? यदि वे खुद को गैर-सांप्रदायिक, सुशासन बाबू कहलाना चाहते हैं तो भाजपा-राजद दोनों से अलग रास्ते पर चलना उनके लिए सम्मानजनक नहीं होता? अथवा वे अपनी सीमाएं जानते हैं कि नैतिक आभामंडल ओढ़ने के बावजूद उनका इतना आधार नहीं है कि वे बिहार में अपने बल पर चुनाव लड़ सकें? नीतीश ही एकमात्र मामला नहीं है जहां सुविधा ने निष्ठा को मात दी है। मुंबई कांग्रेस प्रमुख संजय निरुपम ने शिवसेना सांसद के रूप में कॅरिअर शुरू किया। उन्होंने शिवसेना के उस मुखपत्र का संपादन भी किया, जिसने 1992-93 के मुंबई दंगों के दौरान खूब जहर उगला था। क्या निरुपम सिर्फ इसलिए धर्मनिरपेक्षता की लड़ाई के मोर्चे पर हो सकते हैं, क्योंकि उन्होंने पाला बदल लिया है? गुजरात में शंकरसिंह वाघेला पिछले 15 वर्षों से कांग्रेस का चेहरा रहे हैं, जबकि अपने राजनीतिक जीवन के अधिकांश हिस्से में वे संघ परिवार के समर्पित सदस्य रहे हैं। क्या अब वे अचानक अपनी ‘धर्मनिरपेक्ष’ पहचान गंवा चुके हैं, क्योंकि उन्होंने कांग्रेस से इस्तीफा देकर मोदी के जगन्नाथी रथ से सुलह कर ली है? खेद है कि धर्मनिरपेक्षता के तथाकथित झंडाबरदार संकुचित व सहूलियत की राजनीति के कारण अपना नैतिक अधिकार खो देते हैं।

भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई भी राजनीतिक सुविधा के अनुसार इसकी अनदेखी करने के कारण कमजोर कर दी गई है। 2015 में लालू यादव चारा घोटाले में दोषी पाए गए थे लेकिन, फिर भी मोदी विरोधी गठबंधन में महत्व रखते थे, क्योंकि उनके पास अहम वोट बैंक था। ‘जंगल राज’ भुला दिया गया, क्योंकि धर्मनिरपेक्ष मूल्य दांव पर थे और चुनाव जीतना जरूरी था। अब नीतीश उन्हीं लालू को उन्हीं मोदी के लिए त्याग रहे हैं, जिन्हें वे और उनके समर्थक हिटलर जैसा तानाशाह मानते थे। क्या राहुल गांधी वह भ्रष्टाचार विरोधी अध्यादेश फाड़ने का औचित्य बता सकते हैं, जिसे 2013 में लालू को बचाने के लिए लाया गया था और दो साल बाद वे उसी लालू के साथ खड़े नज़र आते हैं? पाखंड सारे दलों में हैं।




क्या लालू को भ्रष्टाचार का सबसे बड़ा प्रतीक बताने वाली भाजपा बता सकती है कि कर्नाटक में उसने बड़े पैमाने पर धोखाधड़ी के आरोपी खदान मालिक रेड्डी बंधुओं के समर्थन से सरकार क्यों चलाई? अथवा उसने बड़ी खुशी से उत्तराखंड में कांग्रेस छोड़कर आने वालों से हाथ क्यों मिलाया, जिन पर वह तब भ्रष्टाचार के आरोप लगाती थी, जब वे कांग्रेस में थे? भाजपा के राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ मामलों को सीबीआई तेजी से आगे क्यों बढ़ा रही है, जबकि मध्यप्रदेश व छत्तीसगढ़ जैसे भाजपा शासित राज्यों में ऐसे मामले दबाए जा रहे हैं? या भ्रष्टाचार का सरकारी पैमाना इस निर्लज्ज रवैए पर आधारित है कि आप तभी भ्रष्ट है, जब सरकारी एजेंसियां आपको ऐसा कहें?

सच तो यह है कि भ्रष्टाचार और साम्प्रदायिकता दोनों का बिना पक्षपात व समझौता किए विरोध करना होगा। दोनों के बीच कोई भी झूठा फर्क पैदा करने के खतरे भाजपा द्वारा योगी आदित्यनाथ को उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाने में जाहिर है। बेशर्मी से सांप्रदायिक नफरत को भड़काने वाले नेता के लिए तब तालियां बजाई गईं जब उन्होंने उत्तर प्रदेश को अपराध और भ्रष्टाचार से मुक्त करने का वादा किया। क्या योगी का द्वेषपूर्ण भूतकाल इसलिए भुला दिया जाए, क्योंकि अब वे भ्रष्टाचार के खिलाफ स्वयंभू योद्धा हो गए हैं?

पुनश्च: पिछले हफ्ते भाजपा की इंटरनेट आर्मी और नीतीश समर्थक वह डिलिट करने में व्यस्त थे, जो दोनों ने एक-दूसरे के बारे में पिछले चार साल में सोशल मीडिया पर कहा था। मैं उन्हें थोड़ा ठहरने का सुझाव दूंगा, क्योंकि कौन जानता है कि राजनीतिक ‘हवा’ कब बदल जाए?


(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
लेख भास्कर से (सुधार सहित) साभार
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मीडिया का सवाल — #राजदीप_सरदेसाई


जब मीडिया संस्थानों का मालिक कौन है —  पता ही नहीं हो, तब नेताओं और उनकी भाड़े की सेनाओं के लिए हमें ‘प्रेस्टीट्यूटस’ कहना आसान हो जाता है।

कभी स्वयं बेहद लोकप्रिय और बातचीत पसंद बीजेपी प्रवक्ता रहे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने खुद को मीडिया के सवालों की पहुँच से दूर कर लिया है। 

When the country’s most powerful politicians won’t take ‘political’ questions, isn’t that indicative of the skewed nature of our democracy?
When the country’s most powerful politicians won’t take ‘political’ questions, isn’t that indicative of the skewed nature of our democracy? (Getty Images/iStockphoto)

माहौल ऐसा बनाया जा रहा है कि जिम्मेदार लोगों से सवाल किया जाना ‘एंटी-नेशनल’ के रूप में देखा जाये, प्रभावशाली मीडिया को बचाव का रुख अपनाने पर मजबूर कर दिया गया है


मीडिया या विपक्ष हमें यह न बताएं कि किसानों के लिए क्या करने की जरूरत है। हम नकारात्मक, नुक्ताचीन विपक्ष या ‘सब-पता-है वाला मीडिया’ जिन्हें जमीनी हकीकत का कुछ पता नहीं है, से बात करने की बजाय किसानों से बात करना पसंद करेंगे।’ भाजपा प्रवक्ता जीवीएल नरसिम्हा राव ने 12 जून को टीवी पर एक चर्चा में कहा। सरल-सा प्रश्न था कि क्या नोटबंदी ने ग्रामीण अर्थव्यवस्था को प्रभावित किया है और क्या यह किसानों में बढ़ती बेचैनी की वजह है! तो सत्तारूढ़ दल के मीडिया से खुश नेताओं में से एक का मीडिया के खिलाफ रुख अपनाना दिखाता हैं कि सत्ता कैसे अहंकारी बना देती है, अहसमति सुनने से रोकती है।

क्या नोटबंदी पर एक श्वेतपत्र की मांग जायज नहीं है?  — राजदीप सरदेसाई

लेकिन राव साहब को ही दोष क्यों दें, जिनका रात्रि-कार्य ही प्राइम टाइम टीवी पर सरकार का बचाव करना है। मीडिया के प्रति तिरस्कारपूर्ण दृष्टिकोण तो ठीक शीर्ष से शुरू होता है। प्रधानमंत्री ने तो मुख्यधारा के मीडिया को दरकिनार करके ट्विटर मैसेज और रेडियो की फील-गुड एकतरफा मासिक ‘मन की बात’ को तरजीह दी है। न बेरोकटोक प्रेस कॉन्फ्रेंस ,न विदेश यात्राओं में पत्रकारों को साथ ले जाना, बस है तो केवल पहले से तय सवालों पर किया जाने वाला इंटरव्यू। कभी स्वयं बेहद लोकप्रिय और बातचीत पसंद बीजेपी प्रवक्ता रहे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने खुद को मीडिया के सवालों की पहुँच से दूर कर लिया है।

कभी स्वयं बेहद लोकप्रिय और बातचीत पसंद बीजेपी प्रवक्ता रहे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने खुद को मीडिया के सवालों की पहुँच से दूर कर लिया है। 


अभी तक हमें यह क्यों नहीं पता कि नोटबंदी से बैंकतंत्र के पास कितनी मुद्रा वापस आयी?

यह इसी का परिणाम है कि आज तक उनकी सरकार द्वारा उठाए सबसे बड़े कदम पर उनसे कोई गंभीर संवाद नहीं हो पाया है। मसलन, अभी तक हमें यह क्यों नहीं पता कि नोटबंदी से बैंकतंत्र के पास कितनी मुद्रा वापस आयी? या फिर काले धन या जाली नोटों के खिलाफ सरकार के ‘युद्ध’ का असल में क्या हुआ? क्या नोटबंदी पर एक श्वेतपत्र की मांग जायज नहीं है? दुर्भाग्य से माहौल ऐसा बनाया जा रहा है कि जिम्मेदार लोगों से सवाल किया जाना ‘एंटी-नेशनल’ के रूप में देखा जाये, प्रभावशाली मीडिया को बचाव का रुख अपनाने पर मजबूर कर दिया गया है और ऐसे में मीडिया या तो खुद अपने पर सेंसरशिप लागू कर रहा या फिर ‘स्थापित्व/सत्ता’ के चारण की भूमिका निभा रहा है, या दोनों के बीच झूल रहा है।

दुखद है कि मीडिया के अधिकार का बचाव करने की बजाय पाठकों व दर्शकों का एक बड़ा तबका इस धुंधले में रखने वाले, निरंकुश, सत्तावादी नेतृत्व का तालियां बजाकर प्रोत्साहन कर रहा है। ऐसा हमेशा नहीं रहा है,  70 के दशक में जब इंदिरा गांधी ने मीडिया पर रोक लगा दी तो विरोध में खड़े हुए लोगों का सम्मान हुआ था। 1980 के दशक में जब राजीव गांधी ने मानहानि विधेयक लाये ताकि मीडिया का मुंह बंद किया जा सके तो मीडिया ने एकस्वर से इसका विरोध किया। मीडिया के विरुद्ध सत्ता के मनमाने इस्तेमाल की लगभग हर घटना में आम जनता हमारे साथ हुआ करती थी। अब वह बात नहीं रही : अब जब कोई नेता मीडिया पर बरसता है तो बहुत बड़ा श्रोतावर्ग ऐसा होता है, जो खड़ा होकर तमाशा देखता है, तालियां बजाता है। —  राजदीप सरदेसाई

लेकिन अकेले प्रधानमंत्री को ही क्यों कहें ? कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी करीब दो दशकों से सार्वजनिक जीवन में हैं लेकिन, उन्होंने कभी राजनीतिक भ्रष्टाचार जैसे विवादास्पद सवालों का जवाब देने की इच्छा नहीं दिखायी । पिछले नवंबर में मुझे सोनिया गांधी का इंटरव्यू लेने का दुर्लभ अवसर मिला। इंटरव्यू के ठीक पहले साफ कर दिया गया कि इंदिरा गांधी की जन्मशती समारोह के मौके पर केवल उनसे संबंधित प्रश्न ही पूछे जा सकेंगे। एकदम स्पष्ट था, ‘कोई राजनीतिक प्रश्न नहीं!’ देश के शीर्ष नेताओं में से एक जब ‘राजनीतिक’ प्रश्न स्वीकार नहीं करेगा,तो क्या यह हमारे लोकतंत्र के विकृत स्वरूप का नहीं दिखाता है?

क्या हम ऐसे युग में आ गए हैं जहां ‘लोकतांत्रिक शासकों’ ने लोकतंत्र के चौथे स्तंभ को दरकिनार करके सीधे अपने मतदाताओं से मुखातिब होने का तय कर लिया है? —  राजदीप सरदेसाई

सार्वजनिक जीवन में मौजूद लोगों का जवाबदेह  बनने से इस तरह बचना अब वायरस की तरह पूरी राजनीतिक प्रणाली में फैल गया है। 2015 में जब मैं ममता बनर्जी का इंटरव्यू ले रहा था तो वे बीच में ही उठकर चली गईं, क्योंकि मैंने शारदा चिट फंड घोटाले का मुद्‌दा उठा लिया था। ममताजी तो कम से कम इंटरव्यू के लिए राजी हुईं; मायावती ने तो पूरे एक दशक में एक भी इंटरव्यू नहीं दिया, इसलिए उनके पास अकूत संपत्ति होने के आरोपों का हमारे पास अब तक कोई जवाब नहीं हैं। एक अभिमानी सम्राज्ञी की तरह जयललिता ने अपने किले पोएस गार्डन से बाहर आकर प्रेस से मिलने से इनकार कर दिया था, नवीन पटनायक भी ओडिशा में ऐसी ही नीति का पालन करते हैं, और केरल में पिनारायी विजयन तो मीडिया के प्रति अपने बैर छुपाते भी नहीं।

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जब मीडिया संस्थानों का मालिक कौन है —  पता ही नहीं हो, तब नेताओं और उनकी भाड़े की सेनाओं के लिए हमें ‘प्रेस्टीट्यूटस’ कहना आसान हो जाता है। 



इससे मैं मूल प्रश्न पर आता हूं : क्या हम ऐसे युग में आ गए हैं जहां ‘लोकतांत्रिक शासकों’ ने लोकतंत्र के चौथे स्तंभ को दरकिनार करके सीधे अपने मतदाताओं से मुखातिब होने का तय कर लिया है? सत्ता से सच बोलने की पत्रकार की महत्वपूर्ण भूमिका के लिए गुंजाइश ही कहां है? यह जानकर कि रोजमर्रा की पत्रकारिता के सुचारू रूप से चलने के लिए नेताओं तक पहुंच की निर्णायक भूमिका है, सत्ता के प्रवेश-द्वार को रक्षा घेरे में डाल दिया गया है। यह सिर्फ दिल्ली की बात नहीं। कई राज्यों की राजधानियों में यही हाल है। राज्य सचिवालय पत्रकारों को प्रवेश ही नहीं देते। कई बार तो राज्य से मान्यता प्राप्त पत्रकारों को भी ठुकरा दिया जाता है। 

दुखद है कि मीडिया के अधिकार का बचाव करने की बजाय पाठकों व दर्शकों का एक बड़ा तबका इस धुंधले में रखने वाले, निरंकुश, सत्तावादी नेतृत्व का तालियां बजाकर प्रोत्साहन कर रहा है। ऐसा हमेशा नहीं रहा है, 70 के दशक में जब इंदिरा गांधी ने मीडिया पर रोक लगा दी तो विरोध में खड़े हुए लोगों का सम्मान हुआ था। 1980 के दशक में जब राजीव गांधी ने मानहानि विधेयक लाये ताकि मीडिया का मुंह बंद किया जा सके तो मीडिया ने एकस्वर से इसका विरोध किया। मीडिया के विरुद्ध सत्ता के मनमाने इस्तेमाल की लगभग हर घटना में आम जनता हमारे साथ हुआ करती थी। अब वह बात नहीं रही : अब जब कोई नेता मीडिया पर बरसता है तो बहुत बड़ा श्रोतावर्ग ऐसा होता है, जो खड़ा होकर तमाशा देखता है, तालियां बजाता है।

शायद हम मीडिया कर्मियों को भी अंतरावलोकन की जरूरत है कि हमने ऐसा क्यों होने दिया। जब टेलीविजन में ‘समझ’ की जगह ‘सनसनी’ ले, जब राजनीतिक व विचारधारात्मक झुकाव तय करे कि क्या समाचार दिखाया जायेगा और क्या नहीं, जब मीडिया संस्थानों का मालिक कौन है —  पता ही नहीं हो, तब नेताओं और उनकी भाड़े की सेनाओं के लिए हमें ‘प्रेस्टीट्यूटस’ कहना आसान हो जाता है। दरअसल जैसा राव साहब ने हमें ‘सब-पता-है वाला मीडिया’ कहा वो तो नहीं हम शायद अब वह मीडिया भर रह गए हैं जिसकी रीढ़ की हड्डी लड़ने की ताकत खो चुकी है ।

पुनश्च: इस माह की शुरुआत में, लोकतंत्र की सच्ची भावना की कद्र करते हुए बीबीसी ने ब्रिटेन प्रधानमंत्री पद के दोनों प्रत्याशियों को — बिना पूर्वनिर्धारित सवालों के — जनता का सामना करने के लिए आमंत्रित किया। हमारे यहां ऐसे कितने नेता हैं जो यों बेरोक-टोक सवाल-जवाब का सामना करने को तैयार होंगे?

(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
(साभार हिंदुस्तान टाइम्स व भास्कर से, अनुवाद में बदलाव सहित )


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ट्रिपल तलाक़ पर राजदीप सरदेसाई | Triple Talaq Essay @sardesairajdeep


Triple Talaq Essay
प्रशंसकों के बीच सेल्फी खिंचवाते राजदीप सरदेसाई (फ़ोटो: भरत तिवारी)

कांग्रेस का दोहरापन तत्काल उजागर हो जाएगा — राजदीप सरदेसाई

1985 में जब सैटेलाइट टेलीविजन आया नहीं था, जनमत बनाने में मीडिया की सीमित भूमिका ही थी। अब सातों दिन-चौबीसों घंटे खबरों और सोशल मीडिया के अंतहीन चक्र में बहस छोटे समूह तक सीमित नहीं रह गई है और इस मुद्‌दे पर कांग्रेस का दोहरापन तत्काल उजागर हो जाएगा।



एक अच्छा वकील किसी मुकदमे में व्यक्तिगत धारणाओं को आड़े नहीं आने देता। जो कीमती सबक लॉ स्कूल में सिखाए जाते हैं, यह उनमें से एक है। संभव है कि इसी प्रकार की सीख के कारण कांग्रेस नेता-सांसद कपिल सिब्बल सुप्रीम कोर्ट में ऐतिहासिक तीन तलाक मामले में ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की ओर से पैरवी करने को राजी हुए और दलील दी कि तीन तलाक मुस्लिमों के लिए 1400 वर्षों से आस्था का विषय रहा है और इस पर संवैधानिक नैतिकता समानता के सिद्धांत लागू नहीं हो सकते। लेकिन, अपनी दलील को इतने स्पष्ट शब्दों में रखकर सच्चे नेहरूवादी धर्मनिरपेक्ष होने पर गर्व करने वाले कपिल सिब्बल ने शायद उस दुखती रग पर हाथ रख दिया है, जिसने धर्मनिरपेक्षतावादियों और खासतौर पर कांग्रेस को तीन दशकों से दुविधा में डाल रखा है।

सोशल मीडिया पर...प्रमुख भारतीय मुस्लिमों की चुप्पी पर सवाल उठा रहे हैं...क्या मैं पूछ सकता हूं...गोरक्षकों के गिरोह धर्म के नाम पर धमका रहे थे, हत्या कर रहे थे तो कितने ‘अग्रणी’ हिंदुओं ने विरोध किया था। मौन रहने का ‘अपराध’ एकतरफा नहीं हो सकता। — राजदीप सरदेसाई

सिब्बल के शब्द विचलित करने वाली उन दलीलों की गूंज लगते हैं, जो 1985 में चर्चित शाहबानो प्रकरण में दी गई थीं। इनके कारण पहले तो कांग्रेस पर ‘मुस्लिमों के तुष्टीकरण’ का आरोप लगा। बाद में भरणपोषण का खर्च मांग रही तलाकशुदा मुस्लिम महिला का हश्र देखकर सुप्रीम कोर्ट उसे संरक्षण देने के लिए आगे आया पर राजीव गांधी सरकार ने मुस्लिम कट‌्टरपंथी ताकतों के दबाव में सर्वाच्च न्यायालय का फैसला ही उलट दिया। इस दयनीय समर्पण ने भाजपा को वह मौका दे दिया, जिसका वह धर्मनिरपेक्षता बनाम छद्‌म धर्मनिरपेक्षता की बहस खड़ी करके हिंदुत्व राजनीति में तेजी लानेे के लिए इंतजार कर रही थी। इसका नतीजा अंतत: बाबरी मस्जिद के ध्वंस और संघ परिवार के राजनीतिक उदय के रूप में हुआ।

लेकिन, 2017 कोई 1985 नहीं है। भाजपा अब सत्ता में बैठी पार्टी है, जिसका नेतृत्व शक्तिशाली प्रधानमंत्री कर रहे हैं, जिनकी सरकार को तीन तलाक के सभी रूपों पर कड़ी आपत्ति है। यदि शाहबानो प्रकरण से राजीव गांधी की राजनीितक नादानी उजागर हुई थी तो मोदी सरकार के लिए तीन तलाक ‘सबके लिए न्याय, तुष्टीकरण किसी का नहीं’ की दिशा में एक और हथियार बन गया है। कोर्ट का अनुकूल फैसला समान नागरिक संहिता पर व्यापक बहस शुरू करने के भाजपा के प्रयास को फिर भड़का सकता है।

दूसरी तरफ कांग्रेस के लिए यह सच से साक्षात्कार का पल है। 1980 के दशक में पार्टी नेतृत्व मुस्लिम समुदाय के मज़हबी नेताओं के तीखे तेवरों के आगे झुक गया था। उस वक्त कांग्रेस काफी कुछ वैसी ही थी जैसी भाजपा आज है : मजबूत बहुमत वाली सरकार, जो सोचती थी कि वह कुछ भी करके बच सकती है। आज संसद में नाममात्र की मौजूदगी के चलते कांग्रेस के लिए धर्मनिरपेक्षता को अपना कर सांप्रदायिकता से हित साधने का दोहरा रुख अपनाना ठीक नहीं होगा। बजाय इसके कि पार्टी फिर अल्पसंख्यक कट्‌टरपंथियों के प्रति नर्म रुख अपनाने का तमगा पाए, कांग्रेस को तीन तलाक को अवैध घोषित करने के समर्थन में मजबूत रुख अपनाना चाहिए। खास बात यह है कि 1985 में जब सैटेलाइट टेलीविजन आया नहीं था, जनमत बनाने में मीडिया की सीमित भूमिका ही थी। अब सातों दिन-चौबीसों घंटे खबरों और सोशल मीडिया के अंतहीन चक्र में बहस छोटे समूह तक सीमित नहीं रह गई है और इस मुद्‌दे पर कांग्रेस का दोहरापन तत्काल उजागर हो जाएगा।

अच्छी बात है कि तीन तलाक के विरोध का नेतृत्व मुख्य रूप से मुस्लिम गुट खासतौर पर महिलाएं कर रही हैं। कई मुस्लिम महिलाएं अपनी पीड़ा व्यक्त करने के लिए खुलेआम आगे आई हैं, जिससे उनके साहस का पता चलता है और जो अधिकार संपन्न होने के बढ़ते अहसास का नतीजा है। यही वजह है कि जहां शाहबानों प्रकरण में मुस्लिम नागरिक समाज के भीतर से कट्‌टरपंथियों का पर्याप्त विरोध नहीं था, इस बार इसमें उल्लेखनीय परिवर्तन आया है, जो समुदाय में चल रहे मंथन की ओर इशारा करता है। मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड को खासतौर पर पर्सनल लॉ के मामले में सारे मुस्लिमों के एकमात्र प्रवक्ता के रूप में नहीं देखा जाता। सच तो यह है कि उसे गोपनीयता में काम करने वाले ज्यादातर दकियानूसी पुरुषों का समूह समझा जाने लगा है। यह भी उतना ही सच है कि जनमत के दबाव के कारण बोर्ड तीन तलाक खत्म करने को लेकर नरम रूप अपनाने पर मजबूर हुआ है। इससे फिर एक बार बदलाव परिलक्षित होता है।

एक अर्थ में यह हर सही सोच वाले उदारवादी धर्मनिरपेक्ष व्यक्ति के लिए तीन तलाक के विरोधी मुस्लिमों के साहसी स्वरों को मजबूत बनाने और अपनी जगह फिर हासिल करने का वक्त है, जिसे शाहबानो विवाद के बाद छोड़ दिया गया था। भाजपा चाहे यह दावा करे कि वह प्रगतिशील मुस्लिमों के साथ खड़ी है लेकिन, उसका यह रुख पाखंड ज्यादा है, क्योंकि क्या यही वह पार्टी नहीं थी, जो राम जन्मभूमि के विवादित मामले में जोर दे रही थी कि आस्था को कानून से ऊपर रखा जाना चाहिए? वास्तव में भगवा परिवार के लिए तीन तलाक मुस्लिम समुदाय पर प्रहार करने का एक और मुद्‌दा है तथा इसके जरिये वह यह धारणा बढ़ाना चाहता है कि यह धर्म पुरातन प्रथाओं में धंसा हुआ है (मैं संघ परिवार को बाल विवाह समारोह में शामिल होने वाली सार्वजनिक क्षेत्र की शख्सियतों की आलोचना करते क्यों नहीं देख पाता?)

जब तीन तलाक पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले का इंतजार किया जा रहा है, तो धर्मनिरपेक्षवादियों के सामने असली चुनौती तीन तलाक की बहस को राजनीतिक कीचड़-उछाल से निकालकर स्पष्ट तौर पर लैंगिक समानता के क्षेत्र में लाने की है। मुस्लिम महिलाओं को पर्सनल लॉ की प्रथाओं से स्वतंत्र होने की जरूरत है, जो मूल रूप से मनमानी और असमान हैं। यह स्वतंत्रता उस संविधान से आनी चाहिए, जो समान नागरिकता को प्राथमिकता देता है कि उस राजनीतिक आदेश से मिलनी चाहिए, जिसने फूट डालकर राज करने के लिए ही धार्मिक मुद्‌दों का इस्तेमाल किया है।


 पुनश्च: सोशल मीडिया पर बहुत सारे लोग तीन तलाक को लेकर प्रमुख भारतीय मुस्लिमों की चुप्पी पर सवाल उठा रहे हैं। हां, उन्हें खुलकर बोलना चाहिए लेकिन, क्या मैं पूछ सकता हूं : जब खूनखराबे पर उतारू गोरक्षकों के गिरोह धर्म के नाम पर धमका रहे थे, हत्या कर रहे थे तो कितने ‘अग्रणी’ हिंदुओं ने विरोध किया था। मौन रहने का ‘अपराध’ एकतरफा नहीं हो सकता। 

(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
'तीन तलाक का कड़ा विरोध करे कांग्रेस'
bhaskar.com से साभार
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कश्मीर: दिल-ओ-दिमाग सैन्य बल से नहीं जीते जाते: #राजदीप_सरदेसाई



क्या कश्मीर के अन्दर और बाहर कोई है जो अंतरात्मा की सुन सर ऊँचा रख सके?

राजदीप सरदेसाई

In English:: Kashmir: You can't win hearts and minds with military force #RajdeepSardesai 



कश्मीर की वास्तविकता हमेशा से ही पेचीदा रही है: ये कोई अंग्रेजी काऊबॉय फिल्म नहीं कि जिसके पास बन्दूक हो वो अच्छा है और जिसके पास पत्थर वो बुरा। डल झील के पानियों का रंग ख़ूनी और धुंधला हुए बड़ा समय हुआ और हम ये नहीं जानते कि अँधेरे में उम्मीद कहाँ है। ‘पथभ्रष्ट' युवा जो सेना की जीप के आगे खड़े होने में मिनट नहीं लगायेंगे, ‘अलगाववादी', जो कितना समर्थन है, जानने के लिए चुनाव में तो हिस्सा नहीं लेंगे लेकिन सीमा-पार के ख़तरनाक पड़ोसी के आदेश सुन लेंगे, सेना जो वहां के निवासियों को नागरिक नहीं 'वस्तु' की तरह देखती है, नेता जो घाटी के जलते वक़्त भी अपनी अनर्गल में व्यस्त हों, एक नौकरशाही जो यथास्थितिवादी है, एक मीडिया जो बुरी तरह से फूट डालने वाला है, राष्ट्रवाद के नाम पर नफ़रत का परचम लहराते लोग, वो जो मुटफेड़ में मारे गए लोगों की गिनती तो करते हैं लेकिन जवानों की नहीं, आतंकवादी जो मौत को एक खेल समझते हैं: क्या कश्मीर के अन्दर और बाहर कोई है जो अंतरात्मा की सुन सर ऊँचा रख सके?
मोदीजी क्या ये इतना आसान समीकरण है?
राजनीतिक और नैतिक खोखलेपन को सामने खड़ा देखने के बाद भी हम स्थिति की गंभीरता या बिलकुल-नए समाधानों की फौरन तलाश के बारे में नहीं सोच रहे।

एक टीवी शो में उमर अब्दुल्ला मुझे बताते हैं: राजनीतिक संवाद फिर से शुरू करें। ठीक, फिर मैंने पूछा, लेकिन संवाद किसके साथ? क्या आपके सर पर बन्दूक तनी हो तो बातचीत कर सकते हैं? या उन अलगाववादियों से जो पाकिस्तान का रटाया बोलते हैं?

प्रधानमंत्री कहते हैं, टूरिज्म या टेररिज्म, चुन लीजिये। मोदीजी क्या ये इतना आसान समीकरण है? क्या आतंक का अंत होने पर उस विवाद के राजनीतिक समाधान की पेशकश होगी जिसका सत्तर साल का खूनी इतिहास है?

महबूबा मुफ़्ती मुझे बताती हैं, हम सुशासन देना चाहते हैं। हां मैं मानता हूँ, लेकिन ये आपकी ही तो सरकार है और वो फाहे कहाँ गए महबूबा मुफ़्ती जी जिन्हें ज़ख्मों पर रखने की बात आपके पिता ने की थी?
वो फाहे कहाँ गए महबूबा मुफ़्ती जी जिन्हें ज़ख्मों पर रखने की बात आपके पिता ने की थी?
फ़ारूक़ अब्दुल्लाह चेतावनी देते हैं, हम कश्मीर हार रहे हैं, पत्थरबाज़ समस्या के समाधान के लिए लड़ रहे हैं। हाँ, डॉ अब्दुल्लाह, मैंने पूछा , लेकिन हम कश्मीर क्यों हार रहे हैं: ऐसा ही है न कि जब आप सत्ता में थे तब समस्या के हल के लिए ज्यादा कुछ नहीं किया। अरे, आप-ही हैं न वो, जिसने 1987 के चुनावों में कांग्रेस के साथ मिलकर हेराफेरी की थी, वो जिससे यह सब शुरू हुआ?

कश्मीरी भारतीय हैं, कीड़ेमकोड़े नहीं कि कुचल के बाहर कर दिये जाएँ।


कश्मीर 'असली' मुद्दा है, पाकिस्तान चिल्लाता है, ठीक है, लेकिन किसी असली मुद्दे को आप कैसे सुलझाते हैं: धर्म के नाम पर बंदूकें और आतंकवादी भेज कर तो कतई नहीं? आप अपने देश की एक सीमा पर आतंकवाद से शिकार और दूसरी पर शिकारी  कैसे हो सकते हैं?

एक रिटायर्ड जनरल मुझे बताते हैं, अपने को काबू में रखना अब बेकार है, अब समय आपने-सामने की लड़ाई का है। सर सच में ? किसके साथ लड़ने का, घाटी में अपने ख़ुद के लोगों से या फिर परमाणु-बम-वाले पड़ोसी से?

एक कश्मीरी बुद्धिजीवी मुझसे कहते हैं, हम पिछले दो दशकों से नज़रबंदी-शिविर में रह रहे हैं। आप सही कह रहे हैं सर: लेकिन कितने कश्मीरी ऐसे हैं जिन्होंने हिंसा की संस्कृति के खिलाफ बोला है वो जिसने एक इंसानी समाज को जेल में बदल दिया है? हम कश्मीरी पंडितों और हमारी दुर्दशा को मत भूलना, एक जानी-पहचानी आवाज मुझे बताती है। नहीं, हमें कभी ऐसा नहीं करना चाहिए, लेकिन क्या हम ये भूल जाते हैं कि मारे जाने  निर्दोष लोगों में बड़ी संख्या में कश्मीर के निवासी मुसलमान हैं?

ये 'धर्म युद्ध' है, एक जिहादी विडियो से आवाज़ आती है :  क्या मैं यह जान सकता हूँ कि अल्लाह के नाम पर निर्दोष इंसानों की हत्या करने वाला यह कौन सा 'धर्म' युद्ध है?

हमारा अपना और हमसब का ढोंग
ऊपर किये गए सवालों में से बहुतों का शायद कोई जवाब नहीं हैं। शायद हम जवाबों को तलाशना ही नहीं चाहते क्योंकि डर है कि हमारा अपना और हमसब का ढोंग पर्दे से बाहर आ जायेगा। शायद हम इसलिए ध्रुवीकृत होते हैं, किसी खास सोच के पक्षधर... क्योंकि हमें तस्वीरों के ब्लैक एंड वाइट होने से आराम है बीच के रंग हम नहीं देखना चाहते, कि हमारा चित्र सच-की-खोज में लगे इंसान का नहीं उदारवादी या राष्ट्रवादी का बने?  और फिर, शोर और स्टूडियो-लड़ाकों के इस समय में, जब अनर्गल चिल्लाने भर से TRP बढ़ जाए ट्विटर ट्रेंड चल जाये तो बातचीत कौन करना चाहेगा? इसलिए, नागरिकों का सेना के जवानों को निशाना बनाने का विडियो एक ही सुर में तमाम आवाज़ों को हमारे वीर सैनिकों के लिए खड़ा कर देता है। बहुत मुश्किल है कि इनमें से कोई आवाज़ उस कश्मीरी के पक्ष में उठेगी जिसे सेना मानव-कवच की तरह जीप के आगे बाँध कर घुमाती है।
क्या हम तब भी ये तेज-आवाज़ वाली बहस करेंगे जब कोई कश्मीरी एक जवान को पानी पिलाता है या किसी दुर्घटना के समय सहायता करता है, या फिर तब जब जवान बाढ़ में फँसे कश्मीरियों को निकालते हैं ?
हिंदी की वो पुरानी फ़िल्में याद हैं जिसमें खलनायक गाँव के लोगों को रस्सी से बाँध कर खींचता था? तब, हमें दर्द होता था। अब, हम वाह-वाह करेंगे: अरे भाई कुछ भी हो... हमारी भारतीय सेना है वहाँ, और हम खाक वर्दी पहनने वाले से सवाल नहीं कर सकते। और क्या हम तब भी ये तेज-आवाज़ वाली बहस करेंगे जब कोई कश्मीरी एक जवान को पानी पिलाता है या किसी दुर्घटना के समय सहायता करता है, या फिर तब जब जवान बाढ़ में फँसे कश्मीरियों को निकालते हैं ?

ये राज्य बनाम नागरिक की बहस इस कदर हावी है कि बाकि सबकुछ दरकिनार हो गया है। लिबरल आवाज़ें कश्मीरी 'उत्पीड़न' के कोण से न्याय की गुहार लगाती हैं और 'राष्ट्रवादी'  भारत-सबसे-पहले के नाम पर 'सफाई' किये जाने की। लम्बी अवधि के संकल्प की बात छोड़िये, वह ज़मीन जिसपर एक सुलझी बहस हो सके उसे ही तलाशने की इच्छा दोनों की नहीं है।
हाँ, मैं भी भारत-सबसे-पहले में विश्वास करता हूँ
हाँ, मैं भी भारत-सबसे-पहले में विश्वास करता हूँ। किन्तु भारत-सबसे-पहले के मेरे नजरिए में एक देश ज़मीन का वह टुकड़ा जो भौगोलिक सीमाओं से घिरा हो भर नहीं है, या फिर हर समस्या को कानून और व्यवस्था की दृष्टि से देखूँ। मेरे भारत-सबसे-पहले में भारतीय पहले शामिल है, वो चाहे कश्मीरी हो या जवान, या कानून को मानने वाला कोई भी नागरिक।  बन्दूक एक राजनीतिक संघर्ष या 'आज़ादी' जैसी किसी रूमानी चाह का समाधान नहीं कर सकती। जब आप लोगों के दिल-ओ-दिमाग को जीतते हैं तब एक हल बाहर निकलता है, जैसा कि पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी कहते हैं 'इंसानियत', भविष्य में किसी भी समाधान की यही कसौटी होनी चाहिए। मगर 'इंसानियत' जोख़िम उठाने की हिम्मत मांगती है, जैसी वाजपेयी ने लाहौर बस यात्रा से की, या मनमोहन सिंह ने श्रीनगर-मुज़फ्फराबाद बस सेवा से। प्रधानमंत्री मोदी ने भी पीडीपी से गठबंधन कर जोखिम उठाया था लेकिन उसके बाद से वो पीछे हटे हुए हैं। प्रधानमंत्री क्यों न अपने सहयोगी दलों की सलाह मानते हुए, लोगों में भरोसा कायम करने की बड़ी शुरुआत करें और घाटी के कुछ हिस्सों से AFSPA  हटा दें, उसके बाद सुशासन के अपने वादे को पूरा करें? दिल-ओ-दिमाग सैन्य बल से नहीं जीते जाते, ठीक वैसे ही जैसे सीमापार आतंक से पाकिस्तान कश्मीर पर कब्ज़ा नहीं कर सकता।

बीती रात, जब कश्मीर पर अपने गुस्से को मैंने टीवी और सोशल मीडिया पर ज़ाहिर किया, साइबरस्पेस वाली छद्म-राष्ट्रवादी सेना बुरी तरह मेरे पीछे पड़ गयी। कुछ समय के लिए तो मुझे लगा कि मैं एक 'एंटी नेशनल' हूँ जो कि हिटलर के जर्मनी में यहूदियों के अधिकार की बात कह रहा हो। कश्मीरी भारतीय हैं, कीड़ेमकोड़े नहीं कि कुचल के बाहर कर दिये जाएँ। अधिकार जवानों के हों या नागरिकों के दोनों की रक्षा ज़रूर होनी चाहिए लेकिन हम ऐसा विश्वास में हुए घाटे को पहले कम किये बिना नहीं कर सकते। हम आतंक और इसके लक्षणों से ज़रूर लड़ें, हम साथी भारतीयों से लड़ाई नहीं कर सकते हैं। पत्थर के बदले पेलेट गन से नफ़रत और हिंसा का जो कुचक्र चलेगा वह हमसे सारी मानवता छीन लेगा। महात्मा गाँधी पत्थर फेंकने वालों और पेलेट गन चलाने वालों के बीच खड़े हो गए होते: क्या हमारे बीच इतनी नैतिक शक्ति वाला कोई है?

पुनश्च:
शुक्रवार की शाम, वायरल विडियो पर चली लड़ाइयों से दुखी मैंने एक अपना विडियो चला दिया। यूट्यूब पर फिल्म ‘कश्मीर की कली’ के अपने पसंदीदा गाने का: दीवाना हुआ बादल।  शम्मी कपूर को शर्मीला टैगोर का दिल जीतने में मशगूल देखना सुखद रहा: क्या कश्मीर दोबारा कभी ऐसी धुन गुनगुनायेगा?


अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद: भरत तिवारी


(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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Kashmir: You can't win hearts and minds with military force #RajdeepSardesai


A pellet gun for a stone will breed a cycle of hate and violence that will strip us of all humanity


Rajdeep Sardesai 




Is there anyone in and outside Kashmir today who can hold their head high with a clean conscience
The reality in Kashmir has always been crazily complex: this isn't some good guys versus bad guys spaghetti western where the guys with the guns are good, those with stones are evil. The water-lines in the Dal lake have long since been bloodied and blurred and we don't really know where hope lies in the darkness. 'Misguided' youth who won't think twice before standing in front of an army jeep, separatists who won't test their support in an election but will take orders from a dangerous neighbour across the border, army men who see the locals as 'subjects' not citizens, politicians who fiddle while a valley burns, a bureaucracy which is status quoist, a media which is frighteningly polarising, those waving the flag of hate in the name of nationalism , those who do a head count of civilians killed in encounters but not of jawans, terrorists who treat death as a game: is there anyone in and outside Kashmir today who can hold their head high with a clean conscience?



Is it really that simple a binary, Mr Modi?
A moral and political vacuum stares at us and yet the gravity of the situation or the urgent need for imaginative solutions is escaping us.

Resume the political dialogue, Omar Abdullah tells me on a TV show. Right, but a dialogue with whom, I ask? Can a dialogue be had with a gun pointing to the head? Or with separatists who will simply echo Pakistan's line?

Choose between tourism and terrorism the prime minister tells us. Is is really that simple a binary, Mr Modi? Will the end of terror offer a political resolution to a dispute that has a seventy year bloody history?

Where is the healing touch Mehbooba Mufti that your father spoke of
We want to give good governance, Mehbooba Mufti tells me. Of course you do, but it's your government so where is the healing touch Mehbooba Mufti that your father spoke of?

We are losing Kashmir, warns Farooq Abdullah, the stone pelters are fighting for resolution of the problem. Yes, Dr Abdullah, but why are we losing Kashmir I ask: isn't it because for the many years that you were in power, you did little to resolve the issue. Hey, weren't you Farooq Abdullah the guy who collaborated with the Congress in the rigging of the 1987 election that started it all?

Kashmir is the 'core' issue screams Pakistan: so It is, but how do you address a core issue: surely not by pumping in more guns and terrorists in the name of religion? How can you be a victim of terror on one border of your country and a perpetrator of terror on the other?

Containment hasn't worked, it's now time for an all out war, a retired general tells me. Really sir? War with whom, your own citizens in the valley, or with a nuclearised neighbour?

We are living in a concentration camp for two decades, a Kashmiri intellectual tells me. Right you are sir: but how many Kashmiris have spoken out against the culture of violence that has forced civil society into a prison zone?

Don't forget us Kashmiri Pandits and our plight, a familiar voice tells me. No, we must never, but do we forget that a vast majority of those innocents killed in the violence are local Kashmiri Muslims?

This is a 'holy war' says a jihadist video: what 'holy' war kills innocents in the name of Allah the merciful, I ask ?

Our individual and collective hypocrisies
There are probably no answers to many of the above questions. Maybe we don't want to seek answers any longer for fear that it will expose our individual and collective hypocrisies. Maybe we want to take polarised positions because we find comfort in black and white portraits rather than shades of grey, in being caricatured as liberals and nationalists rather than as truth seekers? Besides, in this age of noise and studio warriors, who wants a dialogue when a harangue gets TRPs and twitter trends? So, a video on army jawans being targeted by civilians leads to a chorus of voices standing by our brave army men. Hardly any of them will criticise the army for tieing up a Kashmiri to a jeep and parading him around like a human shield. Remember those old Hindi films where the villain would drag villagers with a rope? Then, we would wince. Now, we will cheer: hey, it's the Indian army after all out there, and we can't question the men in khaki. And will we also have high decibel discussions when a Kashmiri provides water to a jawan or helps them during an accident, or when jawans rescue Kashmiris stuck in floods?

The state vs citizen narrative is so dominating that all else is pushed to the margins. Liberal voices plead for justice through the prism of Kashmiri 'victimhood' , the 'nationalists' call for a 'cleansing' in the name of India First. Both seem to be unwilling to find any space for a meaningful conversation that goes beyond frozen positions, forget a long term resolution.


Yes, I also believe in India First
Yes, I also believe in India First. But my concept of India First doesn't involve treating a nation as a piece of land defined by geographical boundaries alone, or by looking at every problem as a law and order issue. My India First involves putting Indians first, be it Kashmiris or jawans, or any law abiding citizen. The gun cannot resolve a vexed political conflict or deliver some romanticised notion of 'azaadi'. A solution is achieved when you win the hearts and minds of people, 'insaniyat' as former prime minister Vajpayee put it, must be the touchstone for any future resolution. But 'insaniyat' involves taking risks, like Vajpayee did with his Lahore bus yatra, or Manmohan Singh did with the Srinagar-Muzaffarbad bus service. Prime minister Modi also took a risk when he tied up with the PDP but since then has pulled back. Why doesn't the prime minister withdraw, for example, AFSPA from parts of the valley, as his ally is suggesting, as a major confidence building measure and then build on his promise of good governance? You can't win hearts and minds with military force, just as Pakistan can't use cross border terror to seize Kashmir.

Reducing the trust deficit first
Last night, when I poured my angst on Kashmir on tv and then social media, I was hounded by the pseudo-nationalist armies in cyberspace. For a moment, I almost felt like an 'anti national' speaking for Jewish rights in Hitler's Germany. Kashmiris are Indians, not insects to be crushed or driven out. Jawans and citizens both have their rights which must be protected but we can't do so without reducing the trust deficit first. We must fight terror and its symptoms, we cannot fight fellow Indians. A pellet gun for a stone will breed a cycle of hate and violence that will strip us of all humanity. Mahatma Gandhi would have stood between the stone pelter and the pellet gun: do we have anyone with similar moral courage?

Post-script: depressed on a Friday night by the war over viral videos, I turned to a video of my own. A Youtube video of the film Kashmir Ki Kali and one of my all time favourite numbers: deewana hua badal. Watching Shammi Kapoor woo Sharmila Tagore was soothing: will Kashmir ever again hum to a similar tune?




Rajdeep Sardesai is a senior journalist and author
(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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यूपी में कमल की सुगबुगाहट - राजदीप सरदेसाई



Modi persona offer a deadly combination: the UP voter may well be intoxicated by it this time

Rajdeep Sardesai




2014 के आम चुनाव में भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए ने 42 फीसदी वोट और आश्चर्यजनक रूप से 80 में से 73 सीटें हासिल कर ली थीं। सही है कि ये अांकड़ें असाधारण ‘लहर’ का नतीजा थे लेकिन, यदि भाजपा के वोट में दस फीसदी गिरावट भी हुई तो भी यह सिरमौर रहेगी।

उत्तर प्रदेश के चुनाव परिणामों का अनुमान लगाना सेहत के लिए हानिकारक हो सकता है। जब मैं 1993 में पहली बार उत्तर प्रदेश के चुनाव व्यापक रूप से कवर कर रहा था, तो मेरे एडिटर ने जब मेरी राय पूछी तो मैंने तत्काल दावा किया कि बाबरी मस्जिद विध्वंस के कारण पूरे राज्य में राम लहर चल रही है। मैं गलत साबित हुआ। समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के गठबंधन के दुर्जेय जातिगत गणित ने राम मंदिर की भावनात्मक अपील को मात दे दी।

नरेंद्र मोदी अब भी उत्तर प्रदेश में नेता नंबर वन हैंं। उनके विरोधी चाहे उन पर ‘यूपी के लड़के’ से लड़ रहे ‘बाहरी’ व्यक्ति का लेबल लगा रहे हों लेकिन, हकीकत तो यही है कि मोदी ने गंगा के मैदानों में लोगों की नब्ज़ पकड़ ली है।

चौबीस साल बाद कुछ घबराहट के साथ मैं फिर कह रहा हूं कि उत्तर प्रदेश में भाजपा जीतने की स्थिति में है। जब इस ‘लहररहित’ चुनाव में 403 विधानसभा क्षेत्रों में हर कहीं भीषण स्पर्द्धा है, तो ऐसा कहना बड़ी बात है। कुछ कारण है कि इस प्रदेश में कमल खिलने की दहलीज पर है। सबसे पहले तो आंकड़ें ही उत्तर प्रदेश में पार्टी नंबर वन होने के भाजपा के दावे का समर्थन करते हैं। 2014 के आम चुनाव में भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए ने 42 फीसदी वोट और आश्चर्यजनक रूप से 80 में से 73 सीटें हासिल कर ली थीं। सही है कि ये अांकड़ें असाधारण ‘लहर’ का नतीजा थे लेकिन, यदि भाजपा के वोट में दस फीसदी गिरावट भी हुई तो भी यह सिरमौर रहेगी। 2012 में सपा 29 फीसदी वोटों के साथ सत्ता में आ गई थी, जबकि 2007 में बसपा ने 30 फीसदी मतों के बल पर बहुमत हासिल कर लिया था। कुछ विश्लेषकों ने उत्तर प्रदेश की तुलना 2015 के बिहार विधानसभा चुनावों से करके दावा किया है कि सपा-कांग्रेस ‘गठबंधन’ ने खेल बदल दिया है। परंतु यह गलत तुलना है। बिहार में भाजपा विरोधी व्यापक महागठबंधन था, जिससे दो ध्रुवीय संघर्ष हो गया और 34 फीसदी वोट हासिल करके भी भाजपा दूसरे क्रम पर रही। उत्तर प्रदेश में यदि मायावती और अखिलेश यादव बिहार में नीतीश कुमार व लालू यादव की तरह मिलकर लड़ते तो भाजपा को संघर्ष करना पड़ता।
जाति व समुदायगत पहचान को ‘विकास’ के जादुई शब्द से जोड़ने की अधिक कुटिल रणनीति काम कर रही है


फिर अखिलेश-राहुल गठबंधन में कांग्रेस अब भी कमजोर कड़ी है। पोस्टरों में राहुल को उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के साथ समान महत्व मिलने से सही जमीनी हकीक़त बयां नहीं होती। राहुल अब भी ऐसे नेता नज़र आते हैं, जो उत्तर प्रदेश की राजनीतिक भुलभुलैया में अपना रास्ता खोज रहे हैं और लोगों से जुड़ पाने का उनका सीमित कौशल नाटकीय प्रभाव डालने के उनके प्रयास को और भी मुश्किल बना देता है। चरमराते संगठन के साथ कांग्रेस खुद काफी कमजोर हो गई है और जो 105 सीटें उसे दी गई हैं, वे भी लगभग उससे दोगुनी हैं, जिसकी वह वास्तव में हकदार है। जमीन पर इसके पर्याप्त संकेत हैं कि सपा का मतदाता तो अपना वोट कांग्रेस को दे देगा लेकिन, वोटों का इससे उलट हस्तांतरण उतनी आसानी से होता नहीं दिखता। सच तो यह है कि कांग्रेस-सपा गठबंधन ने मुस्लिम मतों को तो काफी हद तक एकजुट किया है, वहीं यह भी सही है कि इसे यादव-मुस्लिम गठबंधन के रूप में देखा जा रहा है और मतों का इजाफा एक महत्वपूर्ण चुनाव जीतने के लिए काफी नहीं है। दूसरी बात -

Rajdeep Sardesai‏: The holy river at dawn at assi ghat: boatman tells me: cleaning steps won't clean the Ganga.

  • इसमें कोई संदेह नहीं है कि नरेंद्र मोदी अब भी उत्तर प्रदेश में नेता नंबर वन हैंं। 
  • उनके विरोधी चाहे उन पर ‘यूपी के लड़के’ से लड़ रहे ‘बाहरी’ व्यक्ति का लेबल लगा रहे हों लेकिन, हकीकत तो यही है कि मोदी ने गंगा के मैदानों में लोगों की नब्ज़ पकड़ ली है। 
  • वाराणसी के निकट जिस जयापुर गांव को मोदी ने गोद लिया है वहां सड़क बारिश में बह गई, सोलर पैनल की बैटरियां चोरी हो गईं, टॉयलेट में पानी नहीं है और फिर भी दलित बस्तियों सहित कहीं भी जिस भी शख्स से बात करो वह कहता है मोदीजी को वोट देंगे। 
  • वाराणसी के पान व्यापारी मानते हैं कि नोटबंदी ने उन्हें बहुत नुकसान पहुंचाया है लेकिन, फिर भी ‘हर-हर मोदी’ का नारा लगाते हैं। 
  • अस्सी घाट पर गंगा के किनारे एक महंत कहते हैं कि नमामि गंगे प्रोजेक्ट तो दिखावा है पर वे प्रधानमंत्री को वोट देंगे।

साफ है कि वादों के अनुरूप जमीनी प्रदर्शन न करने के बावजूद प्रधानमंत्री को मतदाताओं की व्यापक सद्‌भावना और भरोसा हासिल है फिर चाहे यह प्रदेश के चुनाव ही क्यों न हो। यहां भी बिहार के साथ तुलना काम नहीं देती। बिहार में नीतीश कुमार ने सड़क, बिजली और खासतौर पर कानून-व्यवस्था तथा महिला सशक्तिकरण के मूल मुद्दे उठाए थे। उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव के ‘काम बोलता है’ के नारे की गूंज सिर्फ कुछ क्षेत्रों में ही सुनाई देती है : ‘ शाइनिंग उत्तर प्रदेश’ के चमकीले विज्ञापन लखनऊ में गोमती के सुंदर किनारे तो दिखाते हैं लेकिन, गोरखपुर के गांव के अंधेरे की उपेक्षा कर देते हैं। युवाओं से मजबूत संपर्क के साथ अखिलेश अब भी उत्तर प्रदेश का भविष्य हो सकते हैं पर मुमकिन है कि वे प्रदेश का वर्तमान न हो। बार-बार यह सुनने को मिलता है, ‘हमने माया को आजमाया और यादवों को भी, एक बार मोदीजी को भी चांस देते हैं।’

एक तरह से, मोदी प्रतीकात्मक रूप से, उत्तर प्रदेश की घोर निराशा में उम्मीद जगाते हैं। इसके साथ मतदाताओं का ध्रुवीकरण करने के उद्‌देश्य से चतुराईपूर्वक राजनीतिक हिंदुत्व का दिया गया संदेश भी है। 1990 के दशक में राम मंदिर अभियान ने खुलेआम हिंदू पहचान को वोटों में एकजुट करने का प्रयास किया। अब जाति व समुदायगत पहचान को ‘विकास’ के जादुई शब्द से जोड़ने की अधिक कुटिल रणनीति काम कर रही है। रमजान और दिवाली के दौरान बिजली की उपलब्धता की निंदनीय तुलना अथवा लैपटॉप वितरण में भेदभाव का झूठा दावा गहराई तक विभाजित समाज की आशंकाओं और पूर्वग्रहों को हवा देने के इरादे से किया गया था।

अखिलेश-राहुल गठबंधन के लिए अल्पसंख्यकों के आक्रामक समर्थन से विपरीत ध्रुवीकरण और तेज हुअा है। नतीजा यह है कि सवर्ण हितों और गैर-यादव सर्वाधिक पिछड़ी जातियों, यहां तक कि गैर-जाटव-दलित सपनों का एक नया हिंदुत्ववादी गठबंधन मजबूत हो रहा है। मुस्लिम विरोधी प्रचार पर आधारित हिंदुत्व की राजनीति अौर मोदी के व्यक्तित्व से जाहिर होती अपेक्षाओं की राजनीति मिलकर घातक मिश्रण बनता है। संभव है उत्तर प्रदेश का मतदाता इस बार इससे मदहोश हो गया हो।

पुनश्च: उत्तर प्रदेश चुनाव को कवर करने का सबसे बड़ा मजा है, राजनीतिक रूप से जागरुक मतदाताओं से चुटीले जुमले सुनना। जौनपुर में एक दुकानदार से श्मशानघाट-कब्रिस्तान की विवादास्पद तुलना के बारे में पूछते ही तपाक से जवाब आया, ‘ सर, चुनाव है, पहले नेता हमें जीने नहीं देते, अब मरने भी नहीं देंगे!’


(Photographs courtesy Twitter of Rajdeeep Sardesai)

(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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#सरकार_राज — राजदीप सरदेसाई | #SarkarRaj — @sardesairajdeep #ADHM


टीआरपी संविधान के ब्योरों से कहीं अधिक माने रखती है...

Brazenness with which Raj has proven that he is an extra-constitutional Sarkar Raj (or should we say Goonda Raj) in Maharashtra, he deserves to be given his due...

राज ठाकरे ने जिस बेहूदा तरीक़े से, ख़ुद को संविधानेतर सरकार राज (या ये कहें गुंडा राज) साबित किया है उसके लिए तो उन्हें मानना पड़ेगा।

सरकार राज

— राजदीप सरदेसाई का ब्लॉग

तो साहब, राज ठाकरे ने एक बार दोबारा से यह सिद्ध कर डाला कि अपने चाचा के जलवों के असली वारिस वो ही हैं। आपको याद हैं शिवसेना के असली सुप्रीमो के सामने साष्टांग दंडवत किये वो फिल्म स्टार्स, बड़े-बड़े औद्योगिक घरानों के मालिक, क्रिकेट-खिलाड़ी? देखा जाए तो राज ठाकरे बालासाहेब से एक क़दम आगे निकल गए, काहे से कि उनको महाराष्ट्र का मुख्यमंत्री मिला, जिसने करण जौहर के साथ एक तरह से 'दलाल' हो के, वह समझौता कराया, जिसमें 'ए दिल है मुश्किल'' प्रोडूसर करण जौहर, अपनी फ़िल्म को परदे पर बगैर किसी हिंसक-कार्यवाही के दिखाए जाने के एवज में, सेना को 5 करोंड़ रूपये देने के लिए राज़ी हुए । और साथ में उन्होंने यह वादा भी करवाया कि वो आइन्दा किसी पाकिस्तानी कलाकार को अपनी फ़िल्म में नहीं लेंगे। भाई साहब, राज ठाकरे ने जिस बेहूदा तरीक़े से, ख़ुद को संविधानेतर सरकार राज (या ये कहें गुंडा राज) साबित किया है उसके लिए तो उन्हें मानना पड़ेगा। और यह सब तब जबकि म्युनिसिपल कारपोरेशन के चुनाव बस होने वाले हैं, मलतब ठाकरे ने प्राइम टाइम पब्लिसिटी पाने का पक्का जुगाड़ कर दिया।

राजनीति-के-गुंडों को कुछेक करोंड़ रूपये से गिरा दिया

अब महाराष्ट्र के होनहार, युवा मुख्यमंत्री देवेन्द्र फडणवीस के लिए क्या कहें? भाई हमने उन्हें इसलिए चुना था कि महाराष्ट्र में क़ानून व्यवस्था दुरुस्त रहे, अब उन्होंने ऍमएनएस के साथ यह 'डील' (चाहें तो समझौता कह लें) पक्की करके, आखिर वही तो किया है।
क्या दूर की कौड़ी फिट की है सरजी: राजनीति-के-गुंडों को कुछेक करोंड़ रूपये से गिरा दिया
भाई अब हमें सिनेमा हाल के बाहर पुलिस क्यों चाहिए होगी। सोच के देखिये इस 'डील' से टैक्स देने वालों के कितने पैसे बच गए। हम यह थोड़े ही चाहते हैं कि हमारे पुलिस कांस्टेबल अपनी दीवाली हमारे सिनेमा की चौकीदारी में बिताएं? यह ज्यादा अच्छा नहीं होगा कि वो शहर के नाकों पर रह कर सीमापार से आने वाले 'असली' आतंकवादियों पर नज़र रखें ? क्या दूर की कौड़ी फिट की है सरजी: राजनीति-के-गुंडों को कुछेक करोंड़ रूपये से गिरा दिया, ऐके 47 से तो उन आतंकवादियों को मारा जाता है जिनके चेहरे नक़ाब से ढँके होते हैं।

'अल्पसंख्यक' तुष्टीकरण की बातें छोड़िये, असली 'डील' तो यह है: मुंबई के 'बहुसंख्यक' मूल निवासियों को संतुष्ट किया जाना

वैसे इसमें फडणवीस साहब ने नया क्या किया है, उन्होंने तो महाराष्ट्र की 1960 से चली आ रही गौरवशाली परंपरा को ही आगे बढ़ाया है, जिसमें कांग्रेस के वसंतराव नाईक ने मुंबई की सेनाओं का 'संतुष्टिकरण' किया था ? 'अल्पसंख्यक' तुष्टीकरण की बातें छोड़िये, असली 'डील' तो यह है: मुंबई के 'बहुसंख्यक' मूल निवासियों को संतुष्ट किया जाना । एक बात सच-सच बताइए, क्या किसी ने सच में यह सोचा था कि कानून व्यवस्था को लेकर बीजेपी अलग तरह की पार्टी है ? बस ये दुःखी रहने वाले 'लिबरल' हैं जो हमेशा की तरह इसपर भी रोना ही रोयेंगे। ‘राष्ट्रवादी' तो ख़ुश होंगे, होंगे ही होंगे ? और आप ही बताइए 'चरम-राष्ट्रवाद' के इस मौजूदा दौर में कोई भला क्यों इन मूरख 'एंटी नेशनल्स' की बातों में आये, इनका क्या भरोसा, क्या पता ये पाकिस्तानी फ़िल्मी कलाकारों को इंडियन सिनेमा में काम करते देखना चाहते हों। किया होगा गृहमंत्री ने फ़िल्म प्रोडूसरों की रक्षा का वादा, देखिये जब राज से काम चल जा रहा है तो राजनाथ की क्यों सुनें ? और यह न भूलिए कि कल को अगर बीजेपी अपने कम भरोसेमंद साथी शिवसेना के बजाय किसी और के बारे में सोचती है, तब ये दूसरा ठाकरे ज्यादा काम का निकल सकता है। समझे! क्या स्ट्रेटेजी है।

टनटनाते मीडिया सूरमा

Pahlaj Nihalani: Does Arnab think he runs the country from his newsroom? (Sat, 8 Oct 2016-06:30am , Mumbai , DNA)
अब बचे हमारे टनटनाते मीडिया सूरमा, उनका क्या ? इतने दिनों से वो पाकिस्तानी कलाकारों को पूरी तरह बैन किये जाने के लिए कहे जा रहे थे। अब जबकि ऍमएनएस ने उनका 'काम' कर दिया है, तो क्या वो सचमुच में किसी केसरी सूरमा के ऊपर ज़बरदस्ती वसूली का आरोप लगा सकते हैं ? अगर एकदफ़ा आपने टेलीविजन स्टूडियो की नैतिक कमान बौराई भीड़ को दे दी, तब आप अचानक उनके ऊपर क़ानून तोड़ने या सरकार पर दबाव डालने का आरोप कैसे लगा सकते हैं ? टीआरपी संविधान के ब्योरों से कहीं अधिक माने रखती है। वैसे ही जिस तरह यह हमारी या राष्ट्रीय 'भावना' (क्या किसी ने झारखण्ड के आदिवासियों से पूछा है - उनके लिए पाकिस्तानी फिल्म स्टार्स का भविष्य अधिक ज़रूरी है या फिर उनकी ख़ुद की ज़िन्दगी से जुड़े मुद्दे)।

दिलेर फ़िल्मी बिरादरी का अपने असल रंग

इन सारी बातों से ऊपर, आपकी दिलेर फ़िल्मी बिरादरी का अपने असल रंग को उजागर करना है। आप तो जानते हैं अपने परमवीर स्टार्स को जो परदे पर एक बार में १०-१० गुंडों से लड़ रहे होते हैं? आपने देखी अजय देवगन की 'दिलेर' अदाकारी जब वो पाकिस्तानी फ़िल्मकारों के खिलाफ़ बोल रहे थे (उस समय क्या उन्होंने बताया कि उन्होंने बीजेपी का चुनाव प्रचार किया था) या फिर करण जोहर का वो विडियो जिसमें वो गुंडों में फंसे रज़िया जैसे डरे दिखाई देते हैं, या फिर अमिताभ बच्चन को देखा, जब वो इस मुद्दे पर पूछे गए सवाल को ही टाल रहे थे ? शाहरुख़ चुप हैं (दूध के जले हैं सो छाछ भी फूँक फूँक?) आम़िर की फ़िल्म रिलीज़ होने वाली है, सलमान ने बोला लेकिन वो वैसे वाले 'समझदार' नहीं हैं, या हैं ? अब बचे बाकी मशहूर कलाकार और प्रोडूसर : अरे यार, वो क्यों बोल कर अपने कैरियर का सर ऊखल में डालें ? अब जब भारत के सबसे-बड़े सितारों ने चुप्पी साधी हुई है, तो आप किसी छुटभैये से क्या उम्मीद रखते हैं (ठीक है, अनुराग कश्यप छुटभैया नहीं है!) भाई साहब आज 'ऐ दिल है मुश्किल' की मुश्किल में है तो कल किसी भी और की मुश्किल हो सकती है।

अंत में यह सवाल निकल के आता है : राजनीतिक/व्यापारिक लाभ ज़रूरी है कि सांस्कृतिक स्वतंत्रता की चाहत और भारत-पाक नागरिकों का आपसी मेलजोल ?  भारत के सबसे अमीर आदमी मुकेश अम्बानी जिस तरह का जाप किये जा रहे थे "भारत से पहले कोई नहीं!"। वो ठीक से कह नहीं पाए कि इस छद्म-राष्ट्रीयता के दौर में, "पैसे जैसा कोई नहीं"।

उपसंहार: बगैर-नैतिकता और संविधानिक-अंधकार के इस समय में हमारे वीर सैनिक और उनके परिवार ही आख़िरी उम्मीद हैं। हम उनसे सिर्फ यह आशा ही रख सकते हैं कि 'इज्ज़त' और सम्मान उनके लिए सबसे ऊपर होते हैं और अपने बलिदान की लगायी गयी पाँच करोड़ कीमत को लेने से वह इंकार कर देंगे। जब हम इधर दीवाली की छुट्टी में एडीएचएम देखने की तैयारी कर रहे हैं, वे हमारी सीमाओं की रक्षा कर रहे होंगे।
हैप्पी दीवाली।

राजदीप सरदेसाई के
ब्लॉग (www.rajdeepsardesai.net/blog-views/sarkar-raj) का 
अंग्रेज़ी से अनुवाद 
भरत तिवारी @BharatTiwari
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मोदी ने अभी तक तो सही संतुलन बनाये रखा है लेकिन युद्ध-प्रेमियों को कब तक दरकिनार रख पाएंगे #SurgicalStrike


मोदी का विपक्ष के एक अतिउत्साही नेता से सामरिक संयम के लिए ढांचा तलाशते राजनीतिज्ञ में बदलने की यह प्रक्रिया, एक तरह से, लोकतंत्र की वह शक्ति दर्शाती है, जिसमें एक जटिल समाज पर शासन की चुनौतियां, राजनीतिक उन्माद की धार का पैनापन कम कर देती हैं... — राजदीप सरदेसाई


rajdeep sardesai on modi and surgical strike pakistan

टीवी ने युद्ध के लिए एक बड़ा निर्वाचन क्षेत्र बना दिया है

MODI'S FIRM MESSAGE BUT CAN WAR-MONGERS BE KEPT AT BAY?

इस 24x7 मीडिया के ब्रह्मांड में, छुपने के लिए सचमुच कोई जगह नहीं है। यही वजह है कि इसमें कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि पिछले हफ्ते प्रधानमंत्री मोदी का वह विडियो वायरल हुआ जिसमें वह गुजरात मुख्यमंत्री के रूप में तब की यूपीए सरकार की पाकिस्तान नीति के ख़िलाफ़ बोलते नज़र आ रहे हैं। वीडियो में मोदी मनमोहन सिंह सरकार का मजाक इसलिए उड़ाते दिखते हैं क्योंकि पाकिस्तान को आतंकवादी हमले करने के लिए करारा जवाब नहीं दिया गया। उन्हें वीडियो में यह कहते हुए सुना जा सकता है "दुनिया से समर्थन के लिए भीख माँगने के बजाय पाकिस्तान पर हमला क्यों नहीं कर रहे हैं" । पाकिस्तान स्थित आतंकवादी शिविरों पर उड़ी हमले के बाद हड्डीतोड़ हमले (surgical strike) की घोषणा की यही वजह है, यह प्रधानमंत्री के लिए निर्णय की घड़ी है : 2014 के चुनावों के पूर्व किये गए वादे "पाकिस्तान को सबक सिखाना" को पूरा करने के लिए मोदी अब क्या-क्या कदम उठाते हैं।"

मोदी का विपक्ष के एक अतिउत्साही नेता से सामरिक संयम के लिए ढांचा तलाशते राजनीतिज्ञ में बदलने की यह प्रक्रिया, एक तरह से, लोकतंत्र की वह शक्ति दर्शाती है, जिसमें एक जटिल समाज पर शासन की चुनौतियां, राजनीतिक उन्माद की धार का पैनापन कम कर देती हैं। अपने हाल के भाषणों ‘कोझिकोड’ और ‘मन की बात’ में, मोदी ने पाकिस्तान पर अपनी टिप्पणी में एक आश्वासनपूर्ण व्यावहारिकता दिखायी है : जैसा कि पहले दिखाई देता था उसके विपरीत, बगैर लड़ाई के लिए उत्सुक या मिडिया में छाने की कोशिश किये, मोदी ने इस्लामाबाद को एक कड़ा सन्देश दिया। यहाँ तक कि सर्जिकल स्ट्राइक भी एक तरह से पहली चेतावनी की तरह है न कि युद्ध की कोई घोषणा। एक हद तक मोदी की नीति को असंगत के बजाय उपयुक्त प्रतिक्रिया मिली है ।



इसके ठीक विपरीत उनके समर्थकों, जिनमें से बहुतों का मानना है कि मोदी को और बड़े कदम उठाने चाहियें। भाजपा महासचिव राम माधव का कहना है "दाँत के बदले पूरा जबड़ा"। एक टीवी बहस में भाजपा के एक नेता ने अजीब ढंग का दावा किया कि अगले स्वतंत्रता दिवस से इस्लामाबाद के ऊपर भारतीय ध्वज लहरा रहा होगा। सोशल मीडिया पर भाजपा की इंटरनेट सेना "सर्जिकल स्ट्राइक'' की ख़बर से उन्मादित हो और बड़ा, और अधिक होने की आशा दिखा रही है। जबकि सेना ने एक सीमित कार्यवाही की बात कही है, फिर भी टीवी स्टूडियो और कम्प्युटरी संसार में युद्ध घोषित किया जा चुका है।

यह अनियंत्रित अंधराष्ट्रीयता दोबारा आये तो कोई आश्चर्य की बात नहीं होगी। "आओ युद्ध करें "... टीवी पर दिखता यह पागलपन न सिर्फ राजनीतिक सरगर्मी बल्कि टीवी कार्यक्रम की टीआरपी को भी बढ़ावा देता है। ‘अच्छे' टीवी के लिए, धुर विरोधी भारतीय और पाकिस्तानी जनरल - ऐसा रूपक तैयार करते हैं जिसमें शोरगुल और हाथापाई-जैसे माहौल के बीच 'भावना' की जगह 'सनसनी' ले पाये। टीवी ने युद्ध के लिए एक बड़ा निर्वाचन क्षेत्र बना दिया है: यहाँ WWE-सरीखी कुश्ती जैसे प्रारूप वाली बहस में संयत, सूक्ष्म विचारों के लिए बहुत कम जगह है।

भाजपा के कट्टर समर्थकों के लिए, जो अभी भी विभाजन को मान्यता नहीं देते, कठोर राष्ट्रवाद जो पाकिस्तान को वह स्थायी 'शत्रु' मानना चाहता है जिसे हर हाल में नष्ट किया जाना चाहिए, उनके अखण्ड भारत के वैश्विक नजरिये से मेल खाता हैं, यह तक़रीबन पाकिस्तान के उन चरमपंथी संगठनों जैसा ही है जो भारत का खून बहते देखना चाहते हैं। भगवा विचारधारा का लम्बे समय से यही मानना है कि कांग्रेस एक कमज़ोर राष्ट्र बन के पाकिस्तान को ज़रूरत से कहीं ज्यादा छूट देती है। उनकी नेहरू के प्रति घृणा और कुछ हद तक महात्मा गांधी के लिए भी, इस आरोप के चलते है कि कांग्रेसी नेताओं ने 1947 से ही कभी पाकिस्तानयों के झांसों को सामने नहीं आने दिया, ख़ासकर कश्मीर के घाव को। और अब चूंकि यहाँ बहुमत से बनी पहली दक्षिणपंथी सरकार है, जिसका नेता ख़ुद ही अपने सीने को छप्पन इंच का बताता है, तो यह अकारण नहीं कि भगवा योद्धाओं को लगता है कि पुरानी गलतियाँ अब दूर हो जाएँगी। न सही पूरा पाकिस्तान लेकिन कम से कम पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर में पुनः कब्जा किया जाना चाहिए।

यही वजह है मोदी के कई सबसे प्रबल समर्थक प्रधानमंत्री को इसबात के लिए लगभग उकसा रहे हैं कि रुकिए नहीं , जल्द से जल्द युद्ध का आह्वान कर दें। सरकार की, पाकिस्तान के राजनयिक अलगाव, उसे अलग-थलग करने की कोशिशें, एक लम्बी और कठिन प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया में अनेक देशों को अपने साथ लाना होगा। इसके लिए कौशल और संकल्प की ज़रूरत है और इन दोनों से भी अधिक ज़रूरत है 'धैर्य' की ह। इस रास्ते पर चलने की कोशिश मोदी से पहले मनमोहन सिंह और अटल बिहारी वाजपेयी ने की थी, जिसके मिश्रित परिणाम आये थे। यहाँ दिक्कत यह है कि मोदी की छवि वास्तविकता से बड़ी एक उस शक्तिवान-राजनीति से तैयार की गयी है , जो उन्हें एक अर्नाल्ड श्वार्जनेगर-सरीखे 'टर्मिनेटर' की तरह देखती है न कि एक ऐसे राजनेता की तरह जिसका मुख्य हथियार कूटनीति होती हो।

rajdeep sardesai on surgical strike and narendra modi


अब सवाल यह उठता है कि क्या मोदी और उनका प्रशासन इस सर्जिकल स्ट्राइक के बाद पाकिस्तान के आतंकवादी ठिकानों पर और ठोस हमले करेगा। उत्तर प्रदेश, एक प्रमुख राज्य में चुनाव कुछ ही महीने दूर हैं और मोदी को पता है कि वह नवाज शरीफ के साथ किसी तरह की 'झप्पी-पप्पी' जैसा आदानप्रदान नहीं कर सकते, यही वजह है कि सार्क शिखर सम्मेलन में जाने से इंकार कर दिया गया। और इसके साथ ही मोदी को इस्लामाबाद पर आतंकियों को शरण देने के लिए भारी आर्थिक दबाव भी डालना है। एलओसी पार किया गया यह सोचा-समझा आक्रमण भले ही एक कठोर सन्देश देगा लेकिन असली सवाल यह है कि मोदी इसे किस हद तक आगे बढ़ाने का जोख़िम उठा सकते हैं, क्योंकि यह भारत के विकास की गाथा को ख़त्म कर सकता है। यह पल समय से पहले उत्सव के बजाय गंभीरता की मांग करता है। अभी तक तो मोदी ने सही संतुलन बनाये रखा है लेकिन युद्ध-प्रेमियों को कब तक दरकिनार रख पाएंगे।

पुनश्च: सिर्फ मोदी ही नहीं बल्कि उनकी सहयोगी सुषमा स्वराज को भी अपनी प्रतिक्रियाओं को लेकर सावधान रहना होगा। 2013 में जब भारतीय सैनिक का गला काटने की घटना हुई थी तब सुषमा ने फौरन एक के बदले 10 पाकिस्तानी सिरों की बात कही थी। अब संयुक्त राष्ट्र में उनके द्वारा दिए गए, अच्छी तरह से तैयार भाषण से पता चलता है कि घरेलू मैदान में खेलना और आतंकवाद के खिलाफ एक वैश्विक गठबंधन बनाना दो बिलकुल अलग काम हैं।

राजदीप सरदेसाई के अंग्रेजी लेख का हिंदी अनुवाद - भरत तिवारी
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केजरीवाल सरकार का इतनी दफ़ा केंद्र के निशाने पर आना संयोग ? — राजदीप सरदेसाई @sardesairajdeep


केजरीवाल में इतना साहस रहा है कि वे ऐसे मुद्‌दे उठाते हैं, जिन्हें कोई और नेता छूने की हिम्मत नहीं कर सकता
केजरीवाल सरकार का इतनी दफ़ा केंद्र के निशाने पर आना संयोग ?  — राजदीप सरदेसाई

जैसा कहा, वैसा होकर दिखाएं केजरीवाल

— राजदीप सरदेसाई

राजनीतिक दलों के श्रद्धाजंलि-लेख लिखना खतरनाक काम हो सकता है। जुलाई 2014 में एक अंतरराष्ट्रीय प्रकाशन ने मुझे अाम आदमी पार्टी के राजनीतिक अंत पर लेख लिखने को कहा। यह आम चुनाव में नरेंद्र मोदी की तूफानी जीत के कुछ हफ्तों के बाद की बात है। तब ‘आप’ ऐसी स्टार्टअप लग रही थी, जिसका शुरुआती जोश खत्म हो गया हो। मैं तब एक किताब लिखने में व्यस्त था, इसलिए इनकार कर दिया। वह ठीक ही रहा, क्योंकि कुछ वक्त बाद ही ‘आप’ ने दिल्ली के चुनाव में शानदार जीत दर्ज की। ‘आप’ के लिए कयामत का दिन देखने वाले पंडित गलत सिद्ध हुए।

शाश्वत संघर्ष की मुद्रा में रहकर ‘आप 2.0’ चुनाव नहीं जीत सकती

अब ‘आप’ के लिए फिर स्मृति-लेख लिखे जा रहे हैं। पिछले कुछ माह में ऐसा लगा है कि ‘आप’ का प्रयोग नाकाम हो रहा है और पार्टी आगे बढ़ने में लड़खड़ा रही है। एक मंत्री सीडी में दुराचार करता पाया गया और इस्तीफा देने पर मजबूर होकर दिल्ली सरकार का ऐसा तीसरा मंत्री बना। पार्टी के 21 विधायकों पर लाभ के पद संबंधी कानून के तहत अपात्र घोषित किए जाने का खतरा मंडरा रहा है। पार्टी का पंजाब संयोजक एक स्टिंग में िरश्वत मांगते पकड़े जाने के बाद बर्खास्त किया गया है। स्टिंग में पार्टी की भीतरी कलह की गंध आती है। दिल्ली हाईकोर्ट ने कह दिया है कि दिल्ली के नगर-राज्य में उपराज्यपाल ही सर्वोच्च अधिकारी हैं। क्रिकेटर से राजनेता बने नवजोत सिंह सिद्धू पंजाब चुनाव में ‘आप’ को समर्थन देने की पेशकश से मुकर गए हैं। इसकी बजाय उन्होंने चौथा मोर्चा खोल लिया है।

यहां तक कि पार्टी के शुभंकर और सर्वोत्तम चेहरे अरविंद केजरीवाल की कार्यशैली भी तीखी आलोचना के दायरे में है। सिद्धू ने फैसले की घोषणा करते हुए केजरीवाल की जमकर खबर लेते हुए उन पर ‘असुरक्षा से ग्रस्त’ तानाशाह होने का अारोप लगाया। सिद्धू की छवि चाहे ऐसे विद्रोही की हो जिन्हें सत्ता की मलाई में बड़ा हिस्सा देने से इनकार किया गया हो, लेकिन उनकी आलोचना में प्रशांत भूषणयोगेंद्र यादव जैसे पार्टी संस्थापकों के आरोपों की गूंज सुनाई देती है, जो उन्होंने बाहर का रास्ता दिखाए जाने पर लगाए थे। हाईकमान संस्कृति और केजरीवाल के आसपास दरबारियों के घेरे के आरोप स्पष्ट रूप से उन आरोपों से साम्य रखते हैं, जो पार्टी ने अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों पर लगाए थे। अलग किस्म की पार्टी होने का दावा करते हुए ‘आप’ मौजूदा उस राजनीतिक संस्कृति से ऊपर नहीं उठ पाई, जो गुटबाजी और ‘सुप्रीमो’ कल्ट से रेखांकित होती है।

आप’ समर्थकों का दावा है कि उनके नेतृत्व को द्वेषपूर्ण सत्ता प्रतिष्ठान और यहां तक कि मीडिया का वह तबका भी निशाना बना रहा है, जो राजनेता-कॉर्पोरेट प्रभुत्व से जुड़ा है। कुछ दावों के औचित्य से इनकार नहीं किया जा सकता : दिल्ली की केजरीवाल सरकार इतनी बार केंद्र के निशाने पर आई है कि उसे सिर्फ संयोग कहकर खारिज नहीं किया जा सकता। इसके बावजूद ‘आप’ को यह अहसास होना चाहिए कि 2011 में उसने अन्ना के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के हिस्से के रूप में सत्ताधारी वर्ग के खिलाफ आरोपों की राजनीति शुरू की, जिसने एक ऐसा राजनीतिक माहौल तैयार किया है, जिसमें नेताओं के खिलाफ तिरस्कार बढ़ा है। अब बैकफुट पर पकड़े जाने के बाद यह व्यवस्था पलटवार कर रही है : यदि आप किसी के खिलाफ एक उंगली उठाओ तो वे पलटवार के मौके की ताक में रहेंगे ही। शुरू में ‘आप’ के उदय को समर्थन देने वाला मीडिया दोधारी तलवार है। पार्टी को शुरू में जो जरूरत से ज्यादा प्रचार मिला है, अब वह उतनी ही अतिशयोक्तिपूर्ण आलोचना की शिकार है। स्पष्ट है कि वे ऊंचे आदर्श जिनके कारण ‘आप’ प्राय: राजनीति को नैतिक शास्त्र के सबक की तरह लेती थी, अब पीछे छूट गए हैं। इसके कई सदस्य उन्हीं कमजोरियों के शिकार पाए गए, जो प्रमुख राजनीतिक दलों में हैं। ‘आप’ चाहे दावा करे कि उसने दोषी विधायकों और मंत्रियों के खिलाफ कार्रवाई की है, लेकिन सवाल तो यही है कि सबसे पहले आपने इस तरीके से टिकट बांटे ही क्यों? ‘आप’ के ऊंचे नैतिक मानक से नीचे गिरने के साथ मध्यवर्ग में मोहभंग हो गया है। वे अब उस वर्ग के आयकन नहीं हैं, जिसने अन्ना अांदोलन के दौरान उन्हें खुशी से गले लगाया था। ‘जनता की पार्टी’ का रूमानी आकर्षण खत्म हो गया और स्वयंसेवकों वाली भावना का स्थान यथार्थवादी राजनीति ने ले लिया, जिसमें संगठन व वैचारिक एकरूपता निर्मित करने की बजाय चुनाव जीतने का ज्यादा महत्व है। इसीलिए आम अादमी पार्टी व्यापक स्तर पर प्रतिभाओं को आकर्षित नहीं कर पाई है।

इसके बावजूद इंडिया ए प्लस और इंडिया ए (क्रमश: हर माह एक लाख रुपए से ज्यादा और 40 हजार रुपए से ज्यादा आय वाले वर्ग) के परे ऐसा वर्ग अब भी है, जिसके लिए केजरीवाल और ‘आप’ संसाधनों में निष्पक्ष और अधिक समानता आधारित हिस्सेदारी की उम्मीद के प्रतीक हैं। इंडिया बी, सी और उसके आगे (जिनमें से कई हाशिये पर जी रहे हैं और अब भी अपनी हसरतें पूरी करने के लिए संघर्षरत हैं) ‘आप’ का विचार अब भी जोरदार तरीके से गूंज रहा है। इस विशाल सामाजिक-आर्थिक समूह को मोदी सरकार के ‘अच्छे दिन’ के वादे के बावजूद कोई ठोस फायदे नहीं मिले हैं। यही उन्हें ‘अाप’ का मतदाता वर्ग बनाती है खासतौर पर विशाल शहरी आबादी वाले राज्यों में

फिर केजरीवाल में इतना साहस रहा है कि वे ऐसे मुद्‌दे उठाते हैं, जिन्हें कोई और नेता छूने की हिम्मत नहीं कर सकता। इसके कारण श्रेष्ठ वर्ग के गठजोड़ को चुनौती देने वाले मसीहा होने की उनकी मूल छवि कुछ हद तक अब भी बची हुई है। जब तक केजरीवाल विशुद्ध रूप से ‘बाहरी’ बने रहते हैं, उनके पास राजनीतिक आधार बढ़ाने के मौके रहेंगे। लेकिन शाश्वत संघर्ष की मुद्रा में रहकर ‘आप 2.0’ चुनाव नहीं जीत सकती। पार्टी को जो कहती है वह करके दिखाने के लिए भ्रष्टाचार विरोधी लुभावने नारों के परे जाकर शासन का अधिक कारगर विकल्प देना होगा। उपराज्यपाल से कभी न जीती जा सकने वाली लड़ाई में पड़ने की बजाय राष्ट्रीय राजधानी में डेंगू और चिकनगुनिया से युद्धस्तर पर निपटने के बारे में क्या ख्याल है?

पुनश्च : पिछले कुछ दिनों में केजरीवाल उनकी सरकार के आलोचक पत्रकारों पर ‘दलाल’ व ‘मोदी के प्रवक्ता’ कहकर ट्विटर के जरिये हमले कर रहे हैं। केजरीवाल चाहे मीडिया के पक्षपात से क्रोधित हों, लेकिन जब क्रोध उन्माद में बदल जाता है तो यह आत्म-विनाश की राह होती है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
राजदीप सरदेसाई
वरिष्ठ पत्रकार
rajdeepsardesai52@gmail.com
दैनिक भास्कर से साभार
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