भ्रष्टाचार Vs सांप्रदायिकता: भटकाती राजनीति — #राजदीप_सरदेसाई



राजनीतिक दोगलेपन ढंकते नारों का पर्दा...

Rajdeep Sardesai


‘हम नरेंद्र मोदी, अमित शाह और आरएसएस को हराकर धर्मनिरपेक्षता का बचाव करने के लिए एकजुट हो रहे हैं,’ अपने खास अंदाज़ में लालू यादव ने सितंबर 2015 में बिहार विधानसभा चुनाव के ठीक पहले मुझे दिए इंटरव्यू में कहा था। नीतीश कुमार ने भी पूरे जोश के साथ दलील दी थी, ‘हमारी सबसे बड़ी चुनौती सांप्रदायिक ताकतों को पराजित करना है, जिसका प्रतिनिधित्व मोदी करते हैं।’ फरमा तैयार था: 2015 के पतझड़ में धर्मनिरपेक्षता के दुर्ग को केसरिया हमले से बचाया जाना था। अब लगभग दो साल बाद राजनीति के ये उसूल बदल दिए गए और अब: अब धर्मनिरपेक्षता ऐसा आदर्श नहीं रहा, जिसके लिए संघर्ष किया जाए, क्योंकि बिहार के मुख्यमंत्री के शब्दों में भ्रष्टाचार के खिलाफ ‘जीरो टॉलरेंस’ (बिल्कुल बर्दाश्त न करना) होना चाहिए।



Triple Talaq Essay
प्रशंसकों के बीच सेल्फी खिंचवाते राजदीप सरदेसाई (फ़ोटो: भरत तिवारी)

भ्रष्टाचार और सांप्रदायिकता को दो ऐसी (प्रतिद्वंद्वी) ताकतों की तरह दिखाया जा रहा है, जो एक-दूसरे को खत्म करने की लड़ाई में उलझे हैं। पूरी बहस को इतनी चतुराई से गढ़ा गया है जैसे कि आपको यह तय करना है कि भ्रष्टाचार से लड़ना है अथवा सांप्रदायिकता का बहिष्कार करना है और आप दोनों के खिलाफ़ हो कर राजनीति नहीं कर सकते। इस प्रक्रिया में हमारे नेताओं का नैतिक दीवालियापन एक बार फिर उजागर हो गया है। जैसा कि नीतीश कुमार और लालू यादव की जीवनी के लेखक संकर्षण ठाकुर ने लिखा, ‘अब अंतरात्मा की आवाज पर फैसले की नहीं, फैसले को आत्मा से स्वीकार करने की बात है।’

यह ‘धर्मनिरपेक्षता’ और ‘भ्रष्टाचार विरोध’ दोनों को साथ खड़ा किये जाने का क्लासिक केस है। राजनीतिक दोगलेपन ढंकते नारों का पर्दा। मसलन, जब नीतीश मोदी विरोधी ‘महागठबंधन’ के हिस्से बने तो क्या वे ‘धर्मनिरपेक्ष’ हो गए और मोदी का हाथ थामते ही ‘सांप्रदायिक’ हो जाते हैं? क्या मोदी विरोध ही ‘धर्मनिरपेक्षता’ को परिभाषित करने की कसौटी है या फिर देश की उस बहुलतावादी नीति के प्रति अकाट्य निष्ठा है जो जो बहुसंख्यक राज्य को समर्थन देने वालों से कोई समझौता नहीं करेगी। वैसे भी नीतीश भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए में 17 साल रहे और 2002 गुजरात दंगों के खिलाफ कोई आवाज नहीं उठाई, जबकि वे वाजपेयी मंत्रिमंडल में रेल मंत्री थे। क्या आरएसएस की विचारधारा उन्हें तभी अभिशप्त लगी जब जून 2013 में मोदी ने भाजपा का नेतृत्व हाथ में लिया?




यदि नीतीश को लगता है कि उन्हें ‘भ्रष्ट’ लालू व परिवार के साथ नहीं देखा जाना चाहिए, तो क्या विधानसभा को भंग कर बिहार की जनता के सामने जाना बेहतर नहीं होता? यदि वे खुद को गैर-सांप्रदायिक, सुशासन बाबू कहलाना चाहते हैं तो भाजपा-राजद दोनों से अलग रास्ते पर चलना उनके लिए सम्मानजनक नहीं होता? अथवा वे अपनी सीमाएं जानते हैं कि नैतिक आभामंडल ओढ़ने के बावजूद उनका इतना आधार नहीं है कि वे बिहार में अपने बल पर चुनाव लड़ सकें? नीतीश ही एकमात्र मामला नहीं है जहां सुविधा ने निष्ठा को मात दी है। मुंबई कांग्रेस प्रमुख संजय निरुपम ने शिवसेना सांसद के रूप में कॅरिअर शुरू किया। उन्होंने शिवसेना के उस मुखपत्र का संपादन भी किया, जिसने 1992-93 के मुंबई दंगों के दौरान खूब जहर उगला था। क्या निरुपम सिर्फ इसलिए धर्मनिरपेक्षता की लड़ाई के मोर्चे पर हो सकते हैं, क्योंकि उन्होंने पाला बदल लिया है? गुजरात में शंकरसिंह वाघेला पिछले 15 वर्षों से कांग्रेस का चेहरा रहे हैं, जबकि अपने राजनीतिक जीवन के अधिकांश हिस्से में वे संघ परिवार के समर्पित सदस्य रहे हैं। क्या अब वे अचानक अपनी ‘धर्मनिरपेक्ष’ पहचान गंवा चुके हैं, क्योंकि उन्होंने कांग्रेस से इस्तीफा देकर मोदी के जगन्नाथी रथ से सुलह कर ली है? खेद है कि धर्मनिरपेक्षता के तथाकथित झंडाबरदार संकुचित व सहूलियत की राजनीति के कारण अपना नैतिक अधिकार खो देते हैं।

भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई भी राजनीतिक सुविधा के अनुसार इसकी अनदेखी करने के कारण कमजोर कर दी गई है। 2015 में लालू यादव चारा घोटाले में दोषी पाए गए थे लेकिन, फिर भी मोदी विरोधी गठबंधन में महत्व रखते थे, क्योंकि उनके पास अहम वोट बैंक था। ‘जंगल राज’ भुला दिया गया, क्योंकि धर्मनिरपेक्ष मूल्य दांव पर थे और चुनाव जीतना जरूरी था। अब नीतीश उन्हीं लालू को उन्हीं मोदी के लिए त्याग रहे हैं, जिन्हें वे और उनके समर्थक हिटलर जैसा तानाशाह मानते थे। क्या राहुल गांधी वह भ्रष्टाचार विरोधी अध्यादेश फाड़ने का औचित्य बता सकते हैं, जिसे 2013 में लालू को बचाने के लिए लाया गया था और दो साल बाद वे उसी लालू के साथ खड़े नज़र आते हैं? पाखंड सारे दलों में हैं।




क्या लालू को भ्रष्टाचार का सबसे बड़ा प्रतीक बताने वाली भाजपा बता सकती है कि कर्नाटक में उसने बड़े पैमाने पर धोखाधड़ी के आरोपी खदान मालिक रेड्डी बंधुओं के समर्थन से सरकार क्यों चलाई? अथवा उसने बड़ी खुशी से उत्तराखंड में कांग्रेस छोड़कर आने वालों से हाथ क्यों मिलाया, जिन पर वह तब भ्रष्टाचार के आरोप लगाती थी, जब वे कांग्रेस में थे? भाजपा के राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ मामलों को सीबीआई तेजी से आगे क्यों बढ़ा रही है, जबकि मध्यप्रदेश व छत्तीसगढ़ जैसे भाजपा शासित राज्यों में ऐसे मामले दबाए जा रहे हैं? या भ्रष्टाचार का सरकारी पैमाना इस निर्लज्ज रवैए पर आधारित है कि आप तभी भ्रष्ट है, जब सरकारी एजेंसियां आपको ऐसा कहें?

सच तो यह है कि भ्रष्टाचार और साम्प्रदायिकता दोनों का बिना पक्षपात व समझौता किए विरोध करना होगा। दोनों के बीच कोई भी झूठा फर्क पैदा करने के खतरे भाजपा द्वारा योगी आदित्यनाथ को उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाने में जाहिर है। बेशर्मी से सांप्रदायिक नफरत को भड़काने वाले नेता के लिए तब तालियां बजाई गईं जब उन्होंने उत्तर प्रदेश को अपराध और भ्रष्टाचार से मुक्त करने का वादा किया। क्या योगी का द्वेषपूर्ण भूतकाल इसलिए भुला दिया जाए, क्योंकि अब वे भ्रष्टाचार के खिलाफ स्वयंभू योद्धा हो गए हैं?

पुनश्च: पिछले हफ्ते भाजपा की इंटरनेट आर्मी और नीतीश समर्थक वह डिलिट करने में व्यस्त थे, जो दोनों ने एक-दूसरे के बारे में पिछले चार साल में सोशल मीडिया पर कहा था। मैं उन्हें थोड़ा ठहरने का सुझाव दूंगा, क्योंकि कौन जानता है कि राजनीतिक ‘हवा’ कब बदल जाए?


(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
लेख भास्कर से (सुधार सहित) साभार
००००००००००००००००

एक टिप्पणी भेजें

1 टिप्पणियाँ

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (05-08-2017) को "लड़ाई अभिमान की" (चर्चा अंक 2687) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

    जवाब देंहटाएं

ये पढ़ी हैं आपने?

Hindi Story: कोई रिश्ता ना होगा तब — नीलिमा शर्मा की कहानी
विडियो में कविता: कौन जो बतलाये सच  — गिरधर राठी
इरफ़ान ख़ान, गहरी आंखों और समंदर-सी प्रतिभा वाला कलाकार  — यूनुस ख़ान
ईदगाह: मुंशी प्रेमचंद की अमर कहानी | Idgah by Munshi Premchand for Eid 2025
परिन्दों का लौटना: उर्मिला शिरीष की भावुक प्रेम कहानी 2025
Hindi Story आय विल कॉल यू! — मोबाइल फोन, सेक्स और रूपा सिंह की हिंदी कहानी
ज़ेहाल-ए-मिस्कीं मकुन तग़ाफ़ुल Zehaal-e-miskeen makun taghaful زحالِ مسکیں مکن تغافل
रेणु हुसैन की 5 गज़लें और परिचय: प्रेम और संवेदना की शायरी | Shabdankan
द ग्रेट कंचना सर्कस: मृदुला गर्ग की भूमिका - विश्वास पाटील की साहसिक कथा
एक पेड़ की मौत: अलका सरावगी की हिंदी कहानी | 2025 पर्यावरण चेतना