गौरव सक्सेना "अदीब" की प्रेम कवितायें



न जाने कब ही क्या तुम मांग बैठो 

— गौरव सक्सेना "अदीब" 

प्रेम ही है एक अमर चीज़। प्रेम को पढ़ना प्रेम, देखना प्रेम, सुनना प्रेम...। गौरव सक्सेना "अदीब" की कविताओं में प्रेम हिरण के मासूम शावक की तरह अपनी बड़ी-बड़ी आँखों से दुनिया को देख रहा है। वक़्त निकालिए और इन कविताओं का रसस्वादन कीजिये — भरत तिवारी


गौरव सक्सेना अदीब की प्रेम कवितायें
प्रेम को क्या कहें मंज़िल या रास्ता...



सिलवटें 

एक ही चादर की कल्पना ह्रदय के साथ धोखा है
               रात भर चादर पर ओस नही टपकती

तुम्हारे सोते ही फ़ैल जाती है चादर
कैनवास की तरह
                    करवटों में दबे सपने गंध से रचते हैं पेंटिंग

फूलों में तुम्हारी ख़ुशबू होती है
                  नदियों में तुम्हारा पसीना
तुम्हारी इच्छाएं पंछी बन जाती हैं
जो करते हैं पलायन मेरे पेड़ की ओर

जैसे जैसे होती है रात
चादर रंग बदल लेती है
इस पर  देह का सारा भूगोल अंकित है
     सिलवटें इसकी लिपि है
     गन्ध इसके स्वर

मैं तुम्हारी अनुपस्तिथि में
इसकी सिलवटें खोलना चाहता हूँ।






मंज़िल और यू-टर्न

जिस रास्ते से जाते हैं
            मंज़िल तक
उसी रास्ते से तो वापिस नही आ सकते हर बार
न जाने कितने
            यू-टर्न लेने पड़ते हैं
यानी वापस आने का रास्ता
ठीक दूसरी ओर नही होता, समानांतर
जितनी आसानी से कहते है
आना - जाना !
मानों उल्टी दिशा में दौड़ती रेलगाड़ी
एक मंज़िल की ओर जाती हुई
     एक ठीक वहीं से आती कि जहाँ जाना हो
चाहे बीच के किसी भी स्टेशन पर उतर कर बदल लो
    लौट आओ वापस

रास्ते उलझे हुए हैं या मंज़िल नही मालूम मुझे
तुम पूरे सफर एक स्टेशन के इंतज़ार में रहीं
मैंने कितने यू-टर्न  अनदेखे कर दिए ।

प्रेम को क्या कहें मंज़िल या रास्ता...





सुनो अमृता 

सुनो अमृता
जब से गयी हो तुम
बादलों की कोर भीगी सी हैं
वैसे ही रिस रहा है पानी बूँद-बूँद जैसे
मेरे ह्रदय से रिस रहा है प्रेम तुम्हारे लिए
भीगी मिट्टी की सोंधी ख़ुशबू चली जायेगी
बादल ने मेरे साथ चाय पी है आज टेरेस पे बैठ कर
उसे सब बता दिया मैंने जो मैं करूँगा अगले सात दिन
देखो गौर से देखो तो , कविता सीढ़ी बन गयी है अमृता
बस एक इसी सीढ़ी से  ही  तुम तक आ सकता था कोई...





न जाने कब ही क्या तुम मांग बैठो 

अजब धड़का लगा रहता है अब तो
न जाने कब ही तुम क्या माँग बैठो
कभी तुम माँग लो वापिस वो यादें
कि जिसमें में जिक्र आया हो तुम्हारा

कभी तुम माँग लो वो पल
कि जिसमे रूह मेरी,
तुम्हारी हो गयी थी

या सारी मुस्कराहट ,पाई-पाई जिसको जोड़ा था
      ज़माने भर के खर्चों से बचाकर
      कि ये सब काम आएंगी ग़ुरबत के दिनों में

न जाने कब ही क्या तुम मांग बैठो

कई चीज़ें तुम्हारी,मैंने रक्खीं थी,हिफाज़त से
बिना पूछे
कि जैसा माँ रखा करती थी चीज़ें को छुपाकर
जिसे हम लाख कोशिश के कभी भी पा नही पाये ।।

मुझे इन सारी यादों के ज़ेरॉक्स रखने थे कि जिन पर दस्तख़त तुम कर चुके हो,

चलो छोड़ो बड़ी मुश्किल से  कुछ  जायदाद जोड़ी थी
 ये सोंचे बिन कि
रखने की स्टाम्प ड्यूटी दे नही सकते ।



गौरव सक्सेना अदीब



००००००००००००००००

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ

ये पढ़ी हैं आपने?

Hindi Story आय विल कॉल यू! — मोबाइल फोन, सेक्स और रूपा सिंह की हिंदी कहानी
मैत्रेयी पुष्पा की कहानियाँ — 'पगला गई है भागवती!...'
Harvard, Columbia, Yale, Stanford, Tufts and other US university student & alumni STATEMENT ON POLICE BRUTALITY ON UNIVERSITY CAMPUSES
तू तौ वहां रह्यौ ऐ, कहानी सुनाय सकै जामिआ की — अशोक चक्रधर | #जामिया
गिरिराज किशोर : स्मृतियां और अवदान — रवीन्द्र त्रिपाठी
कोरोना से पहले भी संक्रामक बीमारी से जूझी है ब्रिटिश दिल्ली —  नलिन चौहान
कहानी : भीगते साये — अजय रोहिल्ला
चित्तकोबरा क्या है? पढ़िए मृदुला गर्ग के उपन्यास का अंश - कुछ क्षण अँधेरा और पल सकता है | Chitkobra Upanyas - Mridula Garg
मन्नू भंडारी: कहानी - एक कहानी यह भी (आत्मकथ्य)  Manu Bhandari - Hindi Kahani - Atmakathy
काली-पीली सरसों | ज्योति श्रीवास्तव की हिंदी कहानी | Shabdankan