केजरीवाल में इतना साहस रहा है कि वे ऐसे मुद्दे उठाते हैं, जिन्हें कोई और नेता छूने की हिम्मत नहीं कर सकता
जैसा कहा, वैसा होकर दिखाएं केजरीवाल
— राजदीप सरदेसाई
राजनीतिक दलों के श्रद्धाजंलि-लेख लिखना खतरनाक काम हो सकता है। जुलाई 2014 में एक अंतरराष्ट्रीय प्रकाशन ने मुझे अाम आदमी पार्टी के राजनीतिक अंत पर लेख लिखने को कहा। यह आम चुनाव में नरेंद्र मोदी की तूफानी जीत के कुछ हफ्तों के बाद की बात है। तब ‘आप’ ऐसी स्टार्टअप लग रही थी, जिसका शुरुआती जोश खत्म हो गया हो। मैं तब एक किताब लिखने में व्यस्त था, इसलिए इनकार कर दिया। वह ठीक ही रहा, क्योंकि कुछ वक्त बाद ही ‘आप’ ने दिल्ली के चुनाव में शानदार जीत दर्ज की। ‘आप’ के लिए कयामत का दिन देखने वाले पंडित गलत सिद्ध हुए।शाश्वत संघर्ष की मुद्रा में रहकर ‘आप 2.0’ चुनाव नहीं जीत सकती
अब ‘आप’ के लिए फिर स्मृति-लेख लिखे जा रहे हैं। पिछले कुछ माह में ऐसा लगा है कि ‘आप’ का प्रयोग नाकाम हो रहा है और पार्टी आगे बढ़ने में लड़खड़ा रही है। एक मंत्री सीडी में दुराचार करता पाया गया और इस्तीफा देने पर मजबूर होकर दिल्ली सरकार का ऐसा तीसरा मंत्री बना। पार्टी के 21 विधायकों पर लाभ के पद संबंधी कानून के तहत अपात्र घोषित किए जाने का खतरा मंडरा रहा है। पार्टी का पंजाब संयोजक एक स्टिंग में िरश्वत मांगते पकड़े जाने के बाद बर्खास्त किया गया है। स्टिंग में पार्टी की भीतरी कलह की गंध आती है। दिल्ली हाईकोर्ट ने कह दिया है कि दिल्ली के नगर-राज्य में उपराज्यपाल ही सर्वोच्च अधिकारी हैं। क्रिकेटर से राजनेता बने नवजोत सिंह सिद्धू पंजाब चुनाव में ‘आप’ को समर्थन देने की पेशकश से मुकर गए हैं। इसकी बजाय उन्होंने चौथा मोर्चा खोल लिया है।
यहां तक कि पार्टी के शुभंकर और सर्वोत्तम चेहरे अरविंद केजरीवाल की कार्यशैली भी तीखी आलोचना के दायरे में है। सिद्धू ने फैसले की घोषणा करते हुए केजरीवाल की जमकर खबर लेते हुए उन पर ‘असुरक्षा से ग्रस्त’ तानाशाह होने का अारोप लगाया। सिद्धू की छवि चाहे ऐसे विद्रोही की हो जिन्हें सत्ता की मलाई में बड़ा हिस्सा देने से इनकार किया गया हो, लेकिन उनकी आलोचना में प्रशांत भूषण व योगेंद्र यादव जैसे पार्टी संस्थापकों के आरोपों की गूंज सुनाई देती है, जो उन्होंने बाहर का रास्ता दिखाए जाने पर लगाए थे। हाईकमान संस्कृति और केजरीवाल के आसपास दरबारियों के घेरे के आरोप स्पष्ट रूप से उन आरोपों से साम्य रखते हैं, जो पार्टी ने अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों पर लगाए थे। अलग किस्म की पार्टी होने का दावा करते हुए ‘आप’ मौजूदा उस राजनीतिक संस्कृति से ऊपर नहीं उठ पाई, जो गुटबाजी और ‘सुप्रीमो’ कल्ट से रेखांकित होती है।
‘आप’ समर्थकों का दावा है कि उनके नेतृत्व को द्वेषपूर्ण सत्ता प्रतिष्ठान और यहां तक कि मीडिया का वह तबका भी निशाना बना रहा है, जो राजनेता-कॉर्पोरेट प्रभुत्व से जुड़ा है। कुछ दावों के औचित्य से इनकार नहीं किया जा सकता : दिल्ली की केजरीवाल सरकार इतनी बार केंद्र के निशाने पर आई है कि उसे सिर्फ संयोग कहकर खारिज नहीं किया जा सकता। इसके बावजूद ‘आप’ को यह अहसास होना चाहिए कि 2011 में उसने अन्ना के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के हिस्से के रूप में सत्ताधारी वर्ग के खिलाफ आरोपों की राजनीति शुरू की, जिसने एक ऐसा राजनीतिक माहौल तैयार किया है, जिसमें नेताओं के खिलाफ तिरस्कार बढ़ा है। अब बैकफुट पर पकड़े जाने के बाद यह व्यवस्था पलटवार कर रही है : यदि आप किसी के खिलाफ एक उंगली उठाओ तो वे पलटवार के मौके की ताक में रहेंगे ही। शुरू में ‘आप’ के उदय को समर्थन देने वाला मीडिया दोधारी तलवार है। पार्टी को शुरू में जो जरूरत से ज्यादा प्रचार मिला है, अब वह उतनी ही अतिशयोक्तिपूर्ण आलोचना की शिकार है। स्पष्ट है कि वे ऊंचे आदर्श जिनके कारण ‘आप’ प्राय: राजनीति को नैतिक शास्त्र के सबक की तरह लेती थी, अब पीछे छूट गए हैं। इसके कई सदस्य उन्हीं कमजोरियों के शिकार पाए गए, जो प्रमुख राजनीतिक दलों में हैं। ‘आप’ चाहे दावा करे कि उसने दोषी विधायकों और मंत्रियों के खिलाफ कार्रवाई की है, लेकिन सवाल तो यही है कि सबसे पहले आपने इस तरीके से टिकट बांटे ही क्यों? ‘आप’ के ऊंचे नैतिक मानक से नीचे गिरने के साथ मध्यवर्ग में मोहभंग हो गया है। वे अब उस वर्ग के आयकन नहीं हैं, जिसने अन्ना अांदोलन के दौरान उन्हें खुशी से गले लगाया था। ‘जनता की पार्टी’ का रूमानी आकर्षण खत्म हो गया और स्वयंसेवकों वाली भावना का स्थान यथार्थवादी राजनीति ने ले लिया, जिसमें संगठन व वैचारिक एकरूपता निर्मित करने की बजाय चुनाव जीतने का ज्यादा महत्व है। इसीलिए आम अादमी पार्टी व्यापक स्तर पर प्रतिभाओं को आकर्षित नहीं कर पाई है।
इसके बावजूद इंडिया ए प्लस और इंडिया ए (क्रमश: हर माह एक लाख रुपए से ज्यादा और 40 हजार रुपए से ज्यादा आय वाले वर्ग) के परे ऐसा वर्ग अब भी है, जिसके लिए केजरीवाल और ‘आप’ संसाधनों में निष्पक्ष और अधिक समानता आधारित हिस्सेदारी की उम्मीद के प्रतीक हैं। इंडिया बी, सी और उसके आगे (जिनमें से कई हाशिये पर जी रहे हैं और अब भी अपनी हसरतें पूरी करने के लिए संघर्षरत हैं) ‘आप’ का विचार अब भी जोरदार तरीके से गूंज रहा है। इस विशाल सामाजिक-आर्थिक समूह को मोदी सरकार के ‘अच्छे दिन’ के वादे के बावजूद कोई ठोस फायदे नहीं मिले हैं। यही उन्हें ‘अाप’ का मतदाता वर्ग बनाती है खासतौर पर विशाल शहरी आबादी वाले राज्यों में।
फिर केजरीवाल में इतना साहस रहा है कि वे ऐसे मुद्दे उठाते हैं, जिन्हें कोई और नेता छूने की हिम्मत नहीं कर सकता। इसके कारण श्रेष्ठ वर्ग के गठजोड़ को चुनौती देने वाले मसीहा होने की उनकी मूल छवि कुछ हद तक अब भी बची हुई है। जब तक केजरीवाल विशुद्ध रूप से ‘बाहरी’ बने रहते हैं, उनके पास राजनीतिक आधार बढ़ाने के मौके रहेंगे। लेकिन शाश्वत संघर्ष की मुद्रा में रहकर ‘आप 2.0’ चुनाव नहीं जीत सकती। पार्टी को जो कहती है वह करके दिखाने के लिए भ्रष्टाचार विरोधी लुभावने नारों के परे जाकर शासन का अधिक कारगर विकल्प देना होगा। उपराज्यपाल से कभी न जीती जा सकने वाली लड़ाई में पड़ने की बजाय राष्ट्रीय राजधानी में डेंगू और चिकनगुनिया से युद्धस्तर पर निपटने के बारे में क्या ख्याल है?
पुनश्च : पिछले कुछ दिनों में केजरीवाल उनकी सरकार के आलोचक पत्रकारों पर ‘दलाल’ व ‘मोदी के प्रवक्ता’ कहकर ट्विटर के जरिये हमले कर रहे हैं। केजरीवाल चाहे मीडिया के पक्षपात से क्रोधित हों, लेकिन जब क्रोध उन्माद में बदल जाता है तो यह आत्म-विनाश की राह होती है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
राजदीप सरदेसाई
वरिष्ठ पत्रकार
rajdeepsardesai52@gmail.com
दैनिक भास्कर से साभार
००००००००००००००००
0 टिप्पणियाँ