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अपारदर्शिता लोकतांत्रिक प्रक्रिया को कमजोर करती है - डॉ शशि थरूर

सरकार जनता की सेवा के लिए है, उससे सच छिपाने के लिए नहीं, यह पब्लिक रिकॉर्ड एक्ट में संशोधन का वक्त है

- डॉ शशि थरूर 




हाल ही में सरकार ने सरकार ने विवादास्पद आदेश दिया कि 'सक्षम प्राधिकारी' की अनुमति के बगैर कोई वरिष्ठ अधिकारी खास करके इंटेलिजेंस समुदाय से जुड़े अधिकारी अपने 'संगठन के अधिकार क्षेत्र' से जुड़ी बातों को प्रकाशित नहीं कर सकते। उल्लंघन करने पर उनकी पेंशन रोकी जा सकती है। 

'राजनीति क्या है भारतीय राजनेताओं की ?' जितिन प्रसाद के दलबदल पर डॉ शशि थरूर

राजनीति की दुकान खोलने वालों, बेहतर होता साबुन के सेल्समैन बन जाते जिस साबुन से गल्ला भरता बेचते। जितिन प्रसाद जी, राजनीति में मैली चादर ओढ़ लेना, विचारधारा से पलट जाना आत्मा को धोखा देना है।

डॉ थरूर के इस  लेख को पढ़ने के बाद... संपादक 

क्या राजनीति में अब सिद्धांत और जुनून मायने नहीं रखते, जितिन प्रसाद के भाजपा में जाने से उठे सवाल

:शशि थरूर


जितिन प्रसाद का भाजपा से जुड़ने का फैसला, वह भी उनके ‘बड़े भाई’ ज्योतिरादित्य सिंधिया के ऐसा ही करने के एक साल बाद, बहुत निराशाजनक है। मैं बिना किसी व्यक्तिगत कड़वाहट के ऐसा कह रहा हूं। दोनों मेरे मित्र थे, हमारा एक दूसरे के घर आनजाना रहा है । मैं जितिन के विवाह में शामिल था ।  इसलिए यह व्यक्तिगत पंसद-नापसंद के बारे में नहीं है। मेरी निराशा का कारण इस सब से कहीं बड़ी बात है । 

सिंधिया और प्रसाद दोनों भाजपा व सांप्रदायिक कट्‌टरपन के खतरों के खिलाफ मुखर आवाजों में शामिल थे। आज दोनों सहर्ष उस पार्टी के रंग में रंग गए, जिसे कभी बुरा कहते थे। सवाल यह है कि वे किसके लिए खड़े हैं? उनकी राजनीति को चलाने वाले मूल्य क्या हैं? या वे सिर्फ सत्ता पाने और खुद को आगे बढ़ाने की खातिर राजनीति में हैं?

आप जब राजनीति में आते हैं तो अपनी मान्यताओं को जरिया देते हैं  

मेरे लिए राजनीति विचारधारा के बगैर निरर्थक है। राजनीतिक पार्टियां आदर्श समाज के एक विचार को अपनाती हैं और खुद को उससे जोड़े रखने की शपथ लेती हैं। यह उनकी विचारधारा होती है। जब आप राजनीति में आते हैं, तो आप पार्टी को वैसे नहीं चुनते, जैसे आप वह कंपनी चुनते हैं जो सबसे अच्छी नौकरी का प्रस्ताव दे।

आप अपनी मान्यताओं के लिए साधन चुनते हैं। राजनीति आईपीएल की तरह नहीं है, जहां आप इस साल एक फ्रेंचाइज के लिए खेलें, अगले साल दूसरी के लिए। राजनीतिक पार्टियों में सिद्धांत और दृढ़ विश्वास मुख्य मुद्दे होते हैं। आप या तो सार्वजनिक क्षेत्र के लिए अधिक दखल देने वाली भूमिका में विश्वास करते हैं या मुक्त उद्यम में। आप या तो समावेशी समाज में विश्वास रखते हैं या सांप्रदायिक रूप से बंटे हुए में। आप या कल्याणकारी राज्य बनाना चाहते हैं या चाहते हैं कि लोग अपनी व्यवस्थाएं खुद करें। एक तरफ की मान्यताएं, दूसरे में नहीं होतीं।

आईपीएल में अगर आपको किसी टीम का प्रबंधन, प्रदर्शन या कप्तान पसंद नहीं आता, तो दूसरी टीम में जाने पर कोई दोष नहीं देता। इसके विपरीत राजनीति में आप अपनी ‘टीम’ में होते हैं क्योंकि उसके उद्देश्य में आपका भरोसा है। फिर भले ही आपकी टीम का प्रदर्शन कितना ही खराब हो, उसका कप्तान आपसे कैसा भी व्यवहार करे, आप किसी और कप्तान या पार्टी को अपनी वफादारी नहीं देते, जिसके विचार आपसे विपरीत हों। ऐसा इसलिए क्योंकि आपके अपने विचार, मान्यताएं आपकी राजनीति में इतनी अंतर्निहित हैं कि आप उन्हें छोड़ नहीं सकते।

बेशक पार्टी आपके सिद्धांतों के लिए सिर्फ प्रतिष्ठित संस्थान नहीं है, बल्कि ठोस संगठन है, जिसमें लोगों के पास उनकी तमाम कमजोरियां, पूर्वाग्रहों के बावजूद जिम्मेदारी है। हो सकता है आपकी पार्टी की विचारधारा वह हो, जिसे आप मानते हैं, लेकिन वह उससे मतदाताओं को प्रभावित न कर पाती है, या इतने अप्रभावी ढंग से चल रही हो कि आपको लगने लगे कि अच्छे विचार कभी चुनाव में जीत नहीं दिला सकते।

इन कारणों से आपकी पार्टी छोड़ने की इच्छा हो सकती है। लेकिन अगर आप खुद का और हर उस बात का सम्मान करते हैं, जिसके लिए आप अतीत में खड़े हुए थे, तो आप खुद को ऐसी पार्टी में ले जाएंगे, जिसकी समान मान्यताएं हों या फिर खुद की पार्टी शुरू करेंगे। आप कभी विपरीत विचारधारा वाली पार्टी में नहीं जाएंगे।

अतीत में राजनीति में आने वाले ज्यादातर लोगों की यही मान्यता होती थी। लेकिन पिछले कुछ वर्षों से हमने कई पदलोलुप राजनेता पैदा होते देखे हैं, जो राजनीति को पेशा समझकर उसमें आते हैं। इनके लिए सिद्धांत और जुनून मायने नहीं रखते। वे राजनीति की प्रक्रियाओं, हार और पुनरुत्थान व उलटफेर के प्रति अधीर रहते हैं। वे बस अगले प्रमोशन के इंतजार में रहते हैं।

हमारे देश में राजनेता जन्मजात रूप से अगले चुनाव से आगे सोचने में असमर्थ हैं। कभी-कभी इन राजनेताओं से पूछने का मन होता है- जब आप अपने पुराने वीडियो देखते हैं, जिसमें आप अभी जो कह रहे हैं, उससे ठीक विपरीत कहा था, तो क्या आपको कुछ शर्म आती है? या अपनी बात कहने के तरीके पर खुद को बधाई देते रहते हैं? जितिन प्रसाद के भाजपा में जाने के उद्देश्यों पर मीडिया कयास लगाता रहेगा। मेरा सवाल अलग है: राजनीति किसलिए है? मुझे डर है, उनका जवाब सही नहीं है।

(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
लेख साभार दैनिक भास्कर 

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नहीं देखी हाई कोर्ट की ऐसी अवहेलना



आंखें राम रहीम की नहीं, मुख्यमंत्री की बंद

हरियाणा से फैली इस अराजकता को देश कभी माफ़ नहीं कर सकेगा। 

     — कल्पेश याग्निक

Photo: Dainik Bhaskar
निर्दोष नागरिकों की ज़िंदगी को अराजक उपद्रवियों के हवाले करने में ही मनोहर लाल ख़ट्‌टर सरकार नहीं डरी



एक-के-बाद एक निर्दोष नागरिकों को लाश में बदला जा रहा है। चारों तरफ़ आग, उपद्रव व चीख पुकार मची हुई है। और इन लाशों के ढेर पर दो दोषी बैठे हैं। पहला, यौन शोषण का दोषी एक बाबा - जिसके लाखों-लाख ‘प्रेमी’ हिंसा का निर्दयी नृत्य कर रहे हैं। दूसरा, कमजोरी का प्रतीक एक मुख्यमंत्री- जिसके लाखों-लाख पुलिस-प्रशासनिक बल इस रक्तपात को रोकने में नकारा सिद्ध हो चुका है।

हरियाणा का हर व्यक्ति जानता था कि डेरा सच्चा सौदा के प्रमुख गुरमीत राम रहीम सिंह इंसां के कोर्ट में पेश होने पर क्या-क्या घट सकता है। बल्कि समूचे नॉर्थ इंडिया में राजनीतिक क्षेत्रों, पुलिस-प्रशासन, कानून के जानकारों और मीडिया ने हिंसा की पूरी आशंका तीन दिन पहले ही जता दी थी।

किन्तु हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्‌टर तो राम रहीम पर मानों विश्वास किए बैठे थे। यहां तक कि पंजाब-हरियाणा हाई कोर्ट ने फटकार लगाई कि जमा हो चुके लाखों डेरा समर्थकों को खदेड़ने में विफल डीजीपी को बर्खास्त कर देना चाहिए। किन्तु डीजीपी को तो दूर, रात साढ़े तीन बजे तक एक डेरा प्रेमी तक को हटाया नहीं गया।


हाई कोर्ट की ऐसी अवहेलना और ऐसी अवमानना पहले नहीं देखी गई। विशेषकर, जब यौन शोषण का दोष सिद्ध होने की स्थिति में ये लाखों समर्थक क्या कर सकते हैं - सरकार खूब समझती थी।

हाई कोर्ट क्या, निर्दोष नागरिकों की ज़िंदगी को अराजक उपद्रवियों के हवाले करने में ही मनोहर लाल ख़ट्‌टर सरकार नहीं डरी।

वोटों के लिए कोई सरकार किसी यौन अपराधी से इस तरह जुड़ सकती है, विश्वास नहीं होता। वोट बैंक का ऐसा आपराधिक मोह हमारी राजनीति को कहां ले जाएगा?

जानना जरूरी होगा कि आधी रात को पुलिस डेरा प्रेमियों को पंचकूला से बाहर भेजने के लिए ‘शांति’ से अपील करती रही। कोई क्यों जाएगा? फिर ‘शांति’ का बड़ा पाखंड शुरू हुआ। शांतिपूर्ण पुलिस गश्त हुई। और शांतिपूर्ण धारा 144 की निषेधाज्ञा लगा दी गई। और सेना ने शांतिपूर्ण फ्लैग मार्च किया।

शांति के इस पाखंड से गुण्डों को खुली छूट मिल गई। फिर दिखा हरियाणा के सीने पर गुण्डों का फ्लैग मार्च। फ़ायदा उठाकर घातक से घातक हथियार इकट्‌ठे हो गए। जिसके ठीक उल्टे, पुलिस या कि अर्धसैनिक बलों के जवान के हाथ की लाठी या अन्य हल्के हथियार एक बार भी नहीं उठे। सज़ा के पंद्रह मिनट के भीतर ही मौतें शुरू हो गईं।

राम रहीम का दबाव जो था खट्‌टर सरकार और पूरे प्रशासन पर।

राम रहीम इसलिए इतना शक्तिशाली, प्रभावशाली और वैभवशाली बाबा बन पाया - चूंकि हर राजनीतिक पार्टी उसके चरणों में पड़ी देखी गई है। क्योंकि, साफ़ देखा जा सकता है इतने अंध समर्थकों वाले किसी भी व्यक्ति को हर पार्टी आकर्षित करना चाहेगी ही। एक ‘कल्ट’ बन चुका डेरा, स्वाभाविक है करोड़ों रुपए ग़रीबों को मदद करने में ख़र्च करता होगा। अंधभक्ति का यही आधार है। इतना पैसा कहां से आता होगा? अगर संपत्ति जब्त हुई तो पता चलेगा कि कितना पैसा है।


किन्तु इस भाजपा सरकार के लिए राम रहीम सबसे ख़ास है - क्योंकि पहली बार 2014 में खुलकर भाजपा को समर्थन दिया। पहले कांग्रेस को हरियाणा-पंजाब में बिना खुले साथ देते थे। अकाली भी उससे अछूते नहीं रहे।

देश हरियाणा की हिंसा और निर्दोष नागरिकों की सड़कों पर प्रदर्शन के दौरान हत्या का निकृष्ट रूप देख चुका है। रामपाल नामक हत्या का आरोपी इसी तरह पांच-पांच दिन तक हरियाणा को बंधक बना कर रख चुका है। जाट आन्दोलन की तो हाई कोर्ट ने सरकार को याद दिलाई कि वैसी अराजकता न फैले!

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को चाहिए कि मनोहर लाल खट्‌टर को बर्खास्त कर दें। खट्‌टर को चाहिए कि जाने से पहले डीजीपी को बर्खास्त कर दें। हाई कोर्ट को चाहिए कि राम रहीम की सज़ा को अपनी निगरानी में लें - क्योंकि रेपिस्ट करार दिए जाने के बाद शांतिपूर्ण ढंग से, हाथ जोड़े, आंखें बंद किए राम रहीम पूरी सुरक्षा से वीवीआईपी बन कर, हेलिकॉप्टर से रोहतक की आरामदेह ‘जेल’ में भेज दिया गया। आंखें राम रहीम की नहीं, मुख्यमंत्री की बंद हैं। किन्तु हरियाणा और देश की आंखें खुल चुकी हैं।

(साभार दैनिक भास्कर, लेखक समूह के ग्रुप एडिटर हैं)
(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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राम-रहमान के लिए तो छोड़ दो मंदिर-मस्जिद। ले आओ शांति — कल्पेश याग्निक



‘हे ईश्वर, इन्हें क्षमा करना - ये नहीं जानते ये क्या कर रहे हैं।’ - प्रभु यीशु 

(बचपन से समूचा विश्व इस पंक्ति को पढ़ रहा है, किन्तु पालन कोई नहीं करता।)


वैसे तो इस देश ने इस समय ‘सुलह’, ‘शांति’ और ‘ईश्वर’ ‘अल्लाह’ जैसे शब्दों के असली मानों को दफ़न कर दिया है और उसकी जगह बस ‘नफ़रत’ लिख दिया है। इन शब्दों के माने बताने वालों के साथ क्या हो रहा है, यह बताने की ज़रुरत नहीं समझता, हमसब ‘नफ़रत के विशेषज्ञ’ बना दिये गए हैं, बना क्या दिये गए, ख़ुद आगे बढ़-बढ़ के बन रहे हैं। तिस पर भी कुछ इंसान हैं, जो सारे वार सहते हुए भी नफ़रत की दीवार तोड़ने की कोशिश कर रहे हैं, दीवार चुनने वालों को चिह्नित कर रहे हैं और और-घायल हो रहे हैं। ऐसे में दो ही रास्ते बचते हैं पहला - यह देश इन इंसानों को ख़त्म करके, ख़त्म हो जाये और दूसरा - दीवार तोड़ दी जाये और दफ़न की गयी सांझी-खुशियों को बाहर ला, उनमें दोबारा जिया जाये.
कल्पेश याग्निक ने जो लिखा है वो उस दूसरे रास्ते को रौशन कर रहा है, मर्ज़ी आपकी है और देश भी आपका ही।

-- भरत तिवारी

कल्पेश याग्निक

कल्पेश याग्निक


 ईश्वर, इन्हें क्षमा करना - ये नहीं जानते ये क्या कर रहे हैं।’ - प्रभु यीशु 

(बचपन से समूचा विश्व इस पंक्ति को पढ़ रहा है, किन्तु पालन कोई नहीं करता।)

राम, समूचे ईश्वरीय अवतारों में एकमात्र ऐसे राजा थे, जिनका राज्य आदर्श बनकर उभरा; रामराज्य।


शैतान ठहाके लगा रहा होगा।
भगवान् को हमने दु:खी कर दिया।
अल्लाह को ठेस पहुंचाई।
हम सिद्ध करना चाहते हैं कि राम हमारे। उनकी जन्मभूमि यहां। इसलिए मंदिर ‘वहीं’ बनाएंगे।
हम इस होड़ में डटे हुए हैं कि रहमान पर हक हमारा। इबादत यहीं होती थी। इसलिए मस्जिद तो ‘वहीं’ होगी।
हे! राम।

राम ने कठोर संघर्ष किया। पल-पल कष्ट उठाए। मानसिक यातना झेली। एक पल, किन्तु, न डिगे।
और आदर्श प्रस्तुत किया कि : ‘सिंहासन छोड़ने वाला ही राम होता है।
सत्ता से सहज भाव से हटने वाला ही सच्चा राजा होता है।
कर्तव्य निर्वहन ही सर्वोच्च मानव धर्म है।
स्वयं के लिए नहीं, अन्य के लिए जीया जीवन ही श्रेष्ठ जीवन होता है।
अर्थात् ‘त्याग’।
ठीक उल्टा हम कर रहे हैं। और निरंतर करते जा रहे हैं। मंदिर वहीं बनाएंगे।

हमारी धार्मिक भावनाओं को भड़का कर न जाने कितने स्वार्थी; सुंदर-सुसंस्कृत-सुदर्शन-सुरक्षा देने वाले-गौरव लौटाने वाले सुपात्र और सुशासन देने वाले शासक-नायक बनकर उभर गए? हम समझ ही न पाए। हमने ही उन्हें बनने दिया।

कौन-सा मंदिर?

जो राम के आदर्शों के विपरीत होगा? जो छोड़ने नहीं, पाने के संघर्ष से प्राप्त किया गया होगा?
जो ‘सत्ता’ की भांति जीता, छीना अथवा विभिन्न प्रकार से पा लिया गया होगा? जो कर्तव्य से विमुख, केवल अधिकार की शक्ति से मिला होगा? और जो अन्य के लिए नहीं, केवल स्वयं के लिए, स्वार्थपूर्ण उद्देश्य से लिया होगा?
राम, समूचे ईश्वरीय अवतारों में एकमात्र ऐसे राजा थे, जिनका राज्य आदर्श बनकर उभरा; रामराज्य। और इसीलिए उनका जीवन राज्य, अर्थात् राज्य के नागरिकों से बंधा है। और उनके लिए वे प्रति पल प्रस्तुत, प्रति क्षण तत्पर, प्रत्येक कर्तव्य निभाने को-कुछ भी करते जाते हैं। उनका अपना सुख कभी है ही नहीं। हमारे अनेक ग्रंथों में इसकी श्रेष्ठ व्याख्या मिलती है। आधुनिक संदर्भों के साथ इसका मायथोलॉजिस्ट देवदत्त पटनायक ने गहरा और स्पष्ट विश्लेषण किया है।
और ऐसे मर्यादा पुरुषोत्तम का मंदिर हम मनुष्य जीवन की सभी मर्यादाओं का उल्लंघन कर, बलपूर्वक, छलपूर्वक ध्वस्त की गई गुम्बदों के मलबे पर बना कर करेंगे क्या?
वो भयानक दृश्य भूल गए? वो हजारों-हजार की उग्र भीड़?
वो उन्माद? वो नारे? वो ध्वस्त होता ढांचा? वो कुंठित करने वाला विध्वंस?

इतिहास से ही प्यार था, तो 1855 तक का याद रखते। जब तक हिन्दू-मुसलमान मिलजुलकर पूजा-इबादत इसी जगह करते थे।

हम क्यों भूलेंगे?

उसे तो हमने ‘गर्व का पल’ घोषित किया था। भरी दोपहरी में अंधेर। त्याग? वो केवल राम के लिए था। हम कोई भगवान थोड़े ही हैं।
हम तो भक्त हैं। सच है।
कितना निर्मम सत्य।
उधर, राम को हमने रुलाया। भुला दिया। जय श्री राम की गूंज और मंदिर निर्माण के हाहाकार में राम का रूदन किसे सुनाई देगा?
इधर, अल्लाह को आहत करते हुए हमने नेकी की सारी सीख ताक में रख दी।
सबसे बड़े नबी, हज़रत मोहम्मद साहब, जिन्होंने अल्लाह का पैग़ाम आखिरी इन्सान तक पहुंचाया - उनकी जिंदगी कैसी रही? जो कुछ बताया गया है - उसके हिसाब से तो रोंगटे खड़े कर देने जैसा ज़ुल्म उन पर हुआ। मक्का में उन पर क्या-क्या यातनाएं नहीं हुईं। किन्तु मक्का जीत कर लौटे -तो उन्होंने क्या किया- माफ़। हर एक को माफ़। हर एक को हर इल्ज़ाम से आज़ाद।
क्यों?
क्योंकि अल्लाह ने नेकी का रास्ता बताया है। कुरान-ए-शरीफ़ ने तो बहुत बड़ी बात बड़े सरल शब्दों में कही है - कि मुसलमान जिस्म से नहीं, जज़्बात से ज़िंदगी जीता है।
तो हम ‘वहीं’ के ढांचों में क्यों उलझ कर रह गए? तारीख गवाह है कि दसवीं-ग्यारहवीं सदी से अरब मुल्कों से निकलने वालेे हमलावर, जहां-जहां जाते -पूजाघरों, प्रार्थना गृहों, चर्च, चेपल या मॉनेस्ट्री- सभी को तोड़ते - ध्वस्त कर डालते। फिर वहां इबादतगाह बनाते।
ऐसे ही समरकंद से हिन्दुस्तान को जीतने आया अाक्रांता बाबर। एक साल के भीतर 1527 में उसके सेनापति मीर बाकी ने अयोध्या में इस भूमि पर कब्ज़ा कर, मस्जिद बना दी। सारे रेकॉर्ड हैं। नाम बाबरी मस्जिद दिया।

नई बात नहीं थी। मुग़ल या तैमूर या चंगेज़ सारे हमलावर ऐसा ही करते आए/जा रहे थे।

किन्तु ऐसा करने से मस्जिद जैसा पवित्र स्थल, राम जन्मभूमि को ऐसा क्या अपवित्र कर गया कि हम जयघोष कर, टूट पड़े और अराजकता, हिंसा, उपद्रव पर उतर आए?
यह सिखाया था रामायण ने? यह समझाया था रामचरित मानस में?
और, हमारी धार्मिक भावनाओं को भड़का कर न जाने कितने स्वार्थी; सुंदर-सुसंस्कृत-सुदर्शन-सुरक्षा देने वाले-गौरव लौटाने वाले सुपात्र और सुशासन देने वाले शासक-नायक बनकर उभर गए? हम समझ ही न पाए। हमने ही उन्हें बनने दिया।
ठीक उल्टा, बाबरी मस्जिद के हक में लड़ने वाले - उतने ही स्वार्थी। एक पल के लिए भी कुछ न सोचा। 1527 का इतिहास याद रखा। उसे लेकर न जाने कैसी-कैसी लड़ाइयां शुरू कर दीं। यदि इतिहास से ही प्यार था, तो 1855 तक का याद रखते। जब तक हिन्दू-मुसलमान मिलजुलकर पूजा-इबादत इसी जगह करते थे।
जब भी राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद आता है, हम फैज़ाबाद जिला गज़ेट 1905 का उल्लेख पाते हैं। न्यायालय में दिए दस्तावेज़ में से एक। उसी में इसका विस्तृत वर्णन है कि कैसे भाईचारे से दोनों समाज रहते और अपने-अपने समय अनुसार आरती या नमाज़ करते।
2000 से अधिक निर्दोषों की जान ले चुके इस नितांत अहंकार भरे झगड़े को न मुस्लिम मजहबी नेता छोड़ने को तैयार हैं, न हिन्दू अखाड़े।
फिर 1857 के ग़दर के बाद चबूतरे पर चढ़ावा चढ़ाने वाले हिन्दू श्रद्धालुओं को एक दीवार बनाकर रोक दिया गया। और फिर वही घृणा-नफ़रत का इतिहास। अरे, जब विराट मक्का विजय के दौरान अज़ान के लिए एक अश्वेत को पैग़म्बर साहब ने चुना - तब आई आपत्तियों पर दो टूक संदेश दिया : कि दो ही तरह के लोग हैं -एक नेकी वाले, मोहब्बत वाले- ख़ुदा जिनसे जुड़ा हुआ है। दूसरे, ज़ुल्म ढाने वाले, नफ़रत करने और फैलाने वाले - निर्दयी। ख़ुदा उनसे दूर है।
मस्जिद को लेकर यदि ऐसा ही जज्बा है तो क्या सुलह हुदैबिया को भूल गए। जिसे इलाहाबाद उच्च न्यायालय के जस्टिस सिबग़त उल्लाह खान ने ‘अयोध्या सबकी’ फैसले में लिखा था।
किन्तु हमें देखिए, नफ़रत के जवाब में नफ़रत। अंतहीन सिलसिला।

हमलावर बाबर ने हड़पी। तोड़ी। या न भी तोड़ी तो - मस्जिद बनाई।
फिर भाईचारा भूलकर, दोनों समाजों की भावनाएं भुलाकर दीवार खड़ी कर दी।
शांत पड़ चुके इस अर्थहीन प्रकरण को बड़ा-भारी राजनीतिक मुद्दा बनाकर, भड़का दिया। और ध्वंस रहा परिणाम। 
और जब इलाहाबाद उच्च न्यायालय की विशेष अयोध्या पीठ ने कह दिया कि ‘अयोध्या सबकी’- तो सबकुछ शांत हो ही जाना चाहिए था।
किन्तु 2000 से अधिक निर्दोषों की जान ले चुके इस नितांत अहंकार भरे झगड़े को न मुस्लिम मजहबी नेता छोड़ने को तैयार हैं, न हिन्दू अखाड़े।
अब सर्वोच्च न्यायालय ने कह दिया है कि बातचीत कर, सुलझाओ। स्वयं मुख्य न्यायाधिपति, मध्यस्थता करने को तैयार हैं।
भावना तो सर्वोच्च न्यायालय की अत्यन्त प्रभावी, श्रेष्ठ और उच्च स्तरीय है।
आठ-आठ मध्यस्थता के प्रयास विफल रहे हैं। कोई बात नहीं, पहले विफल होना यह सिद्ध नहीं करता कि आगे भी सफल नहीं होंगे।

किन्तु प्रश्न यह है कि सर्वोच्च न्यायालय पूर्ण न्याय करते हुए तत्काल निर्णय क्यों नहीं कर सकता?
निश्चित कर सकता है।
जब दोनों पक्ष अहंकार और स्वार्थ में अपने ही हठ पर अटे-डटे हैं - तब सर्वोच्च न्यायालय उन्हें महत्व क्यों दे रहा है? सीधे निर्णय दे। और कठोरता से पालन करवाए।
राष्ट्र राम को मानता है। आस्था रखता है।
राष्ट्र अल्लाह पर भरोसा करता है।
निर्मोही अखाड़ा या सुन्नी वक्फ बोर्ड - हिन्दू या मुसलमान के सर्वोच्च या वास्तविक प्रतिनिधि कैसे हो सकते हैं?
नहीं चाहिए।
न मंदिर। न मस्जिद।
हम ईश्वर-अल्लाह के नाम पर लड़ना छोड़ सकें, असंभव है। किन्तु छोड़ना ही होगा।
राष्ट्र शांति चाहता है।
राम और रहमान भी यही चाहते हैं।
राष्ट्रवासियों के लिए न सही, राम-रहमान के लिए तो छोड़ दो मंदिर-मस्जिद। ले आओ शांति।
किन्तु दोनों को हम दु:खी ही करते जा रहे हैं।
इसीलिए शैतान अट्‌टहास लगा रहा है।
और इतने लहूलुहान के बाद, हिंसा, घृणा और ‘तेरा-मेरा’ होने के बाद भव्य राम मंदिर बन भी गया - तो हम प्रार्थना क्या करेंगे - कि हमारे पापों के लिए हमें क्षमा करना! और विशाल मस्जिद बन भी गई - तो इबादत क्या करेंगे - कि या खुदा, माफ़ करना - छीन कर ‘वहीं’ आपको लाने में काफ़ी फ़साद किए!

(लेखक दैनिक भास्कर के ग्रुप एडिटर हैं।)

(ये लेखक के अपने विचार हैं।
साभार दैनिक भास्कर)
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केजरीवाल सरकार का इतनी दफ़ा केंद्र के निशाने पर आना संयोग ? — राजदीप सरदेसाई @sardesairajdeep


केजरीवाल में इतना साहस रहा है कि वे ऐसे मुद्‌दे उठाते हैं, जिन्हें कोई और नेता छूने की हिम्मत नहीं कर सकता
केजरीवाल सरकार का इतनी दफ़ा केंद्र के निशाने पर आना संयोग ?  — राजदीप सरदेसाई

जैसा कहा, वैसा होकर दिखाएं केजरीवाल

— राजदीप सरदेसाई

राजनीतिक दलों के श्रद्धाजंलि-लेख लिखना खतरनाक काम हो सकता है। जुलाई 2014 में एक अंतरराष्ट्रीय प्रकाशन ने मुझे अाम आदमी पार्टी के राजनीतिक अंत पर लेख लिखने को कहा। यह आम चुनाव में नरेंद्र मोदी की तूफानी जीत के कुछ हफ्तों के बाद की बात है। तब ‘आप’ ऐसी स्टार्टअप लग रही थी, जिसका शुरुआती जोश खत्म हो गया हो। मैं तब एक किताब लिखने में व्यस्त था, इसलिए इनकार कर दिया। वह ठीक ही रहा, क्योंकि कुछ वक्त बाद ही ‘आप’ ने दिल्ली के चुनाव में शानदार जीत दर्ज की। ‘आप’ के लिए कयामत का दिन देखने वाले पंडित गलत सिद्ध हुए।

शाश्वत संघर्ष की मुद्रा में रहकर ‘आप 2.0’ चुनाव नहीं जीत सकती

अब ‘आप’ के लिए फिर स्मृति-लेख लिखे जा रहे हैं। पिछले कुछ माह में ऐसा लगा है कि ‘आप’ का प्रयोग नाकाम हो रहा है और पार्टी आगे बढ़ने में लड़खड़ा रही है। एक मंत्री सीडी में दुराचार करता पाया गया और इस्तीफा देने पर मजबूर होकर दिल्ली सरकार का ऐसा तीसरा मंत्री बना। पार्टी के 21 विधायकों पर लाभ के पद संबंधी कानून के तहत अपात्र घोषित किए जाने का खतरा मंडरा रहा है। पार्टी का पंजाब संयोजक एक स्टिंग में िरश्वत मांगते पकड़े जाने के बाद बर्खास्त किया गया है। स्टिंग में पार्टी की भीतरी कलह की गंध आती है। दिल्ली हाईकोर्ट ने कह दिया है कि दिल्ली के नगर-राज्य में उपराज्यपाल ही सर्वोच्च अधिकारी हैं। क्रिकेटर से राजनेता बने नवजोत सिंह सिद्धू पंजाब चुनाव में ‘आप’ को समर्थन देने की पेशकश से मुकर गए हैं। इसकी बजाय उन्होंने चौथा मोर्चा खोल लिया है।

यहां तक कि पार्टी के शुभंकर और सर्वोत्तम चेहरे अरविंद केजरीवाल की कार्यशैली भी तीखी आलोचना के दायरे में है। सिद्धू ने फैसले की घोषणा करते हुए केजरीवाल की जमकर खबर लेते हुए उन पर ‘असुरक्षा से ग्रस्त’ तानाशाह होने का अारोप लगाया। सिद्धू की छवि चाहे ऐसे विद्रोही की हो जिन्हें सत्ता की मलाई में बड़ा हिस्सा देने से इनकार किया गया हो, लेकिन उनकी आलोचना में प्रशांत भूषणयोगेंद्र यादव जैसे पार्टी संस्थापकों के आरोपों की गूंज सुनाई देती है, जो उन्होंने बाहर का रास्ता दिखाए जाने पर लगाए थे। हाईकमान संस्कृति और केजरीवाल के आसपास दरबारियों के घेरे के आरोप स्पष्ट रूप से उन आरोपों से साम्य रखते हैं, जो पार्टी ने अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों पर लगाए थे। अलग किस्म की पार्टी होने का दावा करते हुए ‘आप’ मौजूदा उस राजनीतिक संस्कृति से ऊपर नहीं उठ पाई, जो गुटबाजी और ‘सुप्रीमो’ कल्ट से रेखांकित होती है।

आप’ समर्थकों का दावा है कि उनके नेतृत्व को द्वेषपूर्ण सत्ता प्रतिष्ठान और यहां तक कि मीडिया का वह तबका भी निशाना बना रहा है, जो राजनेता-कॉर्पोरेट प्रभुत्व से जुड़ा है। कुछ दावों के औचित्य से इनकार नहीं किया जा सकता : दिल्ली की केजरीवाल सरकार इतनी बार केंद्र के निशाने पर आई है कि उसे सिर्फ संयोग कहकर खारिज नहीं किया जा सकता। इसके बावजूद ‘आप’ को यह अहसास होना चाहिए कि 2011 में उसने अन्ना के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के हिस्से के रूप में सत्ताधारी वर्ग के खिलाफ आरोपों की राजनीति शुरू की, जिसने एक ऐसा राजनीतिक माहौल तैयार किया है, जिसमें नेताओं के खिलाफ तिरस्कार बढ़ा है। अब बैकफुट पर पकड़े जाने के बाद यह व्यवस्था पलटवार कर रही है : यदि आप किसी के खिलाफ एक उंगली उठाओ तो वे पलटवार के मौके की ताक में रहेंगे ही। शुरू में ‘आप’ के उदय को समर्थन देने वाला मीडिया दोधारी तलवार है। पार्टी को शुरू में जो जरूरत से ज्यादा प्रचार मिला है, अब वह उतनी ही अतिशयोक्तिपूर्ण आलोचना की शिकार है। स्पष्ट है कि वे ऊंचे आदर्श जिनके कारण ‘आप’ प्राय: राजनीति को नैतिक शास्त्र के सबक की तरह लेती थी, अब पीछे छूट गए हैं। इसके कई सदस्य उन्हीं कमजोरियों के शिकार पाए गए, जो प्रमुख राजनीतिक दलों में हैं। ‘आप’ चाहे दावा करे कि उसने दोषी विधायकों और मंत्रियों के खिलाफ कार्रवाई की है, लेकिन सवाल तो यही है कि सबसे पहले आपने इस तरीके से टिकट बांटे ही क्यों? ‘आप’ के ऊंचे नैतिक मानक से नीचे गिरने के साथ मध्यवर्ग में मोहभंग हो गया है। वे अब उस वर्ग के आयकन नहीं हैं, जिसने अन्ना अांदोलन के दौरान उन्हें खुशी से गले लगाया था। ‘जनता की पार्टी’ का रूमानी आकर्षण खत्म हो गया और स्वयंसेवकों वाली भावना का स्थान यथार्थवादी राजनीति ने ले लिया, जिसमें संगठन व वैचारिक एकरूपता निर्मित करने की बजाय चुनाव जीतने का ज्यादा महत्व है। इसीलिए आम अादमी पार्टी व्यापक स्तर पर प्रतिभाओं को आकर्षित नहीं कर पाई है।

इसके बावजूद इंडिया ए प्लस और इंडिया ए (क्रमश: हर माह एक लाख रुपए से ज्यादा और 40 हजार रुपए से ज्यादा आय वाले वर्ग) के परे ऐसा वर्ग अब भी है, जिसके लिए केजरीवाल और ‘आप’ संसाधनों में निष्पक्ष और अधिक समानता आधारित हिस्सेदारी की उम्मीद के प्रतीक हैं। इंडिया बी, सी और उसके आगे (जिनमें से कई हाशिये पर जी रहे हैं और अब भी अपनी हसरतें पूरी करने के लिए संघर्षरत हैं) ‘आप’ का विचार अब भी जोरदार तरीके से गूंज रहा है। इस विशाल सामाजिक-आर्थिक समूह को मोदी सरकार के ‘अच्छे दिन’ के वादे के बावजूद कोई ठोस फायदे नहीं मिले हैं। यही उन्हें ‘अाप’ का मतदाता वर्ग बनाती है खासतौर पर विशाल शहरी आबादी वाले राज्यों में

फिर केजरीवाल में इतना साहस रहा है कि वे ऐसे मुद्‌दे उठाते हैं, जिन्हें कोई और नेता छूने की हिम्मत नहीं कर सकता। इसके कारण श्रेष्ठ वर्ग के गठजोड़ को चुनौती देने वाले मसीहा होने की उनकी मूल छवि कुछ हद तक अब भी बची हुई है। जब तक केजरीवाल विशुद्ध रूप से ‘बाहरी’ बने रहते हैं, उनके पास राजनीतिक आधार बढ़ाने के मौके रहेंगे। लेकिन शाश्वत संघर्ष की मुद्रा में रहकर ‘आप 2.0’ चुनाव नहीं जीत सकती। पार्टी को जो कहती है वह करके दिखाने के लिए भ्रष्टाचार विरोधी लुभावने नारों के परे जाकर शासन का अधिक कारगर विकल्प देना होगा। उपराज्यपाल से कभी न जीती जा सकने वाली लड़ाई में पड़ने की बजाय राष्ट्रीय राजधानी में डेंगू और चिकनगुनिया से युद्धस्तर पर निपटने के बारे में क्या ख्याल है?

पुनश्च : पिछले कुछ दिनों में केजरीवाल उनकी सरकार के आलोचक पत्रकारों पर ‘दलाल’ व ‘मोदी के प्रवक्ता’ कहकर ट्विटर के जरिये हमले कर रहे हैं। केजरीवाल चाहे मीडिया के पक्षपात से क्रोधित हों, लेकिन जब क्रोध उन्माद में बदल जाता है तो यह आत्म-विनाश की राह होती है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
राजदीप सरदेसाई
वरिष्ठ पत्रकार
rajdeepsardesai52@gmail.com
दैनिक भास्कर से साभार
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पाकिस्तान न तो नर्क है और न स्वर्ग — राजदीप सरदेसाई @sardesairajdeep


1996 में हमारा टीवी दल कराची में दाऊद इब्राहिम के मकान की तलाश करने वाला पहला दल था — राजदीप सरदेसाई

Rajdeep Sardesai — Pakistan is neither hell nor heaven
Narendra Modi of India Meets Pakistani Premier in Surprise Visit (Photo: The New York Times)


विभाजित मानसिकता का देश है पाकिस्तान

— राजदीप सरदेसाई 




अभिनेत्री-राजनेता रम्या पर सिर्फ इसलिए राजद्रोह का मामला दायर किया गया, क्योंकि उन्होंने कह दिया कि पाकिस्तान नर्क नहीं है। यह अजीब मामला जब चर्चा में है तो मैं यह कहना चाहूंगा कि भारत के बाहर से रिपोर्टिंग करने के मामले में भारतीय पत्रकारों के लिए पाकिस्तान से बेहतर देश नहीं है। 1995 और 2004 के बीच मुझे कई बार पाकिस्तान जाने का मौका मिला। हर यात्रा एक रहस्योद्‌घाटन साबित होती। 1996 में हमारा टीवी दल कराची में दाऊद इब्राहिम के मकान की तलाश करने वाला पहला दल था। कराची में गृहयुद्ध जैसे संघर्ष के सबसे खराब दिनों में हमने वहां एमक्यूएम अतिवादियों पर विशेष रिपोर्ट की थी। हमने लश्कर के आतंकी शिविरों और मुरीद के स्थित जमात-उद-दावा के मुख्यालय से रिपोर्टिंग की। पेशावर के हथियार बाजार में घूमे और पाक-अफगान सीमा पर स्थित ओसामा बिन लादेन की ‘गुफा’ तक भी लगभग पहुंच ही गए थे (पाकिस्तानी ‘संपर्क’ अंतिम क्षण में तब बिदक गया जब उसे पता चला कि उस यात्रा में हमारे वीज़ा के दायरे में लाहौर व इस्लामाबाद के बाहर के इलाके नहीं हैं)।


पाकिस्तान की हर यात्रा में तत्कालीन राजनीतिक स्थिति चाहे जो भी रही हो, गर्मजोशी और मेहमाननवाजी में कोई परिवर्तन नहीं हुआ — राजदीप सरदेसाई

हमने पाकिस्तानी समाज पर सकारात्मक रिपोर्टें भी कीं। हमने अब्दुल सत्तार ईदी और कराची में उनके पीस फाउंडेशन का उल्लेखनीय काम दिखाया, पाकिस्तानी टीवी सीरियल के सेट (1990 के दशक में उन सीरियलों का हमारे यहां बड़ा क्रेज था) से रिपोर्टिंग की, पाकिस्तान की पहली महिला रॉक बैंड कलाकार से मिले, लाहौर की फूड स्ट्रीट पर फीचर बनाया। एक बार लालू प्रसाद यादव के साथ सद्‌भावना यात्रा के दौरान इस्लामाबाद के इतवारिया बाजार में उनके साथ पहुंचे तो इतने लोग इकट्‌ठे हो गए कि बाजार ठप हो गया (लालू ने अपनी खास शैली में एक आलू कैमरे की ओर करके नारा लगाया : ‘पाकिस्तान में आलू, बिहार में लालू’ जिस पर जोरदार तालियां बजीं।)






यह अहसास बढ़ रहा है कि भारत ने पाकिस्तान को बहुत पीछे छोड़ दिया है और बरसों आतंकियों को समर्थन देकर ऐसा दैत्य पैदा हो गया है, जो देश को भीतर से खा रहा है — राजदीप सरदेसाई

पाक से रिपोर्टिंग करना कोई आसान काम नहीं था, क्योंकि भारतीय टीवी दल को बहुत संदेह से देखा जाता था। हर यात्रा में हमारे पीछे आईएसआई की ‘एजेंसी’ कार होती थी। एक यात्रा में हम लौटती फ्लाइट में सवार होने के पहले मैकडॉनल्ड रेस्तरां गए। ‘एजेंसी’ कार हफ्ते से पीछा कर रही थी तो सोचा कि उन्हें भी नाश्ता करा दिया जाए इसलिए हम उन तक पहुंचे तथा उन्हें बर्गर और कुछ फ्रेंच फ्राइज़ दिए। उन्होंने बर्गर तो नहीं लिए, लेकिन धीरे से फ्राइज की प्लेट स्वीकार कर ली!

पाकिस्तान की हर यात्रा में तत्कालीन राजनीतिक स्थिति चाहे जो भी रही हो, गर्मजोशी और मेहमाननवाजी में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। वाजपेयी की लाहौर यात्रा में तो ऐसा लगा कि दावतों का सिलसिला कभी खत्म ही नहीं हुआ : इसके पहले इतने कम भारतीयों ने इतने कम समय में इतने सारे कबाब हजम नहीं किए होंगे! करगिल युद्ध के दौरान पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ के साथ क्रिकेट प्रैक्टिस पर भी गए, क्योंकि उनका इंटरव्यू लेने का यही एकमात्र रास्ता था। उनके तब के मीडिया सलाहकार मुशाहिद हुसैन ने सौम्य शब्दों में सलाह दी, ‘बस यह देखिएगा कि आप उन्हें आउट न कर दें।’ प्रैक्टिस के बाद न सिर्फ हमें इंटरव्यू लेने का मौका मिला बल्कि प्रधानमंत्री निवास पर शानदार बुफे की मेजबानी भी मिली। हमें अहसास हुआ कि क्रिकेट और भोजन शरीफ के दिल तक पहुंचने के दो रास्ते हैं : जहां हम पहाड़ों पर चल रहे युद्ध पर फोकस चाहते थे, शरीफ पाकिस्तानी गाजर के हलवे की तुलना उस गाजर के हलवे से करने में लगे थे, जो उन्होंने पुरानी दिल्ली में खाया था!

पाकिस्तान न तो नर्क है और न स्वर्ग — राजदीप सरदेसाई @sardesairajdeep


पाकिस्तानी घरों में रात के भोजन पर हल्की-फुल्की चर्चा में भारत-पाकिस्तान तुलना पसंदीदा विषय है, वह अब भी ऐसा देश है, जिस पर एलओसी पार के ‘बिग ब्रदर’ का जुनून पागलपन की हद तक सवार है। फिर चाहे इमरान खान और कपिल देव की ऑलराउंडर विशेषताओं की तुलना हो या नूरजहां और लता मंगेशकर के गायन की। हावी होने की प्रवृत्ति ऐसी बात थी कि जिससे निपटना आपको जल्दी ही सीखना होता है। इसी तरह कश्मीर और घाटी में आतंकवाद को बढ़ावा देने में पाकिस्तानी हाथ का मुद्‌दा छेड़ते ही आपको द्वेषपूर्ण रवैये का सामना करना पड़ता है। पाकिस्तान के खुद अातंकवाद का ‘शिकार’ बनने से पहले के उस दौर में यह स्वीकार करने की तैयारी नहीं थी कि आतंकवादियों को स्वतंत्रता संग्राम सेनानी बताना गलत है। बहस का अंत निर्दोष लोगों के खिलाफ हिंसा को तर्कसंगत ठहराने पर ही होता था। दो साल पहले कराची में ‘जनता से जनता’ के बीच ट्रैक-2 संवाद में मौजूदगी के दौरान पहली बार पाकिस्तानी मनोवृत्ति में बदलाव महसूस हुआ। पाकिस्तान में यह अहसास बढ़ रहा है कि भारत ने पाकिस्तान को बहुत पीछे छोड़ दिया है और बरसों आतंकियों को समर्थन देकर ऐसा दैत्य पैदा हो गया है, जो देश को भीतर से खा रहा है। इसके बाद भी कश्मीर के लिए ‘भावनात्मक’ समर्थन का विचार पाकिस्तानी मानस से कभी दूर नहीं हुआ। समझदार पाकिस्तानी भी कश्मीर में संघर्ष को जायज ठहराता है। बरसों के सैन्य शासन, कट्‌टर इस्लामीकरण और भारत से शत्रुता पर टिके देश के वजूद के कारण पड़ोसी से परिपक्व तरीके से निपटने की औसत पाकिस्तानी की क्षमता कमजोर पड़ गई है।

इसीलिए पाक के साथ रिश्ते का तरीका न तो उसे रूमानी बनाने और न उसे दैत्य बनाकर पेश करने में है बल्कि हमारे राजनयिक रिश्तों में व्यावहारिक, बिज़नेस जैसे रवैये को शामिल करना होगा। हमें मानना होगा कि पाक न तो नर्क है और न स्वर्ग। यह तो भारत और भारतीयों के प्रति रवैये में खंडित मानसिकता का शिकार है। वरना किस देश में हिजबुल मुजाहिदीन सरगना सैयद सलाहुद्दीन आपको भारतीय ‘जासूस’ मानकर कमरे में बंद कर देता है और उसी रात होटल का पियानोवादक आपके सम्मान में ‘सुहानी रात ढल चुकी’ पेश करता है? हमारे लिए पाकिस्तान ऐसा ही है, जिसके मोहब्बत-नफरत वाले रिश्ते से सावधानी के साथ निपटना होगा।

पुनश्च : 2004 की क्रिकेट शृंखला में मैं लाहौर के निर्णायक वन-डे मैच में अपने नौ वर्षीय पुत्र को भी ले गया था। इस शृंखला में पाकिस्तानी दर्शक भारतीय तेज गेंदबाज के समर्थन में ‘बालाजी जरा धीरे चलो’ के नारे लगाते थे। जब भारत जीत गया तो एक निराश पाकिस्तानी समर्थक ने मेरे बेटे को पाकिस्तानी ध्वज भेंट किया। मेरे बेटे ने इसे तोहफा मानकर अपने कमरे की दीवार पर लगा दिया। तब यह सद्‌भावना का प्रतीक माना जाता था : खेद की बात है कि आज के भारत में शायद इसे राजद्रोह माना जाए!
(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
राजदीप सरदेसाई
वरिष्ठ पत्रकार
दैनिक भास्कर से साभार
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गोरक्षा गुटों पर लगाम लगाने के बहुत कम प्रयास हुए हैं — राजदीप सरदेसाई @sardesairajdeep


Professed reverence for a Babasaheb Ambedkar’s teachings and a deep attachment to the Manu-Smriti cannot co-exist .... Rajdeep Sardesai
Una-type incidents can undo BJP’s hard work to win the confidence of Dalits - Rajdeep Sardesai

क्या उना घटना पर मौन धारण करने वाले प्रधानमंत्री बताएंगे कि हाथों से की गई ऐसी सफाई को ‘अध्यात्मिक’ अनुभव बताने से उनका क्या आशय था?

— राजदीप सरदेसाई 



वर्ष 2002 के गुजरात दंगों का यह तथ्य ज्यादा लोगों को मालूम नहीं है कि अहमदाबाद में मुस्लिमों के खिलाफ ज्यादातर हिंसक घटनाओं में दलित सबसे आगे थे। मैंने जब नरोडा पाटिया में एक आरोपी दलित युवा से पूछा कि वह दंगों में क्यों शामिल हो गया तो उसके जवाब ने मुझे विचलित कर दिया : ‘ स्थानीय बजरंग दल ने हमसे वादा किया था कि मुस्लिमों के पलायन से खाली हुई जमीन पर उन्हें रहने दिया जाएगा।’ चाहे वह दंगों के समय इस्तेमाल किया गया ‘जुमला’ हो वास्तविकता यही है कि दलित ही दंगाई भीड़ के पैदल-सैनिक थे और सवर्ण हिंदुओं के इस वादे में आए थे कि उन्हें उनका हक दिया जाएगा। इस तरह तब स्थानीय मुस्लिमों को साझा ‘शत्रु’ के रूप में देखा गया।


दलित यह हिंसक भेदभाव चुपचाप सहन नहीं करेंगे
2016 में इस कथित एकजुट ‘हिंदू’ पहचान में दरारें दिखने लगी हैं। उना में गो रक्षक गुटों द्वारा दलितों को कोड़े मारने के फोटो वायरल हुए और गुजरात में दिखती जातिगत व सांप्रदायिक शांति के पीछे मौजूद सामाजिक अशांति उजागर हो गई। अहमदाबाद और अन्य स्थानों पर फैलता गुस्सा संकेत है कि दलित यह हिंसक भेदभाव चुपचाप सहन नहीं करेंगे। दलित चाहे गुजरात की आबादी में सिर्फ सात फीसदी ही हो, लेकिन उनमें मौजूद बेचैनी की सवर्ण हिंदुओं द्वारा अनदेखी से उस राजनीतिक योजना को खतरा पैदा हो गया है, जिसे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने पहली बार राज्य में लगभग तीन दशक पहले शुरू किया था।




गुजरात ही भाजपा के राजनीतिक विस्तार की प्रयोगशाला रहा है
ध्यान रहे कि 1980 के उत्तरार्द्ध से गुजरात ही भाजपा के राजनीतिक विस्तार की प्रयोगशाला रहा है। यहीं तो राम जन्मभूमि आंदोलन को शुरुआती ताकत मिली और सोमनाथ से शुरू हुई आडवाणी की रथयात्रा को सभी जातियों से जबर्दस्त समर्थन मिला। यह भगवा उफान दशक भर के सघन जातिगत व सांप्रदायिक संघर्ष की पृष्ठभूमि में आया था। अस्सी के दशक के मध्य में आरक्षण विरोधी आंदोलन ने सांप्रदायिक दंगों का रूप लिया, जिससे कांग्रेस का जातिगत समीकरण खाम KHAM (क्षत्रिय, हरिजन, आदिवासी, मुस्लिम / Kshatriya, Harijan, Adivasi, Muslim) टूट गया। यही एक तरह से गुजरात में कांग्रेस के प्रभुत्व के खत्म होने की शुरुआत थी। इससे धीरे-धीरे भाजपा को अपने इस दावे की पृष्ठभूमि में जगह बनाने का मौका मिला कि वह एकीकृत ‘हिंदू’ पहचान का प्रतिनिधित्व करती है।


गुजरात में दलितों पर अत्याचार बढ़े हैं
यह एकीकृत हिंदू पहचान अब संदेह के घेरे में आ गई है। पहले पटेलों का आरक्षण आंदोलन हुआ, जिससे सवाल उठे कि जिस तीव्र आर्थिक वृद्धि से ‘नव मध्यवर्ग’ बना, क्या उसी से उन लोगों में कुंठा बढ़ रही है, जो खुद को समृद्धि निर्माण की प्रक्रिया से बाहर पा रहे हैं। अब दलितों को भी लग रहा है कि जातिवादी हिंदुओं ने उनके भरोसे को धोखा दिया गया है। यह सब उना में जो हुआ सिर्फ उसी से संबंधित नहीं है। आंकड़े बताते हैं कि गुजरात में दलितों पर अत्याचार बढ़े हैं, जबकि सजा देने के मामले में राज्य सबसे कम दर वाले राज्यों में शुमार है। यह तो ऐसा ही है जैसे दलितों को आखिर इस कठोर यथार्थ का अहसास हो गया है कि रथयात्रा में या दंगों में भाग लेने से सौराष्ट्र जैसे क्षेत्रों में सामंती व्यवस्था नहीं बदलेगी, जहां कठोर जाति परंपरा को खत्म नहीं किया गया है। लेकिन यह सिर्फ गुजरात की जातिगत राजनीति का मामला नहीं है। भाजपा की एक चुनौती यह सुनिश्चित करने की रही है कि इसे अधिक समावेशी और सामाजिक रूप से कम रूढ़िवादी पार्टी के रूप में देखा जाए। इसीलिए उत्तरप्रदेश में कल्याण सिंह जैसे ओबीसी नेता या गुजरात में खुद नरेंद्र मोदी का उदय भाजपा को ब्राह्मण-बनिया छवि से आगे जाने के लिए महत्वपूर्ण था।

प्रधानमंत्री की ‘स्टैंड अप इंडिया’ योजना, जो कांग्रेस के मूल दलित चेहरे रहे बाबू जगजीवन राम की जयंती पर शुरू की गई, दलितों में आंत्रप्रेन्योरशिप को बढ़ावा देने के लिए बनाई गई थी
आरएसएस ने भी सोच-समझकर इस प्रक्रिया को प्रोत्साहित किया, जिसने 1990 के दशक में उत्तर व पश्चिम में भाजपा के उल्लेखनीय विकास के साथ तेजी पकड़ी। 2014 के आम चुनाव के पहले भाजपा ने दलित नेताओं को अपने पक्ष में करने का प्रयास किया। फिर चाहे यह बिहार में रामविलास पासवान जैसे भागीदार हों या दिल्ली में उदित राज ही क्यों न हो। उत्तरप्रदेश में भी गैर-जाटव दलितों को हिंदू परिवार की ‘सदस्यता’ का वादा करके मायावती से दूर करने की साफ रणनीति दिखाई देती है। यहां तक कि प्रधानमंत्री की ‘स्टैंड अप इंडिया’ योजना, जो कांग्रेस के मूल दलित चेहरे रहे बाबू जगजीवन राम की जयंती पर शुरू की गई, दलितों में आंत्रप्रेन्योरशिप को बढ़ावा देने के लिए बनाई गई थी।

भाजपा शासित राज्यों में गोरक्षक गुटों को लगा कि उन्हें हुड़दंग करने की सरकारी मंजूरी मिल गई है
अब उना की एक घटना के कारण दलितों का विश्वास जीतने के लिए भाजपा द्वारा की गई कड़ी मेहनत पर पानी फिर सकता है। यह पहला वाकया नहीं है, जिसमें ऊंची जाति के हिंदू दलितों की भयावह तरीके से पिटाई करते हुए पकड़े गए हैं। कांग्रेस-एनसीपी शासित महाराष्ट्र (खैरलांजी), कांग्रेस के हरियाणा (हिसारसोनीपत) तथा राजद शासित बिहार (लक्ष्मणपुर बाथे) में नरसंहार हुए हैं। और फिर भी उना की घटना राजनीतिक ज्वालामुखी साबित हो सकती है, क्योंकि वह प्रधानमंत्री के गृह राज्य में हुई और मुख्यमंत्री ने इस खौफनाक घटना पर हफ्ते भर बाद सक्रियता दिखाई। ज्यादा नुकसान पहुंचाने वाला तथ्य तो यह है कि गोरक्षा गुटों पर प्रभावी लगाम लगाने के बहुत कम प्रयास हुए हैं। गाय के अलावा गोवंश, उनके व्यापार व गोमांस उपभोग तक को पाबंदी के दायरे में लेने से हरियाणा व महाराष्ट्र जैसे भाजपा शासित राज्यों में गोरक्षक गुटों को लगा कि उन्हें हुड़दंग करने की सरकारी मंजूरी मिल गई है।

बाबासाहेब अम्बेडकर की शिक्षाओं के प्रति आदर व्यक्त करने के साथ मनु-स्मृति से लगाव, दोनों साथ नहीं चल सकते
यही वजह है कि भाजपा और संघ परिवार को जानवरों के शव ठिकाने लगाने या मृत गाय की खाल निकालने और चमड़े के ‘पुश्तैनी’ व्यवसाय में लगे दलितों पर अपना रुख पुरजोर तरीके और स्पष्ट रूप से रखने की जरूरत है। क्या दलितों को वे काम करने के लिए हिंदू विरोधी माना जाएगा, जो उन्हें ब्राह्मणवादी हिंदुत्व ने परंपरागत ‘वर्ण’ व्यवस्था के तहत सौंपे थे? निश्चित ही आप गो-राजनीति के नाम पर अत्याचार करके दलितों में पैठ नहीं बनाए रख सकते। बाबासाहेब अम्बेडकर की शिक्षाओं के प्रति आदर व्यक्त करने के साथ मनु-स्मृति से लगाव, दोनों साथ नहीं चल सकते। यदि गोमाता के नाम पर हो रहे अपराधों पर अंकुश नहीं लगाया गया तो पूरा हिंदुत्व प्रोजेक्ट बिखर जाएगा।

पुनश्च :2007 में प्रकाशित अपनी किताब कर्मयोग में प्रधानमंत्री मोदी लिखते हैं, ‘टॉयलेट स्वच्छ करने का काम वाल्मीकि समुदाय के लिए अध्यात्मिक अनुभव रहा है।’ क्या उना घटना पर मौन धारण करने वाले प्रधानमंत्री बताएंगे कि हाथों से की गई ऐसी सफाई को ‘अध्यात्मिक’ अनुभव बताने से उनका क्या आशय था?
(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
राजदीप सरदेसाई
वरिष्ठ पत्रकार
दैनिक भास्कर से साभार
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