राम-रहमान के लिए तो छोड़ दो मंदिर-मस्जिद। ले आओ शांति — कल्पेश याग्निक



‘हे ईश्वर, इन्हें क्षमा करना - ये नहीं जानते ये क्या कर रहे हैं।’ - प्रभु यीशु 

(बचपन से समूचा विश्व इस पंक्ति को पढ़ रहा है, किन्तु पालन कोई नहीं करता।)


वैसे तो इस देश ने इस समय ‘सुलह’, ‘शांति’ और ‘ईश्वर’ ‘अल्लाह’ जैसे शब्दों के असली मानों को दफ़न कर दिया है और उसकी जगह बस ‘नफ़रत’ लिख दिया है। इन शब्दों के माने बताने वालों के साथ क्या हो रहा है, यह बताने की ज़रुरत नहीं समझता, हमसब ‘नफ़रत के विशेषज्ञ’ बना दिये गए हैं, बना क्या दिये गए, ख़ुद आगे बढ़-बढ़ के बन रहे हैं। तिस पर भी कुछ इंसान हैं, जो सारे वार सहते हुए भी नफ़रत की दीवार तोड़ने की कोशिश कर रहे हैं, दीवार चुनने वालों को चिह्नित कर रहे हैं और और-घायल हो रहे हैं। ऐसे में दो ही रास्ते बचते हैं पहला - यह देश इन इंसानों को ख़त्म करके, ख़त्म हो जाये और दूसरा - दीवार तोड़ दी जाये और दफ़न की गयी सांझी-खुशियों को बाहर ला, उनमें दोबारा जिया जाये.
कल्पेश याग्निक ने जो लिखा है वो उस दूसरे रास्ते को रौशन कर रहा है, मर्ज़ी आपकी है और देश भी आपका ही।

-- भरत तिवारी

कल्पेश याग्निक

कल्पेश याग्निक


 ईश्वर, इन्हें क्षमा करना - ये नहीं जानते ये क्या कर रहे हैं।’ - प्रभु यीशु 

(बचपन से समूचा विश्व इस पंक्ति को पढ़ रहा है, किन्तु पालन कोई नहीं करता।)

राम, समूचे ईश्वरीय अवतारों में एकमात्र ऐसे राजा थे, जिनका राज्य आदर्श बनकर उभरा; रामराज्य।


शैतान ठहाके लगा रहा होगा।
भगवान् को हमने दु:खी कर दिया।
अल्लाह को ठेस पहुंचाई।
हम सिद्ध करना चाहते हैं कि राम हमारे। उनकी जन्मभूमि यहां। इसलिए मंदिर ‘वहीं’ बनाएंगे।
हम इस होड़ में डटे हुए हैं कि रहमान पर हक हमारा। इबादत यहीं होती थी। इसलिए मस्जिद तो ‘वहीं’ होगी।
हे! राम।

राम ने कठोर संघर्ष किया। पल-पल कष्ट उठाए। मानसिक यातना झेली। एक पल, किन्तु, न डिगे।
और आदर्श प्रस्तुत किया कि : ‘सिंहासन छोड़ने वाला ही राम होता है।
सत्ता से सहज भाव से हटने वाला ही सच्चा राजा होता है।
कर्तव्य निर्वहन ही सर्वोच्च मानव धर्म है।
स्वयं के लिए नहीं, अन्य के लिए जीया जीवन ही श्रेष्ठ जीवन होता है।
अर्थात् ‘त्याग’।
ठीक उल्टा हम कर रहे हैं। और निरंतर करते जा रहे हैं। मंदिर वहीं बनाएंगे।

हमारी धार्मिक भावनाओं को भड़का कर न जाने कितने स्वार्थी; सुंदर-सुसंस्कृत-सुदर्शन-सुरक्षा देने वाले-गौरव लौटाने वाले सुपात्र और सुशासन देने वाले शासक-नायक बनकर उभर गए? हम समझ ही न पाए। हमने ही उन्हें बनने दिया।

कौन-सा मंदिर?

जो राम के आदर्शों के विपरीत होगा? जो छोड़ने नहीं, पाने के संघर्ष से प्राप्त किया गया होगा?
जो ‘सत्ता’ की भांति जीता, छीना अथवा विभिन्न प्रकार से पा लिया गया होगा? जो कर्तव्य से विमुख, केवल अधिकार की शक्ति से मिला होगा? और जो अन्य के लिए नहीं, केवल स्वयं के लिए, स्वार्थपूर्ण उद्देश्य से लिया होगा?
राम, समूचे ईश्वरीय अवतारों में एकमात्र ऐसे राजा थे, जिनका राज्य आदर्श बनकर उभरा; रामराज्य। और इसीलिए उनका जीवन राज्य, अर्थात् राज्य के नागरिकों से बंधा है। और उनके लिए वे प्रति पल प्रस्तुत, प्रति क्षण तत्पर, प्रत्येक कर्तव्य निभाने को-कुछ भी करते जाते हैं। उनका अपना सुख कभी है ही नहीं। हमारे अनेक ग्रंथों में इसकी श्रेष्ठ व्याख्या मिलती है। आधुनिक संदर्भों के साथ इसका मायथोलॉजिस्ट देवदत्त पटनायक ने गहरा और स्पष्ट विश्लेषण किया है।
और ऐसे मर्यादा पुरुषोत्तम का मंदिर हम मनुष्य जीवन की सभी मर्यादाओं का उल्लंघन कर, बलपूर्वक, छलपूर्वक ध्वस्त की गई गुम्बदों के मलबे पर बना कर करेंगे क्या?
वो भयानक दृश्य भूल गए? वो हजारों-हजार की उग्र भीड़?
वो उन्माद? वो नारे? वो ध्वस्त होता ढांचा? वो कुंठित करने वाला विध्वंस?

इतिहास से ही प्यार था, तो 1855 तक का याद रखते। जब तक हिन्दू-मुसलमान मिलजुलकर पूजा-इबादत इसी जगह करते थे।

हम क्यों भूलेंगे?

उसे तो हमने ‘गर्व का पल’ घोषित किया था। भरी दोपहरी में अंधेर। त्याग? वो केवल राम के लिए था। हम कोई भगवान थोड़े ही हैं।
हम तो भक्त हैं। सच है।
कितना निर्मम सत्य।
उधर, राम को हमने रुलाया। भुला दिया। जय श्री राम की गूंज और मंदिर निर्माण के हाहाकार में राम का रूदन किसे सुनाई देगा?
इधर, अल्लाह को आहत करते हुए हमने नेकी की सारी सीख ताक में रख दी।
सबसे बड़े नबी, हज़रत मोहम्मद साहब, जिन्होंने अल्लाह का पैग़ाम आखिरी इन्सान तक पहुंचाया - उनकी जिंदगी कैसी रही? जो कुछ बताया गया है - उसके हिसाब से तो रोंगटे खड़े कर देने जैसा ज़ुल्म उन पर हुआ। मक्का में उन पर क्या-क्या यातनाएं नहीं हुईं। किन्तु मक्का जीत कर लौटे -तो उन्होंने क्या किया- माफ़। हर एक को माफ़। हर एक को हर इल्ज़ाम से आज़ाद।
क्यों?
क्योंकि अल्लाह ने नेकी का रास्ता बताया है। कुरान-ए-शरीफ़ ने तो बहुत बड़ी बात बड़े सरल शब्दों में कही है - कि मुसलमान जिस्म से नहीं, जज़्बात से ज़िंदगी जीता है।
तो हम ‘वहीं’ के ढांचों में क्यों उलझ कर रह गए? तारीख गवाह है कि दसवीं-ग्यारहवीं सदी से अरब मुल्कों से निकलने वालेे हमलावर, जहां-जहां जाते -पूजाघरों, प्रार्थना गृहों, चर्च, चेपल या मॉनेस्ट्री- सभी को तोड़ते - ध्वस्त कर डालते। फिर वहां इबादतगाह बनाते।
ऐसे ही समरकंद से हिन्दुस्तान को जीतने आया अाक्रांता बाबर। एक साल के भीतर 1527 में उसके सेनापति मीर बाकी ने अयोध्या में इस भूमि पर कब्ज़ा कर, मस्जिद बना दी। सारे रेकॉर्ड हैं। नाम बाबरी मस्जिद दिया।

नई बात नहीं थी। मुग़ल या तैमूर या चंगेज़ सारे हमलावर ऐसा ही करते आए/जा रहे थे।

किन्तु ऐसा करने से मस्जिद जैसा पवित्र स्थल, राम जन्मभूमि को ऐसा क्या अपवित्र कर गया कि हम जयघोष कर, टूट पड़े और अराजकता, हिंसा, उपद्रव पर उतर आए?
यह सिखाया था रामायण ने? यह समझाया था रामचरित मानस में?
और, हमारी धार्मिक भावनाओं को भड़का कर न जाने कितने स्वार्थी; सुंदर-सुसंस्कृत-सुदर्शन-सुरक्षा देने वाले-गौरव लौटाने वाले सुपात्र और सुशासन देने वाले शासक-नायक बनकर उभर गए? हम समझ ही न पाए। हमने ही उन्हें बनने दिया।
ठीक उल्टा, बाबरी मस्जिद के हक में लड़ने वाले - उतने ही स्वार्थी। एक पल के लिए भी कुछ न सोचा। 1527 का इतिहास याद रखा। उसे लेकर न जाने कैसी-कैसी लड़ाइयां शुरू कर दीं। यदि इतिहास से ही प्यार था, तो 1855 तक का याद रखते। जब तक हिन्दू-मुसलमान मिलजुलकर पूजा-इबादत इसी जगह करते थे।
जब भी राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद आता है, हम फैज़ाबाद जिला गज़ेट 1905 का उल्लेख पाते हैं। न्यायालय में दिए दस्तावेज़ में से एक। उसी में इसका विस्तृत वर्णन है कि कैसे भाईचारे से दोनों समाज रहते और अपने-अपने समय अनुसार आरती या नमाज़ करते।
2000 से अधिक निर्दोषों की जान ले चुके इस नितांत अहंकार भरे झगड़े को न मुस्लिम मजहबी नेता छोड़ने को तैयार हैं, न हिन्दू अखाड़े।
फिर 1857 के ग़दर के बाद चबूतरे पर चढ़ावा चढ़ाने वाले हिन्दू श्रद्धालुओं को एक दीवार बनाकर रोक दिया गया। और फिर वही घृणा-नफ़रत का इतिहास। अरे, जब विराट मक्का विजय के दौरान अज़ान के लिए एक अश्वेत को पैग़म्बर साहब ने चुना - तब आई आपत्तियों पर दो टूक संदेश दिया : कि दो ही तरह के लोग हैं -एक नेकी वाले, मोहब्बत वाले- ख़ुदा जिनसे जुड़ा हुआ है। दूसरे, ज़ुल्म ढाने वाले, नफ़रत करने और फैलाने वाले - निर्दयी। ख़ुदा उनसे दूर है।
मस्जिद को लेकर यदि ऐसा ही जज्बा है तो क्या सुलह हुदैबिया को भूल गए। जिसे इलाहाबाद उच्च न्यायालय के जस्टिस सिबग़त उल्लाह खान ने ‘अयोध्या सबकी’ फैसले में लिखा था।
किन्तु हमें देखिए, नफ़रत के जवाब में नफ़रत। अंतहीन सिलसिला।

हमलावर बाबर ने हड़पी। तोड़ी। या न भी तोड़ी तो - मस्जिद बनाई।
फिर भाईचारा भूलकर, दोनों समाजों की भावनाएं भुलाकर दीवार खड़ी कर दी।
शांत पड़ चुके इस अर्थहीन प्रकरण को बड़ा-भारी राजनीतिक मुद्दा बनाकर, भड़का दिया। और ध्वंस रहा परिणाम। 
और जब इलाहाबाद उच्च न्यायालय की विशेष अयोध्या पीठ ने कह दिया कि ‘अयोध्या सबकी’- तो सबकुछ शांत हो ही जाना चाहिए था।
किन्तु 2000 से अधिक निर्दोषों की जान ले चुके इस नितांत अहंकार भरे झगड़े को न मुस्लिम मजहबी नेता छोड़ने को तैयार हैं, न हिन्दू अखाड़े।
अब सर्वोच्च न्यायालय ने कह दिया है कि बातचीत कर, सुलझाओ। स्वयं मुख्य न्यायाधिपति, मध्यस्थता करने को तैयार हैं।
भावना तो सर्वोच्च न्यायालय की अत्यन्त प्रभावी, श्रेष्ठ और उच्च स्तरीय है।
आठ-आठ मध्यस्थता के प्रयास विफल रहे हैं। कोई बात नहीं, पहले विफल होना यह सिद्ध नहीं करता कि आगे भी सफल नहीं होंगे।

किन्तु प्रश्न यह है कि सर्वोच्च न्यायालय पूर्ण न्याय करते हुए तत्काल निर्णय क्यों नहीं कर सकता?
निश्चित कर सकता है।
जब दोनों पक्ष अहंकार और स्वार्थ में अपने ही हठ पर अटे-डटे हैं - तब सर्वोच्च न्यायालय उन्हें महत्व क्यों दे रहा है? सीधे निर्णय दे। और कठोरता से पालन करवाए।
राष्ट्र राम को मानता है। आस्था रखता है।
राष्ट्र अल्लाह पर भरोसा करता है।
निर्मोही अखाड़ा या सुन्नी वक्फ बोर्ड - हिन्दू या मुसलमान के सर्वोच्च या वास्तविक प्रतिनिधि कैसे हो सकते हैं?
नहीं चाहिए।
न मंदिर। न मस्जिद।
हम ईश्वर-अल्लाह के नाम पर लड़ना छोड़ सकें, असंभव है। किन्तु छोड़ना ही होगा।
राष्ट्र शांति चाहता है।
राम और रहमान भी यही चाहते हैं।
राष्ट्रवासियों के लिए न सही, राम-रहमान के लिए तो छोड़ दो मंदिर-मस्जिद। ले आओ शांति।
किन्तु दोनों को हम दु:खी ही करते जा रहे हैं।
इसीलिए शैतान अट्‌टहास लगा रहा है।
और इतने लहूलुहान के बाद, हिंसा, घृणा और ‘तेरा-मेरा’ होने के बाद भव्य राम मंदिर बन भी गया - तो हम प्रार्थना क्या करेंगे - कि हमारे पापों के लिए हमें क्षमा करना! और विशाल मस्जिद बन भी गई - तो इबादत क्या करेंगे - कि या खुदा, माफ़ करना - छीन कर ‘वहीं’ आपको लाने में काफ़ी फ़साद किए!

(लेखक दैनिक भास्कर के ग्रुप एडिटर हैं।)

(ये लेखक के अपने विचार हैं।
साभार दैनिक भास्कर)
००००००००००००००००

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ

ये पढ़ी हैं आपने?

Hindi Story आय विल कॉल यू! — मोबाइल फोन, सेक्स और रूपा सिंह की हिंदी कहानी
Hindi Story: दादी माँ — शिवप्रसाद सिंह की कहानी | Dadi Maa By Shivprasad Singh
कोरोना से पहले भी संक्रामक बीमारी से जूझी है ब्रिटिश दिल्ली —  नलिन चौहान
गिरिराज किशोर : स्मृतियां और अवदान — रवीन्द्र त्रिपाठी
मन्नू भंडारी: कहानी - एक कहानी यह भी (आत्मकथ्य)  Manu Bhandari - Hindi Kahani - Atmakathy
ईदगाह: मुंशी प्रेमचंद की अमर कहानी | Idgah by Munshi Premchand for Eid 2025
ज़ेहाल-ए-मिस्कीं मकुन तग़ाफ़ुल Zehaal-e-miskeen makun taghaful زحالِ مسکیں مکن تغافل
मन्नू भंडारी की कहानी — 'रानी माँ का चबूतरा' | Manu Bhandari Short Story in Hindi - 'Rani Maa ka Chabutra'
 प्रेमचंद के फटे जूते — हरिशंकर परसाई Premchand ke phate joote hindi premchand ki kahani
मन्नू भंडारी की कहानी  — 'नई नौकरी' | Manu Bhandari Short Story in Hindi - 'Nayi Naukri' मन्नू भंडारी जी का जाना हिन्दी और उसके साहित्य के उपन्यास-जगत, कहानी-संसार का विराट नुकसान है