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प्रभाकर क्षोत्रिय का चले जाना



Prabhakar Shrotriya is no more

— Bharat Tiwari

हिंदी साहित्य से प्रभाकर क्षोत्रिय का चले जाना कितनी बड़ी क्षति है इस बात का कुछ अंदाज़ा इस बात से भी चलता है कि उनके जाने से वरिष्ठ, युवा और समकालीन तीनों ही पीढ़ी के साहित्यकारों में उस संपादक के न रहने का दुःख है जिसने उनकी रचनाशीलता को पहचाना, उन्हें प्रकाशित किया और हिंदी साहित्य में उन्हें स्थान दिलाया. 



अखिलेश 

प्रभाकर क्षोत्रिय ने ‘नया ज्ञानोदय’ वागर्थ से एक संपादक के रूप में महत्वपूर्ण काम किया. आज युवा पीढ़ी के परिवार में से प्रतिष्ठित रचनाकार आदि है जिनकी पहली बार किसी राष्ट्रीय मंच पर प्रकाशित करने का काम प्रभाकर जी  किया . नयी रचनाशीलता को बड़ा चुपचाप बगैर किसी आन्दोलन्तामक्ता के वह प्रोत्साहित करते रहे हैं. उन्होंने महाभारत पर भी काम किया और बहुत सारे निबंध लिखे. निश्चय ही उनके निधन से क्षति हुई है हिंदी साहित्य की.

असग़र वजाहत

संपादक के रूप में वह एक ग्रेट संपादक तो रहे ही है उसके अलावा उनमें एक अजीब से आत्मीयता थी उनके अन्दर, वह अजनबी लोगों से भी मिलते थे तो कि कोई गहरी जान-पहचान है. उनके न रहने से वास्तव में बहुत दुःख हुआ और यह एक बड़ी क्षति है. प्रभाकर जी युवा लोगों के काम बड़ी रुचि लिया करते थे





काशीनाथ सिंह

जी जैसा सज्जन शरीफ मनुष्य के रूप में बहुत कम मिलेगा. वे बड़े लेखक, पत्रकार थे, संपादक बहुत अच्छे थे. वह एक बार काशी हिन्दू वि वि  ‘स्वतंत्रता भवन’ में प्रदीप पर होने वाले एक कार्यक्रम में आये थे तब मुलाक़ात हुई थी वह बड़े प्रेम से मिले. उस समय वह वागर्थ के संपादक थे और मुझसे उन्होंने कहानी मांगी जो मैंने उन्हें दी तथा जिसे उन्होंने छापा भी. वह कहानी मेरे मित्र राजेन्द्र यादव ने हंस में छापने से यह कहकर इनकार  कर दिया था कि तुम्हारे पाठक निराश होंगे इसे कहीं न छपाओ. वागर्थ में कहानी ‘विलेन’ प्रभाकर जी के कारण ही छपी और हंस के अलावा मेरी कहीं और छपने वाली वाह पहली कहानी थी और उसे पाठकों ने बहुत पसंद भी किया.  

इंदिरा दांगी

साहित्य की अपूर्णीय क्षति और मेरे लिए व्यक्तिगत क्षति है. मेरे लेखन के शुरुआती दिन में साहित्य में तब उन्होंने मुझे ‘समकालीन भारतीय साहित्य’ के लिए कहानी देने को कहा था, जो मेरे लिए एक बड़ा अवसर साबित हुआ था, मेरी उस कहानी ‘द हीरो’ को पाठकों ने बहुत पसंद किया था और मुझे उस कहानी की लेखिका के रूप में जाना था.

राहुल देव

प्रभाकर जी के साथ हिंदी की एक समृद्धि चली गयी है. उनकी उपस्थिति, उनकी रचनाएँ, उनका चिंतन, उनके भाषण इन सबने और उनके सारे कर्तत्व ने एक विरल सात्विकता से हिंदी को संपन्न किया था.

शशि भूषण द्विवेदी

प्रभाकर श्रोत्रिय  जी मेरे पहले संपादक थे। मेरी पहली कहानी उन्होंने ही छापी थी वागर्थ में। वह कहानी मेरे संग्रह में भले न हो मगर लेखन के प्रति मुझे उसी ने जोड़ा था। उसे श्रोत्रिय जी ने मुझसे दो तीन बार लिखवाया था। बतौर संपादक वे खुद अपने हाथ से पत्र लिखते थे। ज्ञानपीठ का नवलेखन सम्मान भी मुझे उन्हीं के समय मिला। तब मेरा कोई स्थाई पता नहीं हुआ करता था। लेकिन नए से नए का सम्मान भी वे करना जानते थे. यही नहीं उसके लेखन पर भी उनकी गहरी नजर रहती थी। दो हजार की पीढ़ी के ज्यादातर लेखकों की पहली रचनाएं उन्हीं के संपादन में छपीं लेकिन चूँकि वे हिंदी की कथित गुटबाजी से दूर थे इसलिए उन्हें उसका श्रेय नहीं मिला। जब नवलेखन सम्मान समारोह हुआ तो बेपता होने के कारण मुझे पता ही नहीं चला। बाद में श्रोत्रिय जी मिले तो उलाहना देने लगे कि तुम कहाँ गायब रहते हो। इतना भव्य समारोह हुआ और तुम्हारा पता ही नहीं। मैं उन्हें क्या बताता ? उनके संपादकीय और निबंध उनके गहन चिंतन और अध्ययन  दस्तावेज हैं, वे बहुत याद आएंगे, हिंदी में इतना भव्य और शालीन व्यक्ति दूसरा नहीं मिला। उन्हें नमन।

नवोदय टाइम्स - http://epaper.navodayatimes.in/c/13260629


भरत तिवारी
संपादक ‘शब्दांकन’
9811664796
sampadak@shabdankan.com

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