Modi persona offer a deadly combination: the UP voter may well be intoxicated by it this time
Rajdeep Sardesai
2014 के आम चुनाव में भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए ने 42 फीसदी वोट और आश्चर्यजनक रूप से 80 में से 73 सीटें हासिल कर ली थीं। सही है कि ये अांकड़ें असाधारण ‘लहर’ का नतीजा थे लेकिन, यदि भाजपा के वोट में दस फीसदी गिरावट भी हुई तो भी यह सिरमौर रहेगी।
उत्तर प्रदेश के चुनाव परिणामों का अनुमान लगाना सेहत के लिए हानिकारक हो सकता है। जब मैं 1993 में पहली बार उत्तर प्रदेश के चुनाव व्यापक रूप से कवर कर रहा था, तो मेरे एडिटर ने जब मेरी राय पूछी तो मैंने तत्काल दावा किया कि बाबरी मस्जिद विध्वंस के कारण पूरे राज्य में राम लहर चल रही है। मैं गलत साबित हुआ। समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के गठबंधन के दुर्जेय जातिगत गणित ने राम मंदिर की भावनात्मक अपील को मात दे दी।
चौबीस साल बाद कुछ घबराहट के साथ मैं फिर कह रहा हूं कि उत्तर प्रदेश में भाजपा जीतने की स्थिति में है। जब इस ‘लहररहित’ चुनाव में 403 विधानसभा क्षेत्रों में हर कहीं भीषण स्पर्द्धा है, तो ऐसा कहना बड़ी बात है। कुछ कारण है कि इस प्रदेश में कमल खिलने की दहलीज पर है। सबसे पहले तो आंकड़ें ही उत्तर प्रदेश में पार्टी नंबर वन होने के भाजपा के दावे का समर्थन करते हैं। 2014 के आम चुनाव में भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए ने 42 फीसदी वोट और आश्चर्यजनक रूप से 80 में से 73 सीटें हासिल कर ली थीं। सही है कि ये अांकड़ें असाधारण ‘लहर’ का नतीजा थे लेकिन, यदि भाजपा के वोट में दस फीसदी गिरावट भी हुई तो भी यह सिरमौर रहेगी। 2012 में सपा 29 फीसदी वोटों के साथ सत्ता में आ गई थी, जबकि 2007 में बसपा ने 30 फीसदी मतों के बल पर बहुमत हासिल कर लिया था। कुछ विश्लेषकों ने उत्तर प्रदेश की तुलना 2015 के बिहार विधानसभा चुनावों से करके दावा किया है कि सपा-कांग्रेस ‘गठबंधन’ ने खेल बदल दिया है। परंतु यह गलत तुलना है। बिहार में भाजपा विरोधी व्यापक महागठबंधन था, जिससे दो ध्रुवीय संघर्ष हो गया और 34 फीसदी वोट हासिल करके भी भाजपा दूसरे क्रम पर रही। उत्तर प्रदेश में यदि मायावती और अखिलेश यादव बिहार में नीतीश कुमार व लालू यादव की तरह मिलकर लड़ते तो भाजपा को संघर्ष करना पड़ता।
फिर अखिलेश-राहुल गठबंधन में कांग्रेस अब भी कमजोर कड़ी है। पोस्टरों में राहुल को उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के साथ समान महत्व मिलने से सही जमीनी हकीक़त बयां नहीं होती। राहुल अब भी ऐसे नेता नज़र आते हैं, जो उत्तर प्रदेश की राजनीतिक भुलभुलैया में अपना रास्ता खोज रहे हैं और लोगों से जुड़ पाने का उनका सीमित कौशल नाटकीय प्रभाव डालने के उनके प्रयास को और भी मुश्किल बना देता है। चरमराते संगठन के साथ कांग्रेस खुद काफी कमजोर हो गई है और जो 105 सीटें उसे दी गई हैं, वे भी लगभग उससे दोगुनी हैं, जिसकी वह वास्तव में हकदार है। जमीन पर इसके पर्याप्त संकेत हैं कि सपा का मतदाता तो अपना वोट कांग्रेस को दे देगा लेकिन, वोटों का इससे उलट हस्तांतरण उतनी आसानी से होता नहीं दिखता। सच तो यह है कि कांग्रेस-सपा गठबंधन ने मुस्लिम मतों को तो काफी हद तक एकजुट किया है, वहीं यह भी सही है कि इसे यादव-मुस्लिम गठबंधन के रूप में देखा जा रहा है और मतों का इजाफा एक महत्वपूर्ण चुनाव जीतने के लिए काफी नहीं है। दूसरी बात -
Rajdeep Sardesai: The holy river at dawn at assi ghat: boatman tells me: cleaning steps won't clean the Ganga.
साफ है कि वादों के अनुरूप जमीनी प्रदर्शन न करने के बावजूद प्रधानमंत्री को मतदाताओं की व्यापक सद्भावना और भरोसा हासिल है फिर चाहे यह प्रदेश के चुनाव ही क्यों न हो। यहां भी बिहार के साथ तुलना काम नहीं देती। बिहार में नीतीश कुमार ने सड़क, बिजली और खासतौर पर कानून-व्यवस्था तथा महिला सशक्तिकरण के मूल मुद्दे उठाए थे। उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव के ‘काम बोलता है’ के नारे की गूंज सिर्फ कुछ क्षेत्रों में ही सुनाई देती है : ‘ शाइनिंग उत्तर प्रदेश’ के चमकीले विज्ञापन लखनऊ में गोमती के सुंदर किनारे तो दिखाते हैं लेकिन, गोरखपुर के गांव के अंधेरे की उपेक्षा कर देते हैं। युवाओं से मजबूत संपर्क के साथ अखिलेश अब भी उत्तर प्रदेश का भविष्य हो सकते हैं पर मुमकिन है कि वे प्रदेश का वर्तमान न हो। बार-बार यह सुनने को मिलता है, ‘हमने माया को आजमाया और यादवों को भी, एक बार मोदीजी को भी चांस देते हैं।’
एक तरह से, मोदी प्रतीकात्मक रूप से, उत्तर प्रदेश की घोर निराशा में उम्मीद जगाते हैं। इसके साथ मतदाताओं का ध्रुवीकरण करने के उद्देश्य से चतुराईपूर्वक राजनीतिक हिंदुत्व का दिया गया संदेश भी है। 1990 के दशक में राम मंदिर अभियान ने खुलेआम हिंदू पहचान को वोटों में एकजुट करने का प्रयास किया। अब जाति व समुदायगत पहचान को ‘विकास’ के जादुई शब्द से जोड़ने की अधिक कुटिल रणनीति काम कर रही है। रमजान और दिवाली के दौरान बिजली की उपलब्धता की निंदनीय तुलना अथवा लैपटॉप वितरण में भेदभाव का झूठा दावा गहराई तक विभाजित समाज की आशंकाओं और पूर्वग्रहों को हवा देने के इरादे से किया गया था।
अखिलेश-राहुल गठबंधन के लिए अल्पसंख्यकों के आक्रामक समर्थन से विपरीत ध्रुवीकरण और तेज हुअा है। नतीजा यह है कि सवर्ण हितों और गैर-यादव सर्वाधिक पिछड़ी जातियों, यहां तक कि गैर-जाटव-दलित सपनों का एक नया हिंदुत्ववादी गठबंधन मजबूत हो रहा है। मुस्लिम विरोधी प्रचार पर आधारित हिंदुत्व की राजनीति अौर मोदी के व्यक्तित्व से जाहिर होती अपेक्षाओं की राजनीति मिलकर घातक मिश्रण बनता है। संभव है उत्तर प्रदेश का मतदाता इस बार इससे मदहोश हो गया हो।
पुनश्च: उत्तर प्रदेश चुनाव को कवर करने का सबसे बड़ा मजा है, राजनीतिक रूप से जागरुक मतदाताओं से चुटीले जुमले सुनना। जौनपुर में एक दुकानदार से श्मशानघाट-कब्रिस्तान की विवादास्पद तुलना के बारे में पूछते ही तपाक से जवाब आया, ‘ सर, चुनाव है, पहले नेता हमें जीने नहीं देते, अब मरने भी नहीं देंगे!’
नरेंद्र मोदी अब भी उत्तर प्रदेश में नेता नंबर वन हैंं। उनके विरोधी चाहे उन पर ‘यूपी के लड़के’ से लड़ रहे ‘बाहरी’ व्यक्ति का लेबल लगा रहे हों लेकिन, हकीकत तो यही है कि मोदी ने गंगा के मैदानों में लोगों की नब्ज़ पकड़ ली है।
चौबीस साल बाद कुछ घबराहट के साथ मैं फिर कह रहा हूं कि उत्तर प्रदेश में भाजपा जीतने की स्थिति में है। जब इस ‘लहररहित’ चुनाव में 403 विधानसभा क्षेत्रों में हर कहीं भीषण स्पर्द्धा है, तो ऐसा कहना बड़ी बात है। कुछ कारण है कि इस प्रदेश में कमल खिलने की दहलीज पर है। सबसे पहले तो आंकड़ें ही उत्तर प्रदेश में पार्टी नंबर वन होने के भाजपा के दावे का समर्थन करते हैं। 2014 के आम चुनाव में भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए ने 42 फीसदी वोट और आश्चर्यजनक रूप से 80 में से 73 सीटें हासिल कर ली थीं। सही है कि ये अांकड़ें असाधारण ‘लहर’ का नतीजा थे लेकिन, यदि भाजपा के वोट में दस फीसदी गिरावट भी हुई तो भी यह सिरमौर रहेगी। 2012 में सपा 29 फीसदी वोटों के साथ सत्ता में आ गई थी, जबकि 2007 में बसपा ने 30 फीसदी मतों के बल पर बहुमत हासिल कर लिया था। कुछ विश्लेषकों ने उत्तर प्रदेश की तुलना 2015 के बिहार विधानसभा चुनावों से करके दावा किया है कि सपा-कांग्रेस ‘गठबंधन’ ने खेल बदल दिया है। परंतु यह गलत तुलना है। बिहार में भाजपा विरोधी व्यापक महागठबंधन था, जिससे दो ध्रुवीय संघर्ष हो गया और 34 फीसदी वोट हासिल करके भी भाजपा दूसरे क्रम पर रही। उत्तर प्रदेश में यदि मायावती और अखिलेश यादव बिहार में नीतीश कुमार व लालू यादव की तरह मिलकर लड़ते तो भाजपा को संघर्ष करना पड़ता।
जाति व समुदायगत पहचान को ‘विकास’ के जादुई शब्द से जोड़ने की अधिक कुटिल रणनीति काम कर रही है
फिर अखिलेश-राहुल गठबंधन में कांग्रेस अब भी कमजोर कड़ी है। पोस्टरों में राहुल को उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के साथ समान महत्व मिलने से सही जमीनी हकीक़त बयां नहीं होती। राहुल अब भी ऐसे नेता नज़र आते हैं, जो उत्तर प्रदेश की राजनीतिक भुलभुलैया में अपना रास्ता खोज रहे हैं और लोगों से जुड़ पाने का उनका सीमित कौशल नाटकीय प्रभाव डालने के उनके प्रयास को और भी मुश्किल बना देता है। चरमराते संगठन के साथ कांग्रेस खुद काफी कमजोर हो गई है और जो 105 सीटें उसे दी गई हैं, वे भी लगभग उससे दोगुनी हैं, जिसकी वह वास्तव में हकदार है। जमीन पर इसके पर्याप्त संकेत हैं कि सपा का मतदाता तो अपना वोट कांग्रेस को दे देगा लेकिन, वोटों का इससे उलट हस्तांतरण उतनी आसानी से होता नहीं दिखता। सच तो यह है कि कांग्रेस-सपा गठबंधन ने मुस्लिम मतों को तो काफी हद तक एकजुट किया है, वहीं यह भी सही है कि इसे यादव-मुस्लिम गठबंधन के रूप में देखा जा रहा है और मतों का इजाफा एक महत्वपूर्ण चुनाव जीतने के लिए काफी नहीं है। दूसरी बात -
- इसमें कोई संदेह नहीं है कि नरेंद्र मोदी अब भी उत्तर प्रदेश में नेता नंबर वन हैंं।
- उनके विरोधी चाहे उन पर ‘यूपी के लड़के’ से लड़ रहे ‘बाहरी’ व्यक्ति का लेबल लगा रहे हों लेकिन, हकीकत तो यही है कि मोदी ने गंगा के मैदानों में लोगों की नब्ज़ पकड़ ली है।
- वाराणसी के निकट जिस जयापुर गांव को मोदी ने गोद लिया है वहां सड़क बारिश में बह गई, सोलर पैनल की बैटरियां चोरी हो गईं, टॉयलेट में पानी नहीं है और फिर भी दलित बस्तियों सहित कहीं भी जिस भी शख्स से बात करो वह कहता है मोदीजी को वोट देंगे।
- वाराणसी के पान व्यापारी मानते हैं कि नोटबंदी ने उन्हें बहुत नुकसान पहुंचाया है लेकिन, फिर भी ‘हर-हर मोदी’ का नारा लगाते हैं।
- अस्सी घाट पर गंगा के किनारे एक महंत कहते हैं कि नमामि गंगे प्रोजेक्ट तो दिखावा है पर वे प्रधानमंत्री को वोट देंगे।
साफ है कि वादों के अनुरूप जमीनी प्रदर्शन न करने के बावजूद प्रधानमंत्री को मतदाताओं की व्यापक सद्भावना और भरोसा हासिल है फिर चाहे यह प्रदेश के चुनाव ही क्यों न हो। यहां भी बिहार के साथ तुलना काम नहीं देती। बिहार में नीतीश कुमार ने सड़क, बिजली और खासतौर पर कानून-व्यवस्था तथा महिला सशक्तिकरण के मूल मुद्दे उठाए थे। उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव के ‘काम बोलता है’ के नारे की गूंज सिर्फ कुछ क्षेत्रों में ही सुनाई देती है : ‘ शाइनिंग उत्तर प्रदेश’ के चमकीले विज्ञापन लखनऊ में गोमती के सुंदर किनारे तो दिखाते हैं लेकिन, गोरखपुर के गांव के अंधेरे की उपेक्षा कर देते हैं। युवाओं से मजबूत संपर्क के साथ अखिलेश अब भी उत्तर प्रदेश का भविष्य हो सकते हैं पर मुमकिन है कि वे प्रदेश का वर्तमान न हो। बार-बार यह सुनने को मिलता है, ‘हमने माया को आजमाया और यादवों को भी, एक बार मोदीजी को भी चांस देते हैं।’
एक तरह से, मोदी प्रतीकात्मक रूप से, उत्तर प्रदेश की घोर निराशा में उम्मीद जगाते हैं। इसके साथ मतदाताओं का ध्रुवीकरण करने के उद्देश्य से चतुराईपूर्वक राजनीतिक हिंदुत्व का दिया गया संदेश भी है। 1990 के दशक में राम मंदिर अभियान ने खुलेआम हिंदू पहचान को वोटों में एकजुट करने का प्रयास किया। अब जाति व समुदायगत पहचान को ‘विकास’ के जादुई शब्द से जोड़ने की अधिक कुटिल रणनीति काम कर रही है। रमजान और दिवाली के दौरान बिजली की उपलब्धता की निंदनीय तुलना अथवा लैपटॉप वितरण में भेदभाव का झूठा दावा गहराई तक विभाजित समाज की आशंकाओं और पूर्वग्रहों को हवा देने के इरादे से किया गया था।
अखिलेश-राहुल गठबंधन के लिए अल्पसंख्यकों के आक्रामक समर्थन से विपरीत ध्रुवीकरण और तेज हुअा है। नतीजा यह है कि सवर्ण हितों और गैर-यादव सर्वाधिक पिछड़ी जातियों, यहां तक कि गैर-जाटव-दलित सपनों का एक नया हिंदुत्ववादी गठबंधन मजबूत हो रहा है। मुस्लिम विरोधी प्रचार पर आधारित हिंदुत्व की राजनीति अौर मोदी के व्यक्तित्व से जाहिर होती अपेक्षाओं की राजनीति मिलकर घातक मिश्रण बनता है। संभव है उत्तर प्रदेश का मतदाता इस बार इससे मदहोश हो गया हो।
पुनश्च: उत्तर प्रदेश चुनाव को कवर करने का सबसे बड़ा मजा है, राजनीतिक रूप से जागरुक मतदाताओं से चुटीले जुमले सुनना। जौनपुर में एक दुकानदार से श्मशानघाट-कब्रिस्तान की विवादास्पद तुलना के बारे में पूछते ही तपाक से जवाब आया, ‘ सर, चुनाव है, पहले नेता हमें जीने नहीं देते, अब मरने भी नहीं देंगे!’
(Photographs courtesy Twitter of Rajdeeep Sardesai)
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