जब मीडिया संस्थानों का मालिक कौन है — पता ही नहीं हो, तब नेताओं और उनकी भाड़े की सेनाओं के लिए हमें ‘प्रेस्टीट्यूटस’ कहना आसान हो जाता है।
कभी स्वयं बेहद लोकप्रिय और बातचीत पसंद बीजेपी प्रवक्ता रहे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने खुद को मीडिया के सवालों की पहुँच से दूर कर लिया है।
When the country’s most powerful politicians won’t take ‘political’ questions, isn’t that indicative of the skewed nature of our democracy? (Getty Images/iStockphoto) |
माहौल ऐसा बनाया जा रहा है कि जिम्मेदार लोगों से सवाल किया जाना ‘एंटी-नेशनल’ के रूप में देखा जाये, प्रभावशाली मीडिया को बचाव का रुख अपनाने पर मजबूर कर दिया गया है
‘मीडिया या विपक्ष हमें यह न बताएं कि किसानों के लिए क्या करने की जरूरत है। हम नकारात्मक, नुक्ताचीन विपक्ष या ‘सब-पता-है वाला मीडिया’ जिन्हें जमीनी हकीकत का कुछ पता नहीं है, से बात करने की बजाय किसानों से बात करना पसंद करेंगे।’ भाजपा प्रवक्ता जीवीएल नरसिम्हा राव ने 12 जून को टीवी पर एक चर्चा में कहा। सरल-सा प्रश्न था कि क्या नोटबंदी ने ग्रामीण अर्थव्यवस्था को प्रभावित किया है और क्या यह किसानों में बढ़ती बेचैनी की वजह है! तो सत्तारूढ़ दल के मीडिया से खुश नेताओं में से एक का मीडिया के खिलाफ रुख अपनाना दिखाता हैं कि सत्ता कैसे अहंकारी बना देती है, अहसमति सुनने से रोकती है।
लेकिन राव साहब को ही दोष क्यों दें, जिनका रात्रि-कार्य ही प्राइम टाइम टीवी पर सरकार का बचाव करना है। मीडिया के प्रति तिरस्कारपूर्ण दृष्टिकोण तो ठीक शीर्ष से शुरू होता है। प्रधानमंत्री ने तो मुख्यधारा के मीडिया को दरकिनार करके ट्विटर मैसेज और रेडियो की फील-गुड एकतरफा मासिक ‘मन की बात’ को तरजीह दी है। न बेरोकटोक प्रेस कॉन्फ्रेंस ,न विदेश यात्राओं में पत्रकारों को साथ ले जाना, बस है तो केवल पहले से तय सवालों पर किया जाने वाला इंटरव्यू। कभी स्वयं बेहद लोकप्रिय और बातचीत पसंद बीजेपी प्रवक्ता रहे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने खुद को मीडिया के सवालों की पहुँच से दूर कर लिया है।
लेकिन अकेले प्रधानमंत्री को ही क्यों कहें ? कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी करीब दो दशकों से सार्वजनिक जीवन में हैं लेकिन, उन्होंने कभी राजनीतिक भ्रष्टाचार जैसे विवादास्पद सवालों का जवाब देने की इच्छा नहीं दिखायी । पिछले नवंबर में मुझे सोनिया गांधी का इंटरव्यू लेने का दुर्लभ अवसर मिला। इंटरव्यू के ठीक पहले साफ कर दिया गया कि इंदिरा गांधी की जन्मशती समारोह के मौके पर केवल उनसे संबंधित प्रश्न ही पूछे जा सकेंगे। एकदम स्पष्ट था, ‘कोई राजनीतिक प्रश्न नहीं!’ देश के शीर्ष नेताओं में से एक जब ‘राजनीतिक’ प्रश्न स्वीकार नहीं करेगा,तो क्या यह हमारे लोकतंत्र के विकृत स्वरूप का नहीं दिखाता है?
सार्वजनिक जीवन में मौजूद लोगों का जवाबदेह बनने से इस तरह बचना अब वायरस की तरह पूरी राजनीतिक प्रणाली में फैल गया है। 2015 में जब मैं ममता बनर्जी का इंटरव्यू ले रहा था तो वे बीच में ही उठकर चली गईं, क्योंकि मैंने शारदा चिट फंड घोटाले का मुद्दा उठा लिया था। ममताजी तो कम से कम इंटरव्यू के लिए राजी हुईं; मायावती ने तो पूरे एक दशक में एक भी इंटरव्यू नहीं दिया, इसलिए उनके पास अकूत संपत्ति होने के आरोपों का हमारे पास अब तक कोई जवाब नहीं हैं। एक अभिमानी सम्राज्ञी की तरह जयललिता ने अपने किले पोएस गार्डन से बाहर आकर प्रेस से मिलने से इनकार कर दिया था, नवीन पटनायक भी ओडिशा में ऐसी ही नीति का पालन करते हैं, और केरल में पिनारायी विजयन तो मीडिया के प्रति अपने बैर छुपाते भी नहीं।
इससे मैं मूल प्रश्न पर आता हूं : क्या हम ऐसे युग में आ गए हैं जहां ‘लोकतांत्रिक शासकों’ ने लोकतंत्र के चौथे स्तंभ को दरकिनार करके सीधे अपने मतदाताओं से मुखातिब होने का तय कर लिया है? सत्ता से सच बोलने की पत्रकार की महत्वपूर्ण भूमिका के लिए गुंजाइश ही कहां है? यह जानकर कि रोजमर्रा की पत्रकारिता के सुचारू रूप से चलने के लिए नेताओं तक पहुंच की निर्णायक भूमिका है, सत्ता के प्रवेश-द्वार को रक्षा घेरे में डाल दिया गया है। यह सिर्फ दिल्ली की बात नहीं। कई राज्यों की राजधानियों में यही हाल है। राज्य सचिवालय पत्रकारों को प्रवेश ही नहीं देते। कई बार तो राज्य से मान्यता प्राप्त पत्रकारों को भी ठुकरा दिया जाता है।
दुखद है कि मीडिया के अधिकार का बचाव करने की बजाय पाठकों व दर्शकों का एक बड़ा तबका इस धुंधले में रखने वाले, निरंकुश, सत्तावादी नेतृत्व का तालियां बजाकर प्रोत्साहन कर रहा है। ऐसा हमेशा नहीं रहा है, 70 के दशक में जब इंदिरा गांधी ने मीडिया पर रोक लगा दी तो विरोध में खड़े हुए लोगों का सम्मान हुआ था। 1980 के दशक में जब राजीव गांधी ने मानहानि विधेयक लाये ताकि मीडिया का मुंह बंद किया जा सके तो मीडिया ने एकस्वर से इसका विरोध किया। मीडिया के विरुद्ध सत्ता के मनमाने इस्तेमाल की लगभग हर घटना में आम जनता हमारे साथ हुआ करती थी। अब वह बात नहीं रही : अब जब कोई नेता मीडिया पर बरसता है तो बहुत बड़ा श्रोतावर्ग ऐसा होता है, जो खड़ा होकर तमाशा देखता है, तालियां बजाता है।
शायद हम मीडिया कर्मियों को भी अंतरावलोकन की जरूरत है कि हमने ऐसा क्यों होने दिया। जब टेलीविजन में ‘समझ’ की जगह ‘सनसनी’ ले, जब राजनीतिक व विचारधारात्मक झुकाव तय करे कि क्या समाचार दिखाया जायेगा और क्या नहीं, जब मीडिया संस्थानों का मालिक कौन है — पता ही नहीं हो, तब नेताओं और उनकी भाड़े की सेनाओं के लिए हमें ‘प्रेस्टीट्यूटस’ कहना आसान हो जाता है। दरअसल जैसा राव साहब ने हमें ‘सब-पता-है वाला मीडिया’ कहा वो तो नहीं हम शायद अब वह मीडिया भर रह गए हैं जिसकी रीढ़ की हड्डी लड़ने की ताकत खो चुकी है ।
पुनश्च: इस माह की शुरुआत में, लोकतंत्र की सच्ची भावना की कद्र करते हुए बीबीसी ने ब्रिटेन प्रधानमंत्री पद के दोनों प्रत्याशियों को — बिना पूर्वनिर्धारित सवालों के — जनता का सामना करने के लिए आमंत्रित किया। हमारे यहां ऐसे कितने नेता हैं जो यों बेरोक-टोक सवाल-जवाब का सामना करने को तैयार होंगे?
क्या नोटबंदी पर एक श्वेतपत्र की मांग जायज नहीं है? — राजदीप सरदेसाई
लेकिन राव साहब को ही दोष क्यों दें, जिनका रात्रि-कार्य ही प्राइम टाइम टीवी पर सरकार का बचाव करना है। मीडिया के प्रति तिरस्कारपूर्ण दृष्टिकोण तो ठीक शीर्ष से शुरू होता है। प्रधानमंत्री ने तो मुख्यधारा के मीडिया को दरकिनार करके ट्विटर मैसेज और रेडियो की फील-गुड एकतरफा मासिक ‘मन की बात’ को तरजीह दी है। न बेरोकटोक प्रेस कॉन्फ्रेंस ,न विदेश यात्राओं में पत्रकारों को साथ ले जाना, बस है तो केवल पहले से तय सवालों पर किया जाने वाला इंटरव्यू। कभी स्वयं बेहद लोकप्रिय और बातचीत पसंद बीजेपी प्रवक्ता रहे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने खुद को मीडिया के सवालों की पहुँच से दूर कर लिया है।
कभी स्वयं बेहद लोकप्रिय और बातचीत पसंद बीजेपी प्रवक्ता रहे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने खुद को मीडिया के सवालों की पहुँच से दूर कर लिया है। |
अभी तक हमें यह क्यों नहीं पता कि नोटबंदी से बैंकतंत्र के पास कितनी मुद्रा वापस आयी?
यह इसी का परिणाम है कि आज तक उनकी सरकार द्वारा उठाए सबसे बड़े कदम पर उनसे कोई गंभीर संवाद नहीं हो पाया है। मसलन, अभी तक हमें यह क्यों नहीं पता कि नोटबंदी से बैंकतंत्र के पास कितनी मुद्रा वापस आयी? या फिर काले धन या जाली नोटों के खिलाफ सरकार के ‘युद्ध’ का असल में क्या हुआ? क्या नोटबंदी पर एक श्वेतपत्र की मांग जायज नहीं है? दुर्भाग्य से माहौल ऐसा बनाया जा रहा है कि जिम्मेदार लोगों से सवाल किया जाना ‘एंटी-नेशनल’ के रूप में देखा जाये, प्रभावशाली मीडिया को बचाव का रुख अपनाने पर मजबूर कर दिया गया है और ऐसे में मीडिया या तो खुद अपने पर सेंसरशिप लागू कर रहा या फिर ‘स्थापित्व/सत्ता’ के चारण की भूमिका निभा रहा है, या दोनों के बीच झूल रहा है।दुखद है कि मीडिया के अधिकार का बचाव करने की बजाय पाठकों व दर्शकों का एक बड़ा तबका इस धुंधले में रखने वाले, निरंकुश, सत्तावादी नेतृत्व का तालियां बजाकर प्रोत्साहन कर रहा है। ऐसा हमेशा नहीं रहा है, 70 के दशक में जब इंदिरा गांधी ने मीडिया पर रोक लगा दी तो विरोध में खड़े हुए लोगों का सम्मान हुआ था। 1980 के दशक में जब राजीव गांधी ने मानहानि विधेयक लाये ताकि मीडिया का मुंह बंद किया जा सके तो मीडिया ने एकस्वर से इसका विरोध किया। मीडिया के विरुद्ध सत्ता के मनमाने इस्तेमाल की लगभग हर घटना में आम जनता हमारे साथ हुआ करती थी। अब वह बात नहीं रही : अब जब कोई नेता मीडिया पर बरसता है तो बहुत बड़ा श्रोतावर्ग ऐसा होता है, जो खड़ा होकर तमाशा देखता है, तालियां बजाता है। — राजदीप सरदेसाई
लेकिन अकेले प्रधानमंत्री को ही क्यों कहें ? कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी करीब दो दशकों से सार्वजनिक जीवन में हैं लेकिन, उन्होंने कभी राजनीतिक भ्रष्टाचार जैसे विवादास्पद सवालों का जवाब देने की इच्छा नहीं दिखायी । पिछले नवंबर में मुझे सोनिया गांधी का इंटरव्यू लेने का दुर्लभ अवसर मिला। इंटरव्यू के ठीक पहले साफ कर दिया गया कि इंदिरा गांधी की जन्मशती समारोह के मौके पर केवल उनसे संबंधित प्रश्न ही पूछे जा सकेंगे। एकदम स्पष्ट था, ‘कोई राजनीतिक प्रश्न नहीं!’ देश के शीर्ष नेताओं में से एक जब ‘राजनीतिक’ प्रश्न स्वीकार नहीं करेगा,तो क्या यह हमारे लोकतंत्र के विकृत स्वरूप का नहीं दिखाता है?
क्या हम ऐसे युग में आ गए हैं जहां ‘लोकतांत्रिक शासकों’ ने लोकतंत्र के चौथे स्तंभ को दरकिनार करके सीधे अपने मतदाताओं से मुखातिब होने का तय कर लिया है? — राजदीप सरदेसाई
सार्वजनिक जीवन में मौजूद लोगों का जवाबदेह बनने से इस तरह बचना अब वायरस की तरह पूरी राजनीतिक प्रणाली में फैल गया है। 2015 में जब मैं ममता बनर्जी का इंटरव्यू ले रहा था तो वे बीच में ही उठकर चली गईं, क्योंकि मैंने शारदा चिट फंड घोटाले का मुद्दा उठा लिया था। ममताजी तो कम से कम इंटरव्यू के लिए राजी हुईं; मायावती ने तो पूरे एक दशक में एक भी इंटरव्यू नहीं दिया, इसलिए उनके पास अकूत संपत्ति होने के आरोपों का हमारे पास अब तक कोई जवाब नहीं हैं। एक अभिमानी सम्राज्ञी की तरह जयललिता ने अपने किले पोएस गार्डन से बाहर आकर प्रेस से मिलने से इनकार कर दिया था, नवीन पटनायक भी ओडिशा में ऐसी ही नीति का पालन करते हैं, और केरल में पिनारायी विजयन तो मीडिया के प्रति अपने बैर छुपाते भी नहीं।
जब मीडिया संस्थानों का मालिक कौन है — पता ही नहीं हो, तब नेताओं और उनकी भाड़े की सेनाओं के लिए हमें ‘प्रेस्टीट्यूटस’ कहना आसान हो जाता है। |
इससे मैं मूल प्रश्न पर आता हूं : क्या हम ऐसे युग में आ गए हैं जहां ‘लोकतांत्रिक शासकों’ ने लोकतंत्र के चौथे स्तंभ को दरकिनार करके सीधे अपने मतदाताओं से मुखातिब होने का तय कर लिया है? सत्ता से सच बोलने की पत्रकार की महत्वपूर्ण भूमिका के लिए गुंजाइश ही कहां है? यह जानकर कि रोजमर्रा की पत्रकारिता के सुचारू रूप से चलने के लिए नेताओं तक पहुंच की निर्णायक भूमिका है, सत्ता के प्रवेश-द्वार को रक्षा घेरे में डाल दिया गया है। यह सिर्फ दिल्ली की बात नहीं। कई राज्यों की राजधानियों में यही हाल है। राज्य सचिवालय पत्रकारों को प्रवेश ही नहीं देते। कई बार तो राज्य से मान्यता प्राप्त पत्रकारों को भी ठुकरा दिया जाता है।
दुखद है कि मीडिया के अधिकार का बचाव करने की बजाय पाठकों व दर्शकों का एक बड़ा तबका इस धुंधले में रखने वाले, निरंकुश, सत्तावादी नेतृत्व का तालियां बजाकर प्रोत्साहन कर रहा है। ऐसा हमेशा नहीं रहा है, 70 के दशक में जब इंदिरा गांधी ने मीडिया पर रोक लगा दी तो विरोध में खड़े हुए लोगों का सम्मान हुआ था। 1980 के दशक में जब राजीव गांधी ने मानहानि विधेयक लाये ताकि मीडिया का मुंह बंद किया जा सके तो मीडिया ने एकस्वर से इसका विरोध किया। मीडिया के विरुद्ध सत्ता के मनमाने इस्तेमाल की लगभग हर घटना में आम जनता हमारे साथ हुआ करती थी। अब वह बात नहीं रही : अब जब कोई नेता मीडिया पर बरसता है तो बहुत बड़ा श्रोतावर्ग ऐसा होता है, जो खड़ा होकर तमाशा देखता है, तालियां बजाता है।
शायद हम मीडिया कर्मियों को भी अंतरावलोकन की जरूरत है कि हमने ऐसा क्यों होने दिया। जब टेलीविजन में ‘समझ’ की जगह ‘सनसनी’ ले, जब राजनीतिक व विचारधारात्मक झुकाव तय करे कि क्या समाचार दिखाया जायेगा और क्या नहीं, जब मीडिया संस्थानों का मालिक कौन है — पता ही नहीं हो, तब नेताओं और उनकी भाड़े की सेनाओं के लिए हमें ‘प्रेस्टीट्यूटस’ कहना आसान हो जाता है। दरअसल जैसा राव साहब ने हमें ‘सब-पता-है वाला मीडिया’ कहा वो तो नहीं हम शायद अब वह मीडिया भर रह गए हैं जिसकी रीढ़ की हड्डी लड़ने की ताकत खो चुकी है ।
पुनश्च: इस माह की शुरुआत में, लोकतंत्र की सच्ची भावना की कद्र करते हुए बीबीसी ने ब्रिटेन प्रधानमंत्री पद के दोनों प्रत्याशियों को — बिना पूर्वनिर्धारित सवालों के — जनता का सामना करने के लिए आमंत्रित किया। हमारे यहां ऐसे कितने नेता हैं जो यों बेरोक-टोक सवाल-जवाब का सामना करने को तैयार होंगे?
(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
(साभार हिंदुस्तान टाइम्स व भास्कर से, अनुवाद में बदलाव सहित )
1 टिप्पणियाँ
राजदीपसरदेसाई की मीडियाका सवाल पर लिखा लेख समयोचित है पर इससबकेलिए 90% तक मीडिया स्वयं ही जिम्मेदार है। लोकतन्त्र का चौथास्तम्भ जब दौलत की चकाचौंध मे ढहजाए और अपनी सेवाएँ धनाड्य और बेईमानों को समर्पित करने मे दिन रात लग जाये तो बेचारी जनता; जो हर हाल मे सिर्फऔर सिर्फ पिसती है और हर उस शक्स/संस्था से धोखा ही पाती है जिस पर भी वो भरोसा जताती है और अपना भरपूर समर्थन देती है। ठीकही लिखा है आपने मीडिया स्वयं का आत्मवलोकन एवं छिद्रान्वेषण करे ताकिजनतापुनः मीडिया पर भरोसाकर सके और उसे अपना साथीऔर हितैषी मान सके।
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