प्रशंसकों के बीच सेल्फी खिंचवाते राजदीप सरदेसाई (फ़ोटो: भरत तिवारी) |
कांग्रेस का दोहरापन तत्काल उजागर हो जाएगा — राजदीप सरदेसाई
1985 में जब सैटेलाइट टेलीविजन आया नहीं था, जनमत बनाने में मीडिया की सीमित भूमिका ही थी। अब सातों दिन-चौबीसों घंटे खबरों और सोशल मीडिया के अंतहीन चक्र में बहस छोटे समूह तक सीमित नहीं रह गई है और इस मुद्दे पर कांग्रेस का दोहरापन तत्काल उजागर हो जाएगा।
एक अच्छा वकील किसी मुकदमे में व्यक्तिगत धारणाओं को आड़े नहीं आने देता। जो कीमती सबक लॉ स्कूल में सिखाए जाते हैं, यह उनमें से एक है। संभव है कि इसी प्रकार की सीख के कारण कांग्रेस नेता-सांसद कपिल सिब्बल सुप्रीम कोर्ट में ऐतिहासिक तीन तलाक मामले में ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की ओर से पैरवी करने को राजी हुए और दलील दी कि तीन तलाक मुस्लिमों के लिए 1400 वर्षों से आस्था का विषय रहा है और इस पर संवैधानिक नैतिकता समानता के सिद्धांत लागू नहीं हो सकते। लेकिन, अपनी दलील को इतने स्पष्ट शब्दों में रखकर सच्चे नेहरूवादी धर्मनिरपेक्ष होने पर गर्व करने वाले कपिल सिब्बल ने शायद उस दुखती रग पर हाथ रख दिया है, जिसने धर्मनिरपेक्षतावादियों और खासतौर पर कांग्रेस को तीन दशकों से दुविधा में डाल रखा है।
सिब्बल के शब्द विचलित करने वाली उन दलीलों की गूंज लगते हैं, जो 1985 में चर्चित शाहबानो प्रकरण में दी गई थीं। इनके कारण पहले तो कांग्रेस पर ‘मुस्लिमों के तुष्टीकरण’ का आरोप लगा। बाद में भरणपोषण का खर्च मांग रही तलाकशुदा मुस्लिम महिला का हश्र देखकर सुप्रीम कोर्ट उसे संरक्षण देने के लिए आगे आया पर राजीव गांधी सरकार ने मुस्लिम कट्टरपंथी ताकतों के दबाव में सर्वाच्च न्यायालय का फैसला ही उलट दिया। इस दयनीय समर्पण ने भाजपा को वह मौका दे दिया, जिसका वह धर्मनिरपेक्षता बनाम छद्म धर्मनिरपेक्षता की बहस खड़ी करके हिंदुत्व राजनीति में तेजी लानेे के लिए इंतजार कर रही थी। इसका नतीजा अंतत: बाबरी मस्जिद के ध्वंस और संघ परिवार के राजनीतिक उदय के रूप में हुआ।
लेकिन, 2017 कोई 1985 नहीं है। भाजपा अब सत्ता में बैठी पार्टी है, जिसका नेतृत्व शक्तिशाली प्रधानमंत्री कर रहे हैं, जिनकी सरकार को तीन तलाक के सभी रूपों पर कड़ी आपत्ति है। यदि शाहबानो प्रकरण से राजीव गांधी की राजनीितक नादानी उजागर हुई थी तो मोदी सरकार के लिए तीन तलाक ‘सबके लिए न्याय, तुष्टीकरण किसी का नहीं’ की दिशा में एक और हथियार बन गया है। कोर्ट का अनुकूल फैसला समान नागरिक संहिता पर व्यापक बहस शुरू करने के भाजपा के प्रयास को फिर भड़का सकता है।
दूसरी तरफ कांग्रेस के लिए यह सच से साक्षात्कार का पल है। 1980 के दशक में पार्टी नेतृत्व मुस्लिम समुदाय के मज़हबी नेताओं के तीखे तेवरों के आगे झुक गया था। उस वक्त कांग्रेस काफी कुछ वैसी ही थी जैसी भाजपा आज है : मजबूत बहुमत वाली सरकार, जो सोचती थी कि वह कुछ भी करके बच सकती है। आज संसद में नाममात्र की मौजूदगी के चलते कांग्रेस के लिए धर्मनिरपेक्षता को अपना कर सांप्रदायिकता से हित साधने का दोहरा रुख अपनाना ठीक नहीं होगा। बजाय इसके कि पार्टी फिर अल्पसंख्यक कट्टरपंथियों के प्रति नर्म रुख अपनाने का तमगा पाए, कांग्रेस को तीन तलाक को अवैध घोषित करने के समर्थन में मजबूत रुख अपनाना चाहिए। खास बात यह है कि 1985 में जब सैटेलाइट टेलीविजन आया नहीं था, जनमत बनाने में मीडिया की सीमित भूमिका ही थी। अब सातों दिन-चौबीसों घंटे खबरों और सोशल मीडिया के अंतहीन चक्र में बहस छोटे समूह तक सीमित नहीं रह गई है और इस मुद्दे पर कांग्रेस का दोहरापन तत्काल उजागर हो जाएगा।
अच्छी बात है कि तीन तलाक के विरोध का नेतृत्व मुख्य रूप से मुस्लिम गुट खासतौर पर महिलाएं कर रही हैं। कई मुस्लिम महिलाएं अपनी पीड़ा व्यक्त करने के लिए खुलेआम आगे आई हैं, जिससे उनके साहस का पता चलता है और जो अधिकार संपन्न होने के बढ़ते अहसास का नतीजा है। यही वजह है कि जहां शाहबानों प्रकरण में मुस्लिम नागरिक समाज के भीतर से कट्टरपंथियों का पर्याप्त विरोध नहीं था, इस बार इसमें उल्लेखनीय परिवर्तन आया है, जो समुदाय में चल रहे मंथन की ओर इशारा करता है। मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड को खासतौर पर पर्सनल लॉ के मामले में सारे मुस्लिमों के एकमात्र प्रवक्ता के रूप में नहीं देखा जाता। सच तो यह है कि उसे गोपनीयता में काम करने वाले ज्यादातर दकियानूसी पुरुषों का समूह समझा जाने लगा है। यह भी उतना ही सच है कि जनमत के दबाव के कारण बोर्ड तीन तलाक खत्म करने को लेकर नरम रूप अपनाने पर मजबूर हुआ है। इससे फिर एक बार बदलाव परिलक्षित होता है।
एक अर्थ में यह हर सही सोच वाले उदारवादी धर्मनिरपेक्ष व्यक्ति के लिए तीन तलाक के विरोधी मुस्लिमों के साहसी स्वरों को मजबूत बनाने और अपनी जगह फिर हासिल करने का वक्त है, जिसे शाहबानो विवाद के बाद छोड़ दिया गया था। भाजपा चाहे यह दावा करे कि वह प्रगतिशील मुस्लिमों के साथ खड़ी है लेकिन, उसका यह रुख पाखंड ज्यादा है, क्योंकि क्या यही वह पार्टी नहीं थी, जो राम जन्मभूमि के विवादित मामले में जोर दे रही थी कि आस्था को कानून से ऊपर रखा जाना चाहिए? वास्तव में भगवा परिवार के लिए तीन तलाक मुस्लिम समुदाय पर प्रहार करने का एक और मुद्दा है तथा इसके जरिये वह यह धारणा बढ़ाना चाहता है कि यह धर्म पुरातन प्रथाओं में धंसा हुआ है (मैं संघ परिवार को बाल विवाह समारोह में शामिल होने वाली सार्वजनिक क्षेत्र की शख्सियतों की आलोचना करते क्यों नहीं देख पाता?)
जब तीन तलाक पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले का इंतजार किया जा रहा है, तो धर्मनिरपेक्षवादियों के सामने असली चुनौती तीन तलाक की बहस को राजनीतिक कीचड़-उछाल से निकालकर स्पष्ट तौर पर लैंगिक समानता के क्षेत्र में लाने की है। मुस्लिम महिलाओं को पर्सनल लॉ की प्रथाओं से स्वतंत्र होने की जरूरत है, जो मूल रूप से मनमानी और असमान हैं। यह स्वतंत्रता उस संविधान से आनी चाहिए, जो समान नागरिकता को प्राथमिकता देता है कि उस राजनीतिक आदेश से मिलनी चाहिए, जिसने फूट डालकर राज करने के लिए ही धार्मिक मुद्दों का इस्तेमाल किया है।
सोशल मीडिया पर...प्रमुख भारतीय मुस्लिमों की चुप्पी पर सवाल उठा रहे हैं...क्या मैं पूछ सकता हूं...गोरक्षकों के गिरोह धर्म के नाम पर धमका रहे थे, हत्या कर रहे थे तो कितने ‘अग्रणी’ हिंदुओं ने विरोध किया था। मौन रहने का ‘अपराध’ एकतरफा नहीं हो सकता। — राजदीप सरदेसाई
सिब्बल के शब्द विचलित करने वाली उन दलीलों की गूंज लगते हैं, जो 1985 में चर्चित शाहबानो प्रकरण में दी गई थीं। इनके कारण पहले तो कांग्रेस पर ‘मुस्लिमों के तुष्टीकरण’ का आरोप लगा। बाद में भरणपोषण का खर्च मांग रही तलाकशुदा मुस्लिम महिला का हश्र देखकर सुप्रीम कोर्ट उसे संरक्षण देने के लिए आगे आया पर राजीव गांधी सरकार ने मुस्लिम कट्टरपंथी ताकतों के दबाव में सर्वाच्च न्यायालय का फैसला ही उलट दिया। इस दयनीय समर्पण ने भाजपा को वह मौका दे दिया, जिसका वह धर्मनिरपेक्षता बनाम छद्म धर्मनिरपेक्षता की बहस खड़ी करके हिंदुत्व राजनीति में तेजी लानेे के लिए इंतजार कर रही थी। इसका नतीजा अंतत: बाबरी मस्जिद के ध्वंस और संघ परिवार के राजनीतिक उदय के रूप में हुआ।
लेकिन, 2017 कोई 1985 नहीं है। भाजपा अब सत्ता में बैठी पार्टी है, जिसका नेतृत्व शक्तिशाली प्रधानमंत्री कर रहे हैं, जिनकी सरकार को तीन तलाक के सभी रूपों पर कड़ी आपत्ति है। यदि शाहबानो प्रकरण से राजीव गांधी की राजनीितक नादानी उजागर हुई थी तो मोदी सरकार के लिए तीन तलाक ‘सबके लिए न्याय, तुष्टीकरण किसी का नहीं’ की दिशा में एक और हथियार बन गया है। कोर्ट का अनुकूल फैसला समान नागरिक संहिता पर व्यापक बहस शुरू करने के भाजपा के प्रयास को फिर भड़का सकता है।
दूसरी तरफ कांग्रेस के लिए यह सच से साक्षात्कार का पल है। 1980 के दशक में पार्टी नेतृत्व मुस्लिम समुदाय के मज़हबी नेताओं के तीखे तेवरों के आगे झुक गया था। उस वक्त कांग्रेस काफी कुछ वैसी ही थी जैसी भाजपा आज है : मजबूत बहुमत वाली सरकार, जो सोचती थी कि वह कुछ भी करके बच सकती है। आज संसद में नाममात्र की मौजूदगी के चलते कांग्रेस के लिए धर्मनिरपेक्षता को अपना कर सांप्रदायिकता से हित साधने का दोहरा रुख अपनाना ठीक नहीं होगा। बजाय इसके कि पार्टी फिर अल्पसंख्यक कट्टरपंथियों के प्रति नर्म रुख अपनाने का तमगा पाए, कांग्रेस को तीन तलाक को अवैध घोषित करने के समर्थन में मजबूत रुख अपनाना चाहिए। खास बात यह है कि 1985 में जब सैटेलाइट टेलीविजन आया नहीं था, जनमत बनाने में मीडिया की सीमित भूमिका ही थी। अब सातों दिन-चौबीसों घंटे खबरों और सोशल मीडिया के अंतहीन चक्र में बहस छोटे समूह तक सीमित नहीं रह गई है और इस मुद्दे पर कांग्रेस का दोहरापन तत्काल उजागर हो जाएगा।
अच्छी बात है कि तीन तलाक के विरोध का नेतृत्व मुख्य रूप से मुस्लिम गुट खासतौर पर महिलाएं कर रही हैं। कई मुस्लिम महिलाएं अपनी पीड़ा व्यक्त करने के लिए खुलेआम आगे आई हैं, जिससे उनके साहस का पता चलता है और जो अधिकार संपन्न होने के बढ़ते अहसास का नतीजा है। यही वजह है कि जहां शाहबानों प्रकरण में मुस्लिम नागरिक समाज के भीतर से कट्टरपंथियों का पर्याप्त विरोध नहीं था, इस बार इसमें उल्लेखनीय परिवर्तन आया है, जो समुदाय में चल रहे मंथन की ओर इशारा करता है। मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड को खासतौर पर पर्सनल लॉ के मामले में सारे मुस्लिमों के एकमात्र प्रवक्ता के रूप में नहीं देखा जाता। सच तो यह है कि उसे गोपनीयता में काम करने वाले ज्यादातर दकियानूसी पुरुषों का समूह समझा जाने लगा है। यह भी उतना ही सच है कि जनमत के दबाव के कारण बोर्ड तीन तलाक खत्म करने को लेकर नरम रूप अपनाने पर मजबूर हुआ है। इससे फिर एक बार बदलाव परिलक्षित होता है।
एक अर्थ में यह हर सही सोच वाले उदारवादी धर्मनिरपेक्ष व्यक्ति के लिए तीन तलाक के विरोधी मुस्लिमों के साहसी स्वरों को मजबूत बनाने और अपनी जगह फिर हासिल करने का वक्त है, जिसे शाहबानो विवाद के बाद छोड़ दिया गया था। भाजपा चाहे यह दावा करे कि वह प्रगतिशील मुस्लिमों के साथ खड़ी है लेकिन, उसका यह रुख पाखंड ज्यादा है, क्योंकि क्या यही वह पार्टी नहीं थी, जो राम जन्मभूमि के विवादित मामले में जोर दे रही थी कि आस्था को कानून से ऊपर रखा जाना चाहिए? वास्तव में भगवा परिवार के लिए तीन तलाक मुस्लिम समुदाय पर प्रहार करने का एक और मुद्दा है तथा इसके जरिये वह यह धारणा बढ़ाना चाहता है कि यह धर्म पुरातन प्रथाओं में धंसा हुआ है (मैं संघ परिवार को बाल विवाह समारोह में शामिल होने वाली सार्वजनिक क्षेत्र की शख्सियतों की आलोचना करते क्यों नहीं देख पाता?)
जब तीन तलाक पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले का इंतजार किया जा रहा है, तो धर्मनिरपेक्षवादियों के सामने असली चुनौती तीन तलाक की बहस को राजनीतिक कीचड़-उछाल से निकालकर स्पष्ट तौर पर लैंगिक समानता के क्षेत्र में लाने की है। मुस्लिम महिलाओं को पर्सनल लॉ की प्रथाओं से स्वतंत्र होने की जरूरत है, जो मूल रूप से मनमानी और असमान हैं। यह स्वतंत्रता उस संविधान से आनी चाहिए, जो समान नागरिकता को प्राथमिकता देता है कि उस राजनीतिक आदेश से मिलनी चाहिए, जिसने फूट डालकर राज करने के लिए ही धार्मिक मुद्दों का इस्तेमाल किया है।
पुनश्च: सोशल मीडिया पर बहुत सारे लोग तीन तलाक को लेकर प्रमुख भारतीय मुस्लिमों की चुप्पी पर सवाल उठा रहे हैं। हां, उन्हें खुलकर बोलना चाहिए लेकिन, क्या मैं पूछ सकता हूं : जब खूनखराबे पर उतारू गोरक्षकों के गिरोह धर्म के नाम पर धमका रहे थे, हत्या कर रहे थे तो कितने ‘अग्रणी’ हिंदुओं ने विरोध किया था। मौन रहने का ‘अपराध’ एकतरफा नहीं हो सकता।
▲▲लाइक कीजिये अपडेट रहिये
(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
'तीन तलाक का कड़ा विरोध करे कांग्रेस'
bhaskar.com से साभार
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'तीन तलाक का कड़ा विरोध करे कांग्रेस'
bhaskar.com से साभार
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