कवितायेँ
श्री श्री की कविताओं को आपने 'शब्दांकन' में पहले भी सराहा है. पेश हैं उनकी कुछ नयी और नए-रंग की कवितायेँ...श्री श्री जन्म - 26 नवम्बर, हिंदी और विश्व साहित्य के पठन में गहरी रूचि, श्री श्री को विश्व सिनेमा में भी गहरी रुचि है, जिसे आलेख, टिप्पणी आदि के रूप में निजी डायरी की तरह वे दर्ज करती रहती हैं, इसका असर उनकी कविताओं में भी उनकी ' दृश्यात्मकता' को अलग से उल्लेखित कर किया जा सकता है। लेखिका को हरियाणा साहित्य अकादमी का युवा लेखन पुरस्कार मिल चुका है, कविता, कहानियां, आलेख आदि देश की महत्वपूर्ण पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं।
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एक
हाँ, होता है एक सलीका भी भूलने-भुलाने का
कि कोई चश्मदीद गवाह न पढ़ ले
मन की उलझी गुत्थियाँ।
कोई पशु न सूंघ ले
गलती हुई ग्लानि।
कोई पंछी न चुरा ले मन के गीत।
याद रहे, उन रास्तों पर से
फिर गुज़रना होगा तुम्हें।
उस आखिरी मुलाक़ात में आई करुणा को
किसी पौधे के साथ गाड़ कर
उससे वही झूठ कहना
जिससे प्रेम की तरावट मिलती रहे उसे।
और वो फलता-फूलता रहे।
तब तुम भूलने के मौसम की प्रतीक्षा करना
प्रतीक्षा करना उस इंद्रधनुष की
जिसका ज़िस्म बना हो उस तपिश का
जिससे बच्चे जन्में जाते हैं।
फिर तुम अचानक ऐलान भर देना माहौल में
कि तुम्हें चीटियां काटती हैं
पैरों की उंगलियों की दरारों के बीच।
दीवारें गिरने के भरम में तुम सो नहीं पाते
एक कामयाब रति-क्रीड़ा के बाद भी।
और कहना
कि मृत मवेशी की दुर्घन्ध
तुम्हें माँ की छातियों की गंध देती है।
और जैसे ही तुम ये कह कर
चौखट पार करोगे अपनी।
'आर वी एन एक्सीडेंट ऑन द अर्थ' की थ्योरी
तुम पर लागू हो जायेगी।
क्या अब तुम तैयार हो
दुनिया के सबसे बड़े व्यंग्य के लिए?
दो
मुझे वह कभी नही होना था
जो मेरे अस्तित्व पर धूल जमाये हुए है।
मेरे हरे-भरे खेत
बचपन में ही उजाड़ दिए गए थे।
मेरे हाथों में स्थापित कर दिया गया था
परम ईश्वर।
जिसकी वंदना में
मेरा पूरा यौवन छलनी होता रहा।
कितना वीभत्स तरीका है यह
इतिहास दोहराते रहने का।
और जीवन भर
एक ऐसी अप्रतिम सुनहरी मछली बने रहना
जिसका अंत तेज़ धार वाले चाकू से
उसकी कटी पूंछ और सर से निकलते
लहू से लथपथ हो।
तीन
मेरी भाषा के घुमावदार अव्यवों में
वो सब आरोपित रातें हैं
जिसकी पहेली को सुलझाने की
तुम्हारी तमाम कोशिशें
लगातार बुखार बन कर मेरी देह पर
केसरी धागे छोड़ जाती थी।
एक नस
ठीक उसी जगह बेचैन हो जाती है
जहाँ प्रतिक्षाओं ने किसी प्रसंग में
खुद को ढीला छोड़ दिया था।
मेरा गुनगुनाना इतना टूटा सा था
कि इस अंतराल में तुम चुन लेते थे
दो-चार रेशे बुखार के।
मुझे पीठ के बल लेटे हुए
खिड़की पर टंगे
विन्डचाइम की हँसी की धीमी ध्वनि को सुनना
ऐसा लगता था
जैसे कोई बताशा घुलता है मुँह में।
और तुम्हें पसंद था
मेरी पीठ को तकिया बना कर
आसमान में उगे सितारों जितनी
ढेरों दवाइयों को खाने की मुझे हिदायत देना।
मैं कहाँ सुन पाती थी कुछ?
जब तुम पास होते
महीने में एक बार मिलने वाली
पैंपरिंग वाले दिन में।
मुझे पसंद था
गर्म भाप से भरे बाथरूम में
उसी साबुन से नहाना
जिससे तुम नहाते थे।
और तुम कहते
यह भाप ठीक नही तुम्हारे दिल के छेद के लिए।
मैं खाना चाहती थी
वाइन और काजू के पेस्ट में मेरिनेटेड
भूनी मछलियाँ।
पर तुम बारबीक्यू पर भूनते थे
हरी,पीली और लाल सब्जियाँ।
मुश्किल होता है सब समेटना
देह के हर कोने से स्मृतियों के जाले हटाना
तौलिये से एक ख़ास सुगंध को बाहर निकालना
ग्रीन टी की चुस्कियों में किसी के भरे साथ को दूर करना।
दिल का छेद तो भरा नही अब तक
हाँ,गुनगुनाना अब बिखरता नही।
संभाल लेती हूँ उसे ठीक टूटने से पहले।
जैसे गिरते हुए को कोई खींच लेता है
पीछे से कमीज पकड़कर।
चार
मेरी त्वचा के भीतर
एक रोग कुलबुलाता है
यह शायद मेरे पूर्वजों का मित्र रहा होगा।
मेरी दयनीय बंधुता
मेरे समय से पूर्व चली आ रही
एक आकारविहीन मृत कोशिका है।
मैं पीड़ित हूँ
अपने दुश्चरित्र स्वप्नों से।
मेरे पुराने मकान तक आने वाली सड़क
शताब्दियों से अभिशप्त है।
बिखरी पड़ी है
मेरे निर्बाध हृदय की कामना यहाँ-वहाँ।
जितना वो सिमटती है
उतना ही गला जाती है उसे गर्म बारिश।
मेरी दृष्टि धूमिल,सद्भावना से रिक्त
पश्चाताप की भूमि पर
विक्षिप्त सत्य को ढोए है।
मेरी कमर लगातार झुकती जा रही है
और मेरे पूर्वाभास
किसी नदी सरीखे बहते हैं मुझमें।
एक त्रस्त नींद का स्वप्न हूँ मैं...
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2 टिप्पणियाँ
अंतस की चुभन ...गुनगुनी धूप बन बिखरती हुई रगों में ...बेहतरीन कविताएं।।।।
जवाब देंहटाएंजीवन के गूढ़ रहस्यों को एवं उनमें निहित दर्शन को इतनी सहजता से व्यक्त करती है आप जैसे बाथरूम में गाना गा रहे हो।
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