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जेएनयू सामाजिक समन्वय का किला — दीपक भास्कर #JNU


JNU samajik samanvay ka kila Deepak Bhaskar

JNU samajik samanvay ka kila

Deepak Bhaskar 

बीते समय जेएनयू ख़बरों में छाया रहा, हम सभी इस बात से वाक़िफ हैं, जिन कारणों से रहा उनसे भी, इसी दौरान अख़बारों से लेकर टीवी तक हम बहुत सी बहसों से भी वाकिफ़ हुए। ऐसे समय में दीपक भास्कर का यह लेख जेएनयू की एक बहुत ही संतुलित तस्वीर को पेश करता है। वे किसी भी नतीजे पर बेबुनियाद नहीं पहुंच रहे, जहां दीपक विश्वविद्यालय की उपलब्धियां गिनवाते हैं, तो उसके तमाम स्पष्ट कारणों को भी सामने रखते हैं। चूंकि वे खुद इस विश्वविद्यालय से आते हैं मात्र इसलिए वे अपनी हर बात को न्यायसंगत करार देते नज़र नहीं आते, बल्कि दीपक वे तमाम जानकारियां सामने रख रहे हैं जिनपर जेएनयू के बारे में कोई भी राय बनाने से पहले ग़ौर करना बेहद अहम है। खासकर जेएनयू की लड़कियों को लेकर बनने वाली राय के बारे में जिस तरह दीपक बात करते हैं, वे साबित करती हैं कि हक की बराबरी की बात करने वाली लड़कियों को समाज किस नज़रिये से देखता है, और दीपक उसी नज़रिये पर बड़ी ही शानदार तरीके से चोट करते नज़र आ रहे हैं। 

दीपक भास्कर, जेएनयू के अंतरराष्ट्रीय अध्ययन संस्थान में पीएचडी स्कॉलर हैं और दिल्ली विश्वविद्यालय के ‘दौलत राम कॉलेज’ में राजनीति विज्ञान विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर है. इनके लेख विभिन्न विषयों पर विभिन्न स्थानों पर प्रकाशित होते रहते हैं. इन्होने 'सबलोग' के लिए रंगभेद, जासमीन क्रांति, असहिष्णुता पर लिखा, यूथ की आवाज में रूबी राय टोपर स्कैम, युवाओं की आत्महत्या, बाढ़ की समस्या और राज्य की संकल्पना पर लेख प्रकाशित हुए हैं. फॉरवर्ड प्रेस में इनके ‘मैं दलित हूँ आपकी गाय नहीं’ हजारों लोगों ने पसंद किया. इनका विशेष रुचि सामाजिक मुद्दों के राजनैतिक पक्ष को समझने में है. 

जेएनयू से शब्दांकन स्तंभकार आशिमा  blossomashima@gmail.com



जेएनयू सामाजिक समन्वय का किला

दीपक भास्कर


जेएनयू के छात्रसंघ चुनाव को मॉडल मान कर ही जे.एम. लिंग्दोह ने अपने रिकमनडेशन दिए थे
जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय भारत का वह विश्वविद्यालय है जो अपने छोटे-बड़े, अच्छे-बुरे किसी भी समाचार के लिए देश का ध्यान आकर्षित करता रहा है। समाज का हर तबका मजदूर, किसान, आदिवासी, दलित से लेकर मध्यम एवं उच्च वर्ग भी इस विश्वविद्यालय में रुचि रखते हैं। इस बात में तो कोई दो राय नहीं कि इस विश्वविद्यालय पर हर किसी की नजर इसे देश के तमाम शिक्षण संस्थानों से अलग बना देती है। जेएनयू में होने वाली तमाम घटनाएं देश के राष्ट्रीय, अखबारों के मुख्य पृष्ठ पर झलकती हैं, यह काफी है साबित करने के लिए कि जेएनयू ने राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर एक अलग पहचान बनायी है। यह पहचान एक प्रगतिशील सामाजिक सोच समझ को संजोने की वजह से है। एक समाज जो हमारी कल्पना में है, ऐसा समाज या देश जिसमें हम अपने आने वाली संततियों को देखना चाहते हैं, जेएनयू को बनाने के उद्देश्य को इस विश्वविद्यालय ने जीने और जमीन पर उतारने का काम किया है। वह सोच कि जेएनयू मानवता के लिए खड़ा रहेगा, तर्कशक्ति को अपनायेगा, समाज में वैज्ञानिक सोच पैदा करेगा और अंधविश्वासों की जड़ें खोदेगा। वह सोच जिसमें भारत का हरेक वर्ग दिखेगा और एक समतामूलक समाज का निर्माण करेगा। पिछले चार दशक से जेएनयू इसी सोच के साथ आगे बढ़ रहा है।

यहां विरासत में मिली रेडीमेड राजनीति के बजाय संघर्ष से निकली राजनीति लीड करती है। यह किसी घराने में पैदा होने से योग्यता की प्रमाणिकता पर गहरी चोट है। जेएनयू की छात्र राजनीति भारतीय राजनीति के इस चरित्र को सिरे से खारिज करती है। यहां छात्रसंघ का चुनाव एक मिसाल की तरह है, जहां देश के अन्य संस्थानों में छात्रसंघ का चुनाव प्रशासन एवं छात्रों के लिए टेढ़ी खीर जैसा होता है वहां जेएनयू छात्रसंघ का चुनाव प्रशासन द्वारा नहीं बल्कि छात्र समुदाय द्वारा निर्वाचित छात्रों की संस्था द्वारा करवाया जाता है, जिसका निर्णय सर्वमान्य है, चुनाव के खर्चे इतने कम होते हैं कि उम्मीदवार निर्धारित खर्च (5000 हजार रूपये) की सीमा को पार नहीं कर पाते। यह भी एक आश्चर्यजनक बात है कि पिछले चार दशक से जेएनयू का छात्रसंघ चुनाव बिना किसी झगड़े या मारपीट के होता आ रहा है, जबकि दूसरे संस्थानों में ये बड़ी आम सी बात होती है। हम सब ये जानते हैं कि जेएनयू के छात्रसंघ चुनाव को मॉडल मान कर ही जे.एम. लिंग्दोह ने अपने रिकमनडेशन दिए थे। बहरहाल हम सब के मन में है कि देश में हर संस्थान या देश का हर चुनाव ऐसा ही होना चाहिए, परन्तु यह आदर्श स्थिति है, तो क्या समाज में आदर्श नहीं चाहिए? वह कैसा समाज होगा जिसमें आदर्श ही नहीं हो? खैर जेएनयू चुनाव पर एक पूरी किताब लिखी जा सकती है और डॉ. आनंद पांडे जो कि राष्ट्रीय रक्षा अकादमी में कार्यरत हैं, ने लिखी भी है।


जेएनयू में पढ़ने वाली छात्राओं पर यह आम मान्यता है कि जेएनयू की छात्राएं बड़ी क्रांतिकारी होती हैं। जेएनयू ‘परिवार’ के सिद्धांत के खिलाफ होता है। अब भारतीय समाज में एक अच्छी लड़की की परिभाषा यह है कि वह पुरुष के हर अत्याचार को सहते हुए भी उसे परमेश्वर माने। इस परिभाषा को जेएनयू में पढ़ने वाली लड़कियां सिरे से खारिज करती हैं, वे बराबरी का हक, बेखौफ आजादी चाहती हैं, वे आजादी चाहती हैं बाप से भी और खाप से भी। अब इस वजह से आपका परिवार टूटता है तो इसमें जेएनयू का क्या दोष? मेरे कुछ दोस्त कहते हैं कि जेएनयू की लड़की से शादी नहीं करेंगे, क्योंकि उनकी शादी टिकेगी नहीं, अब अगर शादी का असली मतलब औरत को गुलाम बनाकर रखना है तो ऐसी शादी टिकनी भी नहीं चाहिए। जेएनयू में सेक्सुअल हरासमेंट को लेकर जीरो टोलरेन्स है, यह भी जानने योग्य है कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए विशाखा जजमेंट का संज्ञान लेते हुए जेएनयू में जीएसकैश जैसी संस्था बनी, ऐसा करने वाला जेएनयू भारत का पहला विश्वविद्यालय था, जीएसकैश के तहत चाहे आप वीसी हों या प्रोफेसर या आम छात्र या छात्राएं जेंडर इनजस्टिस की किसी भी गतिविधि में आप माफ नहीं किये जाते हैं। यह अपने आप में एक विशिष्ट संस्था है जिसमें छात्रों द्वारा निर्वाचित सदस्य होते हैं, इनका निर्णय प्रशासन पर बाध्य होता है। अब जहां देश में आम तौर पर दस में से चार ही बलात्कार जैसे जघन्य अपराध पुलिस की एफआईआर में दर्ज हो पाती है, वहां जेएनयू में किसी भी छोटी बड़ी घटनाओं पर सुओ मोटो एक्शन लेने तक का प्रावधान है। संस्थाएं देश में बहुत है लेकिन क्या देश ने हमारी लड़कियों और महिलाओं को इतना सशक्त बनाया है कि वो अपने खिलाफ हुए अत्याचार को लेकर पुलिस में रिपोर्ट कर सकें? अब ये तो सच है कि समाज में प्रताड़ित वर्ग जब प्रताड़ना के खिलाफ उठ खड़ा हो जाये तब समाज ‘टूटने’ लगता है। अब अगर आपको उच्च शिक्षा प्राप्त लड़की से शादी करनी है और वो आपको परमेश्वर भी माने तो आप जेएनयू की लड़की से शादी मत कीजिए। और भी कई बातें हैं उसके लिए आप डॉक्टर सोमा दास की किताब ‘व्हेन कुरता फाल इन लव विथ जीन्स’ पढ़ सकते हैं। फिर से यह स्थिति आदर्श ही है लेकिन क्या ये भी आदर्श नहीं चाहिए? क्या हमारी लड़कियां दहेज के खिलाफ ना लड़ें? क्या पितृसत्तात्मक समाज को चलने दें, क्या वो मैरिटल रैप के खिलाफ ना बोलें? क्या लड़के- लड़की आपस में एक दूसरे को प्यार ना करें, या उनके लिए ना लड़ें? जेएनयू दिल्ली में प्रेम करने की आजादी देता है, इसी कारण रोमांटिक फिल्मों के बादशाह शाहरुख खान भी जेएनयू के कायल हैं। यह सामाजिक समन्वय की खातिर लड़ाई ही तो है, क्या मर्द और औरत से इन्सान बनने की प्रक्रिया सामाजिक समन्वय नहीं है? इस प्रश्न पर आप ही विचार कीजिए।




क्वरटाईल सिस्टम के तहत जिलावार डेप्रिवेशन पॉइंट देकर दूर-दराज को मुख्य धारा में जोड़ने का प्रयास
जेएनयू सिर्फ शिक्षण संस्थान नहीं बल्कि शिक्षा के बाजारीकरण के खिलाफ शिक्षा का समाजीकरण भी है। यहां आज भी देश के कोने-कोने से समाज के हर छोटे बड़े वर्ग से छात्र-छात्राएं आते हैं। विश्वविद्यालय अपनी प्रवेश परीक्षा का केन्द्र राज्यों के हर छोटे बड़े शहर में रखता है ताकि इन जगहों के छात्र-छात्राओं को उच्च शिक्षा के लिए प्रेरित किया जा सके। क्वरटाईल सिस्टम के तहत जिलावार डेप्रिवेशन पॉइंट देकर दूर-दराज को मुख्य धारा में जोड़ने का प्रयास भी है। छात्राओं को अलग से अंक दिए जाते हैं। जेएनयू प्रवेश परीक्षा की तैयारी के लिए कई राज्यों में प्राइवेट कोचिंग द्वारा मोटी कमाई की जाती है, लेकिन वहीं पर जेएनयू छात्र संगठन यहीं के छात्रों के सहयोग से निशुल्क तैयारी करवाता है। अब कोई यही मान कर बैठा हो कि देश में वंचित लोग ही नहीं हैं तो कोई क्या करे? कालाहांडी, कोरापुत, बोलांगीर, अररिया जैसे तमाम जिले सरकार की नजर में देश की मुख्यधारा से हजारों साल पीछे हैं। अब जेएनयू वहां के छात्रों को पढ़ने का मौका देकर सरकार या समाज का ही तो काम कर रही है। यहां के किसी भी कोर्स की फीस 250 रूपये से ज्यादा नहीं है । यहाँ हरेक छात्र को कम से कम 3000 रूपये की छात्रवृति मिलती है, मतलब शिक्षा मुफ्त में। यह तो किसी के भी आँख में चुभेगा। देश के सत्ता वर्ग को तो छोड़िये यह तो अमेरिका और डब्ल्यूटीओ को भी चुभता है। गरीबों के बच्चे भी दिल्ली के पॉश इलाके में लगभग मुफ्त शिक्षा का लाभ ले रहे हैं, यह सही नहीं है? अब कुछ लोग कहते हैं कि यह मेरिट की उपेक्षा है, तो आपको बता दूँ जेएनयू हर इन्सान में मेरिट देखता है। यह अलग बात है कि हमारे समाज में किसानों का हल चलाना, आदिवासियों का तीर चलाना, केवटों का नाव चलाना, ग्वाला का दूध दुहना मेरिट की श्रेणी में नहीं आता, यह आप पर निर्भर करता है कि आप मेरिट को कैसे देखते हैं ? जेएनयू सभी को शिक्षित करने की जुगत में है। किसी के अंगूठे काटने, कान में पिघले सीसे डालने की खिलाफत करता है। यहाँ कोई मेडल की प्रथा नहीं है कोई टॉपर का भ्रम नहीं। कोई ज्यादा या कम नहीं, बस सब बराबर। समाज का वंचित वर्ग शिक्षा पाकर देश की विशिष्ट सेवाओं में अपनी जगह बना रहा है, यह तो सबकी नींद उडाएगा ही। लेकिन कुछ लोग कहते हैं कि जेएनयू से बड़े समाजशास्त्री, राजनीतिक-शास्त्री, अर्थशास्त्री, वैज्ञानिक इत्यादि नहीं निकले हैं। अब इस पर भी बहस है कि क्या हम औपनिवेशिक मानसिकता से बाहर  निकले हैं? या फिर हम तुलना किससे कर रहे हैं? क्या हम अपने देश में जमीनी काम करने वालों को खुद से जानते हैं? क्या हम कैलाश सत्यार्थी को जानते थे? खैर दुनिया में जेएनयू की पहचान है तभी तो प्रो. प्रभात पठनायक संयुक्त राष्ट्र की समिति में एशियाई प्रतिनिधि होते हैं।  जेएनयू के प्रोफेसर समाज के उन तबकों पर अध्ययन करवाते हैं जिन्हें यह समाज अपने ढंग से प्रताड़ित करता रहा है। अब ऐसे अध्ययन को भला कौन पूछता है? मैं नाम नहीं गिनाना चाहता लेकिन फिर भी रोमिला थापर, विपिन चंद्रा, गोपाल गुरु, सुखदेव थोराट, सीपी भांवरी, अभिजीत पाठक, जयति घोष, अरुण कुमार, वी.एस.चिमनी, नामवर सिंह, नीरजा जयाल, एस.डी. मुनि, वरुण साहनी और ऐसे सैकड़ों नाम हैं जो देश की शिक्षण व्यवस्था को नयी दिशा दे रहे हैं। अब सवाल आता है कि विश्व के विश्वविद्यालयों की रैंकिंग में जेएनयू कहीं नहीं है। हां, इसके लिए आप डॉ. अजय गुदावर्ती की सेमिनल आर्टिकल ‘जेएनयू ऑरेंज वर्सेस हॉवर्ड एप्पल’ पढ़ सकते हैं, यह प्रश्न विचारणीय है कि क्या विश्वविद्यालय का माद्दा रैंकिंग होगा या सामजिक समन्वय? चूँकि मैं यह मानता हूँ कि जैसा विश्वविद्यालय होता है वैसा ही देश होता है, अब यहां के छात्र सिर्फ पढ़ते या पढ़ाते नहीं हैं बल्कि समाज की जड़ तक फैले दकियानूसी विचार, धार्मिक अंधापन अथवा अन्धविश्वास के खिलाफ एक समझ रखते हैं और लड़ते भी हैं। यहां के प्रोफेसर एस.एन. मालाकार, एके. रामाकृष्णन जैसे कई लोग देश और समाज में वैज्ञानिक सोच पैदा करने पर बल देते हैं, अब यह किसी के खिलाफ कैसे हो सकता है? यह तो देश और समाज के हित में ही है। अब हमें यह तय करना है कि समाज वैज्ञानिक सोच पर चलेगा या अन्धविश्वास पर? जेएनयू शिक्षा और स्वास्थ्य को ‘मेरिट गुड्स’ की तरह मानता है इसलिए इसके निजीकरण और बाजारीकरण का पुरजोर विरोध भी करता है। निजीकरण की इस होड़ को जेएनयू के छात्र नव-औपनिवेशिकता मानते हैं। भारत का संविधान अवसर की समानता की बात करता है। जब शिक्षा ही प्रजातांत्रिक नहीं होगी तो अवसर की उपलब्धता भी क्या समानता ला पायेगी? इस बात में तो सहमति है कि आईआईटी के इन्जीनियर, एम्स के डॉक्टर या जेएनयू के प्रोफेसर और भी तमाम सार्वजनिक संस्थाओं के लोग देश-विदेश में अपना परचम लहरा रहे हैं। एम्स में भीड़ की समस्या है, सफाई शायद आपको पसंद ना हो फिर भी आप घंटों लाइन में लग कर भी सलाह लेना चाहते हैं। आईआईटी और आईआईएम में आपके बच्चे पढ़े ये तो आप चाहते ही हैं, फिर ये तो कोई निजी संस्था नहीं है? जेएनयू इसी बात को जोरदार तरीके से रखता है। यह विश्वविद्यालय सबकी सामान शिक्षा की वकालत करता है। शिक्षा ही से तो समाज में दरारें मिटेंगी।

जेएनयू में छात्र संगठन या व्यक्तिगत छात्र भी देश-दुनिया के तमाम मुद्दों को पर्चों के द्वारा छात्रों तक पहुंचाते हैं। हर रात्रि भोजन के बाद देश-दुनिया के विद्वानों, सामाजिक लड़ाई लड़ने वालों को लेकर छात्रावासों के मेस में व्याख्यान होता है। खाने से लेकर गंगा ढाबे की चाय, क्लासरूम से लेकर सेमिनार तक यहां के छात्र, प्रोफेसर, कर्मचारी विभिन्न मुद्दों पर चर्चा अथवा विश्लेषण करते रहते हैं, तो क्या यह भी गलत है? अगर विश्वविद्यालयों में देश-विदेश के मुद्दों पर बहस ना हो तो फिर वह ‘विश्व-विद्यालय’ क्यों है ?

जेएनयू एक आवासीय परिसर है और यहां कई हजार लोग रहते हैं, जिनकी अपनी समस्याएं भी हैं, पर सिर्फ अच्छी बातें ही होंगी जरुरी नहीं लेकिन इतनी आजादी है कि आप अपनी समस्याएं खुल कर रख सकते हैं। जेएनयू में चोर को सजा देने के बजाय चोरी पर चर्चा की जाती है, सही तो है सजा से समाधान कहां? समाधान तो कारण ढूंढने में है। बुद्ध ने भी तो कहा है कि समस्याओं का समाधान मत ढूंढो, कारण ढूंढो। जेएनयू सामाजिक ताने-बाने को टूटने नहीं देना चाहता इसे जोड़े रखने की शिक्षा देता है। जेएनयू झूठी राष्ट्रवादिता और झूठी धर्मनिरपेक्षता या इस तरह की किसी भी छद्मवाद को खारिज करता है। जेएनयू के छात्रों का संघर्ष उनका अपना नहीं बल्कि वर्गरहित और भेदभाव रहित समाज के निर्माण के लिए है। वस्तुतः यह पूरी मानवता का स्वप्न है। जेएनयू आपको सृजनात्मक आलोचना की जगह देता है जिससे समाज में फूट नहीं, विस्मय नहीं बल्कि सामजिक एकता का जन्म होता है। यह बहुत कम है, लेकिन इस बात में कोई शक नहीं कि जेएनयू समन्वय का किला है।


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