हमारी सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि हम औसतपन को सराहते हैं — शेखर गुप्ता


भारत दुनिया की बड़ी सूचना प्रौद्योगिकी शक्ति होने का दावा करता है जबकि उसके पास किसी बड़े सॉफ्टवेयर का पेटेंट नहीं है। आउटसोर्सिंग के अलावा उसके पास कोई ब्रांड नहीं है — शेखर गुप्ता

Shekhar Gupta — Such is our collective love of mediocrity and alibis for it that we believe the English designed an expression just for our needs. It is the familiar in spite of.

ओलिंपिक के बहाने बहानों के फसाने

— शेखर गुप्ता




औसत होने और बहानों को लेकर हमारा सामूहिक प्रेम इतना गहन है कि लगता है मानो अंग्रेजी भाषा में 'के बावजूद / in spite of’ शब्द हमारी जरूरतों के लिए ही गढ़ा गया है। बीते कुछ सप्ताह के दौरान यानी रियो ओलिंपिक खेलों के दौरान इस शब्द का खूब प्रयोग देखने को मिला। हमें एक रजत और एक कांस्य पदक मिला। जिमनास्टिक जैसे खेल में अपेक्षा के उलट हम चौथे स्थान पर रहे और 32 साल के अंतराल के बाद किसी ट्रैक ऐंड फील्ड प्रतियोगिता में क्वालिफाई कर सके। इसके अलावा हम कुछ हासिल नहीं कर सके। पुरुषों की मैराथन में जरूर सेना के दो जवानों ने 25वें और 26वें स्थान पर रहते हुए अपना सर्वश्रेष्ठ समय निकाला। 

परंतु सबका ध्यान उस प्रतियोगी पर रहा जो महिलाओं की मैराथन में 89वें स्थान पर रही। इस खिलाड़ी ने आरोप लगाया कि उसे मैराथन के दौरान पीने का पानी तक नहीं मिला और वह लगभग मरते-मरते बची। यह कहानी भरोसेमंद थी जिसमें तथ्यों की जांच की कोई आवश्यकता महसूस नहीं की गई। तमाम अन्य विफलताओं के लिए भी ऐसी ही दलील पेश की गईं। कहा गया कि हमारे निशानेबाजों को हथियार आयात नहीं करने दिए गए तो भी वे उतनी आगे तक गए। पहलवानों को वातानुकूलित सुविधाएं नहीं मिलीं फिर भी वे लड़े। प्रोदुनोवा वॉल्ट से हमारा परिचय कराने वाली और अब चर्चित सितारा बन चुकी जिमनास्ट का प्रदर्शन अवश्य कौतुक भरा रहा क्योंकि उसने एक ऐसे खेल में शानदार प्रदर्शन किया जिसके लिए कोई सुविधा नहीं है। इसके बावजूद वह कहती रही कि बुनियादी ढांचे या सुविधाओं की कोई कमी नहीं।

बीते दिनों खेल हमारे सामान्य प्रेम का प्रतीक बन गए। हमेशा ध्यानाकर्षण की तलाश में रहने वाले ब्रिटिश टेबलॉयड पत्रकार पियर्स मॉर्गन ने हमारा मजाक उड़ाते हुए कहा कि हम 'बमुश्किल दो हारे हुए पदक’ जीतकर इतने खुश हो रहे हैं। हमने हरसंभव तरीके से उनकी बातों का प्रतिकार किया। आश्चर्य नहीं अगर पता चले कि लोगों ने उनसे जलियांवाला बाग या रॉबर्ट क्लाइव के मुकदमे तक का उल्लेख कर दिया हो। लेकिन सबसे अहम प्रश्न उठाया मेरे एक युवा खेलप्रेमी सहयोगी ने। उन्होंने कहा, 'बमुश्किल दो हारे हुए पदक से क्या तात्पर्य है?’ बात ठीक थी क्योंकि पदक कोई भी हो वह जीता जाता है। परंतु तथ्य यह भी है कि कांस्य पदक या रजत पदक आपको मुकाबला हारने पर ही मिलते हैं। बहरहाल, हम दो पदक जीतने में कामयाब रहे, वह भी मौजूदा व्यवस्था के बावजूद। जो इकलौता शख्स मुझे समझदारी से बात करता नजर आया वह थे पी वी सिंधु के कोच गोपीचंद। अपनी उपलब्धियों के जश्न के बीच उन्होंने एनडीटीवी से कहा कि वह इस बात से निराश हुए कि स्वर्णपदक जीतने का मौका हाथ से निकल गया। गोपी चैंपियन खिलाड़ी रहे हैं और औसत लोगों की इस भीड़ में वह लगातार चैंपियन तैयार कर रहे हैं। एक और खेल की बात करते हैं जिसमें हम अक्सर विश्वस्तरीय प्रदर्शन करते हैं। यह मामला क्रिकेट के विकेटकीपर पार्थिव पटेल से जुड़ा है जिन्होंने वर्ष 2004 में सिडनी टेस्ट मैच के आखिरी दिन कई अवसर गंवाए थे। इसकी बदौलत स्टीव वॉ और ऑस्ट्रेलिया के पुछल्ले बल्लेबाजों ने वॉ का विदाई टेस्ट बचा लिया था। भारत के लिए ऑस्ट्रेलिया को उसके देश में हराने का वह सुनहरा मौका था जो गंवा दिया गया। जब मैं अपने समाचार कक्ष में इस पर बात कर रहा था तो मेरे एक अत्यंत समझदार सहयोगी ने कहा कि 18 साल के नौजवान के लिहाज से वह प्रदर्शन बुरा नहीं था। दलील तो यह भी हो सकती थी कि भले ही वह 16 साल का हो लेकिन वह वयस्कों की टीम में खेल रहा है तो उसके खेल का स्तर वैसा ही होना चाहिए। खैर, इस घटना के शीघ्र बाद टीम में महेंद्र सिंह धोनी का आविर्भाव हुआ। हमारी सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि हम औसतपन को सराहते हैं। फिर चाहे बात अकादमिक जगत की हो, प्रशासन की, विज्ञान की, कारोबार की और यहां तक कि सेना की भी। हर जगह कोई न कोई बहाना तैयार रहता है। हम अकादमिक श्रेष्ठता का आकलन एक प्रमुख परीक्षा में  शीर्ष पर रहने से करते हैं। इसके बाद एक ऐसे संस्थान में प्रवेश जहां से बढिय़ा रोजगार मिले। अगर यह तरीका कारगर नहीं रहा (हाल में कुछ स्टार्टअप के साथ हुआ, वे कर्मचारियों को रोजगार नहीं दे सके और आईआईटी बंबई ने उनको काली सूची में डाल दिया)। शेष भारतीयों को उनके समकक्ष आने के लिए क्या करना चाहिए। देश की सर्वश्रेष्ठ शिक्षा हासिल करने के बावजूद उनमें से कई अपना बाकी का जीवन वीपी (साबुन और शैंपू) या जीएम (जूस और कैचप) जैसी कंपनियों के साथ बिता देते हैं। इस क्षेत्र में पतंजलि के उद्भव तक वे खासे आत्मतुष्ट नजर आते हैं। आजादी के पहले की पीढ़ी से लेकर आज तक हमारे पास एक विश्वस्तरीय वैज्ञानिक, कोई उत्कृष्ट शोध, वैश्विक पेटेंट या आविष्कार वाला कोई स्तरीय तकनीकविद तक नहीं है। भारत दुनिया की बड़ी सूचना प्रौद्योगिकी शक्ति होने का दावा करता है जबकि उसके पास किसी बड़े सॉफ्टवेयर का पेटेंट नहीं है। आउटसोर्सिंग के अलावा उसके पास कोई ब्रांड नहीं है। यह दुनिया का सबसे तेज विकसित होता दूरसंचार बाजार है लेकिन इसके लाखों डिग्री धारी इंजीनियर जिनमें हजारों आईआईटी स्नातक शामिल हैं, ने आज तक एक मोबाइल फोन तक न बनाया, न डिजाइन किया, न उसका पेटेंट हासिल कर सके हैं। चीन और कोरिया के युवा आए दिन ऐसा करते रहते हैं। डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम राष्ट्रीय वैज्ञानिक नायक हैं जबकि उन्होंने सन 1960 के दशक की मिसाइलों का अध्ययन कर मिसाइल तैयार कीं। यह भारतीय सुरक्षा के लिहाज से अहम था लेकिन विज्ञान की दृष्टि से? इसरो अभी भी पीएसएलवी के साथ काम कर रहा है जबकि दुनिया काफी आगे निकल चुकी है। हालांकि उसने यह सब पश्चिम से तकनीक न मिलने और प्रतिबंध लगाने के बावजूद किया है। लेकिन चीन ने भी तो ऐसा ही किया है।




पिछले दिनों प्रति मेडल, प्रति व्यक्ति संपदा को लेकर बहस चली और भारत इस सूची में सबसे निचले पायदान पर रहा। अगर आप पेटेंट को लेकर ऐसा अध्ययन करें तो इतने अधिक इंजीनियर, विज्ञान स्नातक और पीएचडी धारक होने के बावजूद हम नीचे ही नजर आएंगे। लेकिन तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद उन्होंने डिग्री हासिल की। यह बात हमें पीजे रोरुके की भारत यात्रा डायरी के एक हिस्से की याद दिलाती है। उन्होंने कोलकाता के अखबार द टेलीग्राफ में पहले पन्ने पर खबर देखी कि भारत में दुनिया के सबसे ज्यादा विज्ञान स्नातक हैं। उसके बाद वह डाक खाने गए जहां उन्हें ऐसे लोग दिखे जो अनपढ़ों के लिए खत लिखकर पैसे कमाते थे। पीजे पूछते हैं कि दुनिया के सर्वाधिक विज्ञान स्नातकों वाले मुल्क में लोग दूसरों के खत लिखकर जीविकोपार्जन कैसे कर रहे हैं? शायद इसका जवाब यही होगा कि इतने निरक्षर होने के बावजूद देश में इतने विज्ञान स्नातक हैं।

आप अपने उदाहरण भी तलाश कर सकते हैं। मेरे लिए सबसे चकित करने वाली घटना यह थी कि करगिल युद्घ चल रहा था और गोलाबारूद की कमी की बात भी साथ साथ चल रही थी। तत्कालीन सेना प्रमुख वी पी मलिक ने हमें यह कहकर आश्वस्त किया था कि हमारे पास जो कुछ है हम उसी से लड़ेंगे। हम लड़े और जीते भी लेकिन क्या ऐसी स्थिति बननी चाहिए? कमी हमेशा रहती है लेकिन यह समझाना कठिन है कि सन 1965 की कठिन परिस्थितियों के बाद आज भी भारतीय सेना पाकिस्तान से कमतर हथियार सक्षम है। लेकिन यह 'के बावजूद’ जीत का उत्साह तो बढ़ा ही देता है।

खेलों की बात करें तो हमारे सात सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करने वाले खिलाडिय़ों ने अपने निजी सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन में सुधार किया। बैडमिंटन में दुनिया की 10वें नंबर की खिलाड़ी ने नंबर दो खिलाड़ी को हराया और फाइनल में दुनिया की नंबर एक खिलाड़ी से कड़े मुकाबले में हारी। एक गुमनाम सी महिला पहलवान ने आखिरी 8 सेकंड में 05 से पिछडऩे के बावजूद जीत हासिल की। जिमनास्टिक्स में 8वें क्रम के साथ क्वालिफाई करने वाली खिलाड़ी चौथे स्थान पर रही। इन सभी ने एक बड़े मंच पर अपने खेल का स्तर ऊंचा उठाया। उनमें से किसी ने शिकायत नहीं की। यहां तक कि जिमनास्ट ने तो फीजियो न होने की भी शिकायत नहीं की। मेरे खयाल से उन्हें यही लग रहा होगा कि काश और अच्छा कर पाते।
साभार बिज़नस स्टैंडर्ड 
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