- Bharat Tiwari
रज़ा फाउंडेशन की कार्यक्रम श्रृंखला ‘आर्ट मैटर्स’ में २० सितम्बर की शाम को इण्डिया इंटरनेशनल सेण्टर का हाल पूरी तरह भरा हुआ था, लोग खड़े रह के तक़रीबन एक घंटे चली चर्चा को सुनते रहे. और ऐसा क्यों न होता जब चर्चा का विषय ‘Beauty in Contemporary Art’ यानी ‘समकालीन कला में सौंदर्य’ हो और चर्चा करने वाले भारतीय उपमहाद्वीप के दो उम्दा दिमाग – डॉ सलीमा हाशमी और कला समीक्षक सदानंद मेनन हों. बातचीत को दिशा दे रहे थे रज़ा फाउंडेशन प्रबंध न्यासी, कवि अशोक वाजपेयी. श्रोताओं में जावेद अख्तर भी मौजूद थे.
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Javed Akhtar — Photo (c) Bharat Tiwari |
चर्चा का विस्तार कला के उस आयाम को छू रहा था जहाँ कला अपनी पहचान के विपरीत व्यवहार कर रही होती है, जैसे छाया चित्रों में विभत्सता, हॉरर का तत्व या संगीत में मौन या वाद्ययंत्रों का चुप रहना. एक चित्र के ज़रिये सलीमा हाशमी ने इसे बखूबी समझाया – चित्र में खुले आसमान के बीच एक सुन्दर वृक्ष खड़ा था और उसी तस्वीर के ऊपर दायें कोने में एक दूसरा वह चित्र लगा था जिसमें समुद्र के किनारे डूबा मिला सीरिया शरणार्थी बच्चा था. दो विपरीत हालातों को दर्शाता यह चित्र पूरे हॉल को सन्नाटे से भर रहा था.
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Ashok Vajpeyi, Sadanand Menon and Salima Hashmi — Photo (c) Bharat Tiwari |
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Ashok Vajpeyi, Sadanand Menon and Salima Hashmi — Photo (c) Bharat Tiwari |
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Sadanand Menon — Photo (c) Bharat Tiwari |
चर्चा ख़त्म होने के बाद मैंने सलीमा जी से पूछा, “यदि वीभत्सता दर्शाती कला – जो मुझे एक अंधी गली लगती है – से लोगों को लगाव होने लगा, तब इस घातक लगाव से दूर कैसे हुआ जाए ?” उन्होंने जवाब दिया “इस सवाल से तो मैं भी परेशान हूँ”. यही सवाल जब मैंने सदानंद जी से किया तो उन्होंने कहा – “आज यही हो रहा है, हमारे हर तरफ ऐसा ही माहौल है. अख़बारों, टीवी मिडिया आदि हर जगह खून ही खून तो दिखाई देता है”.
2 टिप्पणियाँ
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जवाब देंहटाएंकरीब 4 साल बाद आज मैं इस इंटरव्यू के अंश को पढ़ रहा हूं, सवाल उस समय जितना जरूरी था, उतना ही आज भी जरूरी है। सोशल मीडिया इंटरनेट और मोबाइल फोन के गठजोड़ से जो क्रांति पनप रही है, वह कला को नया आयाम देने के लिए पर्याप्त है और आपका सवाल और भी सार्थक ही जाता है।
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