शेखर गुप्ता — दुनिया की 7वीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाले देश में जिसकी 1.3 अरब की आबादी में ज्यादातर गरीब हैं, यह शासन का समुद्री डकैती जैसा तरीका है। यह कामयाब हो सकता है। इससे कई असंगठित गतिविधियां संगठित हो सकती हैं और कर दायरा विस्तृत हो सकता है। पर पता नहीं क्या होगा। जैसे नियंत्रण रेखा पर किए गए नियंत्रित हमले को सार्वजनिक करने के नतीजों या रक्षा मंत्री के भारतीय परमाणु सिद्धांत पर निजी विचार प्रकट करने के परिणामों के बारे में किसी को नहीं पता। अगर आप इस सरकार के प्रशंसक हैं तो आप इसकी तुलना वीरेंद्र सहवाग से कर सकते हैं: बस गेंद को देखो और मारो। अगर आप सरकार के प्रशंसक नहीं हैं तो यह शहरी मिथकीय जीवन जीने वालों की शासन शैली का शास्त्रीय उदाहरण है। हमें अगले कुछ महीनों तक पता नहीं चलेगा कि नतीजा क्या निकला ।

राज-काज का कुछ अलग अंदाज
सारा धन वापस ले लो और जितना उचित समझो वापस कर दो, बाकी का सरकार के खाते में
शेखर गुप्ता
एक आम मनुष्य का मस्तिष्क दो हिस्सों में बंटा होता है। इनमें से प्रत्येक का काम अलग होता है। अगर यह किसी राजनेता का दिमाग हो तो उसे आसानी से राजनीति और शासन के रूप में बांटा जा सकता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मामले में यह कैसे काम करता है? खासतौर पर अगर उनके सबसे चौंकाने वाले नीतिगत कदम की बात करें तो। अब आप इसे विमुद्रीकरण कहें या मुद्रा विनिमय।
उनके दिमाग के राजनीतिक हिस्से को हम अच्छी तरह जानते हैं। वह कई दशकों में सबसे ज्यादा राजनीतिक नेता हैं। उनको जन भावनाओं की जबरदस्त समझ है बिलकुल एक नाड़ी वैद्य की तरह (आयुर्वेद के चिकित्सक जो नाड़ी से बीमारी का पता लगाते हैं)। हम सन 2002 से 2007 और फिर 2012 तक उनकी भाषा बदलते देख चुके हैं और 2014 में वह राष्ट्रीय मंच पर आए और उन्होंने अपने मतदाताओं के सबसे संवेदनशील और लाभकारी हिस्सों को छुआ। इस दृष्टि से देखा जाए तो वह इस दौर में भी बाजी मार ले गए हैं। कम से कम अब तक।
उनकी राजनीतिक (मतदाता संबंधी) सोच एकदम सीधी सपाट है: क्या आपको लगता है कि ढेर सारा काला धन मौजूद है या नहीं? जाहिर है उत्तर हां है। अगला प्रश्न: क्या इस खरबों की राशि को अर्थव्यवस्था में सही ढंग से लाए बिना देश वैश्विक शक्ति का दर्जा पा सकता है? उत्तर है न, अगला प्रश्न: क्या हमने कर बचाने में मदद करने वाले देशों से धन लाने की कोशिश नहीं की और क्या माफी योजना नहीं चलाई? इस पर उत्तर मिलाजुला हो सकता है। सरकार के समर्थक हां कहेंगे जबकि आलोचक इससे इनकार करेंगे। बड़ी संख्या अनिश्चित लोगों की भी होगी। ताजा प्रश्न बाकी सारे प्रश्नों पर से दबाव हटा देता है: अगर अन्य उपाय विफल हो गए हैं तो आखिरी विकल्प क्यों न आजमाया जाए? भले ही इससे जुड़े कई नुकसान सामने आ रहे हैं। मुझे पता है कि यह जोखिम भरा कड़ा फैसला है। लेकिन आपने मुझे इसीलिए तो चुना था। क्या आप मनमोहन सिंह को पसंद करते जो न तो बात करते थे न ही कोई कदम उठाते थे?
नरेंद्र मोदी इस बहस में बढ़त बना चुके हैं। अहम बात यह है कि उन्हें यह बढ़त गरीब तबके के उन लोगों के बल पर मिल रही है जो मानव इतिहास की इस सबसे बड़ी नोटबंदी से सबसे अधिक परेशान और पीड़ित हैं। उन्होंने कहा कि उन्हें महज 50 दिन का वक्त चाहिए और वह देश को शानदार जगह में बदल देंगे। यह बात सुनकर वे बहुसंख्यक लोग प्रेरित हो जाते हैं जिनके पास कोई कालाधन नहीं है। यह फिल्म चक दे इंडिया की याद दिलाता है जिसमें शाहरुख खान ने अपनी महिला हॉकी टीम को ‘70 मिनट’ का मशहूर भाषण दिया था। एक हॉकी कोच के उद्बोधन का प्रभाव जहां 70 मिनट में नजर आ जाएगा, वहीं एक राजनेता के पास अधिक वक्त होता है। मांगे गए 50 दिन खत्म होने के बाद शायद मौजूदा असुविधा खत्म होगी। इससे लाभ क्या होंगे यह जानने के लिए हमें कई महीनों तक इंतजार करना होगा। आप इस सरकार या इसकी आर्थिक टीम पर यह इल्जाम नहीं लगा सकते कि उसने परिणामों का अध्ययन नहीं किया होगा। आखिर ऐसे किसी काम के बारे में अनुमान कैसे लगाया जा सकता है जो मानव इतिहास में पहले कभी घटित ही नहीं हुआ हो, जिसका कोई पूर्व प्रमाण ही न हो। केवल पुराने अर्थशास्त्रियों की आलोचना सुनने को मिल रही है जो यथास्थितिवादी हैं। चाहे जो भी हो राजनीति में एक नया बिकाऊ उत्पाद, विचार, वादा या नारा तलाशना अहम है। कोई भी समझदार नेता ऐसा वादा नहीं करता जिसके बारे में वह खुद मानता हो कि उसे पूरा किया जा सकता है।
हम यहां एक पुराना और दो नए उदाहरण देखते हैं। सन 1969 में इंदिरा गांधी ने बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया, प्रिवीपर्स खत्म किए और यह धारणा पैदा की कि अमीरों को कष्ट हो रहा है। उन्होंने गरीबी हटाओ का नारा दिया। पूरा विपक्ष उनके खिलाफ एकजुट था। द इंडियन एक्सप्रेस के संपादक फ्रैंक मोरैस ने उस दौर में पहले पन्ने पर उनके खिलाफ एक स्तंभ लिखा, ‘मिथक एवं तथ्य’। लेकिन उन्हें चुनावों में जबरदस्त जीत मिली। उनके पोस्टर, बैनरों पर लिखा था: वे कहते हैं इंदिरा को हटाओ, इंदिराजी कहती हैं, गरीबी हटाओ। अब आप तय कीजिए। यकीनन इंदिरा गांधी के पास कोई ठोस योजना नहीं थी। शायद गरीबी हटाना उनके इरादे में भी शामिल नहीं था। उन्होंने एक बिकाऊ नारा तलाश किया था और उन्हें पता था कि इसके आधार पर उनका आकलन भी जल्दी नहीं होगा। विपक्ष के पास इससे अच्छा कोई विचार या वादा नहीं था। वे बस इंदिरा गांधी पर भरोसा न करने की बात कहते रह गए। लेकिन मतदाताओं ने उन पर भरोसा किया। इसके बहुत बाद में उन्होंने गरीबोन्मुखी गलतियों का सिलसिला चलाया। इसमें सन 1973 में गेहूं के कारोबार का राष्ट्रीयकरण शामिल था। इससे युद्ध से निपटे देश की अर्थव्यवस्था पर असर पड़ा और मुद्रास्फीति 25 फीसदी का स्तर पार कर गई।
जब हम शेष आधे हिस्से की बात करते हैं तो एक अनिश्चित तस्वीर उभरती है। विमुद्रीकरण मोदी सरकार की कार्यशैली का ताजातरीन और स्पष्ट उदाहरण है। यह तरीका सहज, दुस्साहसिक, जोखिम से परे और यहां तक कि विवेकहीन भी है। नौकरशाही के सामान्य विश्लेषण पंगु जाल की बात न भी करें तो आंकड़ों को लेकर भी अधैर्य नजर आ रहा है। हम ठीकठीक नहीं जानते कि काला धन कितना है, उसे कहां छिपाया गया है और किसने छिपाया है। कितना काला धन बरामद होने की उम्मीद है यह भी नहीं पता। चूंकि ऐसा नहीं है इसलिए यह तरीका निकाला गया है कि सारा धन वापस ले लो और जितना उचित समझो वापस कर दो, बाकी का सरकार के खाते में।
दुनिया की 7वीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाले देश में जिसकी 1.3 अरब की आबादी में ज्यादातर गरीब हैं, यह शासन का समुद्री डकैती जैसा तरीका है। यह कामयाब हो सकता है। इससे कई असंगठित गतिविधियां संगठित हो सकती हैं और कर दायरा विस्तृत हो सकता है। पर पता नहीं क्या होगा। जैसे नियंत्रण रेखा पर किए गए नियंत्रित हमले को सार्वजनिक करने के नतीजों या रक्षा मंत्री के भारतीय परमाणु सिद्धांत पर निजी विचार प्रकट करने के परिणामों के बारे में किसी को नहीं पता। अगर आप इस सरकार के प्रशंसक हैं तो आप इसकी तुलना वीरेंद्र सहवाग से कर सकते हैं: बस गेंद को देखो और मारो। अगर आप सरकार के प्रशंसक नहीं हैं तो यह शहरी मिथकीय जीवन जीने वालों की शासन शैली का शास्त्रीय उदाहरण है। हमें अगले कुछ महीनों तक पता नहीं चलेगा कि नतीजा क्या निकला ।
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In Modi style there's boredom with data, detail, debate, de-risking or war-gaming. Reason we call it Whatsapp Governance |
उनके दिमाग के राजनीतिक हिस्से को हम अच्छी तरह जानते हैं। वह कई दशकों में सबसे ज्यादा राजनीतिक नेता हैं। उनको जन भावनाओं की जबरदस्त समझ है बिलकुल एक नाड़ी वैद्य की तरह (आयुर्वेद के चिकित्सक जो नाड़ी से बीमारी का पता लगाते हैं)। हम सन 2002 से 2007 और फिर 2012 तक उनकी भाषा बदलते देख चुके हैं और 2014 में वह राष्ट्रीय मंच पर आए और उन्होंने अपने मतदाताओं के सबसे संवेदनशील और लाभकारी हिस्सों को छुआ। इस दृष्टि से देखा जाए तो वह इस दौर में भी बाजी मार ले गए हैं। कम से कम अब तक।
गरीबी हटाओ... यकीनन इंदिरा गांधी के पास कोई ठोस योजना नहीं थी। शायद गरीबी हटाना उनके इरादे में भी शामिल नहीं था। उन्होंने एक बिकाऊ नारा तलाश किया था और उन्हें पता था कि इसके आधार पर उनका आकलन भी जल्दी नहीं होगा।
उनकी राजनीतिक (मतदाता संबंधी) सोच एकदम सीधी सपाट है: क्या आपको लगता है कि ढेर सारा काला धन मौजूद है या नहीं? जाहिर है उत्तर हां है। अगला प्रश्न: क्या इस खरबों की राशि को अर्थव्यवस्था में सही ढंग से लाए बिना देश वैश्विक शक्ति का दर्जा पा सकता है? उत्तर है न, अगला प्रश्न: क्या हमने कर बचाने में मदद करने वाले देशों से धन लाने की कोशिश नहीं की और क्या माफी योजना नहीं चलाई? इस पर उत्तर मिलाजुला हो सकता है। सरकार के समर्थक हां कहेंगे जबकि आलोचक इससे इनकार करेंगे। बड़ी संख्या अनिश्चित लोगों की भी होगी। ताजा प्रश्न बाकी सारे प्रश्नों पर से दबाव हटा देता है: अगर अन्य उपाय विफल हो गए हैं तो आखिरी विकल्प क्यों न आजमाया जाए? भले ही इससे जुड़े कई नुकसान सामने आ रहे हैं। मुझे पता है कि यह जोखिम भरा कड़ा फैसला है। लेकिन आपने मुझे इसीलिए तो चुना था। क्या आप मनमोहन सिंह को पसंद करते जो न तो बात करते थे न ही कोई कदम उठाते थे?
विमुद्रीकरण मोदी सरकार की कार्यशैली का ताजातरीन और स्पष्ट उदाहरण है। यह तरीका सहज, दुस्साहसिक, जोखिम से परे और यहां तक कि विवेकहीन भी है।
नरेंद्र मोदी इस बहस में बढ़त बना चुके हैं। अहम बात यह है कि उन्हें यह बढ़त गरीब तबके के उन लोगों के बल पर मिल रही है जो मानव इतिहास की इस सबसे बड़ी नोटबंदी से सबसे अधिक परेशान और पीड़ित हैं। उन्होंने कहा कि उन्हें महज 50 दिन का वक्त चाहिए और वह देश को शानदार जगह में बदल देंगे। यह बात सुनकर वे बहुसंख्यक लोग प्रेरित हो जाते हैं जिनके पास कोई कालाधन नहीं है। यह फिल्म चक दे इंडिया की याद दिलाता है जिसमें शाहरुख खान ने अपनी महिला हॉकी टीम को ‘70 मिनट’ का मशहूर भाषण दिया था। एक हॉकी कोच के उद्बोधन का प्रभाव जहां 70 मिनट में नजर आ जाएगा, वहीं एक राजनेता के पास अधिक वक्त होता है। मांगे गए 50 दिन खत्म होने के बाद शायद मौजूदा असुविधा खत्म होगी। इससे लाभ क्या होंगे यह जानने के लिए हमें कई महीनों तक इंतजार करना होगा। आप इस सरकार या इसकी आर्थिक टीम पर यह इल्जाम नहीं लगा सकते कि उसने परिणामों का अध्ययन नहीं किया होगा। आखिर ऐसे किसी काम के बारे में अनुमान कैसे लगाया जा सकता है जो मानव इतिहास में पहले कभी घटित ही नहीं हुआ हो, जिसका कोई पूर्व प्रमाण ही न हो। केवल पुराने अर्थशास्त्रियों की आलोचना सुनने को मिल रही है जो यथास्थितिवादी हैं। चाहे जो भी हो राजनीति में एक नया बिकाऊ उत्पाद, विचार, वादा या नारा तलाशना अहम है। कोई भी समझदार नेता ऐसा वादा नहीं करता जिसके बारे में वह खुद मानता हो कि उसे पूरा किया जा सकता है।
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Worse, there's thriving new black market & hawala. Dealers offering US $ for Rs 100 in old notes in Mumbai. This is going out of control |
हम यहां एक पुराना और दो नए उदाहरण देखते हैं। सन 1969 में इंदिरा गांधी ने बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया, प्रिवीपर्स खत्म किए और यह धारणा पैदा की कि अमीरों को कष्ट हो रहा है। उन्होंने गरीबी हटाओ का नारा दिया। पूरा विपक्ष उनके खिलाफ एकजुट था। द इंडियन एक्सप्रेस के संपादक फ्रैंक मोरैस ने उस दौर में पहले पन्ने पर उनके खिलाफ एक स्तंभ लिखा, ‘मिथक एवं तथ्य’। लेकिन उन्हें चुनावों में जबरदस्त जीत मिली। उनके पोस्टर, बैनरों पर लिखा था: वे कहते हैं इंदिरा को हटाओ, इंदिराजी कहती हैं, गरीबी हटाओ। अब आप तय कीजिए। यकीनन इंदिरा गांधी के पास कोई ठोस योजना नहीं थी। शायद गरीबी हटाना उनके इरादे में भी शामिल नहीं था। उन्होंने एक बिकाऊ नारा तलाश किया था और उन्हें पता था कि इसके आधार पर उनका आकलन भी जल्दी नहीं होगा। विपक्ष के पास इससे अच्छा कोई विचार या वादा नहीं था। वे बस इंदिरा गांधी पर भरोसा न करने की बात कहते रह गए। लेकिन मतदाताओं ने उन पर भरोसा किया। इसके बहुत बाद में उन्होंने गरीबोन्मुखी गलतियों का सिलसिला चलाया। इसमें सन 1973 में गेहूं के कारोबार का राष्ट्रीयकरण शामिल था। इससे युद्ध से निपटे देश की अर्थव्यवस्था पर असर पड़ा और मुद्रास्फीति 25 फीसदी का स्तर पार कर गई।
वादों की कोई जांच परख नहीं होनी
ब्रेक्सिट और डॉनल्ड ट्रंप दो ताजे उदाहरण हैं। ब्रेक्सिट की हिमायत करने वालों जिनमें नाइजल फैरेज से लेकर बोरिस जॉनसन तक शामिल थे, का वादा था कि वे ब्रिटेन को एक बार फिर महान बनाएंगे। उन्हें जनमत संग्रह में जीत मिली और यूरोप अस्तव्यस्त हो गया। अब उनके वादों की कोई जांच परख नहीं होनी। इसी तरह ट्रंप ने अमेरिका को महान बनाने की बात की। जबकि हकीकत में हर समझदार आदमी यही कहेगा कि अमेरिका इस वक्त अपनी महानता के बेहतरीन पलों से गुजर रहा है। अब वह इसे और कितना महान बनाएंगे और कैसे बनाएंगे? खैर, अब बतौर राष्ट्रपति उनका चुनाव हो चुका है। यह पूरी कवायद लोकप्रिय जनमत निर्माण से हुई।मोदी सरकार के दिमाग का राजनीतिक हिस्सा शानदार ढंग से काम कर रहा है
मोदी इसी तरह तात्कालिक रूप से विजेता के रूप में उभरे हैं और उनके तमाम विरोधी परास्त हैं। इंदिरा गांधी ने भी सन 1970 के शुरुआती दशक में अपने शत्रुओं को गरीबी उन्मूलन के जाल में उलझाया था। मोदी काले धन के रूप में उसी अस्त्र का प्रयोग कर रहे हैं। उनके इस अभियान का नतीजा कुछ महीनों में नहीं आने वाला है और अगर वह थोड़ी असहजता बरदाश्त करने का अनुरोध कर रहे हैं तो गरीब से गरीब आदमी भी इसके लिए तैयार हो जाएगा। अमीर केवल धनशोधन का तरीका तलाश कर रहे होंगे बल्कि वे जनता के कष्ट से फायदा उठाने के तरीके भी खोज रहे होंगे। हम कह सकते हैं कि मोदी सरकार के दिमाग का राजनीतिक हिस्सा शानदार ढंग से काम कर रहा है।जब हम शेष आधे हिस्से की बात करते हैं तो एक अनिश्चित तस्वीर उभरती है। विमुद्रीकरण मोदी सरकार की कार्यशैली का ताजातरीन और स्पष्ट उदाहरण है। यह तरीका सहज, दुस्साहसिक, जोखिम से परे और यहां तक कि विवेकहीन भी है। नौकरशाही के सामान्य विश्लेषण पंगु जाल की बात न भी करें तो आंकड़ों को लेकर भी अधैर्य नजर आ रहा है। हम ठीकठीक नहीं जानते कि काला धन कितना है, उसे कहां छिपाया गया है और किसने छिपाया है। कितना काला धन बरामद होने की उम्मीद है यह भी नहीं पता। चूंकि ऐसा नहीं है इसलिए यह तरीका निकाला गया है कि सारा धन वापस ले लो और जितना उचित समझो वापस कर दो, बाकी का सरकार के खाते में।
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दुनिया की 7वीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाले देश में जिसकी 1.3 अरब की आबादी में ज्यादातर गरीब हैं, यह शासन का समुद्री डकैती जैसा तरीका है। यह कामयाब हो सकता है। इससे कई असंगठित गतिविधियां संगठित हो सकती हैं और कर दायरा विस्तृत हो सकता है। पर पता नहीं क्या होगा। जैसे नियंत्रण रेखा पर किए गए नियंत्रित हमले को सार्वजनिक करने के नतीजों या रक्षा मंत्री के भारतीय परमाणु सिद्धांत पर निजी विचार प्रकट करने के परिणामों के बारे में किसी को नहीं पता। अगर आप इस सरकार के प्रशंसक हैं तो आप इसकी तुलना वीरेंद्र सहवाग से कर सकते हैं: बस गेंद को देखो और मारो। अगर आप सरकार के प्रशंसक नहीं हैं तो यह शहरी मिथकीय जीवन जीने वालों की शासन शैली का शास्त्रीय उदाहरण है। हमें अगले कुछ महीनों तक पता नहीं चलेगा कि नतीजा क्या निकला ।
साभार बिज़नस स्टैंडर्ड
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