कश्मीरी पंडितों से लेकर उत्तराखंड, असम, बंगाल (वैष्णव समुदाय छोड़ कर), मिथिला क्षेत्र तथा उ.पू. राज्यों में माँस और मछली ब्राह्मणों का खानपान तथा प्रसाद माना जाता है
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Photo: Gadhimai Mela Festival, Nepal (http://www.businessinsider.in) |
हमारे देश की कुल आबादी में शाकाहारियों का अनुपात हमेशा से कुल आबादी का कम रहा है
— मृणाल पाण्डे
जो लोग मानते हैं कि उत्तर भारत में मुसलमानों के असर से ही माँसाहार प्रचलित हुआ और शाकाहार की पुरानी भारतीय शाकाहारी परंपरा के असली रक्षक आज भी दक्षिण में हैं, वे भी गलती के शिकार हैं।
पिछले कुछ समय से भारतीय खानपान के लोकतंत्र में माँसाहार के खिलाफ शाकाहार के स्वयंभू रक्षकों ने एक अजीब सा धावा बोल रखा है। भारतीय परंपरा की शुचिता बनाये रखने की अपील करते हुए वे देश के सभी लोगों को जबरन माँसाहार से शाकाहार की तरफ हाँक रहे हैं। संभव है कि उनको किसी हद तक शाकाहारी धड़े के मन की बनावट की कुछ जानकारी हो, लेकिन वे इस महत्वपूर्ण सचाई से अनजान हैं कि हमारे देश की कुल आबादी में शाकाहारियों का अनुपात हमेशा से कुल आबादी का कम रहा है। आज भी वह सिर्फ 29% है। भारत में माँसाहारी धड़े के विशाल आकार का भी आम लोगों को कोई अंदाज़ नहीं है। सच तो यह है कि खुद भारत सरकार के (सांपल रजिस्ट्रेशन सिस्टम के बेसलाइन सर्वेक्षण 2014 के) ताज़ा आँकडों के हिसाब से भारत में माँसाहारियों की तादाद कुल आबादी का 71% है।
शाक्त तंत्र के अनुयायियों के बीच देवी को चढ़ाये जाने वाले पंच(मकार) भोगों मे माँस, मछली तथा मदिरा तीनों को प्रसाद की बतौर ग्रहण करना शामिल है

जो लोग मानते हैं कि उत्तर भारत में मुसलमानों के असर से ही माँसाहार प्रचलित हुआ और शाकाहार की पुरानी भारतीय शाकाहारी परंपरा के असली रक्षक आज भी दक्षिण में हैं, वे भी गलती के शिकार हैं। इस तालिका के अनुसार दक्षिण के पांच में से चार राज्यों में तेलंगाना में शाकाहारी लोगों की तादाद कुल आबादी का 1.3%, आंध्र में 1.75%, तमिलनाडु में 2.35 और केरल में कुल का 3% मात्र है। मुस्लिम बहुल राज्य जम्मू काश्मीर में (जहाँ शाकाहारी 31.45 % हैं) और हिंदू बहुल कर्नाटक में (जहाँ शाकाहारियों की संख्या 21.7 फीसदी निकली है) इस बिंदु पर बहुत कम फर्क है। वहीं हिंदू बहुल उत्तर भारत और (देश के भी) सबसे बडी आबादी वाले 2 प्रांतों : झारखंड तथा बिहार में कुल आबादी का सिर्फ 3.25 % व 7.55 भाग ही शाकाहारी है।
आश्वलायन गृह्यसूत्र में मैत्रावरण देवयुग्म के लिये बाँझ गाय (अनुबंध्या वशा) की बलि का विधान मिलता है
दरअसल विशुद्ध शाकाहार भारतीय चौके की एक खासियत होते हुए भी माँसाहार को भारतीय खानपान की पारंपरिक धारा से कभी बहिष्कृत नहीं किया गया है। शाक्त तंत्र के अनुयायियों के बीच तो खैर देवी को चढ़ाये जाने वाले पंच(मकार) भोगों मे माँस, मछली तथा मदिरा तीनों को प्रसाद की बतौर ग्रहण करना शामिल है ही, उनसे बहुत पहले भी इस बात के पर्याप्त प्रमाण हैं कि हमारे आर्य पुरखों के खाने में माँस शामिल था। उत्तरवैदिक साहित्य में कई तरह से पकाये गये चावलों का ज़िक्र है, जिनमें से एक माँसोदन (द्र वैदिक कोष पृ76) यानी माँस के साथ पकाया चावल है। वेदों में भी यज्ञ में बलि के योग्य 50 तरह के पशुओं का ज़िक्र मिलता है जिनका माँस संभवतः प्रसाद मान कर ग्रहण किया जाता ही होगा। धर्मसूत्रों में वशिष्ठ, गौतम और आपस्तंभ गाय बैलों के वध का निषेध करते हैं और बौधायन गोहत्या के पातक से मुक्त होने का विधान करते हैं, किंतु आश्वलायन गृह्यसूत्र में मैत्रावरण देवयुग्म के लिये बाँझ गाय (अनुबंध्या वशा) की बलि का विधान मिलता है। बहरहाल जैसे-जैसे यह व्यावहारिक समझबूझ बढी कि गोधन रक्षण कृषिप्रधान समाज में जीवनयापन के लिये अनिवार्य था, तो सूत्रों के युग तक दूध देनेवाली गाय तथा कृषिकर्म के मुख्य सहायक बैलों का वध रोका जाने लगा और ई पू 2000 में मनुस्मृति ने गोमांस को निषिद्ध बना दिया। गौरतलब है कि भैंसे या महिष की बलि पर रोक नहीं लगी। मैंने स्वयं पचास के दशक में उत्तराखंड के नंदादेवी मंदिर में जतिया (भैंस) की बलि होती देखी है जिसके रक्त का टीका लगवा कर और माँस का ‘प्रसाद’ ग्रहण कर भक्तगण कृतकृत्य महसूस करते थे।
ईसा पू. सदियों में ही जैन तथा बौद्धधर्म वैदिक कर्मकांड, मनुवादाधारित जाति प्रथा तथा पशुओं की बलि का विरोधी बन कर उभरे। बौद्धधर्म पशुहत्या तथा हिंसा का प्रबल विरोधी था, लेकिन दूसरे गृहस्थ धर्मावलंबियों, खासकर वेदबाह्य समुदायों के और अवर्णों के बीच माँसाहार का प्रचलन था। उसका बुद्ध ने निषेध नहीं किया। अपने भिक्खुओं से उन्होंने कहा कि वे पशुहत्या में न तो खुद भाग लें, न ही उसे होते हुए देखें या उसकी आवाज़ें सुनें, लेकिन अगर भिक्षा में उनको पका हुआ माँस मिले तो वे उसे ग्रहण कर सकते हैं। जैन समुदाय के 24वें तीर्थंकर और उनके समकालीन महावीर ने अलबत्ता जैनियों के लिये जीवहत्या और माँसाहार दोनों को वर्जित बताया। नेपाल, तिब्बत, चीन तथा द.पू. एशिया में बौद्धधर्म की हीनयान शाखा को माननेवाले आज भी माँसाहारी हैं।

आनेवाली सदियों में भारत में यज्ञादि में जीवबलि न देने के जैन तथा बौद्ध सुधारवादी विचारों का असर पड़ना स्वाभाविक था और इसी कारण 8वीं सदी के बाद शंकर, मध्वाचार्य तथा रामानुजाचार्य ने पशुबलि की जगह नारियल अथवा कूष्मांड(कद्दू) की बलि देने की प्रथा शुरू करवाई। अधिकतर सनातनधर्मी ब्राह्मणों में तभी से शाकाहार का सिलसिला बना। लेकिन भौगोलिक वजहों और शरीरपालन की जैविक ज़रूरतों के कारण पूरे हिमालयीन इलाके में पशुबलि तथा माँसाहार हर जाति में कायम रहा। मौसमी वजहों से साल के बड़े भाग में ताज़ा शाक सब्ज़ी से वंचित इन इलाकों में आज भी कश्मीरी पंडितों से लेकर उत्तराखंड, असम, बंगाल (वैष्णव समुदाय छोड़ कर), मिथिला क्षेत्र तथा उ.पू. राज्यों में माँस और मछली ब्राह्मणों का खानपान तथा प्रसाद माना जाता है। कर्नाटक के सारस्वत ब्राह्मणों में भी माँस मछली खाये जाते हैं। दरअसल द. भारत में आर्य संस्कृति के आगमन से पहले के (संगम) साहित्य के अनुसार गाय तथा भैंस का माँस वर्जित न था। पुरानी तामिल में इनके व्यंजनों के चार प्रकारों का उल्लेख है।
भारतीय राजनीति से समाज तक में आत्म प्रेम और परंपरा को लेकर आत्मवंचना शाकाहार को प्रतीक बनाना इधर ज़ोर पकड़ रहा है और उसके दम पर कुछ संदिग्ध गोरक्षक गाय भैंस के हर व्यापारी को पीट कर इस प्रथा को अल्पसंखयकों से जोड़ कर सांप्रदायिकता फैला रहे हैं। जीवनभर धन जोड़ कर पारंपरिक तामझाम से आयोजित शादीब्याह या पूजा में शाकाहार के नाम पर बेशकीमती इंपोर्टेड फल-फूल व सब्ज़ियों के छप्पन भोग परोस कर सराहना बटोरने, अतीत में जीनेवाले हमारे नवसमृद्ध वर्ग के एक हिस्से को शायद ऐसे निर्मम गैरकानूनी प्रयासों को देख सुन कर लगता हो कि यह दस्ते भारतीय परंपरा को ही दुरुस्त कर रहे हैं ! पर यह उस भारतीय परंपरा का अपमान है जिसकी तहत सदियों से हमारे लोगों को शाकाहार या माँसाहार अपनाने की खुली छूट रही है।
▲▲लाइक कीजिये अपडेट रहिये
(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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