रूपा सिंह की कवितायेँ
शिमला में गोल मेज़ देख के लिखी गई कविता
तीन कुर्सियाँ थीं, क़रीने से रखीं
दूधिया, सफ़ेद, शफ़्फ़ाक।
बीच में था एक गोल मेज़
धूसर, धूमिल, सपाट ।
मेज़ के बीचों बीच ऊँगली फिराओ
तो निकल आता था ख़ून
ऊँगली ख़्वाबों से भरी थी
ख़ून का रंग काला था ।
स्मृतियों में भरा था लाल धब्बों का इतिहास
छाती में रह रह धधकती थी बलवे कि आग ।
अतीत के चौराहे पर गोल मटोल पृथ्वी थी
जो रोती रहती थी।
उसके बीचों बीच एक हृष्ट-पुष्ट क़ब्रिस्तान था ।
ज़िंदा रूहों की तड़प से
जिसके सीवन उधड़ते थे ।
इस पार और उस पार के अंतिम
आदमी के पास थे केवल सवाल
उसका कोई घर न था न थी बैठने की जगह ।
उसे चलते जाना था कि
उसने सुना था
किसी जादुई आधी आज़ाद रात का ज़िक्र!
कई रातें बीतती गयीं थीं, फिर दिन की तलाश में।
भयावह अँधेरा, पैरों में छालें और था शरीर रक्तपलावित।
झोले में टांगा कुलबुलाता था ईश्वर
और बचा रह गया था धर्म -परिवर्तन ।
गांधी, नेहरु, जिन्ना चुप थे ।
कुर्सियाँ अब तक रखीं थीं क़रीने से
दूधिया, सफ़ेद, शफ़्फ़ाक...यथावत !
निकल पड़ूँगी अर्धरात्रि दरवाज़े से
नदियों में औंटती, भीगती, अघाती
लौट आऊँगी अदृश्य दरवाज़े से घनघोर भीतर ।
अब तक देखे थे जितने सपने
सबों को बुहार कर करूँगी बाहर ।
सीझने दूँगी चूल्हे पर सारे तक़ाज़ों को
पकड़ से छूट गए पलों को
सजा लूँगी नयी हांडी में।
कह दूँगी अपनी कौंधती इंद्रियों से
रहें वे हमेशा तैयार
नयी मासूम आहटों के लिए ।
दिग्विजय पर निकली हूँ मैं
स्त्रीत्व के सारे हथियार साथ लिए ।
सबसे ख़तरनाक समय शुरू हो रहा है
जब मैं करने लगी हूँ ख़ुद से ही प्यार ।
दूधिया, सफ़ेद, शफ़्फ़ाक।
बीच में था एक गोल मेज़
धूसर, धूमिल, सपाट ।
मेज़ के बीचों बीच ऊँगली फिराओ
तो निकल आता था ख़ून
ऊँगली ख़्वाबों से भरी थी
ख़ून का रंग काला था ।
स्मृतियों में भरा था लाल धब्बों का इतिहास
छाती में रह रह धधकती थी बलवे कि आग ।
अतीत के चौराहे पर गोल मटोल पृथ्वी थी
जो रोती रहती थी।
उसके बीचों बीच एक हृष्ट-पुष्ट क़ब्रिस्तान था ।
ज़िंदा रूहों की तड़प से
जिसके सीवन उधड़ते थे ।
इस पार और उस पार के अंतिम
आदमी के पास थे केवल सवाल
उसका कोई घर न था न थी बैठने की जगह ।
उसे चलते जाना था कि
उसने सुना था
किसी जादुई आधी आज़ाद रात का ज़िक्र!
कई रातें बीतती गयीं थीं, फिर दिन की तलाश में।
भयावह अँधेरा, पैरों में छालें और था शरीर रक्तपलावित।
झोले में टांगा कुलबुलाता था ईश्वर
और बचा रह गया था धर्म -परिवर्तन ।
गांधी, नेहरु, जिन्ना चुप थे ।
कुर्सियाँ अब तक रखीं थीं क़रीने से
दूधिया, सफ़ेद, शफ़्फ़ाक...यथावत !
सबसे ख़तरनाक समय शुरू हो रहा है
जब मैं खुलेआम कर लूँगी प्यार ।निकल पड़ूँगी अर्धरात्रि दरवाज़े से
नदियों में औंटती, भीगती, अघाती
लौट आऊँगी अदृश्य दरवाज़े से घनघोर भीतर ।
अब तक देखे थे जितने सपने
सबों को बुहार कर करूँगी बाहर ।
सीझने दूँगी चूल्हे पर सारे तक़ाज़ों को
पकड़ से छूट गए पलों को
सजा लूँगी नयी हांडी में।
कह दूँगी अपनी कौंधती इंद्रियों से
रहें वे हमेशा तैयार
नयी मासूम आहटों के लिए ।
दिग्विजय पर निकली हूँ मैं
स्त्रीत्व के सारे हथियार साथ लिए ।
सबसे ख़तरनाक समय शुरू हो रहा है
जब मैं करने लगी हूँ ख़ुद से ही प्यार ।
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