जो मैं मुसलमान होती... बरखा दत्त #ifIWereAMuslim


barkha dutt

इफ आई वर अ मुस्लिम

— बरखा दत्त / अंग्रेज़ी से हिंदी अनुवाद: भरत तिवारी



बरखा दत्त ने पिछले दिनों ‘द वीक’ के अपने सम्पादकीय लेख ‘इफ आई वर अ मुस्लिम’ का लिंक भेजा, उन्हें लगता था कि यह लेख हिंदी में भी होना चाहिए। मैं इधर बीच कुछ ऐसी चीज़ों का अनुवाद हिंदी में करता रहा हूँ, जिन्हें अंग्रेजी में पढ़ते समय लगा हो कि हिंदी पाठक के लिए भी इसे उपलब्ध होना चाहिए। लेकिन बरखा के इस लेख का अनुवाद किया जाना ‘आसान’ नहीं था — जैसे कविता का अनुवाद वक़्त और भाव-की-समझ मांगता है — क्योंकि उनके अन्य लेखों से इतर इसमें उन्होंने अपनी भावनाओं को (जो मुझे अपनी-भी लगीं और आपको भी ‘अपनी’ लग सकती हैं) शब्दों में उतारा है... इसलिए कोशिश की है कि वे भावनायें, अंग्रेज़ी से हिंदी के रास्ते चलते समय, अपने मूल से न डिगें । 

ट्रोलों की गालियाँ तो बिना मांगे भरपूर मिल ही जाती हैं लेकिन आपकी ज़रूरी-टिप्पणी कई दफ़ा नहीं आती इसलिए बताइयेगा बरखा दत्त ने जो कहा है वह और उसे हिंदी में मैंने जो किया है वह, दोनों कैसे रहे ।

भरत तिवारी 

पिछले कुछ दिनों से, एक सवाल मुझे नोच रहा है और मेरी अंतरात्मा और आंतरिक शांति को, धीरे-धीरे ख़त्म करने पर तुला है : जो मैं मुसलमान होती तो?


जो मैं मुसलमान होती

मैं नास्तिक और पूरी तरह से गैर-धार्मिक हूँ; ख़ुद को किसी धर्म से जुड़ा नहीं महसूस करती और फॉर्म आदि भरते समय धर्म वाला कॉलम ख़ाली छोड़ देती हूँ। जिस तरह मेरे प्रिय ट्विटर ट्रोल मुझे कहेंगे, आप भी मुझे (वह भयानक नाम/शब्द) एक लिबरल कह सकते हैं। मैं स्वीकारती हूँ कि धर्म पर निष्ठा का कोई लंगर मेरी धर्मनिरपेक्षता पर कभी गिरा ही नहीं। और इसलिए मैं ज़िन्दगी को किसी भी धर्म के नज़रिए से देखने में सक्षम नहीं हूँ। मगर, पिछले कुछ दिनों से, एक सवाल मुझे नोच रहा है और मेरी अंतरात्मा और आंतरिक शांति को, धीरे-धीरे ख़त्म करने पर तुला है : जो मैं मुसलमान होती तो?

भीड़ भरी लोकल ट्रेन में सीट के लिए कहासुनी से शुरू हुआ झगड़ा जिसमें जुनैद को उसके धर्म पर ताने कसे जा रहे थे, अंततः सिर्फ उसकी जात का मसला बन गया।
If I Were A Muslim | Photo (c) Bharat Tiwari

मुझे कैसा लगता होगा यह पता चलने पर कि मेरी आवाज़ अब देश की राजनीति का हिस्सा इसलिए नहीं रही क्योंकि अब चुनाव जीतने के लिए मेरी कोई ज़रुरत नहीं बची? या, भारत के सबसे बड़ी आबादी वाले राज्य में ज़बरदस्त जीतने वाली पार्टी का एक भी उम्मीदवार मुसलमान नहीं था? क्या मैं उत्तर भारत के एक प्लेटफार्म पर खून से लथपथ मरणासन्न जुनैद की तस्वीर देखने के बाद ईद मना सकुंगी? भीड़ भरी लोकल ट्रेन में सीट के लिए कहासुनी से शुरू हुआ झगड़ा जिसमें जुनैद को उसके धर्म पर ताने कसे जा रहे थे, अंततः सिर्फ उसकी जात का मसला बन गया। उस मवेशी बेचने वाले पहलु खान को देख कर मैं क्या कहूँगी जिसे ख़ूनी-भीड़ ने सड़क पर गिरा दिया, जिसका आँसुओं से पपड़ाता चेहरा जान बचाने की वो गुहार लगा रहा था जो नहीं सुनी गयी? क्या मैं वायुसैनिक मो० सरताज की तरह आशावादी बन पाऊँगी, जो मुझसे कहता है, “सारे जहाँ से अच्छा हिंदुस्तान हमारा,” जिसका न्याय पर विश्वास तब भी कायम है जब उसके अब्बा, अखलाक़ की गाय के मांस की अफवाह के चलते हत्या की गयी, और गाँव में, पिता की हत्या के अभियुक्त का मृत शरीर को तिरंगे में, एक वरिष्ठ मंत्री की मौजूदगी में, लपेटा जाता है? मैं इस नए शब्दकोश को क्या समझूँगी, जिसमें कट्टरता बताने वाले ‘विजिलानटे’ और ‘लिन्चिंग’ जैसे शब्द आम होते जाएँ?
मैं इस नए शब्दकोश को क्या समझूँगी, जिसमें कट्टरता बताने वाले ‘विजिलान्टे’ और ‘लिन्चिंग’ जैसे शब्द आम होते जाएँ?
जो मैं मुसलमान होती तो उन कट्टर मुस्लिमों और आतंकवादियों का मैं कितनी असहाय हो कर विरोध करती, जो मेरे धर्म को नीचा गिराने के बाद उसकी भर्त्सना करने का जिम्मा मुझ पर छोड़ देते... जैसे कि वह दरिंदा मैं ही हूँ? शब-ए-क़द्र की पवित्रतम रात को मस्जिद के बाहर मार दिए गए कश्मीर पुलिस ऑफिसर अयूब पंडित के घर वालों से क्या कहती मैं? या उस बेहद सुन्दर युवा सैनिक उमर फ़याज़ के परिवार से...जो परिवार की शादी में शामिल होने आया और उसकी हत्या कर दी गयी? तीन-तलाक़ जैसी पिछड़ी प्रथाओं का बचाव करने वाले धर्म के उन स्वयम्भू ठेकेदारों से मैं कैसे निपटती — जिनके कारण मुझे शर्मिंदगी उठानी पड़ती होती और जो मेरे समुदाय पर हमला करने वाले धर्मांधों को मजबूत करते होते?

जो मैं मुसलमान होती तो मुझे तब कैसा लग रहा होता जब मुझे पता चलता कि मेरे देश के राष्ट्रपति की इफ़्तार-दावत में देश का एक भी मंत्री नहीं गया? मैं अपने को याद दिलाती होती कि मेरी ही जाति के राष्ट्रपति अब्दुल कलाम ने पैसों की बरबादी रोकने के लिए इफ़्तार-दावतें देने के बजाय पैसे अनाथालय में दान किये थे। और, मैं ख़ुद को कहती होती कि मेरी पहचान ऐसे दिखावों की मोहताज नहीं है। लेकिन मेरे दिल का कोई हिस्सा ज़रूर सोच रहा होता : क्या धर्म और सरकार को अलग करने वाली यह (सुखद) राजनीति, दीवाली, क्रिसमस और होली जैसे त्योहारों पर भी लागू होगी...

जो मैं मुसलमान होती तो मैं उन पार्टियों को निराशा से देख रही होती जो मेरी आवाज़ बनने का दावा किये, मेरे साथ जोड़-तोड़ किये और फिर मुझे-ही त्याग दिए। तलाक के बाद जीवन निर्वाह के लिए अदालत जाने वाली शाह बानो याद आ रही होती, वो निर्णय जिसे राजीव गाँधी सरकार ने पलट दिया था, जो ‘सेक्युलर’ अनाचार का पहला (लेकिन आख़िरी नहीं) उदाहरण बनेगा। और मैं सोचती होती : क्या मेरे पास यही विकल्प हैं, एक वो पार्टी जो मुझे ‘भूल-चुके’ के हाशिये पर धकेल दे और दूसरी जो सिर्फ मेरा फ़ायदा उठाये?

जो मैं मुसलमान होती, मैं स्वयं को उन लाखों कारणों की याद दिलाती होती जिनके कारण मैं अपने देश को प्यार करती हूँ। लेकिन, हमेशा की तरह जब वो मुझसे कहते कि तुम ‘समझदार’ हो, तुम्हें बोलना चाहिए, तो मैं पूछती, क्या भारत के विशाल बहुसंख्य — समझदार हिन्दू — मेरे लिए बोलेंगे?

(बरखा दत्त की सम्पादकीय "If I were Muslim..." का हिंदी अनुवाद - भरत तिवारी)

बरखा दत्त के  इस अनुवाद का कॉपीराइट www.shabdankan.com के पास है।  कृपया बिना अनुमति किसी भी प्रकार का प्रकाशन अथवा प्रसारण न करें।

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस अनुवाद में व्यक्त किए गए विचार बरखा दत्त के निजी विचार हैं. इस अनुवाद में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति अनुवादक उत्तरदायी नहीं है. इस अनुवाद में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं. इस अनुवाद में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार अनुवादक के नहीं हैं, तथा अनुवादक उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है.

(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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4 टिप्पणियाँ

  1. भयावह, ज्वलन्त समस्या पर गाम्भीर्य लेखन...यह समस्या स्वतः नहीं, जानबूझ कर पैदा की गई जिसे प्रशासन का प्रश्रय है, सरकार की योजना सरीखी जिसे समयबद्ध कार्यक्रम के अंतर्गत पूर्ण किया जाना आवश्यक है...

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  2. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (22-07-2017) को "मोह से निर्मोह की ओर" (चर्चा अंक 2674) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  3. हर एक सवाल जैसे अपने लम्बे नाख़ून से छाती को कुरेद रहे हैं, और उसकी नोख ह्रदय की सतह में कहीं अटक जाती है. एक सवाल पर विचार करने के बाद, और अगर मैं मुसलमान होता के परिप्रेक्ष्य में उसका उत्तर ढूँढने के क्रम में नाख़ून कुछ ज्यादा भीतर जाकर अटक जाती. मगर अगले प्रश्न का भी सामना करना था. धारदार हैं मगर इतना सच कि लगता है ये नाखून गड़ी ही रहे भीतर, तब तक, जब तक कि हम इसका उत्तर नहीं ढूंढ लेते. हर एक सवाल इतना जायज, कि निकलने का मन नही हो रहा इनसे.

    भरत जी, हालांकि इसका इंग्लिश वर्जन नही पढ़ा पर कहीं यह महसूस नही हुआ इसे पढ़ते हुए कि क्रम में कोई खालीपन हो. चुकी इसे आपने अपना बनाकर महसूस किया. तत्पश्चात अनुदित ये निश्चय ही अंतस को स्पर्श ही नही करता बल्कि अपने दोनों हाथों से भींच रहा है. बधाई !

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  4. यादगार रहेगा लेख ....अनुवाद भी बेजोड़ ...

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