क्यों किसी भी टीवी पत्रकार के लिए हर दिन चुनौतीपूर्ण होता है


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ऑफ़ द स्क्रीन: टीवी रिपोर्टिंग की कहानियाँ

mass communication books Hindi pdf free download अर्थात पत्रकारिता के छात्रों के लिए  प्रैक्टिकल गाइड

पुस्तक समीक्षा


खबर के पीछे का रोमांचक सफर

आप न्यूज चैनल शौक से देखते हों, बिल्कुल नहीं देखते हों या सिर धुनते हुए देखते हों - तीनों ही स्थिति में अगर आप इसे पढ़ेंगे, तो आपको टीवी रिपोर्टिंग के स्वरूप, उसके विषयों , खूबियों और दुश्वारियों के बारे में कुछ नई जानकारियाँ मिलेंगी और मुमकिन है कि आपकी राय ...

ब्रजेश राजपूत की पुस्तक ‘ऑफ द स्क्रीन; टीवी रिपोर्टिंग की कहानियाँ’ न्यूज चैनलों पर आने वाली खबरों के पीछे की कहानियाँ सुनाती है - किस्सागोई के दिलचस्प अंदाज में। अपने लंबे कॅरिअर में ब्रजेश ने लगभग हर तरह की स्टोरी की है, जो आप न्यूज चैनल पर देखते हैं। इसलिए उनके अनुभवों में विविधता है, जो किताब की कहानियों में भी झलकती है। इनमें पगलाई भीड़ के हमले में मौत से साक्षात्कार के वर्णन हैं, तो तूफान और बाढ़ में खबर तलाशने की रोमांचक दास्तानें भी हैं। उन्होंने पुस्तक में सच ही लिखा है- ‘अजीब-सा काम है पत्रकारिता भी। लोग हादसे की जगह से दूर भागते हैं, मगर हम पत्रकार उस जगह पर जल्दी पहुँचने में जी-जान लगा देते हैं।




नदी में तैरते शिवराज सिंह चौहान और फटी टी-शर्ट वाले ज्योतिरादित्य सिंधिया...

प्रोड्यूसर क्या पका रहा है


यह टीवी चैनलों की उत्सुकता और रोमांच जगाने वाली शैली में लिखी गई है, लेकिन इसमें प्रिंट मीडिया के भाषायी संस्कार भी हैं। लेखक ने अनावश्यक दोहराव और बलाघात से बचते हुए सरल वर्णनात्मक शैली में अपने अनुभव बयाँ किए हैं। बीच-बीच में उनके विचार और टिप्पणियाँ सहज रूप से आती रहती हैं और पाठक के लिए विषय को आत्मसात करने में सहायक होती हैं। मसलन, एक जगह वे कहते हैं कि ‘टेलीविजन पत्रकारिता में कल क्या किया, कोई नहीं पूछता… हमेशा यह पूछा जाता है कि आज क्या कर रहे हो’, तो आपको एहसास हो जाता है कि स्थापित नाम होने के बावजूद क्यों किसी भी टीवी पत्रकार के लिए हर दिन चुनौतीपूर्ण होता है।

दुष्यंत कुमार का टूटता घर
बहरहाल, इसे महज रोमांच के लिए मत पढ़िए। इसमें करुणा और सामाजिक सरोकारों की कहानियाँ भी हैं। ‘पचमढ़ी की गुड़िया की लंबी कहानी’ बताती है कि टीआरपी देने वाली खबर से शुरू हुए जुड़ाव में कैसे स्नेह, आत्मीयता और परवाह के भाव भी जुड़ते चले गए। किताब में कर्ज के बोझ से आत्महत्या करते किसान, तनाव में गलत कदम उठाते स्कूली बच्चे, फांसी और सजा-माफी के बीच झूलता एक शख्स, सवाल करने पर एक आम नागरिक को सजा देने वाला कलेक्टर, हिंदी के मशहूर गजलगो दुष्यंत कुमार का टूटता घर और अफसरशाही के नीचे पिसते ग्रामीणों की कहानियाँ भी हैं। जनसरोकारों से जुड़े ये किस्से किताब में रोचकता और स्तरीयता के बीच झूलता काँटा संतुलित बनाए रखते हैं।






कुंभ स्नान पर जाने वाली साध्वी प्रज्ञा ...
राजनेताओं और समस्याओं के बारे में लिखते वक्त किसी एक पक्ष में झुक जाने का जोखिम होता है, लेकिन लेखक ने इस बात का ध्यान बखूबी रखा है। वे नदी में तैरते शिवराज सिंह चौहान और फटी टी-शर्ट वाले ज्योतिरादित्य सिंधिया के बारे में आंखों देखा हाल बताते हैं और बाकी सबकुछ इशारों-इशारों में कह जाते हैं। यह निरपेक्ष अंदाज मंत्री लक्ष्मीकांत शर्मा और कुंभ स्नान पर जाने वाली साध्वी प्रज्ञा के किस्सों में भी कायम रहता है। यहाँ तक कि वे चुनाव के किस्सों में भी संतुलन साधे रहते हैं और जो भी कहना है, घटना-प्रसंगों और वास्तविक किरदारों की बातों के जरिए ही कहते हैं।

राय थोड़ी-सी
कुछ किताबें आपको बदल देती हैं। उन्हें पढ़ लेने के बाद आप वह नहीं रह जाते, जो पहले थे। आपकी जानकारियाँ बढ़ जाती हैं, जागरूकता का स्तर ऊँचा हो जाता है, आपकी समझ थोड़ी बेहतर हो जाती है और सबसे अच्छी बात, आप एक बेहतर इनसान बन जाते हैं। यह भी इसी श्रेणी की पुस्तक है। आप न्यूज चैनल शौक से देखते हों, बिल्कुल नहीं देखते हों या सिर धुनते हुए देखते हों - तीनों ही स्थिति में अगर आप इसे पढ़ेंगे, तो आपको टीवी रिपोर्टिंग के स्वरूप, उसके विषयों , खूबियों और दुश्वारियों के बारे में कुछ नई जानकारियाँ मिलेंगी और मुमकिन है कि आपकी राय थोड़ी-सी बदल भी जाए।






प्रैक्टिकल गाइड
और पत्रकारिता (mass communication) के छात्रों के लिए तो यह प्रैक्टिकल गाइड की तरह है। खबरों की खोज में किन हालात से गुजरना पड़ता है, कितने खतरों का सामना करना पड़ता है, कितनी तरह की चुनौतियों से जूझना पड़ता है और खबर कैसे निकलती है, यह इस किताब की 75 कहानियों को पढ़ते हुए बड़ी आसानी से समझ आ जाता है। जैसा कि ब्रजेश एक जगह टिप्पणी करते हैं- ‘समाचार चैनल की नौकरी में भागादौड़ी, कवायद और कसरत बहुत ज्यादा है। काम घंटों का है, तो स्टोरी मिनटों और सेकंड्स की’, यह किताब बताती है कि किसी हल्की-फुल्की स्टोरी को बनाने के लिए भी कितने पापड़ बेलने पड़ते हैं।

यह गलतफहमियाँ भी दूर करती है। मसलन, पाठक जान पाता है कि खबरिया चैनलों का कामकाज उतना सुविधायुक्त और ग्लैमरस नहीं है, जैसा लगता है। यही नहीं, पत्रकार को सर्वेसर्वा मानने वालों को भी यह जानकर झटका लग सकता है कि यह तो वास्तव में पर्दे के पीछे रहने वाले प्रोड्यूसर का माध्यम है। अपने शो को लेकर वह क्या पका रहा है, उसमें रिपोर्टर की बहुत छोटी भूमिका होती है।

तो यह किताब दरअसल क्या है? यह रोमांचक सफर का वर्णन है। यह जमीनी हकीकत का दस्तावेज है। इसमें टीवी रिपोर्टिंग के संस्मरण हैं। यह एक ग्लैमरस समझे जाने वाले कार्यक्षेत्र की दुश्वारियों की दास्तान है। टीवी पत्रकारिता (mass communication) के छात्रों के लिए यह पाठ्यपुस्तक की तरह है। हर कोण से इसका एक अलग ही रंग नजर आता है। कुल मिलाकर ‘ऑफ द स्क्रीन; टीवी रिपोर्टिंग की कहानियाँ’ एक रोचक किताब है।

समीक्षक – विवेक गुप्ता

पुस्तक – ऑफ द स्क्रीन; टीवी रिपोर्टिंग की कहानियाँ

लेखक – ब्रजेश राजपूत

प्रकाशक – मंजुल पब्लिशिंग हाउस

पृष्ठ – 245

कीमत – 250 रुपए

(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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