प्रथम और अंतिम और अन्य सोनाली मिश्रा की कवितायें
प्रथम और अंतिम
अपने मिलन के प्रथम बिंदु पर
उसके माथे पर तुमने धर कर अपने होंठ,
खोल दिया पिटारा अपने पिछले प्रेमों का,
और कहा
"मैं नहीं छिपाना चाहता कुछ भी आज की रात"
और सम्बन्धों में ले आए पारदर्शिता की परत।
वह सकुचाई,
कुछ बोलने को थी ही,
कि तुम बोल पड़े फिर,
"मगर मैं जानता हूँ कि तुम्हारी ज़िन्दगी में
मैं ही आया हूँ सबसे पहले,
तुम तो शक्ल से ही लगती हो अनछुई,
ये, मैंने ही छुआ है तुम्हे सबसे "
वह भी बोलने को थी अपने प्रथम प्रेम की बात,
वह भी चाहती थी कि अपने जी को कर ले हल्का,
पर तुम्हारे गर्वित पौरुष की मुस्कान देखकर,
उसने तुम्हारे प्रथम की परिभाषा को समेट कर खुद में,
आँखों में छिपे आख़िरी पुरुष को धुंधला कर दिया।
तुमने देखा नहीं, पर मिलन के प्रथम बिंदु पर ही,
प्रथम अंतिम की परिभाषा में उलझ गए,
और
उधर उसके दिल में तहखाने में घुटन बढ़ रही थी,
और तुम उस घुटन से बेखबर मिलन के पन्ने पलट रहे थे,
उसका न पूछना,
आज तक किसने स्त्री के प्रेम को स्वीकार किया है।
मुझे पाना
ऐसा नहीं था कि बच गया था कुछ,
स्लीवलेस टॉप पर जाल
खुले बालों का,
और मुंह में पेन दबाकर सिमोन पढ़ना,
ऐसा नहीं था कि देखा नहीं था तुमने मेरा यह रूप!
तुम्हीं तो थे जो मुंह से मेरे ले लिया करते थे पेन,
और हाथों से लेकर किताब,
बंद कर देते थे लिहाफ का मुंह!
कितनी सहजता से सटाते थे किताब को कमरे के दरवाजे से,
वो तो मैं थी कि अपने कमरे में
तय करती थी किताबों का एक कोना भी!
ऐसा नहीं था कि तुम्हें पता नहीं था,
कि मेरे बालों को आज़ादी पसंद है!
मुझे पसंद है कोहरे की धुंध,
मुझे पसंद है रात को दो बजे जागना,
ऐसा नहीं था
तुम्हें मेरे बिंदासपन का अहसास नहीं था,
फिर भी,
संबंधों के मोह में तुमने दूर करनी चाही मेरी ज़मीन मुझसे,
ऐसा नहीं था, कि मेरा कुछ रह गया था अनछुआ तुमसे,
पर,
अधिकार से भ्रमित होकर तुम अनछुए को अनजान
करते गए!
तुम, प्रेम और अधिकार पर पुस्तकें लिखते गए,
और प्रेम से विमुख होते गए!
मुझे मुझसे परे करके खिड़की बंद कर क्या प्रेम का दरवाजा खोल पाए!
अधिकारों को हाट में लगाकर
मुझे पाना कहाँ सहज था!
नहीं नहीं! मुझे तो केवल तुम होकर ही पाना संभव था............
मुझे तो केवल सरलता से ही पाना संभव था,
खेमों का विमर्श
दोनों खेमों में चर्चाओं ने करवट ले ली,
एक ने सिगरेट सुलगाई
"बढ़ गयी है असहिष्णुता"
दूसरे खेमे ने भी उधर से सिगरेट सुलगाई
"उन लोगों ने आज तक किसी का सुना है,
जो अब सुनेंगे!"
पहला खेमा बहुत मुखर था,
और गाढ़ा धुँआ करते हुए बोला
"ओह! इन लोगों में तो है नहीं तमीज,
कुछ लिखने पढने की"
दूसरा खेमे पर अब चढ़ने लगा था सुरूर
वो बोला
"इन लोगों ने लिखा ही क्या है!"
पहला खेमे से कुछ लोग छिटके,
वे लिखने वाले रहे होंगे!
शायद उनका कोई रचना कर रही थी इंतज़ार!
दूसरे खेमे से भी कुछ लोग खिसक गए!
शायद,
उन्हें भी याद हो गया होगा कुछ जरूरी काम!
धीरधीरे एक एक कर खिसकते रहे सब,
और
कुछ ही देर में हो गया मैदान खाली
लोग छंट गए थे,
इंसान बंट गए थे,
बोल मगर दोनों के एक थे,
"हम रचेंगे साथी,
हम लिखेंगे साथी!"
खेमे टकरा रहे थे,
धुँआ भी सिगरेटों का टकरा रहा था!
मगर एक तरफ धुँआ घुलकर एक हो रहा था,
और विचारों का टकराव
और गाढ़ा हो रहा था!
तलवारों और कलम में अंतर और कम हो रहा था
जरूरी तो है ही
कई बार जरूरी है टूट जाए कई भ्रम,
टूट जाए यह भ्रम कि कहीं कोई इंतजार में है,
टूट जाए यह भ्रम कि कोई बरगद की छाँव पसारे है,
टूटना जरूरी है यह भ्रम कि कोई चुन्नी में
मुकेश टंकवा रहा है,
टूटना जरूरी है यह भ्रम कि कोई सम्हाल लेगा अगर गिरो तो,
बहुत बार जरूरी हो जाती है टूटन,
टूटन जो मन में विध्वंस करा दे,
टूटन जो सिले हुए सभी संवादों की सीवन खोल दे,
बहुत जरूरी है टूटना और एक बार फिर से पहुंच जाना शून्य पर,
अजनबियों की पंगत में खुद को बैठा देना,
जरूरी हो जाता है,
गुमनामियों से चर्चा करना,
सत्ता के मठों से दूर हो जाना,
चर्चाओं से भाग जाना,
खुद के लिए बनाए गए खांचों को तोड़ देना!
सच बहुत जरूरी है तोड़कर ऊपरी काया को
खुद को महसूस करना,
भ्रम को तोड़कर यथार्थ को अनुभव करना.
मगर जरूरी यह भी है कि हम
कैक्टस में खिले हुए फूलों को देख लें!
भ्रम को तोड़ना और जीवन से विमुखता दोनों पृथक पृथक हैं,
भ्रम की दीवारें तोड़कर खुद को पा लेना
अमृत यही है
और आज मैंने तोड़ दिए हैं कई भ्रम,
जेठ की दोपहरी में नंगे पाँव खड़ी हो गयी हूँ,
पक्के आंगन में,
जलने दे रही हूँ,
मगर भ्रम की छाँव से बेहतर है पाँव में यथार्थ के छाले पड़ जाना,
ऐसे ही स्त्री मजबूत नहीं हुई है.
उसके पैरों के ऊपर भले ही भ्रम का कोहरा रहा हो,
तलवों ने तो सदा जलन ही पाई है.
डिज़ाईनर लोक की कवितायेँ
बहुत दिन नहीं हुए, जब कविता का दर्द
पगडंडियों पर लगती हुई चोट से उभरता था,
नहीं बहुत दिन नहीं हुए, जब कबीर चाकी
में पिसते हुए घुन को देखते थे और लिख डालते थे,
उसकी व्यथा!
बहुत दिन कहाँ हुए जब मीरा देखती थी कान्हा को
और पी जाती थी विष हँसते हँसते!
नहीं! बहुत दिन नहीं हुए, जब कंक्रीट के जंगलों से दूर
बसती थी सभ्यताएं, और होती थी चर्चाएँ!
और रचे जाते थे लोक गान,
रची जाती थीं लोक धुन!
माटी की सौंधी सौंधी गंधों में स्त्री गंध के घुलने को
महसूस करती थी रचनाएं!
अब उस सौंधेपन का अहसास देने के लिए
विशेषीकृत ए.सी. हैं!
और उन ए.सी. के बीच बंद दरवाजों में बैठी हुई
कृत्रिम संवेदनाएं!
अब बुद्धिजीवियों का दर्द ट्विटर और फेसबुक पढ़कर जागता है!
डिज़ाईनर पत्रकारों की पत्रकारिता से पैदा होता है विमर्श!
स्विफ्ट के नए मॉडल पर बैठकर ई-रिक्शा की समस्याओं
पर चलाते हैं कलम!
प्रायोजित संसार में रच जाते नए लोक!
रेगिस्तान में बैठकर एस्किमो पर कलम चलाना
कितना कठिन है,
और चाहते हो कबीर बन जाना,
बिना राम को जाने तुलसी बन जाना!
बिना कृष्ण को जाने सूर और मीरा बन जाना!
कपड़ा बुनने के लिए धागा जरूरी है मित्र,
डिज़ाईनर बाज़ार एक दिन सूखेगा याद रखना,
फिर चाहे, विमर्श हो, संवेदना हो या फिर रचना ही...........
बचेगा वही जो लोक से उपजेगा,
डिज़ाईनर लोक नहीं, मिट्टी के लोक से!
मिट्टी की देह एक दिन मिट्टी में ही मिल जाएगी...........
1 टिप्पणियाँ
बेहतरीन.... शानदार
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