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निदा फ़ाज़ली की शायरी से इतर — अब कहाँ दूसरे के दुख से दुखी होने वाले |


निदा फ़ाज़ली की शायरी से इतर

— अब कहाँ दूसरे के दुख से दुखी होने वाले

गर्मी है. बच्चों की छुट्टी है. आज सूरज को दिल्ली को ४० डिग्री के ऊपर तपाते हुए चौथा दिन है. बच्चों के साथ कमरे में मैं और सिम्बा गर्मी से वातानुकूलित माहौल में आराम से बैठे हैं. आरुषि ने फिनियस एंड फर्ब कार्टून से जुड़ी बात करते हुए बताया कि उसके एक एपिसोड में डॉ डूफेन स्मर्टज़ ने एक ऐसा द्वीप बनाया था जो गुब्बारे में हवा भरने की तरह इन्फ्लेट किया जा सकता था. इस पर ज्योत्स्निका को बम्बई रिक्लेमेशन याद आ गया.
जैसा कि आप जानते होंगे: बम्बई सात अलग-अलग द्वीपों को जोड़ कर बनाया गया एक भूखंड है. जिसमें बम्बई रेजीडेंसी के गवर्नर विलियम हॉर्नबी का बड़ा सहयोग है. विलियम हार्नबी ने उस विशाल तटीय दीवार हार्नबी वेलार्ड ,1784 को बनाने की अनुमति दी जिससे निचले इलाकों में आने वाली बाढ़ को रोका जा सका... खैर ज्योत्स्निका ने पूछा "पापा रिवर लैंड को रेक्लैम कैसे करते हैं?" मैंने उसे कभी दिल्ली के राजघाट और लाल किले के पीछे बहने वाली यमुना के बारे में बताया...और तब आरुषि और ज्योत्स्निका दोनों ही को निदा फाज़ली साहब का वह लेख याद आ गया जिसमें बम्बई में आने वाली भीषण बाढ़ का ज़िक्र है... जिसमें एक कबूतर के अंडे के फूट जाने पर उनकी माँ दिन भर व्रत रखती हैं, रोती हैं कि उन्होंने किसी के घर (घोंसले) को छेड़ा. यहाँ मेरे कान खड़े हुए कि निदा साहब का ऐसा कौन सा आलेख है कि बच्चों के दिल पर राज़ कर रहा है... लेख तलाशा गया. सीबीएसई कक्षा १० की 'हिंदी स्पर्श' पुस्तक का वह  लेख अब कहाँ दूसरे के दुख से दुखी होने वालेअब यहाँ लगा रहा हूँ कि शायद आप भी पढ़ना/जानना चाहें!

भरत एस तिवारी
1 जून 2019

Coloured aquatint of 'An elevated view of the Islands of Bombay and Salsette' by J. S. Barth and published by R Cribb in London in 1803


अब कहाँ दूसरे के दुख से दुखी होने वाले

— निदा फ़ाज़ली 

बाइबिल के सोलोमेन जिन्हें कुरआन में सुलेमान कहा गया है, ईसा से 1025 वर्ष पूर्व एक बादशाह थे। कहा गया है, वह केवल मानव जाति के ही राजा नहीं थे, सारे छोटे-बड़े पशु-पक्षी के भी हाकिम थे। वह इन सबकी भाषा भी जानते थे। एक दफा सुलेमान अपने लश्कर के साथ एक रास्ते से गुजर रहे थे। रास्ते में कुछ चींटियों ने घोड़ों की टापों की आवाज सुनी तो डर कर एक-दूसरे से कहा, ‘आप जल्दी से अपने-अपने जिलों में चलो, फ़ौज आ रही है। सुलेमान उनकी बातें सुनकर थोड़ी दूर पर रुक गए और चींटियों से बोले, ‘घबराओ नहीं, सुलेमान को खुदा ने सबका रखवाला बनाया है। मैं किसी के लिए मुसीबत नहीं हूँ, सबके लिए मुहब्बत हूं।' चींटियों ने उनके लिए ईश्वर से दुआ की और सुलेमान अपनी मंज़िल की ओर बढ़ गए।

ऐसी एक घटना का जिक्र सिंधी भाषा के महाकवि शेख अयाज़ ने अपनी आत्मकथा में किया है। उन्होंने लिखा है -- 'एक दिन उनके पिता कुएँ से नहाकर लौटे। माँ ने भोजन परोसा। उन्होंने जैसे ही रोटी का कौर तोड़ा। उनकी नज़र अपनी बाजू पर पड़ी। वहाँ एक काला च्योंटा रेंग रहा था। वह भोजन छोड़कर उठ खड़े हुए। माँ ने पूछा, 'क्या बात है? भोजन अच्छा नहीं लगा शेख अयाज़ के पिता बोले, 'नहीं, यह बात नहीं है। मैंने एक घर वाले को बेघर कर दिया है। उस बेघर को कुएँ पर उसके घर छोड़ने जा रहा हूँ।'

बाइबिल और दूसरे पावन ग्रंथों में नूह नाम के एक पैगंबर का जिक्र मिलता है। उनका असली नाम लशकर था, लेकिन सब ने उनको नूह के लकब से याद किया है। वह इसलिए कि आप सारी उम्र रोते रहे। इसका कारण एक जख्मी कुत्ता था। नूह के सामने से एक बार एक घायल कुत्ता गुजरा। नूह ने उसे दुत्कारते हुए कहा, 'दूर हो जा गंदे कुत्ते!'  इस्लाम में कुत्तों को गंदा समझा जाता है। कुत्ते ने उनकी दुत्कार सुनकर जवाब दिया...'न मैं अपनी मर्जी से कुत्ता हूँ, न तुम अपनी पसंद से इनसान हो। बनाने वाला सबका तो वही एक है।‘

मट्टी से मट्टी मिले,
खो के सभी निशान। 
किसमें कितना कौन है,
कैसे हो पहचान।। 

नूह ने जब उसकी बात सुनी तो दुखी हो मुद्दत तक रोते रहे। 'महाभारत' में युधिष्ठिर का जो अंत तक साथ निभाता नजर आता है, वह भी प्रतीकात्मक रूप में एक कुत्ता ही था। सब साथ छोड़ते गए तो केवल वही उनके एकांत को शांत कर रहा था।

दुनिया कैसे वजूद में आई? पहले क्या थी? किस बिंदु से इसकी यात्रा शुरू हुई? इन प्रश्नों के उत्तर विज्ञान अपनी तरह से देता है, धार्मिक ग्रंथ अपनी-अपनी तरह से। संसार की रचना भले ही कैसे हुई हो लेकिन धरती किसी एक कोकी नहीं है। पंछी, मानव, पशु, नदी, पर्वत, समंदर आदि को इसमें बराबर की हिस्सेदारी है। यह और बात है कि इस हिस्सेदारी में मानव जाति ने अपनी बुद्धि से बड़ी-बड़ी दीवारें खड़ी कर दी हैं। पहले पूरा संसार एक परिवार के समान था अब टुकड़ों में बँटकर एक-दूसरे से दूर हो चुका है। पहले बड़े-बड़े दालानों-आँगनों में सब मिल-जुलकर रहते थे अब छोटे-छोटे डिब्बे जैसे घरों में जीवन सिमटने लगा है। बनी हुई आबादियों ने समंदर को पीछे सरकाना शुरू कर दिया है, पेड़ों को रास्तों से हटाना शुरू कर दिया है, फैलते हुए प्रदूषण ने पंछियों को बस्तियों से भगाना शुरू कर दिया है। बारूदों की विनाशलीलाओं ने वातावरण को सताना शुरू कर दिया। अब गरमी में ज्यादा गरमी, बेवक्त की बरसातें, जलजले, सैलाब, तूफ़ान और नित नए रोग, मानव और प्रकृति के इसी असंतुलन के परिणाम हैं। नेचर की सहनशक्ति की एक सीमा होती है। नेचर के गुस्से का एक नमूना कुछ साल पहले बंबई (मुंबई) में देखने को मिला आ और यह नमूना इतना डरावना था कि बंबई निवासी डरकर अपने-अपने पूजा-स्थल में अपने खुदाओं से प्रार्थना करने लगे थे।

कई सालों से बड़े-बड़े बिल्डर समंदर को पीछे धकेल कर उसकी जमीन को हथिया रहे थे। बेचारा समंदर लगातार सिमटता जा रहा था। पहले उसने अपनी फैली हुई टाँगें समेटीं, थोड़ा सिमटकर बैठ गया। फिर जगह कम पड़ी तो उकडूँ बैठ गया। फिर खड़ा हो गया...जब खड़े रहने की जगह कम पड़ी तो उसे गुस्सा आ गया। जो जितना बड़ा होता है उसे उतना ही कम गुस्सा आता है। परंतु, आता है तो रोकना मुश्किल हो जाता है, और यही हुआ, उसने एक रात अपनी लहरों पर दौड़ते हुए तीन जहाजों को उठाकर बच्चों की गेंद की तरह तीन दिशाओं में फेंक दिया। एक वर्ली के समंदर के किनारे पर आकर गिरा, दुसरा बांद्रा में कार्टर रोड के सामने औंधे मुंह और तीसरा गेट-वे-ऑफ़ इंडिया पर टूट-फूटकर सैलानियों का नजारा बना बावजूद कोशिश, वे फिर से चलने-फिरने के काबिल नहीं हो सके।

मेरी माँ कहती थीं, सूरज ढले आँगन के पेड़ों से पत्ते मत तोड़ो, पेड़ रोएँगे। दीया-बत्ती के वक्त फूलों को मत तोड़ो, फूल बद्दुआ देते हैं।... दरिया पर जाओ तो उसे सलाम किया करो, वह खुश होता है। कबूतरों को मत सताया करो, वे हज़रत मुहम्मद को अज़ीज़ हैं। उन्होंने उन्हें अपनी मज़ार के नीले गुंबद पर घोंसले बनाने की इजाज़त दे रखी है। मुर्गों को परेशान नहीं किया करो, वह मुल्ला जी से पहले मोहल्ले में अजान देकर सबको सवेरे जगाता है —
सब की पूजा एक-सी, अलग-अलग है रीत।
मस्जिद जाए मौलवी, कोयल गाए गीत।। 

ग्वालियर में हमारा एक मकान था, उस मकान के दालान में दो रोशनदान थे। उसमें कबूतर के एक जोड़े ने घोंसला बना लिया था। एक बार बिल्ली ने उचककर दो में से एक अंडा तोड़ दिया। मेरी माँ ने देखा तो उसे दुख हुआ। उसने स्टूल पर चढ़कर दूसरे अंडे को बचाने की कोशिश की। लेकिन इस कोशिश में दूसरा अंडा उसी के हाथ से गिरकर टूट गया। कबूतर परेशानी में इधर-उधर फड़फड़ा रहे थे। उनकी आँखों में दुख देखकर मेरी माँ की आँखों में आँसू आ गए। इस गुनाह को ख़ुद से मुक्त कराने के लिए उसने पूरे दिन रोजा रखा। दिन-भर कुछ खाया-पिया नहीं। सिर्फ़ रोती। रही और बार-बार नमाज पढ़-पढ़कर ख़ुदा से इस गलती को मुआफ़ करने की दुआ माँगती रही।

ग्वालियर से बंबई की दूरी ने संसार को काफ़ी कुछ बदल दिया है। वर्सोवा में जहाँ आज मेरा घर है, पहले यहाँ दूर तक जंगल था। पेड़ थे, परिंदे थे और दूसरे जानवर थे। अब यहाँ समंदर के किनारे लंबी-चौड़ी बस्ती बन गई है। इस बस्ती ने न जाने कितने परिंदों-चरिंदों से उनका घर छीन लिया है। इनमें से कुछ शहर छोड़कर चले गए हैं। जो नहीं जा सके हैं उन्होंने यहाँ-वहाँ डेरा डाल लिया है। इनमें से दो कबूतरों ने मेरे फ्लैट के एक मचान में घोंसला बना लिया है। बच्चे अभी छोटे हैं। उनके खिलाने-पिलाने की जिम्मेदारी अभी बड़े कबूतरों की है। वे दिन में कई-कई बार आते-जाते हैं। और क्यों न आएँ-जाएँ आखिर उनका भी घर है। लेकिन उनके आने-जाने से हमें परेशानी भी होती है। वे कभी किसी चीज को गिराकर तोड़ देते हैं। कभी मेरी लाइब्रेरी में घुसकर कबीर या मिर्जा गालिब को सताने लगते हैं। इस रोज-रोज की परेशानी से तंग आकर मेरी पत्नी ने उस जगह जहाँ उनका आशियाना था, एक जाली लगा दी है, उनके बच्चों को दूसरी जगह कर दिया है। उनके आने की खिड़की को भी बंद किया जाने लगा है। खिड़की के बाहर अब दोनों कबूतर रात-भर खामोश और उदास बैठे रहते हैं। मगर अब न सोलोमेन है जो उनकी जुबान को समझकर उनका दुःख बाँटे, न मेरी माँ है, जो इनके दुखों में सारी रात नमाज़ो में काटे
नदिया सींचे खेत को, तोता कुतरे आम। 
सूरज ठेकेदार–सा, सबको बाँटे काम।।


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