वागर्थ’ में प्रकाशित अनुज की कहानी 'पंजा'



'वागर्थ' में प्रकाशित अनुज की कहानी 'पंजा'

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लूटमार की बुराई समाज के सामने लाने वाला साहित्य लूटमार को ग्लोरीफाई करेगा क्या? लूटमार से जुड़ी घटनाओं को उसकी नग्नावस्था में पाठक के सामने रखा जाये तो उसे डरावना-लेखन (हॉरर) कहा जाए कि साहित्य? लेखन के मूल में लेखक की मानसिकता होती है। यह मानसिकता उस बुराई को सामाजिक अनुमति दिये जाने की वकालत करती हो सकती है या फिर समाज के अवचेतन को उस बुराई से फ़ौरन बचने के लिए आगाह करती। ऐसा भी हो सकता है कि एक वर्ग उस बुराई को बुरा माने ही नहीं जिसे बाकि समाज गलत मानता है। इसी प्रकार हमारे समाज में सेक्स से जुड़ी ऐसी व्यथाएं, ऐसे अभिशाप हो सकते हैं जिन्हें समाज के सामने लाना आवश्यक हो। यहाँ भी लेख/खिका की मानसिकता ही दिशा तय करेगी कि कहानी यौनिकता से जुड़े उस मुद्दे को नग्नावस्था में पेश करते हुए बिकाऊ बनाती है या फिर उस अभिशाप को केंद्र में रखती है। हिंदी में साहित्य के नाम पर जिस तरह जिस्मानी हरकतें परोसी जा रही हैं ऐसे में वागर्थ में प्रकाशित और अब आप सुधि पाठकों के लिए शब्दांकन में प्रकाशित हो रही अनुज की कहानी ‘पंजा’ उस लेख/खिका को नहीं पढ़नी चाहिए जो पोर्न की मार्किट में साहित्य के नाम पर सेंध लगा रहे हैं और साहित्य को पोर्न...

भरत  एस तिवारी

अनुज की 'नयी' कहानी

पंजा 

— अनुज 
                           
मीनाक्षी ने कलाई घड़ी की ओर देखा, "इतनी देर....!
मीनाक्षी भुनभुनाती हुई होटल की लॉबी में पड़े सोफे में धँस गई। सामने के शीशे वाले मुख्यद्वार पर खड़ा बड़ी-बड़ी मूँछों वाला संतरी मेहमानों का अभिवादन कर उन्हें अन्दर दाखिल करा रहा था। कोने की दोनों दीवारों के बीच लगा लिफ्ट ऊपर-नीचे होता हुआ रंग-बिरंगे पुतलों को अनवरत ढो रहा था। शीशे से बने मुख्य-द्वार का स्वचालित दरवाज़ा खुलता, एक आकृति बनती और फिर क्षणभर में विलीन हो जाती। मीनाक्षी आते-जाते लोगों को देखकर यह सोच रही थी कि आख़िर लोगबाग किस बात पर इतना हँसते-खिलखिलाते रहते हैं!

मीनाक्षी ने फिर से घड़ी देखी। मीनाक्षी को किसी का इन्तज़ार करने से मुश्क़िल काम कुछ और नहीं दिखता था। इसी बात को लेकर तो आए दिन नलिन से लड़ाई भी हो जाया करती थी। लेकिन नलिन था कि अपनी आदत से मजबूर था। प्राय: फोन करके मीनाक्षी को बुला लिया करता, "मीना, ऐसा करो, प्रिया थियेटर आ जाओ, पिक्चर देखते हैं। मैं दफ़्तर से सीधे थियेटर ही पहुँच जाऊँगा।"

थियेटर के आगे पहुँचकर मीनाक्षी इन्तज़ार करती रहती और जनाब दफ़्तर के काम में उलझे रह जाते। कई बार तो मीनाक्षी पैर पटकती हुई वापस लौट जाया करती थी। फिर उसे मनाने के लिए नलिन को जाने क्या-क्या जतन नहीं करने पड़ते थे! मीनाक्षी को रूठने-मनाने का यह खेल ख़ूब भाता था।

मीनाक्षी झिड़कते हुए कहती, "तुम यह क्यों नहीं समझना चाहते हो नलिन कि यहाँ अकेली खड़ी औरत को लोग किन-किन नज़रों से देखा करते हैं। मैं यहाँ खड़ी रहती हूँ और लोगबाग न जाने मेरे बारे में क्या-क्या सोचते रहते होंगे। मुझे लोगों का इसतरह से घूरना बिल्कुल अच्छा नहीं लगता।"

इस झिड़की के पीछे के निश्छल प्यार को भाँप कर नलिन गदगद हो जाया करता था। लोगबागमु स्करा कर बोलता, "तुम हो ही इतनी ख़ूबसूरत और शानदार कि कोई भी घूरने से बाज न आए।" नलिन की बातों पर मीनाक्षी इतरा उठती।

एलिवेटर म्यूज़िक की धुन तेज़ होकर शोर में तब्दील होती जा रही थी। दूर कहीं अँधेरे में कोलाहल बढ़ता जा रहा था। लेकिन कुछ भी साफ-साफ सुनाई नहीं दे रहा था। इतने लोग एक साथ क्यों बोल रहे हैं? इतने लोग एक जगह क्यों इकट्ठा हो गए हैं? कुछ भी पता नहीं चल पा रहा था। सब कुछ जैसे गर्त में समाता जा रहा था। शोर भी जैसे एक सुर में तब्दील होकर कुछ गुन-गुन-गुन-गुन सा करने लगा था। दूर अंधेरी खाई में लोग डूबने-उतराने लगे थे! मीनाक्षी की आँखें अब बोझिल होने लगी थीं....

किट्टी ख़त्म हो चुकी थी। साड़ी का पल्लू सम्भालती हुई मीनाक्षी तेज क़दमों से कमरे से बाहर निकल आई थी। आज की किट्टी उसके नाम की नहीं निकली थी। इसबार की पहली किट्टी पर मिसेज भल्ला ने क़ब्ज़ा जमा लिया था, हालांकि मीनाक्षी को इसकी सख़्त ज़रूरत थी। यदि वह चाहती तो अपनी मजबूरी का हवाला देकर आज की किट्टी अपने नाम करा सकती थी, लेकिन इसमें माली हालत की कलई खुल जाने का ख़तरा था। वह सब कुछ सह सकती थी, लेकिन यह नहीं कि सहेलियों में कोई उसे नीचा दिखाए। आख़िरकार, मान-सम्मान और इज्ज़त जैसे शब्द अपनों के बीच ही तो अर्थ पाते हैं!
मीनाक्षी सीढ़ियों से उतरकर नीचे आ गई थी। अब जाकर उसे थोड़ी राहत महसूस हो रही थी। दुधिया गर्दन पर पसीना चुहचुहा रहा था। पसीने का असर उसके बालों पर भी दिख रहा था। बाल उलझे जा रहे थे। एक समय था जब वह बालों को लेकर बहुत सचेत हुआ करती थी। लेकिन अब इतना वक़्त ही कहाँ था बालों के लिए! फिर भी, उसके बाल उसकी उम्र का लिहाज़ नहीं छोड़ रहे थे। मीनाक्षी अन्य महिलाओं की तरह पार्कों के चक्कर तो नहीं लगा पाती थी, लेकिन उसकी उम्र अभी भी बाक़ी सहेलियों के मुक़ाबले बहुत कम ही दिखती थी।

इस शहर में घर बसाए हुए उसे अभी दो-ढाई वर्ष ही हुए थे। पति के दिल्ली ट्रांस्फर हो जाने से सब कुछ अस्त-व्यस्त हो गया था। मीनाक्षी के पिताजी भी इंजीनियर थे। किन्तु, पिता और पति की कमाई में बड़ा फ़र्क था। पिताजी जब तक नौकरी में रहे, पी.डब्ल्यू.डी. के दबंग इंजीनियर गिने जाते रहे। नौकर-चाकरों की कमी नहीं रही। साइट पर काम करने वाले मजदूरों के एक बड़े जत्थे के साथ ठेकेदार भी हमेशा ख़िदमत में लगे रहते थे। पैसों की तंगी तो मीनाक्षी को कभी छू कर भी नहीं गयी। पिताजी शाहख़र्च थे। उनकी कमाई से उनके दूर-दराज़ के रिश्तेदार भी तृप्त होते रहते थे। बचत फ़ितरत में थी नहीं, इसीलिए अपने चौथेपन के लिए कुछ जोड़ नहीं पाए थे। उनका मानना था कि वे लक्ष्मी के दरबान नहीं, स्वामी हैं। लेकिन जब सरकार ने उन्हें उम्रदराज़ होने का प्रमाण-पत्र दे दिया, तो लक्ष्मी ने भी साथ छोड़ दिया था। वे अफ़सोस तो करते थे, लेकिन अब तो चिड़िया खेत चुग चुकी थी। माँ चाहकर भी मीनाक्षी को कोई आर्थिक मदद नहीं दे पा रही थीं। इसीलिए उन्हें यह बात हमेशा सालती रहती थी कि उन्होंने मीनाक्षी की शादी किसी अमीर घर में क्यों नहीं की। उन दिनों, लेन-देन के लिए तो पैसे पर्याप्त थे ही, अच्छे रिश्तों की कमी तो होती नहीं! यूँ भी उनलोगों ने मीनाक्षी की शादी में कोई कसर तो उठा नहीं रखी थी।

माँ कुढ़ती रहती और पिताजी को यह कहते हुए उलाहना देती रहतीं, "अभी पैसा होता तो मीनाक्षी को दु:ख के दिन नहीं देखने पड़ते। जब अपनी अच्छी कमाई थी तो किसी की बात ही नहीं सुनते थे, जैसे सारी दुनिया की ठेकेदारी इन्होंने ही ले रखी हो। अब कहाँ पूछ रहे हैं वे सब लोग, जिनके लिए मरते रहते थे?"

पिताजी माँ के उलाहनों को भारी मन से चुपचाप सुन लिया करते थे। कुछ बोलते नहीं थे। क्या बोलते? माँ कुछ ग़लत तो बोल नहीं रही थी।  जल्दीपि ताजी माँ को बार-बार यह कह कर ढाढ़स बँधाते रहते कि, "लक्ष्मी का वास स्थाई नहीं होता, इसीलिए लक्ष्मी के जाने का मातम भी नहीं करना चाहिए। पैसा हो ही और लड़की को ससुराल में प्यार और मान-सम्मान नहीं मिले, तो इसका क्या फ़ायदा। अपना दामाद हीरा है। पैसे तो आते-जाते रहते हैं। अब अगर नहीं हैं, तो इसमें अपना सिर फोड़ लेने से ही क्या बनेगा?"

शायद यह सब कहते हुए पिताजी अन्दर की कसक पी जाते थे। मीनाक्षी के ससुराल में सब खु़शहाल थे। भाई-भाई के बीच दशरथ-पुत्रों सा प्यार था। परिवार के अन्य सभी सदस्यों के बीच भी आपसी सौहार्द्र ख़ूब था, लेकिन चरण-स्पर्श और आशीर्वाद के अलावा किसी चीज़ के लेन-देन का कोई रिवाज़ नहीं था। मीनाक्षी को भी इस बात का मलाल रहता था कि पिताजी ने उसकी शादी में थोड़ी जल्दी कर दी थी। लेकिन अब कोई उपाय भी तो नहीं था! कुछ बदल तो सकता नहीं था! इसीलिए, उसने भी अपनी स्थिति को नियति मान, अपने आप को समझा लिया था।

नलिन मीनाक्षी को पाकर बहुत ख़ुश था। मीनाक्षी को भी नलिन से कोई शिक़ायत नहीं थी। नलिन में सोचने की बीमारी नहीं थी, इसीलिए वह कम दुखी रहा करता था। लेकिन सरकार ने जब सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों को निजीकृत करने का फ़ैसला किया, तब नलिन की कंपनी भी लपेटे में आ गयी थी। उस समय नलिन के लिए भी सोचने का समय आ गया था। मुंबई और जामनगर की यूनिटें बंद हो गयी थीं। अधिकतर लोगों ने ‘गोल्डेन-हैंडशेक’ लेकर अपना ख़ुद का कोई कारोबार शुरु कर लिया था और जो बच गए थे, उन्हें दिल्ली की यूनिटों में स्थानान्तरित कर दिया गया था। नलिन भी अपना कोई व्यापार शुरु करना चाहता था। किन्तु, कहीं से कोई मदद ना मिलती देख, उसने अंतत: दिल्ली चले जाने का निर्णय ले लिया था।

दिल्ली में मीनाक्षी के चाचा रहते थे। पिताजी ने चाचा जी को यह खुशख़बरी दी कि जमाई जी का ट्रांस्फ़र दिल्ली हो गया है। यद्यपि नलिन किराये का घर लेकर अलग रहना चाहता था, लेकिन पिताजी के सामने एक ना चली। पिताजी का यह मानना था कि जब दिल्ली में अपना घर है ही, तो किराये के मकान में रहने की क्या ज़रूरत है?

मीनाक्षी के चाचा, उसके पिता की गोद में खेलकर बड़े हुए थे। वे घर में सबसे छोटे थे। पिताजी ने ही सारी उम्र उनकी देखभाल की थी। वे दिल्ली से ही पढ़े-लिखे थे। पढ़ाई-लिखाई के लिए एकबार जो दिल्ली आए, तो बस दिल्ली के ही होकर रह गये थे। एक नौकरी भी मिली थी, लेकिन चाकरी में मन नहीं रमा। व्यापार करने लगे और अब तो चाचा जी ने दिल्ली में अपना अच्छा-खासा कारोबार फैला लिया था।

 चाचा जी का सफ़दरजंग इन्क़्लेव जैसे अर्धपॉश माने जाने वाले इलाक़े में अपना मकान था। इस मुहल्ले में दो तरह के मकान थे। एक तो छोटे-छोटे सरकारी क्वार्टरों सरीखे दिखने वाले दिल्ली विकास प्राधिकरण के मकान थे, जो लगभग एक ही रंग-रूप के दिखते थे। दूसरी तरह के जो मकान थे, उन्हें वहाँ कोठी कहते थे। महानगरों की परिभाषा के अनुसार देखें तो छोटे शहरों में तो लगभग हर आदमी कोठियों में ही रहता है। किन्तु, महानगरों की तो बात ही कुछ और होती है! परिभाषाएँ बदल जाती हैं। महानगरों में ड्रेस और ऐड्रेस से आदमी की औक़ात आंकी जाती है और इसी पैमाने पर वह बड़ा या छोटा मान लिया जाता है। आप किस इलाक़े में रहते हैं, किस ब्रांड के कपड़े पहनते हैं, आपके पास कितनी गाड़ियाँ हैं, किस ब्रांड की शराब पीते हैं, आपके पास कितने क्लबों की मेम्बरशिप है, आपके बच्चे कौन से स्कूल में पढ़ते हैं, आप छुट्टियाँ बिताने कहाँ-कहाँ जाते हैं, आदि-आदि? ऐसे ही कई मानक थे जिनकी कसौटी पर महानगरों में इंसान बड़ा या छोटा मान लिया जाता था। मीनाक्षी को यह देखकर अजीब लगता था कि कोठियों में रहने वाले बच्चे डी.डी.ए. के मकानों में रहने वाले बच्चों के साथ मेल-जोल से परहेज़ रखते थे। बच्चों की मासूम सोच को वर्गीय चेतना में बाँटने वाले इस शहर का समीकरण मीनाक्षी के लिए एक अनबूझ पहेली जैसा ही था।

चाचा जी की भी अपनी एक कोठी थी। बड़ा-सा हॉल, कई बेडरूम, बड़ी-बड़ी बालकॉनियाँ, और भी न जाने क्या-क्या। परन्तु उसमें रहने वाला कोई नहीं था। चाचा जी तो प्राय: टूअर पर ही रहते थे, एक बेटी थी, लेकिन वह भी विदेश में रहती थी। एक बच गयीं बेचारी चाची। शायद उन्हें भी यह बड़ी-सी कोठी जैसे भुतहा ही दिखती थी, इसीलिए वे भी अपना ज्यादा समय पार्टियों और क्लबों में ही गुजारा करती थीं। नलिन और मीनाक्षी के आ जाने के बाद चाचा-चाची को अच्छा लगा था। इन दोनों के वास से उन्हें भी यह मकान, अब घर जैसा ‍दिखने लगा था। लेकिन थोड़े ही दिनों में चाचा-चाची के दिलों से बड़ी उनकी यह कोठी मीनाक्षी और नलिन को तंग दिखने लगी थी और वे अपने लिए एक किराये के मकान की तलाश में जुट गए थे।

दिल्ली जैसे शहर में किराये का मकान ढूँढ़ना भी कोई आसान काम तो था नहीं! नलिन का विचार था कि चाचा जी के घर के आस-पास रहना ही उचित होगा। इस अजनबी शहर में अपना कहने के लिए एक चाचा जी ही तो थे! मीनाक्षी तो सबअर्ब में कहीं किसी सस्ते से मकान में रहने की हिमायती थी। लेकिन उसकी कहाँ चलने वाली थी। आख़िर नलिन उससे अधिक समझदार था। पुरुष जो ठहरा! मीनाक्षी भी यही सोचती कि वह जो निर्णय लेगा, ठीक ही लेगा! चाची नलिन की इस सोच की समर्थक थीं। अंतत: चाची ने पहल की और उनके प्रयास से पास की ही एक कोठी के पिछले हिस्से में किराये का एक छोटा-सा मकान मिल गया।

इस इलाक़े की लगभग हर कोठी का पिछला हिस्सा किरायेदारों से पटा पड़ा होता था। कई कोठियों में तो मकान मालिक ही पीछे के हिस्से में रहना पसंद करते थे। ऐसे मकान मालिक यह कहते थे कि सामने वाले हिस्सों में कोलाहल अधिक होता है इसीलिए वे पीछे के हिस्सों में ही रहना पसंद करते हैं। किन्तु, मीनाक्षी धीरे-धीरे इस बात को समझने लगी थी कि ये बातें सिर्फ़ बातें हैं। उसे यह समझते भी देर न लगी कि यहाँ की ज़्यादातर कोठियाँ सिर्फ़ मकान हैं, घर नहीं। बड़ी-बड़ी कोठियों की बालकनियों से झांकते किरायेदारों के चेहरे कोठियों के मालिकों की माली हालत की कलई खोलते रहते थे।

मीनाक्षी का मकान चाची के घर से थोड़ी ही दूरी पर था। लिहाज़ा एक-दूसरे का आना-जाना लगा रहता था। मीनाक्षी इसबात को ख़ूब समझती थी कि साथ-साथ रहने से रिश्तों में खटास आ जाती है। ऐसे भी, महानगरों का चरित्र होता है कि मेहमान जबतक ड्रॉईंग-रूम में होता है, तभी तक प्रिय होता है।

 चाची का दिल्ली की बड़ी सोसायटी में उठना-बैठना था। चाची की संगत में रहते हुए मीनाक्षी भी अब आय से अधिक व्यय करने के तरीक़े सीखने लगी थी। बड़ी-बड़ी पार्टियों में जाना, मोटी रक़म वाली किट्टी डालना, अच्छे-अच्छे ब्रांडेड कपड़े, गहने और भी बहुत कुछ। अबतक मीनाक्षी की ख़रीदारी की जगहों और सामान की सूचियों में तब्दीली दिखने लगी थी।

 मीनाक्षी को क़ुदरत ने सुन्दरता तो दी ही थी, अच्छे पहनावे-पोशाक, प्रभावशाली व्यक्तित्व और हँसमुख भाव-भंगिमा से वह किसी भी पार्टी की जान बनने लगी और धीरे-धीरे पार्टियों में मीनाक्षी की माँग बढ़ने लगी थी। मीनाक्षी पर महानगरीय मुलम्मा चढ़ने लगा था। मीनाक्षी भी चाची की सोहबत में महानगर की उच्च कही जानवाली सोसायटी की औरतों के बीच उठने-बैठने लगी थी। इन औरतों को महानगरीय समाज में सोशलाइट कहने का चलन था। हालांकि मीनाक्षी भी उनमें शामिल होने लगी थी, लेकिन उसने अभी तक अपने उन संस्कारों को नहीं छोड़ा था जो माँ ने घर छोड़ने के समय उसे गठरी में बाँधकर थमा दिए थे। यही तो एक थाती थी जो माँ ने उसे दी थी। माँ की दी हुई शिक्षा आज भी उसे अंतरात्मा तक झकझोरती रहती थी। मीनाक्षी अपने नाते-रिश्तेदारों को साथ रखना चाहती थी और उसी क़स्बाई तरीके से रहना चाहती थी, लेकिन लाख़ कोशिशों के बावज़ूद उसकी आर्थिक हालत इस लायक नहीं हो पाती थी कि वह अपने सास-श्वसुर, देवर-ननद आदि को अपने साथ रख सके। आज के इस समाज में हमारे संस्कार और संस्कृति भी कब तक हमारे साथ-साथ चलेंगे और किस हद तक हमारा साथ देंगे, इसका निर्धारण भी शायद हमारी आर्थिक स्थिति से ही होता है।
नलिन एक सीधा-सच्चा आम मध्यवर्गीय व्यक्ति था। उसकी महत्त्वाकांक्षाएँ भी आम ही थीं - एक मध्यवर्गीय महत्त्वाकांक्षा। दफ़्तर जाना, अपना काम करना और दफ्तर से लौटकर अपने परिवार के बीच समय बिताना, यही दिनचर्या थी। हाँ, एक इच्छा थी जो बड़ी शिद्दत से उसे उद्वेलित करती रहती थी - "काश! मेरा भी अपना एक मकान होता।" अपने देश में इस अधूरे सपने के साथ कितने ही लोग इस दुनिया से चल बसते हैं कि उनका भी अपना एक मकान होता। नलिन को हाल-फ़िलहाल अपने मकान की कोई उम्मीद नहीं दिख रही थी। बहुत हाथ-पैर मारने के बाद भी वह अपने लिए एक मकान नहीं ख़रीद पा रहा था। फाइनेंस तो मिल रहा था लेकिन मकानों की ख़रीद-फ़रोख़्त में ‘ब्लैक ऐन्ड ह्वाइट’ का ऐसा झंझट था कि नलिन के सारे अरमान धरे-के-धरे रह जाते थे। मकान भी तो कोई ढंग का नहीं मिल रहा था। जो मकान पसंद आता था, जेब उसकी अनुमति नहीं देती थी, और ज़ेब जिसकी इजाज़त देती थी, वह मकान पसंद नहीं आता था। वह रिक्शे वालों और खोंमचे लगाने वालों के साथ किसी झुग्गी में रहना नहीं चाहता था, जबकि माली हालत इससे ऊपर की अनुमति नहीं दे रही थी! लक्ष्मी का सरस्वती से क्या मेल! वह अपने को यह समझाकर संतोष कर लेता था कि वह एक पढ़ा-लिखा इंसान है, आज-ना-कल उसकी हालत ठीक हो ही जाएगी। इस सोच मात्र से वह अचानक आत्मविश्वास से भर उठता था। वह सोचा करता था कि आज कंपनी की हालत ठीक  हो जाए या विदेश में कोई नौकरी मिल जाए तो सारा दु:ख ही दूर हो जाए। इन्हीं आस-निराश से जूझता हुआ नलिन मीनाक्षी को बार-बार यह समझाता रहता था कि उनके पास कोई मकान हो या ना हो, उनके पास एक घर तो है!

मीनाक्षी को जब से चाची का साथ मिला था, उसकी भौतिक महत्वाकांक्षाएँ बढ़ गयी थीं। उसे अब मध्यवर्गीय जीवन-शैली चिढ़ाने लगी थी। उसके सपने भी तो चाची ही बुनने लगी थीं। चाची बार-बार मीनाक्षी का इस गूढ़ ज्ञान से साक्षात्कार कराती रहतीं कि सपने उन्हीं के सच होते हैं जो सपने देखा करते हैं। लेकिन चाची ने अभी तक उन सपनों को साकार करने के तरीक़ों से मीनाक्षी का परिचय नहीं कराया था।

 चाचा जी ने चाची को पूरी आज़ादी दे रखी थी, या यों कहें कि चाची ने आज़ादी ले रखी थी। चाचा जी प्राय: शहर से बाहर ही होते थे। जब चाचा जी शहर से बाहर होते तो चाची के दूर के एक रिश्तेदार चाची के सुख-दुख का ख़्याल रखा करते थे। मीनाक्षी ने एक बार चाची से उनके बारे में पूछा तो चाची ने उन्हें दूर का रिश्तेदार बताया, जो रिश्ते में चाची के मौसा लगते थे। इसबात पर मीनाक्षी को थोड़ा आश्चर्य भी हुआ था।

उसने कौतूहलवश पूछ लिया था, "चाची, मौसा जी तो मराठी हैं, फिर वे अपने लोगों के रिश्तेदार किस प्रकार हुए ?"

चाची ने हँसकर टाल दिया था और उसे समझाया था कि उनकी मौसी ने लव-मैरिज की थी।

 मौसा जी एक बड़े बिजनेस मैन थे और काम के सिलसिले में प्राय: दिल्ली आया-जाया करते थे। चाचा जी जब कभी भी आर्थिक संकट में पड़ते, तो यही मौसा जी, चाची का लिहाज़ करके, संकट-मोचन बनते थे। चाची उनकी तारीफ़ करते नहीं थकती थीं और चाचा जी भी उनके अहसानों तले दबे मिमियाते रहते थे।

मौसा जी एक व्यवहार कुशल व्यक्ति थे। साठ की उम्र में भी कितने एनर्जेटिक थे! मीनाक्षी उनसे बहुत प्रभावित रहती थी। मौसा जी भी गाहे-बगाहे मीनाक्षी पर एक अन्दर तक धँस जाने वाली निगाह डाल ही दिया करते थे। उनकी धँस जाने वाली नज़रें देख मीनाक्षी झेंप जाया करती थी। मीनाक्षी की उम्र मौसा जी की उम्र के मुक़ाबले आधी से भी कम थी। मीनाक्षी की उनसे चाची के घर पर मुलाक़ात हो जाया करती थी, शायद इसीलिए वह अन्यथा नहीं लेती थी। उम्र का भी तो एक लिहाज़ होता ही है! चाची के रिश्ते से तो वे मीनाक्षी के नाना लगते, लेकिन मीनाक्षी उन्हें मौसा जी ही कहती थी, क्योंकि मौसा जी को स्वयं नाना कहलाना पसन्द नहीं था।

मीनाक्षी ने एकबार उनसे कहा था, "मौसा जी, मैं जब भी आपको देखती हूँ, आप अकेले ही आते हैं। मौसी को लेकर क्यों नहीं आते हैं? मैंने तो उन्हें अब तक देखा भी नहीं है।"

मौसा जी ने बात टालते हुए कहा था "मैं बिजनेस टूअर पर उसे साथ लेकर तो नहीं चल सकता ना। आप सब लोग पुणे चलें तो मुलाक़ात हो जाएगी।"

इसबात पर मीनाक्षी कुछ और नहीं बोल पाई थी।

नलिन ने प्रोविडेंट फंड से एडवांस के लिए आवेदन दे रखा था।

"नलिन बाबू, पिछले ही महीने तो आपने अपने फंड से बहुत से रूपये निकाले थे? अब फिर...!" बोलते हुए बड़े बाबू आश्चर्य से नलिन को देख रहे थे।

"हाँ, अचानक ज़रुरत आन पड़ी है," नलिन ने सकुचाते हुए कहा।

"लेकिन नलिन बाबू, अब तो आपके खाते में कुछ भी नहीं बचा है," बड़े बाबू ने कहा।

फिर थम कर बोले, "नलिन बाबू, अचानक इतनी बड़ी रक़म की क्या ज़रूरत आन पड़ी?"

"इसकी चिंता आपको नहीं करनी चाहिए।" नलिन तुनक कर बोला।

"मैं तो आपके भले के लिए ही सोच रहा हूँ...", बडे बाबू ने यह बोलते हुए अपनी झेंप मिटाई।

"आप अपने काम से काम रखिए", झिड़कते हुए नलिन बाहर निकल आया था।

नलिन के चेहरे पर परेशानी साफ दिख रही थी। कर्ज बढ़ता जा रहा था। यूँ तो महानगर की पूरी अर्थव्यवस्था ही कर्जे और किश्तों पर टिकी होती है, लेकिन नलिन इन कर्जों में कुछ ज्यादा ही डूबने लगा था। इसीलिए परेशान हो रहा था। क्रेडिट-कार्ड वाले भी तो इस तरह पेश आते हैं मानो मार ही डालेंगे! इनके गुंडों का भी तो पता नहीं चलता, कहाँ इज्ज़त उतार लें!  हाल ही में नलिन ने मीनाक्षी की ज़िद पर एक लक्ज़री गाड़ी ख़रीद ली थी, लेकिन समय पर किश्त जमा नहीं करा पाने के कारण फाइनेन्सर गाड़ी दरवाज़े से उठवा लेने की धमकी दे रहा था। अब दरवाज़े से गाड़ी उठ जाएगी तो जगहँसाई कितनी होगी! कोई नहीं देखे तो पचास बहाने बनाये जा सकते हैं, लेकिन सामने सबकुछ हो जाए तो फिर क्या हो! मध्यवर्गीय परिवार तो अपनी इसी झूठी इज्ज़त पर पर्दा डालते-डालते श्मशान तक पहुँच जाता है।

नलिन सोचता रहता था कि मीनाक्षी के हाथ खुल गए हैं। लेकिन यह सोच कर कुछ कह नहीं पाता था कि आख़िर मीनाक्षी को उसने अब तक दिया ही क्या है! यदि वह थोड़ा बहुत अपने शौक़ पर ख़र्च कर लेती है तो क्या जाता है। लेकिन, साथ ही नलिन को एक अज्ञात चिन्ता भी खाए जाती थी। वह इस सत्य से परिचित था कि यदि किश्ती में सुराख हो जाए तो उसका डूबना तय होता है। दूसरी तरफ, वह यह भी सोचता था कि सफदरजंग इन्क़्लेव में रहने का निर्णय तो उसी का था और घर की सभी सुख-सुविधाओं की चीज़ें फाइनेंस पर खरीदने का निर्णय भी उसी का था। मीनाक्षी तो चाचा जी के घर के पास रहना भी नहीं चाहती थी। दिखावे की शुरूआत तो नलिन ने ही की थी। उसकी पत्नी भी ऊँची सभा-सोसायटी में उठे-बैठे, यह उसी की इच्छा थी। मीनाक्षी तो अपनी चादर में ही रहना चाहती थी। किन्तु, यह सब सोच-सोच कर ख़ून जलाने से तो कुछ हासिल नहीं होने वाला था। नलिन जब बहुत परेशान होता था, तब अपने पिता की इस बात को याद करके अपने को समझाने का प्रयास करता था कि ‘समय सब ठीक कर देता है।’

हज़ारों ख्यालों में खोई मीनाक्षी को पता ही नहीं चला कि कब वह घर में दाख़िल हुई और कब चाची अन्दर आ गई।

"क्या बात है मीनाक्षी, क्यों उखड़ी हुई हो? कुछ हुआ क्या किट्टी में..?" चाची ने कंधा पकड़ कर हिलाया था।

"नहीं, कुछ भी नहीं, बच्चे खेलकर अभी तक लौटे नहीं हैं, इसीलिए चिंता हो रही है।"

"इसमें काहे की चिंता, यहीं पार्क में खेल रहे थे, आते ही होंगे", बोलते हुए चाची ने ढाढ़स बँधाया था। लेकिन चाची की अनुभवी निगाहें इस बेचैनी का कारण समझना चाह रही थीं।

वह बोल पड़ीं, "देखो मीनाक्षी, इस शहर में मेरे सिवाय तुम्हारा और कौन है? मुझसे नहीं बताओगी तो किससे कहोगी? बोलो, क्या बात है?"

"मीनाक्षी ने सकुचाते हुए कहा, "मुझे कुछ रूपयों की सख़्त ज़रूरत है। राशि बड़ी है इसीलिए परेशान हूँ। नलिन ने पूरी कोशिश की है, लेकिन हो नहीं पाया कुछ। आप कुछ कर सकती हैं?"

मीनाक्षी ने जब राशि बतायी तो चाची को अचरज हुआ और वे बोल पड़ीं, "इतना पैसा! इतने सारे रूपयों का क्या करोगी?" धनराशि का खुलासा सुनकर चाची विस्मय में थीं।

"बस चाहिए, काम है, इन्तज़ाम कर सकती हैं तो बताइये," मीनाक्षी ने रुखाई से कहा।

"मेरे पास तो नहीं है, तुम्हारे चाचा जी भी दो-तीन महीने बाद ही लौटकर आएँगे...", चाची ने मजबूरी दिखाई।

"इसीलिए तो नहीं बता रही थी..." मीनाक्षी ने भुनभुनाकर कहा। फिर थोड़ा थमकर बोली।

"मौसा जी कुछ मदद कर पाएँगे क्या? आप कहेंगी तो शायद......." मीनाक्षी ने दबी ज़ुबान में कहा।

मौसा जी का नाम सुनते ही चाची की आँखें मीनाक्षी पर गहरी जम गयी। चाची इसबात को ख़ूब अच्छी तरह से जानती थी कि मौसा जी मीनाक्षी की मदद करने के लिए किस तरह स्वयं लालायित थे।

बोल पड़ीं, " करती हूँ, मौका देखकर बात कर लेती हूँ।"
"ठीक है, आप पूछ लीजिएगा...मेरे सामने मत पूछिएगा, सही समय देखकर आप बात कर लीजिएगा," बोलते हुए जैसे मीनाक्षी थोड़ा सकुचा गयी थी।

"आज शाम में वे आने वाले हैं, मैं मौका देखकर बात करती हूँ, तुम चिन्ता मत करो," चाची के अंदाज़ में बेफ़िक्री थी। उन्होंने मीनाक्षी को टटोलने वाली नज़रों से देखते हुए पूछा,

"नलिन कब तक लौटेगा?"

"आज ही तो गए हैं, अभी सप्ताह लग जाएगा...," मीनाक्षी ने कहा।

इसबार चाची की भाव-भंगिमा देख मीनाक्षी के मन में जैसे कुछ हलचल सी हुई थी, लेकिन उसने इस बात पर कुछ ज्यादा ध्यान नहीं दिया था।

मौसा जी का अब मीनाक्षी से मिलना-जुलना बढ़ गया था। शुरुआती दौर में तो चाची साथ होतीं, लेकिन धीरे-धीरे उसकी झिझक भी जाती रही। अब चाची के होने की बहुत ज़रूरत नहीं रह गयी थी। मौसा जी अब चाची के ही नहीं, मीनाक्षी के लिए भी संकट-मोचन बनने लगे थे। आए दिन मौसा जी अपने काम के सिलसिले में बाहर जाते और जब लौटते तो कुछ-ना-कुछ कीमती उपहार मीनाक्षी के लिए लेते आते। अबतक मीनाक्षी को उनके कीमती उपहार भाने लगे थे, बल्कि धीरे-धीरे उसे इन महँगे चाँद-सितारों की आदत-सी पड़ने लगी थी। महँगे-महँगे उपहार, नामचीन रेस्टोरेन्ट्स में लंच-डिनर, बड़े-बड़े शो-रूम की शॉपिंग, शाम की आलीशान आउटिंग और पार्टियाँ, सबकुछ उसकी आदत में शुमार होता जा रहा था। जिसे एक बार चाँद-सितारों की आदत पड़ जाए, उसे फिर धरती कहाँ रास आती है! वह तो दिन-रात आसमान में ही उड़ना चाहता है। ज्यों-ज्यों मौसा जी का तिलस्म मीनाक्षी के सिर चढ़कर बोलता गया, नलिन के निश्चल प्यार का जादू भी जैसे टूटता गया। यह एक नई दुनिया थी, नलिन की कल्पना से परे की दुनिया। यहाँ नलिन के लिए कोई जगह थी भी नहीं।
मौसा जी और चाची ने मीनाक्षी का परिचय एक नए और आकर्षक तिजारती संसार से करा दिया था। इस संसार में सबकुछ बिकता था और हर चीज़ की कीमत तय होती थी। यहाँ कुछ भी मुफ्त में नहीं मिलता था। यह ऐसा संसार था जहाँ भावनाओं के लिए कोई स्पेस नहीं होता। अबतक तो मीनाक्षी भी इस नई दुनिया के रंग-ढंग में इस तरह से सराबोर हो चुकी थी कि सच मायने में उसके पास अपना कहने को कुछ बचा नहीं रह गया था। अब वह भी हाई क्लास दिखने वाली अपनी अन्य सहेलियों की तरह हेल्थ कॉन्शस हो गयी थी। इस संसार की एक ख़ास बात यह भी थी कि यहाँ आने के लिए तो कई दरवाज़े खुले होते थे, लेकिन यहाँ से वापस जाने के लिए कोई एक खिड़की भी खुली नहीं दिखती थी। मीनाक्षी भी इस नई दुनिया के गर्भ में इस तरह समा चुकी थी कि वहाँ से वापस लौटना शायद अब उसे भी संभव नहीं दिख रहा था।

न जाने ऐसे कितने ही खट्टे-मीठे ख़्यालों में खोई मीनाक्षी सामने की दीवार पर ऊपर-नीचे रेंगती लिफ्ट के शीशों में बंद आकृतियों को देखती हुई कभी सोफे से उठ जाती तो कभी इधर-उधर चहलकदमी करके फिर से सोफे में धँस जा रही थी। खुली आँखों से दिखे ख़्वाब और बंद आँखों से दिखे सपने आपस में इतने घुल-मिल गए थे कि पल में आते और चले जा रहे थे। आँखें खुल जातीं तो फिर कहाँ कुछ याद रह पाता! सब गड्डमड्ड हो रहा था। मीनाक्षी सोफे पर बैठी-बैठी कभी सो जाती और कभी जग जा रही थी।

अचानक कंधे पर एक चौड़ा पंजा आकर गिरा और अतीत से आँख-मिचौली ख़त्म हुई। वर्तमान मुँह खोले सशरीर सामने खड़ा था। होटल की लॉबी एलिवेटर म्यूज़िक की धुन में सराबोर थी। दीवार पर रेंगता हुआ लिफ्ट अपने काम में लगा हुआ था और जिंदा मांस के लोथड़ों को पूर्ववत ढो रहा था। हेल्प करने को आतुर ख़ूबसूरत लड़कियाँ इधर-उधर आ-जा रही थीं। फ़र्श इतने चमकदार थे कि अपना चेहरा साफ-साफ देखा जा सकता था, लेकिन फर्श से टकराकर रोशनी इतनी तेज बिखर रही थी, कि आँखें चुँधिया जा रही थी। सबकुछ धुँधला ही दिख रहा था।

"चलो...चलें....ज्यादा देर तो नहीं हुई?" यह मौसा जी का एक नज़दीकी रिश्तेदार था जिससे हाल ही में मौसा जी ने मीनाक्षी का परिचय कराया था।

"नहीं, कुछ खास नहीं...मैं भी अभी-अभी ही आई हूँ.....।" मीनाक्षी अतीत से वर्तमान में लौटते हुए मुस्कान बिखेरने लगी थी। इन बीते दिनों ने उसे अपनी खीझ पर नियंत्रण करना सिखला दिया था। तिजारती लोगों के बीच रहकर ही उसने सीखा था कि ज़िन्दगी में भावुकता भरी खीझ के लिए कोई जगह नहीं होती, और फिर कोई खीझे भी तो किसके भरोसे!

"तो फिर चलें", मौसा जी के उस नज़दीकी रिश्तेदार ने पूछा। उसके अंदाज़ में खुली लापरवाही थी।

"चलो....?" मीनाक्षी ने भी बे-परवाह होकर कहा था।
दोनों एस्कैलेटर की ओर बढ़ गए। एस्कैलेटर ऊपर उठने लगा। सामने बार-कम-रेस्टोरेंट दिखने लगा था। एस्कैलेटर पर उगते इन दो चेहरों पर कई दर्जन आँखें टिक आई थीं। हर मेज़ पर करीने से सजी हुई जलती मोमबत्तियों की रोशनी में लोगों के चेहरे भट्टी में तपते अंगारों से दिख रहे थे। अँधेरे और रोशनी की मुंडेर पर लुका-छिपी खेलते चेहरे, शायद मोमबत्तियों की लौ में अपने होने का अर्थ तलाश रहे थे। इस नए रिश्तेदार का काला और चौड़ा पंजा मीनाक्षी की दुधिया कमर पर जकड़ा हुआ, दूर से ही, साफ़-साफ़ दिख रहा था।
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(‘वागर्थ’, अप्रैल, 2019)

(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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