दामिनी यादव की कविता—अंडा-करी और आस्था



बाकी बहुत ज़्यादा बातें तो मैं जानती नहीं,
पर जो समझ पाती हूं वो और है
और जो समझाई जाती हूं वो और है...



अंडा-करी और आस्था

दामिनी यादव की कविता

आज वर्जित वार है,
मैंने दिन में अंडा-करी खाई थी
और शाम को दिल चाहा,
इसलिए अपने घर के मंदिर में,
बिना दोबारा नहाए ही जोत भी जलाई थी,
मैंने तुलसी के चौबारे पर भी रख दिया था एक दीया
और प्रेम-श्रद्धा भरी नज़रों से
जोत की जलती लौ को देखते,
उस पल के पल-पल को भरपूर जिया

मुझे नहीं मालूम कि ईश्वर को
मेरी ये श्रद्धा स्वीकार है
या उसे मेरे अंडा-करी खाने
और फिर बिन नहाए जोत जलाने पर
कोई ग़ुस्सा या ऐतराज़ है,

मुझे मालूम है कि धर्म के नाम पर
दुनिया में अधर्म है भरपूर
और मेरी दुनिया रहती है उसके नशे में चूर,
मगर ईश्वर क्या सोचता है इस बारे में?

मैं औरत हूं ये क्या कम आफ़त है,
उस पर मेरे सवाल जान-बूझ के बुलाई शामत हैं,
पर तुम्हें बताती हूं
कि मैं कैसे दीन और दुनिया को मिलाती हूं।

मैं जानती हूं कि देवियां कामाख्या के रूप में
रजस्वला होने पर भी पूजी जाती हैं,
वैष्णवी भी है रूप उन्हीं का,
पर वो कालिका के रूप में बलि भी चढ़वाती हैं,
और जैसा जो कोई कह देता है धरती पर वैसे ही,
वे कई रूपों-नियम-क़ायदों की भरमार से घिर जाती हैं,

पर ये दिल कुछ और कहता है
ये दुनिया कुछ और कहती है,
इसी के पेंडुलम में
मेरी आस्था भी हिलती-डुलती रहती है,
फिर भी मैं नहीं जानती ये बात कि
कौन सी बात मेरे और ईश्वर के बीच आती है।
कौन सी वजह को दुनिया मेरे और ईश्वर के बीच की
दूरी बताती है,

मैं दावे से कहती हूं कि मैंने ईश्वर को देखा है,
वो चिड़ियाघर में बंद चीते सा भी चीख़ता है,
खूंटे से बंधे लाचार कुत्ते सा भी रस्सी खींचता है,
वो केंचुए सा भी घिसटता है मेरे सामने ही कहीं,
और तितली के पंखों के खिले रंगों में भी
कहीं धनक बिखेरता है,
वो मंदिरों के भीतर पूजा जाता भी है
अपने सामने चढ़ावे चढ़वाता भी है
और फिर उसी मंदिर के बाहर की सीढ़ियों पर
किसी भिखारी के रूप में
दो रोटी को गिड़गिड़ाता भी है,
वो बच्चों के रूप में कभी शोर मचाता है
तो कभी किसी शराबी की औरत सा पीटा जाता है,

बाकी बहुत ज़्यादा बातें तो मैं जानती नहीं,
पर जो समझ पाती हूं वो और है
और जो समझाई जाती हूं वो और है,
मेरा ईश्वर तो मेरी आस्था में भी प्रकाश भरता है
पर हकीकत में वो
कीड़े-मकोड़ों, जानवरों के ज्यादा करीब लगता है
मेरा इंसान होना ही
मेरे और मेरे ईश्वर के बीच अड़ंगा बनता है,
और वो हर वक्त
धर्म-जाति-संप्रदाय और ऊंच-नीच के ख़ानों में बंटता है,

चौरासी लाख योनियों का विजेता होने पर भी
मुझे हमेशा आदर्श कथाओं के ज़रिये
यही बताया जाता है कि
ईश्वर से इंसान का डरना ज़रूरी है,
ईश्वर हमारे सवालों से
रूठता-कुढ़ता, खार खाता, प्रकोपित है होता,
और चरण वंदना-स्तुति व चढ़ावे से है पिघलता,

अपनी रचना होने की वजह से ईश्वर को है मुझसे प्यार
फिर भी मेरी की हुई कोई भी आलोचना या सवाल
नहीं होंगे ईश्वर को स्वीकार,
ऐसा ही कुछ ये समाज मुझे
अपनी कथाओं के इतिहास से बताता है।

इसे धर्म के नाम पर छलावा भी चाहिए,
और वरदान पाने को व्रत-उपवासों का बहाना भी चाहिए,
लेकिन मेरी आस्था को आडंबर का झुनझुना मत पकड़ाइए
और मेरे मन में चल रहे सवालों को पहले पार लगाइए,

मेरी ग्रह-दशा ठीक करने वाले ईश्वर को
शायद अपनी सुरक्षा की भी है दरकार,
इसीलिए उसके मंदिरों के लिए
जगह तय करती है मेरी सरकार,
वही तय करती है कि किस ईश्वर को देनी है कौन सी उपाधि
किस जगह वो जन्म लेगा और कहां लेगा जलसमाधि

वो मेरे ही वोट से चुने नेताओं सरीखा
मेरे ही कंधों पर रखकर कुर्सी अपने लिए चंदा जुटवाएगा,
फिर पुजारी के बंद कर दिए गए कपाटों
और उन पर जड़ दिए गए मोटे तालों के बीच
पंडों की ज़ेड प्लस सिक्योरिटी में मुझी से दूर बना
अपनी शुचिता भी बचाएगा!!!

बनिस्पत इसके,
कि मेरे लिए मेरा ईश्वर
सिर्फ़ मंदिरों-मूर्तियों-कर्मकांडों में नहीं,
मेरी सांसों में मेरे साथ बसता-धड़कता है,
वो रोज़ झेलता है मेरे साथ ही
मेरी मनसा-वाचा-कर्मणा की गंदगियां,
और रोज़ मेरे साथ ही धुलता है
अगर खुली आंखों से
अपने ईश्वर को कहीं किसी और नाम,
किसी और रूप में देखना चाहूं उसे
तो उसके नाम पर तो बहुत कुछ दिखता है
बस वही नहीं कहीं मिलता है,

उसका एक रूप मुझे तब भी दिखाया जाता है,
जब कर्म की नीयत को सबसे ऊपर बताया जाता है
लेकिन जब चार रक़ात नमाज़ को
मेरी आस्था-भरी बंधी नीयत से बढ़कर,
मेरी ‘नापाक़ी’ में उसकी नज़दीकी होना कुफ़्र बतलाया जाता है,
मेरे सूखे गले की रोज़ादार प्यास से बढ़कर
उसे मेरे शरीर की ये दशा घिनवाती है
और मेरे जिस्म और आस्था के बीच
यही बात दरार बन जाती है।

मैं औरों की नहीं,
सिर्फ़ अपनी ही बात करती हूं,
जहां भी देखती हूं
हर धर्म की कार्पेट के नीचे फैले हैं
पाखंड के कबाड़ बहुत
इनसे घिरे ईश्वर के पास
उसके रखवालों की है आड़ बहुत।

अंडा-करी ही नहीं, मैं मांस तक खाकर भी
पैदा कर सकती हूं यीशू-सरीखा ईश्वर का बेटा,
पर हाय रे दस्तूर ज़माने का,
ये निज़ाम है कैसा,
कि अपनी ही क़ुदरत, अपनी ही संरचना के ख़िलाफ़,
ईश्वर का बेटा भी
किसी पवित्र प्रेम भरी नज़दीकी से नहीं गढ़ता है,
बल्कि किसी ‘वर्जिन मैरी’ की ही गोद में पलता है।

अगर ये सारे सवाल मैं ज़माने से करूंगी
तो जवाबों में आते पत्थर भी मैं ही अपने माथे पे सहूंगी।
बेशक मेरे पास हैं सवाल बहुत,
पर उसके सही-सुलझे जवाबों का है अकाल बहुत,

तुम कहो कुल्टा मुझे या तुम कहो पाखंडी,
परवाह नहीं,
मैं तो अपने कर्म और मर्म के संतुलन को ही
अपना धर्म बनाऊंगी,
श्रद्धा-प्यार, सवाल और जवाबों के इंतज़ार के बीच,
मैं ईश्वर की आंख से आंख मिलाऊंगी,
और बार-बार अंडा-करी खाकर भी किसी वर्जित वार को ही,
बिन दोबारा नहाए मैं अपने ईश्वर के नाम पर
सिर्फ़ अपने ज़मीर की आवाज़ पर
यूं ही दीया जलाऊंगी।
नहीं आने दूंगी मैं अंडा करी को
अपनी आस्था के रास्ते में,
और जब भी जोत जलाऊंगी,
उसमें दीया नहीं, अपनी आस्था का उजाला फैलाऊंगी...

— दामिनी यादव


दामिनी यादव की कवितायें | Damini Yadav ki Kavityen
damini2050@gmail.com


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