के बिक्रम सिंह की यादें — विनोद भारद्वाज संस्मरणनामा - 28: | Vinod Bhardwaj on K. Bikram Singh



के बिक्रम सिंह की यादें

— विनोद भारद्वाज संस्मरणनामा


फ़िल्मकार, ब्यूरोक्रेट, बुद्धिजीवी के बिक्रम सिंह के साथ मैंने कला और साहित्य के सबजेक्ट एक्स्पर्ट की हैसियत से क़रीब बीस साल काम किया, उनके साथ ख़ूब यात्राएँ कीं, होटेल में रूम भी शेयर किया, इंडिया इंटरनैशनल सेंटर के बार में अनगिनत शामों में तत्व चिंतन भी किया। वे मुझे अक्सर कहते थे, आपकी हाथी जैसी स्मृति है। वे मुझसे काफ़ी सीन्यर थे, पर लंबे समय तक मेरे अच्छे दोस्त रहे। आख़िरी कुछ साल हमारी बोलचाल बंद हो गई। 

एक दिन मैंने उन्हें बताया, आप अक्सर अपने कुछ ख़ास दोस्तों के क़रीब आ कर किसी छोटी सी बात पर रिश्ते ख़त्म क्यूँ कर देते हैं? शांतो दत्ता, बुद्धदेव दासगुप्ता, शास्त्री रामचंद्रन मैंने कुछ प्रसिद्ध नाम गिनाए। मैंने ये भी कहा, मैं जाने कैसे बचा रह गया हूँ। 

और कुछ ही दिनों में हम भी अजनबी हो गए। बात साधारण थी। कलाकार ए रामचंद्रन पर उनकी एक घंटे की फ़िल्म मैं कहीं दिखाने की योजना बना रहा था। उन्होंने कहा, लिखित स्वीकृति लेनी होगी। रामचंद्रन ने इस फ़िल्म के लिए उन्हें आर्थिक सहयोग भी दिया था, वे मुझसे कह चुके थे आप कहीं भी इस फ़िल्म को दिखाइए। ख़ैर, मैंने राष्ट्रीय आधुनिक कला संग्रहालय में उसे दिखाने के लिए उनसे एक फ़ॉर्मल अनुमति ले ली, पर रिश्तों में दरार आ गयी। 



पर मुझे उनके इस दुनिया से असमय जाने का बहुत अफ़सोस हुआ, हुसेन और ए रामचंद्रन की दो पेंटिंग बेच कर उन्हें ख़ूब पैसा भी मिल गया था। हुसेन पर उन्होंने एक बड़ी किताब लिखी थी, लंदन जा कर वे घोड़ों की अच्छी पेंटिंग गिफ़्ट में ले आए। रामचंद्रन ने भी उन्हें एक वॉटरकलर टोकन पेमेंट पर दे दिया था। कला बाज़ार अपनी तेज़ी पर था, धन तो उन्हें मिल गया, पर उसका सुख नहीं वे देख पाए। प्राग घूमने गए, पासपोर्ट और पैसे चोरी हो गए। वापस आना पड़ा। फिर वे बीमार हो गए। कलाकार नरेंद्रपाल सिंह उनसे नर्सिंग होम में बराबर मिलता रहा, वे मेरा हालचाल पूछते रहते थे। 

अंत्येष्टि में उनके बेटे ऋषि ने मुझे भावुक हो कर गले लगाया, पर नियति कुछ और बुरा चाह रही थी। जवान उम्र में उसका भी अचानक निधन हो गया। धूमीमल गैलरी की सूजा पर मेरे द्वारा संपादित पाँच सौ पेज की किताब की डिज़ाइनिंग का काम ऋषि ने ही किया था, वह मेरे पड़ोस में ही रहता था। राहत की बात सिर्फ़ इतनी है कि पिता के रहते पुत्र का त्रासद निधन नहीं हुआ। पत्रकार मित्र राज किशोर अपने बेटे के आकस्मिक निधन को बर्दाश्त नहीं कर पाए थे। 

बिक्रम सिंह जब फ़िल्म फ़ेस्टिवल निदेशालय में थे, तभी उनसे परिचय हो गया था। पर दोस्ती शुरू हुई, यू जी सी के लिए स्टोरी ऑफ़ इंडियन पेंटिंग के बारह खंडों के प्रोजेक्ट से। बजट बहुत कम था, बिक्रम जी व्यस्त थे अपनी पहली फ़ीचर फ़िल्म तर्पण के निर्माण में। मैंने कम बजट को इस लिए स्वीकार किया, कि शांति निकेतन से चोला मंडल तक घूमने का दुर्लभ मौक़ा मिलेगा। बिक्रम जी का असिस्टेंट मदन राजन मेरे साथ था। मैंने इस एजुकेशनल फ़िल्म को थोड़ा दूसरा रूप देने की सोची। अजंता पर रामचंद्रन से और हम्ज़ानामा पर ग़ुलाम मोहम्मद शेख़ से बुलवाया। 

ये एक छोटे बजट की बड़ी शुरुआत थी। कला और साहित्य पर हमने चालीस से भी अधिक फ़िल्मों पर काम किया। दूरदर्शन के लिए पोर्ट्रेट ऑफ़ ए पेंटर की तेरह कड़ियों में नामी कलाकारों पर फ़िल्में बनीं। बजट थोड़ा बेहतर था। 

शूटिंग में कुछ दिलचस्प अनुभव हुए। 

ग़ुलाम और नीलिमा शेख़ पर फ़िल्मों की शूटिंग वडोदरा में हुई। बिक्रम जी एक दंगों में तबाह हो गए मकान के मलबे में ग़ुलाम शेख़ को खड़े कर के उनसे बुलवा रहे थे। शेख़ ने उस समय तो बोल दिया, पर बाद में मुझसे अलग से बोले, यह मेरा स्पेस नहीं है। अंत में बिक्रम जी उस दृश्य को हटाने के लिए मान गए। 

नीलिमा की अल्बम में कुछ दिलचस्प फ़ोटो थे। एक में वह माडर्न स्कूल के स्विमिंग पूल से निकल रही थीं, दूसरे में वह भूपेन ख़ख्खर के साथ डान्स कर रही थीं। मैं उन्हें फ़िल्म के लिए शूट करवा पाया। पर नीलिमा बाद में दिल्ली आयीं, तो मुझसे बोलीं, उन फोटोज का इस्तेमाल न करें। कलाकार की इच्छा का सम्मान करना पड़ा हालाँकि मैं इससे सहमत नहीं था। 

केरल में अट्टिंगल के एक मंदिर में रामचंद्रन के साथ शूटिंग करनी थी। मंदिर में धोती पहन कर नंगे बदन ही प्रवेश कर सकते हैं। रामचंद्रन में ज़बरदस्त परिहास भाव है। वे मुझसे हँसते हुए बोले, क्या हम किसी पोर्न फ़िल्म की शूटिंग करने जा रहे हैं। वह युवावस्था में रेडियो पर गाते भी थे। एक वॉटर कलर पर काम करते हुए उन्होंने गुनगुनाते हुए शूटिंग कराई। इस सिरीज़ में जोगेन, पदमसी, मनजीत, कृष्ण खन्ना, अर्पिता, गोगी आदि पर भी फ़िल्में बनीं। 

बिक्रम जी के साथ अनगिनत मज़ेदार यादें हैं। एक बार उनके वक़ील भाई के घर पर पार्टी थी। मशहूर अभिनेता मनोहर सिंह भी मौजूद थे। मैं बोर हो कर कुछ स्त्रियों के हाथ ध्यान से देखने और उन्हें कुछ उलटा सीधा बताने लगा। सब कुछ एक मस्ती में हो रहा था। 

मनोहर सिंह का पुराने क़िले में तुग़लक़ का रोल मैं कभी भूलता नहीं हूँ। वे मुझे बड़ी देर से घूर रहे थे। ज्यूँ ही एक सुंदरी का हाथ देख कर मैं अपना गिलास खोजने लगा, उन्होंने झट से अपना हाथ मेरी ओर बढ़ा दिया, विनोद जी, मेरा भी हाथ देखिए। 

मैंने धीरे से कहा, मनोहर जी, मैं पुरुषों के हाथ कभी नहीं देखता। 

जान बची तो लाखों पाए। 

(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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