नई क़लम: आर्ट दैट इज़ कला — सर्वेश त्रिपाठी की कवितायेँ




कविताओं का होना, उनका लिखा जाना बर्बर समय में संवेदनाओं के बचे रहने का सुखद संकेत है। ऐसे ही संकेतों के बिम्ब सर्वेश त्रिपाठी की 'नई क़लम' में हैं। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से इतिहास में परास्नातक और विधि स्नातक, युवा कवि सर्वेश वहाँ के उच्च न्यायालय की लखनऊ खंडपीठ से वकालत करते हैं, साथ ही सामजिक कार्यों से जुड़े रहते हैं। स्वागत, बधाई कवि! ... भरत एस तिवारी/शब्दांकन संपादक 

सर्वेश त्रिपाठी की कवितायेँ

आर्ट दैट इज़ कला


तो तुम कहते हो,
"कला सिर्फ कला के लिए है,
कलाकार के लिए है"!
कलाकार की आत्मतुष्टि का साधन
जहां वो अपनी अमूर्तता को,
मूर्त करता है।
फिर अपने चिंतन को,
विस्तार देता है अनंत तक।

अच्छा एकाकार भी होता है,
सृष्टि की लय के साथ।
अंतर्नाद पर थिरकता
अपनी शाश्वतता को जीता है।

गुड वेरी गुड...!
तो यह बताओ डियर ?
"शाब्दिक आडंबरों में रची मानसिक तुष्टि की परिभाषा क्या है?"

लगे हाथ ये भी बता दो?
गावों और कस्बों में रची,
गुदनो में गुदी,
दीवारों पर गोबर की लीपाई के बाद
अनगढ़ हाथों से,
उकेरी आकृतियों के बारे में क्या कहना है?
वह कला जो पुस्तकों में नहीं
जीवन में घुट घुटकर श्वास लेती है।
गेंहू की बालियों में पकती है,
हथौड़ों की चोट से संरक्षित होती है।
वो क्या है ?

तो मेरे दोस्त..!
तुम लाख कहो या न मानो।
कला पर प्रथम अधिकार
पसीने और खून का ही है।
हक तो उस कलाकार का ही है,
जो पेट की आग में तपते,
पीढ़ियों को बचाने, पालने में जुटा पड़ा है।
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अम्मा तूहू का मदर्स डे के बधाई!!


मदर्स डे के दिन,
अकेली अम्मा गांव में हथपोई पका ली है।
दांत मजबूत नहीं,
सो दूध में डूबा दिया है।
खाएगी थोड़ा रुककर..!
अभी उसे खाने से पहले,
एकाध सीरियल निपटाने है।

शाम को हर बच्चों के,
फोन आने से पहले
वो खलल नहीं चाहती अपनी दिनचर्या में।
यही खुशी ही तो उसे जिलाए है,
सब की चिंताओं में वो अब भी शामिल है।

नातिन की फोन पर,
कल नजर उतारी थी, बिटिया से हाल पूछना है।
पोते को पेट दर्द में,
फिर कब हींग लगानी है, यह भी बहू को बताना है।

अम्मा अभी एंड्रायड फोन
चलाना सीख रही बिटिया की जिद पर।
पड़ोसी की बेटी भी,
झुंझला जाती है सीखा सीखा कर।
हर रोज नाती पोतों की तस्वीरें
देखने के मोह में, अम्मा कोशिश तो खूब करती है।
हार भी जाती है कभी कभी अम्मा,
अपनी खुरदुरी उंगलियों से,
जो फोन के चिकने स्क्रीन पर सधती नहीं।

लेकिन जिद्दी अम्मा अंदर ही अंदर,
खुद से कहती है सीखूंगी तो जरूर ...!
उसे भी देखना है
बच्चो के स्टेटस पर केक के साथ सजी,
वो कैसी लगती है।
भोली अम्मा अभिभूत हो जाती है,
सबके दुलार पर
दूर से ही सही,
समय समय पर मिलने वाले सम्मान पर।

रोटी दूध में फूल चुकी है,
उबली लौकी की सब्जी के
साथ खा रही बड़े चाव से।
बेटे की हिदायत पर अब अम्मा,
शाम को हल्का ही खाती है।

अम्मा पुश्तैनी घर की,
रखवाली में बहुत खुश है।
लगता भी है उसके चेहरे से।
अम्मा प्रसन्नता और दुःख दोनों छुपाना जानती है।
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मेरी प्राथमिकता


मैं
कितना भी कमजोर हो जाऊं,
जितना कोई सूखा पत्ता,
डाल से टूटकर होता है।
अथवा निरीह जितना
धूल में गिरा एकाकी जलबिंदु है।
जो क्षणिक है व्यर्थ है।
संभव है जो भी कुछ,
जिसे यह दुनिया कमाई कहती है,
सब लुट जाए एक दिन..!

किन्तु,
मैं कतई नहीं स्वीकार सकता,
संवेदनशील होना कमजोरी है...
किसी के आंसू,
अपनी आंखों से बहते देखना कोरी भावुकता है।

मानता हूं व्यावहारिक होना,
उत्तरजीविता की अनन्य शर्त है।
कठोर होना,
और जगत् की आवश्यक रीति।
किन्तु,
मैं अपनी आखिरी श्वास तक,
इन तथ्यों पर हंसना ही चाहूंगा।
यांत्रिक प्रयोजन को भी क्रीड़ा मात्र समझ
मुस्कुराना चाहूंगा...!!

और गर्व सहित इन कमजोरियों को,
संवेदनशीलता और भावुकता को,
मनुष्यता मानूंगा।
उसका धर्म मानूंगा।
उसका सार मानूंगा।
जगत् का प्रयोजन मानूंगा।
मैं यह भी मानूंगा की हर आंख में
बसे खारे पानी में,
पीड़ा के साथ साथ,
प्रेम का असीम सागर भी छुपा पड़ा है।
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बेटियां


बेटियां
घर हैं,
घर का अधिष्ठान हैं
घर चाहे पिता का हो अथवा पति का।

बेटियां,
महक हैं।
जहां भी हैं,
सुवासित है दिग दिगंत तक।

बेटियां
महाकाव्य नहीं,
लोकगीत का सोंधापन हैं।
जो बैठी हैं अधरों पर,
पीढ़ियों से विरह की तड़प लिए,
ब्याह के पहले भी ब्याह के बाद भी।

बेटियां
सिर्फ बेटियां ही नहीं
मां बहन और पत्नी ही नहीं।
सर्वस्व लुटाकर बन जाने वाली
प्रेमिका भी हैं।

बेटियां,
सर्वदा,
भाई हैं पिता भी हैं।
और जबरन बना दी जाने वाली त्याग भी।

बेटियां,
दुनियां को चलाने में,
मनुष्यता का अवलंब हैं।
तभी,
बेटियां घर ही नहीं पूरा संसार हैं...!
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नई किताब


हर नई किताब,
मेरी कुल समझ को
बदल देती है,
असंख्य सवाल में ...!!

सवाल, जवाब, समझ के
त्रिकोण में फंसा।
मैं बेचारा,
उठा लेता हूं,
एक और किताब।

जवाबों के,
पार जाने के लिए।
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सेल्फी वाली लड़की


उसे अच्छा लगता है,
हर पल खुद को निहारना।
खुद को तस्वीर में उतारना,
सेल्फी लेना।
पहाड़ो की बर्फीली चोटियों पर,
नंगे पैर पंजो पर उचक कर सूरज की पहली किरण के साथ,
और नदी की धारा में पैर डाले
अपनी सेल्फी लेती है।
वो मरू की तपती रेत पर लेटकर
और चाँदनी रात में भी अपनी आँखों में सितारों को जकड़ कर सेल्फी लेती है।
वो विचित्र और सैकड़ो कोण का मुखाकृति में अपनी तस्वीर उतारती है।

वो कतई सेल्फिश नहीं,
जो सेल्फि में खुद को कैद रखे।
वो अपनी हर तस्वीर में अपनी दुनियां का मानचित्र खुद रचती है।
वो खुद को हजारों सेल्फी के बीच लाखों तरीके से पढ़ती रहती है।
ताकि वो विद्रोह कर सके,
सभी सौन्दर्यशास्त्रीय मानको के प्रति।
जो इस दुनियां ने रचे है उसकी शाश्वत कैद के लिए।
विद्रोह कर सके उस हर सोच के प्रति,
जो उसे रोकती है उसे अपने तरीके से देख पाने से,
समझ पाने से।

वो सिर्फ सेल्फी नहीं लेती,
वो समाज को आइना दिखा,
एक विमर्श को जन्म देती है।
वो हर चित्र के साथ सोचती है,
दुनिया की हर लड़की की एक रोज अपनी सेल्फी होगी।
जहाँ वो आधी दुनिया की जगह पूरी दुनिया को अपना समझेगी।

बेखटके,
पहाड़, नदी और जंगलों में निश्चिन्त भाव से अपनी तस्वीर उतारेगी।
बेख़ौफ़ शहरों के भीड़ में इंसानों को भी,
उस तस्वीर में साथ लेगी।
इसी से हर पल वो खुद को निहारती है,
अपनी तस्वीर (सेल्फी) उतारती है,
एक दुनियां के बदलने की उम्मीद के साथ... !!
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जोकर


एक मँजे हुए कलाकार की तरह
सधा हुआ अभिनय करता है।
क्योंकि,
वह व्यक्तिगत त्रासदियों को
अजीबोग़रीब हरकतों से हास्य में बदल सकता है।

वो,
असंभव को संभव बनाने के लिए,
बार बार गिरता है, लड़ता है, भिड़ता है।
हास्य और त्रासदी के बीच,
रिश्तों को प्रगाढ़ करते हुए।
दर्शकों की निष्ठुर हंसी के बीच तलाशता है,
सहानुभूति भरी दृष्टि।
जो,
उसके रंगबिरंगे चोंगे के परे उसे खोज सके,
और इतना साहस दे सके,
ताकि कल फिर वो "जोकर" बन सके।

गिर सके, लड़ सके, भिड़ सके,
गैरों की हँसी के लिये।
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 मेरी सोच


“मैं” अपनी तरह ही सोच सकता हूँ।
इसके बावजूद कि,
हमेशा, मैं सही नहीं हो सकता।
फिर भी मैं खुद पर “विश्वास” रखता हूँ।
क्योंकि, अपने तरीके से सोचने में ही,
मैं खुद को “प्रमाणिक” मानता हूँ।
“जीवित” मानता हूँ।

तभी मैं,
तुम्हारी तरह नही सोच पाता।
क्योंकि तुम्हारी तरह सोचने का मतलब,
तुम्हारी तरह होना है।
तुम्हारी नक़ल करना है।
और खुद को “जिन्दा” मानने का भ्रम पालना है।
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चिड़ियों का मुक्तिदाता


चिड़ियों का गायन जारी था।
“बहेलिया आएगा...बहेलिया आएगा,
दाना डालेगा जाल बिछाएगा,
पर हम नहीं फँसेंगी नहीं फँसेंगी...!”

पर अबकी जब बहेलिया आया,
तो उसने दानें नहीं डाले जाल भी नहीं बिछाया।
उसने चिड़ियों से कहा कि वो फ़िक्रमंद हैं,
चिड़ियों की व उनकी आने वाली नस्लों के लिए।
वो कोई “चिड़ीमार” नहीं जो उसे उनकी जान चाहिये,
बस “चिड़ियों के हित” में “कुछ चिड़ियों का बलिदान” चाहिये।
चिड़ियों को उनका वाजिब हक दिलावाया जायेगा,
अब “जंगलराज” नहीं चिड़ियों का “स्वराज” आयेगा।
हर चिडिया को जी भर चुगने और उड़ने का अधिकार दिया जाएगा,
हवा में ही उनके रहने का प्रबंध किया जायेगा।

चिड़ियों को ये बातें पल्ले पड़ गयी,
बहेलिये के साथ गाते हुए फिर वे चल पड़ीं।
“बहेलिया आया था... बहेलिया आया था,
दाने नहीं डाले... जाल भी नहीं बिछाया।
हम नहीं फँसे - हम नहीं फँसे - हम नहीं....!!!”
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वही पुराना तमाशा


वही मदारी, वही बन्दर, वही तमाशा
और वही पुराने तमाशबीन।
सब की अपनी-अपनी नजर,
और "करतब" वही एक !!!

बन्दर मदारी को देखे,
और मदारी बंदर को।
बंदर अपने गले की रस्सी को,
और मदारी सब तमाशबीनों को।

छड़ी ऊपर बंदर का नाच शुरू,
छड़ी नीचे नाच बंद।
बंदर नाचे मदारी नचवाये,
मजबूरी नाचे पेट नचवाये।

लेकिन असल में इस तमाशे में नाचे कौन?
बंदर की मजबूरी या मदारी का पेट या हर वो तमाशबीन।
जो देखता हैं खुद को,
कभी बंदर तो कभी मदारी नजर से..........!!!
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खेल


कभी सोचा हैं शतरंज के खेल में,
प्यादे हमेशा सीधे ही क्यों चलते हैं??

यक़ीनन घोड़ों की तरह,
नहीं हैं उनके पास अढ़ईयाँ चाल।
न ही ऊँट सी तिरछी निगाह,
और हाथी से फौलाद कदम।

उन्हें विशेषाधिकार भी नहीं मिले,
वज़ीर की तरह।
न ही मिली शहंशाही फितरत
मौका-मुकाम के लिहाज़न आगे पीछे हो जाने की।

नहीं समझ पाओगे तुम सब,
इस शह मात के खेल में।
प्यादे कमजोर नहीं मजबूर बना दिए जाते हैं,
चंद कायदों में उलझाकर....हमेशा।
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सत्यमेव जयते


एक बेचारा सत्य,
युगीन यथार्थ के समक्ष नतमस्तक।
वर्तमान के सम्मान और आत्मसम्मान को,
व्यवहारिकता की दूकान में गिरवी रख।

तलवा चाटता है,
हर रोज किसी झूठ का।
और बेबसी से सोचता हैं...
क्या उपनिषदों ने इसी सत्य के जय की हुंकार भरी थी।
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ऑनर किलिंग


वो क़त्ल,
कर दिए गए।
बेरहमी से,
"जानवरों" की तरह।

शायद उन्हें ये,
इल्म था।
वे भी कर सकते हैं,
मुहब्बत "इंसानों" की तरह।
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हैरान हूँ!


माँ तुम शब्दों में
क्यों नहीं समाती।
और क्यूँ जब,
हर दिन मैं,
बड़ा होता हूँ।
तुमसे छोटा,
होता जाता हूँ मैं।

हतप्रभ हूँ अब,
समझ कर।
तेरे रक्त से,
पोषित था,
कभी ये जीवन।
और
विचलित हूँ ये जानकर,
मेरे जन्म के समय।
तुम भी जन्मी थी,
माँ दुबारा ....

मुझे छाती में भींचे,
केवल जीवन रस,
से ही नहीं सींचा था,
उस दिन तुमने।
इन छोटी-छोटी आँखों
में ताक कर इस
दुनिया का विस्तार
भी दिखाया था माँ...।

इन सब के बीच,
प्रसूति वेदना को,
कही दूर छिटककर।
तुम खुश थी न?
मुझे आकार देकर...।
पर
माँ उस उदासी को
कैसे समझाया होगा।
जिसने तेरे बचपने को,
तुझमें कही,
माँ बनते देखा होगा !!!

— सर्वेश त्रिपाठी
मोबाईल: 7376113903
ई-मेल: advsarveshtripathi@gmail.com

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