कालाहांडी की यह हांड कंपाने वाली घटना जिसमें रिश्ते में भाई ने बहन के साथ कौटुम्बिक व्यभिचार किया. विकास की परतें दिखाती यह रिपोर्ट, वरिष्ठ पत्रकार अमरेंद्र किशोर की आगामी पुस्तक "ये माताएं अनब्याही हैं" का अगला अंश.
शोषण के भी जीवंत मूल्य होते हैं और उन मूल्यों के साथ का एक मजबूत लोकाचार होता है। यानी सांस्थानिक या सामाजिक स्तर पर गढ़े गए शोषण के विविध प्रतिमान पारम्परिक सदाचार की न सिर्फ अवमानना है बल्कि ज़िंदगी की आदर्श स्थितियों पर जड़ा गया निर्मम प्रतिबन्ध भी है। यह बुनियादी अधिकारों को भी जीवन की डगर से दूर कर देता है। कालाहांडी की धरती न सिर्फ विरोधाभासों की धरती है बल्कि शोषण के जीवंत मूल्यों की उर्वर ज़मीन पर लहलहाती फसलों की धरती है। — अमरेंद्र किशोर
जब हिम्मत जवाब दे गयी
— अमरेंद्र किशोर
कालाहांडी के केसिंगा से मदनपुर रामपुर जाने का रास्ता दादपुर होकर गुजरता है। दिन के बजाये रात में यह सड़क ज्यादा व्यस्त हो जाती है जब भवानीपटना से भुबनेश्वर जाने वाली बसें इसी रास्ते को अपनाती हैं। यहाँ आज भी जंगल हैं। जंगलों में जीव-जंतु हैं। बाघ से लेकर हाथी और अजगर तक हैं। यानी यहां जानवरों का पूरा खाद्य-चक्र मौजूद है, जिसके साथ विविध प्रजाति के पेड़-पौधे मिलकर एक मजबूत पारिस्थितिकी-तंत्र का निर्माण करते हैं। इन पहाड़ों से कोलाहल करते झरने फूटते हैं, सरसती नदियाँ निकलतीं हैं। इस वजह से स्थानीय इंसानी समाज ने यहाँ के जंगल-तंत्र के साथ खुद को समायोजित किया है।
सपाट सच
भूख इस इलाके का कठोर यथार्थ है जिसका चेहरा जितना सपाट है, उसका चरित्र उतना ही सहज। सपाट सच को सरकार समझ पाने में असमर्थ है और उस चरित्र के साथ कैसा व्यवहार हो, यह आज भी पहेली है। कुदरत की इतनी मेहरबानी के बावजूद कालाहांडी के लोग गरीब हैं और उनके साथ निर्धनता के तमाम सन्दर्भ ज़िन्दगी के खोखलेपन परिचित करवाते हैं। लेकिन यहाँ के लोकमानस की गरीबी का चरित्र परस्पर विरोधाभाषी है।
सूखी आंखें पिचके गाल
कुछ बदलाव के अलावा सब कुछ उसी तरह से अडिग है। पहली बार आया गांव का हर एक परिवार घोर गरीबी और भुखमरी के साथ जीने को अभिशप्त था और सुनता हूँ आज भी हैं। तब भी बच्चों के बेतरतीबी से फूले पेट दिखते थे और गुब्बारे सरीखे पेट आज भी खेलते और धूल-माटी से सने नजर आते हैं। औरतों की सूखी आंखें तब भी थीं और मर्दों के पिचके हुए गाल वाकई रोंगटे आज भी खड़े कर देते हैं। राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा / MNREGA) के तहत गाँव के अधिकांश घरों को जॉब कार्ड और काम मिल चुके है किन्तु इनमें से ज्यादातर रोजगार सिर्फ ऑनलाइन जॉब कार्ड और फर्जी मस्टर रोल में ही दर्ज हैं, हकीकत में उन्हें कोई काम नहीं मिला है।
कालाहांडी की भयानक गरीबी
भवानीपटना से अंग्रेजी अखबार से खबर लिखनेवाले वरिष्ठ पत्रकार उमाशंकर कर, नवभारत हिंदी अखबार के लिए केसिंगा के पत्रकार सुरेश अग्रवाल की तरह। लेकिन उमाशंकर अपने जिले की सूखती काया को देखना पसंद नहीं करते बल्कि तमाम सच्चाइयों का तार्किक खंडन करते हैं। यथार्थ यही है कि कालाहांडी को जिस भयानक गरीबी ने अपनी गिरफ्त में ले रखा है वह मानक आर्थिक मॉडलों की समझ के दायरे से पूरी तरह से परे है। और शायद यही वजह है कि अर्थशास्त्री और समाजशास्त्री इस सतत त्रासदी और गुलामी के मानवीय पहलू को अब तक नहीं देख पाए हैं।
भूख से होने वाली मौतें
भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने अपने मशहूर भाषण ‘नियति से सामना’ में महात्मा गांधी का नाम लिए बिना कहा भी था कि हमारी पीढ़ी के सबसे महान व्यक्ति की यही महत्वाकांक्षा रही है कि हरेक व्यक्ति की आँख से आंसू मिट जाएं, किन्तु ऐसा नहीं हो पाया। इसके लिए जवाबदेह किसको ठहराया जाए? हर बार भूख से मौतों काे लेकर राजनीतिक दल एक-दूसरे पर कीचड़ उछालने में लग जाते हैं। भूख से होने वाली मौतें किसी पार्टी विशेष से नहीं जुड़ी होतीं इसलिए मामलों पर लीपापोती कर दी जाती है। ऐसी मौतों का संबंध आर्थिक और सामाजिक संरचना से जोड़ दिया जाता है। तो सवाल है कि आदिवासी भारत की आर्थिक और सामाजिक संरचना आज किस हद तक जा पहुँची है जहाँ न भूख से बिलबिलाते किसी नर या मादा की चिंता की जाती है और न ही अनब्याही माताओं की परवाह में सख्त क़ानून बनाये जाने की सर्वसहमति होती है।
समाज में क्यों पनपते हैं विभु जैसे मर्द और उन मर्दों के मर्दन की भेंट क्यों चढ़ती है कोई अम्बिका प्रधान।
अम्बिका प्रधान की कहानी
अम्बिका नाम ही विचित्र है — इसी विचित्रता में इस नाम के पात्र की नियति भी तय हो जाती है। कालाहांडी की अम्बिका प्रधान की कहानी सुनकर यह निश्चित हो जाता है कि महाभारत और राष्ट्रवादी भारत की दोनों अम्बिका की भवितव्यता एक ऐसे कथानक की रचना करती है जो समय की सान पर घिसकर इतना धारदार हो जाती है कि देश और समाज के विधना को शाश्वत बना देती है। आज से कोई 15 साल पहले अम्बिका प्रधान से मुलाक़ात हुई थी। उसकी जिंदगी से जुड़े हादसे पर नजर डालने के पहले हम कालाहांडी के उस मुर्दार चेहरे को देखते हैं जहाँ विकास का सही अर्थ और प्रारूप नहीं तय हो पाया है बल्कि दलालों का जोर-बोलबाला चारों ओर है। इन दलालों ने नागरिक जीवन के हर परकोटे पर अपनी चाक-चौबंद मजबूत की है। उसका दैहिक सम्बन्ध विभु से था जो रिश्ते में उसका भाई था। दोनों के बीच रक्त सम्बन्ध थे। मतलब दोनों के बीच विवाह नहीं हो सकता था।
विरोधाभासों की धरती
समाज में क्यों पनपते हैं विभु जैसे मर्द और उन मर्दों के मर्दन की भेंट क्यों चढ़ती है कोई अम्बिका प्रधान। चूँकि कालाहाण्डी के समाज के उत्पादक एवं परजीवी दो ही वर्गों में हम बँटा महसूस करते हैं। इसलिए इन दोनों के अपने-अपने वजूद हैं और समाज में दोनों तरह के लोग पीढ़ियों से ज़िंदा हैं। मत भूलिए पूँजी का खेल बड़ा ही निर्लज्ज होता है जिसके प्रभाव में लोकशाही भी उदासीन होकर आम लोगों के जीवन और उनके आस-पास के जीवंत परिवेश को तबाह कर देती है। पूंजी के प्रभाव में एक गरीब काश्तकार की बेटी अम्बिका अपने मौसेरे भाई से सम्बन्ध बनाती है जिस भाई के पास ठीक-ठाक जीने खाने लायक पूंजी है। उस पूंजी का दबदबा है। कालाहांडी की धरती न सिर्फ विरोधाभासों की धरती है बल्कि शोषण के जीवंत मूल्यों की उर्वर ज़मीन पर लहलहाती फसलों की धरती है।
शोषण के मूल्य
सच है कि शोषण के भी जीवंत मूल्य होते हैं और उन मूल्यों के साथ का एक मजबूत लोकाचार होता है। यानी सांस्थानिक या सामाजिक स्तर पर गढ़े गए शोषण के विविध प्रतिमान पारम्परिक सदाचार की न सिर्फ अवमानना है बल्कि ज़िंदगी की आदर्श स्थितियों पर जड़ा गया निर्मम प्रतिबन्ध भी है। यह बुनियादी अधिकारों को भी जीवन की डगर से दूर कर देता है। कालाहांडी की धरती न सिर्फ विरोधाभासों की धरती है बल्कि शोषण के जीवंत मूल्यों की उर्वर ज़मीन पर लहलहाती फसलों की धरती है। यानी सांस्थानिक या सामाजिक स्तर पर गढ़े गए शोषण के विविध प्रतिमान पारम्परिक सदाचार की न सिर्फ अवमानना है बल्कि ज़िंदगी की आदर्श स्थितियों पर जड़ा गया निर्मम प्रतिबन्ध भी है। यह बुनियादी अधिकारों को भी जीवन की डगर से दूर कर देता है।
कौटुम्बिक व्यभिचार
अम्बिका सिलसिलेवार दुर्घटनाओं की भुक्तभोगी है। जब वह महज पंद्रह साल की थी तो उसकी मौसी के बड़े लड़के विभु ने उसपर डोरे डालना शुरू किया। अम्बिका ने ज्यादा ध्यान नहीं दिया और जब विभु बदतमीजियों पर उतर आया तो उसने खुद को उससे दूर कर लिया। किन्तु होना कुछ और था। एक दिन अम्बिका के माँ-पिता किसी शादी में शामिल होने गाँव से बाहर गए थे। अम्बिका को घर में अकेला पाकर विभु उससे मिलने चला आया। वह ढेर सारे चॉकोलेट और कोल्ड ड्रिंक भी लेकर आया था। उसने बेहद सहज तरीके से घर में छोटे भाई-बहनों से बातचीत की और अपनी बदतमीजियों के लिए अम्बिका से हाथ जोड़कर माफ़ी मांग ली। कुछ देर बाद उसने कोल्ड ड्रिंक अम्बिका को भी पीने को दिया। इसके बाद अम्बिका को कुछ भी याद नहीं लेकिन सुबह उठने के बाद वह सब कुछ समझ गयी कि विभु ने उसके साथ रात भर क्या किया है।
एक सौ घंटों बहन के साथ बलात्कार
अम्बिका सहोदर समान भाई के साथ बने सम्बन्ध से विचलित और शोकार्त्त थी। लेकिन विभु नए ख़्यालात का इंसान ठहरा। उसके लिए मोहब्बत ज्यादा जरूरी थी, भले ही कौटुम्बिक व्यभिचार क्यों न किया हो। शायद स्त्री और मर्द के बीच विचारों का यही अंतर सामाजिक सोच के दो अलग-अलग तट हैं जो आपस में नहीं मिलते मगर एक ही नदी के पाट तय करते हैं। पौराणिक भारत से लेकर आज तक यही साबित होता रहा है कि समाज की विस्तृति, संस्कृतियों की चकलाई और लोकाचार का पैमाना — इन पर पूरी तरह से स्त्री का नियंत्रण रहा है। अम्बिका की दुविधा और चिंता वाजिब थी। वह ऐसे संबंधों की परिणति जानती थी। एक बार रिश्ता बनने के बाद उन एक सौ घंटों में विभु ने डर दिखाकर अम्बिका से लगातार रिश्ते बनाये।
अम्बिका के लिए विभु का कोई विकल्प नहीं था क्योंकि दोनों एक दूसरे को जानते थे। एक दूसरे की आदतों-पसंद और नापसंद का पता था। अम्बिका यह भी जानती थी कि विभु शादी-शुदा इंसान है और इस कारण यह सम्बन्ध न टिकाऊ है और न तर्कसंगत। कहते हैं पतन की राह चिकनी होती है और इस राह के मुसाफिर पानी का स्वभाव लेकर जीने लगते हैं। यानी वह अपने मतलब का रास्ता ढूंढ लेते हैं और उनकी गति नीचे की ओर होती है। पतितों का मूल चरित्र ऐसा ही होता है। अम्बिका के नहीं चाहने के बावजूद यह सम्बन्ध चलता रहा। भवानीपटना से लेकर बोलांगीर के होटलों में दोनों के दिन कटने लगे। कभी-कभी वह अम्बिका के घर रुक जाता था और वहीं रात में दोनों साथ हो जाते थे। भाई के साथ बहन का ऐसा रिश्ता कोई सपने में नहीं सोच सकता था।
इसी बीच विभु ने अपनी जमात के शोहदों के बीच इस सम्बन्ध का राष्ट्रीय प्रसारण भी कर दिया। संचार प्रणाली के तमाम मॉडल प्रासंगिक हो गए। प्रसारण सफल रहा — माउथ पब्लिसिटी गहरा और प्रभावी साबित हुआ। राह चलते सम्बन्ध बना लेने की गुजारिश होने लगी। यहाँ तक कि शोहदे उसका रास्ता भी रोक लेते। अम्बिका जब भी ऐसी शिकायत विभु से करती तो हंसकर टाल जाता।
कोई चार महीने तक बने इस सम्बन्ध में दोनों ने तमाम ऐतिहात बरते किन्तु अम्बिका की देह में अंतर दिखने लगा। जब इस बात की जानकारी हुई तब तक चार हफ्ते सरक चुके थे। उसने विभु से निहोरा किया कि कहीं बाहर ले जाकर इस झंझट से 'मुक्ति' दिलवा दे लेकिन इस झंझट को अपने माथे पर लेने से विभु ने साफ़ इंकार कर दिया। क्योंकि अम्बिका के लिए यह सब पहली बार था, विभु के लिए नहीं।
बलात्कार / यौन संबंधों की अभ्यस्त
अम्बिका का साहस जवाब दे गया और वह पुलिस स्टेशन पहुँच गयी। आरोप बलात्कार का था। पुलिस सक्रीय हो गयी। मेडिकल परिक्षण में 'यौन संबंधों की अभ्यस्त' की रिपोर्ट आयी। वह गर्भवती भी थी। मामला दर्ज हुआ। विभु की गिरफ्तारी हुई। लेकिन समाज में अम्बिका की थू-थू होने लगी। जैसे विभु ने जो किया वह उसका अधिकार था। अम्बिका का साहस जवाब दे गया और वह पुलिस स्टेशन पहुँच गयी। आरोप बलात्कार का था। पुलिस सक्रीय हो गयी। मेडिकल परिक्षण में 'यौन संबंधों की अभ्यस्त' की रिपोर्ट आयी। वह गर्भवती भी थी। मामला दर्ज हुआ। विभु की गिरफ्तारी हुई। लेकिन समाज में अम्बिका की थू-थू होने लगी। जैसे विभु ने जो किया वह उसका अधिकार था। तारीख-दर-तारीख अम्बिका की आवाज बुझती चली गयी।
इज्जत के साथ इजलास
उसने विभु को माफ़ करने का मन भी बना लिया था। उसकी एक ही चाहत थी कि विभु उससे पहले जैसा व्यवहार करे। यह विभु मानने को तैयार नहीं था बल्कि वह एक सिरे से किसी तरह के रिश्ते होने की बात से इंकार कर रहा था। रिश्ते को लेकर कोई सबूत अम्बिका के पास नहीं थे। अदालत में विभु के वकील ने उसे न सिर्फ कोसा बल्कि लताड़ा भी। उसने एक से एक सवाल पूछे — जिसके बारे में विभु जानता था या वह खुद जानती थी। वकील के सवालों ने उसे कहीं का नहीं छोड़ा। सब कुछ तार-तार हो गया। सब के सामने, भीड़ से भरे कमरे में, जिसे इज्जत के साथ इजलास कहते हैं, वहीं वकील ने नारी देह की हिफाजत और पाकीजगी के तमाम परतों को उघार कर रख दिया।
बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओं
न्याय की लड़ाई हारकर नैतिकता की लड़ाई भी अम्बिका हार गयी जब सरेराह उसे गाँव के शोहदे प्रणय निवेदन करने लगे। जिला मुख्यालय भवानीपटना में भी भीड़ उसे पहचानने लगी थी। इस अनैतिक पहचान की वजह से अम्बिका की ज़िन्दगी बेसूद-बेकार और बोझ बनती चली गयी। गुड़िया मुश्किल से दो साल की थी तब अम्बिका ने सल्फास की टिकिया चाटकर जुल्म की कहानी पर पूर्ण विराम लगा दिया। कभी कालाहांडी जाईये तो दादपुर जाना मत भूलिए। उसकी बिटिया भी अब शोहदों की कातिल नज़रों से समय से पहले जवान होती दिख रही है।
'बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओं' जैसे सुत्थर नारे और मुहीम का नेटवर्क यहाँ कमजोर नजर आता है। क्योंकि बेटी को लेकर इतनी ही संवेदनशीलता होती तो अम्बिका को इतना गंभीर फैसला क्यों लेना पड़ता।
(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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