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खून से लबालब विषाद का समुद्र: अमरेंद्र किशोर | नक्सलवाद समस्या एवं समाधान


नक्सलवाद की समस्या लिखते एवं समाधान तलाशते अमरेंद्र किशोर की आगामी पुस्तक "ये माताएं अनब्याही हैं" के हर अंश को आप कम से कम  पढ़ते ज़रूर रहियेगा... भरत एस तिवारी/ शब्दांकन संपादक



किस्मत में लिखा था खून से लबालब विषाद का समुद्र

— अमरेंद्र किशोर

ये माताएं अनब्याही हैं-3



यदि कालाहांडी की गरीबी असाध्य है तो सरकार ने वहां के लोगों को सब्सिडी पर जीने वाला परजीवी बना दिया है। और सब्सिडी का सच भी जान लीजिये, उसकी सफलता को किस तरह हम नाप सकते हैं। स्थानीय लोगों की कर्मठता अपने खेतों में कम सूरत की फैक्टरियों और पंजाब के खेतों ज्यादा दिखती है। लेकिन मजदूर तबके की ज़िंदगी में कोई सुधार नहीं दिखता। दीये की लौ की तरह कांपती उनकी ज़िन्दगी में न जाने कितनी आफ़तें आतीं है और अंत में उस सब्सिडी वाली ज़िन्दगी की गति-यति और लय-रंजकता भयावह सच्चाईयों में तब्दील होती है। 
सुनयना की कहानी.......     

उसका प्रेमी दगाबाज नहीं
रेंगाली की बुई जानी यदि अपने जीजा की घिनौनी जिजीविषाओं की भेंट चढ़कर माँ बन गयी तो हल्दी गाँव की सुनयना की कहानी थोड़ी अलग है। उस कहानी को सुनने की अपनी एक ख़ास मंशा थी क्योंकि उसका प्रेमी दगाबाज नहीं कहलाया बल्कि उसने अपनी आखिरी सांस तक सुनयना को दिल में बसाये रखा। आज वह इस दुनिया में नहीं है, इस वजह से उसका अमर प्रेम अपने आप में कालाहांडी के लोकमानस में यादगार है।

हैंडपम्प में पानी है और पानी पीने लायक है
सुनयना के गाँव हल्दी तक आसानी से पहुंचा जा सकता है। मौसम कोई भी हो, दिक्कत नहीं होती। भवानीपटना से मदनपुर रामपुर जानेवाले राज्य उच्च पथ से उतरकर प्रधानमंत्री सड़क योजना वाली सड़क वहाँ तक पहुंचाती है। नकटीगुड़ा बस स्टैंड से इस गाँव की दूरी मुश्किल से 4 किलोमीटर है। सुनयना जिस घर में रहती है वह ठीक-ठाक हालत में है। घर के सामने और आँगन में भी हैंडपंप है, हैंडपम्प में पानी है और पानी पीने लायक है। गाँव में सरकारी राशन की दूकान है और इसके अलावा जीने-खाने के सामान वहां मिल जाते हैं। हम चार लोग पहुँचते हैं तो सुनयना सहज भाव से हमारा स्वागत करती हैं। शायद उससे मिलनेवालों में हम पहले लोग नहीं थे। लेकिन हमारे पहले मीडिया से कोई नहीं आया था। इसी कारण वह मुझे अपने बारे में बताने के लिए राजी हुई। सुनयना और उसके प्रेमी सुदर्शन के बीच पहली मुलाक़ात कब हुई, उसे याद नहीं, लेकिन दोनों के बीच की मुलाक़ात के बाद की एक-एक घटना जैसे उसे कंठस्थ है।

कालाहांडी में रूप बदलकर आज भी बेगारी है
आज से करीब चौदह साल पहले उससे मुलाक़ात हुई थी अमठा गॉंव में, जहाँ वह मिट्टी ढो रही थी। ललित तब छोटा था तो उसकी देखभाल के लिए समय देना जरुरी था। तब उसने बताया था कि काम के दौरान ठेकेदार और उसके शोहदे उसके पीछे पड़ जाते हैं। सिलसिला आज भी बदस्तूर जारी है। तब भी वह आज की तरह असहाय और अकेली थी। याद है उसके चेहरे का निर्जनपन और उसकी आँखों में तैरती निर्बलता जो वक़्त के प्रहारों के बावजूद अचल और अटूट है। कुछ नहीं बदला! न चेहरे पर चस्पां उदासी का मदहोश मंजर और न ही पराजय का वह सतत स्वीकार भाव! कालाहांडी में रूप बदलकर आज भी बेगारी है। बंधुआ मजदूरी है। कानून है जो रोटी नहीं देता। साहूकार-बनिया और गौंतिया, जिनके पास पूँजी है-जमीन है तो वे ही रोजगार देंगे। दो जून रोटी के जुगाड़ उनके दरवाजे पर की जाती है, शर्त चाहे जो भी हों, जैसा भी हो।

निर्मम हादसों और साजिशों का कालक्रम
हमने जब इस इलाके के इतिहास को खंगाला तो निर्मम हादसों और साजिशों का कालक्रम हाथ आया। राजा के खिलाफ उन कंद आदिवासियों की बगावत की कहानी अंदर ही अंदर जोश-खरोश भरती है। लेकिन उस विप्लव को दबाने के लिए जिन तरीकों को राजा ने चुना, उसे जानकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। राजा ने हजारों कंदों को मारा-कुचला और उनके कान-नाक कतर डाले तो कंदों ने पहाड़ों में अपना ठिकाना ढूँढा। इसी दमन के दौर में आदिवासियों ने खुद को जैसे-तैसे बचाया। राजा ने हुल्लड़ी राजद्रोह को कुचलकर प्रजा को मुँह बंद रखने की मुनादी करवा दी। मुनादी को मानना जैसे वहाँ के लोगों की वंशानुगत आदत बन गई। तब से  कालाहांडी के लोग और आदिवासी  दुःख-भूख और रोग से उपजी मौत की टीस को मौन रहकर झेलते हैं। यूँ आज राजा का खौफ़ जर्जर दीवारों में फँसा, कराहता दिखता है क्योंकि जमाना बदल चुका है।

सुनयना के सपने
इस साल जिले के कर्लापाड़ा पंचायत में धान की बढ़िया खेती हुई। वैसे भी भारतीय खाद्य निगम के भण्डार को कालाहांडी हर साल लबालब कर देता है मगर झोपड़ियों में बास मारते उन मुर्दों की कमी नहीं होती जो लगातार भूखे पेट सोने का नतीजा होता है। ऐसी मौतों का सिलसिला यहाँ थमने का नाम नहीं लेता। सुनयना इन्हीं खेतों में मजदूरी करती है। कभी किसी जमाने में उसे भी सपने आते थे। जिनमें बेहतर ज़िन्दगी जीना भी एक बड़ा सपना था, एक ऐसा सपना जिसकी कीमत उसे अपने को बिसरा कर आजीवन चुकानी पड़ रही है। उसके सामने रोटी की समस्या थी। मसला मकान का भी था और हालात ऐसे नहीं थे कि तरीके से तन को ढंका जा सके। तभी उसकी ज़िन्दगी में सुदर्शन आया। सुदर्शन के आने के बाद ये तमाम समस्याएं तो सुलझ गयीं किन्तु इस समाधान का मान ज़िन्दगी के जोड़-घटाव में जब सामने आया तो पैरों तले ज़मीन खिसक गई।

अमीरी का शार्ट कट तकलीफ़देह निशानी 
गरीब और विपन्न समाज किसी चमत्कार से आर्थिक समृद्धि का मुकाम हासिल कर सकता है। अन्यथा अमीर होने के शार्ट कट का उपाय अपने पीछे जो निशानी छोड़ता है, वह निशानी तकलीफ़देह होती है। अमूमन आदिवासी समाज में गरीबी से उबरने के लिए 'सुदर्शन' का सहारा सबसे आसान कायदा समझा जाता रहा है। सुदर्शन भी कम नहीं होते! गरीबी की इस मानसिकता के जर्रे-जर्रे पर उनकी पकड़ होती है। इन दोनों के बीच सुनयना आखिरी भुक्तभोगी होती है जिसे सुख के एक-एक पल की क़ीमत चुकानी पड़ती है। उसे अपनी निजता के हर क्षण का हिसाब देना पड़ता है और ज़िन्दगी में निश्चिंतता आने के हर इत्मीनान का दाम देना पड़ता है।  वह अपने प्यार के उस हश्र को शब्द नहीं दे पाती, जब आनंद-आराम और रहाई हाशिये से विधना के उस दुर्दांत दानव ने उसे दूर धकेला था और किस्मत के कैनवास पर खून से लबालब विषाद का समुद्र, बिखर गया था।

कब, कैसे, किसने
सावन की वह काली रात, बादलों का धमाल आकाश में था और उसका जमाल नदियों को उफान दे रहा था। बूंदों की बौछार ने एक मोटा-सा आवरण सिरज दिया जिसके आर-पार देखना सुदर्शन की मोटरसायकिल के बूते की बात नहीं थी। हवा का तेज़ झोंका लगातार बारिश के जोर को अपना भरोसा जता रहा था। घर पहुँचना भी जरुरी था। सुदर्शन ने उसी बारिश में आगे बढ़ना उचित समझा। इसके बाद रात गुजर गयी पता नहीं चला। सुबह हुई तो बारिश के पानी से नहाया उसका शव सड़क किनारे मिला। खून के हर कतरे को बारिश की बौछार ने धो दिया था। इस मौत ने अख़बारों में जगह तो हासिल की थी मगर इसके बाद कोई जानकारी नहीं मिली। कब, कैसे, किसने?

प्यार की निशानी
सुदर्शन किसी का भाई था। किसी का बेटा। सभी रो-पीटकर रह गए। लेकिन नहीं रोने की लाचारी तो सुनयना की थी। किससे क्या कहती! उस रिश्ते का कोई सामाजिक औचित्य नहीं था। कोई प्रासंगिकता नहीं थी। कोई मान्यता नहीं थी। सुनयना का वजूद ज़िंदा होकर भी सिफ़र था। सुदर्शन की मौत के 23 दिनों बाद ललित का जन्म हुआ। तब तक सब कुछ लुट चुका था। मौत के सदमें ने जो उदासी और नीरवता दी थी उसपर ललित का वजूद एक सवाल ही नहीं चुनौती बन चुका था। सुदर्शन का प्यार अनमोल था। उसने सुनयना को जी-भर कर चाहा। उस चाहना में कोई कमी नहीं थी। इसलिए उसके प्यार की निशानी ललित का क्या गुनाह था?

ललित का वजूद
ललित के जन्म के बाद कई बार नदियों की उफनती धाराओं में खुद को विलीन करना चाहा। रेल की पटरियों पर सोकर खंडित होना चाहा। पहाड़ों से कूदना चाहा और सल्फास चाटना चाहा। लेकिन इस बुज़दिली के बाद निर्मम ज़माने को जवाब कौन देता कि ललित का वजूद कैसे, किससे और क्यों? समाज के सवाल उसे चीर-फ़ाड़ कर रख देते। उन परिणामों को सोचकर और ललित के मासूम चेहरे को देखकर सुनयना की आँखें डबडबा जातीं थीं। उस मासूम का क्या कसूर है? ज़िन्दगी में कई मर्द टकराये। उनमें से कईयों ने शादी का प्रस्ताव रखा। लेकिन ललित के बगैर। ऐसा सुनकर सुनयना सहम जाती। पिता का प्यार ललित की नियति की मर्जी के चलते नसीब में नहीं था। लेकिन ज़िंदा माँ मातृत्व के स्नेह से वंचित कैसे करती?

लेकिन कब तक ? ललित तो आजीवन की ताक़त है, उसका वजूद है और उसकी पहचान है। उसके असीम प्यार की आखिरी निशानी है। उस निशानी को उसने जोगाकर बड़ा बनाना चाहा। यही उसकी ज़िन्दगी का एकाकी प्रयोजन बना।   
(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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