अमरेंद्र किशोर, वरिष्ठ पत्रकार की हर रिपोर्ट वह ज़रूरी कागज़ है जिसे देखा जाना चाहिए. इन कागज़ों को देखते हुए नक्सलवाद समस्या को न सिर्फ़ समझा जा सकता है बल्कि समाधान कि मिटाया जाना कैसे शुरू किया जाए, जाना जा सकता है. नक्सली समस्या पर अमरेंद्र के लेखन की गहराई अपूर्व है और मुझे यह दिलासा देती है कि इसे 'शब्दांकन' पर प्रकाशित कर आपतक पहुँचाने से कुछ बात बनेगी ज़रूर. इन्ही कोशिशों के बीच पढ़िए उनकी आगामी पुस्तक 'ये माताएं अनब्याही हैं' का अंश.. भरत एस तिवारी / शब्दांकन संपादक
सूदखोरों के खिलाफ आदिवासियों को मिशनरियों ने जमकर उकसाया है तो तो धर्म का भगवा पाठ संघ के शाखामृगों ने आदिवासियों को पढ़ाया। लेकिन आजीविका की जनवादी पहल किसी ने नहीं की...
कन्याओं की अस्मिता सोखते हैं नक्सली
— अमरेंद्र किशोर
ये माताएं अनब्याही हैं-2
ऊधम और अराजकता से अलग हटकर हम उस नक्सलवाद पर नजर डालते हैं जिसमें नक्सली कुनबे के साथ एक हरम यानी महलसरा भी साथ-साथ चलता है। और, उसी हरम की एक कनीज थी जानकी। कनीज का सम्बोधन मेरा नहीं है। बल्कि जिसने भी उसके बारे में बताया उसका ऐसा ही सम्बोधन था। इस कारण इस पूरी कहानी में आगे उसे न कनीज कहेंगे, न रखैल, न उपपत्नी और न ही सहवासिनी। क्योंकि जानकी भारत के आम नागरिक की तरह एक औरत है, उसका अपना वजूद है, जिस वजूद के साथ उसके अपने सपने हैं, अपनी महत्त्वाकांक्षाएं हैं। आज से पचास साल पहले भी आदिवासी उजाड़े गए मगर मीडिया में कुछ नहीं आया क्योंकि मीडिया तो उन्हीं उद्योगपतियों की थी। कौन लिखता सम्पादकीय, रिपोर्ट्स और फीचर ?
जानकी की चुप्पी साधारण नहीं थी। किसी भयंकर हादसा से उबरकर जैसे बाहर आयी हो— वह अनब्याही माँ बन गयी और उसके पहले उसके प्रेमी ने उसे जलील किया, खुद से उसे दूर किया। इस घटना को मसालेदार तरीके से किसी तेलुगु चैनल ने दिखाया तो नक्सल प्रेमी की धमकियां आने लगीं। तब से वह जब भी किसी से मिलती है तो कैमरा और रिकॉर्डिंग के तमाम उपकरण दूर रखवा देती है। इन सबके बावजूद वह बार-बार अपनी नजरों से आपको तलाशती मिलेगी। उसने अपने प्रेमी का पता ठिकाना नहीं बताया। इतना ही कहा कि कांगेर घाटी के किसी गाँव का रहनेवाला था। यहीं के किसी कुटुमसर गुफा ले चलने के वादे बार-बार करता था लेकिन अपने गाँव लेकर कभी गया नहीं। जानकी अपने गॉंव के हालत का विवरण देती है, जहाँ जुल्म की एक से एक कहानियां हैं। कल्याण से जुडी योजनाओं का कोई पूछनहार नहीं है।
व्यवस्थाएं आंकड़ों से चल रही हैं और आंकड़े कागज पर होते हैं।
इस बात को लेकर लोगों में घनघोर असंतुष्टि रहती है किन्तु किसी भी स्तर पर जन असंतोष और बढ़ती विषमताओं पर अंकुश लगाने के लिए कोई सार्थक प्रयास किसी ने नहीं किया। सच है कि व्यवस्थाएं आंकड़ों से चल रही हैं और आंकड़े कागज पर होते हैं। जाहिर है कि हकीकत भी जमीन पर नहीं कागजों पर है। सत्ता से बदहाली की वजह पूछिए तो झूठ बोलने लगती है। इस झूठ की अदा से शक की पुष्टि होती है कि हमारी व्यवस्था की रुचि नक्सलवाद को समाप्त करने के स्थान पर उसे बनाये रखने में ही अधिक रही है। इस हाल में गॉंव के लोग नक्सल खेमे से हमजोली करना बेहतर समझते हैं। जानकी के साथ कुछ ऐसा ही हुआ।
धर्मान्तरण के जोर में राधा कब रोजलिना हो गयी पता भी नहीं चला
जानकी के समाज से जुडी सच्चाइयों के रंग बेतरतीब न होकर लोकलुभावन तब हो जाते हैं जब उन्हें सरकारी विज्ञापनों से सजाकर दिखाया जाता है। राज्य के मुख्यमंत्री की तमाम सदिच्छाओं के बावजूद हिंसा थमने का नाम नहीं ले रही है। बल्कि वहां की सामाजिक विरूपता और साथ की असंगति कई आयामों के साथ अपने राज्य पोषित अत्याचार की संगिनी बनती दिखती हैं। ऐसे में देश का धार्मिक पक्ष बार-बार परेशान करता है। यह सच है कि बेतकल्लुफ़ फैलाव वाले वहां के जंगलों में स्वच्छन्द आदिवासी संस्कृति की अनंत गहराईयों के बावजूद वहां की आबादी के बीच गैर-हिंदू प्रतीकों का अतिचार और हस्तक्षेप लगातार बढ़ता जा रहा है। इस घुसपैठ ने वहां की स्त्रियों और कन्यायों के दामन को दागदार किया है। इतना ही नहीं, धर्मान्तरण के जोर में राधा कब रोजलिना हो गयी पता भी नहीं चला। जब रोजलिना के पैर धोकर उनकी घर वापसी का परचम लहराया गया तो आदिवासियों की ओर से सवाल उठना वाजिब था कि 'यदि हम साथ-साथ थे तो एकलव्य का अंगूठा काट लेना, घटोत्कच को जंगलों में पांडवों द्वारा लौटाया जाना और उन्हीं पांडवों द्वारा खांडव वन जलाया जाना किस नाट्यकृति का पूर्वपाठ था ?' जानकी ने भी ऐसा ही कुछ पूछा था कि 'हम आजाद देश के हैं तो मुझे न्याय क्यों नहीं मिलता ?' लेकिन उसे किसी ने बताया कि न्याय घर बैठे नहीं मिलता, मांगने से और गुहार लगाने से न्याय की देवी का तराजू हरकत में आती है।
आदिवासियों के धर्म का कोई प्रतीक चिन्ह नहीं होता
जानकी के समाज में सूदखोरों के खिलाफ आदिवासियों को मिशनरियों ने जमकर उकसाया है तो तो धर्म का भगवा पाठ संघ के शाखामृगों ने आदिवासियों को पढ़ाया। लेकिन आजीविका की जनवादी पहल किसी ने नहीं की। यह दो टूक निचोड़ समाजविज्ञानियों का है। आदिवासियों के हालात को दरकिनार करने का प्रचलन है लेकिन आदिवासी जानते हैं कि किसी दल विशेष ने नहीं अपितु सत्ता के वाशिंदे रोज-ब-रोज झूठ की आयतें गढ़ते रहते हैं। मगर अब इन आयतों के लिए आम जनता आस्थाओं और अपनी श्रद्धा दिखाने से बचती हैं। यह मानी हुई बात है कि आदिवासियों के धर्म का कोई प्रतीक चिन्ह नहीं होता — जहाँ पूर्वज दफनाए गए वहीं का पत्थर उनकी प्राचीनता की सात्विक दुहाई देते नजर आते हैं। लेकिन बीते तीन सौ सालों में देश-दुनिया के तमाम आदिवासी बहुल इलाकों की धरती पर कब्रों और सलीबों का समुच्चयबोध विस्मित ही नहीं करता बल्कि अब आतंकित करने लगा है। यही वजह है कि कभी ओडिशा का कंधमाल सुर्ख़ियों में विराजता है जहाँ मजहबी हिंसा के नतीजों में गिरजाघर और चर्च जलाये जाते हैं तो कभी गुजरात के वडोदरा के छोटे-उदयपुर में हजारों हथियारबंद आदिवासी मस्जिदों पर हमला करने से नहीं चूकते।
बिलायती धर्मों के एजेंट
इन हमलों की सच्चाई बहुत गहरी नहीं है— बल्कि इन तमाम बिलायती धर्मों के एजेंट उन आदिवासियों के देशज मूल्यों को हिकारत की नजरों से देखते हैं और उनके इशारे पर अनैतिक और आपराधिक ताकतों का घुसपैठ आदिवासी इलाकों में देखने को मिला है। एक ओर जहाँ हिन्दू धर्म के तमाम देवी-देवता उन्हीं पहाड़ों और जंगलों में शरणागत हुए जहाँ आदिवासी बस्तियां रहीं हैं और जैन-बौद्ध के तमाम तीर्थांकर वहीं ध्यानस्थ हुए जहाँ कभी आदिवासियों का प्राचीन बसेरा था। कहते हैं स्थानीय राजाओं ने इन पूजा-स्थलों को बनाने की छूट और सुविधाएं दी थीं। इन सब के बीच कार्पोरेट घरानों और मूल बाशिंदों के बीच परस्पर टकराव की खबरें गूंजने लगीं हैं। यह टकराव संस्कृतियां और मानसिकता का टकराव था जो आज से नहीं बल्कि सदियों से चल रहा है। आज से पचास साल पहले भी आदिवासी उजाड़े गए मगर मीडिया में कुछ नहीं आया क्योंकि मीडिया तो उन्हीं उद्योगपतियों की थी। कौन लिखता सम्पादकीय, रिपोर्ट्स और फीचर ?
नक्सली बनने की जरुरत क्या थी
देर रात तक चली इस चर्चा का परिणाम रतजग्गा साबित हुआ। जानकी की ज़िन्दगी में बेशुमार दर्द और तक़लीफ़ों को सुनने का साहस जुटाने में समय लगा। क्योंकि सुशीला उर्फ अंजू , उर्मिला, प्रमिला, मिनी, अंकिता की कहानियां नैतिकता और आबरू की दुहाईयाँ देते समाज और सरकार के मतलब की इस वजह से नहीं है क्योंकि वे सब की सब नक्सली हैं बाद में उनकी कोई पहचान है। बात यही उठती है कि नक्सली बनने की जरुरत क्या थी। कोई जानना नहीं चाहता कि आखिरकार किन परिस्थितियों में उन्हें नक्सली खेमे का आसरा ढूंढना पड़ा। जंगलात विभाग के सिपाही और कारिंदे आदिवासियों को तंग करते हैं, उन्हें झूठे मुकदमों की धमकियां देते है तो लाचारी में उन्हें नक्सलियों के पास जाना पड़ता है। लेकिन उन्हें क्या पता कि जो शरण देता है वही शोषक भी होता है।
विप्लव साहित्यम
यहाँ के जंगलों में मोर्चा बनाकर भारतीय सत्ता प्रतिष्ठान पर हमले करने वाले माओवादी नेतृत्व का बड़ा हिस्सा यहीं से शुरू होकर तेलंगाना तक जाता है। इस जिले में पनपी अतिवाद की नर्सरी मिटाने का तरकीब सरकार के पास नहीं है क्योंकि यहां की भौगोलिक और मौसम संबंधी स्थितियों के साथ तालमेल करना हमारे जवानों ने अभी नहीं सीखा है। इलाके में पाठ्यक्रम की किताबों से कहीं ज्यादा गवारा है विप्लव साहित्यम (क्रांतिकारी साहित्य), जो मूलतः माओत्से तुंग और उनकी लिखी लाल किताब का अनुवाद और व्याख्या है। इस साहित्य को दिल से माननेवाला मानता है कि सत्ता बंदूक की नली से निकलती है। इस कारण, इन लोगों के अपने उपनाम हैं और कईयों ने अपने घर-परिवार, बीवी-बच्चे और पुरानी यादों को पीछे छोड़ दिया है और बन गए समाज के पहरुए— अधिकारों के भाष्यकार। ऐसे में रह गए तो सिर्फ दीवारों और प्लास्टिक की सीली एलबमों में आठवें दशक के लम्बे मोहरी वाले पैंट पहने और घुंघराले बालों वाले उनके धूसर पोट्रेट। उन क्रांतिवीरों के पूर्वज सताये गए हैं। इस लिए उस युगीन जुल्म से लड़ने का सबसे 'माकूल तरीका' उन्होंने अपनाया है वह रीढ़ के हड्डियों में सिहरन पैदा कर देता है।उन्होंने अपना घर-टोला-टप्पर छोड़ दिया है। उनका मानना है कि उनका कोई परिवार नहीं है, अब तो आंदोलन ही उनका परिवार है। आज उसी आंदोलन के एक सिपहसालार की कहानी सुना रहा हूँ।
जानकी को अपने नए दोस्त का एके-47 पसंद आया
वह अपनी शिकायत लेकर बोंडाघाटी के जंगल में किसी नक्सली लाल सेनानी के पास गयी। नक्सली ने उसे भरपूर आश्वासन दिया कि दुःख दूर कर देंगे। जानकी को भरोसा मिला और भरोसे की ज़मीन जैसे ही मजबूत हुई उसने ठंढी बयार में अतर की महक महसूस की। कुछ ही घंटों में दोनों अच्छे और पक्के दोस्त बन गए। इस दोस्ती में जितनी गाढ़ता हो गयी उतनी ही प्रबलता और उत्कटता समाती चली गयी। जानकी को अपने नए दोस्त का एके-47 पसंद आया। उसे ख्याल आया कि तंग करनेवालों को सबक सीखाने का उपाय उसने ढूंढ ही लिया। शस्त्र की पूजा आदिवासी समाज की नियामक विधा है और आत्मविश्वास प्रदर्शन का आधार भी। उनके देशज स्वाभिमान में शस्त्र को लेकर अतिरिक्त लगाव ने उन्हें देश की मुख्यधारा में जीनेवाले समाज ने दहशतंगेज़ी का नायक बना दिया। जानकी को अपने इस अनजाने दोस्त की बातों में चट्टानी मजबूती दिखी। 'सर्वे पढ़न्तु और सर्वे बढन्तु' के तहत उसे अक्षर ज्ञान हो चुका था।
आखिरकार जानकी गर्भवती हो गयी
लिहाजा उसने 'विप्लव साहित्यम' भी पढ़ लिया। मिलने-जुलने का सिलसिला लंबा चला। मित्रता प्रगाढ़ता में कब बदल गयी पता नहीं चला। जानकी कई-कई दिन उस दलम में रहती थी और ज्यादा से ज्यादा प्रेम करती और खुद को लुटाती थी। और आखिरकार जानकी गर्भवती हो गयी। इसी बीच जंगलों में पुलिस की दबिश बढ़ गयी। पुलिस उसके पीछे पड़ गयी क्योंकि वह किसी इनामी नक्सली की मोहब्बत में कैद थी।
प्रेमी से अलगाव की पीड़ा, पुलिस की प्रताड़ना और समाज के ढेरों सवाल
जानकी वादियों से धीमे क़दमों और भारी पैर लेकर लौटी। दलम के साथ चलना मुमकिन नहीं था। दलम को क्या परवाह कि कौन छूटा और पीछे क्या था? इसलिए जानकी को अपने घर-द्वार लौटना पड़ा। अब किसे क्या कहती कि जंगल में क्या क्या हुआ? न जाने कितनों के साथ बिस्तर साझा करना पड़ा। अब पुलिस को क्या जवाब देती— सभी जान गए थे कि वह कहाँ जाती है और किससे मिलने जाती है। पुलिसिया पूछताछ के अंजाम से वह विचलित हो गयी। प्रेमी से अलगाव की पीड़ा, पुलिस की प्रताड़ना और समाज के ढेरों सवाल— इन सब के बीच खुद में उपजे न जाने कितने सवाल। ज़िन्दगी के वजूद पर सवाल— ज़िन्दगी के अंदर पलती नयी ज़िन्दगी को लेकर सवाल। जानकी थक चुकी थी। एक शोषण के उपाय में न जाने कितने शोषण। आखिरकार समय के साथ चलते हुए वह एक बच्चे की माँ बन गयी। पूरे मर्द समाज से निराश हो चुकी जानकी अपने नवजात बेटे से कैसे मुंह मोड़ती? हालाँकि पैदा हुआ बच्चा भी मर्द बनता और न जाने कितनी अनब्याही माताओं को जन्म देता। किन्तु फिलहाल उस बच्चे की क्या गलती थी। वह इस दुनिया में आया तो था जानकी के भरोसे। उसका अबोधपन और उसकी मासूमियत जानकी को विषाद और उदासियों में ला खड़ा करती थी। आखिरकार जानकी ने अपना मन पक्का किया और संभ्रम तथा विभ्रांति से खुद को निकालकर आगे बढ़ना जरुरी समझा।
लड़की उनके जंगल के बिछौने पर हर हाल में बिछेगी
सरकार उसे न्याय दिलवाने के मन मिजाज में थी। एक लंबा दौर बीता— सवालों का और फजीहतों का। सम्मोहन से लेकर अलगाव और उसके आगे दुर्गतियों और आत्मग्लानी का। लाल सेनानी कहाँ गया यह उसकी जिज्ञासा नहीं, बेचैनी नहीं— नक्सली के साथ रहना अपने आप को जोखिम में डालना था। लेकिन कहते हैं कि मोहब्बत की आरज़ू किस दर पर मत्था झुका दे, कहाँ घुटनों के बल रेंगना पड़े, कहना मुश्किल है। जानकी के साथ हुए इस हादसे के कई साल बीत चुके हैं। ओडिशा-आँध्रप्रदेश या छत्तीसगढ़ में अकेले जानकी नहीं है। हजारों की तादाद में ऐसी कन्याएं हैं जो लाल सेनानियों के हत्थे चढ़ गयीं। नकसली या तो अपना प्रभाव दिखाकर भोली-मासूम लड़कियों को अपनी ओर आकर्षित करते हैं या जो दिल को भा गयी उसका अगवा भी करते हैं। मतलब लड़की उनके जंगल के बिछौने पर हर हाल में बिछेगी। जानकी के साथ सब कुछ हुआ, जिसे हम जस का तस नहीं लिख सकते। वह जंगल से लौट आयी लेकिन उसका मन कहीं उन्हें टहनियों में फंसा हैं। बांस की पेचीली झाड़ियों में उलझा है।
तब से बहुत कुछ बदला— सत्ता बदल गयी। सत्ता के तेवर और तासीर में बदलाव आया। किन्तु सामाजिक न्याय और स्त्री आधिकारिता का मुद्दा और उससे जुड़ी तसल्लियाँ महज लोकतंत्र की मौजूदगी के भरतवाक्य हैं। न राष्ट्रीय महिला आयोग, न राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग और न भारतीय दंड विधान की धाराओं को संभालती व्यवस्था या नागरिक संगठनों का नोबेल वीर या मैग्ससे अवार्डी ओडिशा की हजारों मासूम लड़कियों को सुशीला उर्फ अंजू , उर्मिला, प्रमिला, मिनी, अंकिता या जानकी बनने से रोक पाता है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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