दिनमान की यादें - 4 - सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय — विनोद भारद्वाज | #DinmanKiYaden #Sansmaranama




विनोद भारद्वाजजी के इस 'दिनमान की यादें' संस्मरणनामा को हिंदी साहित्य की दुनिया में ख़ूब पसंद किया जा रहा है. लॉकडाउन संसार में उनकी इन यादों की बयार में छुपी अनजानी चुटीली बातों हमें कितना इंतज़ार था, पता नहीं था. आनंद लीजिये इस दफ़ा अज्ञेयजी के बहाने खोले जा रहे यादों के इस बक्से का... भरत एस तिवारी/ शब्दांकन संपादक.
#DinmanKiYaden


दिनमान की यादें - 4 | सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय

— विनोद भारद्वाज 



   साँप !
   तुम सभ्य तो हुए नहीं
   नगर में बसना
   भी तुम्हें नहीं आया। 
   एक बात पूछूँ —(उत्तर दोगे?)
   तब कैसे सीखा डँसना—
   विष कहाँ पाया?
अज्ञेय की एक प्रसिद्ध कविता 

सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय दिनमान के संस्थापक संपादक थे। टाइम्ज़ की मालकिन रमा जैन ने हिंदी के कई बड़े लेखकों को संपादक या विशेष संवाददाता बनाया। हिंदी लेखक अध्यापकी करने के लिए मजबूर थे, उन्हें अब कुछ बेहतर रास्ते नज़र आने लगे। धर्मवीर भारती, मोहन राकेश, कमलेश्वर आज के मुंबई में वातानुकूलित कमरों में बैठ कर लेखक की नई छवि बना रहे थे। रमा जैन टाइम मैगज़ीन जैसी पत्रिका हिंदी में चाहती थीं, वात्स्यायन जी ने अपने अनेक शिष्यों को दिनमान में जगह दी। रघुवीर सहाय, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, मनोहर श्याम जोशी जैसे नाम उनकी पसंद के थे। श्रीकांत वर्मा को रमा जैन ख़ुद टाइम्ज़ में लाई थीं। वह इस नई टीम में लगभग आउट्साइडर थे। पर शुरू में वह राजनीति ही नहीं, दूसरे विषयों पर भी जम कर लिखते थे। हुसेन पर उन्होंने एक कवर स्टोरी भी की थी। पर वह वात्स्यायन जी के साथ कभी सहज नहीं थे। मुझसे उन्होंने बताया, मैं वात्स्यायन जी के कमरे में जा कर लड़ना चाहता था, पर मेरी हिम्मत नहीं होती थी। एक बार पी कर गया, तब उन्हें खरी-खोटी सुना पाया। रघुवीर सहाय के संपादक बनने के बाद श्रीकांत जी का इंदिरा प्रेम बढ़ता चला गया, और ऐसी विचित्र स्थिति बन गई कि एक साप्ताहिक के संपादक और विशेष संवाददाता में कोई बातचीत ही नहीं थी, टाइम मैगज़ीन क्या ख़ाक बनती। 

पर दिनमान तब भी हिंदी में अद्वितीय था, युवा एम जे अकबर भी उसे अपना एक आदर्श मानते थे। वात्स्यायन जी के समय में मैं एक छात्र था, एक बार मत और सम्मत में मेरा एक पत्र छपा था। वो भी बड़ी बात थी। 

लघु पत्रिका आरम्भ की सफलता के कारण मैं दिल्ली आया तो टाइम्ज़ के आईटीओ दफ़्तर में गया। प्रयाग शुक्ल से मित्रता हो गयी थी, उन्होंने कहा वात्स्यायन जी कैबिन में बैठे हैं, जा कर मिल लो। मैं भीतर गया, बस थोड़ी देर मुस्कराहटों का आदान-प्रदान हुआ। कोई ख़ास बात नहीं हुई। 

लखनऊ में एक बार वह कुँवर नारायण के घर रुकने वाले थे। ड्राइवर परेशान था, मुझसे बोला, कोई बड़े आदमी आ रहे हैं क्या, कोई डालमिया आ रहे हैं क्या? मैंने हँस कर कहा, साहित्य के डालमिया ही हैं वे। 

एक दिन मुझे वात्स्यायन जी के साथ हज़रत गंज में घूमने का मौका मिला। विष्णु कुटी, महानगर कुंवर नारायण का घर था। वात्स्यायन जी सैर करने मुझे अपने साथ ले गये। पहले तो वह मुझसे मनोविज्ञान का छात्र होने के कारण गेस्टाल्ट पर सवाल करते रहे। फिर उन्होंन मेरा इम्तिहां लेना शुरू किया। रास्ते के पेड़ों के नाम पूछने लगे। मैं समझ गया था कि उनकी निगाह में मैं कवि बनने के काबिल नहीं। बाद में एक कविता में मैंने लिखा, वे पेड़ जिनके नाम मैं नहीं जानता। 

वात्स्यायन जी के साथ मैं कभी सहज नहीं हो पाया। एक बार होली के दिन रघुवीर सहाय के साथ उनके घर गया, वसंत विहार में। बढिया गुझिया खाई। बोलना तो रघुवीर जी को था। दिनमान के लिए एक बार मैं वत्सल निधि के कार्यक्रम को रिपोर्ट करने भी गया। पर वहाँ मेरा चित्रकार राम कुमार से अधिक संवाद हुआ। उनके बनाए दो रेखांकन मेरी रिपोर्ट के साथ छपे भी। इला डालमिया तब वात्स्यायन जी की संगिनी थीं। वही मुझे आग्रह कर के ले गयी थीं। वात्स्यायन जी से तो मौन संवाद ही हो पाया। 

बस एक बार मेरी उनसे कुछ देर सार्थक बातचीत हुई। इला जी ने कहा, आप किसी दिन घर ज़रूर आइए, वात्स्यायन जी ने पेड़ पर छोटा-सा घर बनाया है। आपको उसे देख कर अच्छा लगेगा। मैं मौन संवाद की ही उम्मीद कर के गया था, पर वात्स्यायन जी उस दिन कुछ बोलने के मूड में थे। एक बड़ी शानदार कड़क चाय उन्होंने पिलाई और कुछ देर हम कविता रचने की प्रक्रिया पर बात करते रहे। मैंने उन्हें बताया, जब मैं डीटीसी की ठसाठस भरी बस में ऑफ़िस जाता था, तो पहले स्टॉप से बस पकड़ने की वजह से खिड़की के पास की सीट तो मिल जाती थी, पर वहाँ बैठ कर कभी-कभी कविता की कोई अच्छी पंक्ति दिमाग़ में आती थी, तो मैं बस के बहुत छोटे-से टिकट पर किसी तरह से वह पंक्ति लिख लेता था। डर लगता था वह पंक्ति कहीं खो न जाए। 

वात्स्यायन जी अपनी सौम्य मुस्कान के साथ बोले, मैंने भी अक्सर हवाई जहाज़ के टिकट पर अपनी कविताओं की पंक्तियाँ लिखी हैं। 

शायद हमारे बीच यही दूरी थी, काफ़ी लंबी दूरी। 

मुझे अपनी संपादकीय टीम में शामिल करने के लिए धर्मवीर भारती और रघुवीर सहाय उत्साहित थे पर वात्स्यायन जी की टीम में मुझे जगह न मिलती। 

लेकिन अपनी तमाम सीमाओं के बावजूद वात्स्यायन और रघुवीर सहाय ही असली दिनमान के संपादक थे। 1982 तक ही यह परंपरा चल पायी। बाद के दस बरसों में हम नंदन, सतीश झा, घनश्याम पंकज जैसे औसत भी न कहे जा सकने वाले संपादकों को झेलने के लिए अभिशप्त थे। इस नक़ली दिनमान का सिक्का दस साल तक चल पाया, पर पत्रकारिता की एक स्वस्थ परंपरा टाइम्ज़ प्रबंधन की विज्ञापन बटोरने की नीतियों और रघुवीर सहाय की मैनज्मेंट में लगातार कमज़ोर होती स्थिति के कारण ख़त्म हो गयी। 

कन्हैयालाल नंदन धर्मयुग में भारती के बदनाम काले रजिस्टर (रवींद्र कालिया की चर्चित कहानी)से किसी तरह से बच कर दिल्ली आ गए थे पराग और सारिका के संपादक हो कर उन्होंने मैनज्मेंट को यह साबित करने की कोशिश करी कि मैं बीमार पत्रिकाओं को स्वस्थ कर देने वाला एक बढ़िया डॉक्टर हूँ। पर बाद में वह भी बुरी तरह असफल रहे। नंदन का एक उल्लेखनीय योगदान मेरे अच्छे मित्र उदय प्रकाश को दिनमान में ले आना था। उदय के साथ मेरे इस नए दिनमान में कुछ अच्छे दिन कटे। सतीश झा मंगलेश डबराल को जनसत्ता से ले आने के सपने ही देखते रहे। वह मंगलेश की एडिटिंग की कला के ठीक ही प्रशंषक थे पर ख़ुद काफ़ी अनाड़ी थे। ऋचा जैन से मित्रता का लाभ उठा कर वह कुछ समय दिनमान की गोल्डन गद्दी पर बैठ सके। घनश्याम पंकज तो कमाल के संपादक थे। कोई लड़की कमरे में आ जाती थी, तो अपनी झक सफ़ेद शर्ट के ऊपर के बटन खोल कर सीने में अपनी उँगलियाँ घिसते हुए मुस्कुराते हुए बैठ जाते थे। 

दिनमान में अब एक प्लेबॉय संपादक आ चुका था। 

(अगली बार रघुवीर सहाय एक संपादक के रूप में)

(ये लेखक के अपने विचार हैं।)




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1 टिप्पणियाँ

  1. वे कब तक दिनमान के संपादक रहे थे? रघुवीर सहाय कब बने? याद है? जानना चाहूँगा।

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