Hindi Story: 'झाल वाली मछली' — अचला बंसल की हिंदी कहानी

जब आप कोई कहानी पढ़ना शुरू करें और उस कहानी का कहानीपन आपको पकड़ ले तब आप उस कहानी के लेखक को शुक्रिया ज़रूर कहें. शुक्रिया अचला बंसल जी. गजब कहानी कही आपने 'झाल वाली मछली'. और एक शुक्रिया जो इस कहानी के लिए कहा जाना है वह प्रिय प्रियदर्शन जी को जिन्होंने अंग्रेज़ी में लिखी गई इस कहानी को शानदार हिंदी में, अपनी अनुवाद-कला से पेश किया है. उतरिये इस साहित्यिकी संगम में... भरत एस तिवारी/शब्दांकन संपादक



झाल वाली मछली

— अचला बंसल

अंग्रेज़ी से अनुवाद : प्रियदर्शन

एक बजकर दस मिनट हुए थे। घण्टी बजने में बीस मिनट बाकी थे, दिन खत्म होने में भी। यानी उस दिन स्कूल खत्म होने में। दिन तो खैर जारी रहेगा रात तक और बनी रहेगी उसकी चिपचिपी गर्मी।

आखिरी पीरियड चल रहा था। दोपहर की गर्मी से उकताए, अपनी नीरस दिनचर्या से अलसाए टीचर, कनखियों से अपनी-अपनी घड़ी देख रहे थे। घण्टी बजने से पांच मिनट पहले पढ़ाई खत्म करनी होगी, वरना कायदे-कानून ताक पर रख, बच्चे दौड़ते-भागते क्लासरूम से निकल पड़ेंगे और अपने पीछे छोड़ जाएंगे, गुमशुदा चीजों की फेहरिस्त। अगले दिन जल्दी मचाते अभिभावक, उनके बीच से अपने अपने बच्चे की छोड़ी चीज ढ़ूंढ़ते फिरेंगे। कुछ तो मिलेंगी ही नहीं, और मिल भी गईं तो अभिभावक शिकायत करने से बाज नहीं आएंगे। इसलिए प्राइमरी स्कूल के अलमस्त बच्चों को, सामान समेटने के लिए पांच मिनट देने जरूरी हैं।

हीरालाल न टीचर था न छात्र। पर स्कूल में उसकी मौजूदगी किसी टीचर या स्टुडेंट से कम ज़रूरी नहीं थी। फिर हीरालाल किसी साधारण स्कूल में तो काम करना नहीं था। यह एक सरकारी स्कूल था, और इस लिहाज से हीरालाल एक सरकारी नौकर। कम से कम वो यही मानता था, हालांकि नौकर शब्द से उसे नफ़रत थी।

अपने पिछले मालिक को, जो एक बडे अफसर हुआ करते थे, खुश करने की कोशिश मेंं हड्डियां चूर करने के पीछे वही नौकर होने का अहसास था, जिसकी वजह से उसने, गहरी नफरत के बाबजूद, मालिक की खुशामद करने में कोई कसर नहीं रखी थी। कहने को वह पुराना मालिक अब आला अफसर हो चुका था पर असलियत देखी जाए तो फ़कत सरकारी नौकर।

गांव जवार के बचपन में उनसे अनायास हुई एक मुलाकात ने, हीरालाल को, बाढ़ से बरबाद बिहार के एक गांव से उठा कर, इस चमक-दमक के बीच ला खड़ा किया था, जो जाना जाता है शहर दिल्ली के नाम से। हीरा को- जो बचपन से इसी नाम से पुकारा जाता था- ट्रेन नाम की चीज बहुत अच्छी लगती थी। वह हमेशा कल्पना करता कि किसी ट्रेन में बैठकर एक दिन बहुत दूर निकल जाएगा। लेकिन ट्रेनें उसके गांव में शायद ही कभी रुकतीं। वे धड़धड़ाती हुई आतीं और रेल की पटरियों से लगी उनकी कच्ची झोपड़ियों को थरथराती हुई, दूर निकल जातीं।

एक दिन हुआ यह कि एक ट्रेन वहां रुकी और दिन भर खड़ी रही। ये अद्भुत नज़ारा आंख भर देखने के लिए, आते जाते गांव वाले ठिठक कर खड़े हो जाते पर फिर अपने काम से लगते और आगे बढ़ जाते। उनकी तंगहाल ज़िंदगी, लगातार हो रही बेरहम बारिश की मार से नई मुश्किलों से भर गई थी। फुरसत से खड़े रहने के लिए उनके पास वक़्त नहीं था।

रुकी ट्रेन देख, सब काम-धाम भूल, हीरा उसके पास जा खड़ा हुआ, फिर दरवाज़ा खुला देख, थरथर कांपता हुआ, भीतर दाख़िल हो गया। यह ख़याल कि उसके रहते ट्रेन अचानक चल सकती है, उसे रोमांचित भी कर रहा था और दहशत से भी भर रहा था।

"एई, तुम।"

जब वह कॉरिडोर में खड़ा कंपार्टमेंट के भीतर झांक रहा था, एक भारी हाथ ने उसका कंधा आ दबोचा। हीरा को दहशत ने जकड़ लिया। उसने उस शख्स की पकड़ से अपने को छुड़ाने की असफल कोशिश की।

"तुम यहीं रहते हो? नहीं?" उस आदमी ने पूछा।

बाहर निकलने के रास्ते की तरफ बेताबी से देखते हुए, हीरा ने सिर हिलाया। वह जेल जाना नहीं चाहता था। वह भाग कर झाड़ियों में छुप जाएगा। "क्या पास में कोई बाज़ार है? हमें थोड़ा दूध चाहिए।" पकड़ने वाले ने पूछा और अपने माथे का पसीना पोंछने के लिए उसके कंधे से हाथ हटा लिया।

"दूर है।" बाहर की तरफ बढ़ते हुए वह बुदबुदाया।

"देखा, मैंने कहा था, डरने की ज़रूरत नहीं है, ज़रूर आसपास कोई बाज़ार होगा," बोगी के अंदर से एक महिला चहकी।

"आओ, भीतर आओ," उसने उसे आने का इशारा किया। हीरा झिझका। वो ट्रेन से कूद जाए या... पर हिम्मत करके उसने वह मौका लपक लिया जो दो खाली थर्मसों की शक्ल में, उस तक आया था- एक दूध के लिए और एक चाय के लिए। बारिश और कीचड़ से लापरवाह, वो बाज़ार की तरफ दौड़ पड़ा।

उसी के एवज़ में उसे दिल्ली का टिकट और एक सरकारी नौकर के यहाँ काम मिल गया। उसने कसम खाई कि वह महज़ नौकर नहीं रहेगा, सरकारी नौकर बनेगा।

पर जब भी हीरा अपनी मौजूदा हैसियत से असंतुष्ट होता, उसके मालिक उसे याद दिलाते, "हीरा, पहले बड़े तो हो जाओ।"

"अभी निरे बच्चे हो। जब तक बालिग नहीं हो जाते। तब तक तुम्हें कहीं नौकरी नहीं मिलेगी।" उनकी पत्नी तुष्ट भाव से जोड़ती।

"बालिग होने की उम्र क्या होती है?" हीरालाल जानना चाहता था।

"18", मालकिन ने तीखेपन से जवाब दिया था। यह सोच कर ही उन्हें घबराहट होने लगती थी कि कहीं वह उन्हें छोड़ कर चला गया तो अपने दो ऊधमी बच्चों की देखभाल उन्हें खुद करनी होगी। हीरालाल ने अपने बचपन का आखिरी साल और पूरा लड़कपन उसी तरह उनके घर पर नौकरी करते गुज़ार दिया। बालिग होने और उसके साथ गरीबी और गुलामी से निजात पाने का ख्वाब उसे सहारा दिये रहा। सरकारी नौकर होने के अपने मकसद के पीछे वह लगभग वेताल की तरह लगा रहा। गुप्ता परिवार के बाशिंदों के लिए साल तेजी से निकलते गए। हीरा के लिए वे बेहद मुश्किल और उबाऊ साल थे। कभी न ख़त्म होने वाली नीरसता से भरे। लेकिन वक़्त को तो बीतना था; बीत गया। उसके लिए भी। वह अठारह साल का हो गया।

एक दिन अपने संकोची स्वभाव के विपरीत, उसने मिस्टर गुप्ता से सीधे बात की- आमने-सामने- कि वे उसे अपने ऑफिस में लगा दें। मिस्टर गुप्ता ने अपना संडे न्यूजपेपर नीचे किया था और हल्की झुंझलाहट के साथ हीरा को देखा।

जो तेज-तर्रार लड़का उनके सामने खड़ा था, वह उस कमजोर लड़के से बिल्कुल मेल नहीं खाता था जिसे वे कभी रेलवे की पटरी से उठा कर घर ले आए थे। अब वह उन्हें उस वायदे की याद दिला रहा था, जो उन्हें याद तक नहीं था कि उन्होंने किया था।

उसे देख मिस्टर गुप्ता की झुंझलाहट हैरानी में बदल गई और उन्होंने तय किया कि उस बाग़ी लड़के को घर में रखना,जोखिम से ख़ाली न होगा। अपने दफ्तर- या किसी भी दफ्तर में- काम दिलवाना भी संभव नही था।

"तुमने किस क्लास तक पढ़ाई की है हीरा?" उन्होंने बड़ी मिठास से पूछा था। जवाब उन्हें मालूम था। उसी में उनकी मुक्ति थी। हीरालाल पूरी तरह निरक्षर था। उसके लिए कोई सरकारी नौकरी मुमकिन नहीं थी। मसला खत्म।

"सरकार का बनाया हुआ कायदा है हीरा, यहाँ मैं कुछ नहीं कर सकता," उन्होंने कुछ अफसोस के साथ कहा था।

लेकिन उन्होंने उसे बिल्कुल बेसहारा नहीं छोड़ा। अपने संपर्क का इस्तेमाल कर, उसे एक सरकारी स्कूल में नौकरी दिला दी। "अब तुम एक सरकारी नौकर हो," उन्होंने उससे कहा, कुछ उसे खुश करने को और कुछ उससे निजात पाने की कोशिश में- दोनों उनकी सुरक्षा और मानसिक शांति के लिए ज़रूरी थे। हीरालाल का खुशी से दमकता चेहरा देख उन्होंने राहत की सांस ली। वे समझ गए, उनकी रणनीति कारगर रही।

"अब मैं सरकारी नौकर हूं", अपने पहले सरकारी दौरे पर जब हीरालाल गांव गया तो उसने हर किसी को बताया। यह शब्द वह न जाने कितनी बार अपने मालिक के घर सुन चुका था। सिर्फ मिस्टर गुप्ता ही इन तथाकथित सरकारी दौरों पर नहीं जाया करते थे, उनकी पत्नी भी सजी-संवरी, गहनों से लदी-फदी उनके साथ हो लेती। सरकारी मेरा ठेंगा, दोनों को सरकारी कार से निकलते देख हीरालाल नकली हँसी हँसता।

अब वह भी सरकारी कर्मचारी था। लेकिन उसके पास कोई कार नहीं थी, सरकारी या और किसी तरह की। हुक्म चलाने के लिए भी कोई नहीं था। इसलिए कभी-कभी वह भीतर दबा गुस्सा बच्चों पर निकालता- नहीं हुज़ूर, अपने बच्चों पर नहीं, उसके लिए तो पहले उसे श्रीदेवी नुमा कोई बाला खोजनी थी- जिसे वह अपनी बीवी बना पाता।

लेकिन आम तौर पर बच्चे भी पलटवार करते और टीचर से उसकी शिकायत कर देते। जब अपनी बदतमीज़ी के लिए उसे डांट पड़ती, हीरालाल अपने गुमान को कुछ देर के लिए छोड़ सिर झुका लेता है, जैसे वाकई पछता रहा हो। लेकिन ज़्यादा फिक्र न करता; आखिर वह प्रोबेशन पर नहीं है। कई शिक्षकों की तरह नया रंगरूट भी नहीं है।

जब एक लड़की टीचर ने उसे सुधारने की कोशिश की तो उसने पलट कर ढिठाई से उसे सिर से पांव तक घूरा। उसकी निगाहों को अपने भरे-पूरे वक्ष पर फिसलते देख, वह, हक्का-बक्का, अपना उपदेश अधूरा छोड़, तेजी से बाहर निकल गई। वह अच्छी तरह जानता था कि वह उस तरह की जोखिम बार बार मोल नहीं ले सकता था, वरना उस पर गुंडा होने की तोहमत लग जाती। हालांकि वे उसे स्कूल से निकाल नहीं सकते थे, लेकिन उसका तबादला किसी नामुराद जगह के उतने ही नामुराद स्कूल में ज़रूर कर सकते थे। इसी तरह चला करती है न, अपनी सरकार? उसके मालिक मिस्टर गुप्ता दर्जनों तबादलों के बाद दिल्ली पहुँचे थे। और दुबले-पतले मिस्टर सिंगल, जो अक्सर सरकारी और गैरसरकारी दौरों पर उनके घर आते थे, बीसियों ऊटपटांग तबादलों के बाद यहाँ पहुँच पाए थे। जब वे अपनी नियुक्तियों से जुड़े किस्से सुनाते और तो उनकी मूढ़ पत्नी बेवकूफ़ों की तरह मुस्कुराती रहतीं।

मिस्टर सिंगल की तरह, मां-बाप की पसंद की किसी गंवार देसी छोकरी से शादी करके वह अपनी ज़िंदगी बरबाद करने वाला नहीं था। नहीं, उसे अपने सपनों की रानी खोजने के लिए दिल्ली रहना था। आज ही, साइकिल से स्कूल आते वक़्त एक का उसने चुपके से जायज़ा लिया था। बस स्टॉप की तरफ जाते हुए उसके नितंबों की लहरिया लय देख, हीरालाल की रगों में बहता खून तेज़ हो गया था। स्कूल के सूने गलियारे में बैठे हीरालाल ने कल्पना की कि उसका आकर्षक जिस्म उसकी बांहों में बंधा है और वह मंद मंद मुस्कुरा दिया।

"चल हट", रूपमती की अपरिचित कर्कश आवाज़ उसे उसकी नीमबेहोशी से बाहर खींच लाई और वह उछल कर तेज़ी से चल दिया।

वह नहीं चाहता था कि रूपमती की अपशकुनी आँख उसके भीतर पल रहे सपने पर पड़ कर उसे अपनी मंज़िल पर पहुँचने से पहले ही चकनाचूर कर दें। कैसी सड़ियल औरत है ये रूपमती, हीरालाल ने मायूसी से सोचा। कभी-कभी तो शक होता है, वह औरत है भी या नहीं, यानी वाक़ई एक ज़िंदा जहान औरत। अभी तक उसने ऐसी कोई औरत नहीं देखी थी, जिसका सीना इस क़दर सपाट हो जैसा रूपमती का था। और आई किसकी जगह थी वह? एक अल्हड़ कमसिन की जगह-वह थी असली औरत, हर नज़र में, हर कोण से-जो सफाई कम करती और अपने उभार ज्यादा दिखाती। जब वह झाड़ू से खिलवाड़ करते करते, उस पर अपनी लजाई मुस्कुराहट की बर्छी चलाती तो उसे कनखियों से देखने में कितना मज़ा आता था। उसकी हड़बड़ाई चाल देख, रूपमती की आंखों में एक शैतानी चमक कौंध गई। गुंडा! वह उसकी बदचलन नीयत को अच्छी तरह पहचानती थी। उससे पहले वहाँ काम करने वाली, गंगा नाम की छोकरी, इसी की वजह से निकाली गई थी और स्कूल को उसकी जगह किसी की भरती करनी थी। तब कानी रूपमती से अच्छा कौन हो सकता था?

वह याद करके हँस पड़ी कि किस तरह पहले दिन, जब हाथ में झाड़ू लिए, रूपमती ने मुड़कर उसे देखा था, तो हीरालाल का चेहरा डर से स्याह पड़ गया था। वह एक फिल्मी गाना गुनगुनाता हुआ उसकी तरफ आया था, "अहा-हा, मैं हूँ हीरो हीरालाल।"

उसे देख कर हकला गया था, "कौन हो तुम? "

"रूपमती," अपनी एक आँख से उसे तौलते हुए उसने सपाट ढंग से जवाब दिया था। उसका जवाब सुन कर उसका मुँह खुला का खुला रह गया था और वह बुड़बक की तरह उसे ताकता रहा था।

रूपमती गलियारे के एक सिरे से दूसरे सिरे तक, अपनी पूरी ताक़त के साथ झाड़ू फटकार रही थी - झप-झपाक-झप-झपाक की आवाज़, सूने गलियारे में गूंज रही थी। हीरालाल ने दांत पीसे और खुद पर काबू रखने की कोशिश में बीड़ी सुलगाई। जब से रूपमती उसकी ज़िंदगी में आई थी, उसका फिल्मों का खर्च बढ़ गया था। उसकी पाला मार जाने वाली आंख या तीखी ज़ुबान से बचने का और कोई तरीका उसके पास नहीं था । इन दिनों वह स्कूल से निकलता तो मुंह में एक कड़वा स्वाद होता और दिल में तमन्ना कि किसी तरह वह उससे छुटकारा पा सके। छुटकारा पाने की कसम खाता, वह सिनेमाघर पहुँच जाता और विलेन को बहुत ध्यान से देखता, उसके एक-एक कातिलाना कदम पर नज़र रखता। पर फिर हीरोइन आ जाती जो अपने रंगे हुए होठों के साथ उसे बहा ले जाती। रूपमती भुला दी जाती और हीरालाल, खलनायक का साथ छोड़, किसी और ही स्वप्नलोक में विचरण करने लगता।

आज रूपमती भी एक सपना देख रही थी। उसका भाई उसकी बेटी रेवती के लिए लड़का देखने जा रहा था। बड़ी मुश्किल से अपने भाई को तैयार कर पाई थी कि वह उसकी तीन बेबाप की बेटियों की तकदीर में थोड़ी दिलचस्पी ले। वह उससे दस साल बड़ा था और वह बचपन से ही उससे डरी-सहमी रहती आई थी।

"वो बदमाश," शादी की बाबत उसकी चिरौरी सुन कर वह गरजा था, "मेरे हाथ पड़ जाए तो मैं उसे मार डालूं। तीन बेटियां पैदा करके भाग गया और ब्याह करवाने के लिए उन्हें मेरे ज़िम्मे छोड़ गया।"

रूपमती खुश थी कि भाई की बदमिजाजी झेलने के लिए वह मौजूद नहीं था। उसके उम्रदराज़ दिल के कोने में अपने भागे हुए पति के प्रति अब भी प्रेम बचा हुआ था। क्या शानदार दिखता था वो, भरा-पूरा मर्द। क्या हुआ जो उसके पास पक्का काम नहीं था, वह उन दोनों के लिए गुजारे-भर कमा सकती थी। शादी से पहले उसने ख़ुद को तसल्ली दी थी कि जब बच्चे होंगे, वह जिम्मेदार हो जाएगा और किसी काम से लग जाएगा; और आगे बढ़कर शादी कर ली थी। उसके भाई ने उसकी दीवानगी को पागलपन करार दिया था और कहा था कि उसके उस आत्मघाती कदम से, उसका कोई लेना-देना नहीं है, यहाँ तक कि उसने उस  शादी को शादी मानने से इनकार कर दिया था।

कई साल बाद, पति के छोड़ जाने के करीब दस साल बाद, वह कुछ पिघला था और सबसे बड़ी बेटी के लिए लड़का खोजने को तैयार हो गया। वह भी, इसलिए कि लड़की अपने बाप पर गई थी और खासी खूबसूरत थी।

वह उसे बार-बार याद दिलाता कि भगवान का शुक्र करो कि तुम्हारा कोई बेटा नहीं है, वरना वह भी उसी बदमाश की तरह निकलता। रूपमती दार्शनिक की तरह चुप रहती, वह नहीं चाहती थी कि वह उसे बुरा मानने का मौका दे और मदद न करने का बहाना। वह अपनी बेटियों पर क़यामत की नज़र रखती; इतने जोशोख़रोश से उनकी निगरानी करती कि कोई ऐरा-गैरा उनके आसपास न भटक पाता। घर में मर्द के न होने की वजह से उसे कठोर होना पड़ता है, उसने अपने और अपनी बेटियों के दिमाग में भर दिया था।

वह चाहती थी कि उसकी बेटियों की अच्छी जगह शादी हो। हालांकि उनसे बिछुड़ने के खयाल से उसका दिल टूट जाता, लेकिन वह जानती थी, एक दिन यह होना ही है। उसने कभी अपने खयालों को शब्द नहीं दिए क्योंकि बेटियों के प्रति उसके अतिरंजित लगाव को और कोई नहीं समझता। उसके समाज में लड़की को चिंता के अलावा कुछ नहीं समझा जाता था, जिससे जितनी जल्दी छुटकारा पाया जाए, उतना अच्छा। कुदरतन उसका भाई भी यही सोचता था। मन ही मन रूपमती ने तय कर रखा था कि वह उसे बात तो करने देगी, लेकिन अंतिम मुहर उसी की होगी। रिश्ता होने से पहले किसी भी हाल, उसे लड़के को देखने का तरीका निकालना होगा। उसे पता था कि अगर वह भाई से कहेगी तो वह मना कर देगा, क्योंकि उनके समाज में वह अनहोनी घटना होती। उनके यहाँ मर्द की हुकूमत चलती थी और सारे बड़े फैसले वही करता था। विवाह के पवित्र गठबंधन से ज्यादा बड़ा फैसला और क्या हो सकता है? रूपमती का दिमाग अपनी तेज चलती झाड़ू की तरह तेज़ी से काम कर रहा था।

अगली सुबह, अपनी थकी, धुंधलाई नज़र लिए रूपमती स्कूल पहुँची। रात को नींद न आने और दिमाग में चल रही उलझन की वजह से आँख बुरी तरह दुख रही थीं। उसका भाई उसकी बेटी के लिए जिस लड़के को देखने गया था, वह उसे पसंद आ गया था। वह अपने साथ लड़की का फोटो ले गया था और लड़के ने रज़ामंदी दे दी थी। "मैं तो वहीं शादी पक्की कर आया होता- लड़के को दहेज नहीं चाहिए, अच्छा काम करता है और रहने के लिए क्वार्टर है, और क्या चाहिए"- लेकिन वह शादी से पहले लड़की देखना चाहता है। मैंने कहा कि इसकी जरूरत नहीं है, अगर उसे फोटो पसंद है तो लड़की भी पसंद आएगी। लेकिन उसने कहा कि यह उसकी इकलौती मांग है। मुझे तो अजब लगता है, उसका भाई धीरे से बुदबुदाया।

उसने उसके दुविधा में डूबे दिमाग का फायदा उठाया और उसे, लड़के को घर बुलाने के लिए तैयार कर लिया। "यह तुम्हारा फैसला है, मेरा नहीं," इतना बड़ा कदम उठाने के नतीजे से मतलब न रहने पर राहत महसूस करते हुए उसने कहा था।

अगर उसने उसे देखने के बाद शादी के लिए मना कर दिया तो कौन शरीफ़ परिवार उसकी बेटी का हाथ मांगेगा? उसने तो यही चाहा था कि वह सारी उम्र कुंवारी न रह जाए। अपनी बहन जैसी बेवकूफ़ और उसी जैसे बहके दिमाग वाली औलादों को सहना, उसके लिए मुश्किल होता जा रहा था। जितनी जल्दी छुटकारा मिले उतना अच्छा, उसने सोचा और न्योता देने को तैयार हो गया ।

रूपमती सोचने लगी, अपने भावी दामाद के लिए क्या-क्या पकाए। उसे ज़रा भी शक नहीं था कि उसे रेवती पसंद आएगी। जो भी उसे देखता, उसकी सुंदरता के बस में हो रहता। लेकिन अगर वह मुझे पसंद न आया तो, अचानक उसे हताश करता ख़याल आया। अपने भाई से यह कह पाना मुमकिन न था। वह गलियारे में जोर-जोर से झाड़ू घुमाने लगी। "गु़ड मॉर्निंग," एक खुशनुमा आवाज़ उसके कानों में पड़ी। वह बीच में ही रुक गई, और हीरालाल के मुस्कुराते चेहरे को डबडबाई आंख से देखने लगी। उसकी आँख में आंसू आ गए।

"अरे, क्या हुआ?  तू वाकई रो रही है या.... ’

"चुप कर। मैं रो नहीं रही। लेकिन तू बंदर की तरह क्यों मुँह फाड़े है। कोई लॉटरी लगी है क्या? ", उसने ताना मारते हुए पूछा।

"शायद," वह हँसने लगा; उसे अपनी खुशकिस्मती किसी से साझा करने की बेताबी थी। आँख में आंसू भरे, वह मां जैसी लग रही थी-एक अकेली आँख, उसने सिहरते हुए सोचा और इससे पहले कि वह आँख उस पर अपनी अपशकुनी चुड़ैल नज़र डालतीं, वह वहाँ से उठ कर चल दिया।

रूपमती स्कूल से घर लौटते हुए रास्ते में मछली बाज़ार रुकी। इन दिनों मछली सस्ती थी। नकली सरसों तेल की बिक्री की वजह से बहुत सारे लोगों की जान चली गई थी और नतीजतन उसकी बिक्री पर रोक लग गई थी, जिससे मछलियों के दाम गिर गए थे। रूपमती के घर सरसों का कुछ तेल पड़ा हुआ था, लेकिन वह उसे इस्तेमाल करने का जोखिम नहीं उठाना चाहती थी। लेकिन फेंकने को भी तैयार नहीं हो पाई। इतनी ज्यादा बरबादी अमीरों के ही बस की बात है, उसने रुखाई से सोचा। पेट में पहुँचाने की जगह, उसने उसे, दिवाली के लिए बचा रखा था, उससे दीये कुछ ज़्यादा देर जलेंगे। कौन जाने, लक्ष्मी जी का मन, उसके छोटे से घर में पांव रखने का कर जाए। जब दिवाली की रात आधा पेट खाकर घर के लोग सोए हों।

लेकिन आज अपने विशेष मेहमानों को वह उबला हुआ खाना नहीं परोस सकती थी। वह अपने भाई से पूछना भूल गई थी कि खाने के लिए कितने लोग आने वाले थे। उसने सीलबंद तेल का एक छोटा सा पैकेट खरीदा। जब कार से उतर कर एक औरत ने उसी ब्रांड का पांच लीटर का कैन खरीदा तो वह संतोष से मुस्कुरायी। इसके ख़राब होने का अंदेशा नहीं है। उसे पता था, उसकी मछली सरसों तेल में जितनी जायकेदार बनेगी, उतनी किसी और तेल में नहीं।

खाना अच्छे से हो गया। मछली स्वादिष्ट साबित हुई। लड़का और उसका चाचा सब चट कर गए, एक टुकड़ा भी नहीं छोड़ा। उसकी शानदार भूख से रूपमती खुश हुई। अच्छी सेहत की निशानी, उसने मतलब लगाया। लेकिन अपनी सारी कोशिशों के बावजूद वह लड़के का, कुछ देख पाई तो सिर्फ एकदम नया जूता। किसी भी बहाने उसका भाई उसे कमरे में आने की इजाज़त नहीं देता। "उसकी चाची ने तो न आने की समझदारी दिखाई, तुम्हारा मर्दों के मामले में नाक घुसेड़ना ज़रूरी है?" उसने उसे झिड़क दिया था और चेताया था कि अगर वह रसोई घर से झांकती नज़र आई तो वह उठकर चल देगा। उसने दूरी बनाए रखी थी और वहाँ से आ रही हर आवाज़ पर कान लगाए रही थी। ऊंची कर्कश आवाज़, जो मिट्टी की दीवारों में गूंज रही थी, उसके चाचा की थी, उसने अनुमान लगाया।

लड़के की इच्छा के मुताबिक, उसके भाई ने खाना ख़त्म होने के बाद, अनिच्छा से रेवती को खीर लेकर कमरे में आने दिया। उसने इसे मेज़ पर रखा और चली गई। ‘देखना’ हो चुका था, पहली और आख़िरी बार। जब रूपमती ने बेटी से लड़के के बारे में पूछा तो वह गाल में गड्ढा बनाती, मोहक मुस्कुराहट मुस्कुरा दी।

रूपमती का दिल अपनी बेटी की लजाई हुई मंज़ूरी की याद से खिल गया।

"रानी रूपमती, जब तुम मुस्कुराती हो तो कुछ-कुछ सुंदर लगने लगती हो।" हीरालाल की मज़ाक उड़ाती आवाज़ सुनकर, उसने होंठ सिकोड़ लिए। चाहती तो झाड़ू मारकर उसके चेहरे की बौड़म हँसी को हवा कर देती।

"तू किससे मिल आया, श्रीदेवी से?" उसने ताना कसा।

"नहीं, रवीना टंडन से, श्रीदेवी मेरे लिए बहुत बड़ी है।"

"दिखता मेंढक है और आंखों में सितारे हैं," रूपमती बड़बड़ाई।

एक लम्हे से भी कम के लिए, हीरालाल की आंखें कातिलाना गुस्से से जल उठीं। वह सोचने लगा, कैसे इस औरत से पीछा छुड़ाया जाए। फिर सहसा एक गोरी गुदाज़ बांह और गाल में पड़ते गड्ढे की याद क्या आई, उसका मन हर तरफ़ से बेख़्याल हो कर आसमान में उड़ चला।

रेवती का ब्याह दिवाली के बाद होना था। लड़के को देखने की अपनी इच्छा छोड़कर रूपमती ने हामी भर दी थी। उसके भाई ने बताया था, लड़के को अपने बूढे मां-बाप की वजह से जल्दी थी, जो गांव में उसके लिए लड़की देख चुके थे और उससे जल्द शादी करने की ज़िद कर रहे थे। वह दिवाली पर घर जाकर उन्हें मनाना और शादी में लाना चाहता था। उसे गांव में शादी पसंद नहीं थी। रूपमती को भी नहीं थी।

"नाम क्या है उसका?" उसने उत्साह से पूछा था, ताकि उसे एक पहचान दे सके।

"हीरा," उसकी बेमानी पूछताछ से निजात पाने की बेताबी में उसके भाई ने जवाब दिया था।

"हीरा, सिर्फ हीरा?" उसने आगे पूछा।

"हीरालाल," उसने दांत भींच कर कहा और बाहर निकल गया।

जैसे ही उसका चेहरा आँखों के आगे घूमा, रूपमती सिहर गई, नहीं, नहीं, वह नहीं हो सकता। "रुको," वह अपने भाई के पीछे दौड़ी, "वह कहां काम करता है? मुझे जानना है।" उसने गुज़ारिश की।

"वह सरकारी कर्मचारी है," कहता उसका भाई जा चुका था।



बारिश हो रही थी। हीरालाल हाथ में बीड़ी लिए, एक फिल्मी गाना गुनगुनाता, स्कूल की पहली मंज़िल की खिड़की की चौखट पर बैठा था। आज वह जल्दी स्कूल पहुँच गया था और कुछ देर अपने खयालों में मसरूफ़ रह सकता था। जल्द ही बच्चे अपने धूल सने जूतों के साथ टूट पड़ेंगे और रूपमती की मुसीबत होगी। उस खयाल से उसकी इच्छा जोर से गाने की होने लगी। लेकिन वह थी कहाँ? उसे हैरत हुई। अब तक तो आ जाना चाहिए था। उसका दिल कुछ उदास हो गया। वह चली आए तो अच्छा हो, उसने कुछ हताशा से सोचा, वह इतना खूबसूरत दिन कचरा साफ करने में नहीं जाया करना चाहता था।

लो, वह आ गई, शायद पहली बार, उसके आने का शुक्र मनाता वह फिर से गाने लगा, ऐसे जताता हुआ, जैसे उसे रूपमती के आने की ख़बर ही न हो। आँख के कोने से देख सकता था कि वह उसकी तरफ चली आ रही है। वह समझ नहीं पाता था कि अक्सर वह अपनी सफाई वहीं से शुरू क्यों करती थी, जहां वह बैठा रहता था। उसे शायद उसे उठाने का बहाना चाहिए था- वह साँस रोक कर उसकी तेज़ झिड़की का इंतज़ार कर रहा था। आज वह वाकई ज़्यादा समय लगा रही थी, पहले देर से आई...और अब, ओह अच्छा!

रूपमती उसे इस नये ठिकाने पर बैठा देख ज़रूर चकरा गई होगी। उसके निशाने पर आए बिना वह यहाँ बैठा रह सकता है। उसने मुड़कर उसकी तरफ़ देखा।

"दांत क्यों निकाल रहा है," उसने रुखाई से पूछा।

हीरालाल ने देखा, वह अपने रंग में थी। लेकिन आज वह उससे जुबानी जंग करने के मूड में नहीं था। वह खुश था और खुश रहना चाहता था। "मैं दिवाली पर गांव जा रहा हूं। मेरी शादी होने वाली...।"

रूपमती ने एक झटके में उसकी आस्तीन पकड़ ली। "उसका नाम क्या है?" वह फुफकार रही थी।

"क्या है, मेरे ऊपर क्यों चढ़ी आ रही है?" उसकी जकड़ से घबराया हीरालाल चीख पड़ा।

"बता मुझे उसका नाम, वरना तुझे धक्का दे दूंगी।" उसकी आँख खतरनाक ढंग से चमक रही थीं।

"रेवती।" हीरालाल ने जल्दी से जवाब दिया। वह नहीं चाहता था कि उसकी हड्डियां टूटें।

"नहीं। बिल्कुल नहीं।" रूपमती ने उसे खींच कर ज़मीन पर गिरा दिया।

हिम्मत करके हीरालाल ने खुद को छुड़ाने की कोशिश करते हुए ज़ोर से कहा, "मेरा पीछा छोड़ बुढ़िया।"

"तू मेरी बेटी से शादी नहीं कर सकता। सुना तूने?" उसे छोड़ते हुए वह गुर्रायी।

सन्न, हीरालाल ने उसकी तरफ देखा। रेवती इसकी बेटी है? वह झूठ तो नहीं बोल रही? नहीं, उसका गुस्सा असली था। हीरालाल को दिमाग पर काबू पाने में वक़्त लगा। इसके पहले कि वह दुबारा झपट पड़े, वह चुपचाप खिसक लिया।

अगले दिन रूपमती, रोज के वक्त से पहले स्कूल पहुँच गई और साफ-सफाई में जुट गई।

वह अपने काम धाम से निबट लेना चाहती थी ताकि स्कूल शुरू होने से पहले हीरालाल से बात करने के लिए वक़्त मिल पाए।

पर वह आया ही नहीं। निराश, वह घर के लिए निकल पड़ी।

अगले दिन भी उसकी सूरत नज़र नहीं आई। जब उसने उसके बारे में पूछताछ की तो पता चला कि वह छुट्टी पर है। क्या वह गाँव चला गया, उसने असहज महसूस करते हुए सोचा। समझ नहीं आ रहा था कि उसके चुपचाप गायब हो जाने का क्या मतलब निकाले।

एक हफ्‍ता बीत गया तो रूपमती को लगा, वह एक अच्छा शगुन था। कौन जाने, वह लौटे ही नहीं, या यहाँ से दूर, अपने गांव के पास, तबादला करा ले, अपनी बीमार या मरी हुई मां के बहाने, पाजी कहीं का। वह उससे इतना डर गया होगा कि बिना झगड़ा किए गायब हो गया। रूपमती अपनी आसान जीत पर विजेता की तरह मुस्कुराई और बीड़ी सुलगाई। ‘अधिकरियों को रिपोर्ट करने’ के लिए वह वहां नहीं था। उसने जोर की सांस ली और आंख मूंद ली।

"सासू मां," हीरालाल की दिल्लगी करती आवाज़ ने उसे चौंका दिया, हाथ से बीड़ी छूट गई। "तुम्हें पता है, ये कायदे के ख़िलाफ़ है।" उसने उसे झिड़का, बीड़ी को पांव से रगड़ा और फिर जेब में रख लिया। "कोई सबूत नहीं छोड़ सकते। नहीं?" वह साज़िश वाले अंदाज़ में हंसा।

"तुम यहां क्या कर रहे हो?" अपनी नासमझी को कोसते हुए, उसने धीरे से पूछा।

"मैं यहाँ क्या कर रहा हूँ? क्यों? मैं यहाँ काम करता हूँ। पक्की नौकरी है मेरी- याद रखना।" उसने मखौल उड़ाते हुए कहा।

"मैंने समझा तू गांव चला गया," वह बड़बड़ाई।

"तुझसे विदाई लिए बिना, कभी नहीं। मैं कल जा रहा हूँ। आज रात आ रहा हूँ तेरे घर खाना खाने।" उसने कुछ नखरे के साथ कहा।

मेरी लाश पर, रूपमती ने गुस्से से सोचा। "मेरा भाई बाहर गया है। उसकी गैरहाजिरी में तू नहीं आ सकता," उसने सपाट ढंग से कहा।

"क्यों नहीं?"

"क्योंकि...क्योंकि घर में कोई मर्द नहीं है।" उसकी आंख में चुनौती थी कि आकर तो देखे।

"क्या मैं मर्द नहीं हूं? अरे सासू माँ, आख़िर मैं तुम्हारे घर का होने वाला सदस्य हूँ। या तू मुझे हिजड़ा समझती है? बता देता हूँ...।"

"मुँह बंद कर अपना, वरना तेरा लिंग काट के खाने में परोस दूंगी।"

"बुरा ख़याल नहीं है," हीरालाल हँसा, हालांकि उसे अपने पांव कांपते हुए से लगे। वह अपनी धमकी पर अमल नहीं कर सकती, उसने खुद को दिलासा दिया। "लेकिन आज रात मैं झाल दार मछली खाना चाहता हूँ। घर लौटते हुए खरीदना भूलना मत।" निकलते हुए उसने धीरे से कहा।

नामुराद औरत, उसने कोसा, उसकी ‘वाहियात दिल्लगी’ ने बुरी तरह झुंझला दिया था। एक औरत के मुँह से ऐसी अश्लील बात, और वो भी होने वाली सास के। क्या वह शादी के बारे में भूल जाए? लेकिन तभी रेवती की लुभावनी मुस्कान उसका दिल चीर गई। एक पागल औरत की बकबक के चलते उसे नहीं छोड़ सकता। कौन जाने, वह उसकी माँ न हो? वह आज रात उसके घर जाएगा, उसने तय किया, लेकिन अकेले नहीं। एहतियात के तौर पर किसी को साथ ले जाएगा- उसके हट्टे-कट्टे दोस्त रामेश्वर से अच्छा कौन हो सकता था। वह एक चौकीदार था, और उसे मछली नापसंद थी। वह वैसे झाल दार मछली चट नहीं कर जाएगा, जैसे पिछली बार उसका चाचा कर गया था। "मछली मेरे दमे के लिए अच्छी है," ठुंसे हुए मुँह से वह बोल रहा था और पुष्टि के लिए चालाकी से हीरालाल की तरफ देख रहा था। हीरालाल ने आज्ञाकारी भतीजे की तरह सिर हिलाया था।

रुपमती मछली बाज़ार में रुकी और सावधानी से सबसे सस्ती मछली चुनी, बस इतनी कि एक आदमी के लिए काफी हो। अगर उसका भुक्खड़ चाचा मुफ्त के माल के लिए साथ चिपका चला आया तो हीरालाल को नहीं के बराबर मिलेगा। हीरालाल को जानने की वजह से उसे पता था, अगर आया तो वह अकेले आएगा। वह आएगा, यह भी वह अच्छी तरह जानती थी।   

घर पहुँच कर वह रात का खाना बनाने में जुट गई। रेवती ने उसे झाल दार मछली बनाते देखा तो आंखें चमक उठीं, "कौन आ रहा है मां?" उसने चुपके से पूछा। रूपमती ने उसे इस बुरी तरह डपट दिया कि बेचारी कमरे के कोने में पड़ गई और सारी शाम अलग रही। उसकी छोटी बहनें भी, मां के अजीब व्यवहार से हैरान, उसके पास दुबक आईँ। हीरालाल ठीक आठ बजे अपने चौकीदार दोस्त के साथ पहुँचा। रूपमती ने उसके साथी को देखा तो उसका दिल बैठ गया। दो लोग आ गए? लेकिन मछली तो....। उसकी घबराहट देख हीरालाल मस्ती में मुस्कुराया, अपनी इस समझदारी पर कि वह एक हथियारबंद चौकीदार के साथ आया है। "‘उसे काम पर जाना है, रात को चौकीदार की तरह काम करता है।" उसके वर्दी में होने की कैफियत के तौर पर उसने कहा।

रूपमती कुछ अनिश्चय के साथ खड़ी, दोनों को देख रही थी। "वह मछली परोसेगी, बहुत अच्छी मछली पकाती है।" हीरालाल बातचीत के बीच में कह रहा था, "लेकिन क्या फायदा, तुम तो मछली खाते नहीं।" वह अजीबोगरीब ढंग से हँसा, मनाता हुआ कि रूपमती उन्हें घूरना बंद करे।

उसके मछली न खाने की बात से मिली राहत ने, उसे हरकत में ला दिया। "खाना लगाती हूँ," कहती हुई वह वहां से हट गई।

दो लोगों के लिए पूरी मछली नहीं है, यही बात तुम्हें परेशान कर रही थी न सासुजी, वह गुपचुप मुस्कुराया, खुश कि पहली बार, रूपमती का औरत वाला पहलू खुल रहा था।

हो सकता था वह ऐसी दानवी न भी हो।

रूपमती ने खुद सारा खाना लगाया, खयाल रखते हुए कि किसे क्या चाहिए। हीरालाल कुछ न कुछ मांगता रहा, इस उम्मीद के साथ कि रेवती की झलक मिल जाए। लेकिन उसका क्या, उसकी बहनों तक का कुछ पता न था। "बच्चे कहां हैं?" आखिरकार उसने पूछा।

"सोए हुए हैं," उसने सख्ती से जवाब दिया।

"लेकिन अभी तो नौ भी नहीं बजे?" हीरालाल ने हैरानी जताई।

"हम जल्दी सो जाते हैं," रूपमती ने बीच में तीखे ढंग से कहा, "तुम छुट्टी पर हो, लेकिन मुझे तो जाना है।"

जल्दबाज़ी दिखलाता, उसका दोस्त उठ गया। अनिच्छा से हीरालाल भी उठा। देर करने का कोई फ़ायदा नहीं है, उसने मायूसी से सोचा।

पर चलो, कोई बात नहीं। आखिरकार रूपमती ने उसके लिए झाल दार मछली पकाई थी, क्या झोर था। मुँह में अब भी उसकी झांस महसूस कर सकता था। एक बार शादी हो जाने के बाद तो...उसके मुंह में पानी भर आया।

रूपमती ने सरसों का खाली डब्बा उठाया और उसे उत्साह से देखा। आखिरकार, दिवाली बिना रोशनी के बीत जाएगी। एक बेकार से अंदेशे ने अचानक उसके भीतर सिर उठाया और उसका चेहरा कुछ काला पड़ गया। अगर सरसों का तेल ज़हरीला न निकला तो?



अचला बंसल एफ़ 28 एस एफ़ एस ब्लाक ए-1 पंचशील एन्क्लेव
नई दिल्ली 110017


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