अनामिका अनु की कहानी — अम्फान, अमलतास और आत्मा

अनामिका अनु के यहाँ उपज रहे साहित्य की खुश्बू लगातार नई और मनमोहक है। आनंद उठाइए  । 
- भरत 



   
कन्नीकोना* कहती थी बेटी
   तुम पीले प्रेम पत्रों का झूला 
मैं तब उसको सौतन कहती थी
जब तुम थककर घर आने से पहले बैठ वहाँ सुसताते थे
   तुम रहे नहीं 
   ओह! आज गिरी यह अमलतास भी...

          (*कन्नीकोना— अमलतास)
 

अम्फान, अमलतास और आत्मा

— अनामिका अनु


अम्फान की हवा से सब पेड़ उखड़ गये। वह अमलतास भी जिसके तले प्रसून चटर्जी थक कर बैठ जाते थे। स्कूल से आते वक्त रिक्शा नहीं मिलता तो घर के बगल वाली सड़क के किनारे दृश्य गीत गाते पेड़ की छाँव में बैठ कर थोड़ी देर सुसताते फिर घर आते। कभी बाजार से आते वक्त सब्ज़ी के छींटदार झोले को तने से लगाकर रख देते और पेड़ के चारो तरफ बने ईंटों के घेर पर बैठकर एकला चलो रे गुनगुनाते, एक दिन अकेले ही चल भी दिये इस दुनिया से पत्नी प्रभा को एकदम अकेला छोड़ कर। 

प्रभा ने एक छींटदार झोला वत्सलता के पुराने फ्राक से बनाया था। चटक पीले रंग के झोले पर बैंगनी फूल के बूटे बहुत प्यारे लगते थे। प्रसून जी बड़े प्रेम से उसमें कभी सब्जियाँ, कभी झींगा माछ, कभी हिलसा, कभी संदेश लाया करते थें, एक बार सुधाकर जी ने प्रसून जी के झोले पर व्यंग करते हुए कहा था—
“औरतों वाला झोला लेकर कहाँ जा रहे हैं मास्टर साहब? “

प्रसून जी ने बिना कड़वाहट बड़े शांत भाव से मुस्कुराते हुए कहा था—
“जब बेटे के पुराने पेंट से बने झोले में प्रेम से सब्जियाँ खरीद कर ला सकता हूँ तो दुलारी बेटी की पुरानी फ्राक से बने झोले में भी शान से सब्जियाँ ले जाऊँगा। रंग का क्या है? बेटी की पसंद का है, पत्नी की कला और मितव्ययिता का प्रतीक चिन्ह है सुधाकर बाबू। झोले को झोला होने के लिए मजबूत होना चाहिए ताकि सब्जी और सामान का भार उठा सके, रंग तो मन की बात है। 

उनके बीच के संवाद की रेशमी तार को हल्का खींचते हुए पास ही खड़े एक अजनबी ने उस दिन बहुत प्यारी बात कही थी, प्रभा को आज भी याद है—”कितना प्यारा झोला है, चित्रकार हूँ। खूबसूरत चीज बस खूबसूरत होती है स्त्री या पुरूष नहीं होती। खूबसूरत बातें, व्यवहार और चीजें केवल स्त्री के लिए नहीं होती है, न ही केवल पुरूष के लिए। कला तो समरस सृजन का भाव है जो सबजन को सुख देता है।”

तीनों लोग फिर क़हक़हे लगाकर हँस पड़े थें। साथ में खड़ी प्रभा भी इन बातों को सुनकर मोम-सी पिघल गयी थी। 

प्रभा की स्मृतिकोश से आज वह दृश्य शहद-सा टपका और उसका अंतस गुलाबी हवा मिठाई हो गया। आज प्रसून जी की बहुत याद आ रही है। खाना बनाने का जी नहीं कर रहा है। सुबह चार रोटियाँ बनाई थीं। दो रोटियाँ बारह बजे उदास मन से घोंट गयी। दो यूँ ही पड़ी हैं। शाम होने को आयी है। एक इन्द्रधनुष उग आया है पूरब में, ठीक इसी समय स्कूल से लौटते थें प्रसून जी और चाय की प्याली थमाते ही स्कूल पहुँचने से वापस लौटने तक की सब छोटी-बड़ी बातें प्रभा को एक-एक करके बताते। 

चारों तरफ कोरोना के कारण लॉकडाउन है। चौबीस मार्च से आज बाईस मई लगभग दो महीने होने को आये हैं। सब घरों में बंद हैं। कोई आता-जाता नहीं है। बच्चों से विडियो काॅल पर बातें हो जाती हैं। टीवी पर समाचार सुनती है, बार-बार सुनती है। फिर अखबार पढ़ती है, एक-एक खबर को पन्नों से धोकर पी जाती है। तरह-तरह की किताबें पढ़ती रहती है। फिर कुछ देर डायरी भी लिखती है, स्मृतियों को आमंत्रण दे उससे हँसी ठिठोली करती है, कभी-कभी स्मृतियों से झगड़ कर खूब रोती है। 

दीवार पर टँगी तस्वीरों से बोलते-बतियाते दिन की लम्बाई को चुनौती देती प्रभा आज पैंसठ की हो गयी और चार रोटियाँ हैं जो पीछा ही नहीं छोड़ती। दस साल की थी तब से रोटियाँ बनाती आयी है। गाँव में मिट्टी के चूल्हे पर, फिर कोयले के चूल्हे पर, पीतल का स्टोव और अब गैस के चूल्हे पर। पीतल के स्टोव पर बनाती थी तो पीढी़(मचिया) पर बैठकर आराम से रोटियाँ बनती जाती थी, मिट्टी के तेल की दौड़भाग तो होती ही थी और कई बार तो कंट्रोल वाले भी लौटा देते थें। तेल खरीद कर चूल्हा जलाना पड़ता था पर देह को आराम मिलता था बैठकर सिमटकर खाना पकाने में। पाँच-पाँच किलो आटे की रोटियाँ यूँ बना लेती थी। देह भी तो दुबला था पर अब वज़न इतना है और गैस चूल्हे के सामने खड़े-खड़े पाँव में दर्द की लहर उठती है, पैर सुन्न-सा हो जाता है। खाने के टेबल की कुर्सी लगा रखी है गैस चूल्हे के पास, बीच-बीच में बैठ जाती है। चार रोटी, एक सब्जी बनाना उठक-बैठक जैसा हो गया है, इसे प्रभा नियति की सज़ा कहती है। 

उसकी सब हमउम्र सखियों के बेटे-बहू साथ ही रहते हैं, रंग बिरंग के खाने और सेवा का सुख। उसके बच्चे दूर देश के पंक्षी ! रोटी कहाँ पटक दे किसको, कौन जानता है? रोटी से बड़ा विस्थापक और सम्मोहक कोई दूसरा नहीं, इसी की चलती है। लोग कौन-कौन से पाप-पुण्य नहीं करते इसे पाने के लिए। 

घर के काम, साफ-सफाई, पूजा-पाठ सब निपटा कर वह खिड़की के पास प्रतीक्षा की मुद्रा में बैठ जाती है और झाँककर देखती रहती है सड़क पर आने जाने वालों को, किसी-किसी को कभी-कभी टोक भी देती है, सब उसे अकेला जान हाल-चाल लेते रहते हैं। सब्जी, फल, दूध, अखबारवाला, सब उसी खिड़की से सामान देकर चले जाते हैं। 

दुपहरियों की हट-हट गर्मी में वह देखती रहती है अमलतास के फूलों का गिरना। रात को जब मन उचट जाता है तो खिड़की के पास आकर बैठ जाती है और जंगले को पकड़ कर निर्निमेष देखती रहती है दूर मंदिर में जलते दीये को। नौ बजे मंदिर का पट लगाकर पंडितजी चले जाते हैं तब केवल परिसर के तुलसी-चौरा पर जलता हुआ दीया ही दिखता है जो कभी-कभी तुरंत ही बुझ जाता और कभी-कभी देर रात तक भुक-भुक कर जलता रहता है, प्रभा उदास रातों में उसे ताकते-ताकते ही खिड़की से लगकर सो जाती है। जब सुबह की किरणों का आनाजाना और अमलतास के पेड़ पर चिड़ियों की सुगबुगाहट बढ़ती है तो वह चौंक कर जाग जाती है। 

आदमी माचिस की तीली होता है। देह का उत्तरी-ध्रुव चार ज्ञानेन्द्रियों और मस्तिष्क का क्रीड़ास्थल है और सारी आग वहीं से पैदा होती है, देह तो उस आग में जलने की नियति के साथ जन्म लेता है। स्मृतियों के ताप से मन व्याकुल है और देह सुस्त! शाम होने को आयी है बची दो रोटियाँ मुँह ताक रही हैं। झमाझम बारिश में स्मृतियाँ धुल गयी हैं। आज पूरा दिन किताबों की अलमारी ठीक करने में गुज़र गया। बस कुछ किताबें हैं जो सहेज कर रखनी बाकी हैं। वह अनमनी-सी उठी, साड़ी की खूँट को कमर पर लपेट कर कुर्सी पर बैठ गयी और किताबों की थाक लगाने लगी। 

तभी सामने की कुर्सी हल्के से हिली और प्रभा ने पलकें उठाकर देखा तो देखती ही रह गयी। उसे लगा वह चक्कर खाकर मुँह के बल गिर पड़ेगी। उसने टेबल पर हाथ रोपी और पानी के बोतल की ओर हाथ बढ़ाने की कोशिश की पर हाथ टस से मस नहीं हुआ। सामने अवल धवल श्वेत पुष्प से प्रसून चटर्जी विराजमान हैं। वही चिरपरिचित मुस्कान, आँखों में एक मार्मिक नमी। दोनों एक दूसरे को देखते रहे और समय साटन के कपड़े सा हाथ से फिसलता जा रहा है, अचानक जोर की हवा चली और खिड़कियों के पल्ले चौखट से आ टकराए, दोनों का ध्यान टूटा। वह सम्मोहन के जादू से निवृत्त होकर फिर अपने काम में लग गयी है। किताब को साइज के हिसाब से वर्गीकृत कर सहेजने लगी मानो कुछ भी अप्रत्याशित न हुआ हो। 

प्रसून जी ने मुस्कुराते हुए संवाद सूत्र को पकड़ा और चहक कर कहा— “आहा किताबें! “

प्रभा ने संभलते हुए कहा—
“हाँ तुम्हारी किताबें! क्यों ढेर कर दी इतनी किताबें, कोई उलटने-पलटने, झाड़ने वाला भी नहीं है। “

तभी एक बिल्ली दीवार से गिरी। धप्प की आवाज से दोनों चौंक गये। फिर दस मिनट की अप्रत्याशित चुप्पी उनके बीच पुल बनकर खड़ी हो गयी, उस पुल पर दबे पाँव चलने को व्याकुल प्रसून जी ने बात आगे बढ़ायी—
“बच्चे नहीं देखते?”

प्रभा ने झुकी पलकों के साथ उत्तर दिया—
“दो दिन के लिए आते हैं”

चौंकते हुए प्रसून जी ने कहा—
“तुम्हारा सारा समय तो उनकी चाकरी में ही गुज़र जाता होगा न प्रभा?”

प्रभा ने आँचल के छोर को आगे करते हुए कहा—
“जाने दो! मेहमान ही तो हैं, उनसे कौन सी आस?

आज बहुत थक गयी प्रसून! पूरे दिन लगी रही। हरिहर का कितना मान मनौव्वल किया तब जाकर वह आया। कोई एक बार में बात नहीं सुनता प्रसून, लोग पैसे भी ठग लेते हैं। रामदास छह महीने से पंखा रखे हुए है, सौ-सौ करके चार सौ रुपये ठग लिये। मैंने तीरथ को कहकर अट्ठारह सौ में नया पंखा मंगवा लिया है। रिक्शा भाड़ा और ऊपर से पाँच सौ रुपये भी दे दिए। पंखा लेकर आया तो चाय-नाश्ता भी करा दिया। थका था बेचारा! कंपनी ने छंटनी कर दी है, बहुत चिंतित था। “

प्रसून जी ने जिज्ञासा के साथ पूछा—
“सूरत में रहता था न?”

प्रभा ने नजर टेबल पर गाड़ कर कहा—
“हाँ लौट आया बीस दिन पहले, पैदल ही आया। दो बार पुलिस के डंडे भी खाये। मर कर आया है। कल बाजार जा रहा था तो मैंने कहा देखकर एक ढंग का पंखा ला दे। ले आया बेचारा। गरमी कितनी है।”

प्रसून जी ने पूछा—
“पंखा लग गया? “

प्रभा ने उदास होकर उत्तर दिया—
“न ! अभी कहाँ? कल से पाँच बार फोन किया है हरीश को, आज कल-आजकल लगा रखा है। शाम में किया तो कह रहा था कल ग्यारह बजे आकर लगा देगा। “

प्रसून जी ने करूणा मिश्रित प्रेम के साथ पूछा—
“गर्मी लगती होगी?”

प्रभा ने दोनों हथेलियों को रगड़ते हुए रुठे बच्चे की तरह कहा—
“न! तुम्हारे जाने के बाद सब बर्दाश्त करने की आदत हो गयी। दस साल कम थोड़े ही होते हैं प्रसून। भूल गये! दस साल हो गये तुम्हारे गये। भूल गये न? बताओ न आत्मा की भी स्मृतियाँ होती हैं?”

डबडबाती आँखों के साथ प्रसून जी ने कहा—
“आत्मा तो स्मृतियों का ही गोला है सुधा “

प्रभा ने पलकें उठाकर पूछा—
“पढ़ना-पढ़ाना, गणित भी याद होगा?”

मुस्कुराते हुए प्रसून जी ने कहा—
“न ! केवल जीवन का अंकगणित। बोलो प्रभा दुखी हो न? “

प्रभा ने रूद्ध कंठ से कहा—
“नहीं “

प्रसून जी ने आस पास के माहौल को भाँपते हुए कहा—
“आज जन्मदिन है तुम्हारा बधाईयाँ। सौ साल जियो प्रभा! “

अश्रुपूरित नयनों और ढहती बिखरी आवाज के साथ प्रभा ने उत्तर दिया—
“पैंतीस साल की पीड़ा का श्राप दे रहो हो। तुम्हें मेरी याद न आयी इसलिए दस साल लगा दिए मुझसे मिलने में “

बेचैन भाव से प्रसून जी ने कहा—
“मैं गया कहाँ था?, मंडराता रहा हूँ यही तुम्हारे आस-पास। 

जिस दिन तुम रो रही थी खिड़की से लगकर, मैं वहीं खिड़की के बाहर दीवार से लगकर मूसलाधार बारिश में फफक-फफक कर रो ही तो रहा था। “

प्रभा ने संभलती आवाज में पूछा—
“फिर आए क्यों नहीं ?”

सहमे बच्चे की तरह प्रसून जी ने जवाब दिया—
“डर लगता था, मुझे देखकर तुम डर न जाओ। तुम अब भी पूजा पाठ करती हो?”

प्रभा ने सीधे जबाब दिया—
“हाँ”

प्रसून जी ने पूछा—
“छोड़ क्यों नहीं देती?”

प्रभा ने बेमन से कहा—
“आदत है, डर भी। कभी-कभी लगता है बंद घर में मर गयी और कोई दस दिन तक सुध न ले तो सड़ गल जाऊँगी, चूहे न कुतर खाए और रात में जब घुटन महसूस करती हूँ तो दरवाजे खोल देती हूँ। अगर मर जाऊँ तो लोग दरवाजा खोल कर देख ले मेरे मृत शरीर को और मेरे बच्चों को खबर दे दें। भगवान भरोसे हूँ तो भगवान को कैसे याद नहीं करूँ?”

प्रसून जी ने लंबी साँस खींचते हुए कहा—
“कुछ भी सोचती रहती हो। सब ठीक होगा। “

प्रभा ने उदास होकर कहा—
“अब साँस पहले सी आसान नहीं रही। जरा सा चलती हूँ, हाँफने लगती हूँ। “

प्रसून जोशी ने बड़े लाड़ से कहा—
“उम्र से ज्यादा बूढ़ी लगने लगी हो। ढंग से क्यों नहीं रहती, पहले की तरह। “

प्रभा ने सपाट प्रश्न पूछा—
“तुम आ सकते हो पहले की तरह?”

प्रसून जी ने गंभीरता के बाद कहा—
“संभव ही नहीं, अगर होता तो जरूर आ जाता प्रभा!

बच्चों से खुश तो हो?”

नकली मुस्कान ओढ़ कर प्रभा ने कहा—
“अब यह प्रश्न तुम्हें नहीं पूछना चाहिए। तुम्हें पूछना चाहिए बच्चे तुमसे खुश हैं कि नहीं? यह प्रश्न ज्यादा प्रासंगिक हो गया है। “

इस उत्तर के बाद प्रसून जी की आँखें डबडबा गयी। चेहरा लाल हो गया। संवाद थम गया। घड़ी टिक-टिक करती रही। झींगुर गाते रहे और रात सूत-सी कटती रही, समय का चरखा चलता रहा। 

प्रसून जी ने खुद को संभाला और प्रभा से मनोहार करते हुए कहा-

“चलो उठो मखाने की खीर बनाओ। आज तुम्हारा जन्मदिन है। “

प्रभा ने बेमन से कहा—
“मखाने की खीर तो मैं तुम्हारे जन्मदिन में बनाती थी”

प्रसून जी ने प्रभा को पुचकारते हुए कहा—
“अब से तुम ही मैं हूँ। मैं खाना चाहता हूँ, बनाओ न प्लीज”

प्रभा की आँखों ने पूछा—
“कैसे खाओगे?”

प्रसून के मुस्कुराते होंठों ने जवाब दिया—
“तुम खाओगी मेरी आत्मा तृप्त होगी”

प्रभा ने घड़ी देखी नौ बजे रहे थे। वह उठी, बर्तन धोया और थरथराते हाथों से पतीला चूल्हे पर चढ़ाया। खाने की टेबल की सबसे दायीं कुर्सी पर बैठे प्रसून उसे एकटक खीर बनाते हुए देख रहे हैं और उनकी आँखों से अनवरत आँसू बह रहे हैं। 

फफक कर रोते हुए प्रभा ने पूछा—
“आज तक नहीं रोये आज क्यों रो रहे हैं ?”

प्रसून जी ने रूद्ध कंठ से उत्तर दिया—
“तुम्हारे लिए प्रभा”

प्रभा ने खुद को संभालते हुए कहा—
“मत रोइए मुझसे मीठा नहीं बनेगा। “

प्रसून जी ने आग्रह भाव से कहा—
“खूब मीठा बनाओ प्रभा मैं खाऊँगा। देह के साथ मधुमेह भी छूट गया। देह के साथ व्याधि चली जाती है पर मन कहाँ हल्का होता है? वह तो प्रियजनों के दुख में और दुखी और क्लांत हो जाता है। 

खीर पक गयी है। खुशबू से घर जाग उठा है। कोने-कोने से स्मृतियाँ टहल कर पास आ गयी हैं। वे दोनों स्मृतियों से घिर चुके हैं। । बची खुची स्मृतियाँ कमरों में घुँघरु बाँध चहलकदमी कर रही हैं। मूसलाधार बारिश और बिजली की दिल दहला देने वाली गरगराहट में दो आत्माएँ जोर-जोर से धड़क रही हैं। प्रभा ने एक चम्मच खीर प्रसून की तरफ बढ़ायी सभी स्मृतियों ने अपनी चहलकदमी बंद कर दी और उस दृश्य की पहेली को सुलझाने लगे। शून्य का अन्नप्राशन। प्रसून जी मुस्कुराए और प्रभा के थरथराते झूरीदार शुष्क हाथों को चूमकर बोले—
“ऐसे नहीं खाऊँगा। तुम्हारा जन्मदिन है तुम्हारे साथ खाऊँगा। एक मुख खाएगा दो आत्मा तृप्त होंगी। मुझे खुद के भीतर आने की अनुमति दो प्रभा। “

दोनों का चेहरा आँसू से भीग चुका था। मेढ़क, झींगुर, समय, स्मृतियाँ सब निःशब्द अपने भीतर संवाद को सोख रहे थे। 

प्रभा ने काँपते मन और थरथराते देह से प्रसून को गले लगा लिया। उज्जवल, अवल-धवल प्रसून उसके भीतर प्राण की तरह प्रविष्ट हो गये। उसने एक विचित्र ऊर्जा और नव जीवन की पुलक महसूस की। अचानक बारिश थम गयी। मेढ़क, झींगुर और स्मृतियाँ स्वर के साथ नृत्य करने लगे। प्रभा को जोर से भूख लगने लगी। उसने हिम्मत कर चम्मच उठाया और पूरी कटोरी खीर खा गयी। उसने एक असीम तृप्ति का अनुभव किया। 

चारों तरफ अँधेरा फैल चुका है। सामने से उठकर वह प्रकाश उसके हृदय में प्रविष्ट कर चुकी है, तत्क्षण मन पुष्ट और निष्फ़िक्र सा हो गया है। एक आस जगी है। वह उठी और बचे हुए मखाने की खीर को फ्रिज में रख दिया। खिड़की से बाहर झाँक कर देखा मंदिर का भुकभुकाता दीया अब बुझ चुका था मगर उसके भीतर की लौ अनवरत जल रही है। उसने खिड़की बंद कर दी। पति के तस्वीर पर लगी माला को उतार दिया, वे फिर से जीवित हो गये। इस बार उसने पति की प्राण प्रतिष्ठा स्वयं की है खुद के प्राण में, खुद के खूब भीतर और पूरे विश्वास के साथ। हर दिन पति की तस्वीर देखते-देखते उसकी आँखें लग जाती थीं पर आज उसने खुद की छाती को बड़े प्यार से थपथपाया और आँख लग गयी। 

इतने प्यार से स्वयं को आजतक उसने कभी नहीं थपथपाया था। मेढ़क अब भी टर्रा रहे हैं, मूसलाधार बारिश फिर से शुरू हो गयी है। एक प्राण और दो आत्माओं वाला देह वैसे ही सो रहा है जैसे लोरी सुनकर कोई शिशु सोता है, निश्चिंतता का चंदन मुँह पर लिपा है। आस पास रखे सब समान उत्सव गीत गा रहे हैं। जीवन की गंध में कैनेडियन लिली की सुगंध मिल गयी है। रातों रात अमलतास खड़ा हो गया है ख़्वाब में…

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1 टिप्पणियाँ

  1. I read something in Hindi after so long and this was such an emotional read. Thank you for sharing the joy of your words and imagination.

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