तस्वीर: ट्विटर |
"दीदी" "दीदी" को जिस व्यंग्यात्मक ढंग से मोदी ने दोहराया वह "दीदी" अर्थात "बड़ी बहन" से जुड़ी मर्यादा के सर्वथा विपरीत था
— स्वामी ओमा द अक्
"सनातन शास्त्र कहते हैं —
भगवान् उत्तर में शयन करते हैं...
दक्षिण में स्नान...
पश्चिम में राज करते हैं...
और पूर्व में भोजन करते हैं!"
बचपन में एक फ़िल्म देखी थी मैंने — "नवरंग"। व्ही. शांताराम की इस अतुलनीय फ़िल्म में एक गीत था—
"हम पूरब हैं, तुम पश्चिम हो, दोनों का मेल न मिलता है"
आज यह गीत सहसा तब याद आया जब पश्चिम बंगाल में मतगणना-परिणाम आया। ममता बनर्जी पुनः मुख्यमंत्री बनने के लिए निर्वाचित हो गईं और "नरेंद्र मोदी एंड पार्टी" चारो खाने चित्त...!
कहते हैं बंगाल पूरी आधी सदी आगे चलता है शेष भारत से! वस्तुतः बंगाल की लाल-मिट्टी ही इसमें छुपी क्रांति का संकेत है। जब मुस्लिम शासकों ने सत्ता की आड़ से देश की धार्मिक-रूपरेखा बदलनी चाही तब इस मिट्टी से चैतन्य उठा... और पूरे देश मे सनातन धर्म की ऐसी क्रांति फैलाई की आज एक हज़ार साल तक इस देश मे रहने के बावजूद इस्लाम भारत में अल्पसंख्यक ही रह गया।
जब देश मे विभाजनकारी आंग्ल-राजनीति बढ़ी तो इसी मिट्टी ने सन्यासी-फ़क़ीर-विद्रोह को जन्म दिया जो आगे चल कर 1857 की क्रांति फिर स्वतंत्रता तक पहुंचा।
प्रधानमंत्री की गरिमा के सर्वथा विपरीत आचरण करने वाले नरेंद्र मोदी का चरित्र तो "अटल जी" के प्रधानमंत्री होते हुए ही दिख चुका था
इस मध्य कभी "सती प्रथा अंत" तो कभी "विधवा विवाह" जैसी क्रांतिकारी नीतियाँ भी इसी भूमि की देन हुई। माँ-दक्षिणेश्वरी के वरदान से जीवित यह क्षेत्र भारत को पहली बार पश्चिम की आँख में आँख डालकर अपने सत्य उद्घोषित करना भी सिखाता है... और यहीं पर बसे शांति निकेतन का एक बाउल-ऋषि साहित्य का "नोबेल" ले कर दुनिया को चौंकाता है। जब पूरा देश "गाँधी की आँधी" में उड़ रहा था तब भी बंगाल का "शांति दूत" गाँधी की अदूरदर्शिता की खुलेआम चर्चा करता रहता था। यही वो मिट्टी है जिसने कहा
"तुम मुझे खून दो मैं तुम्हे आज़ादी दूंगा"...
स्वदेश होने के पश्चात जब कांग्रेस ने देश को अपनी बपौती समझने की कोशिश की तो बंगाल ने "ज्योति बसु" नामक एक वामपंथी यक्ष को सामने ला खड़ा किया और तीन-दशकों तक बंगाल को बाकी देश से न्यारा बनाए रखा। हाँ! बंगाल की तथाकथित-प्रगति रुक गई... लेकिन बंगाल का बंगालीपन बचा रह गया... और बची रह गई इसकी लोकतांत्रिक-श्वसन प्रणाली। बंगाल संवाद करना नहीं भूला... न हुज्जत... बंगाल झगड़ता है पर सलीके से। इस बार भी जब लगभग पूरा देश "मोदी-मोह" से अंधा हुआ जा रहा है... और अधिकतर राजनीतिक दल अपने ही दलदल में समाए जा रहे हैं... 'राजपुत्रों' के दल तो उनके निककमेपन के भेंट चढ़ते जा रहे हैं... ऐसे में बंगाल की बेटी ममता ने निर्भय हो कर किसी सिंहनी की तरह ललकार कर कहा — "आने दो मोदी को लोकतंत्र का ऐसा झापड़ पड़ेगा कि याद करेंगे!"। यह बात "निरंकुश शासक" को पसन्द कब आई है। अतः जब विधान सभा निर्वाचन का समय आया तो केंद्रीय-बल पूरी तरह से बंगाल जीतने को टूट पड़ा... सारे सरकारी-तंत्र एक स्त्री और उसके दल को तंग करने बिठा दिए गए... सारा "श्रूड-मीडया" बंगाल और ममता की थू-थू करने में लग गया... जितने सच्चे-झूठे आरोप थे सब "बीजेपी आई.टी." ने फैलाना प्रारम्भ कर दिया जिसे "ब्लाइंड-फॉलोवर्स" कोरोना से भी अधिक तेज़ी से "सोशल साइट्स" पर फैला रहे थे... ममता की छवि लगभग "महमूद गजनवी" जैसी ही बनाई जा रही थी... जो बंगाल के हिंदुओं को लूट कर मुसलमानों के हवाले कर रही हैं। ऐसे घोर दुष्प्रचार के मध्य भी ममता बनर्जी तनिक भी विचलित नहीं हुई.. अपितु "न्यूज़ टुडे कॉन्क्लेव" में ऐसे दहाड़ के बोलीं की "चॉकलेट-जर्नलिस्ट" की घिग्गी बंध गई... ममता के उसी तेवर ने उनकी विजय की झलक दे दी थी... क्यों कि युद्ध में जीत का प्रथम-सूत्र है - "आक्रामक बनो"।
हिंदुत्व की राजनीति
"बीजेपी" अपने 'संघी-एजेंडे' के साथ ही बंगाल में गई... अर्थात "हिंदुत्व की राजनीति"। परन्तु उसकी अभिव्यक्ति में 'संघी-शालीनता' का पूर्णतः अभाव था। वास्तव में जबसे "बीजेपी" "मोदी-डोमिनेटेड" हुई है तबसे उसकी विचार अभिव्यक्ति में हिंदी के स्थान पर "हिंग्लिश" तथा सभ्य-सम्भाषण के स्थान पर 'फूहड़ निंदा' प्रवेश कर चुकी है। प्रधानमंत्री की गरिमा के सर्वथा विपरीत आचरण करने वाले नरेंद्र मोदी का चरित्र तो "अटल जी" के प्रधानमंत्री होते हुए ही दिख चुका था... पर दिन प्रतिदिन उनके भीतर का विदूषक विकृत रूप धारण करता जा रहा है ... जो बंगाल-चुनाव में वह भयंकर रूप से फूहड़ हो चुका था। "दीदी" "दीदी" को जिस व्यंग्यात्मक ढंग से मोदी ने दोहराया वह "दीदी" अर्थात "बड़ी बहन" से जुड़ी मर्यादा के सर्वथा विपरीत था... और यह बात कदाचित पूरे बंगाल को समझ में आ रही थी। मोदी-शाह की जोड़ी ने पत्ते तो वही फेंके "हिन्दू बचाओ/ मुस्लिम भगाओ"। लेकिन इस बार खेल ज़रा कठिन था... यह कोई "युवराज युगल" नही थे जो ज़रा सी आँच पर पिघल के बह जाएं... यह तो बंगाल की लड़ाकू शेरनी थी... जिसने "जय श्री राम" के सामने "जय सिया राम" कह के "बीजेपी का "राम नाम सत्य" कर दिया... मोदी का धन प्रलोभन भी बंगाल में कोई काम नही आया... वास्तव में आज देश मे यदि कोई सर्वाधिक अविश्वसनीय बात है तो वो है "नरेंद मोदी के मन की बात"। उनके वादे "दाग" के लहजे में —
"ग़ज़ब किया तेरे वादे पे ऐतबार किया"...की याद दिलाते हैं। यद्धपि इस बार मोदी के "फ़ैशन-डिज़ाइनर" और "मेकअप-आर्टिस्ट" ने मिलकर मोदी को "रोबिंद्र नाथ ठाकुर" का "आधुनिक प्रतिरूप" बनाने का हरसंभव प्रयास किया... परन्त लकड़ी के हाथ जोड़ कर कोई वासुदेव कृष्ण भी हुआ है क्या!
बंगाल विकास तो चाहता है पर अपनी ही शर्तों पर
प्रधानमंत्री का बंगाल विजय का स्वप्न कितना विकराल था यह बात इस तरह समझी जा सकती है कि जब देश मे लोग "महामारी" के चपेट में आ कर सड़क-सड़क तड़प रहे थे... ऐसे में माननीय "दीदी की चुगली" करते बंगाल की खाक़ छान रहे थे। उधर "शाह" अपने अदृश्य हाथों से "इधर का माल उधर" (दल-बदल) करने में लगे थे... उन्हें लगा इन सबसे बंगाल को बिहार की दशा में तो लाया जा सकता ही है... फिर बाकी काम "नोट बंदी के बंद नोट" कर देंगे... पर हुआ उल्टा... सब खेल धरा का धरा रह गया... दीदी की सच की दहाड़ में मोदी के सब मिथ्या आरोप मिमियाते नज़र आए... दीदी की गरजती आँखों ने मोदी ऐंड पार्टी सब कलई खोल दी... और देखते ही देखते "बंगाल विजय" का महान स्वप्न मोदी की नाक तले भरभरा के ढह गया... वह तो भला हो केंद्र के परम सहयोगी "निर्वाचन आयोग" का जिसने बड़ी मेहनत से "दीदी हार गईं"... यह वाक्य लिखा पर्चा देर रात तक चुपके से बीजेपी की जेब में डाल दिया... चलो "कमीज नहीं तो कमीज का कॉलर चलेगा"... आज रात होते होते "तृणमूल कांग्रेस" अपने ही पिछले रिकॉर्ड को ध्वस्त करते हुए... लगातार तीसरी बार बंगाल जीतने में सफल हुई... ममता को जनता का पूरा प्यार और समर्थन मिला... या कदाचित यह समर्थन ममता को भी नहीं हो... अपितु यह बंगाल की अनुवांशिकी में छुपे विद्रोह की ऊष्मा हो जिसने कभी भी किसी जड़ता या रूढ़ि को सर नहीं चढ़ने दिया... जिसने ऐसी कोई आवाज़ नहीं सुनी जिसमें "कोई बात न हो"... और जो हमेशा से अपने ही अंदाज़ से जीना पसन्द करता है... बंगाल विकास तो चाहता है पर अपनी ही शर्तों पर... यह "इंद्र" का "स्वर्गीय प्रलोभन" एक लात में ठुकरा देता है अगर उसे यह सौदा "माँ की ममता" छोड़ कर करने को कहा जाए...!
ममता दीदी के इस महाविजय को मैं कत्तई "दिल्ली विजय" का टिकट नहीं मान सकता... परन्तु यह तो कहना ही पड़ेगा कि आज भी समय है यदि देश के अनेक निकम्मे और कायर विपक्षी नेता यदि ममता से प्रेरणा ले कर धरती पर पैर रखें तथा "विरोध करने का साहस" दिखा सकें तो निःसन्देह देश मे निर्बल होता लोकतंत्र नवजीवन से भर सकता है... और यदि स्वयं नरेंद्र मोदी अपनी इस महापराजय से सीख लेना चाहें तो सीख सकते हैं कि "खाली बातों से दाल नही गलती उसके लिए आग-पानी (क्रांति और संवेदना) का मेल चाहिए... अन्यथा भारत की भोली भाली जनता खूब जानती है कि "खेला कैसे होता है"...!
और तब शास्त्र बोले कि भगवान् नारायण कहते हैं की - "मेरा भोजन है अहंकारी का अहंकार!'...और मैंने अभी अभी सुना है कि आज पूर्व-दिशा में फिर भगवान् ने भोग लगाया है...!
बोलो जय सिया राम...!
2 मई 2021
ओमा The अक्
(oma.theakk@gmail.com)
(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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