सत्यजित राय की कहानियाँ
ब्राउन साहब की कोठी
जब से ब्राउन साहब की डायरी मिली थी, बंगलौर जाने का मौका ढूँढ़ रहा था। और वह मौका अप्रत्याशित रूप में सामने आ गया। बालीगंज स्कूल के वार्षिक रि-यूनियन के अवसर पर अपने पुराने सहपाठी अनीकेन्द्र भौमिक से मेरी मुलाकात हो गयी। अनीक ने बताया कि वह बंगलौर में इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ साइन्स में नौकरी करता है। ‘एक बार मेरे यहाँ घूमने-फिरने आओ न। द बेस्ट प्लेस इन इंडिया। मेरे घर में एक अतिरिक्त कमरा भी है। आओगे?'
स्कूल में अनीक मेरा गहरा दोस्त था। उसके बाद जैसा होता है, वही हुआ। हम अलग-अलग कॉलेज में दाखिल हुए। इसके अलावा वह विज्ञान का विद्यार्थी था और मैं कला का। दोनों ने विपरीत रास्ते पर चलना शुरू किया। बीच में वह विलायत चला गया। नतीजा यह हुआ कि हम दोनों की दोस्ती में भी बहुत-कुछ बाधा पड़ गई। आज लगभग बारह साल के बाद उससे मुलाकात हुई। मैंने कहा, “आ सकता हूँ। कौन-सा मौसम सबसे अच्छा रहता है?"
'एनी टाइम। बंगलौर में गरमी नहीं पड़ती। यही वजह है कि साहबों को वह जगह इतनी प्रिय थी। जब मर्जी हो, चले आना। तब हाँ, सात दिन पहले सूचना भेज दो तो अच्छा रहे।'
खैर, अब हो सकता है, ब्राउन साहब की कोठी देखने का सुयोग प्राप्त हो जाए। लेकिन इसके पहले यह जरूरी है कि साहब की डायरी के बारे में बता दें।
मुझे आप एक तरह से पुरानी पुस्तकों का कीड़ा कह सकते हैं। बैंक में नौकरी कर जितना कमाता हूँ उसका लगभग आधा पैसा पुरानी पुस्तकों की खरीद में चला जाता है। भ्रमण की कहानी, शिकार की कहानी, इतिहास, आत्मकथा, डायरी इत्यादि बहुत सारी पुस्तकें पाँच वर्षों के दरमियान मेरे पास जमा हो गई हैं। कीड़ों के द्वारा काटे हुए पन्ने, बुढ़ापे के कारण जीर्ण हो गए पन्ने, सेंत के कारण रंगहीन हो गए पन्ने—इन सब से मैं अत्यन्त परिचित हूँ और ये सब मेरी प्यारी वस्तुएँ हैं। और पुरानी पुस्तकों की गंध! पहली बरसात के बाद भीगी मिट्टी से जो सोंधी गंध आती है उसकी और पुरानी पुस्तकों के पृष्ठों की गंध--इन दोनों का कोई मुकाबला नहीं। अगरु, कस्तुरी, गुलाब, हुस्नहिना--यहाँ तक कि फ्रांस की श्रेष्ठ से श्रेष्ठ परफ्युमरी के सुवास को इन दोनों के सामने हार माननी पड़ेगी। -- पुरानी किताबें खरीदने का मुझे नशा है और पुरानी किताबें खरीदने के सिलसिले में ही ब्राउन साहब की डायरी मिली थी। इतना बता दूं कि यह छपी हुई डायरी नहीं है, हालाँकि छपी डायरी भी मेरे पास है। वह डायरी सरपत की कलम से लिखी हुई असली डायरी है। लाल चमड़े से मढ़ी हुई साढ़े तीन सौ पन्ने की रूलदार कापी। साढ़े छह इंच बाइ साढ़े चार इंच। जिल्द के चारों ओर सोने के पानी की नक्काशी किया हुआ बार्डर है और बीच में सुनहरे छपे अक्षरों में साहब का नाम लिखा हुआ है--जॉन मिडलटन ब्राउन। जिल्द उलटने के बाद, पहले पृष्ठ पर साहब के हस्ताक्षर हैं और नीचे उसका पता--एवरग्रीन लॉज, फ्रेजर टाउन, बंगलौर--और उसके नीचे लिखा है--जनवरी, 1858। यानी इस डायरी की उम्र एक सौ तेरह साल है। ब्राउन साहब का नाम कई और किताबों पर था और उन्हीं किताबों के साथ यह लाल चमड़े से मढ़ी कापी थी। नामी पुस्तकों की तुलना में कीमत बहुत ही कम थी। मकबूल ने बीस रुपये की माँग की, मैंने दस रुपया बताया, अन्त में बारह रुपये में मामला तय हो गया। ब्राउन साहब कोई नामी आदमी होते तो इस किताब का दाम एक हजार तक हो सकता था।
डायरी से तत्कालीन हिन्दुस्तान के साहबों के दैनंदिन जीवन के अलावा और किसी चीज की जानकारी प्राप्त होगी, ऐसी मैंने उम्मीद नहीं की थी। सच कह रहा हूँ, शुरू के सौ पन्ने पढ़ जाने पर भी इससे ज्यादा कुछ नहीं मिला। ब्राउन साहब का पेशा स्कूलमास्टरी था। बंगलौर के किसी स्कूल में अध्यापन का काम करते थे। साहब ने अपनी ही बातें अधिक लिखी हैं; बीच-बीच में बंगलौर शहर का भी वर्णन है। एक जगह तत्कालीन बड़े लाट साहब की स्त्री लेडी कैनिंग के बंगलौर आने की घटना का उल्लेख किया है। बंगलौर के फूल-फल-पेड़-पौधे और अपने बगीचे के बारे में भी लिखा है। एक जगह इग्लैण्ड के सासेक्स अंचल के अपने पैतृक घर और बिछड़े सगे-सम्बन्धियों का उल्लेख है। उनकी पत्नी एलिजाबेथ का भी उल्लेख है, जिसका कई वर्ष पहले ही देहांत हो चुका था।
उसमें सबसे रोचक बात जो है वह यह कि साइमन नामक किसी व्यक्ति की चर्चा बार-बार की गई है। यह साइमन कौन था--उसका लड़का या भाई या भांजा--यह बात डायरी से समझ में नहीं आती है। तब हाँ, साइमन के प्रति साहब के दिल में जो एक गहरा लगाव था, यह समझने में कोई दिक्कत नहीं हुई। डायरी में साइमन की बुद्धि, साइमन की हिम्मत, साइमन के क्रोध, अभिमान, शरारत और मनमौजीपन वगैरह की बार-बार चर्चा की गई है। साइमन अमुक कुरसी पर बैठना पसन्द करता है, आज साइमन की तबीयत ठीक नहीं है, आज दिन-भर साइमन पर नजर न पड़ने के कारण मन खराब है--इस तरह की छोटी-मोटी बातें भी हैं! इसके अलावा साइमन की बेधक मृत्यु की खबर भी है। 22 सितम्बर की संध्या साढ़े सात बजे बज्राघात से साइमन की मौत हुई थी। दूसरे दिन भोर के समय ब्राउन साहब के बगीचे के झुलसे हुए युकिलिप्टस के पेड़ के पास साइमन की लाश मिली थी।
इसके बाद एक महीने तक डायरी में वैसी कोई उल्लेखनीय बात नहीं है। जो है, उसमें शोक और निराशा के अतिरिक्त कुछ भी नहीं। ब्राउन साहब ने स्वदेश जाने की बात सोची है मगर उनका मन नहीं चाहता कि वह साइमन की आत्मा से दूर चला जाए। साहब की सेहत भी ज़रा खराब हो गई है। 'आज भी स्कूल नहीं गया'--इस बात की चर्चा पाँच-पाँच जगहों में की गई है। लुकास नामक एक डॉक्टर का भी उल्लेख है। उसने ब्राउन साहब के सेहत की जाँच की थी और दवा बता गया था।
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उसके बाद एकाएक दो नवम्बर की डायरी में एक आश्चर्यजनक घटना का उल्लेख किया गया है और इसी घटना ने मेरी नजर में डायरी की कीमत हजारों गुणा बढ़ा दी है। ब्राउन साहब रोज की घटना नीली स्याही में लिखते थे पर इस घटना को लाल स्याही से लिखा है। उसमें उन्होंने एक ऐसी घटना का उल्लेख किया है जिसकी कल्पना नहीं की जा सकती (मैं उसका अनुवाद प्रस्तुत कर रहा हूँ)। मैं तीसरे पहर अपने मन को शान्त करने लालबाग के पेड़-पौधों के पास गया था। शाम साढ़े सात बजे घर लौटकर ज्योंही ड्राइंगरूम के अन्दर गया, देखा, साइमन फायर प्लेस के पास अपनी प्रिय हाइबैक्ड कुरसी पर बैठा है। साइमन! सचमुच साइमन ही था। मैं उसे देखकर आनन्द से पागल हो गया और वह केवल बैठा ही नहीं है, बल्कि अपनी स्नेहपूर्ण आँखों से मेरी ओर एकटक देख रहा है। इस कमरे में रोशनी नहीं है। मेरे कामचोर खानसामा टॉमस ने यहाँ बत्ती नहीं जलाई है। इसीलिए साइमन को अच्छी तरह से देखने के लिए मैंने जेब से दियासलाई बाहर निकाली। तीली के बक्से पर घिसते ही रोशनी जल उठी, मगर मुझे बड़ा ही अफसोस हुआ। इन कई क्षणों के बीच ही साइमन गायब हो गया। इतना ज़रूर है कि मुझे यह उम्मीद नहीं है कि फिर साइमन को कभी देख सकूँगा। इस तरह भूत की हालत में भी अगर वह बीच-बीच में दीख जाए तो मेरे मन से तमाम दुःख दूर हो जाएँ। सचमुच आज अपूर्व आनन्द का दिन है। मरकर भी साइमन मुझे भूल नहीं सका है--यहाँ तक कि अपनी प्यारी कुरसी भी उसे भूली नहीं। दुहाई है साइमन--बीच-बीच में दीख जाना। इसके अलावा मैं तुमसे और कुछ नहीं चाहता हूँ। इतना ही उपलब्ध हो जाए तो मैं अपनी बाकी जिन्दगी शान्ति से जी लँगा।...
इसके बाद डायरी पढ़ी नहीं जाती है। जो कुछ भी है, उसमें दुख की कोई छाप नहीं, क्योंकि साइमन से ब्राउन साहब की हर रोज भेंट हो जाती है। साइमन के भूत ने साहब को निराश नहीं किया था।
डायरी के आखिरी पन्ने पर लिखा है : जो मुझे प्यार करता है, उसकी मृत्यु के बाद भी उसका प्यार अटूट रहता है, इस ज्ञान की प्राप्ति से मुझे चरम शान्ति मिली है।
बस, इतना ही। लेकिन अब सवाल उठता है--ब्राउन साहब की वह कोठी--बंगलौर के फ्रेजर टाउन का एवरग्रीन लॉज--अब है या नहीं, और वहाँ अब भी शाम के वक्त साइमन साहब के भूत का आगमन होता है या नहीं? मैं अगर उस कोठी में जाकर एक शाम गुजारूँ तो साइमन के भूत को देख पाऊँगा?
बंगलौर आने पर पहले दिन अनीक को इसके बारे में कुछ भी न कहा। उसकी एंबेसेडर गाड़ी से घूमकर पूरे बंगलौर शहर की परिक्रमा की--यहाँ तक कि फ्रेजर टाउन को भी नहीं छोड़ा। बंगलौर सचमुच खूबसूरत जगह है, इसलिए इस शहर के बारे में खुशियाँ जाहिर करने में मुझे झिझक नहीं हुई। बंगलौर केवल खूबसूरत ही नहीं है, कलकत्ते से आने पर यह शान्त और कोलाहल शून्य शहर मुझे अयथार्थ सपनों के राज्य जैसा लगा।
अगले दिन रविवार था। सवेरे अनीक के बगीचे में रंगीन छतरी के तले बैठकर चाय पीते हुए मैंने ब्राउन साहब के सन्दर्भ में चर्चा की। सुनकर उसने चाय की प्याली बेंत की कुरसी पर रख दी और बोला, "देखो रंजन, जिस कोठी के बारे में तुमने चर्चा की वह शायद अब भी हो, एक सौ साल यों कोई ज्यादा अरसा नहीं है। तब हाँ, वहाँ जाकर अगर भूत देखने का इरादा है तो मैं इस काम में साथ नहीं दे सकता। अन्यथा मत लेना भाई, मैं हमेशा से ज़रा भावुक रहा हूँ। यों ही मजे में हूँ। आजकल शहर में कोई उपद्रव नहीं है। भूत के पीछे दौड़ने का मतलब है जानबूझकर उपद्रव को न्योता देना। मैं इस काम में साथ नहीं दे सकता।“
अनीक की बातें सुनने पर लगा, बारह साल के दरमियान उसमें कोई परिवर्तन नहीं आया है। स्कूल में वह अवश्य ही डरपोक के नाम से बदनाम था। याद आया, एक बार हमारे क्लास के जयन्त और कुछ शरारती लड़कों ने मिलकर एक शाम बालीगंज के सर्कुलर रोड पर राइडिंग स्कूल के पास खुद को सिर से पैर तक सफेद कपड़े से ढक कर उसे डरा दिया था। अनीक इस घटना के बाद दो दिन स्कूल नहीं आया था और अनीक के पिताजी ने हेडमास्टर वीरेश्वर बाबू के पास आकर घटना के सन्दर्भ में शिकायत की थी।
मैं इसके बारे में कुछ कहूँ कि इसके पहले ही अनीक अचानक बोल उठा, 'अगर तुम्हें जाना ही है तो साथी का अभाव नहीं होगा।...आइए, मिस्टर बनर्जी।'
मैंने पीछे की तरफ मुड़कर देखा। लगभग पैंतालीस साल के एक सज्जन अनीक के बगीचे के फाटक से प्रवेश कर हँसते हुए मेरी ओर आ रहे हैं। हट्टा-कट्टा शरीर, लगभग छह फीट ऊँचाई। पहनावे के रूप में सिलेटी रंग की हैंडलूम की पैंट और उस पर गाढ़े नीले रंग की टेरिलिन की बुश्शर्ट, गले में काला-सफेद बूटेदार रेशमी मफलर।
अनीक ने परिचय कराया, 'आप हैं मेरे मित्र रंजनसेन गुप्त और आप मिस्टर हृषिकेश बनर्जी।'
पता चला कि वे बंगलौर की एयरक्राफ्ट फैक्टरी में काम करते हैं। बहुत दिनों से बंगाल के बाहर हैं इसलिए उनके लहजे में गैर-बंगाली की छाप है। साथ ही ढेरों अंग्रेजी शब्दों का व्यवहार करते हैं।
अनीक ने बेयरा को पुकारकर और एक प्याली चाय लाने का आदेश दिया और फिर सीधे ब्राउन साहब की कोठी के प्रसंग को छेड़ दिया। सुनकर उन्होंने ऐसा ठहाका लगाया कि एक गिलहरी जो कुछ देर पहले से हमारी टेबल के इर्द-गिर्द चक्कर लगा रही थी, अपनी पूँछ उठाकर देवदारु के एक वृक्ष के तने को पार कर एकबारगी ऊँची डाल पर चली गई।
‘गोस्ट्स? गोस्ट्स? यू सीरियसली बिलीव इन गोस्ट्स इस जमाने में भी? इस युग में भी?'
बनर्जी की हँसी का सिलसिला थमने का नाम ही नहीं ले रहा था। देखा, उनके दाँत सफेद और मजबूत हैं।
अनीक ने कहा, 'चाहे जो भी हो मिस्टर बनर्जी--गोस्ट ऑर नो गोस्ट--वैसा अगर कोई मकान है और रंजन जबकि एक अजीब धारणा पाले हुए हैं--तो उसके साथ किसी शाम आप वहाँ थोड़ी देर तक रह सकते हैं या नहीं, यही बताइए? वह कलकत्ते से आया है और मेरा गेस्ट है। उसे मैं वहाँ अकेले नहीं जाने दूँगा। और सच कहूँ, मैं बहुत सावधान रहने वाला आदमी हूँ। अगर मैं उसे अपने साथ लेकर जाऊँ तो उसे सुविधा के बजाय असुविधा ही होगी।'
मिस्टर बनर्जी ने अपनी शर्ट की पॉकेट से एक तिरछा पाइप बाहर निकाला और उसमें तम्बाकू ठूंसते हुए कहा, "मुझे आपत्ति नहीं है। तब हाँ, मैं एक ही शर्त पर जा सकता हूँ--वह यह कि मैं अपने साथ एक के बदले दो आदमी ले जाऊँगा।"
अपनी बात समाप्त कर बनर्जी ने पुन: एक ठहाका लगाया और इस ठहाके के फलस्वरूप आसपास के पेड़ों से चार-पाँच किस्म के परिंदों की तीखी आवाज और पंखों की फड़फड़ाहट सुनाई पड़ी। अनीक का चेहरा हालाँकि ज़रा मलिन हो गया मगर वह मना नहीं कर सका।
'कोठी का नाम क्या बताया?' बनर्जी ने पूछा।
'एवरग्रीन लॉज।'
'फ्रेजर टाउन में?'
'डायरी तो यही बताती है।'
'हँ'... उन्होंने पाइप से कश लिया, 'फ्रेजर टाउन में साहबों की कुछ कोठियाँ है, कॉटेज टाइप की। एनी वे--अगर जाना ही है तो देरी करने से क्या फायदा? ह्वाट एबाउट आज तीसरे पहर? यही चार बजे?'
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इंजीनियर होने से क्या--मूड बिलकुल मिलिटरी मैन और साहब के जैसा है। घड़ी देखकर ठीक चार बजे हृषिकेश बनर्जी अपनी मॉरिस माइनर कार लेकर आ धमके। जब गाड़ी में बैठा तो वे बोले, 'साथ में क्या-क्या लिया?'
अनीक ने फेहरिस्त की सूचना दी--पाँच सेल का एक टार्च, छह मोमबत्तियाँ, फस्ट एड का बॉक्स, एक बड़े फलास्क में गरम कॉफी, एक बक्सा हैम सैंडविच, एक पैकेट ताश, जमीन पर बिछाने के लिए एक चादर, मच्छरों को भगाने के लिए एक ट्यूब ऑडोमस।
और अस्त्र-शस्त्र?' बनर्जी ने पूछा।
'भूत को किस हथियार से काबू में किया जाता है? क्यों रंजन, तुम्हारे साइमन का भूत क्या सॉलिड है?'
'खैर,' मिस्टर बनर्जी ने गाड़ी के दरवाज़े को बन्द करते हुए कहा, 'मेरे पास एक छोटा-सा आग्नेय अस्त्र है, इसलिए सॉलिड-लिक्विड के बारे में चिन्ता करने की ज़रूरत नहीं है।'
गाड़ी रवाना होने पर बनर्जी ने कहा, 'एवरग्रीन लॉज की बात काल्पनिक नहीं मैंने अवाक् होकर कहा, 'आपने इस बीच पता भी लगा लिया?'
बनर्जी एक-एक कर दो साइकिल-चालकों की बगल से गाड़ी बढ़ाते हुए बोले, 'आइ एम ए वेरी मेथडिकल मैन, मिस्टर सेनगुप्त। जहाँ जाना है, वह जगह है या नहीं, इसके बारे में पहले से ही पता लगा लेना क्या उचित नहीं है? उस ओर श्रीनिवास देशमुख रहते हैं। हम एक ही साथ गोल्फ खेलते हैं। उनसे मेरी बहुत दिनों से जानपहचान है। सुबह यहाँ से उन्हीं के घर पर गया था। उन्होंने बताया, एवरग्रीन नामक एक एकमंजिला कॉटेज लगभग पचास साल से खाली पड़ा है। मकान के बाहर एक बगीचा है, जहाँ लोग दस साल पहले तक पिकनिक करने जाया करते थे पर अब नहीं जाते। मकान बिलकुल निर्जन स्थान में है। पहले भी उस मकान में कोई एक लम्बे अरसे तक नहीं रहा है। तब हाँ, किसी ने हण्टर हाउस कहकर उसे बदनाम नहीं किया है। मकान के फर्नीचर बहुत पहले ही नीलाम हो चुके हैं। उनमें से कुछ कर्नल मार्सल के मकान में हैं। वह एक रिटायर्ड आर्मी अफसर है और फ्रेजर टाउन में ही रहता है। सब कुछ सुनने के बाद लगता है, मिस्टर सेनगुप्त, हमें पिकनिक करके ही लौट आना पड़ेगा। अनीक ने ताश लाकर अच्छा ही किया है।'
बंगलौर की साफ-सुथरी चौड़ी सड़क से गाड़ी से जाते-जाते लग रहा था, यह शहर भूत-प्रेत से इतना खाली है कि यहाँ भुतहा मकान के अस्तित्व की कल्पना भी नहीं की जा सकती है।
लेकिन उसके बाद ही मुझे ब्राउन साहब की डायरी की बात याद आ जाती थी। पागल हुए बिना आदमी इस तरह की अद्भुत बातें डायरी में क्यों लिखेगा? साइमन के भूत को ब्राउन साहब ने खुद ही देखा है। एक बार नहीं, अनेकों बार। वह भूत क्या हमें एक बार भी दिखाई न देगा?
मैं विलायत नहीं गया हूँ। परन्तु विलायत के कॉटेज की ढेरों तस्वीरें किताबों में देखी हैं। एवरग्रीन लॉज के सामने आने पर मुझे महसूस हुआ कि मैं सचमुच ही इंग्लैण्ड के ग्रामीण अंचल के एक पुराने परित्यक्त मकान के सामने आ गया हूँ।
कॉटेज के सामने ही बगीचा है। यहाँ अब फूलों की क्यारियों के बदले घास और झाड़-झंखाड़ हैं। लकड़ी के एक छोटे गेट (जिसे अंग्रेजी में विकेट कहते हैं) से होकर बगीचे के अन्दर जाना पड़ता है। उस गेट पर एक फलक पर घर का नाम लिखा है। तब हाँ, शायद किसी पिकनिक करने वाले की जमात ने ही मजाक में एवरग्रीन शब्द के आगे एक 'एन' जोड़कर उसे 'नेवरग्रीन' बना दिया है।
हम गेट से प्रवेश कर मकान की तरफ बढ़ने लगे। चारों तरफ अनगिनत पेड़-पौधे हैं। तीनेक यूकेलिप्टस के पेड़ हैं। बाकी जितने भी पेड़ हैं, उनका नाम मुझे मालूम नहीं। बंगलौर की हवा और पानी में ऐसा गुण है कि वहाँ किसी भी देश का पेड़ जिन्दा रह जाता है।
कॉटेज के सामने टाइल से छावनी किया हुआ पोर्टिको है। उसके टेडे-मे खम्भों से होती हुई लता ऊपर की ओर चली गई है। छावनी की बहुत-सी टाइलें गायब हैं, फलस्वरूप फाँक से आसमान दिखाई पड़ता है। सामने के दरवाजे का एक पल्ला टूटकर तिरछा पड़ा हुआ है। मकान के सामने के दरवाज़े-खिड़कियों के कांच टूट गए हैं। दीवार पर लोनी लगने के कारण ऐसी हालत हो गई है कि मकान का असली रंग क्या था, इसका पता लगाना मुश्किल है।
हम दरवाजे से मकान के अन्दर गये।
अन्दर जाते ही एक गलियारा मिला। पीछे की तरफ टूटी दीवार से एक कमरा दीख रहा है। हमारे दाहिने और बायें भी कमरे हैं। दाहिनी तरफ का ही कमरा बड़ा मालूम होता है। अन्दाज लगाया, यही बैठक रही होगी। फर्श पर विलायती कायदे से तख्ते लगे हैं, मगर एक भी तख्ता साबुत नहीं है। सावधानी से कदम रखना पड़ता है और हर कदम पर खट-खट् आवाज होती है।
हमने कमरे के अन्दर प्रवेश किया।
खासा बड़ा कमरा है, फर्नीचर न रहने के कारण और भी सूना जैसा लगता है। पश्चिम और उत्तर की तरफ खिड़कियों की कतार है। एक तरफ की खिड़की से गेट समेत बगीचा दीखता है, दूसरी तरफ की खिड़की से पेड़ों की कतार। क्या इन्हीं पेड़ों में से किसी पर वज्रपात हुआ था? साइमन उसी के नीचे खड़ा होगा और तत्काल उसकी मौत हो गई होगी। सोचते ही रोंगटे खड़े हो गए।
अब मैंने दक्खिन तरफ की बिना खिड़की वाली दीवार की ओर देखा। बायें कोने में फायरप्लेस है। इसी फायरप्लेस के पास ही साइमन की प्रिय कुरसी रही होगी।
कमरे की सीलिंग की ओर देखने पर मकड़ियों की जालियों को झूलते हुए पाया। किसी जमाने में एवरग्रीन लॉज खूबसूरत रहा होगा, अब उसकी हालत शोचनीय हो गई है।
मिस्टर बैनर्जी शुरू में 'लाला-ला' करते हुए विलायती स्वर में आलाप ले रहे थे, अब उन्होंने पाइप सुलगाई और कहा, 'आप लोग कौन-सा खेल खेलना जानते हैं? ब्रिज या पोकर या रमी?'
अनीक अपने हाथ के सरोसामान को फर्श पर रखने के बाद चादर बिछाकर बैठने जा रहा था, तभी एक आवाज सुनाई दी।
किसी दूसरे कमरे में कोई आदमी जूता पहनकर चहल-कदमी कर रहा है। अनीक की तरफ देखा तो उसका चेहरा उतरा हुआ पाया।
पैरों की आवाज थम गई। मिस्टर बैनर्जी अचानक अपने मुँह से पाइप हटाकर जोरों से चिल्ला उठे, ‘इज एनी बॉडी देयर?' और हम तीनों गलियारे की तरफ बढ़ गए। अनीक अपने हाथ से मेरे कोट की आस्तीन थामे हुए था।
जूते की आवाज फिर से शुरू हुई। हम जैसे ही बाहरी गलियारे में पहुँचे, दूसरी तरफ के कमरे से एक आदमी बाहर निकलकर आया और हम पर नजर पड़ते ही ठिठककर खड़ा हो गया। वह एक भारतीय ही था। चेहरा दाढ़ी और मूंछों से भरा रहने पर भी वह भला और शिक्षित जैसा लगा। उसने कहा, 'हेलो।'
हम क्या कहें यह समझ में नहीं आ रहा था कि तभी अजनबी ने खुद ही हमारे कौतूहल का निवारण कर दिया।
'मेरा नाम वेंकटेश है। आइ एम ए पेन्टर। आप लोग इस मकान के मालिक हैं या खरीदार?'
बैनर्जी ने हँसते हुए कहा, 'दोनों में से एक भी नहीं। हम चक्कर लगाते-लगाते यूँ ही यहाँ पहुँच गए हैं।'
आई सी। मेरा खयाल था। अगर यह मकान मुझे मिल जाता तो अपने काम के लिए एक स्टूडियो बना लेता। टूटा-फूटा रहने पर भी मुझे एतराज नहीं है। मालिक कौन है, इसके बारे में आप लोगों को कोई जानकारी नहीं है?'
'जी नहीं। सॉरी। आप कर्नल मार्सर के यहाँ जाकर खोज-खबर ले सकते हैं। सामने का रास्ता पकड़कर बायीं ओर जाइए। जाने में पाँच मिनट लगेगा।'
‘थैंक्यू’ कहकर मिस्टर वेंकटेश वहाँ से चले गए।
गेट खोलने और बन्द करने के बाद मिस्टर बैनर्जी ने पहले की तरह ही एक ठहाका लगाते हुए कहा, 'मिस्टन सेनगुप्त, यह आदमी आपके साइमन या उस किस्म का कोई भूत वगैरह नहीं है।'
मैंने हँसकर कहा, 'कुल मिलाकर अभी सवा पाँच ही बजे हैं, इस बीच आप भूत की उम्मीद कैसे करते हैं? और ये भले आदमी अगर भूत थे तो उन्नीसवीं सदी के नहीं होंगे। क्योंकि वैसा होने पर उनका लिबास और ही तरह का होता।'
इस बीच हम बैठक में लौट आए हैं। अनीक ने फर्श पर बिछी चादर पर बैठते हुए कहा, 'झूठमूठ की कल्पना पालने का मतलब है नर्वसनेस बढ़ाना। इससे बेहतर तो यही है कि हम ताश खेलें।'
‘पहले कुछ मोमबत्तियाँ जला लो,' बैनर्जी ने कहा, यहाँ शाम एकाएक उतर आती
दो मोमबत्तियाँ जलाकर हमने उन्हें लकड़ी के फर्श पर खड़ा कर दिया। उसके बाद फ्लास्क के ढक्कन में कॉफी डाल-डालकर बारी-बारी से पी। एक बात मेरे मन में बहुत देर से घुमड़ रही थी, उसे बिना कहे रह नहीं सका। भूत का नशा मेरे सिर पर कितना सवार हो गया है। यह तथ्य मेरी बात से ही जाहिर होगा। बैनर्जी की ओर मुखातिब होकर मैंने कहा, 'आपने बताया था कि कर्नल मार्सर ने यहाँ के कुछ फर्नीचर खरीदे थे। वे जब इतने निकट हैं तो उनसे क्या एक बात दरियाफ्त की जा सकती है?'
'क्या?' बैनर्जी ने पूछा।
'एक खास तरह की हाइबैक्ट चेयर के बारे में?'
अनीक ने तनिक ऊब के साथ कहा, 'अचानक हाइबैक्ट चेयर के बारे में पूछकर क्या होगा?'
'नहीं, यानी ब्राउन साहब ने लिखा है वह साइमन की बड़ी ही प्यारी कुरसी थी। भूत होने के बाद भी वह उसी पर बैठता था और वह फायरप्लेस के पास रखी रहती थी। हो सकता है, उसे यहाँ लाकर रखने से...'
अनीक ने मेरी बात काटते हुए कहा, 'तुम बैनर्जी साहब की उस मॉरिस कार पर हाइबैक्ट चेयर ले आओगे या हम तीनों ही उसे कन्धे पर ढोकर ले आएँ? तुम्हारा दिमाग क्या खराब हो गया है?'
बैनर्जी ने हाथ उठाकर हम दोनों को चुप कराया और कहा, 'कर्नल मार्सर ने जो कुछ खरीदा है उसमें उस किस्म की कुरसी नहीं है, यह बात मुझे मालूम है। मैं उसके घर पर अक्सर जाया करता हूँ। अगर वह कुर्सी वहाँ रहती तो मेरी निगाह में पड़ती ही। जहाँ तक मुझे मालूम है, उन्होंने दो बुककेस, दो ऑयल पेंटिंग, कुछ गुलदस्ते और शेल्फ सजाने की कुछ शौकिया चीजें, जिन्हें आर्ट ऑब्जेक्ट कहते हैं, खरीदी थीं।'
मेरा उत्साह ठंडा पड़ गया। ताश निकालकर फेंटना शुरू किया। बैनर्जी ने कहा, 'रमी ही चले। और यह खेल तभी जमता है जब पैसा लगाकर खेला जाए। आप लोगों को इसमें कोई आपत्ति है?'
मैंने कहा, 'बिलकुल नहीं। तब इतनी बात जरूर है कि मैं ठहरा बैंक का मामूली कर्मचारी। बहुत ज्यादा पैसा लगाने की मुझे सामर्थ्य नहीं है।'
बाहर दिन की रोशनी फीकी हो गई है। हम खेल में तल्लीन हो गए। ताश के खेल में तकदीर कभी मेरा साथ नहीं देती है। आज भी वही हालत रही। मैं जानता हूँ अनीक मन ही मन नर्वस है। इसलिए अगर जीत उसकी हो तो मुझे बहुत-कुछ निश्चिन्तता का अहसास होगा, मगर उसका कोई लक्षण नहीं दीख रहा है। एकमात्र मिस्टर बैनर्जी की तकदीर उनका साथ दे रही है। वे विलायती स्वर गुनगुनाते जा रहे हैं और दाँव पर दाँव जीते जा रहे हैं। खेलते-खेलते सन्नाटे के बीच एक बार एक बिल्ली की आवाज सुनाई पड़ी। उसके कारण मेरे उत्साह पर और अधिक पानी फिर गया। भुतहा मकान में बिल्ली का रहना भी उचित नहीं है। यह बात जब मैंने बैनर्जी से कही तो वे हँसकर बोले, 'बट इट वाज ए ब्लैक कैट--इसी गलियारे से होकर गया है। ब्लैक कैट तो भूत के साथ जाता ही है, है न यह बात?'
खेल का सिलसिला चलता रहा। बीच में एक अनजान पक्षी की कर्कश आवाज के अतिरिक्त किसी तरह की आवाज, दृश्य या घटना ने हमारी एकाग्रता में बाधा नहीं डाली।
घड़ी साढ़े छह बजा रही है। कहा जा सकता है बाहर रोशनी है ही नहीं। अच्छा ताश मिल जाने के कारण मैं लगातार दो बार जीत चुका हूँ। इस बीच रमी का एक और दौर चल चुका है। तभी कानों में एक अस्वाभाविक आवाज आई। कोई बाहर से दरवाजे को खटखटा रहा है।
हम तीनों के हाथ ताश समेत नीचे गिर पड़े। खट--खट, खट--खट। अनीक का चेहरा इस बार और भी उतर गया। मेरी भी छाती अन्दर ही अन्दर धड़क रही है। मगर बैनर्जी में घबराहट का नामोनिशान तक नहीं है। अचानक सन्नाटे को भेदकर वे अपनी पुरजोर आवाज में चिल्ला उठे, 'हू इज़ इट?'
दरवाजे पर फिर खटखटाहट शुरू हो गई।
बैनर्जी पता लगाने के लिए चटपट उठकर खड़े हो गए। मैंने उनका हाथ पकड़कर कहा, 'अकेले मत जाइए।'
हम तीनों एक साथ कमरे के बाहर आए। गलियारे में आने के बाद बाईं तरफ हमने एक आदमी को खड़ा पाया। वह सूट पहने है और उसके हाथ में लाठी है। अँधेरे में उसे पहचानना मुश्किल है। अनीक ने मेरी आस्तीन पकड़ ली। इस बार और ज्यादा जोर से। उसकी हालत देखकर मुझमें अपने आप एक साहस का भाव आ गया।
इस बीच बैनर्जी कई कदम आगे बढ़ चुके थे। वे चिल्ला उठे, 'ओह, हेलो डाक्टर लार्किन! आप यहाँ?'
अब मैंने भी उस प्रौढ़ साहब को गौर से देखा। सोने के चश्मे के पीछे उसकी नीली आँखों में एक सिकुड़न आ गई और वह बोला, 'तुम्हारी मॉरिस गाड़ी बाहर दिखाई दी। उसके बाद देखा, खिड़की से मोमबत्ती की रोशनी आ रही है। इसीलिए सोचा, एक बार देख लूँ कि तुम पर किस पागलपन का भूत सवार हुआ है।'
बैनर्जी ने हँसकर कहा, 'मेरे इन दो जवान मित्रों को एक अजीब एडवेंचर का शौक चर्राया है। कहा, एवरग्रीन लॉज में बैठकर ताश खेलेंगे।'
'वेरी गुड, वेरी गुड। जवानी ही इस तरह के पागलपन का वक्त हुआ करता है। हम बूढ़े सिर्फ अपने-अपने घर के कोच पर बैठकर पुरानी यादों को दुहराते हैं। वेल वेल, हैव ए गुड टाइम।'
लॉर्किन साहब ने हाथ उठाकर 'गुडबाइ' कहा और लाठी ठुकठकाते हुए चले गए और हमें भी भूत की उम्मीद छोड़नी पड़ी। अब और क्या करें! हम फिर ताश खेलने में जुट गए। शुरू में मैं लगभग साढ़े चार रुपया हार रहा था। पिछले आधे घंटे के दरमियान उसमें से कुछ वापस आ गया है। साइमन का भूत न भी दीखे मगर ताश में जीतकर अगर घर लौट सकूँ तो आज का यह रहस्य-रोमांच कुछ सार्थक जैसा लगे।
बीच-बीच में आँखें घड़ी की तरफ चली जाती थीं। असली घटना कब घटी थी। उसका वक्त मुझे मालूम नहीं। ब्राउन साहब की डायरी से पता चला था कि शाम के इसी वक्त वज्रपात से साइमन की मृत्यु हुई थी।
मैं ताश बाँट रहा हूँ मिस्टर बैनर्जी अपनी पाइप सुलगा रहे हैं, अनीक कुल मिलाकर सैंडविच खाने के उद्देश्य से पैकेट में हाथ देने जा रहा है कि तभी उसकी आंखों की दृष्टि एक ही क्षण में बदल जाती है और उसके अंग-प्रत्यंग जड़ जैसे हो जाते हैं।
उसकी दृष्टि दरवाजे के बाहर गलियारे की तरफ टिकी हुई है। हम दोनों की भी दृष्टि स्वभावतया उसी ओर चली जाती है। जो कुछ देखता हूँ उसके कारण कई क्षणों के लिए मेरा गला भी सूख जाता है और साँसों का चलना बन्द हो जाता है।
बाहर गलियारे के अँधेरे से दो चमकती हुई आँखें हमारी ओर अपलक ताक रही हैं।
मिस्टर बैनर्जी का दाहिना हाथ आहिस्ता-आहिस्ता कोट के वेस्ट पॉकेट की तरफ चला जाता है। और ठीक उसी क्षण जादू की तरह वह मामला मेरे सामने स्पष्ट हो जाता है और मेरे मन से सारा भय दूर हो जाता है। मैंने कहा, 'आपके पिस्तौल की जरूरत नहीं है, साहब! यह वही काली बिल्ली है।'
मेरी बात से अनीक में भी साहस का संचार हुआ। बैनर्जी ने पॉकेट से हाथ बाहर निकाल कर कहा, 'हाउ रिडिकुलस!'
अब वे चमकती आँखें हमारे कमरे की तरफ आने लगीं। चौखट पार करते ही मोमबत्ती की रोशनी में मेरी बात सही साबित हुई। यह वही काली बिल्ली थी।
चौखट पार कर बिल्ली बाईं तरफ मुड़ी। हमारी दृष्टि उसके साथ-साथ घूम रही थी, उसका पीछा कर रही थी।
अबकी हम तीनों के गले से एक साथ ही एक शब्द बाहर निकल आया। अकस्मात् विस्मय होने पर जिस तरह शब्द निकलता है, ठीक उसी तरह का शब्द। इस शब्द के निकलने का कारण यह था कि हम जब ताश खेलने में व्यस्त थे, उसी बीच, पता नहीं कहाँ से और कैसे एक गाढ़े लाल रंग के मखमल से लिपटी हुई हाइबैक्ट कुरसी फायरप्लेस के पास आ गयी थी।
अमावस जैसे काली रात के अंधेरे में काली बिल्ली चुपचाप कुरसी की तरफ बढ़ गयी। उसके बाद वहाँ एक क्षण रुकी रही। फिर उसने एक छलाँग लगाई और कुरसी पर गुंजलक मारकर लेट गई। और उसी क्षण एक अजीब शब्द सुनकर मेरा शरीर विवर्ण हो गया। किसी एक अशरीरी वृद्ध की खिलखिलाहट के अन्तराल से बार-बार उच्चरित हो रहा है 'साइमन, साइमन, साइमन, साइमन।' और उसके साथ ही बचपने से भरी खुशियाँ और तालियों की गड़गड़ाहट।।
एक चीख सुनाई पड़ी और अनीक बेहोश हो गया। और मिस्टर बैनर्जी? वे अनीक को गोद में लेकर गलियारे से दरवाजे की तरफ बढ़ने लगे।
मैं भी अब बैठा नहीं रह सका। ताश, मोमबत्ती, फ्लास्क, चादर सब कुछ पड़े रह गए।
' सौभाग्य से बंगलौर की सड़कों पर लोगों का आवागमन कम रहता है वरना हमारी गाड़ी की तेज रफ्तार की चपेट में आकर उस समय कितने आदमी घायल होते, कहना मुश्किल है।
अनीक को गाड़ी में होश आ चुका था, मगर उसके मुँह से एक भी शब्द बाहर नहीं निकल रहा था। पहले-पहल मिस्टर बैनर्जी के मुँह से ही आवाज निकली। अनीक बेयरा के हाथ से ब्राँडी का गिलास छीनकर एक ही खूंट में आधा गिलास पी गये और घरघराती आवाज में बोले, 'सो साइमन वाज ए कैट।'
मैं भी इस हालत में नहीं था कि कुछ बोलता, मगर मेरे मन ने हामी भरी।
सचमुच साइमन ब्राउन साहब की अक्लमन्द, मनमौजी, अभिमानिनी आज्ञाकारिणी और लाड़ली थी। जिस साइमन की मृत्यु आज से एक सौ तेरह वर्ष पहले वज्रपात से हुई थी। वह यही पालतू काली बिल्ली थी।
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