गीताश्री की कहानी — मत्स्यगंधा | Geetashree ki kahani MatasyaGandha

मत्स्यगंधा 

गीताश्री की कहानी 



“हे निषाद देवता...ई औरत तो सचमुच सनकल पुजारिन हो गई है। क्या गा रही है। सुरसती लोकगीत गाती है सुर में। गीतगाइन सुरसती उसे मोह रही थी, फिर से। जब से लौटा है, सत्तो की भिन्न भिन्न छवियां देख चुका है। अब गीतगाइन सत्तो की यह छवि एकदम नयी है। कितना खुल गई है सत्तो उसके पीछे। उसके भीतर से नयी-नयी स्त्री बाहर निकल आई है। 


जब कथाकार की पींगें और और ऊंची होती हैं तब साहित्य भी नई ऊँचाइयाँ देखता है। गीताश्री की ‘मत्स्यगंधा’ दिखा रही है कि वह अपनी कहानियों और लेखक को खूब विस्तार दे रही हैं। हंस मे छपी इस कहानी पर की गई इन टिप्पणियों को देखिए    

अभी अभी हंस जुलाई अंक में तुम्हारी कहानी मत्स्यगंधा पढ़ी। बहुत जम कर, मुलायम स्पर्शों और गहरे सरोकारों से बनी है यह रचना। इसमे गीताश्री की हड़बड़ी नदारद है। सबसे बड़ी बात तुम्हारी कहानी संकटकाल दिखाते हुए भी पात्रों को निरुपाय नही बनाती। कोई आसमान से विकल्प नहीँ टपकाता उन पर। सुरसती ओझोति से अपने को सुरक्षित करती है। इस कहानी में ग्रामीण समाज का साहस, संघर्ष और संकल्प तीनो व्यक्त हुए है। प्रेम के लमहे तुमने बहुत कोमल तरल बनाये हैं। कहानी सकारात्मकता पर खत्म होती है, यह एक और शक्ति बिंदु है मत्स्यगंधा का। बहुत बधाई गीताश्री। सधी हुई रचना है।

— ममता कालिया


वह स्त्री ही थी जो मत्स्यगंधा से सत्यवती बनकर चुके हुए राजा को पुत्र देती है तथा विपरीत समय में राजपाट सँभालती है। आदि और पहला रेकॉर्डर वेदव्यास को जन्म देती है जिसकी बदौलत हम महाभारत कथा को जानते हैं। यहां सुरसती और बतहू जो जाल फेंकने वाले मछेरे हैं के माध्यम से जिस जिजीविषा का वर्णन किया है गीताश्री ने वह विलक्षण है। जिन स्त्रियों को डाइन करार कर दिया जाता है उसमें ओझाइन बन तन कर खडी सुरसती उतनी ही सक्षम दीखती है जितनी कुरुवंश की राजरानी। एक सफल सोद्येश्य कहानी के लिये गीताश्री को साधुवाद।

— उषाकिरण खान


मत्स्यगंधा 

मई की उस गरम शाम को, बतहू सहनी के तलवों के छाले साफ करते हुए सुरसती सोच रही थी कि उसके मन के जाले भी साफ कर पाती तो कितना अच्छा होता। बड़ी मुश्किल से बतहू की आंखों के आंसू सूखे थे। उसकी आंखे किसी सूने जंगल जैसी वीरान हो गईं थीं। उन्हें देखते हुए वह सिहर उठती थी। कितनी सपनीली आंखें थीं, गांव छोड़ते हुए कुछ सपने उसे दे गया कुछ संग ले गया था। अब जो लौटा है तो उन आंखों में सपनों का उजाड़ दिखाई दे रहा है। उसके पैरों के पास बैठी सुरसती सरसो तेल मले जा रही थी। बतहू आंख मूंद कर सोने का नाटक कर रहा था। सुरसती की देह से उठती सरसो तेल, बेसन, सूखी मिर्च की तीखी गंध उसे विचलित कर रही थी। एक गंध उठती थी उसकी देह से, वह लुप्त थी। उस एक मादक गंध के ऊपर ये अजीब-सी तीखी जाने कब, कैसे लिपट गई थी सुरसती के ऊपर। उसकी गैरहाजिरी में उसने खुद को मिली जुली गंध में लपेट लिया था, और बतहू को ये गंध चुभ रही थी। न गंध भा रही थी न सुरसती का रुप। पीली सिंदूर पुती चौड़ी मांग उसे अचरज से भर रही थी। तीन साल...पैसे बचाने और बनाने के चक्कर में, तीन साल का ही तो अंतराल आया था। उसी में कोई औरत इतनी बदल जाएगी। यह सब सोचते हुए वह कसमसा रहा था। उसके भीतर बहुत कुछ चल रहा था। 
 
दोनों कुछ-कुछ समझ रहे थे एक दूसरे की मनोदशा। एक सप्ताह से बतहू खाट पर औंधे मुंह पड़ा था। उसका उठने का मन नहीं होता था। वहीं पड़े-पड़े कराहता और उजाड़ आंखों से पत्नी और दोनों बेटों को देखता, जो बाहर मिट्टी में बैठे कुछ खेल रहे होते थे। सुरसती सिर्फ सेवा करती जा रही थी। कभी तलवों पर मरहम लगाती, तो कभी माथे में वनफूल चुपड़ देती है। बतहू को जैसे चुप–सी लगी है। सुरसती भी नहीं पूछती है कुछ भी। उसका आदमी घर लौट आया, उसे बस इतनी तसल्ली थी। बतहू दिल्ली से गांव के लिए पैदल ही निकल पड़ा था। इस उम्मीद में कि कोई गाड़ी मिल जाएगी। सारी बची-खुची कमाई लेकर निकल पड़ा था। उसने एक अफवाह सुनी कि राजनगर बस स्टैंड से बसें बिहार के लिए निकलने वाली हैं। वह बुराड़ी से पैदल चलता-चलता राजनगर पहुंचा। वहां कोई बस नहीं, बस स्टैंड में अपार भीड़ उमड़ पड़ी थी। हाहाकार मचा हुआ था। सामान, बच्चों समेत लोग गाड़ियां ढूंढ रहे थे। उनकी बेचैनियों को देख कर कुछ गिद्ध जैसे लोग मंडरा रहे थे जो मनमानी वसूली करने की फिराक में थे। उन्हें बिहार बॉर्डर तक ले जाने को तैयार थे, मगर मोटी रकम मांग रहे थे। 

बतहू ने अपने पैसे टटोले। हर महीने पैसे घर भेज देता था। अपने पास खर्च भर बचा कर रखता था। स्वीमिंग पुल के कोच असिस्टेंट की पगार ही कितनी होगी कि घर भी पैसे भेजे और अपना खर्चा भी चलाए और बचत भी करे। एक कमरे में तीन लड़को के साथ जीवन कट रहा था। उसे जीवन और कमाई दोनों से कोई शिकायत नहीं थी। उसके मन लायक काम था। उसे एक ही काम आता था — तैरना और मछली मारना। बहुत कुशल तैराक था और उसने गांव के कई लोगो की जान बचाई थी नदी में डूबने से। घंटों सांसे रोके वह नदी के तल में घूमता रहता था। अपने को गांव की नदी का प्रेमी कहता था। नदी के जिस्म पर वह मछलियों के साथ तैरता हुआ बड़ा हुआ था। यह नदी कई गांवों के बीचों बीच थी, उसका गांव उन सबके लिए एक बड़ा हाट था। उसके गांव में सब्जियों का बड़ा हाट लगता जिसमें किसान अपनी सब्जियां लेकर रोज आते जाते थे। नदी में कई नावें थी, नाविक भी। मगर बतहू का अंदाज निराला था। वह हल्के अंधेरे में भी सवारियों को पार उतार आता था। नदी किनारे उसने बसेरा बना लिया था। किसी को मना नही करता था। एक साथ दो नाव खींच लेने की क्षमता थी। एक में सामान, दूसरे में सवारी। वह नदी का मिजाज पहचानता था। चाहे भादों की उफनती नदी हो या जेठ में कृशकाय नदी, वह दोनों रूप में उससे खेलता था। सब उसे भंवर का खिलाड़ी कहते थे। नदी के बीचोबीच जहां भंवर पड़ा करते थे, वहां से ज्यादातर मल्लाह दूर रहते थे। दूर से ही भंवर को देख कर नाव की दिशा बदल लेते थे। बतहू सहनी भंवर के साथ चक्कर लगाता हुआ लौट आता था। सब उसे चेताते, वह हो हो करता, अट्टाहास करता और मौज लेता। उसे सुरसती भी रोकती थी, तब वह कहता — “मैं इसी नदी के साथ सती होऊंगा सुरसतिया...देखना। ये मेरी प्रेमिका है...तू मेरी पत्नी। “ 

एक दिन वह इन दोनों को छोड़कर दिल्ली चला गया। उसके पहले गांव के कई लड़के दिल्ली गए थे, सबने काम पकड़ लिया था, सब अच्छा कमा रहे थे। उनके घरों में बाहरी कमाई की रौनक दिखाई दे रही थी। बतहू के दिल में दिल्ली की कमाई बसने लगी थी। मोबाइल खरीद लिया था, अपने संगी साथियों से संपर्क में रहता था। सब उसे बुलाते थे, तरह-तरह के लालच देते थे। उसे उसकी नदी रोकती, फिर मछलियां, सुरसती और दो छोटे बच्चे। वह पैसो के लालच के वाबजूद दिल्ली जाने की हिम्मत नहीं कर पा रहा था। वो तो एक दिन बड़का घरारी की दिल्ली वाली मालकिन अपनी शहरी सहेली के साथ गांव के पर्यटन पर आईं तो नौका विहार करने आ गई थीं, बतहू को ये काम मालिक ने सौंप दिया था। नदी में कुछ हिस्सा मालिक का भी था। नदी बढ़ते-बढ़ते उनके खेतों तक आ गई थी। 

वो शाम याद है उसे। खटिया पर लेटे लेटे बतहू याद कर रहा है। सुरसती उसकी देह से टेक लगा कर ऊंघने लगी थी। 

बतहू ने अपनी देह से उठंग कर सोई हुई सुरसती को हौले से खाट पर लिटा कर खुद उठ गया। एक सप्ताह बाद वह उठा था। पैर जमीन पर रखें, छाले दर्द करने लगे। बेपरवाह होकर वह घर से बाहर निकला। स्मृतियों से भी बाहर निकल आया था। मन ही मन कसम खा रहा था कि अब देवता पित्तर भी जमीन पर उतर आएंगे तो भी दिल्ली वापस नहीं जाएगा। मुसीबत में ही जगह और इंसान की पहचान होती है। महीने तक घर में पड़ा रहा, बिना काम। जमा पैसे खर्च करने का मन न होता था। थोड़ा-बहुत किया और थोड़ा बचा लेना चाहता था। मोहल्ले में खाने के पैकेट बंटने लगे थे। खाना का इंतजाम हो जाता था, काम नहीं था कहीं। क्लब में ताला पड़ चुका था। स्वीमिंग पुल का सारा पानी बहा दिया गया था। एक महीने की आधी सैलरी मिली, उसके बाद क्लब ने मना कर दिया। क्लब मैनेजमेंट ने पत्र थमा कर क्लब को अनिश्चित काल के लिए बंदी की घोषणा कर दी। सारे स्टाफ सड़क पर आ गए थे। चारो तरफ सन्नाटा पसर गया था। बतहू को गांव की याद सताने लगी थी। मोहल्ला खाली होने लगा था। लोग-बाग सामान, बच्चे समेत पलायन कर रहे थे। वह अकेला कब तक चुपचाप पड़ा रहता...निकल पड़ा। रास्ते में जो उसने भुगता, उसकी लंबी दारुण दास्तान है जिसे वह याद भी नहीं करना चाहता। रोम रोम सिहर उठता है। जीवन में इतना पैदल कभी नहीं चला है। शरीर में इतनी ताकत है कि वह समंदर पार कर सकता है...सड़को पर चला नही कभी। जमापूंजी रास्ते में खत्म हुई जब एक छोटे ट्रक वाले ने उस जैसे तमाम जरुतमंदों को लूटा, मनमाना पैसा वसूल किया। ट्रक के पिछले हिस्से में भेड़-बकरियों की तरह सबको ठूंस कर बिहार बॉर्डर पर पटक गया। वहां से घर तक पहुंचने की घटना भी भूल जाना चाहता है। 

अपनी खपरैल झोपड़ी के बाहर आकर उसने उस हवा को सूंघा, जो नदी को छूकर आ रही थी। जरा भी नमी न थी। 

घर के बाहर सुरसती ने एक देवता स्थान बना रखा था जहां कुलदेवता, देवी का पिंड स्थापित था। वहां पूजापाठ का ढेर सारा सामान रखा था। धूप, अगरबत्ती जल रही थी। रंग-बिरंगे फूल, मालाएं चढ़ा रखी थीं। उस जगह को देख कर लगा कि रोज पूजा होती होगी। भांति-भांति का सामान रखा था जो बतहू पहली बार देख रहा था। इन तीन सालो में सुरसती कितनी पूजापाठी हो गई है। उसे ध्यान आया कि पहले भी जब बतहू या उसके बच्चे कोई बीमार पड़ते तो सुरसती पूजा पाठ को लेकर सक्रिय हो जाती। मान मनौती करने लगती। सत्तू का लड्डू बनाती और भोग लगाती। बतहू हंसता — “बेसन, आटा का लड्डू तो सुने थे, ई सत्तू का लड्डू कहां से सीखी हो सत्तो...”

“अपने मन से...अपने आप...हमेशा बेसन नहीं रहता है घर में, सत्तुआ तो रहता है न...देवता और बच्चा दोनों को मीठा चाहिए। “

सुरसत्ती का सांवला सौंदर्य दिपदिपा जाता। बतहू उसे खींचता अपनी ओर...

“आओ मेरी लाल मछरिया...खा जाऊं तुमको...”

“नदी कभी अपनी मछरी को खाती है का, आप मेरी नदी हैं, हम आपकी मछरिया पिया...”

दोनों ठठा कर हंसते देर तक। 

अकेला बाहर बतहू हंस रहा था। सुरसती की नींद खुल गई। वह झपटती हुई बाहर आई तो देखा — बतहू किसी बात पर अकेले हंस रहा है। 

पहले तो वह घबराई। उसका हाथ पकड़ कर सीधे देवता-स्थान पर ले कर बैठ गई। अपने आप हंसता हुआ बतहू वहां बैठा रहा। उसकी हंसी नहीं रुक रही थी। 

सुरसती उसकी नजर उतारने लगी। कोई मंत्र बुदबुदाने लगी। अंजुरी में जल लेकर छिड़का। 

पानी की छींटा पड़ते ही बतहू चैतन्य हुआ। 

“क्या हुआ...पानी काहे छिड़क रही हो सत्तो...?”

“आपको बाहरी हवा धर लिया है का, असगरे (अकेले) काहे बताह जइसन हंसे जा रहे हैं?”

सुरसती ने उसके ऊपर अक्षत फेंका। 

“हमको चुमा रही हो सत्तो...चुमावहू हे ललना धीरे-धीरे...बजावहू हे बिछिया धीरे-धीरे...अरे बतही..हम हंस कहां रहे थे..हम तो ऐसे ही बाहर खड़े थे, तुम सो रही थी तो हम बाहर निकल आए। कुछ याद पड़ा था..तबतक तुम आ गई...तुमको याद है, एक बार...?”.

“चुप रहिए। “ 

सुरसती ने उसके मुंह पर हाथ रख दिया। 

“हम नजर उतार रहे हैं। आंख बंद करिए...हमको अपना काम करने दीजिए। “

“ई का धंधा तुम शुरु कर दी हो सत्ती...रुको...एक मिनट...”

बतहू ने थोड़ा उचक कर अपनी लुंगी ठीक की। उसकी गांठ खुल रही थी। लुंगी को दोनों पैरे में समेटा और पलथी मार कर बैठ गया। आंख बंद करने का नाटक किया, कनखी से सब देखता रहा। 

सुरसती का रुप बदल गया था। वह तप रही थी। टी वी सीरियल में जैसी सुधा चंद्रन दिखी थी एक बार, वैसी ही दीख रही थी। लगातार बड़बड़ाए जा रही थी। उसके हाथ में काला धागा बांधा। लाल मिर्च पांच बार निहुछ कर जला दिया। उसकी झांस से इतनी खांसी उठी कि वह उठ कर भाग खड़ा हुआ। वह बतही सत्तो को कैसे बताए कि जिस वक्त वह हंस रहा था, दुख छिटक कर दूर चला गया था। हंसी उसे कुछ समय के लिए मुक्त कर गई थी दुखद स्मृतियों से। उस हंसी में उसे आराम मिला था, घाव को भरने का मरहम जैसा कुछ। 

सुरसती वही बैठी पूजा करती रही। धीरे-धीरे दोनों बच्चे भी वहां आकर बैठ गए। बतहू का हाल पूछने आने वाली औरतें जुटने लगी थी। बतहू गमछा से आंख पोंछने में लगा था। उधर सारी औरते सुरसती के पास बैठ कर कुलदेवता का भजन गाने लगी थीं। 

“हे निषाद देवता...ई औरत तो सचमुच सनकल पुजारिन हो गई है। क्या गा रही है। सुरसती लोकगीत गाती है सुर में। गीतगाइन सुरसती उसे मोह रही थी, फिर से। जब से लौटा है, सत्तो की भिन्न भिन्न छवियां देख चुका है। अब गीतगाइन सत्तो की यह छवि एकदम नयी है। कितना खुल गई है सत्तो उसके पीछे। उसके भीतर से नयी-नयी स्त्री बाहर निकल आई है। 

मन हुआ, इसे रिकार्ड कर ले। वो झट से घर में घुसा, मोबाइल लेकर आया और गाती हुई औरतों का वीडियो बनाने लगा। इसे वह दोस्तों को भेजना चाहता था। वह उस पल अपने सारे दुख भूल गया था। इस माहौल ने उसे भूलने का अवकाश दिया था। मित्रता की स्मृति दुख के पलों में अवकाश की तरह होती है। कुछ पल के लिए ही सही, दुख स्थगित हो जाता है। 



अपना मुलुकवा बेहाल रे बटोहिया


जब से उसका रोजगार छीना था तब से वह हंसना जैसे भूल गया था। सारे सपने, सारी आकांक्षाएं भरभरा कर गिर पड़ी थीं। दिल्ली एक उम्मीद थी, संभावना भी। झोपड़ी को ईंटों के मकान में बदल देने की उम्मीद। अपना चापाकल आंगन में गड़वाने की उम्मीद, तीन कट्ठा जमीन खरीद लेने की उम्मीद और डिजाइनार नाव बनवाने की संभावना प्रबल थी उसके सपनों में, जो दिल्ली जगाए रखती थी उसके भीतर। जी जान लगा कर काम कर रहा था। पैसे कुछ घर भेजता, कुछ अपने पास जोड़ता। इसी पैसे के लिए वह अपनी नदी प्रेमिका से बिछड़ा था जिसके जिस्म पर वह मछली की तरह उतरता था। 

वह लौट रहा था, गांव, नदी के पास, सुरसती के पास, दोनों अबोध बालको के पास। उन मछलियों के पास, जो उसके जाल में फंसने के लिए उसके नाव तक तैरती हुई अपने आप चली आती थीं। 

वह लौट रहा था....रास्ते से उसने एक बार फोन किया था — वह आवाज नहीं थी, गरम गरम आंसू थे जिसने सुरसती के कान के परदे को पिघला दिया था। 

बतहू उधर से रो रहा था। बिलख-बिलख कर अपने मरद को रोते देखना उससे सहन नही हो रहा था। मुंह में आंचल ठूंस कर वह बात कर रही थी ताकि हिचकी बाहर न निकले। 

बतहू फोन पर बिलख रहा था — “पहुंच रहे हैं, ठीक से आ रहे हैं, चिंता मत करना”

सुरसती — “चिंता की बात है तो चिंता नहीं करेंगे का”

“नहीं, चिंता मत करो, हम आ रहे हैं, टेंशन मत लो, पहुंच रहे हैं”

सुरसती — “चिंता वाली बात है तो चिंता नहीं होगी. कल से आप कुछ खाए नहीं हैं, उसकी चिंता लगी हुई है”

“कोई दिक्कत नहीं है, हम आ रहे हैं...”

“चिंता है तब न हम रो रहे हैं, दिक्कत है तब न आप रो रहे हैं”

दोनों तरफ से फोन पर रोने की आवाजें आर पार जाती रहीं। 

“आप अकेले हैं ?”

“अभी हम अकेले पड़ गए हैं, तीन साथी संग संग निकले थे, भीड़ में बिछड़ गए, जिसको जो गाड़ी सवारी मिला, चढ़ कर निकल गया, हम अकेले पड़ गए हैं रास्ता में। कई गांव, शहर से गुजरे हैं, एक आदमी अपना चापाकल भी नहीं छूने दिया...दुआर पर खड़ा नहीं होने देता है...”

सुरसती — “दुख की घड़ी है, काट लीजिए, क्या कर सकते हैं...किसी तरह घर पहुंच जाइए...यहां सब कुछ है अपने पास, खेत-पथार, नदी...मछली, बकरी सब...सब छोड़ कर आप ही न गए थे जी, हम तो मना किए थे आपको...”

“दो पैसा कमाने न मर्द जाता है बाहर...रखते हैं फोन...आ रहे हैं...चिंता मत करो...तुमसे बात किए तो रोना आ गया...तुम मत रोना...ठीक है...आ रहे हैं..”

लौट कर सुरसती की छाती से चिपक कर ऐसे रोया था जैसे बचपन में पिता की मौत के बाद रोया था, मां की छाती से चिपक कर। सुरसती से लिपटे हुए उसके भीतर फिर एक उम्मीद, एक संभावना जग रही थी। सब ठीक हो जाएगा...आमिर खान की फिल्म मोबाइल पर देखा था, जिसमें वे मुसीबत में कहते हैं — ऑल इज वेल। सब ठीक हो जाएगा...सुरसती के रोम रोम से ये आवाज निकल रही थी, जिसे बिलखते हुए भी बतहू सुन सकता था। आह, कितना स्थायी है ये उम्मीद, ये संभावना। कुछ नहीं तो नदी है, मछली है, नाव है, सवारियां हैं और सुरसती है, बच्चे हैं — हीरा मोती। अपना गांव है, समाज है। कहां माया के चक्कर में फंसा हुआ चला गया था। उसे पहली बार गहरा अफसोस हुआ। कौन कुमति तोहे लागे...जैसी मनोदशा हो गई थी। सामने खेत की तरफ नजर पड़ी जहां एक छोटा-सा पेड़ जमीन से उखड़ कर गिरा पड़ा था। लगता है, तेज हवा चली होगी, अपनी जमीन से उखड़ गया होगा। उसे देखते हुए बतहू कुछ देर ठिठका रहा। सुरसती दूर से उसे देखती रही। उसकी आंखें नम हुईं, सूती साड़ी के आंचल से कोर पोंछ लिए। 

वह बतहू के सामने आंखो में कुछ सवाल लिए खड़ी थी। 
 
“क्या करोगे अब...कुछ सोचा है?” 

“वही अपना पुराना काम, जो पहले करते थे। जाल नया ले लेंगे। पुराना फट गया है, हम देखे। नाव भी जर्जर है। हम खुद ही बनाएंगे, मालिक के गाछी से लकड़ी मांग लेंगे। इतनी तो सहायता करेंगे न। “ 

सुरसती ने उसका हाथ पकड़ा और सीधे ले चली नदी की ओर। बच्चे बाहर इन सबसे बेखबर खेल रहे थे। उसकी झोपड़ी के बाद खेत शुरु होते थे और खेतो के बाद नदी आ जाती थी। 

“नदी आज बहुत दूर लग रही है सत्तो...मैं थक गया हूं या मेरे पैरो में छालों की वजह से चला नही जा रहा, नदी इतनी दूर तो नहीं थी रे...”

शाम ढल रही थी। दोनों नदी के तीर पर बैठे थे। सूखी भुरभुरी मिट्टी थी। नदी सच में बहुत दूर खिसक कर चली गई थी। नदी के नाम पर दूर पानी की लकीर नजर आ रही थी। इसके अलावा कीचड़ और छोटे मोटे गड्ढे जिसमें पानी भरा था। उसमें मेढ़क, घोंघे और नामालूम से कीड़े तैर रहे थे। नदी की छोड़ी हुई जमीने काली पड़ गई थीं। कहीं–कहीं झाड़-झंखाड़ उगे थे। नदी की इस कुरुपता का उसे अंदाजा तक न था। उसे लगा- नदी रुठ कर कोप भवन में जा बैठी है। 

“आप देख रहे हैं न...नदी का हाल। मालिक लोग अपनी खेती कर रहे हैं नदी में। जब से आप गए हैं, गांव में बारिश कम हुई है। नदी में पानी नहीं आ रहा है। राजतन बाबू कह रहे थे कि धरती के नीचे पानी का सोता सूख गया है, पानी कम हो गया है। तब पानी कहां से आएगा?” 

सुरसती की आवाज मानो दूर से आ रही थी। बतहू की आंखें अपनी नाव ढूंढ रही थी जो कीचड़ में धंसी हुई थी। नाव पहचान में नहीं आ रही थी। 

गांव लौटा था — जिनके लिए, उनमें से सिर्फ एक सही सलामत मिली — सुरसती। नदी, जाल, नाव और मछलियां...सब गायब। बाबा कहते थे — “घर की औरत, अपनी गाय और अपनी नदी को आदर से रखो तो तीनो वफादार निकलते हैं। “ सत्तो को वो बहुत आदर देता था। नदी के बाद सबसे ज्यादा प्यार उसे सत्तो से था। सत्तो बिस्तर पर उसके सामने नदी की तरह खुलती थी। वह किसी कुशल नाविक की तरह उसकी लहरों पर उतरता था। सत्तो साथ है, नदी साथ छोड़ गई। पारंपरिक काम-धंधा खतरे में। सही सवाल पूछा था सत्तो ने कि अब क्या करोगे। क्या करेगा अब। क्या जवाब दे। 

“क्या करुंगा मैं सत्तो...नदी क्या कभी नहीं भरेगी...?”

बतहू ने डूबती आवाज में पूछा। 

सुरसती उससे लिपट कर पहली बार खूब रोई। बतहू उसे दिलासा देता रहा। उसे याद नहीं आया कि कभी दिल्ली में उदास होने पर किसी ने उसे या उसने किसी को इस तरह गले लगाया हो, या सांत्वना दी हो। 

“नदियां जानती नहीं कि मल्लाह उसके बेटे, प्रेमी और सखा होते हैं...ऐसे कैसे हमारा साथ छोड़ सकती है...लौट आओ बया ....लौट आओ...”

अपने दोनों हाथ जोड़ कर बतहू नदी से प्रार्थना करने लगा था। 


दिल्ली छाप सैंया की दास्तां


“तू है तो जल की रानी, मछरी की गंध लील गई क्या, तेरे से फूलों की गंध आती है रे...कहां से हो कर आती हो?”

“चलो हटो, मजाक मत करो। हमको आपसे शहर की औरतों की गंध आती है, बहुत चिपक-चिपक के पौरना सीखाते हैं न आप। आप शहरी औरतो के चक्कर में ही गांव से भागे थे न। क्या हुआ, देखिए रहे हैं। छोड़िए...झगड़ा हो जाएगा इस बात पर। “

“सुनिए जी, मछरी हम लोगो का तरकारी है, उसके भी लाले पड़ गए हैं। बच्चा सब तरस रहा है। तुम पेंठिया जाओ, पोठिया मछरी ही ले आओ। “ 

“पैसे खत्म हो रहे हैं सत्तो...कुछ कमाना पड़ेगा। कोई रास्ता निकाल। चारो तरफ कोरोना का कहर है, कोई आसपास फटकने नहीं देता है। सब मुंह छुपाए घूम रहे। हम दिल्ली छाप लोगो से सौ गज दूर रहते हैं। कल हमको रमेश सहनी का बेटवा ऐसे बोल रहा था कि हमीं लोग गांव में कोरोना लेकर आए हैं। उसका वश चले तो हमको गांव से बाहर ही निकाल देगा। “ 

“उसको दो थप्पड़ मारे काहे नहीं...एतना मजाल कैसे हो गया उसका। भूल गया, कैसे हम उसका भूत उतारे थे, इ लोग का भूत थप्पड़ से ही उतरता है, मंतर से नहीं...?”

बतहू उसकी बात सुन कर भौंचक हो गया। 

“भूत उतारी थी...कब...किसका, कैसे...? तुमको ई विधा कैसे आता है, तुम ओझाइन कब बन गई सत्तो?”

“अरे रे रे...केतना सवाल एक साथ पूछिएगा राजा...”

सत्तो इठला कर बोली। 

लाल छींट वाली पुरानी सूती साड़ी पहने, सिर पर आंचल रखे वह बतहू को बहुत सुहा रही थी। सत्तो हमेशा अपनी मांग में लाल के बजाय पीला सिंदूर लगाती है। शुरु से लगाती है, मगर अब बतहू ने पहली बार गौर से देखा उसकी मांग को, जहां पीले सिंदूर की लंबी रेखा पीछे तक खींची हुई थी। 

“तू तंत्र-मंत्र जानती है का सत्तो..बताई नहीं हमको कभी...गांव के लोग जानते हैं का...?”

“हम ओझाइन हैं...!”

“कइसे, कब से...?” गांव के ओझा छैला भगत कहां गए?”

“सुने हैं कि ऊ कामरुप कामाख्या गए सो लौटे नहीं अभी। उनके भाई रोशन भगत को ठीक से सिद्ध नहीं मिला है। एक दिन हमको अपनी विधा याद आई, हम रमेश सहनी के बेटे को झाड़-फूंक कर दिए। वो ठीक हो गया। एक मामला और आया, वो भी ठीक। उसके बाद से लोग मेरे पास आने लगे या मुझे बुलाने लगे। एन्ने मामला कम आ रहा है, बाहरी हवा को भी कोरोना से डर लगता है...”

बतहू की हैरानी खत्म होने का नाम ही नहीं ले। उसकी सत्तो ओझाइन थी और उसे मालूम ही नहीं। 

“क्यों छुपाया...?” 

वह बिफर गया। 

“औरत कहीं ओझागिरी करती है। हम तो नहीं सुने कहीं कि औरत ओझाइन होती है, डायन जरुर होती है। कुम्हारटोली में सहजो दाई थीं न डायन। सब उसे दूर भागता था। जाने उनका क्या हुआ...?”

सुरसती गंभीर हो उठी। 

“औरत डायन हो सकती है तो ओझाइन भी हो सकती है...न डायन सच न ओझाइन सच। ओझा बन कर बहुत औरतों को नाश किया है घर परिवार। हमको सब पता है कि कोई औरत डायन नही होती। और काहे हमेशा औरत ही डायन होगी और मर्द ओझा। सहजो दाई के साथ जो हुआ, कौन औरत भूल सकती है। हम तभी ठान लिए कि ओझा बन कर सबको नाच नचाएंगे। अगर डायन सच है तो ओझा भी सच। हम ओझा नहीं तो कोई औरत डायन कैसे। इससे पहले कि हमको डायन बनाता लोग, हम ओझा का रुप धर लिए। कर लो, जो करना हो। “

“ये गलत है रे सत्तो...तू ठग रही है सबको। “ 

“आप शांत रहिए...हमको अब कोई पकड़ नहीं सकता। केतना रोगी हम ठीक कर दिए हैं। “ 

वह टी वी सीरियल की जादूगरनी की तरह हंस रही थी। 

बतहू अपनी पत्नी में एक अलग, नयी औरत को देख रहा था। इस औरत से वो कभी नहीं मिला था, जिसे जानता नहीं था। यह अजनबी औरत सुरसती के भीतर बसती थी, उसे कहां पता। 

उसे अभी और क्या-क्या देखना लिखा था। भाग्य का खेल देख रहा था। वह सुरसती की बातें सुन कर सन्न रह गया। मुंह से बोल न फूटे। थोड़ी झुरझुरी हुई। 

“मुंह काहे बना कर बैठे हो। सब ठीक कर देंगे हम...बस तुम देखते जाओ...हम कहे थे न — सब ठीक होगा। बस मेरी बात मानते जाओ। कोई सवाल मत करना। हम भूखे नहीं मरेंगे। तुम कमाओगे, मैं इंतजाम करुंगी। भरोसा रखो। “

वो सुरसती जो अपने बारे में हमेशा एक गीत गाती थी — 
“सैंया देलकओ खटिया
गोंसैंया देलकओ नींद
सुतो हे बहुरिया सगरे दिन…”

उसका सुकून, नींद सब गायब। रात-दिन किसी उधेड़-बुन में लगी रहती है। वह एक अजनबी औरत में बदल गई थी। चेहरे पर अलग ताप था। इस ताप की तुलना वो किसी और स्त्री से नहीं कर पा रहा था। उसने दिल्ली में बहुत स्त्रियां देखीं थीं। एक से एक कमाऊ स्त्रियां आती थीं। उनकी दुनिया भी उसे हैरत में डालती थी। कई बार उन्हें देखते हुए अपनी भोली सूरत वाली सत्तो याद आती थी। इन तीन सालो में ऐसा क्या हुआ कि सत्तो के भीतर एक अजनबी औरत उग आई। जिसमें इतना आत्मविश्वास कूट कूट कर भरा है। जो उसके लिए सहारा बन कर खड़ी है। जैसे स्वीमिंग पुल में नयी तैराक स्त्रियां डूबने से बचने के लिए उसका बांहे पकड़ लेती थीं या बांहों में झूल जाती थीं। उसकी गठीली सांवली बांहों से पानी की बूंदे फिसलती उन स्त्रियों के बालों में गुम हो जाती थीं। बतहू की बांहे थाम कर वे पानी में मुंह घुसा कर सांस रोक लेती थीं। 

ये मेरी गृहस्थिन सत्तो क्या कह रही है...क्या करने वाली है...बिना जादू, तंत्र-मंत्र जाने किस चमत्कार की आशा में है। कब तक लोगो को बेवकूफ बनाएगी। जिस दिन भंडा फूटा तो बचना मुश्किल है। 

उसे यह भी शंका हो रही थी गांव में उसकी अनुस्थिति में सत्तो के साथ कुछ तो हुआ है जिसने उसे इतना बदल दिया है। पूछे कैसे। सत्तो समझ रही थी बतहू के मन में शंका घुमड़ रही है। हर समय उसे अजीब-सी निगाहों से देखा करता है। उन पराजित आंखों में वह सवालों के तूफान देखती थी और अपने में गुम हो जाती थी। 

कैसे बताए कि गांव में अकेली, जवान मलाहिन क्या क्या झेलती है। जिसकी झोपड़ी गांव के एक किनारे हो। नदी के भरोसे बनाया था घर। जब नदी ही सूख जाए, नाव जर्जर हो जाए, मछलियां किसी और नदी की तलाश में दूर निकल जाए, परदेस गया पति अपर्याप्त पैसे भेजे, दो बच्चे हर समय भूख-भूख चिल्लाएं और अपनी जरुरतें सिर पर खड़ी हो जाएं तो क्या करे एक मलाहिन। बड़की घरारी के फुल्टुन बाबू उसे हमेशा मछली की तरह ही देखते थे। उनका वश चलता तो बिना तले-भुने उसे खा जाते। वो तो अच्छा हुआ कि उसे डायन साबित किया जाता, उसके पहले ओझाइन का चोला ओढ़ लिया। पहले वो डरती थी, अब लोग उससे डरते हैं। देखते ही देखते उसका काम चल निकला था। सांवली-सलोनी सुरसती जब ओझाइन बनती तो उसे घूरने वाली लालची निगाहें नीचे झुक जातीं। 

लेकिन हमेशा कहां होता था ऐसा। बाबू साहब लोग झाड़-फूंक के लिए उसके दरवाजे नहीं आते थे, उसे बुलावा भेजते थे। ठेकेदार रामबाबू एक बार बीमार पड़े तो बिस्तर पर पड़े-पड़े कांपते रहते थे। डॉक्टर दवा देता, तब भी नहीं संभलते थे। बुखार उतर जाता था, खास तरह की कंपकंपी खत्म ही न होती थी। शहर ले जाकर होस्टपीटल में भर्ती कराने की बात चली तो कमजोर आवाज में उन्होंने ओझाइन को बुलाने का आदेश दिया। ओझाइन सुरसती देवी बुलाई गईं। वे एकांत में उनके शरीर पर मंत्र पढ़ कर जल छिड़कती रहीं। कमरे में धुंआ, आग जला कर नजर उतारी गई। कंपकंपी बंद हुई तो उनकी पथराईं आंखें शरारती हो उठी थीं। सुरसती को अपनी बीमार बांहों में ही दबोच लिया था। वह उनके ऊपर गिर पड़ी थी। उनकी कंपकंपी तब और बढ़ गई थी। वे फुसफुसा रहे थे — “तुम चाहोगी तो मैं ठीक हो जाऊंगा सुरसत्ती...तुम ऐसे ही पड़ी रहो मेरे ऊपर...तुम क्या जानो, मेहरारु के बिना जिंदगी कैसे कटती है...तुम्हारा भी आदमी नहीं...मेरी भी नहीं...कृपा करो...”

सुरसत्ती समझ गई कि ये कंपकंपी लाइलाज है। उत्तेजना से कांपते बूढ़े का यौनांग पर एक मुक्का मारते हुए बोली — “दुबारा किए न तो काट के फेंक देंगे पोखरा में। हम जानते नहीं का आपको। खतरा उठा कर आए थे, कमजोर मत समझिएगा। पति नहीं है तो क्या, जवानी लेकर दुआरे दुआरे मर्द जइसन छिछियाते फिरे का...। “ 

दांत पीसते हुए, एक मुट्ठी लाल मिर्च आग में झोंक कर बाहर निकल गई। कमरे से खांसने, छींकने की आवाज देर तक आती रही। 

सुरसत्ती ने बाहर आकर उनके घर की औरतों से कहा — “बहुत जोर का नजर लगा था, कितना झांस उठ रहा है...। अब ठीक हो जाएंगे। “ 

घरवालो से दान-दक्षिणा लेकर वह विदा हो गई। 

एक घटना हो तब न। गौनौर सहनी तो जैसे अपना हक ही समझ बैठा था। उसके लिए काम लाने लगा था। गांव में जो भी बीमार पड़ता, डॉक्टर एक तरफ, ओझाइन की झाड़-फूंक एक तरफ। 

एक शाम खेत से शौच करके लौट रही थी कि गोनौर सहनी ने घेर लिया था। उसके साथ की बाकी औरतें आगे जा चुकी थीं। उस दिन उसे पीतल के लोटे का महत्व समझ में आया। 

दे लोटा कपार पर। गोनौर बाप-बाप करता भागा। माथा पकड़ कर दर्द से चीखता, गंदी गंदी गाली देता हुआ भागा जा रहा था। सारे अहसान भी गिनाता जा रहा था। पीछे से उसे खदेड़ती हुआ सुरसती सब सुन रही थी। मल्लाह टोला में बात फैल गई कि गोनौर से काम लेने के बाद सुरसत्ती ने उसे ठेंगा दिखा दिया, लेन-देन की बात पर बेइमान सुरसत्ती ने उसका लोटा से कपार फोड़ दिया। 

सुरसत्ती से सबको काम था। कोई उससे लड़ने भिड़ने नहीं आया। मगर उस शाम के बाद सुरसती के भीतर खौफ भर गया था। मछली वाला जाल झोपड़ी के बाहर रखने लगी थी। मछली न सही, लंपटो को इसमें फंसा सकती है। उसका काम बढ़ रहा था, उसकी खयाति फैल रही थी। लोग उसे बुलाने लगे थे। लेकिन उनकी लोलुप निगाहे लगातार उसका पीछा करती रहती थीं। एक दिन बहुत सोचते-सोचते सुरसत्ती ने उपाय निकाला। अपना वेश अजीब कर लिया। सरसो तेल चुपड़े बाल, पीली साड़ी, आंखो में मोटे मोटे फैले हुए काजल...मटमैले हाथ। सिंगार-पटार छोड़ दिया। उसका सांवली काया मैली रहने लगी। कपूर, सरसो तेल के गंध में लिपटी हुई काया अनाकर्षक हो उठी थी। दिल्ली से बतहू का फोन आता तो कोई बात न बताती। वह भी बेखबर था। उसका जी कसकता था कि जवान पत्नी को छोड़ आया है। अबकि गांव गया तो सबको ले आएगा। 

अबकि लौटा भी तो किन हालात में। सुरसत्ती भी बदली हुई मिली, हालात भी। नदी भी, नाव भी। देश और गांव भी। बाकी सब तो समझ में आया था। सुरसती नहीं। क्या हुआ उतने सालो में कि वह क्या से क्या बन गई। मन होता पूछे — “ तेरी देह से मछरी की गंध क्यों नहीं आती ऐ सत्तो, कैसे काटी सर्द-गर्म रातें? मन नहीं हुआ कभी...तब क्या करती थी रे पगलो...? हम मरद लोग तो अलग ही उपाय जानते हैं, तुम औरत लोग क्या करती हो...?” 

कई दिनों तक वह इन सवालों से जूझता रहा। 

सुरसती अलग ही धुन में थी। गांव में कोरोना का कहर उतार पर था। लोग बीमार पड़ते थे तो अजीब अजीब हरकते करने लगते थे। सुरसती सबकी झाड़-फूंक करती। कुछ लोग उसके घर आने लगे, बाहर देवता-स्थान पर झाड़-फूंक की प्रक्रिया चलती। बतहू घर बैठा-बैठा ऊब रहा था। 

एक दिन सुरसती ने कुछ पैसे, बेसन, लाल मिर्च, सरसो तेल और कच्ची सब्जियां उसे थमाईं और मुर्गिया चौक पर ले जाकर उसका छोटा-सा खोंमचा लगा दिया। 

वो हैरानी से सब देखता रहा। 

“आज से तुम पकौड़ियां तलोगे। समझे। महीना हो गया है। हम काफी कुछ सामान और पैसा जमा कर लिए हैं। तुम्हारा काम चलता रहेगा, जब तक हम ओझाइन हैं, काम नहीं रुकेगा। “ 

“मैं पकौड़े तलूंगा...क्या बात करती हो...हरगिज नहीं। मैंने जीवन में कभी ये काम नहीं किया। ये औरतो का काम है…”

“सुनिए...
अकेले आप ही नहीं हैं न जो कुछ अलग काम करेंगे। पूरा मल्लाह टोला संकट में आ गया है। आप पेंठिया जाइए, वहां देखिएगा, सब लोग अलग-अलग काम पकड़ लिया है। कुछ लोग ईंट भट्टा में काम कर रहे हैं। पानी से खेलने वाले लोग आग में झोंका गए हैं। पेट भरना है, परिवार पालना है कि नहीं। एक बात कहे देते हैं, काम का बंटवारा मत करिए। औरत, मरद के बीच काम नया जमाना में नहीं बंटता है। सब लोग सब काम करते हैं। समझे। आप ही न बताए थे कि दिल्ली में चाट का ठेला मर्द लोग चलाता है...बड़े बड़े होटल में मर्द लोग खाना बनाते हैं...औरतो से ज्यादा स्वाद उनके हाथ में होता है, होता है कि नहीं। “ 

“सत्तो, कहां से आएगा इतना बेसन, तेल, सब्जी ...समझती नहीं हो तुम...”

“मेरे दिल्ली छाप सैंया...काम शुरु करिए। सत्तो है न। हम भूत झाड़ने, बुखार झाड़ने, नजर उतारने, ऊपरी हवा को बांधने का काम करते रहेंगे, बदले में बेसन, मिर्च, सरसो का तेल लेते हैं। कुछ लोग सब्जियां दे देते हैं। हम पैसा नहीं लेते, सामान लेते हैं। पैसा तुम कमाओ...मरद हो न...औरत का पैसा हराम लगता होगा। इसलिए हम सामान कमाएंगे तुम पैसा। “
 
“समझ में आया...?”

“हमसे नहीं हो पाएगा सत्तो, पूरा मल्लाह टोली हमको मुंह चिढ़ाएगा, बाबू लोग कहेंगे — का हो बतहू, शहर से पकौड़ा छानना सीख कर आए हो का, मछली मारने का ज्ञान भुला गया क्या। देख सत्तो, हमको गुस्सा आएगा तो हम वहीं गरम तेल उड़ेल देंगे। 

और फिर हमको अपनी नदी, मछली जाल सब बहुत याद आएगा रे सत्तो...मत खौला हमको सरसो तेल में। “ 

सुरसती ने उसका हाथ थाम लिया। उसकी संशकित आंखों को गौर से देखा, वह ताड़ गई कि ये आंखें उस पर यकीन करना चाहती हैं। 
 
उन आंखों में अपनी आंखें डाल कर बोली — 
“सुनो, मुझे देखो, तुम्हारे पीछे अगर मैं ओझा नहीं बनती तो ये लोग मुझे डायन बना देते, मैं ओझा बनी न। पेट की खातिर, जीवित करने के लिए कुछ समय के लिए रुप और काम बदलना गलत नहीं है। हम किसी का हक थोड़े न मार रहे हैं। काम बदलने से पहचान थोड़े न बदल जाएगी। रहोगे तो तुम वही न...नदी प्रेमी...मछली मार...

सुरसती हंसी। बतहू को लगा — नदी कभी ऐसे ही हंसा करती थी। 

उससे जिरह करने पर आमादा था बतहू। सुरसती के पास जवाब ही जवाब थे। 

“सुनो, कुछ ही दिन की तो बात है...वर्षा ऋतु आने वाली है। तुम तो नदी से ऐसे रुठे हो कि उसके पास दुबारा गए ही नहीं। यही प्यार करते थे उससे। वो काम की नहीं रही तो दुबारा झाकंने भी नहीं गए। नदी मुसीबत में है, तुम भी हो। कोई जब खुद खुश होता है तभी न दूसरो को खुशी बांटता है। उदास इंसान किसी को खुशी नहीं बांट सकता। नदी मर रही है...मगर मुझे भरोसा है...इस बार जम कर बारिश होगी। नदी फिर से पहले जैसी हो जाएगी। देखना, कहीं हमारी झोपड़ी तक न पहुंच जाए। ज्यादा दूर थोड़े न है...”

“फिर पकौड़े तलना बंद। छन्नौटा फेंक देना दूर...कमाए हुए पैसो से नयी नाव बना लेना। जाल खरीद लेना...
मेरे सैंया मलहवा हो....
नइया लगा दअ नदिया के पार...”

“भैय्या है गाना में...”

“होगा...हम तो भैय्या नहीं गाएंगे न...सैंया मलहवा हो...”

“मेहरारू बटोहिनी गे...खोज लेही दोसर घटवार...”

[]


कुछ महीने बीते, मौसम ने पलटा खाया। गर्मी के मौसम ने अपने हाथ में रखी हुई मौसम की पाती बरसात के हाथ में सौंप दी। बतहू रोज शाम नदी किनारे जाता, नदी से बातें करता। अपने मन की व्यथा कहता, उसे पुकारता। कहता कि अब मुझे लौट कर मत जाने देना, रोक लेना यहीं, अपने किनारे पर। अब के जो लौटाया है तो वापस भी मत जाने देना। ये गाँव, ये कछार, इसे छोड़कर वहाँ शहर में भी क्या मिला ? कुछ नहीं, ख़ाली हाथ ही तो वापस आना पड़ा, पैदल। नदी, तुम ज़िंदा हो जाओ, तुम ज़िंदा नहीं हुईं, तो मुझे फिर शहर लौटना पड़ेगा। तुम भी नहीं चाहोगी कि मैं गाँव छोड़कर फिर शहर चला जाऊँ। 

बतहू मेघों को देखता, पुकारता। और फिर एक शाम टूट कर बरसात हुई। ढलती हुई दोपहर से शुरू हुई बरसात शाम तक घनघोर हो गई। बतहू भींगता हुआ नदी के किनारे बैठा था, देख रहा था नदी को ज़िंदा होते हुए। अपनी नदी को जिंदा होते हुए। उफनती लहरों की आवाज़ मानों नदी की साँसों की आवाज़ थी। गहरी और लम्बी साँसों की आवाज़। महीनों से मरी पड़ी नदी ज़िंदा होने लगी, गहरी-गहरी साँसें लेकर। बतहू देख रहा था नदी की नस-नाड़ियों में मटमैला बरसाती पानी भरते हुए। नदी के किनारे पानी का परस पाकर सरसराने लगे। बतहू के देखते-देखते नदी में पानी बढ़ने लगा। नदी पूरी तरह से ज़िंदा हो चुकी थी। नदी अकेली नहीं आई थी, कुछ और भी साथ में लाई थी। अपने साथ लाई थी अपने किनारे बैठे पुरुष के शहर पलायन को रोकने की पाती। नदी की लहरों पर उसकी पुरानी, जर्जर नाव जोर–जोर से हिल रही थी। बाढ़ में उफनती नदी की एक लहर किनारा छोड़कर उछली और नदी किनारे बैठे अपने पुरुष को बाँहों में भर कर बिखर गई। बतहू नदी तीर से उठ कर भागा अपनी झोपड़ी की तरफ। वह खुशी के मारे चिल्ला रहा था। 

सत्तो...
हीरा...
मोती...
झुम्मन...
देख रे...नदी जिंदा हो गई रे...”

दौड़ता हुआ बतहू अपनी झोंपड़ी तक पहुँचा। बाहर दोनों बेटे पानी में खेल रहे थे। बतहू दोनों को गोद में उठा कर नाचने लगा। फिर उन्हें वहीं छोड़ कर दौड़ता हुआ झोंपड़ी के अंदर पहुँचा। अंदर एक और साँवली नदी बिछी हुई थी। आज बतहू को फूलों की गंध नहीं आई, आज मछली की गंध से महक रही थी बतहू की साँवली नदी। बतहू कुछ देर ठिठक कर उस साँवली नदी को देखता रहा, फिर एक छलाँग लगा कर उस साँवली नदी में कूद गया। कूद गया कभी लौट कर शहर नहीं जाने के लिए। मत्स्यगंधा साँवली नदी भी धीरे-धीरे ज़िंदा हो रही थी। 
००००००००००००००००

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ