पहाड़ की स्मृति — यशपाल की कहानी Yashpal ki Kahani 'Pahad Ki Smriti'



मर्म, मुहब्बत और हमारी मानवीयता को उनकी गहरी परतों तक ले जाकर, बगैर कुछ ज़्यादा कहे, चित्त में बैठा देने वाली कहानी कैसी होनी चाहिए... बेशक यशपाल की कहानी 'पहाड़ की स्मृति' सरीखी। ~ सं० 


पहाड़ की स्मृति

यशपाल

अब तो मण्डी में रेल, बिजली और मोटर सभी कुछ हो गया है पर एक ज़माना था, जब यह सब कुछ न था। हमीरपुर से रुवालसर के रास्ते लोग मण्डी जाया करते थे। उस समय व्यापार या तो खच्चरों द्वारा होता था या फिर आदमी की पीठ पर चलता था। उन दिनों मैं मण्डी की राह कुल्लू गया था।

मण्डी नगर से कुछ उधर ही एक अधेड़ उमर की पहाड़िन को, बाँस की टोकरी में खुबानियाँ लिये सड़क किनारे बैठे देखा। पहाड़ी लोग अक्सर इस तरह कुछ फल-वल ले सड़क के किनारे बैठ जाते हैं और राह चलतों के हाथ पैसे-पैसे, दो-दो पैसे का सौदा बेचते रहते हैं। खुबानियाँ बहुत बड़ी-बड़ी और बढ़िया थीं।

मेरे समीप पहुँचते ही उस पहाड़िन ने बिगड़ी हुई पंजाबी में सवाल किया — "क्या तुम लाहौर के रहनेवाले हो?"

मेरी पोशाक देखकर ही शायद उसे यह खयाल आया होगा कि मैं लाहौर का रहनेवाला हो सकता हूँ।

सोचा — क्या वह मुझे पहचानती है? उत्तर दिया — "हाँ, मैं लाहौर का रहनेवाला हूँ।"

उसकी आँखें कद्रे-खुशी से चमक उठीं, उसने पूछा — "तुम परसराम को जानते हो?"

विस्मय से मैंने पूछा — "परसराम! कौन परसराम?" 

कुछ व्यग्र होकर उसने उत्तर दिया — "परसराम ठेकेदार।" 

कुछ मतलब न समझ फिर पूछा — "कौन परसराम ठेकेदार?"

मैं जिस ओर से चलकर आ रहा था, उसी ओर हाथ से संकेत कर उसने कहा — "वह दोनों पुल जिसने बनवाए थे।"

बात मेरी समझ में न आई। मैंने उत्तर दिया — "मैं परसराम को नहीं जानता। होगा कोई, क्यों?"

उदास हो उसने कहा — "तुम लाहौर के रहनेवाले हो। और उसे नहीं पहचानते! वह भी लाहौर का रहनेवाला है। "परसराम ठेकेदार है न?"

पहाड़िन की अधीरता से कुछ द्रवित हो मैंने पूछा — "किस गली, किस मुहल्ले का रहनेवाला है वह?"

बहुत चिन्तित भाव से एक हाथ गाल पर रखकर उसने धीरे-धीरे कहा — "गलीमुहल्ला...? गली मुहल्ला नहीं, वह लाहौर का रहनेवाला है। तुम भी तो लाहौर के रहनेवाले हो...उसे नहीं पहचानते?"

उस औरत की नादानी पर मैं हँस न सका। उसे समझाने की कोशिश की कि लाहौर बहुत बड़ा शहर है। अधिक नहीं तो दो-ढाई लाख आदमी लाहौर में बसते होंगे। वहाँ एक-एक मुहल्ले में इतने आदमी हैं कि एक-दूसरे को नहीं पहचान सकते। मैं हीरा मण्डी में रहता हूँ। यदि परसराम ठेकेदार मजंग में रहता हो, तो वह मुझसे साढ़े तीन मील दूर रहता है, हालांकि वह भी लाहौर में रहता है और मैं भी लाहौर में रहता हूँ और हम लोगों के बीच दूसरे लाखों आदमी रहते हैं।

बात औरत की समझ न आई। उसकी आँखों की प्रसन्नता काफूर हो गई। गाल पर हाथ रखकर धीमी आवाज़ में उसने कहा — "वह लाहौर का रहनेवाला है। लम्बा है, गोरा-गोरा, प्यारी-प्यारी आँखें हैं, तुमसे कुछ जवान है, भूरा-भूरा कोट पहनता है, रेशमी साफा बाँधता है, वह लाहौर का रहनेवाला है।"

मैंने दुखित होकर उत्तर दिया — "नहीं, मैं नहीं पहचानता।"

उसकी टोकरी के पास उकड़ूँ बैठ खुबानियाँ चुन-चुनकर मैं अपने रूमाल में रखने लगा। सहानुभूति के तौर पर मैंने पूछा, "क्यों तुम्हें उससे कुछ काम है क्या?" ।

गहरी साँस खींचकर उसने कहा, "परसराम यहाँ पुल बनवाता था। पाँच बरस हो गए, तब वह यहाँ था। वह जाने लगा तो मैंने कहा — 'मत जा।' उसने कहा, "मैं बहुत जल्दी, थोड़े ही दिन में लौट आऊँगा। वह आया ही नहीं...लाहौर तो बहुत दूर है न?"

मैंने उत्तर दिया — "हाँ, बहुत दूर है।"

उसकी आँखों में नमी आ गई। उसने गर्दन झुकाकर कहा — "न जाने वह क्यों नहीं आया...न जाने कब आएगा...पाँच बरस हो गए, आया नहीं?" वह चुप हो गई।

कुछ देर बाद गर्दन झुकाए ही वह बोली — "उसकी राह देखती रहती हूँ, इसलिए यहाँ सड़क पर भी आ बैठती हूँ। मेरा बहुत-सा काम हर्ज होता है लेकिन दिल घबराता है तो यहाँ आ बैठती हूँ। दो और आदमी लाहौर से आए थे पर वह नहीं आया, पाँच बरस हो गए।" वह चुप हो गई।

एक छोटी-सी लड़की, प्रायः पाँच बरस की...एक ओर से दौड़ती आई। मुझ अपरिचित को देखकर वह सहम गई। फिर मुझे अलक्ष्य कर, माँ के आँचल में मुँह छिपा वह उसके गले से लिपट गई। 

मैंने पूछा — "यह तुम्हारी लड़की है?"

सिर झुकाकर उसने हामी भरी। लड़की के सिर पर हाथ फेरते हुए उसने कहा — "यह भी पाँच बरस की हो गई है। इसने बाप को अभी तक नहीं देखा। देखे तो पहचान न पाए।"

उन दोनों की ओर देखते हुए मन में विचार आया — कि लोग कहते हैं, विरह प्रेम का जीवन है और मिलन अन्त। क्या वह अपने प्रेम का अन्त कर देना चाहती है? यों यह प्रेम क्या सदा बना रहेगा? फिर खयाल आया — यह स्त्री निर्लज्ज है? क्या इसका प्रेम त्याग और तपस्या का उदाहरण नहीं है?

पूछा — "कितने पैसे?"

बोली — "नहीं, पैसे क्या; तुम लाहौर के रहनेवाले हो, तुमसे पैसे क्यों?" और दोनों हाथों की अंजुली से जितनी खुबानियाँ रूमाल में आ सकती थीं, उसने भर दीं।

समझ गया औरत पैसे न लेगी। उसकी वह उदास सूरत मन में चुभ-सी रही थी। उठकर जाते भी क्रूरता अनुभव होती थी। असबाब का खच्चर दूर निकल गया होगा इस खयाल से उठना ही पड़ा। एक अठन्नी निकाल आत्मीयता के भाव से बच्चे के हाथ में देनी चाही। औरत ने इनकार किया परन्तु मेरा भाव समझकर, उसने बेटी को अनुमति दे दी।

उन्हें छोड़ मैं बस्ती की एक धर्मशाला में जा टिका। कल्पना में वही सड़क के किनारे प्रतीक्षा में बैठी पहाड़िन दिखाई देती रही। मानो वहीं प्रतीक्षा में बैठ-बैठकर वह अपनी शेष आयु व्यतीत कर देगी।

सुबह धूप निकलने पर निकला। पैर स्वयं उसी सड़क की ओर चल दिए। चट्टानों की आड़ में मोड़ घूमकर देखा — यह औरत अपने खेतों में निराई कर रही है। आने-जानेवाले की आहट पा एक नज़र सड़क पर डाल लेती है। मालूम पड़ता था, उसके व्यथा और श्रम से क्लान्त शरीर को आशा की एक मन्द लौ ने जीवित रखा है। यह मन्द लौ परसराम के लौट आने की आशा है। 

मुझे देखकर उसके चेहरे पर एक फीकी-सी मुस्कराहट फिर आई। हाथ की कुदाली एक तरफ डालकर वह बोली — "क्या लाहौर लौट रहे हो?"

उत्तर दिया — "नहीं, ऐसे ही घूमने चला आया।" 

मैं उसके खेतों में चला गया। पूछा — "परसराम यहाँ कितने दिन रहा था?"

पहाड़िन ने जवाब दिया — "आठ महीने। कहता था — जल्दी ही लौट आऊँगा, अभी तक नहीं आया। जाने कब आएगा। लड़की भी तो इतनी बड़ी हो गई।"

मैंने पूछा — "तो तुम उसके साथ लाहौर क्यों नहीं चली गईं?" ।

उसने गाल पर हाथ रखते हुए कहा-"हाँ, मैं नहीं गई। परसराम ने तो कहा था, तू चल। पर मैं नहीं गई। देखो, मैं कैसे जाती? यहाँ सब काम कैसे छोड़ जाती? वह सामने खुबानियों के पेड़ हैं, वे नाशपातियाँ हैं, सेब हैं, दो अखरोट हैं। मैं यहाँ से कहीं नहीं गई। एक दफे जब मैं छोटी थी, मेरी मौसी मुझे अपने गाँव, वहाँ नीचे ले गई थी। उसका घर बहुत दूर है। दस कोस होगा। वहाँ बहुत वैसा-वैसा है, न यह पहाड़, न यह व्यास नदी की आवाज़, न ऐसे पेड़, रूखा-रूखा मालूम होता है। वहाँ मुझे बुखार आ गया था, तब मेरा फूफा पीठ पर लादकर यहाँ लाया। आते ही मैं चंगी हो गई। मैं कभी कहीं नहीं गई। लाहौर तो बहुत दूर है, वहाँ शायद लोग बीमार हो जाते हैं। परसराम के लिए मुझे बहुत डर लगता है। क्या जाने, क्या हाल हो? हमारे यहाँ बीमार कभी ही कोई होता है। हो भी जाए तो हर्द जुलाहा झाड़-फूंक देता है। लाहौर में क्या कोई अच्छा झाड़नेवाला है?"

मैंने उत्तर दिया — "हाँ, हैं क्यों नहीं, बहुत-से हैं।" 

सन्तोष से सिर हिलाकर उसने कहा — "अच्छा।"

सकुचाते-सकुचाते मैंने पूछा — "परसराम के आने से पहले तुम्हारा ब्याह नहीं हुआ था?"

उसने कहा — "ब्याह तो हुआ था, बहुत पहले। मुझे ब्याहकर यहाँ से मेरा आदमी तकू ले गया था। वहाँ मुझे अच्छा नहीं लगा। मैं बीमार हो गई। वहाँ मेरी सौत मुझे मारती थी। मैं यहीं लौट आई। मेरा आदमी कभी-कभी यहाँ आकर रहता था। ब्याह के तीन साल बाद वह गुज़र गया। मैं माँ के पास ही रही। मैंने परसराम से कहा था — यहाँ सब कुछ है, तू कहीं मत जा। वह कहता था, मैं जल्दी आ जाऊँगा। पाँच बरस हो गए, वह अभी तक नहीं आया। देखो कब आए? अब तो दो बरस से माँ भी नहीं है।"

चौथे दिन तीसरे पहर मैं फिर उधर से गुज़रा। वह सिर झुकाए अपने खेत में काम कर रही थी। कुछ गुनगुनाती जाती थी। मैं क्षण-भर खड़ा देखता रहा शायद वह विरह का गीत गुनगुना रही थी या पिछले दिनों को याद कर रही थी। उसके ध्यान में विघ्न डालना उचित न समझा, लौट आया।

मण्डी में मैं सप्ताह-भर ठहरा। कुल्लू के लिए चलने से पहले मैं उसे फिर एक दफे देखने के लिए गया। वह अपने खेत में अनमनी-सी निराई कर रही थी। उसकी लड़की खेत से निकाली हुई घास को दौड़-दौड़कर बाहर फेंक आती थी। 

मैंने कहा — "आज जा रहा हूँ।"

उसने उत्सुकता से पूछा — "लाहौर?" 

मैंने कहा — "हाँ, कुल्लू जा रहा हूँ, वहाँ से लाहौर लौट जाऊँगा।"

बड़ी आज़िज़ी से उसने कहा — "परसराम से मेरा सन्देशा ज़रूर कहना। कहना — दिन-भर सड़क ताका करती हूँ; मैं बड़ी इन्तजार में हूँ, पाँच बरस हो गए, अब ज़रूर लौट आ। तेरी लड़की तुझे पुकारती है। कहोगे न?"

मैंने कहा — "ज़रूर कहूँगा।" 

अपनी बेटी को प्यार कर वह बोली — "देख, बाबू तेरे बाप के पास जा रहा है। बाबू को सलाम कर। बाबू तेरे बाप को भेज देंगे।"

“अच्छा!" कहकर मैं लौट पड़ा और फिर उधर न देख सका। ऐसा जान पड़ता था मेरी पीठ पर उसकी आँखें गड़ी जा रही हैं। मन में एक बेचैनी-सी अनुभव हो रही थी। कह नहीं सकता — परसराम के प्रति क्रोध था...पहाड़िन के प्रति करुणा थी या परसराम से ईर्ष्या...?
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