प्रिया सरुक्कई छाबड़िया की कविताएं - अनुवाद डॉ. रेखा सेठी | Priya Sarukkai Chabria Poetry Translated by Dr Rekha Sethi


Priya Sarukkai Chabria Poetry Translated by Dr Rekha Sethi 

जो तुम कहते हो
सब सच
शरद धिर आया है
पत्ते करवट लेकर
झड़ रहे
हवा में है कुछ ठंडक।

रेखा सेठी ने प्रिया सरुक्कई छाबड़िया की कविताओं का सुवास अनुवाद किया है। पढ़िए और फिर आँखें मूँद कर इन कविताओं की दुनिया में विचरण कीजिए। ~ सं0 
 

डॉ. रेखा सेठी दिल्ली विश्वविद्यालय के इन्द्रप्रस्थ कॉलेज में प्राध्यापक होने के साथ-साथ एक सक्रिय लेखक, आलोचक, संपादक और अनुवादक हैं। उन्होंने 5 पुस्तकें लिखीं हैं, 8 संपादित की हैं तथा एक कविता संकलन का अंग्रेज़ी से हिन्दी में अनुवाद किया है। उनकी अद्यतन प्रकाशित पुस्तकों में हैं---‘स्त्री-कविता पक्ष और परिप्रेक्ष्य’ तथा ‘स्त्री-कविता पहचान और द्वंद्व’। उनके लिखे लेख व समीक्षाएँ प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए हैं। राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों तथा साहित्य उत्सवों में उनकी सक्रिय भागीदारी रही है। उन्होंने सुकृता पॉल कुमार, के. सच्चिदानंदन, संजुक्ता दासगुप्ता, लक्ष्मी कण्णन सहित अनेक अंग्रेज़ी कवियों की कविताओं के अनुवाद किए हैं। इन दिनों वे समकालीन अंग्रेज़ी स्त्री कवियों के अनुवाद में संलग्न हैं। 

प्रिया सरुक्कई छाब्रीया  समकालीन अंग्रेज़ी कवयित्री हैं जिनकी कविता का एक निजी स्वर है। जीवन जगत की उधेड़-बुन वाली स्थितियों के बीच उनकी कविता उदात्त के उस अनुभव को छूती है जहाँ कविता प्रार्थना बन जाती है। वे मानती हैं की कविता मन के मौन से उपजती है। इस देह की पृथ्वी में जो अनेक अदेखी दरारें हैं उनके बीच से निकलती ज्योति को शब्दों में पकड़ पाना और तराशी हुई भाषा से उद्दात के अनुभव को प्राप्त करना कविता रचने का क्षण है। यह प्रक्रिया तार्किक भी है और सहज बोध पर आधारित भी। कविता का अंतिम रूप कई रातों की गहरी स्वप्न शीलता, विचार और भाव से जन्म लेता है। वे स्वयं को स्व-प्रशिक्षित कवि, अनुवादक और लेखक मानती हैं, जिनका दखल फिल्म, चित्रकला और नृत्य की दुनिया में भी रहा है। वे इन सभी कलाओं में एक आंतरिक अंत:सूत्रता देखती हैं। इसलिए उनकी कविता कि न कोई सीमाएँ हैं न दायरे लेकिन हाँ, तमिल-संगम काव्यशास्त्र ने उनके लेखन, उनकी दुनिया और उनकी भावनाओं के भूगोल को अवश्य ही प्रभावित किया है। संभवतः उसी से उनकी कविताओं में प्रकृति से जुड़ी गहरी अंतरंगता ने जन्म लिया, जिसकी बारीकियाँ वैसी ही हैं जैसी मिनिएचर पेंटिंग या संस्कृत काव्यशास्त्र में रस की उपस्थिति। पिछले कुछ समय में भक्ति कविता ने उन्हें एक नई दृष्टि दी है। करुणा एवं समावेशिता की गुनगुनाहट जैसे उनके शब्दों में भी रच बस गई है। 

प्रिया मानती हैं कि कविता की पारदर्शिता तथा उसका आध्यात्मिक पक्ष हमसे उम्मीद करता है कि हम उसे सबसे साझा करें। ठीक वैसे ही जैसे संत तुकाराम गाया करते थे कि ‘शब्द ही मेरी वह संपदा है जिसे मैं लोगों के बीच बाँटता हूँ।‘ प्रिया के लेखन या कविता का उद्देश्य भी यही है। हमारी सांस्कृतिक धरोहर में रची-बसी बहुलता को पहचानकर, उस विरासत के प्रति कृतज्ञता अनुभव करते हुए कविता रचने की कोशिश, उनके रचनात्मक जीवन का उद्देश्य है। इसी प्रक्रिया में उन्होंने कालिदास, आंडाल, रवीन्द्रनाथ ठाकुर की कविताओं के रिस्पॉन्स में अनेक रचनाएँ की हैं। वे ‘पोइट्री एट संगम’ (Poetry at Sangam) संस्था व पत्रिका की प्रतिष्ठापक-संपादक हैं। उनका मानना है कि ‘कविता दो तरफ़े आईने की तरह है, जो एक तरफ आत्म चिंतन का अवकाश देती है, विशेष रूप से महामारी के इस कठिन समय में और फिर एक पुराने दोस्त की तरह कठोर सच्चाईयों के पार सौंदर्य और शांति के अनुभव को संभव बनाती है। कविता लिखने और पढ़ने की प्रक्रिया हमें स्वयं को तथा विश्व को बेहतर रूप से समझने का अवसर देती है।‘ 



समय का समाहार : कालिदास से संवाद 


कालिदास की महान रचना ‘ऋतुसंहार’ में कवि ने एक विराट सम्हार का आवाहन किया है जिसमें ‘समय’ के अंतिम चरम पर समस्त सृष्टि शिव में ही लय हो जाती है, जिनसे वह उपजी थी। प्रस्तुत कवितायें सी. आर. देवधर द्वारा कालिदास के ‘ऋतुसंहार’ के अंग्रेज़ी अनुवाद के प्रभाव से उपजी हैं। ‘ऋतुसंहार’ जीवन में संभोग और प्रेम का आनंदोत्सव है।    



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वर्षा
“इस ऋतु की बरसाती अङ्गुलियाँ वनों में पत्तियाँ व पल्लव रखती हैं। धीरे धीरे फैलते बादल एकाकी स्त्रियों के हृदय को व्यथित करते हैं।“ ~ कालिदास
एक बार 
कहीं कोई क्षितिज न था। 
जब तुम आए 
मेरे भीतर 
वर्षा के गर्भ में
धरती और आकाश मिले!

अब हूँ मैं अकेली,
दृष्टि स्वच्छ
देह समृद्ध
भीगी बौछारों की
स्मृति से तृप्त!



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शरद

“प्रात: पवन स्वच्छन्द हंसों से युक्त झील की सुन्दर सतह को तरंगित करती है। ... विरही हृदय को अकस्मात् लालसा से आपूरित कर देती है।“  ~ कालिदास 

जो तुम कहते हो
सब सच
शरद धिर आया है
पत्ते करवट लेकर
झड़ रहे
हवा में है कुछ ठंडक। 

लेकिन आसमान बिल्कुल साफ
बारिश से धुला-धुला
तारे खूब चमकीले
मैं भी कहाँ अलग हूँ। 





जीवन गीत गाओ 

रवीन्द्रनाथ ठाकुर की ‘गीतांजलि’ का पुन:अवलोकन 



⬛ 
 
निःशब्द विस्मय में सुनती हूँ 
विश्व को ज्योतिर्मय करता प्रकाश 

आसमानों के बीच दौड़ता 
मेरा हृदय ललकता है स्वर के लिए 
संगीत की अंतहीन सरगमों में 

      ~

साँसों की नदियाँ 
तोड़तीं व्यवधान 

उमड़ेंगी 
मेरे हृदय पर
असीम में विमुग्ध 



⬛ 
 
मेरे जीवन के प्राण 
कोशिश रहेगी कि यह देह रहे पवित्र 

असत्य बाहर 
मन दीप की लौ 
अमंगल का नाश कर 

हृदय के देवालय में 
प्रेम का पुष्प 
सुरक्षित रख 

        ~
  तुम्हारा 
            जीवन स्पर्श 
है मेरी 

          देह पर



⬛ 
 
मैं माँगता हूँ एक क्षण 
हाथ में जो काम हैं कर लूँ संपन्न।  

मेरा हृदय नहीं जानता विश्राम।  
मेरा कर्म अंतहीन, सीमाविहीन सागर में। 
 
ग्रीष्म मेरे वातायन पर 
गर्मियाँ चढ़ आई हैं खिड़की पर 
पुष्पित उपवन, गुँजरित भ्रमर 

निश्चल बैठें मुख-प्रतिमुख 
नि:शब्द अवकाश में 
गायें जीवन गीत! 

~

लबालब भरे जीवन का गीत गायें !




⬛ 
 

प्रार्थना : पानी का स्वभाव


मुझे वह ओस बनाना
जो छूती है सबको सम भाव से 
बर्फ के फाहों की तरह पिघल जाने दे  
ठोस संरचनाओं-सा अस्तित्व 
सूखा पड़ने पर धरती के भीतर बहती नदी के समान 
छिपे हुए स्रोतों से जीवन रस ग्रहण करे 

मीठा और नमक घुल जाता है जैसे नदी के मुहाने पर 
सभी अंतर घुल जाएँ मेरे लहू के भीतर 
उठती ज्वार के साहस, 
मैं पुकारती हूँ तुम्हें कि 
लौट आओ हर भाटे के गिरने के बाद 
पानी का स्वभाव उम्मीद देता है। 

आसमान से ढके महासागर को 
अंकित करो मुझ पर 
जब ज्वलंत दरारें खुलती हैं, जीवन की याद आती है 
मेरी मज्जा को भर जाने दो हिमनद की बर्फ से 
जो शिलाएँ चीर कर पानी के सोते सींचती है। 

एक और इच्छा जोड़ दो इसमें 
पहाड़ की एक झील बन जाने दो मुझे 

शांत और गहरी 
रोशनी से जगमग



⬛ 
 
किनारा (पहली तालाबंदी के समय लिखी गई कविता)

ओ बच्चे---

क्या नदियाँ दौड़ेंगी, ज़हर बुझी नहीं 
तुम्हारे लिए, गहरी और नीली
उमगती डॉल्फ़िन से भरी
उम्मीद से छपछपातीं

क्या भँवरे गुनगुनायेंगे, दूसरे किनारे पर खड़े
भरे पराग का कहरुवा स्त्रोत

असमंजस के शब्दों को बेध, विश्व की वह चेतना
घिर आई है इस किनारे, जहाँ से मैं देख रही 

हरित मणियों के रेशों से, तोते गायेंगे क्या
आसमां का वृंद गीत, जब हम सोने को होंगे

क्या तुम पहले जैसे नहीं होंगे 
कठोर आर्मेडिलो---?
क्रूरता,प्यास और चिंता में बंधी मुट्ठियाँ

हमने विश्वास किया किनारे के निश्चय में
जिसे बहा दिया हमारे ही रचे
दुश्मन ने, लघु और विस्तृत

जैसे कि प्यार हो। 

ओह बच्चे—

देखते हो एक दूसरे को तथा औरों को तुम जैसे
अनगिनत तुम्हारी भावनाएँ, क्या रहेंगी नाज़ुक, 
जैसे सुबह की नर्म हवा सहलाती है हमारे उनींदे गाल?
हम खड़े रहते खाली हाथ, आशंकाओं में धँसे

लेकिन मैं कहती हूँ तुम्हें, पूर्ण निश्चय से 
अपने को और विश्व को, नया-नया देखने के लिए
देर नहीं होती कभी। 

यही कर रहे हैं हम, जब यूँ खुलता है हम पर
जैसे खड़े हैं हम, धूल सने पाँव लिए  
तीर्थ स्थल पर सदा!



 - डॉ. रेखा सेठी
ई-मेलः reksethi22@gmail.com

(तस्वीर:  
प्रिया सरुक्कई छाबड़िया: मद्रास ब्लॉगर्स 
डॉ. रेखा सेठी: विन्ध्या मालिक)
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