भाषा मौन है। हृदय में उल्लास के बजाय सिहरन हो रही है। यह कैसी कहानी है जो इतनी अ यथार्थ होते हुए भी, किस जादू से एकदम सच हो गई है। यथार्थ नहीं सत्य। साहित्य का सत।
यही तो है साहित्य का सार। यथार्थ क्या होता है भाई, कहां ढूढने जाएं। जब सत मिल जाए।
गलत तो नहीं कहा विजय पंडित। धन्यवाद।
~ मृदुला गर्ग
मुंबई मे रहकर फिल्म, धारावाहिक व नाटक लेखन कर रहे विजय पण्डित की ग्रामीण आँचल की सच्चाईयों पर मार्मिक कहानी जोगिया राग!
“तुम जोगी हो तो मैं तुम्हारी जोगन”
सुहागरात के समय घूंघट की ओट से बहुत ही साहस करके जवाब दिया था अपने पति को सवितरी ने। शादी के तीसरे साल गौना आया था। उसने यह भी सुना था कि बालमुकुंद गौना लाने को तैयार नहीं थे। लेकिन वह जमाना ही कुछ दूसरा था। खुलकर अपने पिता के सामने प्रतिवाद करने की हिम्मत नहीं हुआ करती थी किसी को। सवितरी पीहर से ही ठान कर आयी थी कि प्रेम से जीत लेंगे अपने पति को। जब वो घूँघट उठाएंगे तो संस्कृत-फारसी सब भूल जाएंगे।
वाराणसी जनपद (अब संत रविदासनगर) के जगन्नाथपुर गाँव में जन्म। प्राथमिक शिक्षा गाँव के सरकारी प्रायमरी स्कूल में। उच्च शिक्षा इलाहाबाद विश्वविद्यालय और भारतेंदु नाट्य अकादमी, लखनऊ। / कृतियाँ: रंगमंच और स्वाधीनता आन्दोलन, वाणी प्रकाशन, लोकनाट्य नौटंकी, उप्र संगीत नाटक अकादमी, पिस्तौल-नाटक, रचनाकार प्रकाशन, पूर्ण पुरुष- नाटक, वाणी प्रकाशन, सुनें छत्रपति – नाटक, ट्रू साइन पब्लिशिंग हाउस /मंचन -निर्देशन: पूरे देश में १०० से अधिक नाटकों का निर्देशन और मंचन फिल्म और धारावाहिक: ३० से अधिक फिल्म और धारावाहिक का लेखन सम्मान /पुरस्कार /फेलोशिप: पुर्तगाली कवि फेर्नांदो पेसोवा की डायरी पर लिखे फिल्म ‘अदिति सिंह’ का कांस फिल्म फेस्टिवल , फ्रांस में प्रदर्शन। लिखित फिल्म ‘जोसेफ बॉर्न इन ग्रेस’ का ऑस्कर पुरस्कार हेतु एलिजिबिल केटेगरी में नामांकन। फिल्म ‘जोसेफ बॉर्न इन ग्रेस’ को ओंटोरियो फिल्म फेस्टिवल में लेखन के लिए पुरस्कार। उत्तर प्रदेश सरकार के संस्कृति विभाग द्वारा रंगमंच और स्वाधीनता आन्दोलन विषय पर फेलोशिप, भारत सरकार के सांस्कृतिक कार्य विभाग द्वारा द्वारा नौटंकी के अध्ययन हेतु फेलोशिप। दिल्ली सरकार के ‘साहित्य कला परिषद्’ द्वारा नाटक ‘पूर्ण पुरुष’ को मोहन राकेश सम्मान, २००४। उत्तर प्रदेश साहित्य सम्मलेन सम्मान , प्रयागराज। पद्मश्री गुलाबबाई सम्मान , कानपुर। निराला साहित्य संगीत अकादमी सम्मान, उन्नाव। अभिनंदिका आर्ट फॉर टेलीविज़न एंड थिएटर , पुरी, ओड़िसा। डॉ सुरेश चन्द्र अवस्थी सम्मान, लोक नाट्य हेतु, लखनऊ। नाटककार ज्ञानदेव अग्निहोत्री सम्मान। उर्मिल कुमार थपलियाल सम्मान, लखनऊ। संपर्क: बी -101 एक्मे एन्क्लेव, वासरी हिल, मलाड(प), मुंबई 400064 मो० 9821122770 ईमेल: vijaypundit@gmail.com
जोगिया राग
विजय पण्डित
आषाढ़ की घुप्प अंधेरी मध्य रात्रि में सवितरी की नींद आज फिर खुल गई। ओसारे में टंगी लालटेन पता नहीं कब से बुझी पड़ी थी। उसने सिरहाने में पड़ी दियासलाई को टटोलकर किसी तरह ढूंढा और तीली को घिस कर उजाले का एक छोटा सा टुकड़ा अंधेरी कोठरी में फैला दिया। फिर जलती हुई तीली को लेकर वह सँभलते-सँभलते लालटेन तक पहुंची और शीशा उठाकर बाती से लगा दिया। ओसारे से लेकर दुवार तक पीली रोशनी फैल गई।
वह दूर से आती सारंगी की आवाज को ध्यान से सुनने की कोशिश करने लगी, लेकिन सारंगी की आवाज का दूर-दूर तक कहीं अता-पता नहीं था। बाहर बादल अभी-अभी बरस कर निकला था, सो सांय-सांय करती अंधेरी रात की पृष्ठभूमि में जो स्वर सुनाई दे रहा था, वह झींगुर और कुत्तों के भोंकने के अलावा कुछ भी नहीं था। दूर बगीचे से बीच-बीच में जो स्वर और सम्मिलित हो रहा था, वह मोर की आवाज थी, जो बादलों की गरज की प्रतिक्रिया में गूंज उठती थी !
“तो यह सारंगी बजने की आवाज कहां से उसे सुनाई पड़ी? यह स्वप्न था कि मात्र भ्रम, जिसके आभास से सवितरी अचकचा कर जग गई थी?’
सवितरी यह सोचते हुए लालटेन को मंद कर कोठरी में चली गई। ओसारे में बिछी खाट पर उसके ससुर अब भी खर्राटे मार कर सो रहे थे, जैसे कहीं कुछ हुआ ही ना हो।
पिछले 15 साल से सवितरी को पता नहीं क्यों यह लगता आ रहा है कि रात के अंधेरे में एक जोगी, कभी दुवारे से और कभी घर के पिछवाड़े से सारंगी बजाता हुआ पता नहीं कहां अलोप हो जाता है। और जब भी सारंगी की आवाज से उसकी आंख खुलती वह निढाल होकर बिस्तर पर लेट जाती और घर की धुंवाई हुई छत को टुकुर-टुकुर देखने लगती।
इस बड़े से मकान के जिस कमरे में सवितरी को शादी के बाद पैर रखवाया गया था, उसमें कभी दूध पकाने के लिए बोरसी बनी थी। उपले के धुए से छत पर अनेक आकृतियां बन गई थी। उन आकृतियों में उसे एक ऐसी आकृति दिखलाई पड़ती जैसे कि कोई जोगी हाथ में सारंगी लिए लंबे-लंबे डग भरता चला जा रहा है उस आकृति को निहारते-निहारते उसे कब नींद आ जाती पता ही नहीं चलता।
* * * *
सवितरी की नींद ठीक इसी प्रकार उचट गई थी आज से 17 साल पहले जब वह मुश्किल से 13 साल की थी।
सरयूपारीय ब्राह्मण कुलोत्पन्न कर्मकांडी बटेसर चौबे ने जब यह निर्णय लिया था कि वह अपनी पुत्री सावित्री कुमारी का सही मायने में कन्यादान करेंगे। शास्त्र सम्मत कन्यादान तो तभी माना जाता है जबकि कन्या को रजस्वला होने से पूर्व ही “तुभ्यमहं संप्रददे“ कहकर वर के हाथों में सौंप दिया जाए। यही असली कन्यादान होता है, भला उस कन्यादान का क्या मतलब कि कन्या, कन्या ही न रहे, स्त्री हो जाए। शास्त्र में कहीं स्त्रीदान लिखा है क्या? कहीं नहीं।
डोरी-लोटा लेकर वर ढूंढने निकल जाते बटेसर। कई महीने तक गांव-जवारों की खाक छानने के बाद उन्होंने ढूंढा था सवितरी के लिए सुयोग्य वर, भगतपुरवा गांव के बीस बिस्वा के उच्च कुल, गौतम गोत्रोत्पन्न राम लोलारख तिवारी के पुत्र आयुष्मान बालमुकुंद तिवारी को। उन्नत ललाट, गौर वर्ण, क वर्गीय संस्कृत पाठशाला में मध्यमा का छात्र। तिवारी के घर में पचीस बीघे की खेती, द्वार पर दो मुर्रा भैंस और 2 जोड़ी बैल। घर में दूध घी की कमी नहीं। पांच कमरे की बखरी। बड़ा सा आंगन और ओसारा। बालमुकुंद में कोई ऐब नहीं - ना सुरती-तंबाकू और ना ही भांग-धतूरा।
महीने भर की वर-खोज यात्रा के पश्चात थके मांदे लौटे थे बटेसर। जाड़े की रात में भोजन भजन करके ओसारे में लेटे हुए बटेश्वर चौबे का पैर दबा रही थीं चौबाईंन। कहां गए, कैसे गए, सब का लेखा-जोखा बता रहे थे पत्नी को। जैसे कोई आंखों देखा हाल बता रहा हों।
‘सवितरी की माई, लड़का एकदम सोना है सोना, खरा सोना। हमें तो वह कलजुगी लड़का ही नहीं लगता - वह तो लगता है सतजुग का है। अब क्या बताएं तुम्हें... वह लड़का तो जैसे जोगी है जोगी।’
चौबे की खटिया के पास सोई हुई सवितरी की नींद अचानक खुल गई थी जोगी के नाम पर। वह सोचने लगी कि बापू किस जोगी की बात कर रहे हैं? कैसा होगा वह जोगी और यह सोचते-सोचते वह तब तक जागती रही जब तक चौबे और चौबाइन सो नहीं गए।
* * * *
और आज फिर जग रही थी सवितरी। आज फिर वह जोगी सारंगी बजाता हुआ कहीं अलोप हो गया था... अंतरधान। सारंगी की धुन अब भी उसके मनो-मस्तिष्क को विचलित किये जा रही थी ! सोचते-सोचते वह उस कालखंड में चली गई जब अपने जोगी को पहली बार देखा था उसने।
जब राम लोलारख तिवारी गाजे-बाजे के साथ बारात लेकर आए थे तो द्वार पूजन के समय चौबे के दुवारे पर तिल रखने की भी जगह नहीं थी। हाथी-घोड़े पर बैठे बराती चवन्नी अठन्नी और एक रुपये के नोटों की गड्डियां तोड़-तोड़ कर लुटा रहे थे ! गांव-जवार के लड़कों में होड़ लगी थी पैसों को लूटने के लिए। यह उस समय की बात है जब वर और कन्या किसी भी सूरत में एक दूसरे को देख नहीं पाते थे। सवितरी की सहेलियों ने उसे बारजे पर खड़ी लड़कियों के पीछे छिपा दिया था। जैसे ही पालकी से दूल्हा उतरा, सहेलियों ने उसे आगे कर दिया।
“देख ले सवितरी, आज अगर भर आंख नहीं देख पाई तो तीन साल तक नहीं देख पायेगी।”
शरमाते हुए वह झलक भर देखी थी अपने उनको। हल्की-हल्की मूंछ और दाढ़ी की रेखाएं उभर रही थी चेहरे पर। शादी का जोड़ा जामा और पियरी पहने सचमुच सवितरी को जोगी ही लगा था वो। सवितरी ने मुस्कुराते हुए सहेलियों से पूछा था –
”इस जोगी के हाथ में अगर सारंगी होती तो कैसा रहता?
“तब तो दुल्हे मियाँ तुम्हारे द्वारे न आते, बल्कि पूरे गांव में सारंगी बजाते हुए गाते फिरते- ‘ओ सवितरी तू कहां... मैं तडपता यहाँ। ’
एक सहेली के जवाब पर सभी खिलखिला कर हंस पड़ी थी, बैंड बाजे का शोर बढ़ता जा रहा था। उस समय गांव भर में दूल्हा बालमुकुंद के चर्चे ही चर्चे थे।
जनवासे में दोनों तरफ के पंडितों के शास्त्रार्थ के समय सवितरी का दूल्हा खड़ा होकर संस्कृत में कुछ बोल दिया था। सब लोहा मान गए थे। क्योंकि उन दिनों रिवाज के अनुसार जनवासा क्या, द्वार पूजा से लेकर विदाई तक दूल्हा अधिकांशत: आँख नीची किये हुए केवल बैठा ही रहा करता था। उसकी सहायता के लिए गांव का नाऊ-ठाकुर दूल्हे के पास रहा करता था। दूल्हा अपनी जरूरतों को उसके ही कान में फुस-फुसा कर बताया करता था, चाहे उसे प्यास लगे या पेशाब।
लेकिन सवितरी का दूल्हा शास्त्रार्थ के समय भरे जनवासे में खड़े होकर कुछ बोला और वह भी संस्कृत में। आसपास के गांव में भी ये बात फ़ैल गई थी। सवितरी का दूल्हा कोई बड़ा वाला शास्त्री-पंडित है। बीच समाज में खड़े होकर शास्त्रार्थ किया, वह भी अपनी खुद की शादी में। यह सब सुनकर तो मोहित ही हो गई थी सावित्री अपने जोगिया दूल्हे पर।
* * * *
“काहे को मुकुन्दे के मोह में पड़ी है सवितरी? जवानी बर्बाद कर रही हो अपनी... मुकुंदवा के लौटने की कौनो गुंजाइश नहीं है। सारंगी बजाते-बजाते वह चला गया होगा कमरू कमक्षा। जहां ऊ शास्त्रार्थ में हार गया होगा और वहां की बंगालिन उसे सुग्गा बनाकर पिंजरे में बंद कर ली होगी। ”
बोलते हुए बलभद्दर मिसिर के लड़के ने एक बार भोरहरे में हाथ पकड़ लिया था सवितरी का।
“दहिजरू के नाती, आइंदा कभी छूने की कोशिश की तो पोता काटकर तुम्हारे बाप की अंजुरी में रख दूंगी। तू बड़ा खैर ख़्वाह बनता है मेरी जवानी का। जाकर पहले अपनी बहन की जवानी संभाल।”
फुफकार उठी थी वह।
बलभद्दर के बेटे के बहाने जैसे उसने पूरे गांव को धमका दिया था। छोटई, ननकू, माता बदल और बलभद्दर का बेटा। सभी बाभनो ने बहुत कोशिश की कि सवितरी रात-विरात, खेत-खलिहान में उसके पास आ जाया करे, और अगर ना आ सके तो कम से कम कोने-अतरे में चुम्मा चाटी ही दे दिया करे।
लेकिन सवितरी तो जैसे करंट हो गयी थी करंट। सब फब्तियां कसते कि तेवारी की पतोहू अपनी जवानी चौपट किये जा रही है, अपने मनसेधू की बाट जोहते-जोहते। भला बंगालिनों के चंगुल से छूटकर कोई आया है।
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“तुम जोगी हो तो मैं तुम्हारी जोगन”
सुहागरात के समय घूंघट की ओट से बहुत ही साहस करके जवाब दिया था अपने पति को सवितरी ने। शादी के तीसरे साल गौना आया था। उसने यह भी सुना था कि बालमुकुंद गौना लाने को तैयार नहीं थे। लेकिन वह जमाना ही कुछ दूसरा था। खुलकर अपने पिता के सामने प्रतिवाद करने की हिम्मत नहीं हुआ करती थी किसी को। सवितरी पीहर से ही ठान कर आयी थी कि प्रेम से जीत लेंगे अपने पति को। जब वो घूँघट उठाएंगे तो संस्कृत-फारसी सब भूल जाएंगे।
लेकिन सुहागरात के समय घूंघट उठाने की जरूरत ही नहीं समझी उसके पति ने।
“जानती हो घर गृहस्थी में मेरा मन नहीं लगता। लगता है मेरे साथ जबरदस्ती हो रहा है”
“जबरदस्ती काहे हो रहा है? विवाह का मन नहीं था तो काहे को जोड़ा जामा पहन कर बारात लेकर चले आए थे”
“मैं नहीं गया था, बाबू जी गए थे, मैं तो बेमन से गया था। खानदान और घर की इज्जत की बात थी, मैं बारात में ना जाता तो कितनी जगहँसाईं होती। ”
“तो इसमें मेरा क्या दोष है, मैंने आपका क्या बिगाड़ा था जो आप मुझे इतना बड़ा दंड दे रहे हैं?”
“मैं तुम्हें दंड नहीं दे रहा, प्रायश्चित् कर रहा हूं। गृहस्थी का बंधन... मुझसे नहीं हो पाएगा। कारण तो नहीं बता सकता; लेकिन लगता है ग्रह-नक्षत्र ही ऐसा है। प्रव्रज्या योग है मेरी जन्म कुंडली में। मैं योगी हूं योगी। ”
तभी मुस्कुरा कर बोली थी वह-
“तुम जोगी हो तो मैं तुम्हारी जोगन हूं।”
वह खुद ही मुकुंद की ओर आगे बढ़ी। ठिठक कर मुकुंद कोठरी की भीत से जा लगे। फिर क्या था पलंग पर बैठे-बैठे ही दोनों जन नें रात बिता दी। भोरहरे झपकी जो आई सवितरी को तो जोगी फुर्र से उड़ गया था।
* * * *
पंद्रह साल बीत गए उसे गए हुए। लेकिन सवितरी को हरदम लगता, जोगी अब आया, तब आया।
वैसे देखा जाए तो पंद्रह साल का समय कम नहीं होता। साल... दो साल... तीन साल... पंद्रह साल... अगर गांव-जवार में घर से गया हुआ कोई लौटकर नहीं आता तो उसका क्रिया कर्म कर दिया जाता है। गांव में सब इसी बात को लेकर परेशान थे कि आखिर मुकुंद का इंतजार कब तक करेगे तेवारी... वहीं दूसरी ओर पुत्र के वियोग में टूट गए थे तेवारी। बड़ी मन्नत पूजा के बाद चालीस बरस की उम्र में पहिलौठी का लड़का हुआ था। मुकुंद के पैदा होने पर प्रसूति गृह में ही चल बसी थी तेवाराईन। मुकुंद के बाप-महतारी दोनों बनकर लालन-पालन किया तेवारी। अब बिना जाने समझे इन्हीं हाथों से क्रिया कर्म कर दें? तिवारी के मुंह से तो गांव-समाज के आगे कोई बोल ही नहीं फूटे। लेकिन सवितरी ने ललकारा था गांव वालों को।
“आप लोगों को चाहे भला लगे या बुरा हम नहीं करेंगे किरिया-करम। सुन लो सभी कान खोल कर।”
ताला लग गया था पंचायत की जुबान पर। बडबडाते हुए मुह लटकाए लौट गए थे गांव वाले।
“कुलबोरन पतोहू आ गई है तेवारी के यहां। पहले मुकुंद को ले डूबी और अब तेवारी खानदान को नर्क में डाल रही है।
* * * *
भगत पुरवा के पास के ही गांव भवानीपुर में एक-एक करके यह खबर सभी ने सुनी कि गाँव के बाहर बाग में जोगियों का दल आया हुआ है। रात में बैठकी होगी उनकी। करताल, झांझ, खझडी और सारंगी जमेगी बगीचे में।
माघ के महीने का दिन जल्दी-जल्दी ढलता जा रहा था। लोग इकट्ठे होने लगे थे बगीचे में करताल और सारंगी की धुन के बीच में जोगियों का सम्मिलित स्वर फूट पड़ा बगीचे में
“न्यामत लाना...
गुरुजी ने पठाया चेला न्यामत लाना
“पहली न्यामत लकड़ी लाना इरिछ बिरिछ के पास न जाना
“गुरुजी ने पठाया चेला न्यामत लाना...
मस्त होकर झूम झूम कर गाये जा रहे थे जोगी...
भवानीपुर के बगीचे में सारंगी की धुन को भगत पुरवा में किसी ने सुना हो या न सुना हो सवितरी को यह आवाज जरूर सुनाई दी।
“जोगी आया है”
बुदबुदाई सवितरी।
ससुर को खाने की थाली परोस कर वह अपने कमरे में पंद्रह साल पुराने उस बक्से को खोलने लगी जिसे गौने में लेकर आई थी। बक्से से उसने सिंगारदान निकाला और आईने में पड़ी धूल की परत को अपने आंचल से साफ किया। बहुत दिनों बाद अपने चेहरे को भर आंख निहारा उसने। साड़ी निकाल कर सीधा पल्ला बाँधा और होठों पर लाली की एक परत चढ़ा ली। चुटकी भर सिंदूर मांग में भर कर ससुर के सामने खड़ी हो गई।
“क्या हुआ बहू?
तेवारी सवीतरी के इस रूप को देखकर सिहर गए।
“बाबूजी, भवानीपुर चलिए... जोगी आया है... उसी गांव से सारंगी की आवाज आ रही है। ”
सवितरी के चेहरे पर व्यग्रता के भाव थे।
“जोगी... क्या मुकुंद आ गया बहू?
“हाँ बाबूजी... रात के दो पहर बीत गए हैं... भवानीपुर वाले अब सो गए होंगे। पैदल चलकर आधा घंटा लगेगा वहां पहुंचने में। ”
* * * *
सवितरी और उसके ससुर भवानीपुर के बगीचे में जब पहुंचे तब तक जोगियों का भजन खत्म हो चुका था। लकड़ियों पर मिट्टी की हंडिया चढ़ाकर खाना बनाने की तैयारी चल रही थी, जाड़े की मध्यरात्रि में निडर होकर एक युवती को अपने सामने देखकर जोगियों का दल हतप्रभ रह गया था।
“क्या बात है माई?”
एक जोगी ने पूछा।
“हमारा जोगी कहां है? बालमुकुंद जोगी?”
सावित्री ने तड़प कर पूछा।
“माई, यहां सभी केवल जोगी है। मां-बाप का दिया हुआ नाम तो कब का छूट जाता है
हम लोग किसी के नहीं रह जाते। सब के हो जाते हैं। पूरी दुनिया से हमारा प्रेम है। सबसे प्यार करते हैं हम। ”
“लेकिन मैं तो 15 सालों से केवल उसी से प्यार करती आई हूं। क्या हक बनता है उसे अपने स्वार्थ के कारण हमारे प्यार के साथ खिलवाड़ करने का?
सवितरी घूम-घूम कर एक-एक जोगी की आंखों में आंखें डाल कर पहचानने की कोशिश कर रही थी। सामने से होती हुई वह एक जोगी के सामने जाकर खड़ी हो गई।
“मैं जोगी हूं माई। ”
सामने वाला जोगी मुश्किल से यह वाक्य कह पाया।
“और मैं तुम्हारी जोगन। आज से नहीं जब से तुमने मेरे से मांग में सिंदूर भरा था तब से। तुम भाग रहे हो घर गृहस्ती से और मुझसे। मैं तब से पीछा कर रही हूं तुम्हारा... ”
जोगी का हाथ पकड़ लिया सवितरी ने। सन्न रह गए थे बाकी जोगी।
“चलिए अपने घर...
जोगी को खींचते हुए वह भगतपुरा की ओर चल दी... जोगी भी चल पड़ा बिना किसी प्रतिरोध के।
* * * *
और खलिहान की आग जिस प्रकार बिना किसी प्रतिरोध के फैलती है, भगतपुरा में भी यह खबर भिनसार होते-होते फैल गई कि मुकुंदे लौट आया है। किसी को हवा तक नहीं लगी कि मुकुंद को सवितरी पकड़ कर लाई है। भवानीपुर के बगीचे से भोर होते होते 4-5 और भी जोगी तिवारी के दुवारे आ गए।
गांव का हुजूम इकट्ठा होने लगा था। गांव के बड़े बुजुर्ग सब एक-एक करके इकट्ठा हो रहे थे। ओसारे में आधा घूघट किए सावित्री भी खड़ी थी। गांव भर की पतोहू जो ठहरी।
सुमिरन उपधिया, शिवबरन, जटाई पांडे, जय बली मिश्र आदि बड़े बुजुर्गों की एक छोटी मोटी पंचायत ही बैठ गई।
पंचायत के सामने एक तख़त पर जोगी भी बैठा। बढ़ी हुई दाढ़ी और बाल... पहचानने में सभी को दिक्कत हो रही थी। पंद्रह साल का अरसा भी तो बहुत होता है। चारों तरफ से सवाल दग रहे थे- “बालमुकुंद अपना घर पहचानते हो?
“हां, अपने द्वार पर ही हूं। ”
“अपने बाबू को चीन्हते हो?”
जोगी ने तिवारी की ओर इशारा किया।
“याद है तुम्हारी शादी हुई थी? तुम्हारी दुल्हन कहां है?
जोगी ने ओसारे की ओर इशारा किया।
“घर गिरस्ती संभालोगे या नहीं?
“ये संभालेंगे नहीं तो और कौन संभालेगा। मैं तो अकेली ही अब तक संभालती आई हूं मुझसे नहीं सम्हलता अब। ”
जोगी के जवाब देने से पहले ही सवितरी बोल पड़ी। बोलते-बोलते उसका गला रूंध गया और वह फूट-फूट कर रोने लगे लगी। द्वार पर जमा सभी लोग चुप हो गए। फिर किसी ने सवाल नहीं पूछा इसके बाद।
“चलो मियां बीबी राजी तो क्या करेगा काजी। भुल्ली नाउ को बुलाकर मुकुंद के बाल बनवाओ। ”
सुमिरन उपधिया ने तो जैसे गांव-समाज की ओर से फैसला ही सुना दिया।
भुल्ली नाऊ ने जोगी के बाल काटे। साथ में आए जोगियों ने भगवा कपड़े उतरवाया और सावित्री ने बक्से से निकालकर धोती-कुर्ता दिया।
अब जोगी पूरी तरह से बालमुकुंद हो गया था बालमुकुंद तिवारी।
एक-एक करके गांव के लोग अपने अपने घरों की ओर चल दिए।
* * * *
सवितरी के लिए आज की रात उसी तरह की रात थी, जिस तरह आज से पंद्रह साल पहले की थी। वही कमरा जिसमें सवितरी ने पहली बार कदम रखा था। नहीं थे तो वे रिश्तेदार व नातेदार और ना ही घूंघट डाले शर्माती सकुचाती सवितरी। पूरी बखरी में केवल तीन ही प्राणी थे। ओसारे में लेटे हुए तेवारी और भीतर इस कमरे में सवितरी और मुकुंद।
”मैं तुम्हारा मुकुंद नहीं हूं”
जोगी ने जैसे किसी रहस्य से पर्दा खोला।
“लेकिन यह जानते हुए कि तुम मुकुंद नहीं हो, मेरे साथ चले क्यों आए?
सवितरी ने बड़े ही धीरज से पूछा?
“मैं ऊब गया था इस जोगिया बाना से। मैं भागना चाहता था। लेकिन सोच रहा था कि भागकर जाऊंगा कहां? घर-द्वार सब नष्ट हो गया था। घर से भागने के बाद कई साल बीतने पर जब वापस जाना चाहा था पता चला खानदान में कोई बचा ही नहीं। मैंने सोचा यह अच्छा मौका है, कम से कम एक घर तो मिल रहा है। सो आ गया। मन में एक भारी बोझ था मैंने सोचा बता दूं तो मन हल्का हो जाएगा”
जोगी इतना बोल कर मौन हो गया।
“बताने की कोई जरूरत नहीं है। मैं जानती हूं कि तुम मेरे मुकुंद नहीं हो। बगीचे में एक क्षण के लिए मन डांवाडोल भी हुआ था मेरा कि क्या करूं? लेकिन फिर संभल गई। ”
“और यह जानते हुए भी कि तुम मुकुंद नहीं हो बिना जात-बिरादर पूछे तुमने मेरा हाथ क्यों पकड़ा?”
“जात-बिरादरी के लोग ही कितना सगे होते हैं, मैंने पंद्रह सालों में देख लिया था। पहाड़ सी जिंदगी काट ली थी लेकिन अब हिम्मत नहीं रह गई थी। बाभनों में दूसरी शादी का रिवाज नहीं है। मैं बैठ सकती थी तो सिर्फ एक जोगी के घर में क्योंकि सभी जगह यह बात फैल गई थी कि मुकुंद जोगी हो गया है। और आज वह जोगी मिल गया है। समझो मेरा मुकुंद मिल गया। अब तुम मेरे भी जोगी हो। ”
सावित्री का मन भारी हो रहा था
“और तुम मेरी क्या हो?” जोगी ने पूछा।
“तुम्हारी जोगन।”
बोलते बोलते सावित्री की आंख से आंसू भल-भला कर बह चले।
* * * *
माघ की उसी रात भगत पुरवा के कुछ लोगों की नींद मध्यरात्रि में अचानक खुल गई थी। उपधियाइन अलसाई सी उठी और बाहर आकर ओसारे में बिछी खटिया पर सोए सुमिरन को जगाने लगी।
“अरे सुन रहे हो कोई चिल्ला रहा है...
सुमिरन चारों दिशाओं में अकन कर सुनने लगे। यह आवाज तेवारी की बखरी से आ रही थी। “अरे पगली कोई चिल्ला नहीं रहा है जोगिया गा रहा है... तेवारी का बेटोना...’’
उपाधिया ने उपधियाइन को समझाया
“सालों बाद मिले हैं। रात में कुछ और का टैम है कि गाने बजाने का?”
उपधियाइन चेहरे पर बरसों बाद शर्म दिखी थी देखी थी सुमिरन उपधिया ने।
“अरे कुछ और वाला टैम बिता लिए होंगे... ’’
शरारत सूझ रही थी उपधिया को।
“कुछ और के बाद सावितरी ने मुकुंद को सारंगी बजाने को कहा होगा वह मस्ती में सारंगी बजा कर गाना सुना रहा होगा।
सुमिरन को खिलवाड़ सूझने लगा
“तू ज्यादा परेशान ना हो... पहला दिन है अभी गा-बजा कर दोनों सो जाएंगे। तू भी सो जा... ”
उपधियाइन जैसे ही वापस जाने को मुड़ी, हाथ पकड़ लिया उपाधिया ने... हडबडा गयीं उपधियाइन...
“बौरा गए हो का? नाती-पोते सब बड़े बड़े हो गए हैं कुछ तो शरम करो।
“कुछ नहीं कर रहे हैं... जाडा बहुत है रजाई में आ जाओ”
“बुढ़ापे में...?
“हां... हम दोनों रजाई के भीतर जोगी की सारंगी सुनेंगे”
कहते हुए हाथ खींच लिया उपाधिया ने। उपधियाइन भहराय पडी उनके ऊपर। उपधिया ने रजाई खींचकर ओढ ली।
तेवारी की बखरी से जोगी के गाने की आवाज और भी तेज हो रही थी...
न्यामत लाना...
गुरु ने पठाया चेला, न्यामत लाना
पहली न्यामत लकड़ी लाना इरिछ बिरिछ के पास न जाना
गुरु ने पठाया चेला, न्यामत लाना...
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