वरिष्ठ साहित्यकार हृषीकेश सुलभ के उपन्यास 'अग्निलीक' की सुंदर समीक्षा करते हुए, आलोचकों को ज़रा घेरते हुए, गीताश्री अपने कॉलम 'गीताश्री की पसंदीदा किताबें' की दूसरी प्रस्तुति में लिखती हैं —
आलोचक सवाल उठा सकते हैं। सहृदय यहां रचना का अप्रतिम सौंदर्य पा सकते हैं। ये पूरा पैरा सिर्फ पढ़ने की ज़रूरत नहीं, इसे देखने की ज़रूरत है, किसी ऐंद्रिक पेंटिंग की तरह। रचना को देखने की आंख भी पेंटिंग को देखने वाली आंख की तरह होनी चाहिए जो रचना को सुने भी और देखे भी। जैसे पेंटिंग देखी और सुनी जाती है।
फिर उपन्यास की गहराई भी बतलाती हैं —
पीढ़ियां बदलती हैं तो समय बदलता है। देश बदलता है। इस बदलाव को पीढ़ियों के माध्यम से चीन्हना बड़ा काम। पात्रों के सघन वन में सबके साथ न्याय करना, सबकी उंगली पकड़ कर उसकी नियति तक साथ लेकर चलना आसान काम नहीं। अग्निलीक के बहुपरतीय कथानक में हर परत में आग है। आग की लीक है। उस पर चलता है एक देश। समूचा जीवन। जीवन के परिवर्तन की अंतर्कथा है। यह उपन्यास नहीं, एक देश है। घनी आबादी वाला देश। हर पन्ने में साँसें सुनाई देती हैं।
और उपन्यासकार की कलम से लिखी ऐंद्रिक पेंटिंग —
घाघरा के कज्जल जल-सी चमकती हुई जसोदा की देह को अपनी भुजाओं में बांधे अकलू अपलक निहार रहे थे उसका मुख।... और उत्फुल्ल चंद्रमा निहार रहे थे जसोदा को कसने वाली अकलू की बांहों में उभरी मछलियों को।... पीठ पर उग आई पतली नदी–सी रेखा को... कांधों पर उभरे पहाड़ों के शिखर को। जब कभी अकलू की विशाल छाती के नीचे दब कर मसले जाते हुए अमृतकलश पल-छिन के लिए झलकते चंद्रमा की आंखें चौंधया जातीं। जसोदा की गोरी जंघाओं और पिंडलियों से टकरा कर परावर्तित होती चांदनी की आभा से दीपित हो रहा था आकाश। जसोदा के सघन काले बालों के विस्तार में खो जाने के भय से चंद्रमा बार-बार उसकी नाक की लौंग पर आकर बैठ जाते थे।
सुलभजी मेरे प्रिय कहानीकार रहें हैं, आपने उन्हें शब्दांकन पर भी पढ़ा होगा। उनका यह उपन्यास मैंने नहीं पढ़ा था, ऑर्डर किया है, अमेज़न का लिंक यह है ~ सं०
GeetaShree - Agnileek: Hrishikesh Sulabh |
क़यामत से क़यामत तक जीवन
::गीताश्री
पत्रकार एवं लेखक। अब तक सात कहानी संग्रह ,पाँच उपन्यास ! स्त्री विमर्श पर चार शोध किताबें प्रकाशित . कई चर्चित किताबों का संपादन-संयोजन। वर्ष 2008-09 में पत्रकारिता का सर्वोच्च पुरस्कार रामनाथ गोयनका, बेस्ट हिंदी जर्नलिस्ट ऑफ द इयर समेत अनेक प्रतिष्ठित पुरस्कार प्राप्त। 1991 से 2017 तक सक्रिय पत्रकारिता के बाद फ़िलहाल स्वतंत्र पत्रकारिता और लेखन ! संपर्क: C-1339, Gaur green avenue, Abhay khand-2, Indirapuram, Ghaziabad -201014, मो० 9818246059, ईमेल: geetashri31@gmail.com
वरिष्ठ साहित्यकार हृषीकेश सुलभ का पहला उपन्यास “अग्निलीक” (राजकमल प्रकाशन) ये एक बार में, एक साँस में पढ़ी जाने वाली किताब नहीं है। अनेक साँसों का तूफ़ान है इसमें। पात्रों का घना जंगल, जीवन का ताप और एक लंबा कालखंड। एक से मिलते हैं कि दूसरा खड़ा हो जाता है। साथ चलने लगता है, आपको तर कर देता है।
एक बार हृषीकेश सुलभ से पूछा था — “आपके उपन्यास की थीम क्या है?”
उनका जवाब था — “पूरा जीवन है।”
सच ही तो कहा था — “जीवन से बड़ी थीम क्या है? हम उसके टुकड़ों को चुन कर पहाड़ खड़ा करते हैं। उन्होंने पूरा जीवन चुन लिया।
एक है जसोदा, एक हैं लीला साह। दोनों के अमिट प्रेम की छाया में चलती है जीवन की करुण महागाथा। उपन्यास की कथा शुरु होती है इसके पात्रों के जन्म के साथ। देश को आज़ादी मिलने वाली है, घोषणा हो चुकी है, इसके साये में देश अपने को तैयार कर रहा है। इसी समय कथा के पात्र जन्म लेते हैं, कथा वहीं से उनके साथ चली आती है मोबाइल युग तक। जीवन कितनी दूर तक लीला करता है। लीला नाम के दो पात्र हैं और दोनों कथा को जीवन देते हैं। यूँ तो कथा में पच्चीस से ज़्यादा पात्र हैं, मगर इन दोनों लीलाओं के बिना कहाँ रस। एक लीला प्रेम को अधखाये अमरूद की तरह छोड़ कर हमेशा के लिए लोप हो जाता है, जैसे कोई सुग्गा।
उसकी प्रेमिका जसोदा पर लेखक का दिल आ जाता है। कुछ बेढंगे आलोचकों को यह बात चुभ गई है। यहां वे लेखक को अलग रहने की सलाह देते हैं। लेकिन यह आरोपण नहीं, जसोदा का रुप वर्णन पढ़ कर अवाक रह जाएँगे। बिना मोहित हुए भला कैसे लिखा जा सकता है ऐसे?
जसोदा के बारे में लिखते हैं—
घाघरा के कज्जल जल-सी चमकती हुई जसोदा की देह को अपनी भुजाओं में बांधे अकलू अपलक निहार रहे थे उसका मुख।... और उत्फुल्ल चंद्रमा निहार रहे थे जसोदा को कसने वाली अकलू की बांहों में उभरी मछलियों को।... पीठ पर उग आई पतली नदी–सी रेखा को... कांधों पर उभरे पहाड़ों के शिखर को। जब कभी अकलू की विशाल छाती के नीचे दब कर मसले जाते हुए अमृतकलश पल-छिन के लिए झलकते चंद्रमा की आंखें चौंधया जातीं। जसोदा की गोरी जंघाओं और पिंडलियों से टकरा कर परावर्तित होती चांदनी की आभा से दीपित हो रहा था आकाश। जसोदा के सघन काले बालों के विस्तार में खो जाने के भय से चंद्रमा बार-बार उसकी नाक की लौंग पर आकर बैठ जाते थे।
यहां पर आकर पाठक ठिठक सकते हैं। आलोचक सवाल उठा सकते हैं। सहृदय यहां रचना का अप्रतिम सौंदर्य पा सकते हैं। ये पूरा पैरा सिर्फ पढ़ने की ज़रूरत नहीं, इसे देखने की ज़रूरत है, किसी ऐंद्रिक पेंटिंग की तरह। रचना को देखने की आंख भी पेंटिंग को देखने वाली आंख की तरह होनी चाहिए जो रचना को सुने भी और देखे भी। जैसे पेंटिंग देखी और सुनी जाती है। एक कैनवस है जिस पर एक स्त्री का सौंदर्य समूची सृष्टि को चुनौती देता महसूस होता है। अभिसार के क्षणों में स्त्री का सौंदर्य उसे अद्वितीय बना देता है। अभिसार के क्षणों में श्रृंगार हावी होगा ही। लेखक से बच कर निकलने की उम्मीद क्यों। इतना नैतिकता का आग्रह क्यों। लेखक अपनी रचना में इससे एक अनूठा संबंध स्थापित करता है, वह तटस्थ नहीं रह सकता। उससे तटस्थता की उम्मीद ग़ैर-ज़रूरी है। जसोदा के रुप वर्णन में रचनाकार की उपस्थिति दिखाई देती है, इसीलिए यहां कृत्रिमता नहीं है। लेखक जब अपनी रचना से भावनात्मक संबंध स्थापित करता है तो उसके पास अनोखी, मौलिक सौंदर्य दृष्टि होती है जो उसके वर्णन को कृत्रिमता से बचाती है। जैसे रीतिकाल का पाठ करने के लिए अलग नज़रिये और अभ्यास की ज़रूरत की बात सुधीश पचौरी करते हैं, ठीक वैसे ही अभ्यास की ज़रूरत है जैसा हृषीकेश सुलभ के इस पैरा के पाठ के लिए। स्त्री का सौंदर्य हो या प्रकृति का सौंदर्य, यह जीवन स्थिति है, हम उससे भाग नहीं सकते। रचना में सौंदर्य वर्णन एक स्वायत्त सत्ता होती है। इस पर रूपवाद (फार्मालिज्म) का आरोप लगाकर इसे कटघरे में खड़ा नहीं कर सकते।
शब्दांकन पर हृषीकेश सुलभ
और यही इस रचना का मूल केंद्र नहीं है कि आलोचना वहीं आकर ठिठक जाए। कहानी बहुत दूर तक जाती है। रचना के मूल्यांकन के समय लेखक की दृष्टि और मंशा को समझे बिना सही मूल्यांकन नहीं किया जा सकता। जैसे इस उपन्यास के लेखक का इस संसार से जो रिश्ता बनता है वो कैसा है। वो चीजों को, मनुष्यों को किस तरह देखते हैं। सबके साथ कैसा रिश्ता जोड़ते हैं। हृषीकेश सुलभ के समूचे रचना संसार में कुछ ध्वनियाँ एक-सी मिलेंगी। स्त्री और नदी से उनका गहरा तादाम्य है। एक संवेदनशील लेखक का रिश्ता भी संवेदनशील उपादानों से बनता है।
पहले नदी की बात, फिर उनके स्त्री पात्रों की बातें करेंगे।
लेखक का नदियों से अटूट रिश्ता है। उनकी कई कहानियों में नदियों का पानी है। उसका आवेग है। पढ़ते हुए आप बहते जाते हैं। नदी की उपस्थिति तरल बनाती है और विराट भी। इस विराट का चरम देखना है, अलौकिकता देखिए इस उपन्यास में। जहां स्त्री और नदी एक-सी हो जाती हैं। नदी वैसे भी स्त्री का रूपक मानी जाती है। इस बार घाघरा नदी पर फ़िदा हो जाएँगे। ये अलग बात है कि घाघरा अब सरयू कहलाएगी। नाम बदल गया। नाम बदलने से चरित्र नहीं बदलता। घाघरा तो वैसी ही रहेगी।
एक अंश पढिए —
उद्दाम यौवन के वेग से बहुगुणित होता घाघरा का सौंदर्य! नए समागम को आकुल, उल्लसित और भव्य जीवन की अकूत शक्ति से अपनी बाँहों में बाँध कर कठोर और विशाल चट्टानों का मान मर्दन कर उन्हें चूर-चूर करती हुई घाघरा बहती जाती।
अपनी तीक्ष्ण लहरों की चितवन से अपने ऊपर मंडराते मेघों को भेदतीं और बरसने के लिए विवश करतीं। अपने प्रेमी चूरे पर्वत के हृदय में वाण की तरह धंसती... उसे चीर कर जल उड़ेलती, वनचरों और वनस्पतियों को जीवन सौंपती हुई आगे बढ़ती। हरीतिमा से आच्छादित तराई में प्रवेश करते ही घाघरा अपनी मृणाल बाँहें फैलाती और गिरवा-धार को जनमतीं। अपनी दोनों बाँहों में तराई को बांध प्रणय-लीला रचतीं और काम-कुपित इंद्र के मेघ-प्रहारों से उपजी विद्युत-द्दुति को अपने अंतरंग में धारण करती हुई भारत में प्रवेश करतीं।
और उपन्यास का प्रोटोगोनिस्ट लीलाधर उसके तट पर जब आलाप भरते तो पूरी पृथ्वी सांस रोक कर सुनती। घाघरा नाचती थी उनकी धुन पर।
नदी और पुरुष का ऐसा अद्भुत मेल कहीं और न देखा-पढ़ा। नदी नहीं, स्त्री है जो अपने अभीष्ट, काम्य पुरुष तक पहुँचने की ऐसी दुर्गम यात्रा करती है। या ये कोई आत्मा है जो परम ब्रह्म में मिलने के लिए आकुल यात्रा करती है।
जब लेखक नदियों की चर्चा करते हैं तब किसी भूगर्भ शास्त्री की तरह नज़र आते हैं। नदी का उद्गम से लेकर उसके मिलन तक का रूट और इतिहास उन्हें पता है। वे स्त्री के इतिहास को नदी से जोड़ कर अमूर्त ढंग से ये सब जता देते हैं।
पाँच पीढ़ियों तक चलने वाली इस कथा में नदी अद्भुत सौंदर्य के साथ अवतरित होती है। जब पहली पीढ़ी यानी जसोदा की गोद में उसकी पोती गोद में सोई है तब का वर्णन देखिए —
कोई कूल-किनारा नहीं। केवल धारा थी, जिसके भाग्य में था छूट जाना और धीरे-धीरे सूखते जाना और प्रतीक्षा करना आषाढ़ के मेघों की।
जब नदी की बात हो तो भीतर तक भींगती हूँ, जब अंधेरों की बात हो तो रात कटती नहीं।
ऐसी ही एक रात का वर्णन पढ़िए —
धरती निरंतर अंतरिक्ष में घूम रही थी पर रात बिलंबित गति से सरक रही थी। मारुबिहाग के आलाप के आरोह के साथ ऊपर उठती रात और अवरोह के साथ नीचे सम पर आकर थम जाती। रात के संगीत को यति देती हुई हवा शांत थी। रात के संगीत को और उदास... और बोझिल बनाता हुआ कुहरा गहन से गहनतर होता जा रहा था। बंदियों की तरह दम साधे पंछी वृक्ष के कोटरों में... घोंसलों में पड़े थे...
यहां प्रकृति का सौंदर्य है। वही आंख जो स्त्री सौंदर्य को देखती है उसी से प्रकृति को रचती है। निर्मल वर्मा ने इसे ही कलात्मक सौंदर्य कहा है। वे कहते हैं –- सुंदर वही है जो पूरी तीव्र अऩुभवशीलता के साथ व्यक्त हो। जसोदा का सौंदर्य वर्णन हो या प्रकृति का... दोनों में लेखक का कलात्मक कौशल दिखाई देता है। यही कौशल इसे प्रामाणिक बना देता है।
‘अग्निलीक’ में एक गाँव है, अपनी संरचना में जटिल। पूरा गाँव पात्र हैं इस उपन्यास में। सभी समुदाय के लोग हैं। सभी वर्ग, धर्म के लोग। यह एक गाँव की कहानी नहीं, एक देश की कहानी है।
सबका जीवन है, उसके संघर्ष हैं, सुख-दुख हैं। कोई एक नायक नहीं। गाँव ही है मुख्य पात्र, धुरी। उसके गिर्द चक्कर लगाते हैं पात्र। कुछ पुरुष हैं, कुछ स्त्रियाँ हैं। बेहद स्वाभाविक। कोई “लार्जर दैन लाइफ़” नहीं। सब अपनी परिस्थितियों के मारे हैं।
फिर दूसरा मुख्य इसमें कालखंड है। समय अपने पूरे मिज़ाज के साथ दर्ज हुआ है। चाहे स्वतंत्रता पूर्व का समय हो या मोबाइल युग का। समय की शनाख़्त आसानी से कर सकते हैं। ये समय बनते हुए देश का है, उसकी तस्वीर है। उसके लोग हैं जो बीसवीं सदी में प्रवेश कर रहे हैं। समाज और देश दोनों बदल रहे थे। दुनिया करवट ले रही थी। स्वतंत्रता संग्राम और सौ साल पुरानी ग़दर की स्मृतियाँ ताज़ा थीं। ज़मीन के टुकड़े बंट रहे थे किसानों और ज़मींदारों में। आपसी संबंध भी बदल रहे थे। जसोदा और लीला साह का प्रेम अधूरा रह जाता है। जसोदा उस दौर की स्त्री का प्रतीक है, जिस खूँटे से बांध दो, बंध जाती है। उपन्यास के अंत तक आते-आते स्त्रियाँ सशक्त होती चली जाती हैं और अपनी शर्तों पर जीवन और संबंध चुनती हैं।
जसोदा फिर भी मन में बस जाती है। आसानी से न भुलाई जाएगी। इसके सौंदर्य में डूब जाएँगे। जिसके सौंदर्य से चंद्रमा की आँखें चौंधिया जाएँ।
जिसके काले सघन बालों में खो जाने के भय से चंद्रमा बार-बार उसकी नाक की लौंग पर आकर बैठ जाते थे। जिसकी देह घाघरा के कज्जल जल-सी चमकती थी।
“लौंग का लश्कारा“ याद आया? हाल-फ़िलहाल कहाँ पढ़ा ऐसा वर्णन, याद नहीं।
जसोदा के मोहपाश से छिटक कर कहानी लंबी यात्रा करती हुई रेशमा कलवारिन तक पहुँचती है। वहाँ तक आते-आते उपन्यास का पूरा विमर्श बदल जाता है।
समय बदल जाता है। स्त्रियाँ मुखर हो चुकी हैं। वे बदनाम होते हुए भी मोर्चे पर डटी रहती हैं। जगनिंदा की परवाह किए बिना बाहर निकलती हैं और मनपसंद साथी का साथ चुन लेती हैं। अपनी मानसिक और दैहिक कामनाओं को पहचानती हैं। निडर हैं, स्पष्ट हैं।
वे अपने समय को पहचान लेने वाली औरतें हैं। उन्हें राजनीतिक ताक़तों का अहसास है। वे उस ओर जाना चाहती हैं। वे ये भी जानती हैं कि बहनापा क्या चीज़ होती है। एक स्त्री, दूसरी स्त्री के साथ जब तक खड़ी नहीं होगी, यह जंग नहीं जीती जा सकती। जीवन जंग ही तो है। हम सब योद्धा। जीना और लड़ना एक बराबर। बिना लड़े कौन जी सका है, कौन बच सका है। इस उपन्यास की औरतें समझती हैं। रो-रो कर दिन नहीं काटतीं। एक्शन लेती हैं।
तभी रेशमा कलवारिन, गुलबानो के साथ उम्मीद और भरोसे की तरह खड़ी हो जाती है। रेशमा और गुलबानों के बीच बहनापा, दुख-साझेपन की कथा उभरती है। वे एक दूसरे की दुश्मन न बन कर, दुख की साझीदार बनती हैं।
एक प्रसंग है –-
दुख, दुख को टेर रहा था।
उस दिन रेशमा कलवारिन के सामने बिना कुछ कहे-सुने बिलख-बिलख कर रोती रही थी गुल बानो। आंसुओं से तरबतर उसके तांबई चेहरे को रेशमा ने अपनी छाती से सटा लिया था और उसके उलझे केशों को बिना कुछ बोले सहलाती रही थी। दोनों के बीच निःशब्द संवाद चल रहा था। बिना कुछ कहे दोनों एक दूसरे से बहुत कुछ कहती सुनती रहीं। बहुत देर तक रेशमा की छाती से लगी रही गुलबानो। धीर-धीरे उसकी हिचकियां थमीं। गुल बानो को लग रहा था मानों वह ठहरे हुए पानी के गहरे डुबाव से उबर कर बाहर निकली हो अभी-अभी।
...रेशमा ने पानी लाकर दिया था उसे। रेशमा ने जो लाकर दिया था पीने के लिए वह केवल जल नहीं था, भरोसा था। अपनापे का भरोसा। गुलबानों के असह दुखों के चौबीसों घंटे हरियाए रहने वाले घावों को शीतल करता यह अपनापे का जल उसकी आत्मा को तर कर गया था।
यही है असली विमर्श। यही है असली लक्ष्य। लेखक बहनापे के असली सूत्र को पकड़ते हैं। उन्हें एक दूसरे के मुकाबले खड़ा नहीं करते। लेखक जीवन में जिनका बहुत आदर करते हैं, उनकी रचना में भी वो आदर भाव दिखाई देता है। आगे हम इसे और स्पष्ट करेंगे।
मैंने शुरु में ही कहा था कि इस उपन्यास का फलक बहुत विराट है। किसी देश के बनने-बिगड़ने की कथा है। उसके नागरिक हैं जो बनते हुए देश और समाज के साथ तालमेल बिठाने में लगे हैं। आज़ादी नियामत है, उससे ज़्यादा महत्वपूर्ण उसे संभाल ले जाना है।
उपन्यास की शुरुआत हत्या से होती है और अंत भी हत्या से। इसके बीच तैरती जिंदगियां हैं। यह उपन्यास एक हत्यारे समय में हमारे बीच आया है। उपन्यास किसी अपराध कथा की तरह शुरु होता है मगर कथा कहीं और चली जाती है। हत्यारे की खोज में नहीं लगती। पाठक सजग होगा तो कथा में हत्यारे का सुराग पा लेगा। अन्यथा वह हत्यारे की खोज में भटकता रहेगा। रचना, पाठकों को भी काम पर लगाती है।
मन में संशय था कि हृषीकेश सुलभ का पहला उपन्यास हत्या से कैसे शुरु हो सकता है। एक अशुभ शुरुआत–सी लगी। जैसे कामायनी में जल-प्रलय से शुरुआत है। उसके बाद समूचा जीवन खुलता है। हत्या सांकेतिक भी हो सकती है, समय को दर्शाने के लिए। एक बड़ा मेटाफर भी। एक हत्या समूचे कालखंड का चरित्र खोल कर धर देती है। आजादी के उत्तरार्ध की कथा है, जहां पात्रों की बहुलता है। उनकी समस्याएं भी अनेक और सघन हैं। घात-प्रतिघात है। चालें हैं, स्वार्थ हैं, सत्ताएं हैं, राजनीति है। टूटते-बिखरते संबंध हैं। कई पीढ़ियों की कहानी है। जसोदा से लेकर उसकी पौत्री रेवती तक कथा चलती है। पीढ़ियां बदलती हैं तो समय बदलता है। देश बदलता है। इस बदलाव को पीढ़ियों के माध्यम से चीन्हना बड़ा काम। पात्रों के सघन वन में सबके साथ न्याय करना, सबकी उंगली पकड़ कर उसकी नियति तक साथ लेकर चलना आसान काम नहीं। अग्निलीक के बहुपरतीय कथानक में हर परत में आग है। आग की लीक है। उस पर चलता है एक देश। समूचा जीवन। जीवन के परिवर्तन की अंतर्कथा है। यह उपन्यास नहीं, एक देश है। घनी आबादी वाला देश। हर पन्ने में साँसें सुनाई देती हैं। उजबुजा जाती हूँ... बाहर निकलती हूँ कि कोई पात्र ऊँगली पकड़ कर डूबकी लगा देता है।
फणीश्वरनाथ रेणु के पास कोसी नदी है तो हृषीकेश सुलभ के पास घाघरा और गंडक। यहां भी यादगार स्त्री पात्र हैं जो स्मृतियों में सदा ठहरी रहेंगी। जसोदा, रेशमा, गुल, मुन्नी बी, रामझरी, नबीहा, कुंती... ये सब स्मृतियों से वैसे ही झांकेंगी जैसे रेणु की स्त्रियां।
बतौर पाठक कहती हूं — रसिया लीला साह की तरह ही यह उपन्यास भी ”अजगुत” है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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