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बढ़े हैं साहित्य में अवसर ~ वंदना सिंह | Vandana Singh on Indira Dangi


बढ़े हैं साहित्य में अवसर  ~ वंदना सिंह | Vandana Singh on Indira Dangi

बढ़े हैं साहित्य में अवसर

~ वंदना सिंह



हिंदी साहित्य में हाल के दिनों में जिन युवा लेखकों ने अपने लेखन से साहित्य जगत का ध्यान अपनी ओर खींचा है उनमें इंदिरा दांगी का नाम प्रमुख है । अभी हाल ही में इंदिरा दांगी को साहित्य अकादमी का युवा पुरस्कार मिला है । दो हजार तेरह में जब उनका पहला कहानी संग्रह – एक सौ पचास प्रेमिकाएं छपा था तो उसने साहित्य के पाठकों को चौंकाया था ।अगले वर्ष इंदिरा दांगी का उपन्यास ‘हवेली सुल्तानपुर’ प्रकाशित हुआ और फिर उसके अगले वर्ष ‘शुक्रिया इमरान साहब’ के नाम से एक और कहानी संग्रह प्रकाशित हुआ । इस बीच इंदिरा दांगी को कई पुरस्कार मिले । भारतीय ज्ञानपीठ का’ नवलेखन अनुशंसा पुरस्कार’, ‘अखिल भारतीय कलमकार कहानी पुरस्कार’, ‘वागीश्वरी सम्मान’, ‘रमाकांत स्मृति पुरस्कार’, ‘सावित्रीबाई फुले’ पुरस्कार समेत कई पुरस्कार मिले । इंदिरा दांगी ने बहुत कम समय में हिंदी साहित्य के बड़े आकाश के काफी जगह को घेरा है । 

बढ़े हैं साहित्य में अवसर  ~ वंदना सिंह | Vandana Singh on Indira Dangi

पोर्न लेखन से बच पाना ये इस वक्त के साहित्यकारों के लिए बड़ी चुनौती है, जो इन चुनौतियों को स्वीकारेगा वही बच पाएगा - इंदिरा दांगी


इंदिरा दांगी का मानना है कि साहित्य में अवसर पहले से अधिक हुए हैं । इंदिरा कहती हैं कि जब उन्होंने लिखना शुरू किया तो उनके वरिष्ठ बताया करते थे कि पहले छपने के अवसर कम थे । रचना के प्रकाशन के लिए वर्षों तक इंतजार करना पड़ता था । उनका मानना है कि वर्तमान परिदृश्य में अखबारों और व्यावसायिक पत्र-पत्रिकाओं में साहित्य के पन्ने के लिए काफी मात्रा में रचनाएं चाहिए । उनका कहना है कि इस तरह के अवसर से भावयित्री और कारयित्री दोनों तरह की साहित्यिक पत्रिकाओं को अवसर मिलता है । उनका मानना है कि साहित्य में भी डिमांड और सप्लाई की अर्थशास्त्रीय सोच उसी तरह से घुल मिल गई है जैसे जीवन के अन्य अनुशासनों में । इंदिरा यह भी मानती है कि आज के लिखने वालों में पिछली पीढ़ी के लेखक-लेखिकाओं जैसे गुणवत्ता का आग्रह कम ही मिलता है । इंदिरा के मुताबिक अवसर की विपुलता की वजह से रचना की स्तरीयता बचाए रखने की बड़ी चुनौती भी लेखकों के सामने है । वो साफ तौर पर कहती हैं कि साहित्य को अपनी मुल्क की आवाम की आवाज होनी चाहिए लेकिन आज की कई तथाकथित युवा लेखिकाएं मरते किसानों, जलाई जा रही बहुओं, आम आदमी के दर्द को दर-किनार कर लिव इन रिलेशन, बलात्कार, डिवोर्स या स्त्रियों के व्यभिचार की वकालत करती रचनाएं लिख रही हैं जो छप भी जा रही है, फौरन चर्चा भी हो जाती है । उनका मानना है कि अपने आप को अत्यधिक लेखन से बचाना, रचना पर धैर्य के साथ काम करना, पोर्न लेखन से बच पाना ये इस वक्त के साहित्यकारों के लिए बड़ी चुनौती है । इंदिरा मानती हैं कि जो इन चुनौतियों को स्वीकारेगा वही बच पाएगा । 

बहुत बड़ी संख्या में कविता के रचे जाने को लेकर इंदिरा दांगी कहती हैं कि संख्या का कभी भी उतना महत्व रहा नहीं है और ना ही इस बात का कि एक साथ कितनी पीढ़ियां रच रही हैं । वो कहती हैं कि महत्व सिर्फ इस बात का होता है कि रचा क्या जा रहा है । इंदिरा कहती है कि अच्छी कविता का जहां जिक्र चलता है वहां निराला के अलावा शमशेर, दुष्यंत कुमार, धूमिल या उनसे आगे आइए तो केदार जी कविता पर ही बात होती है । वो यह बात भी मानती हैं कि इधर के कवियों की रचनाएं हम पसंद करते हैं लेकिन जब कविता की चर्चा होती है तो इन दिनों लिखी जा रही कविताओं की चर्चा नहीं होती है । हलांकि वो यह कहकर अपने को कविता से अलग करती हैं कि वो मूलतः गद्यकार है और कविता की उनकी समझ बस पाठक जितनी है जो अच्छी कविता सुनकर पढ़कर याद कर लेता है और बुरी को भूल जाता है । सोशल मीडिया के फैलाव को लेकर इंदिरा कहती है – अति सर्वत्र वर्जयेत । वो कहती हैं कि साहित्य में इतने अवसर आ गए हैं कि फेसबुक पर छपी कविताओं की किताब प्रकाशित हो चुकी है । उनका मानना है कि फेसबुक पर सक्रिय नए रचनाकार अपेक्षित मेहनत नहीं करते । सोशल मीडिया को इंदिरा एक बड़े अवसर के तौर पर भी देखती हैं । वो साफ तौर पर कहती हैं कि अगर हम बाजारवाद के बहकावे में आए बगैर सस्ती और फौरी लोकप्रियता, डिमांड और सप्लाई, पोर्न और पॉपुलर राइटिंग के फेरे में ना पड़े तो सोशल मीडिया कोई बुरी चीज नहीं है बरतने के लिए ।  

वंदना सिंह
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कहानी - सरकारी मदद आ रही है - इंदिरा दाँगी | Indira Dangi ki Kahani

इंदिरा दाँगी ने वर्तमान हिंदी कथाजगत से उस युवा कहानीकार की कमी पूरी की है जिसका लेखन न सिर्फ़ रोचक है बल्कि विषयों को अपने ख़ास-तरीके से पेश भी करता है। भोपाल में रह रही, दतिया, (म.प्र.) की इंदिरा दाँगी में एक अच्छी बात और दिखने में आती है कि वो अपनी कहानियों में जल्दबाज़ी करती नहीं दिखतीं। इंदिरा को यह समझ है कि उत्कृष्ट-लेखन उत्कृष्ट-समय मांगता है और उनका इस बात को समझना - पाठक को लम्बे अरसे तक उनके अच्छे उपन्यास, कहानियाँ आदि पढ़ने मिलने की उम्मीद देता है।  ~ सं० 

युवा लेखिका इंदिरा दांगी को 2015 के 'साहित्य अकादेमी युवा सम्मान' (हिंदी) की बधाई 

Indira Dangi Hindi Story: Sarkari Madad Aa Rahi Hai


सरकारी मदद आ रही है  

~ इंदिरा दाँगी


ऐन गर्मियों की जिस्म खरोंचती धूप है।

हरि ने एक दृष्टि मुख्यमंत्री निवास के उस विराट आँगन पर डाली। सैकड़ों परेशान लोग ... ईश्वर के दरबार में खड़े, अपनी समस्त इंद्रियों से याचक और निरीह उम्मीदवारों जैसे प्रार्थी। चौड़ी सड़क के दोनों ओर रस्सियों और पुलिसकर्मियों से बनी सीमारेखाओं से सटे खड़े सैकड़ों स्त्री पुरुष हाथों में अपनी व्यथाओं और प्रार्थनाओं के पत्र लिये मुख्य भवन की ओर आखिरी उम्मीद की तरह ताक रहे हैं।


‘‘सिपाही भईया, आज मुख्यमंत्री साहब जनता दरबार में आयेंगे ना?’’ - झंग डुकरिया ने धुंघला ऐनक और पोपला मुँह पोंछते हुये पूछा।

‘‘मुझे क्या पता!’’ - धूप में देर से खड़ा सिपाही खीजी हुई आवाज़ में बोला। ...  हिन्दुस्तान में सबसे ज़्यादा निरीह कर्मचारी पुलिस का सिपाही ही होता है जो किसी भी मारक मौसम, किसी भी मौत घाटी में निहत्था तैनात रहता है ; चंद सिक्कों जैसी तनख़्वाह के बदले में ।

ख़ैर, हरि तीन दिनों से इस जनता दरबार में आ रहा है; पर क़िस्मत की परी या तो नाराज़ है या उसे भूल गई है, पिछले तीन दिनों ही मुख्यमंत्री सरकार के पास जनता दरबार के लिये समय नहीं रहा। घण्टों कतार में तपकर वो अपनी बीमार बहन को लिये लौट जाता।

हरि ने गमछे से मुँह पोंछा और पैबंदों से भरी छतरी की अधूरी छाया में अर्धनिद्रा में लेटी-कराहती बड़ी बहन की ओर देखा।

‘‘पानी पिओगी जिज्जी?’’

जिज्जी ने हामी भरी और हरि प्लास्टिक की मटमैली बोतल का गर्म पानी पिलाने लगा। ‘‘बेटा, जे कौन है तुम्हारी?’’ - अगली उम्मीदवार बूढ़ी ने फटी-मैली धोती के पल्ले से सिर ढँकते हुये पूछा।

‘‘जिज्जी हैं मेरी।’’

‘‘बीमार हैं?’’

‘‘बहुत! तभी तो यहाँ आये हैं मदद की आस लेकर। हमारा गाँव यहाँ से पाँच सौ किलोमीटर दूर है!’’

‘‘बड़ी दूर से आये हो बेटा! ... मैं भी बड़ी दूर से आई हूँ। अकेली, रेल के डिब्बे में दरवाज़े के पास दो दिन बैठके यहाँ तक आ पाई हूँ। दो दिन से कछू खाने को भी नहीं मिला!’’ ‘‘मेरे पास सत्तू है। आओ खा लें। मैं भी भूखा हूँ सबेरे से।’’

वे सत्तू बाँटने लगे और अपने दर्द भी।

‘‘बेटे-बहू रोटी नहीं देते। मारपीट के घर से निकाल दिया है। पंचायत से निराश्रित विधवा वाली पेंशन भी नहीं दे रहे हैं। रिश्वत माँग रहे हैं। मैं ग़रीब कहाँ से दूँ रिश्वत? मज़ूरी अब बनती नहीं। भूख बर्दाश्त होती नहीं। बस भटक रही हूँ जब तक ज़िन्दा हूँ।’’

‘‘मैं भी बड़ा परेशान हूँ माई! जिज्जी को बहुत बड़ी बीमारी है। बहुत रुपये लगेंगे इलाज में। सरकारी मदद मिल जाये तो मेरी बहन के प्राण बच जायें! जिज्जी के सिवा कोऊ नहीं है अपना कहने को संसार में।’’

दो नितांत अपरिचित एक-दूसरे को ढाँढस बँधा रहे थे। ... आम आदमी सरल होता है। छिपाव और दिखावा तो रईसों के कारोबार हैं।

अचानक भीड़ में हलचल बढ़ गई। ... जनता दरबार में आ चुके मुख्यमंत्री के निकट पहुँचने के लिये गर्मायी भीड़ और उसे नियंत्रित करने की मशक्कत करते सुरक्षाकर्मी।

सूबे के हुक्मरान साहब सड़क किनारों पर खड़े याचकों के प्रार्थनापत्र लेते, मिनिट-दो मिनिट रुककर गिड़गिड़ाहट सुनते, प्रार्थनापत्र अधिकारियों को देते और अगले याचक की ओर बढ़ जाते।

कतार बड़ी लम्बी थी। पौन घण्टे की उतावली प्रतीक्षा के बाद देवदूत उसके सामने से गुज़रे। सूबे का वो आम रहवासी रस्सियों और सुरक्षाकर्मियों की सीमारेखायें तोड़ता मुख्यमंत्री के पैरों पर गिर पड़ा। पहरेदार उसे खींचकर अलग कर देते अगर इशारे से उन्हें रोक न दिया गया होता।

‘‘रोओ मत भाई। बताओ क्या समस्या है?’’

मुख्यमंत्री ने झुककर उसके कंधे पर हाथ रखा। काँपते हाथों से उसने अपना प्रार्थनापत्र बढ़ा दिया और हाथ जोड़े , डबडबाई आँखों से मुख्यमंत्री को ताकने लगा।

‘‘हूँअ, तो तुम्हारी बहन गंभीर रूप से बीमार है और उसके इलाज के लिये तुम्हें सरकारी मदद की ज़रूरत है।’’ - मुख्यमंत्री ने हरि के कंधे पर सांत्वना का हाथ रखा ; पत्रकारों ने खचाक से फ़ोटोज़ उतार लीं।

‘‘तुम चिन्ता मत करो। तुम्हारी बहन का इलाज ज़रूर होगा और इलाज का पूरा ख़र्च सरकार उठायेगी।’’

सी.एम. साहब ने प्रार्थनापत्र पर कुछ लिखा और सचिव को पकड़ाते हुये कहा,‘‘ जितनी जल्दी हो सके प्रार्थी को आर्थिक सहायता उपलब्ध करायी जाये।’’

हरि ने बहन को राजधानी के एक सरकारी अस्पताल के जनरल वार्ड में भर्ती करवा दिया और रोज़ मुख्यमंत्री निवास के अधिकारियों से शीघ्र मदद का निवेदन कर आने लगा। बीमार बहन को वो हिम्मत बँधाता,

‘‘मैं बड़ा चंट हूँ जिज्जी! मैने मुख्यमंत्री साहब के दफ्तर में इसी अस्पताल का पता लिखा दिया है। सरकारी मदद का रुपया सीधा यहीं आयेगा तुम्हारे पलंग पर। बस दो-चार दिनों में मदद मिल जायेगी और तुम्हारा आपरेशन हो जायेगा। फिर तुम पहले-सी मज़बूत-मुचन्डू हो जाओगी और मुझे पहले की ही तरह ख़ूब डाँटा करोगी कि अरे मूरख, कब तक मज़ूरी में हाथ घिसता रहेगा! कछू अपना काम-धंधा शुरू कर ले तो तेरा ब्याह भी हो जाये। बहू आये तो मुझे तेरे लिये सेर-सेर भर आटे की रोटियाँ बनाने से मुक्ति मिले!’’

वो इस नाटकीय ढंग से यह बात कहता कि बहन के पीड़ा से मुरझाये मुख पर फ़ीकी ख़ुशी तैर जाती।

दस दिन बीत गये हैं। एक दोपहर हरि को सरकारी चिट्ठी मिली कि मुख्यमंत्री ने उसकी बहन के इलाज के लिये स्वेच्छानुदान निधि से पचास हज़ार रुपये मंजूर किये हैं और राशि शीघ्र ही उसे भेजी जायेगी।

हरि की टूटती हिम्मत और क्षण-क्षण मौत की तरफ बढ़ रही बहन के लिये चिट्ठी संजीवनी थी। ग़रीब आदमी पूरे वार्ड में चिट्ठी दिखाता फिरा और अस्पताल परिसर में बने रामजानकी मंदिर में दो रुपये के चने-इलायचीदाने भी चढ़ा आया।

पन्द्रह दिन और बीत गये। हर दिन तीन किलोमीटर पैदल चलकर वो मुख्यमंत्री निवास जाता है और अधिकारियों से सरकारी मदद के लिये हाथ जोड़कर विनती कर आता है।

अब हरि के वे रुपये भी ख़र्च हो चुके जो गाँव में हर संभव जगह से कर्ज़ के तौर पर उठाये थे। वो चिन्ता में है। उसने झोपड़ी और मामूली गृहस्थी के बारे में ध्यान लगाकर सोचा पर ऐसा कुछ याद नहीं आया जिसे बेचकर कुछ और रुपयों का इंतज़ाम हो सके; और फिर पाँच सौ किलोमीटर दूर गाँव तक पहुँचने के लिये भी तो रुपये चाहिये! जेब में दो रुपये तक नहीं बचे ; जिज्जी के लिये कल दवाईयाँ नहीं ख़रीदीं तो बड़े डाॅक्टर साहब फिर चिल्लायेंगे।

बदबू और भीड़ से भरे जनरल वार्ड में बहन के पलंग के पास गंदे फर्श पर चिथड़ा चादर बिछाये लेटे हरि की आँखों में नींद नहीं है। पोटली खोलकर देखी, हांलाकि वो जानता था कि आटा तो कल रात ही ख़त्म हो चुका। आज दिन भर से वो भूखा है। रोज़ तो सामने वाली चक्की से आटा ख़रीद लाता था और अस्पताल परिसर में ईट के चार-छह टुकड़ों से बनाये चूल्हे में इधर-उधर की लकड़ियाँ डालकर मोटी रोटियाँ सेंककर खा लेता और अस्पताल की टँकी से बोतल में भरकर पानी पीता रहता। जिज्जी के खाने-पीने का भी यही इन्तज़ाम था; पर आज हरि के पूरे रुपये ख़त्म हो चुके। पोटली में जो मुट्ठी भर आटा था उससे तीन रोटियाँ बन सकीं और तीनों ही उसने बहन को खिला दी थीं ; और अब रात में उसे बड़ी भयंकर भूख लग रही थी।

वो उठ बैठा। सामने पीली दीवार पर टंगी पुरानी घड़ी रात के दो बजा रही थी। बोतल का पूरा पानी तो पहले ही पी चुका था। क्या करे अब? उसने पोटली से चिट्ठी निकाली जिसमें लिखा था कि उसकी बहन के इलाज के लिये पचास हज़ार रुपये की सरकारी मदद शीघ्र भेजी जायेगी। सात बार हरि ने उस चिट्ठी को पढ़ा; फिर ख़ुद को तसल्ली देता सो गया।

बड़े सबेरे जागा। जिज्जी के चेहरे पर सुकून अब केवल नींद में ही दिखता है। वो सोई हुई मरियम-सी बहन को निहारने लगा। माँ-बाप बनकर जिस बहन ने उसे पाला है; आज उसे दवाईयों की ज़रूरत है।

हरि अस्पताल से बाहर चला गया और देर शाम मिट्टी, धूल और पसीने मंे लथपथ लौटा। उसे देखते ही नर्स चीखी, ‘‘ऐ, तू कहाँ रहा आज दिन भर? पेशेन्ट को क्या हमारे भरोसे छोड़ गया था यहाँ? न इसके पास दवाईयाँ हैं न खाना। दिन भर से रो रही है बेचारी। अगर इसे मारना ही है तो ले जाओ यहाँ से। हम पर क्यों थोपना चाहते हो इस बीमार, भूखी औरत की मौत?’’

‘‘सिस्टर जी, कल से एक रुपया भी नहीं था जेब में ; मज़दूरी करने गया था। ये देखिये, सौ रुपये कमाये हैं। मैं अभी जिज्जी की दवाईयाँ और खाना लिये आता हूँ।’- चेहरे के पसीने को मैली आस्तीन से पोंछता वो फ़ुर्ती में मुड़ा।

‘‘ऐ सुन!’’- नर्स का लहज़ा कड़वा था - ‘‘ बड़े डाॅक्टर साहब बहुत नाराज़ हो रहे थे। अब से अगर तू पेशेन्ट को छोड़कर पूरे दिन के लिये गा़यब हुआ तो हम पेशेन्ट को अस्पताल से बाहर निकाल देंगे।’’


‘‘ठीक है सिस्टर जी, कल से हम मज़ूदरी पे नहीं जायेंगे।’’ कह तो दिया उसने ; पर अगली सुबह फिर हाथ में रुपये नहीं थे। जिज्जी के पैताने बैठा हरि झाडू लगाते वार्ड बाॅय को उदासी से देख रहा था। वो भूखा था।

‘‘भईया जी, तनिक सुनिये।’’- डरते-डरते वो वार्ड बाॅय के करीब गया।

‘‘क्या है बे ?’’

‘‘लाईये भईया जी, झाडू मैं लगाये देता हूँ।’’

‘‘अबे तू क्यों लगायेगा झाडू? मेरा काम है, मैं कर लूँगा। चल भाग यहाँ से!’’

‘‘भईया जी, मैं बड़ी सफाई से झाडू लगाऊँगा, एकदम चकाचक। बदले में आप मुझे पाँच रुपये दे देना। चार भी दोगे तो चलेगा।’’

वार्डबाॅय ने एक पल को उसके प्रार्थना भरे चेहरे की तरफ़ देखा; फिर झाडू पकड़ा दी। हरि ने पूरे वार्ड को अच्छी तरह बुहारा जिसके एवज़ में उसे पाँच रुपये मिले जिससे उसने दो कप चाय ख़रीदी, एक अपनी बहन के लिये, दूसरी अपने लिये। दो दिन बाद उसे चाय पीने को मिली थी। चेहरे पर ऐसी तृप्ति दिख रही थी जैसे सत्यनारायण कथा का प्रसाद पा लिया हो।

‘‘ऐ सुन!’’- वार्ड बाॅय ने पुकारा।

‘‘हाँ, भईया जी।’’ - वो भूखे बच्चे की तरह लपका। ‘‘तेरे पास एक भी रुपया नहीं बचा क्या?’’

‘‘नहीं भईया जी, तभी तो कल मज़दूरी को गया था ; पर नर्स बहनजी ने कहा है कि अब अगर पूरे दिन के लिये कहीं गया तो जिज्जी को अस्पताल से बाहर कर देंगी।’’

‘‘वो छिनाल तो है ही ऐसी; डाॅक्टर साहब की लौंडी! ग़रीब आदमी की भूख और कष्ट उसकी समझ में नहीं आते; पर मैं तेरी मदद कर सकता हूँ। तेरे खाने-पीने का इन्तज़ाम हो सकता है।’’ ‘‘आपका बड़ा उपकार होगा भईया जी।’’

‘‘उपकार-वुपकार कुछ नहीं, पूरा एक हफ्ता तुझे अस्पताल के काम करने होंगे वो भी डाॅक्टर लोग की नज़रें बचाके। ये डाॅक्टर भी ना ... ख़ुद तो सरकारी दवाईयाँ चुरा-चुराकर बेचते हैं। प्रायवेट प्रैक्टिस करते हैं। मेडीकल वालों से कमीशन खाते हैं और हम ग़रीब कर्मचारियों को नियमों के नाम पर लताड़ते हैं!’’

‘‘भईया जी, आप खाने-पीने के इन्तज़ाम के बारे में कुछ कह रहे थे!’’

‘‘हाँ, यहाँ अस्पताल से बाहर सड़क के दाँये मोड़ से सीधे जाकर बाँये मुड़ते ही एक ख़ैराती सोसायटी है जहाँ सुबह-शाम ग़रीबों को मु़फ्त खाना मिलता है। तू वहाँ से खाना ले आया कर। आधा ख़ुद खाया कर और आधा अपनी बहन को खिलाया कर।’’

‘‘मैं जीवन भर आपको दुआयें दूँगा भईया जी। विपदा की इस घड़ी में आपने देवता की तरह आकर मुझ ग़रीब को उबारा है!’’

‘‘ठीक है। ठीक है ; पर तू वो अस्पताल के काम वाली बात मत भूलना।’’

अब हरि सुबह-शाम उस ख़ैराती संस्था के बाहर भिखारियों, ग़रीबों और ज़रूरतमंदों की लम्बी कतार में खड़ा रहता और डेढ़-दो घण्टे इंतज़ार के बाद उसे खाना मिल जाता। नमकीन पानी जैसी दाल, चमड़े-सी रोटियाँ और कंकड़ मिले मोटे चावल वो भी सिर्फ एक आदमी का पेट भरने लायक। आधा खाना वो वहीं खा लेता और बाकी आधा बहन के लिये ले आता।

पेट तो जैसे-तैसे भर रहा था पर जिज्जी की दवाईयाँ? जिज्जी के बदन पर चाँदी के जो दो-चार आख़िरी जेवर थे, वे भी बिक गये ; चलो, कुछ दिनों की दवाईयों का इन्तज़ाम तो हुआ!

हरि सुबह-शाम मु़फ्त भोजन की कतार में खड़ा होता। हर दोपहर मुख्यमंत्री निवास के अधिकारियों के सामने शीघ्र मदद के लिये गिड़गिड़ाता और जब मरीज असहनीय पीड़ा से कराहने लगती, पोटली से निकालकर मुख्यमंत्री की चिट्ठी ऊँचे और विश्वास भरे स्वर में पढ़कर सुनाता। भाई-बहन दोनों को आशा थी कि चिट्ठी आई है तो सरकारी मदद भी जल्दी ही आ जायेगी।

बारह दिन और बीत गये। बेचने को कुछ नहीं बचा। दो दिनों से हरि की बहन बिना दवाईयों के कराह रही है। डाॅक्टर दवा लाने या पेशेन्ट को अस्पताल से ले जाने के लिये कई बार कह चुके थे।

वो अस्पताल के बाहर बैठा राख मन से, चौराहे की चहल पहल देख रहा है। रमजान के दिन हैं। चौराहे के एक ओर टेंट में रोजा इफ्तार की दावत चल रही है। हरि को बहुत दिनों से पेट भर खाना नहीं मिला। अच्छे भोजन का स्वाद कैसा होता है, वो भूलने लगा है। ... इस समय दिमाग में सिर्फ भूख है।

हरि ने हिम्मत बटोरी और टेंट के बाहर खड़े बदबूदार भिखारी दल में जा मिला। स्वादिष्ट ख़ुशबू की तेज़ गंध में मज़दूर से भिखारी हो जाने का कष्ट दबता जा रहा था ... दबता जा रहा था !

ज़्ाकात में दो मुट्ठी भजिये और तीन केले मिले; बहुत दिनों बाद खाने को कुछ स्वादिष्ट था। वो सड़क किनारे उकडूँ बैठकर खाने लगा। मन में पश्चाताप और दुख था। आँखों से आँसू बह रहे थे। उसने जेब से मुख्यमंत्री की चिट्ठी निकालकर पढ़ी और शेष बचे मुट्ठी भर भजिये और दो केले अपने गमछे में बाँधकर अस्पताल लौट आया।

जिज्जी को गहरी नींद सोते देखना हरि को अच्छा लगा। पिछले दो दिनों से बिना दवाईयों के उसकी बहन दिन-रात कराहती रही थी। लगता है अब ज़रा आराम मिला है। हरि ने गमछा जिज्जी के सिरहाने रख दिया। जब उठेंगी तो वो उन्हें बतायेगा कि वो उनके लिये भजिया और केले ख़रीदकर लाया है।

हरि जिज्जी के पैताने बैठ गया और जेब से मुख्यमंत्री की चिट्ठी निकालकर पढ़ने लगा। भिखारी बन चुके मज़दूर का मन बेहद व्यथित है ; कितने दिन हो गये यहाँ पड़े-पड़े! कब आयेगी सरकारी मदद? कब होगा जिज्जी का आपरेशन? कब लौट पायेंगे वे अपने गाँव?

वो देर तक, उदास बैठा, शून्य में ताकता रहा। अचानक उसे ध्यान आया कि जिज्जी को सोये बहुत देर हो गई है और वे भूखी होंगी।

‘‘उठो जिज्जी, कुछ खा लो फिर सो जाना। तनिक देखो तो, क्या लाया हूँ मैं ! ... जिज्जी!!’’

तीन-चार बार उसने बहन का हाथ हिलाया, आवाज़ें दीं फिर ग़ौर से देखने लगा; बहन के मुख पर मंदिर की प्रतिमाओं जैसी शांति थी। रोआँ-रोआँ मरती देह के चरम कष्ट से छूटकर वो मुक्त अप्सरा हो गई थी।

अनिष्ट की आशंका से रोआँसा होकर वो अपनी बहन को झिझोड़ने लगा।

तभी बड़े डाॅक्टर साहब के साथ दो-तीन अधिकारीनुमा लोग वहाँ आ गये।

‘‘हरिप्रसाद तुम्हारा ही नाम है? तुमने अपनी बहन के इलाज के लिये मुख्यमंत्री के यहाँ आवेदन दिया था?’’

... अरे, पर ये तो हरि नहीं है, ये तो पत्थर का बुत है!

डाॅक्टर ने आगे बढ़कर पेशेन्ट की नब्ज़ देखी।

‘‘शी इज़ नो मोर।’’ - डाॅक्टर ने अधिकारी को बताया।

‘‘क्या??’’ - आम आदमी की तरह अधिकारी पल भर के लिये चैंका फिर अगले ही पल संभलते हुये पुनः प्रशासनिक अधिकारी बन गया।

‘‘ओह! तब तो, इसके इलाज के लिये सरकारी मदद का जो चौक हम लाये हैं, उसे वापस ले जाना होगा!’’


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कहानी - पैमाने: इंदिरा दाँगी | Kahani 'Paimane' by Indira Dangi


ये साहित्य वाले बड़े पहुँचे हुए पीर होते हैं — सामने लाख गले लगायें अपने साथ वालों को, पीठ पीछे अमूमन उतारेंगे ही उनकी... इंदिरा दाँगी (कहानी - पैमाने)

राजनीति की काली-अँधेरी घुसपैठ से कुछ अछूता नहीं है. हमारी चर्चाओं का विषय भी इन्ही के इर्दगिर्द होता है.... ये राजनीतियाँ जितनी ज्यादा अँधेरी होती हैं उतनी ही ज्यादा इनकी गहराई... और उनकी थाह ढूंढते हम - बम्बई की लोकल ट्रेन हो या दिल्ली की मेट्रो, कलकत्ता का 'अड्डा' हो या भोपाल की कोई महफ़िल, . बहरहाल...

साहित्य अपना कर्तव्य निभाता है  और ऐसी तमाम बातें जो किसी पत्र-पत्रिका-अखबार में अपने काले-अँधेरे-चोर-चोर-मौसेरे-भाईपने के चलते नहीं छप पातीं, उन्हें हम तक पहुंचा देता है. 
                      साहित्य....!!! अब यहाँ का संसार भला कैसे इन अंधेरों से बचा रह सकता है? लेकिन बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे जब बिल्ले-बिल्लियाँ ही ज्यादा हों? 
इंदिरा दाँगी की कहानी ''पैमाने'' पढ़ने के बाद आपको भी शायद मेरी तरह सुकून आये - कि घंटी बाँधने वाले भी हैं....

आपका 
भरत तिवारी

कहानी - पैमाने  

इंदिरा दाँगी

हिदी साहित्य की राजनीति पर इंदिरा दाँगी की कहानी Indira Dangi ki Kahani


भीतर मीटिंग से पहले वाली मीटिंग चल रही है:

स्याह रेशम परदों वाले नेपथ्य ने रक्त— लाल रंग की सोफ़ा कुर्सियों की चमक कुछ और गहरा दी है।

बड़े अधिकारी श्रीवास्तव ने छोटे अधिकारी मल्होत्रा से कहा,


‘‘मल्होत्रा, ये लिस्ट है, ‘दीप कौन जलायेगा’ से लेकर ‘आभार कौन व्यक्त करेगा’ तक।’’

‘‘लेकिन सर, ये तो आज की इस मीटिंग में तय होना था। लेखकों के सलाहकार मंडल ने रचना पाठ कार्यक्रम के लिए जो नाम भेजे हैं, उन पर चर्चा...’’

‘‘वो भी कर लेंगे, पर फ़ायनल लिस्ट यही है; सुपर बॉस के घर से आई है।’’

‘‘घर से??’’

‘‘तुम भी न मल्होत्रा, एकदम ही कोरे हो! ...मेरे भतीजे के साले न होते तो मैं भी तुम्हें ये सब न समझा रहा होता। परीक्षा पास करके अभी— अभी अधिकारी बने हो ना, अधिकारीपन सीखने में समय लगेगा!’’
‘‘मैं समझा नहीं सर!’’
‘‘यही तो चीज़ है अधिकारीपन कि हम सबकी समझें, हमको कोई समझने न पाये!’’


‘‘हाँ, तो और नहीं! तुम्हें पता नहीं हमारे सर कितने बड़े वाले साहित्यकार हैं। सबेरे मुझे घर बुलाया था, लुंगी-बनियान में बैठकर उन्होंने ये लिस्ट बनाई है। जो-जो पत्रिकायें उनकी रचनायें छापती हैं, जो-जो संस्थायें उन्हें अवार्ड— रिवार्ड देती हैं, जो-जो राइटर, एडीटर उनके ग्रुप के हैं...’’

‘‘फिर सर, बचा ही क्या मीटिंग करने को! अब ज़रा दिखाईये तो, बिग बॉस ने क्या कार्यक्रम बना डाला है! मुख्य अतिथि क्या ख़ुद ही बन गये हैं?’’

‘‘तुम भी न मल्होत्रा, एकदम ही कोरे हो! ...मेरे भतीजे के साले न होते तो मैं भी तुम्हें ये सब न समझा रहा होता। परीक्षा पास करके अभी— अभी अधिकारी बने हो ना, अधिकारीपन सीखने में समय लगेगा!’’

‘‘मैं समझा नहीं सर!’’

‘‘यही तो चीज़ है अधिकारीपन कि हम सबकी समझें, हमको कोई समझने न पाये!’’

‘‘मतलब इस कार्यक्रम में सुपर बॉस का नाम नहीं है?’’

‘‘है भी और नहीं भी!’’

‘‘मतलब?’’

‘‘मतलब ये कि सुपर बॉस कार्यक्रम के अंत में बोलेंगे — आउट ऑफ़ रिकार्ड! इस बात का ध्यान रखना मल्होत्रा कि बाक़ी सब वक्ताओं को जल्दी-जल्दी उतारना पड़ेगा माइक से ताकि सुपर बॉस को तसल्ली से वक़्त मिल सके। आजकल वे उसी स्पीच की तैयारी कर रहे हैं। मुझे कुछ रफ़ लिखा हुआ दिखाया भी था।’’


13 फ़रवरी, 1980 को जन्मीं इंदिरा दाँगी ने वर्तमान हिंदी कथाजगत से उस युवा कहानीकार की कमी पूरी की है जिसका लेखन न सिर्फ़ रोचक है बल्कि विषयों को अपने ख़ास-तरीके से पेश भी करता है। भोपाल में रह रही, दतिया, (म.प्र.) की इंदिरा दाँगी में एक अच्छी बात और दिखने में आती है कि वो अपनी कहानियों में जल्दबाज़ी करती नहीं दिखतीं। हिन्दी साहित्य में एम.ए., इंदिरा को यह समझ है कि उत्कृष्ट-लेखन उत्कृष्ट-समय मांगता है और उनका इस बात को समझना - पाठक को लम्बे अरसे तक उनके अच्छे उपन्यास, कहानियाँ आदि पढ़ने मिलने की उम्मीद देता है।  

इंदिरा की तीन पुस्तकें प्रकाशित हैं 1. एक सौ पचास प्रेमिकाएं (कथासंग्रह, राजकमल प्रकाशन, वर्ष 2013) 2. हवेली सनातनपुर (उपन्यास, भारतीय ज्ञानपीठ, 2014) और 3.शुक्रिया इमरान साहब (कथासंग्रह, सामयिक प्रकाशन, 2015) उनकी कहानियों का अंग्रेज़ी, उर्दू, मलयालम, उड़िया, तेलगू संथाली, कन्नड़ एवं मराठी में अनुवाद भी हो चुका है।

भारतीय ज्ञानपीठ नवलेखन अनुशंसा-पुरस्कार (2013), वागीश्वरी पुरस्कार (2013), कलमकार कहानी पुरस्कार (2014), रमाकांत स्मृति पुरस्कार (2013), रामजी महाजन राज्य सेवा पुरस्कार (2010), सावित्री बाई फुले राज्य सेवा पुरस्कार (2011) एवं अन्य कई पुरस्कारों से सम्मानित इंदिरा आजकल अपने उपन्यास ‘रपटीले राजपथ’ को अंतिम रूप देने में व्यस्त हैं.

सम्पर्क
इंदिरा दांगी
खेड़ापति हनुमान मंदिर के पास,
लाऊखेड़ी, एयरपोर्ट रोड,
भोपाल म.प्र.462030
ईमेल: indiradangi13@gmail.com
मोबाईल: 08109352499

‘‘बोलेंगे ही तो फिर नाम ही क्यों नहीं डाल देते डिस्पले पर?’’

‘‘ऐसे कैसे? मीडिया वाली पारदर्शी इमेज पर असर न पड़ जायेगा! न हुआ मानदेय, बाक़ी तो सब ज्यों का त्यों है।’’

‘‘फिर आज की मीटिंग में हमें क्या करना है?’’

‘‘करना क्या है — मीटिंग, और क्या?’’

दोनों सम्मिलित हँसे।

‘‘करना सब क़ायदे से ही है मल्होत्रा। सबकी बात पूरे सम्मान से सुननी है; बीच— बीच में कुछ नोट भी करते जाना है। और हाँ, ज्यूरी के सब राइटर लोगों से बाद में पर्सनली पूछ लेना है कि फ्रेशर्स में किस— किस को बुलाना है, पाठ के लिए। हर एक से एक-एक नाम ले लेना, पर इतनी गोपनीयता बरतना कि उन्हें एक— दूसरे के दिए नामों की ख़बर न हो; ये साहित्य वाले बड़े पहुँचे हुए पीर होते हैं — सामने लाख गले लगायें अपने साथ वालों को, पीठ पीछे अमूमन उतारेंगे ही उनकी।’’

‘‘पर सर, इतना भी करने की क्या ज़रूरत है, पूरा कार्यक्रम तो तैयार हो चुका।’’

‘‘ये ज़रा-ज़रा लालीपॉप्स नहीं पकड़ायेंगे ना तो बाद में...’’

‘‘फ़ोटो दीर्घा में सबसे प्रमुख वक्ता के तौर पर अपना फ़ोटो कैसे पिन करवा पायेंगे सुपर बॉस! ...मेरी मानिए सर, आप भी लिखने-उखने जैसा कुछ करने लगिये। इस विभाग में और कुछ धरा नहीं है। — अलबत्ता लेखक ज़रूर अंतर्राष्ट्रीय बना जा सकता है।’’

वे फिर हँसे।

‘‘अरे, मज़ाक नहीं; अभी पिछले हफ़्ते ही मेरी पहली कविता छपी है। मैं तुम्हें बताना भूल गया, एडीटर साहब ने ख़ुद फ़ोन करके बधाई दी मुझे। कह रहे थे कि मैं आपकी तारीफ़ इसलिए नहीं कर रहा हूँ क्योंकि आप इतनी महत्वपूर्ण जगह बैठे हैं; आप वाकई बहुत बढ़िया कवि हैं। आज जो भी लोग लिख रहे हैं, उनके बीच एक अलग तरह का क्राफ़्ट हैं आप! — एक स्पार्क है आपकी कविता में!’’ 

— श्रीवास्तव साहब संपादक के शब्दों को दोहराते आत्मरति में खो गये जैसे।

‘‘तो सर आपके इन एडीटर साहब का नाम लिख लें ना —वो लघु पत्रिकाओं वाले सम्मेलन के लिए ?’’

‘‘मल्होत्रा, तुम बहुत बड़े अफ़सर बनोगे किसी रोज़ !’’

अधिकारियों के चेहरों पर मीटिंग सम्पन्न कर देने वाली विजयी मुस्कान है — मीटिंग शुरू होने से पहले ही।

रेल्वे स्टेशन के बाहर से बस पकड़कर वो सीधा ही चला आ रहा है:

हिन्दुस्तान हाउस !

साहित्यवालों का मक्का ! कितनी ही राष्ट्रीय— अन्तर्राष्ट्रीय गौरव— गर्व उपलब्धियाँ छपा करती हैं अख़बारों में इसकी। असल-नकल, अफ़सर-भुख़मरा, गृहशोभा—यायावर, इस मुल्क का कौन ऐसा साहित्यकार है जो यहाँ रचना-पाठ कर धन्य न हुआ फिरे! फ़ेसबुक वालों ने फ़ेसबुक पर, ट्विटर वालों ने ट्विटर पर; और आधुनिकता में ना— कुछ वालों ने अपने बैठकखानों में, पाठ में खिंची अपनी तस्वीर येऽऽ बड़ी करवाकर सजा रखी है, जिस पर बाद में बेटे-पोते माला-धूप करेंगे और बहुओं-नतबहुओं की महरियाँ जब झाड़न का फटका मारेंगी तो वे पीढ़ीगत् गर्व से टोकेंगे,

‘‘सम्हाल के! हिन्दुस्तान हाउस में पाठ करने की फ़ोटू है!’’

तेईस साला नौजवान लेखक गोवर्धन का रोयाँ-रोयाँ रोमांच से अभिभूत है — विशाल प्रांगण में कलाकृति-सी इमारत जैसे अनंत समुद्र तट पर सुदर्षन पटनायक ने रेत का कॉसिल रच दिया हो। लेखक लड़के ने मुख्य लौह-फ़ाटक के सामने की धूल उँगलियों से छूकर माथे पर लगा ली — जैसे भभूत!

बगल सुरक्षा-कोठरी का एक गार्ड तिरछा मुस्कुराया,

‘‘नये-नये साहित्यकार हो क्या भाई?’’

गोवर्धन उत्साह से उधर को लपका; जैसे उस गार्ड का भी कोई सिफ़ारिशी महत्व हो!

‘‘हमारा नाम गोवर्धन गजभिए है। ग्राम सनातनपुर ज़िला दतिया से आये हैं। कहानीकार हैं। ये आवेदन देना है; यहाँ रचनापाठ में आना चाहते हैं। हमें तीन अवार्ड...’’

‘‘फिर जल्दी जाओ; अभी बड़े साहब सीट पर हैं।’’

हथेली पर खैनी फटकते वर्दीधारी गार्ड ने कहा तो अध-निकला आवेदन झोले में वापिस रखता नौजवान आगे बढ़ गया,

‘‘लौटकर तुम लोगों को चाय पिलवायेंगे भईया।’’

पीछे से, गार्ड्स मुस्कुराये — उसके आवेदन और भोलेपन दोनों पर।

लेखक लड़के के पैर जैसे ज़मीन पर नहीं, स्वर्ग की सीढ़ियों पर हैं:


— कितना सुंदर हिन्दुस्तान हाउस !!

— कितने रंग-रौनकदार अंग्रेज़ी फूल !

— कैसे अजब-अजब तराशे पत्थर शिल्प!

— कैसी शीतल-शांत हवा: कैसा विनम्र मौसम! — जैसे बाअदब हो इस कला निकेतन की शान में !

मुग्ध लड़के को तभी ध्यान आया — बड़े अधिकारी अभी सीट पर हैं! 

उसने सीधी राह कार्यालय की पकड़ी।

‘‘ऐ, किधर जाना है?’’ — चपरासी ने उसकी कुर्ता-पायजामा-झोला वेषभूशा और चेहरे के गँवई सीधेपन को देख रोब-दाब से पूछा।

‘‘हमें बड़े अधिकारी साहब से मिलना है, हम गोवर्धन गजभिए, कहानी लिखते हैं। ग्राम सनातनपुर ज़िला दतिया से आये हैं। यहाँ रचना पाठ...’’

‘‘उधर!’’ — चपरासी ने उँगली टेड़ी की,

‘‘छोटे सर उधर बैठते हैं; बड़े सर सबसे नहीं मिलते।’’

छोटे सर के केबिन में अपने नाम को काग़ज़ के पुरज़े पर लिख भेजने के पैंतीस मिनिट बाद तक वो अपने को बुलाये जाने का इन्तज़ार कर रहा है,

‘‘बड़ी व्यस्तता है यहाँ! सही बात है, इत्ता नामी संस्थान चलाना कोई हँसी थोड़े ही है!’’

उसने सामने वाले केबिन के चपरासी की ओर देखकर कहा; पर चपरासी का ध्यान न जाने किस ओर था।

अब उसे केबिन में जाने की आज्ञा हुई।

क्या चपरासी ने अपने मन से ही उसे बुला भेजा भीतर; छोटे अधिकारी साहब तो दीवार पर चिपकी टी.वी. पर मैच देख रहे हैं।

— दिल ने ख़ुद को मज़बूत किया!

‘‘नमस्ते सर। हमारा नाम...’’

हाथ जोड़े नमन कर रहे लेखक को अनदेखे, इशारे से चुप कराते छोटे सर कुर्सी पर आराम-मुद्रा में मैच-लीन हैं,

‘‘वाह! वाह! क्या शॉट मारा है! जियो मास्टर ब्लास्टर!’’

वो एक ओर को खड़ा हो गया। 

ये तो कल के मैच की हाईलाइट्स हैं!!

— दिल तो भी विनम्र रहा।

दस मिनिट बाद जब अगला कार्यक्रम चल पड़ा, छोटे अधिकारी की रिवाल्विंग कुर्सी का रुख सीधा हुआ। वो अपने बदन में सावधान-सा तन गया। चेहरे पर राई भर भी आहत भाव नहीं ...अभिनय सिर्फ़ मंचों पर नहीं होता!

आवेदन अधिकारी के सामने रख वो ऐसे बोलने लगा जैसा मासूम बच्चा अपनी सर्वश्रेष्ठ कविता सुना रहा हो,

‘‘नमस्ते सर। हम गोवर्धन गजभिए, ग्राम सनातनपुर ज़िला दतिया से आये हैं। कहानीकार हैं सर। कहानी के लिए ज़िला लेखक संघ से हमें अवार्ड मिला है — कोंपल कहानी पुरस्कार। दूसरा अवार्ड कॉलेज की तरफ़ से इंटरस्टेट स्टोरी राइटिंग कॉम्प्टीशन में प्रथम...’’

बमुश्किल आधा मिनिट! ...आधा मिनिट भर देखा-सुना अधिकारी ने उसे और उसके आवेदन को; फिर एक मोटी फ़ाइल अपने आगे कर ली,

‘‘हम सिर्फ़ बड़े साहित्यकारों को ही पाठ के लिए आमंत्रित करते हैं।’’

अब दिल उसका दरकने लगा; पिताजी से रेल-किराये के रुपये माँगे थे तो यक़ीन दिलाकर — हिन्दुस्तान हाउस को रक्षक-माली संस्थान समझिए बाऊजी, जो नन्हे प्रतिभाशाली पौधों को दोनों हथेलियाँ लगाकर बढ़ने का मौक़ा देता है। बस, एक बार जाकर मिलने की देर है। एक बड़े रचनाकार के इंटरव्यू में छपा है कि उन्होंने अपनी तीसरी ही कहानी हिन्दुस्तान हाउस में पढ़ी थी जिससे आगे उनके कॅरियर की राह रोशन हुई।

लेखक लड़के का दिल टूट रहा है ...कोंपल पर उँगली उठाता माली!

नहीं ! इतनी जल्दबाज़ी नहीं — न कहानी में, न ज़िन्दगी में! वो और दो मिनिट चुपचाप खड़ा रहा — कुछ बेहतर की आस में।

अंततः अधिकारी ने फ़ाइल पर से नज़र ऊँची कर कहा,

‘‘देखो लड़के, तुम अपने गाँव-क़स्बे में ज़रूर होओगे साहित्यकार लेकिन यहाँ रचनापाठ करने के लिए साहित्यकार का नाम बड़ा होना चाहिए। हिन्दुस्तान हाउस के मंच पर रचना पढ़ना तुम्हारे इन कस्बाती-कॉलेजी अवार्डों से बहुत-बहुत ऊँची बात है!’’

‘‘लेकिन सर, हमने तो सुना है कि यहाँ नवोदित रचनाकारों को भी अवसर, प्रोत्साहन...’’

‘‘वो पहले के स्टाफ़ के समय प्रावधान रहा होगा, अब नहीं है।’’

‘‘जी सर, पर एक निवेदन...’’

फिर चल गई टी.वी. की ऊँची आवाज़ में, अपनी टूट गई बात और लौटा दिये गये आवेदन को समेट वो बाहर निकल आया,

‘‘बैठने तक को नहीं कहा!’’

नम पड़ते दिल को उसने भरसक आपे में रखा। इस महान परिसर में पहला आगमन है; दिल की नमी आँखों तक न आने पाये।

                                   

कुछ देर इधर-उधर घूमा: ...अंग्रेज़ी फूल-पौधे, ...पेंटिग्स, ...किताबें, ...साहित्यकारों के धरोहरी दस्तावेज़। बुझे दिल को सम्हालता जब वो लौटकर जाने लगा, झोले में से फ़ोटो कैमरा निकालकर गार्ड से ख़ुद की एक फ़ोटो खिंचवाई, हिन्दुस्तान हाउस की परिचय पट्टिका के पास मुस्कुराते हुए।

और चाय के लिए दस का नोट देते हुए कहा,

‘‘तुम लोग भाग्यशाली हो भईया!’’

रेल-सफ़र में एक नदी-पुल पर से उसने आवेदन के टुकड़े हवा में विसर्जित कर दिए। दिमाग़ में छोटे अधिकारी के शब्द हैं 

— सिर्फ़ बड़े साहित्यकार!

पाँच बरस बीत गए हैं।

तेईस का गोवर्धन अब अट्ठाईस का हो चुका — एम.ए., पी.एच.डी. डॉ. गोवर्धन गजभिए।

‘‘प्रायवेट कॉलेज में ही पढ़ाना मिल रहा है तो यहीं दतिया में ही पढ़ा लो; इत्ते दूर शहर क्यों जाना बेटा?’’

बाऊजी ने कहा था; पर वो अपने बीवी-बच्चे लिए मँहगे राजधानी-शहर को निकल चला,

— वहाँ हिन्दुस्तान हाउस है ना!

इस दफ़ा हाथ में झोला-आवेदन नहीं; उपलब्धि-कतरनों की मोटी फ़ाइल है।

सिर्फ़ बड़े साहित्यकार! — वाक्यांश उसे सदैव याद रहा और पिछले इतने सालों में मामूली-से-मामूली से लेकर मुख्य-से-मुख्य पत्र-पत्रिकाओं में उसकी रचनायें छपी हैं — सब हिसाब हाथ में है। फिर हिसाब की बात क्या है; अरे, इतना नाम तो कमा ही लिया है; अब कुर्सी-चाय की तो ज़रूर ही पूछेंगे अधिकारी साहब लोग!

छोटे अधिकारी साहब अपने केबिन में नहीं मिले। बडे़ साहब के केबिन में बैठे हैं। पाँच साल में कमाया साहित्यिक सुयश सरकारी कार्यालय की धूल में मिल गया लगा उसे; जब चपरासी ने उसे उधर को जाने नहीं दिया। असिस्टेंट प्रोफ़ेसर गजभिए ने ज़ेब से पचास का नोट निकाला जिसने पाँच साला साहित्यिक प्रतिष्ठा के मुक़ाबिल कहीं ज़्यादा प्रभावित किया सरकारी चपरासी को।

‘‘देखो भाई, आज बड़ी मीटिंग होनी है यहाँ; छोटे सर और बड़े सर उसी की तैयारी कर रहे हैं भीतर। तुम भले ही बाहर बैठ कर इन्तज़ार कर लो मगर बड़े सर के पास तुमसे मिलने की फुर्सत होगी भी या नहीं, ये तुम्हारा भाग्य!’’

और अपने भाग्य के साथ, बड़े अधिकारी के केबिन-दरवाज़े के किनारे बैंच पर आ बैठा है वो। भीतर ऊँचे कहकहे हैं जो खिड़की के ब्लाइण्ड्स से छनकर बाहर तक आ रहे हैं। 

भीतर मीटिंग से पहले वाली मीटिंग चल रही है:

उध्र्वकर्ण हो सुना; कोई दिलचस्प वार्तालाप लगता है:

‘‘इस कवियत्री के पिछले फ़ोटो को देखकर तुम क्या तो कह रहे थे उस दिन कष्यप?’’ — बड़े अधिकारी चौहान ने एक साहित्यिक पन्ने पर दूर से उचटती-सी नजर डालते हुए बहुत संयमित आवाज़ में चर्चा छेड़ी छोटे अधिकारी कष्यप से।

कष्यप ने उतने ही आनंदित स्वर में उत्तर दिया, 

‘‘फ़ोटो में तो पूरी हीरोइन लगती है। हर कविता के साथ नया फ़ोटो-सद्यस्नाता से लेकर दुल्हन जैसी तक!

विद्यापति की पंक्तियाँ सुना रहा था मैं उस दिन,

कामिनी करए सनाने,

हेरति हृदय हनय पच बाने !’’

‘‘क्या बात है! अगर तुम्हारे विद्यापति आज होते तो हम उन्हें भी पाठ में बुला लेते!’’ अधिकारी साहब एक विशिष्ट अर्थ में मुस्कुराये।

‘‘अरे सर, विद्यापति न सही, ये कवियत्री तो हैं; बिल्कुल बुलाये लेते हैं लेकिन मेरा दावा मानिये, निकलेगी ये इन फ़ोटुओं से पाँच-आठ साल बूढ़ी ही!’’

‘‘सो कैसे दावा कर रहे हो?’’

‘‘सर, आप तो यहाँ से पहले मवेशी विभाग के हेड थे। लिट्रेचर वालों से वहाँ कहाँ वास्ता रहा होगा आपका! — जो साहित्यकारायें अपनी उम्र वाला सन् नहीं लिखतीं ना परिचय में... अरे सर, बड़े दिनों से मैं यहाँ हूँ। सिवाय लेखक-लेखिकाओं के यहाँ आता ही कौन हैं।’’

‘‘तो भी बुरी नहीं होगी तुम्हारी ये कवियत्री! क्या तो लिखती है — ग़ज़ब! मैं कल मंत्रालय गया था; बिग बॉस ने भी पढ़ रखी है इसकी वो बड़ी चर्चित कविता। क्या तो शीर्षक है उसका...’’

‘‘बिस्तर!’’ 

‘‘हाँआँ, ऐसा ही कुछ! ...कष्यप, इसे अगले महीने होने वाले राष्ट्रीय युवा पाठ में बुला ही लो।’’

‘‘जी सर।’’

‘‘और हाँ, बिग बॉस ने बोला है मार्च से पहले पूरा बजट ख़त्म करना है। इस कार्यक्रम में कितना ख़र्च हो सकता है?’’

‘‘जितना आप कहें सर! कहें तो पूरा ही! हम सब मशहूर हस्तियों को बुलाये लेते हैं। लिस्ट मैं घर से बनाकर ले आया हूँ; पद्मश्री और पद्म भूषण वाले ही तो देख लीजिए कितने नाम हैं! होटल तो वही है अपना हर बार का — शानदार। आपकी वाली कवियत्री को पाँच सितारा में रुका देंगे!’’

‘‘कष्यप!!’’

‘‘सॉरी सर, मेरा मतलब था आमंत्रित सभी लेखकों को अबकी पाँच सितारा में रुका देंगे।’’

‘‘बस, यही कार्यक्रम रहेगा कुल?’’ 

‘‘अरे सर, राइटरों को भ्रमण पर भी तो ले जायेंगे। इस बार तीन दिन की ट्रिप बनाये लेते हैं।’’ 

‘‘तुम्हारी यही बात अच्छी लगती है कष्यप! बिना बताये ही सब सही-सही कर देते हो!’’

‘‘क्योंकि सब अधिकारियों के मन एक ही जैसे होते हैं सर! वैसेऽ एक बात है सर...!’’

‘‘हाँ हाँ, ज़रूर कहो! तैयारियों में कोई कसर नहीं रह जानी चाहिए।’’

‘‘सर, इन कवियत्री मैडम से पहले ही पूछना पड़ेगा कि ये कहीं अपने पति-परिवार को तो साथ नहीं लिये आ रही हैं?’’

‘‘हैं ?? ऐसा भी होता है?’’

‘‘साहित्य में कैसा-कैसा नहीं होता सर? ख़ैर, उसकी कोई चिंता नहीं है; एक नई लेखिका भी है; आजकल मेन स्ट्रीम की पत्रिकाओं में छाई हुई है। और यहाँ आने के लिए तो ये समझिए कि मरी जा रही है!’’

‘‘वो भी सपरिवार...?’’

‘‘ना सर! अभी पिछले दिनों संस्कृति मंत्रालय के एक कार्यक्रम में मैंने उसे देखा था; क्या तो दिखती है सर!’’

‘‘अच्छा!!’’ — अधिकारी ने कहा कम, चुप रहा ज़्यादा। मातहत के समक्ष उनका मौन भी बोल था जैसे। 

आवाज़ें आनी बंद हो गयीं; भीतर मीटिंग सम्पन्न हो चुकी है — मीटिंग शुरू होने से पहले ही।

— तो अगले महीने राष्ट्रीय युवा पाठ है!

खिड़की की तरफ़ कान लगाये युवा लेखक के दिल में एक विश्वास फिर रोशन हुआ — एक पुराना विश्वास,

‘‘हिन्दुस्तान हाउस को रक्षक-माली समझिए बाऊजी!’’

छोटा अधिकारी बाहर निकला तो युवा लेखक पीछे हो लिया।

‘‘नमस्ते सर। मैं असिस्टेंट प्रोफ़ेसर डाक्टर गोवर्धन गजभिए — आपने नाम सुना होगा मेरा!...’’

हूँ हूँ की अस्फुट— सी ध्वनि में सिर हिलाता, सुनता-न-सुनता छोटा अधिकारी तेज़ चाल में बाहर की ओर चला जा रहा है और युवक साहित्यकार उसके पीछे लगभग दौड़ता हुआ, साथ चलता अपनी बात कहता रहा था,

‘‘सर, मुझे पिछले साल यहीं की एक साहित्यिक संस्था ने अवार्ड भी दिया है — मेरी पहली किताब पर ही।’’

‘‘अब साहित्यिक संस्थाओं की कुछ न कहिए! वे लोग इतना तो अनुदान बगाड़ लेते हैं सरकार से; स्मारिका के लिए जनसम्पर्क से विज्ञापन अलग! यों फ़ण्ड पर उनका मेन फ़ोकस रहता है; बाक़ी अवार्डों-ऊवार्डों की क्या है, दो-एक सेलेब्स नामों को तो बुलाना ही पड़ता है, और बाक़ी खानापूर्ति के लिए लोकल साहित्यकारों के बुला लेते हैं; ख़र्चा बच जाता है ना। ’’

छोटा अधिकारी परिसर से बाहर आ चुका है, अपनी सेडॉन कार के ड्राइवर— गेट तक।

‘‘सर, मैं अगले महीने होने वाले राष्ट्रीय युवा पाठ में मौक़ा चाहता हूँ।’’

आख़िरी तौर पर उसने अपनी बात कह दी।

‘‘देखिए, ऐसा है असिस्टेंट प्रोफ़ेसर साहब कि इतने सारे लेखक हैं हिन्दी के कि समझिए अनगिनत; और वे सब सालों-साल इन्तज़ार में रहते हैं लेकिन हम उन्हें बुला नहीं पाते।’’

कार स्टार्ट की किरकिराहट-ध्वनि और स्याह धुँए से माहौल भर गया।

‘‘लेकिन सर, कई साहित्यकारों को तो आपने साल में तीन बार तक बुलाया है; मैं तो यहाँ के बारे में छपा हर समाचार ज़रूर पढ़ता...’’

कार चली गई और युवक लेखक अपनी टूटी बात, अस्वीकृत प्रतिष्ठा के साथ खड़ा रह गया। अब पलटकर बड़े अधिकारी से मिलने जाने का हौसला कहाँ?

दिल बैठ गया; पाँच साल की मेहनत— तरक़्क़ी के बाद भी हिन्दुस्तान हाउस में आज भी वो जैसे वहीं-का-वहीं खड़ा है:

— गोवर्धन गजभिए, ग्राम सनातनपुर ज़िला दतिया — यहाँ कहानी पढ़ना चाहते हैं!

...वही नवजात कोंपल! ...वही कर्तव्यच्युत माली!

और बीत गये ये अगले पाँच साल।

 डॉ. गोवर्धन गजभिए युनीवर्सिटी में हिन्दी के एसोसियेट प्रोफेसर हैं। दो कथा संग्रह, दो उपन्यास, एक यात्रा संस्मरण किताब और इधर-उधर के अनेक सम्मान-पुरस्कार। हिन्दुस्तान हाउस के तमाम साहित्यिक कार्यक्रमों में उपस्थित — बहैसियत दर्शक भर!

इस साल का राष्ट्रीय युवा पाठ है। कार्यक्रम से ऐन पहले परिसर में इधर-उधर छोटे समूहों में बतियाती-गपियाती लेखक बिरादरी।

बूढ़े उस्ताद के हाथ में फ़ीकी चाय की प्याली है,

‘‘गजभिए, अभी दो महीने पहले तक तो तुम्हारा नाम एक तरह से फ़ायनल ही था यहाँ के लिए। तुम्हारे वाम वाले अध्यक्ष तो दावा कर रहे थे कि... फिर क्या बदल गया?’’

‘‘सरकार बदल गई सर!’’ — लेखक ने सामने की पत्थर दीवार पर सजे विराट होर्डिंग्स की ओर निरीह आँखों से देखते हुए कहा जिसमें एक पद्मश्री लेखक के साथ यहाँ के नये प्रमुख--मंत्रि-की फ़ोटो थी — राष्ट्रवादी चेहरा!

‘‘देअर आर मैनी स्लिप्स बिटबीन कप एण्ड द लिप्स!’’ अनुभवों के आचार्य ने कहा; फिर ख़ुद ही माहौल हल्का करते हुए बोले,

‘‘तो गजभिए, तुमने उस नये लड़के कहानीकार जय शर्मा को अभी तक नहीं देखा; दो कहानियाँ लिखकर ही हिन्दुस्तान हाउस में रचनापाठ का मौक़़ा पा गया! ...यहाँ क़ाबिलियत के अलग ही पैमाने हैं।’’

‘‘काश, हम भी शर्मा सरनेम लेकर पैदा हुए होते; साला, किसी पैमाने में तो पड़े रहते!’’ — फ़क्कड़, प्रौढ़ आलोचक अटल ने कहा और व्यर्थ हँस दिए — जैसे अपनी ही बात का मखौल उड़ा दिया हो; फिर मीठी चाय का आख़िरी घूँट भरकर बोले,

‘‘ये फ़्लेक्स होर्डिंग पर दूसरा नाम कौन कवि है सर जी — शिखरचंद! साहित्य में पहले नहीं सुना!’’

‘‘ये ऊँचे अफ़सर साहब हैं — इतने ऊँचे कि यहाँ के अफ़सरों का भाग्य भी बना— बिगाड़ सकते हैं।’’

‘‘कवि हैं?’’ — चाय का दूसरा कप उठाते समीक्षक ने पूछा।

‘‘अब कविता पाठ के लिए बुलाये गये हैं, तो कविनुमा भी कुछ होंगे ही!’’

‘‘दूसरा पैमाना!’’ — यायावर समीक्षक मीठी चाय पीता हुआ कड़वा मुस्कुराया।

‘‘पैमानों पर शोध कर रहे हो तो इसमें तुम्हें अपने दोस्त गजभिए से ख़ासी मदद मिल सकती है!’’ 

बूढ़े उस्ताद ने अपने साहित्यिक बच्चे का पसीजता चेहरा देखा; और बातों का रुख फिर बदल दिया,

‘‘तुमने ये बहुत अच्छा किया कि पिछले महीनों चली उस इंटरनेटी मुहिम में हिस्सा नहीं लिया। सरकारी कर्मचारियों को इन सब ईमानदारियों से दूर ही रहना चाहिए। वे लेखक जो तानाशाही, लालफीताशाही और न जाने किन-किन शाहियों का आरोप लगा रहे थे हिन्दुस्तान हाउस के प्रशासन पर, अब देखना, उनका क्या हश्र होता है! — उस्ताद ने दूर खड़े, छोटे-बड़े अधिकारी को अतिथि लेखक-लेखिकाओं से गर्वित मेजबान के तौर पर बतियाते देखकर कहा।

‘‘कुछ हुआ है क्या उन लोगों के साथ?’’

‘‘न! अरे इतना गर्म कभी नहीं निगलते शासक कि तालू जले। मामले को ज़रा ठंडा होने दो फिर इनकी प्लेट में पड़ी मछली की तरह देखना उन सूत्रधार लेखकों को।’’

प्रौढ़ लेखक गजभिए का दिल राख तले दबे अंगारे— सा आँच करता हुआ बोला,

‘‘ज़्यादा-से-ज़्यादा क्या बुरा होगा; यही ना कि यहाँ के अधिकारी उन्हें ब्लैक लिस्टेड कर देंगे? तो अभी उन्हें कौन बुलाया ही जाता था?? — वर्ना उन्हें आवाज़ उठाने की ज़रूरत ही क्या थी?’’

‘‘तो आवाज़ उठाकर कौन इन्क़लाब ला दिया उन लोगों ने? न उठाते न्याय का झंडा तो एक उम्मीद तो बाक़ी थी। उनमें से एक सरकारी कर्मचारी है माने इन्हीं के पानी की मछली! दूसरा सरकारी सेवा से बिल्कुल अभी रिटायर हुआ है; पेंशन तक चालू नहीं हुई अब तक उसकी — अब पता नहीं होगी भी या नहीं!’’

दो पल को तीनों मौन रह गये।

कुछ दूरी पर, मेहमान लेखक-लेखिकाओं और मेजबान अधिकारियों — बड़े अधिकारी शर्मा और छोटे अधिकारी गुप्ता —  ने किसी बात पर सम्मिलित ठहाका लगाया है — पल को, माहौल एक ऊँची हँसी से थर्रा गया जैसे।

‘‘यार गजभिए, ये बात समझ नहीं आती; आख़िर ये लोग तुम्हें बुलाते क्यों नहीं?’’

समीक्षक दोस्त की बात का उत्तर उस्ताद ने दिया,

‘‘तुम्हारे गजभिए ने कौन इनके घरों के गेहूँ पिसवाये हैं जो ये बुलाने लगे इसे?’’

वे तीनों रस्म-सा हँसे; पैने सच की धार को सहनीय बना रहे हों जैसे।

‘‘मेरे बच्चे!’’ — उस्ताद ने अपने क़ाबिल शार्गिद के कंधे पर हाथ रखा,

‘‘निरा साहित्यकार तो मरने के बाद ही ऐसी सरकारी जगहों पर जगह पाता है; हाँ, मगर जीते जी इनसे दूसरा कुछ बहुत पाता है। ये संस्थायें, अधिकारी, बेईमानियाँ — ये पाठ हैं जीवन के! बड़ा बनाने वाले सबक! गाँठ बाँध लेने योग्य ज्ञान!’’

प्रौढ़ लेखक और फक्कड़ समीक्षक के बुझे दिल रोशनी पाने की-सी उम्मीद से उस्ताद की ओर ताक रहे हैं।

सामने ऊँची दीवार पर जड़ाऊ सरकारी फ्रेम में सजी निराला की तस्वीर को नीचे से देखते उस्ताद साहित्यकार ने अपनी आवाज़ में जीवन का निचोड़ भरकर आगे कहा,

‘‘...क्योंकि ज़िन्दगी ने जिसमें जितने ज़्यादा धक्के मारे हैं — वो उतना ही आगे बढ़ा है!’’
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इंदिरा दाँगी (दांगी) के आगामी उपन्यास ‘रपटीले राजपथ’ का अंश

इंदिरा दाँगी के आगामी उपन्यास ‘रपटीले राजपथ’ का अंश

इन कहानियों को ज़रा सुधारने के बदले मे इतना बड़ा सम्मान हाथ से कोई स्थापित साहित्यकार भी नहीं जाने देगा; तुम तो ख़ैर, मेन स्ट्रीम के स्ट्रग्लर कवि ही हो। फिर भी ! तुम सोच लो दो-एक दिन में वर्ना मैं किसी और को...’’

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अवार्ड के बदले आत्मा

इंदिरा दाँगी


आमोद प्रभाकर की बैठक-महफिल मे आज उसके सिवाय कोई दूसरा आमंत्रित नहीं। काँच की पारदर्शी टेबल पर जिन-शराब की तीन बोतलें सजी हैं जिन्हें देखकर ही उनके महँगे होने का पता मिलता है। माहौल इस क़दर चुप है कि विराट जितना ख़ुश-ख़ुश होकर यहाँ आया था, उतना ही खामोश हो गया है।

जिन की पहली बोतल खोली गई। पैग के साथ काजुओं की प्लेट विराट की तरफ़ बढ़ाते प्रभाकर ने रुमाल से अपनी लार पोंछी और बात शुरू की,

‘‘देख यार! अपन तो बिना लाग-लपेट के, सीधे मुद्दे की बात करने वालों में से हैं। तुम इस साल का ‘यत्न-रत्न’ ले लो और बदले में...’’


आमोद प्रभाकर ने लैदर की एक स्याह फ़ाइल पारदर्शी टेबल के ऊपर रख दी,

‘‘ये मेरी कुछ कहानियाँ हैं; इन्हें तुम दोबारा से लिख दो मतलब इन कच्ची कहानियों को अच्छी कहानियों में बदल दो।’’


‘‘लेकिन सर, मैं तो कहानीकार नहीं हूँ। कभी एक कहानी भी नहीं लिखी। मैं भला कैसे...?’’


‘‘ओय, कहानी नहीं लिखी तो क्या हुआ; गद्य तो लिखा है ! तुम्हारे साक्षात्कारों में भाषा की, अभिव्यक्ति की, विचारों की और न जाने किस-किस चीज़ की कितनी ‘वाह ! वाह !’ हुई थी हर तरफ़ ! बस, अपने वे ही सब मसाले मेरी इन फीकी कहानियों में मिला दो।’’

आमोद प्रभाकर ने महँगे रुमाल से अपनी लार पोंछ अपनी जाति, अपना सरनेम सार्थक करने वाले ख़ालिस बनिया लग रहे हैं -सौदे के बदले में पूरे दाम वसूलने वाला लाला। लालाओं की व्यापारिक-व्यावहारिक क़ाबिलियत वाली वो मशहूर कहावत उसे याद आ गई -लाला को मारे लाला या फिर ऊपर वाला।


‘‘लेकिन सर...’’ -चाहकर भी विराट की हिम्मत नहीं पड़ रही है कि एकदम से ना कह दे। ...लाख रुपये का यत्न-रत्न अवार्ड!


‘‘देखो विराट! ऐसा है कि तुम मेरे दोस्त हो तो मैंने सोचा, तुम्हारा ही भला कर दें इस साल। लाख रुपये तो पाओगे ही; यत्न-रत्न की प्रतिष्ठा भी बहुत बड़ी है। वैसे मैं चाहूँ तो अपेक्षा से लेकर रागिनी-दद्दा तक, शहर में किसी को भी ये काम दे दूँ । इन कहानियों को ज़रा सुधारने के बदले मे इतना बड़ा सम्मान हाथ से कोई स्थापित साहित्यकार भी नहीं जाने देगा; तुम तो ख़ैर, मेन स्ट्रीम के स्ट्रग्लर कवि ही हो। फिर भी ! तुम सोच लो दो-एक दिन में वर्ना मैं किसी और को...’’


‘‘नहीं सर! सोचना क्या है; कर ही दूँगा ।’’ -विराट के भीतर का न जाने कौन बोल पड़ा ये; और असली वो, जैसे अपना ही बंदी है।


‘‘फिर ठीक है। आज रात से ही इन कहानियों पर काम शुरू कर दो। हम ऐसा करेंगे कि इन कहानियों को जब तुम एक मर्तबा लिख लोगे तो किसी बड़े राइटर से एक बार चेक करवा लेंगे। उनके जो सुझाव रहेंगे, प्लाट, भाषा या भावों को लेकर -उस हिसाब से और सुधारकर लिख देना फिर एक बार। चलो, अब इसी बात पर और एक-एक पैग हो जाये दोस्त।’’


आमोद प्रभाकर ने उसके गिलास में नीट शराब भर दी। तीन बोतल जिन वे दोनों देखते ही देखते पी गये; जिसमें आमोद प्रभाकर ने एक, तो विराट ने दो बोतलें पी होंगी। आते समय नशे मे धुत्त विराट को उसके कमरे तक भिजवाने के लिए प्रभाकर ने अपनी मर्सडीज़् में उसे भेजा। उसके बगल में शराब की पूरी एक पेटी रखी थी और उसके हाथों में स्याह फाइल थी। प्रभाकर का नौकर मोटरसाईकिल लेकर आगे निकल गया था। उसे कार में विदा करते प्रभाकर ने ऊँची-आदेशात्मक आवाज़ में कहा था,


‘‘जाकर सो मत जाना। लिखना।’’


नशे में चूर विराट को प्रभाकर की कार और नौकर ने उसके कमरे तक पहुँचा दिया। उसने कमरे में आते ही पेटी में से एक बोतल निकाली और नीट पीते हुए लिखने बैठ गया। कुछ शराब की झोंक थी, कुछ ‘यत्न-रत्न’ की ...वो पूरी रात लिखता रहा।

लिखते-लिखते शराब की आखिरी बूँद का भी नशा जब उतर चुका; उसने सिर उठाकर घड़ी की तरफ़ देखा। सुबह के साढ़े छह बज रहे हैं। अब सोने की गुँजाइश कहाँ ? वो उठकर नहाने चला गया।

दफ़्तर में दिन में सबने उसने उससे उसकी तबीयत के बारे में पूछा। सुर्ख आँखें, उतरा चेहरा, सुन्न-सा दिमाग़ और शिथिल शरीर ...ये असर केवल शराब का नहीं था, न रात भर जागने का !

अगले दिन विराट ने दफ़्तर से एक हफ़्ते की छुट्टी ले ली। सेलफ़ोन स्विच ऑफ कर लिया। दिन और रात का फ़र्क जैसे वो भूल गया था। शराब पीता रहता और लिखता रहता। थक जाता तो सो जाता। जागता तो फिर शराब पीता, फिर लिखने लग जाता। इतने चूर नशे के बावजूद जब भीतर से कुछ मनाहियाँ ध्वनित हो उठतीं, वो बालकनी को जकड़ लेने वाली उस इमली की डाल को देखता; और अपनेआप को ऊँची आवाज़ मे सुनाता,


‘‘यत्न-रत्न एक तमाचा होगा उस साली सुनंदा के मुँह पर ! मैं उसे साहित्य की दुनिया में लेकर आया। मैंने उसे लिखना सिखाया। वो माने या ना माने, मैं उसका उस्ताद हूँ। मैं उससे ऊँचा था, हूँ -रहूँगा !

हफ़्ता पूरा हुआ। शराब की पेटी चुक गई। स्याह चमड़े की फ़ाइल से निकलीं वे तेईस कहानियाँ अपनी खाल बदलकर फिर उसी फाइल में जा छुपीं। ...और ये खाल किसकी है ?? विराट इस प्रश्न से बचने के लिए दिन-रात शराब और गोश्त में गाफिल है।

आमोद प्रभाकर ने एक नहीं, दो बड़े लेखकों से वे कहानियाँ जँचवायी हैं। उनके सुझावों-टीप-मार्गदर्शनों के अनुसार फिर-फिर कहानियों मे सुधार किए गये। हर बार लिखने के लिए जब वो स्याह फाईल उसके कमरे पर पहुँचाई जाती, साथ में एक पेटी मँहगी-विलायती शराब होती। यों तीन हफ़्तों तक विराट ने उन कहानियों पर जी-तोड़ काम किया।

और उस शाम वो बिल्कुल बे-नशा था जबकि आमोद प्रभाकर के घर फ़ाइल देने गया। प्रभाकर की प्रसन्नता का पार न रहा। कहानियाँ एक नज़र देखते ही जान गये -भट्टी से तपकर निकला खरा सोना है! प्रभाकर जैसे व्यक्ति के लिए उतनी प्रसन्नता बिना पार्टी किए सह पाना मुश्किल था। उन्होंने तुरंत ही ख़ास-ख़ास दोस्तों को फ़ोन लगा डाले और खड़े-खड़े शराब-गोश्त का इंतज़ाम भी कर लिया। पर प्रभाकर के लाख इसरार के बाद भी न विराट ने एक घूँट शराब पी, न वहाँ रुका।

वह सीधा अपने कमरे पर पहुँचा और तकिये में मुँह छिपाकर रोता रहा। उसे बड़ी शिद्दत से महसूस हो रहा है कि वह अपनी आत्मा की त्वचा उतारकर उन कहानियों को पहना आया है। अब उसकी छिली, छटपटाती आत्मा से इतना-इतना रक्त बह रहा है, इतनी-इतनी पीड़ा हो रही है और ये नग्नता असहनीय हो चली है विराट के लिए ! इस समय उसके भीतर ख़ून-ही-ख़ून है! कष्ट ही कष्ट !

अगले महीने उसे ‘यत्न-रत्न’ दिये जाने की घोषणा हो गई। उसके भीतर के घावों पर मरहम लगा जैसे। अब सुनंदा को बताऊँगा! दिल-ही-दिल में विराट पूरे समय वे संवाद तय करता रहा जिनसे वो सुनंदा को बेइज्जत करेगा। ...दंभ से भरा ये विराट ! ...अपनेआप के लिए अजनबी ये विराट !

और बहुप्रतीक्षित घड़ी आ ही गई; इस बरस का ‘यत्न-रत्न’ समारोह ! मेन स्ट्रीम के सब रोशन चेहरे, सब यशस्वी हस्ताक्षर। विराट का दिल किया उनमें से हर एक के ऑटोग्राफ़ ले -हर एक के ! पर यत्न-रत्न पाने वाला लेखक भला ऑटोग्राफ़ कैसे ले ? -उसने फ़ोटोग्राफ़ ज़रूर हर एक के साथ खिंचवाये। सोचा, आगे-पीछे कभी काम आयेंगे। तभी वह यह देखकर आगबबूला हो उठा कि सुनंदा भी इस-उस सेलिब्रिटी-साहित्यकार के साथ फ़ोटो खिंचवा रही है। एक फ़ोटोग्राफर को अपने साथ लाई है -ख़ासतौर पर इसी काम के लिए! सेलफ़ोन से खींची शौकिया तस्वीरें नहीं बल्कि बाक़ायदा खिंचवाये गये फ़ोटोज़ जो यक़ीनन भविष्य में अपनी तरक़्क़ी के लिए इस्तेमाल किये जाने हैं।

अपनी उठी हैसियत के लिहाज़ में विराट ने अपना ग़ुस्सा दबाने की भरसक कोशिश की। सुनंदा को उसने अपनी पूरी शालीनता से पुकारा, एक बार, दो बार, तीन बार भी ! फिर उसकी बाजू दबाकर उसे लगभग खींचता हुआ एक ओर ले गया।

‘‘क्या तमाशा लगा रखा है ये सब ?’’


‘‘तमाशा माने ?’’


‘‘माने ये कि उतनी भोली तुम दिखती नहीं हो जितना दिखावा कर रही हो! यहाँ सब बड़े साहित्यकारों के साथ इतना घुल-मिलकर फ़ोटोज़ क्यों खिंचवा रही हो ? देख रहा हूँ कि साहित्य में आगे बढ़ने की सब चालबाजि़याँ तुझे आती हैं !!’’


‘‘सो तो आपको भी आती है विराट जी ; और मुझसे कहीं ज़्यादा आती हैं !’’ -सुनंदा ने अपना कंधा उसकी पकड़ से छुड़ाते हुए कहा।


विराट का दिल आशंका से धड़क उठा। स्याह फ़ाईल के पीछे की स्याह कहानी कहीं किसी रोशनी में तो नहीं आ गई ?? उसने अपनेआप को भरसक स्थिर रखते हुए पूछा,


‘‘कहना क्या चाहती हो ?’’


‘‘न कुछ आप कहिये, ना मुझसे कहलवाईये! आप जैसे सस्ते साहित्यकारों को मेरा दूर से ही नमस्कार है!’’


‘‘सस्ता साहित्यकार ?? मैं सस्ता साहित्यकार हूँ ? हँ ह ! तभी मुझे ‘यत्न-रत्न’ के लिए चुना गया है?’’


‘‘कोई भी पुरस्कार कभी भी श्रेष्ठ साहित्य की कसौटी नहीं होता । और अगर आप ‘यत्न-रत्न’ पर इतना ही इतरा रहे हैं विराट जी तो मैं आपको बता दूँ कि अगली साल के ‘यत्न-रत्न’ के लिए मेरा नाम फ़ायनल हो चुका है। यक़ीन न हो तो प्रभाकर जी से ही पूछ लीजिये। और हाँ, एक बात और आपको ज़रूर बताती जाऊँ! ’’ - सुनंदा ने तर्जनी की नोक विराट के माथे की ओर उठाई,


‘‘आइन्दा अगर मुझसे बात करने की कोशिश की या मेरे आसपास भी फटके तो मैं तुम्हें अपने मंगेतर से कहकर वो बुरा पिटवाऊँगी कि सब दाँत झड़ जायेंगे तुम्हारे मातादीन मिरौंगिया ! तुम्हें अंदाज़ा नहीं होगा, वे कितने बड़े लोग हैं !’’


‘‘मंगेतर ?? तुम्हारी सगाई हो गई ?’’


‘‘हाँ। और वो भी थ्रीस्टार होटल सीरीज़ ‘रॉयल ब्लू’ के मालिक के इकलौते बेटे से।’’


‘‘ज़रूर ये सिर्फ़ इसीलिए हो सका क्योंकि तुमने स्थानीय मीडिया को ऐसे मैनेज कर लिया है कि वो तुम्हें देश की बड़ी ही होनहार, नवयुवती कवियत्री की तरह प्रस्तुत करती रहती है। मैंने तुम्हें साहित्य में आगे बढ़ाया है। तुम्हें ये जो कुछ भी मिल रहा है या मिलेगा सिर्फ़ और सिर्फ़ मेरी बदौलत है!’’


‘‘इतने ही बड़े वाले साहित्यकार अगर होते तो एक अवार्ड के लिए अपने क्राफ़्ट और अपनी आत्मा को बेच न दिया होता आपने!’’


विराट सन्न रह गया। सुनंदा वहाँ से जा चुकी है, उसे जलता हुआ छोड़कर। विराट को अब आमोद प्रभाकर पर बेइंतहा ग़ुस्सा आ रहा है। उसने अपनी जान डालकर काम किया। कूड़ा-करकट जैसे गद्य को चमचमाती कहानियों में बदल दिया और उसके इस एहसान का ये सिला दिया उन्होंने! और बात अगर इस साली सुनंदा को पता है, मतलब भोपाल के हर एक साहित्यकार को पता है ?? ...और क्या यहाँ उपस्थित हर एक साहित्यकार को भी पता है ?? जिनके साथ वो अभी गर्व के साथ सिर उठाकर फ़ोटोज़ खिंचवा रहा था और वे सब भी जो उसे बधाई देते नहीं थक रहे थे -क्या वे सब भी स्याह फ़ाइल वाली सच्चाई जानते हैं ??

विराट ने अपने सीने पर हाथ रख लिया; उसे कुछ घबराहट महसूस हो रही है। ...शराब की तेज़ तलब जैसी घबराहट! उसने आयोजन-स्थल स्थित प्रभाकर के दफ़्तर का रुख़ किया।

भीतर कई आई.ए.एस. अफसर-कम-साहित्यकार बैठे हैं। साथ ही, हिन्दी के एक ऊँचे समीक्षक, एक ग्लैमरस लेखिका और एक युवा कवि लड़का भी वहाँ है।

ऊँचे माहौल में पड़ते ही विराट के भीतर का मातादीन मिरोंगिया सिकुड़ गया। बड़ी झिझक के साथ उसने प्रवेष किया।


‘‘अरे, आओ आओ हमारे यत्न-रत्न! सुबह से कहाँ हो भई ? हमारे ख़ास मेहमान तुमसे मिलना चाहते हैं।’’


शिष्टता से मुस्कुराता विराट इंगित की गई सोफ़ा-कुर्सी पर बैठ गया। मेज़ पर एक नई किताब पड़ी है। उसने अनायास उठा ली। आमोद प्रभाकर का नया कथा संग्रह ‘बिखरे रत्न’ ! और प्रकाशक पेंग्विन बुक्स इंडिया !! विश्व के इतने बड़े प्रकाशन हाउस से ये तेईस कहानियाँ आई हैं !!! इसी किताब का आज लोकापर्ण होना है इसी समारोह में। विराट की आँखों में आँसू आते-आते रह गये। ...लाख रुपट्टी के बदले अपना सर्वश्रेष्ठ बेच दिया। -और अब ये बात साहित्य-स्ट्रीम का बच्चा-बच्चा जानता है !!

शाम भव्य समारोह में उसे ‘यत्न-रत्न’ से नवाज़ा गया। प्रसिद्ध लोग मंच-माइक से उसकी प्रषंसा करते रहे, तालियाँ बजती रहीं, मीडिया कवरेज़ होता रहा; लेकिन पूरे समय विराट ऐसा दिख रहा था जैसे किसी शरीर से आत्मा ग़ायब हो गई हो -नहीं ! दरअसल, उसकी आत्मा ग़ायब नहीं हुई थी। वो भीतर के अंधेरे में पड़ी सिसक रही थी -निर्मम बलात्कार से गुज़री किसी मासूम लड़की की तरह।

देर रात गये वो अपने कमरे पर लौटा। हाथों में वज़न असहनीय हो चला है। महानगरीय फूलों के दर्जन के लगभग बुके थे। उसने सब बालकनी में डाल दिये जैसे इमली की ताक़तवर डाल के सामने अपने हथियारों सहित सरेंडर कर दिया हो!

एक वज़नदार प्रतिमा मिली थी माँ सरस्वती की जो उसने टेबल पर रख दी और ऊपर से चादर से ढाँप दी -दिल में कहीं लगा, माँ सरस्वती उसे ऐसे देख रही हैं जैसे किसी निर्मम हत्यारे को देखा जाता है। उसे अपनेआप पर इतनी शर्म आ रही थी इस समय कि उसने वो लिफ़ाफ़ा भी खोलकर नहीं देखा जिसमें लाख रुपये का बैंक-ड्राफ़्ट रहा होगा। लिफ़ाफ़ा उसने अपनी क़ीमती काग़ज़ों वाले बीफ्रकेस में बंद कर दिया। और उन्हीं कपड़ों-जूतों में कई घण्टों तक बिस्तर पर यों ही पड़ा रहा -स्तब्धता से षून्य की ओर बढ़ता हुआ। स्तब्धता से आगे अगर शून्य है तो हर शून्य से आगे एक नई शुरुआत है।

एक नई शुरुआत !!! -उसके भीतर जैसे आत्मा लौट आई। उठा और अपना सामान पैक करने लगा। सबकुछ -अपना सबकुछ समेट लिया उसने चंद घण्टों में। पैक सामान जब वो कमरे से बाहर निकाल रहा था, पूरब दिशा एक नये सूर्य की आहट से उजली हो उठी थी। गौरेयों की चह-चह से सुबह ऐसे जागती जा रही है जैसे उनींदी पलकें झपकाती कोई नन्ही लड़की सोई-सोई-सी उठ बैठी है। सड़क पर एक जमादार झाडू लगा रहा था। हाकर लड़का इस-उस दरवाज़े के आगे अख़बार डाल रहा था। इत्तेफ़ाक से उसे एक ख़ाली टेम्पो दिखा। अपना सबकुछ समेट-सम्हालकर वो टेम्पो में आ बैठा। आदिनाथ सर के घर का पता उसकी ज़ुबान पर अपनेआप आ गया जैसे और टेम्पो चल पड़ा।

आदिनाथ बाहर बगीचे के बाँस-सोफ़े पर बैठे चाय पी रहे थे। बाउन्ड्रर-द्वार के आगे सामान से लदा-फदा टैम्पो रुकता देख खड़े हो गये। विराट ने टेम्पो से उतरकर गुरू के चरण स्पर्श किये।


‘‘तुम इतनी सुबह ? और ये सामान-असबाब ?? सब ख़ैरियत तो है ?’’


‘‘अब ख़ैरियत है सर। घर वापिस जा रहा हूँ।’’ -उसके चेहरे पर आज की सुबह अपनी पूरी ताज़गी में खिल उठी है।


‘‘गाँव जा रहे हो ?? ख़ैर, वज़ह मैं नहीं पूछूँगा। कुछ-कुछ समझ सकता हूँ तुम्हारी मनस्थिति को। ग़लतियाँ सबसे होती हैं। जाने दो ख़ैर। मुँह से निकलते ही बात छोटी हो जाती है। आओ, तुम्हारे लिए ब्लैक टी बनाता हूँ। घर में तो अभी सब सोये पड़े हैं।’’


‘‘नहीं सर। अब चलता हूँ। ट्रेन का समय हो रहा है। अपने कमरे का किराया तो मैंने परसों ही चुकाया था। मेरी मोटरसाईकिल मेरा एक दोस्त ले गया है दो दिनों से। उसे फ़ोन कर दूँगा, यहाँ रख जायेगा। बाद में, यहाँ से ले जाकर ट्रेन से मुझे पार्सल कर देगा। तो आज्ञा दीजिये। आज की पहली ही गाड़ी से निकल जाऊँगा।’’


‘‘तुम तो हवा के घोड़े पर सवार होकर आये हो एकदम ! अरे भई, एक मिनिट तो ठहरो। मैं आता हूँ।’’

आदिनाथ उसे हाथ से ठहरने का बार-बार इशारा करते भीतर चले गये। उनके हाथ में चाँदी की मूठ वाली छड़ी थी। उसने पहली बार सर को छड़ी के सहारे जाते देखा। सर इन दिनों जैसे ज़्यादा ही तेज़ी से बूढ़े हो गये हैं। तो क्या वे सब अफ़वाहें सच हैं कि पिछले दिनों आराध्या को हृदयेश के साथ कई बार होटलों से बाहर निकलते, पार्कों में घूमते और बंद गाड़ी मे जाते हुए देखा गया ? और विराट ये समझ रहा था कि उससे द्वेशवश सुनंदा ने ये बातें उड़ाई हैं। विराट अपनी मूर्खता पर आप ही मुस्कुरा उठा। सर भीतर से लौट आये हैं। उनके हाथ में शादी का एक कार्ड है।

‘‘ अरु की शादी है इसी पच्चीस तारीख़ को। मैं आता तुम्हारे कमरे पर कार्ड देने। अब तुम जा रहे हो तो यहीं दे रहा हूँ ’’

अब विराट एकदम चुप। आदिनाथ ने उसका कंधा थपथपाया,

‘‘मैं जानता हूँ तुम्हें ये बुरा लग रहा है कि मैंने तुम से सलाह-मशविरा नहीं किया। कोई काम नहीं बताया और अब तुम विदा लेने आये हो तो यों परायों की तरह अपनी बेटी की शादी की ख़बर तुम्हें सुना रहा हूँ! वो हुआ यों बेटे कि पिछले दिनों तुम्हारा नाम जिस तरह से विवादित रहा है, तुम्हारे यत्न-रत्न और प्रभाकर के कथा-संग्रह के कनेक्शन वाले मामले में, तुम्हारी शराबनोशी के बारे में भी जो अफ़वाहे उड़ती रही हैं इधर। फिर ये भी कहीं सुनने में आया कि तुम शराब पीकर आराध्या के बारे में अर्नगर्ल बातें करते हो, तो मेरे होने वाले दामाद ने भी और घर में भी सब ने यही कहा कि मैं तुम्हें ना बुलाऊँ लेकिन मैंने उन सब को दो टूक उत्तर दे दिया कि मैं विराट के कमरे पर कार्ड देने ज़रूर जाऊँगा। वो बच्चा है मेरा !’’ -आदिनाथ ने उसके सिर पर हाथ फेरा। चश्मा उतारकर अपनी आँखें पोंछी।

विराट का दिल भर आया। आज सर हिन्दी आलोचना के दृढ़ दिशा पुरुष नहीं लग रहे हैं। वे एक असहाय, बूढ़े पिता दिख रहे हैं।


‘‘घर पहुँचकर मैं भी शादी कर लूँगा सर।’’


‘‘कोई लड़की है तुम्हारे मन में ?’’ -सर ने दुलार से पूछा।


‘‘है तो सही; अगर अब तक मेरी राह देख रही होगी तो !’’


सर के चरण स्पर्श कर विराट ने विदा ली।


‘‘तुमने तो निमंत्रण कार्ड खोलकर भी नहीं देखा ? जानना नहीं चाहोगे अरु की शादी किसके साथ हो रही है?’’


‘‘मैं जानता हूँ सर।’’ बाउन्ड्री का गेट बाहरी तरफ से बंद करता विराट जाते हुए बोला। उसके चेहरे पर नम मुस्कुराहट थी, ...ऐसी मुस्कुराहट जो रोने से बचने के लिए जबरन लाई जाती है चेहरे पर; और जो चेहरे को, रोते हुए चेहरे से कहीं ज़्यादा दयनीय बना देती है।

 आदिनाथ ने एक लम्बी साँस ली। जीवन भर प्रतिष्ठा का जीवन जिये पिता के भीतर बदनाम बेटी के लिए शर्मिन्दगी गहरे तीर-सी आरपार उतरती चली गई।

...कभी विराट उनके मन में था, आराध्या के लिए !



संपर्क

इंदिरा दाँगी

खेड़ापति हनुमान मंदिर के पास, 
लाऊखेड़ी, एयरपोर्ट रोड, 
भोपाल (म.प्र.) 4620 30
मोबाईल: 08109352499