हरिशंकर परसाई का यह व्यंग्य आज भी उतना ही प्रासंगिक है, जितना उस दौर में था जब लिखा गया। आइए इसे फिर से पढ़ें और सोचें। प्रेमचंद के फटे जूत…
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