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हिंदी के मौजूदा उत्साही लेखकों में इतिहासबोध नहीं है — अनंत विजय


सोशल नेटवर्किंग साइट पर- वहां इन दिनों कविता का स्वर्णकाल चल रहा है । किसिम किसिम की कविता लिखी और पोस्ट जा रही है और एक खास किस्म की कविता को लेकर बहुत हो हल्ला भी मच रहा है 






कोलाहल कलह में कविता

— अनंत विजय

हिंदी कविता को लेकर इस वक्त दो तरह की बात सुनने पढ़ने में आ रही है । आप किसी भी कवि से बात कर लें वो ये कहेगा कि कविता संग्रह छपने में दिक्कत आ रही है । इस संबंध में प्रकाशक से बात करें तो वो कहते हैं कि कविता संग्रह बिकते नहीं हैं । ये तो रही पहली तस्वीर और अब चलते हैं सोशल नेटवर्किंग साइट पर- वहां इन दिनों कविता का स्वर्णकाल चल रहा है । किसिम किसिम की कविता लिखी और पोस्ट जा रही है और एक खास किस्म की कविता को लेकर बहुत हो हल्ला भी मच रहा है । उस तरह की कविता के समर्थन में तर्क ये गढे जा रहे हैं कि इसने कविता की प्रचलित भाषा और मुहावरे तो तहस नहस कर अपनी नई राह बनाई । उत्साह में तो लोग यहां तक कह जा रहे हैं कि हिंदी कविता में ऐसा पहले कभी नहीं हुआ । लेकिन सवाल यही है कि अचानक ये हो क्यों रहा है । दरअसल हिंदी के जादुई यथार्थवादी लेखक उदय प्रकाश ने इस बार भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार हिंदी की नई कवयित्री शुभमश्री की एक कविता को दिया है । उस पुरस्कार के ऐलान के बाद उसकी कविता को लेकर, उसके फॉर्म को लेकर, उसकी भाषा को लेकर बहस शुरू हो गई । इस बहस में कुछ उत्साही लेखकों ने फैसले भी सुना दिए लेकिन बहुधा उत्साह में उठाया कदम आपको पुनर्विचार पर मजबूर करता है । दूसरी तरफ शुभम की कविता के जवाब में एक अनाम कवयित्री की कविताएं पोस्ट और शेयर होने लगीं, उनकी कविता में भी भाषा के साथ जबरदस्त खिलवाड़ दिखाई देता है । पेटीकोट आदि जैसे शब्दों के इस्तेमाल ले कविता को बोल्ड दिखाने की कोशिश की गई है । फेसबुक पर कविता के इस स्वर्णकाल को देखते हुए एक कवि मित्र ने बातचीत में बेहद अहम बात की- इन दिनों कविता जंघा से शुरू होकर योनि पर खत्म हो जाती है इसमें ये जोडा जा सकता है कि इन बिंबों का इस्तेमाल कालिदास ने भी अपनी कविता में किया है लेकिन जो सौदंर्यबोध उनके पास है उसकी यहां नितांत कमी दिखाई देती है । यह कहना मुश्किल है कि फेसबुक पर लिखनेवाले उत्साही लेखक अपने स्टैंड में बदलाव करते हैं या नहीं पर बेहद विनम्रतापूर्वक इतना तो कहा ही जा सकता है कि शुभमश्री की कविताओं को लेकर किसी नतीजे पर पहुंचने की हड़बड़ी नहीं दिखाई जानी चाहिए । वो कविता की दुनिया में अपनी भाषा और अपने मुहावरों के साथ आई है थोड़ा ठहरकर उसकी आनेवाली रचनाओं की प्रतीक्षा करनी चाहिए और फिर फैसला करना चाहिए।




अब रही बात उदय प्रकाश समेत उन उत्साही लेखकों की जो प्रकरांतर से यह दावा करते हैं कि शुभम ने अपनी कविता से पहली बार हिंदी कविता के प्रचलित ढांचे तो तहस नहस किया है । उनको यह याद दिलाना आवश्यक है कि हिंदी कविता शुरू से ही किसी खास रास्ते पर चलने से इंकार करती रही है । आधुनिक काल में ही नहीं बल्कि अगर हम कविता के इतिहास पर नजर डालें तो हिंदी कविता अपने शुरुआती दौर में भी अलग अलग रूपों और शैलियों में लिखी गईभक्तिकाल के कवियों पर अगर विचार करें तो उनकी कविताओं में एक साझा सूत्र भक्ति का अवश्य दिखाई देता है लेकिन सूर, तुलसी, जायसी की रचनाओं के भाव अलग अलग हैं कोई श्रृंगार काव्य है तो कोई प्रेम का महाकाव्य तो कोई वीरकाव्य । रीतिकाल को हिंदी कविता में सबसे ज्यादा एक तरह की कविता लिखे जाने का काल माना जाता है लेकिन वहां भी वैविध्य है जिसको घनानंद की कविताओं में देखा जा सकता है । अकविता के दौर में भी जगदीश चतुर्वेदी, सौमित्र मोहन और राजकमल चौधरी की कविताओं ने कैसी तोड़ फोड़ मचाई थी इसको याद करने की आवश्यकता है । लगभग सभी अकवियों की रचनाओं में कुरुचिपूर्ण यौन बिंब देखे जा सकते हैं और वो भी ऑब्सेशन की हद तक । राजकमल चौधरी भी अपनी कविताओं में औरतों से आक्रांत नजर आते हैं लेकिन वहां कवि की मूल्य चेतना व्यापक और गहरी थी जो उनको भीड़ से अलग खड़ा कर देती है । धूमिल ने भी अपनी कविताओं में आक्रोश और बौखलाहट को जगह दी लेकिन उनकी कविताओं में जिस तरह की कलात्मकता दिखाई देती है उसका ठीक से मूल्यांकन होना शेष है । बीटनिक पीढ़ी या अवांगार्द कवियों की कविताओं को हम भुला बैठे हैं । अवांगार्द कवि को लेकर मार्क्सवादी आलोचना और आलोचकों की नजर हमेशा से अलग रही और वो इसको उचित नहीं मानते हैं । कई मार्क्सवादी आलोचकों ने इस प्रवृत्ति को आधुनिकतावादी मानते हुए यथार्थवादी विरोधी करार दिया । अमेरिकन सोसाइटी फॉर एसथेटिक्स के अध्यक्ष रहे टॉमस मुनरो ने इसको सही रूप में परिभाषित किया- अवांगार्द कविता निर्धारित छंदों और तुकों और स्पष्ट भाषा की उपेक्षा करती है एवं अनेकर्थाकता, अस्थिर मन:प्रभावों के अंकन तथा स्पष्ट व्यंजकता का आग्रह रखती है ।

दरअसल हिंदी के मौजूदा उत्साही लेखकों का साथ सबसे बड़ी दिक्कत है इतिहासबोध का ना होना या सुविधानुसार इतिहास को भुलाकर किसी को स्थापित करने के लिए जमीन तैयार करना । हम तो ये भी भुला बैठे कि किस तरह से केदारनाथ सिंह साठ के अंतिम दशक में रूमानियत को छोड़कर राजनीति कविता की ओर मुड़ते हैं । उनकी एक कविता चुनाव की पूव संध्या की दो पंक्तियां-
भेड़िए से फिर कहा गया है / अपने जबड़ों को खुला रखें । 
इसी तरह से श्रीकांत वर्मा भी अपनी कविताओं में कई बार सिनिकल दिखाई देते हैं । कविता कभी भी प्रणालीबद्ध होकर नहीं चली है और आगे भी नहीं चलेगी । युवा कवि चेतन कश्यप की एक ताजा कविता को देखें- साला/जिसको मछली खिलाई/जिसका खूब किया सत्कार/कुर्सी पर जाते ही/किया/ पहचानने से इनकार /मोटी मोटी चमड़ी जिनकी/सूख गई है शर्म आंख की/मैं जूती हूं उनरे पैर की/जैसे वो मेरे भरतार...जो बोलेगा बागी होगा/चुप रहने पर दागी होगा/चित भी उनकी पट भी उनकी/उनकी है सरकार । अब ये कविता भी फॉर्म और भाषा दोनों के स्तर पर अलग जाती है । भरतार शब्द का इस्तेमाल इस कविता में कितनी खूबसूरती से किया गया है । दरअसल अगर हम आज की हिंदी कविता को देखें तो यहां शोरगुल ज्यादा कविता को लेकर संजीदगी कम दिखाई देती है । इस वक्त हिंदी कविता को संजीदगी की ज्यादा जरूरत है कोलाहल की कम क्योंकि कोलाहल से जो कलह हो रहा है उससे हिंदी कविता का और हिंदी के नए कवियों का नुकसान संभव है ।

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अनमैनेजेबिल का मैनेजमेण्ट : शुभम श्री की पुरस्कृत कविता — अर्चना वर्मा


Archana Verma on Shubham Shree's irreverent Prize Winning Poem

अनमैनेजेबिल का मैनेजमेण्ट : शुभम श्री की पुरस्कृत कविता

— अर्चना वर्मा 


कविता के बने बनाये ढाँचे तो बीसवीं सदी में घुसने के साथ ही टूट फूट रहे हैँ लगातार। अब मान्यता यह है कि साहित्य सिर्फ़ इसलिये साहित्य होता है कि हमने उसे साहित्य होने की मान्यता दे रखी है। मान्यता एक "दी हुई" चीज़ होती है, कोई अन्तरंग गुण नहीं। साहित्य भी उसी तरह से पढ़ा और समझा जाता है जिस तरह से भाषा का कोई भी और लिखित रूप। वही व्याकरण, वाक्य विन्यास, वगैरह। फिर भी साहित्यिक भाषा और गैर साहित्यिक भाषा में अन्तर किया जाता है। वे अन्तर, विद्वानों का कहना है कि, दोनो प्रकार की भाषाओं के सामाजिक और व्यावहारिक कार्यों के अन्तर होते हैँ, संरचना के अन्तर नहीं।




साहित्य की इस राशि के 'उत्पादन' में सदियाँ लगी हैँ बेशक, और सदियों तक आमने सामने मौजूद श्रोता-वक्ता सम्बन्ध की वजह से उसका रूप भी सदियों तक कमोबेश आमने सामने का संवाद होने की सीमाओं से बँधा रहा है। और सदियों वह इस आसन पर आसीन रहा है कि वह जगत्बोध का निर्माता है।

लेकिन आज उसे अपने उस दीर्घ किन्तु अतीत काल की सांस्कृतिक-संरचना की तरह देखे जा सकने की स्थितियाँ पैदा हो गयी हैँ। अब तक उसके पास अपनी विशिष्ट रूढ़ियाँ थीं, जिनसे उसका पोषण होता था लेकिन अब संचार माध्यमों से सामना है और समाचारों से निर्मित जगत्बोध के साथ मुकाबला है। क्या ऐसा मानने का वक्त आ गया है कि साहित्य नामक सांस्कृतिक संरचना अपने संभावित विनाश का सामना कर रही है? और उसकी रूढ़ियों के टूटने का भी? मुझे लगता है कि शुभम श्री की कविता का विषय यही है। साहित्य/कविता के संभावित विनाश की विराट त्रासदी जिसे वह प्रहसन के स्वर में रचती है। जिन जिन वजहों से समाचार बनते या बनाये जाते हैं, उन उन जगहों पर कविता को टिकाते हुए एक शेखचिल्ली के दिवास्वप्न की रचना की जाती है। पूँजीवाद विरोधी कविता से सेंसेक्स का लुढ़कना, उसमें अमेरिकी साम्राज्यवाद के गिरने का नमूना, वगैरह, लिस्ट लम्बी है,बनाइये और देखिये कि उनके पेट में कौन कौन सी असली headlines गुड़गुड़ा रही हैँ, और काव्य वार्ता, काव्यनीति, वेनेजुएला से प्रेरित कवियों पर काबू, सीपीओ, एमपीए, पीऐटी वगैरह वगैरह, इनको शायद केवल पैरॉडी कहकर टाला जा सकता है लेकिन उनका भी कविता मे एक फंक्शन है।




दिवास्वप्न की इस दुनिया में भले कविता को ताकत की ऐसी केन्द्रीय जगह दी गयी हो, दिवास्वप्न का अन्त इस ख़याल से नहीं होता कि यह केवल दिवास्वप्न है। जिसके साथ सम्वाद में यह स्वप्न-सृजन चल रहा है वह जब कहता हे – " वाह गुरू मज्जा आ रहा है/सुनाते रहो/ अपन तो हीरो हो जायेंगे/ जहाँ निकलेंगे वही आटोग्राफ़/” तो उसे बदले में झिड़की मिलती है क्योंकि विडम्बना है कि सपने में भी वह कल्पना सच नहीं होने वाली। वहाँ भी ख़याल बना रहता है कि एमबीए की फ़ीस कौन भरेगा?

साहित्य की तथाकथित विशिष्ट रूढ़ियों के नष्ट या कम से कम अप्रासंगिक हो चुकने के बाद और साहित्यिक /असाहित्यिक या कलात्मक अकलात्मक के फ़र्क को केवल पैकेजिंग और फ़्रेमिंग का मामला मान चुकने के बाद बात अपनी रुचि के हिसाब से कविता को अच्छा या बुरा मानने की रह जाती है। कविता की तरह पेश की गयी चीज़ को कविता न मानने का सवाल नहीं उठता। अश्रद्धा की भी सारी रंगछायाएँ – विनोद, व्यंग्य, मखौल, उपहास , परिहास, अपशब्द कुछ भी तो ऐसा नहीं जो अकाव्यात्मक की कोटि में सदा के लिये रखा जा सके। एक रस होता है अद्भुत, वह विस्मित करता है। और यहाँ कविता से सम्बन्धित सुर्खियों में अप्रत्याशित दूरारूढ़ तुलनाएँ विस्मित करती हैं। एक और रस होता है हास्य। और इतनी असदृश विसंगतियों की एकत्रता बेशक उस विस्मय में हास्य भी घोलती हैं।

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