head advt

अनमैनेजेबिल का मैनेजमेण्ट : शुभम श्री की पुरस्कृत कविता — अर्चना वर्मा


Archana Verma on Shubham Shree's irreverent Prize Winning Poem

अनमैनेजेबिल का मैनेजमेण्ट : शुभम श्री की पुरस्कृत कविता

— अर्चना वर्मा 


कविता के बने बनाये ढाँचे तो बीसवीं सदी में घुसने के साथ ही टूट फूट रहे हैँ लगातार। अब मान्यता यह है कि साहित्य सिर्फ़ इसलिये साहित्य होता है कि हमने उसे साहित्य होने की मान्यता दे रखी है। मान्यता एक "दी हुई" चीज़ होती है, कोई अन्तरंग गुण नहीं। साहित्य भी उसी तरह से पढ़ा और समझा जाता है जिस तरह से भाषा का कोई भी और लिखित रूप। वही व्याकरण, वाक्य विन्यास, वगैरह। फिर भी साहित्यिक भाषा और गैर साहित्यिक भाषा में अन्तर किया जाता है। वे अन्तर, विद्वानों का कहना है कि, दोनो प्रकार की भाषाओं के सामाजिक और व्यावहारिक कार्यों के अन्तर होते हैँ, संरचना के अन्तर नहीं।




साहित्य की इस राशि के 'उत्पादन' में सदियाँ लगी हैँ बेशक, और सदियों तक आमने सामने मौजूद श्रोता-वक्ता सम्बन्ध की वजह से उसका रूप भी सदियों तक कमोबेश आमने सामने का संवाद होने की सीमाओं से बँधा रहा है। और सदियों वह इस आसन पर आसीन रहा है कि वह जगत्बोध का निर्माता है।

लेकिन आज उसे अपने उस दीर्घ किन्तु अतीत काल की सांस्कृतिक-संरचना की तरह देखे जा सकने की स्थितियाँ पैदा हो गयी हैँ। अब तक उसके पास अपनी विशिष्ट रूढ़ियाँ थीं, जिनसे उसका पोषण होता था लेकिन अब संचार माध्यमों से सामना है और समाचारों से निर्मित जगत्बोध के साथ मुकाबला है। क्या ऐसा मानने का वक्त आ गया है कि साहित्य नामक सांस्कृतिक संरचना अपने संभावित विनाश का सामना कर रही है? और उसकी रूढ़ियों के टूटने का भी? मुझे लगता है कि शुभम श्री की कविता का विषय यही है। साहित्य/कविता के संभावित विनाश की विराट त्रासदी जिसे वह प्रहसन के स्वर में रचती है। जिन जिन वजहों से समाचार बनते या बनाये जाते हैं, उन उन जगहों पर कविता को टिकाते हुए एक शेखचिल्ली के दिवास्वप्न की रचना की जाती है। पूँजीवाद विरोधी कविता से सेंसेक्स का लुढ़कना, उसमें अमेरिकी साम्राज्यवाद के गिरने का नमूना, वगैरह, लिस्ट लम्बी है,बनाइये और देखिये कि उनके पेट में कौन कौन सी असली headlines गुड़गुड़ा रही हैँ, और काव्य वार्ता, काव्यनीति, वेनेजुएला से प्रेरित कवियों पर काबू, सीपीओ, एमपीए, पीऐटी वगैरह वगैरह, इनको शायद केवल पैरॉडी कहकर टाला जा सकता है लेकिन उनका भी कविता मे एक फंक्शन है।




दिवास्वप्न की इस दुनिया में भले कविता को ताकत की ऐसी केन्द्रीय जगह दी गयी हो, दिवास्वप्न का अन्त इस ख़याल से नहीं होता कि यह केवल दिवास्वप्न है। जिसके साथ सम्वाद में यह स्वप्न-सृजन चल रहा है वह जब कहता हे – " वाह गुरू मज्जा आ रहा है/सुनाते रहो/ अपन तो हीरो हो जायेंगे/ जहाँ निकलेंगे वही आटोग्राफ़/” तो उसे बदले में झिड़की मिलती है क्योंकि विडम्बना है कि सपने में भी वह कल्पना सच नहीं होने वाली। वहाँ भी ख़याल बना रहता है कि एमबीए की फ़ीस कौन भरेगा?

साहित्य की तथाकथित विशिष्ट रूढ़ियों के नष्ट या कम से कम अप्रासंगिक हो चुकने के बाद और साहित्यिक /असाहित्यिक या कलात्मक अकलात्मक के फ़र्क को केवल पैकेजिंग और फ़्रेमिंग का मामला मान चुकने के बाद बात अपनी रुचि के हिसाब से कविता को अच्छा या बुरा मानने की रह जाती है। कविता की तरह पेश की गयी चीज़ को कविता न मानने का सवाल नहीं उठता। अश्रद्धा की भी सारी रंगछायाएँ – विनोद, व्यंग्य, मखौल, उपहास , परिहास, अपशब्द कुछ भी तो ऐसा नहीं जो अकाव्यात्मक की कोटि में सदा के लिये रखा जा सके। एक रस होता है अद्भुत, वह विस्मित करता है। और यहाँ कविता से सम्बन्धित सुर्खियों में अप्रत्याशित दूरारूढ़ तुलनाएँ विस्मित करती हैं। एक और रस होता है हास्य। और इतनी असदृश विसंगतियों की एकत्रता बेशक उस विस्मय में हास्य भी घोलती हैं।

००००००००००००००००

एक टिप्पणी भेजें

1 टिप्पणियाँ

  1. अर्चना जी , शब्दांकन पर दोपदी की कविताये पढ़िए वे प्रमाण है कि हिंदी साहित्या में नए तेवर के साथ सार्थक कविता लिखने वाली कवित्रियाँ मौजूद हैं | लेकिन दुर्भाग्य से उन्हें नामी गिरामी पुरस्कार नहीं मिलते | बाकी गधे को गाय कह देने से गधा गाय नहीं बन जाता | पर आप जैसे आइना दिखने वाले जरूर मौजूद रहने चाहिए | आप का लेथ अच्छा था |शुभ कामना ---रेणु

    जवाब देंहटाएं

गलत
आपकी सदस्यता सफल हो गई है.

शब्दांकन को अपनी ईमेल / व्हाट्सऐप पर पढ़ने के लिए जुड़ें 

The WHATSAPP field must contain between 6 and 19 digits and include the country code without using +/0 (e.g. 1xxxxxxxxxx for the United States)
?