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— Bharat بھرت भरत (@BharatTiwari) May 20, 2014
तलाश / Talash
लघुकथा 'इनाम' - शिवानी कोहली 'अनामिका' | Short-story 'Inaam' - Shivani Kohli Anamika

इनाम....
शिवानी कोहली 'अनामिका
‘साहब, मेरा बेटा अपनी कक्षा में अव्वल आया है. इसे आशीर्वाद दो की बड़ा होकर खूब नाम कमाए..’
चल बेटा, मालिक के पावं छू कर आशीर्वाद ले.
राजेंदर साहिब ने उसे आशीर्वाद दिया और बोले, ‘खूब नाम कमाओ और ये लो मेरी तरफ से इनाम.’
‘मैं इस इनाम को कभी खर्च नही करूँगा.’
‘गोविंद, अपनी मालकिन को कहना मैने बुलाया है और हाँ चाय लाना एक कप.’
‘जी मालिक’
गोविंद और चमन उस कमरे से चले गये.
पापा मुझे तो कभी आपने इनाम नही दिया. मुझे तो आप हमेशा डाँटते रहते हो. मैं इस बार कितने अच्छे नंबर ले कर आया था.. फिर भी आप बोले की अभी और मन लगा कर पढ़ाई करने की ज़रूरत है.
बेटा, तुम नही जानते इन लोगो को हमारी कृपा की ज़रूरत होती है. हमारी दया के बिना ये लोग ऊपर की कमाई कैसे करेंगे. हम तुम्हे इनाम इसलिए नही देते क्योंकि हम तुम्हारी और तरक्की देखना चाहते हैं. ये छोटे लोग तो इस भीख को इनाम समझ लेते हैं और हलवा पूरी खाकर पलभर के लिए खुश हो जाते हैं....
कमरे के बाहर खड़े गोविंद के हाथ से चाय की ट्रे कुछ थरथराई...... और अपने बेटे के हाथ पर रखे गये उस इनाम में छुपी भीख को अपनी बदक़िस्मती समझ कर ताकता रहा.....
शिवानी कोहली 'अनामिका'
ईमेल: anamika1851983@yahoo.com
मोदी ने वो किया जो वाजपेयी नहीं कर पाये ... रवीश कुमार | Modi did what Vajpayee could not do ... Ravish Kumar
विकास का मतलब पूरी दुनिया में अलग अलग तरीके से समझा गया है ।
जो इसके आलोचक हैं उनमें संवाद की ऐसी क्षमता नहीं है
जिससे वे किसी विकल्प को स्थापित कर सकें .... रवीश कुमार
जो इसके आलोचक हैं उनमें संवाद की ऐसी क्षमता नहीं है
जिससे वे किसी विकल्प को स्थापित कर सकें .... रवीश कुमार

नतीजा आ गया । वैसा ही आया जैसा आने की बात बीजेपी कह रही थी । इस नतीजे का विश्लेषण नाना प्रकार से होगा लेकिन जनता ने तो एक ही प्रकार से फ़ैसला सुना दिया है । उसने गुजरात का माडल भले न देखा हो मगर उस माडल के बहाने इतना तो पता है कि चौबीस घंटे बिजली मिलने में किसे एतराज़ है । अच्छी सड़कों से किसे एतराज़ है । इसीलिए एक तरफ़ मतों का बिखराव है तो दूसरी तरफ़ ज़बरदस्त जुटान । बीजेपी के विरोधी मत अलग अलग निष्ठाओं और समीकरणों में उलझे रहे और समर्थक मत की एक ही निष्ठा रही ।
जिन भी दलों को लगता है कि वे नरेंद्र मोदी से मुक़ाबला करना चाहते हैं उन्हें अपनी सरकारों के कामकाज का तरीक़ा बदल देना होगा । अब वो प्रचार की नक़ल कर मोदी का विकल्प नहीं बन सकते ।दुनिया जिस वक्त व्यक्तिवादी राजनीति के नाम पर आलोचना कर रही थी उसी वक्त जनता एक व्यक्ति में नेता ढूँढ रही थी । उसे एक ऐसी दिल्ली चाहिए थी जो शिथिल न लगे । काम करने वाली हो मगर पंचवर्षीय योजनाओं के हिसाब से नहीं । आकांक्षाओं का बखान करने वाले भी यह देखेंगे कि लोगों को अब गति चाहिए । वो किसी पुल को चार साल की जगह एक साल में बनते देखना चाहते हैं । नरेंद्र मोदी शायद उसी प्रबंधन और रफ़्तार के प्रतीक के रूप में देखे गए हैं ।
नरेंद्र मोदी ने वो किया जो वाजपेयी नहीं कर पाये । मोदी ने बीजेपी से कांग्रेसी कल्चर को निकाल फेंका है ।एक तरह से यह अच्छा है । विकास का मतलब पूरी दुनिया में अलग अलग तरीके से समझा गया है । जो इसके आलोचक हैं उनमें संवाद की ऐसी क्षमता नहीं है जिससे वे किसी विकल्प को स्थापित कर सकें । जो भी विकास का माडल चल रहा है उस पर सवाल उठाने वाली शक्तियों के साथ ये जनता नहीं है । वो किसी स्थानीय जगहों पर हो सकती है मगर व्यापक रूप से जीडीपी और सेंसेक्स वाले माडल को स्वीकार चुकी है । उसी में अपना भला देखती है । यह दुखद तो है मगर यही हमारी राजनीति और जनता के दक्षिणपंथी होने की सच्चाई भी है । दक्षिणपंथी के साथ हम सांप्रदायिकता को जोड़ते हैं मगर यह उसका एकमात्र मुखर पक्ष नहीं है । हमारी राजनीति दक्षिणपंथी हो चुकी है । इसके होने का चक्र पूरा हो गया है । वैसे भी बाक़ी दल भी आर्थिक मामलों में दक्षिणपंथी ही हैं । हमारे देश में दक्षिणपंथी राजनीति की नई समझ पैदा करनी होगी ।
जब आलोचक इस बात में मगन थे कि मोदी बीजेपी को बर्बाद कर रहे हैं उसी दौरान मोदी बीजेपी को न सिर्फ युवाओं से भर रहे थे बल्कि अपनी सक्रियता और हमलों से उन्हें विचारों से लैस कर रहे थे ।जिन भी दलों को लगता है कि वे नरेंद्र मोदी से मुक़ाबला करना चाहते हैं उन्हें अपनी सरकारों के कामकाज का तरीक़ा बदल देना होगा । अब वो प्रचार की नक़ल कर मोदी का विकल्प नहीं बन सकते । अगर जनता उन्हें लगातार काम करते देखेगी तभी प्रचार भी साथ देगा । इतना ही नहीं बिहार यूपी की बीजेपी विरोधी पार्टियों को अपना ढाँचा बदलना होगा । उनके पास विचार है न संगठन । बीजेपी के पास दोनों है । इनकी आलोचनाएं हो सकती है मगर आज भी बीजेपी जिन नए युवाओं से भरी है वो इसकी हिन्दुत्व की विचारधारा में माँजे गए हैं जबकि सपा राजद या जेडीयू में या तो कोई युवा है नहीं और जो है उसे न तो अपनी विचारधारा का पता है न इसका कि हिन्दुत्व की आलोचना कैसे की जाती है । जब आलोचक इस बात में मगन थे कि मोदी बीजेपी को बर्बाद कर रहे हैं उसी दौरान मोदी बीजेपी को न सिर्फ युवाओं से भर रहे थे बल्कि अपनी सक्रियता और हमलों से उन्हें विचारों से लैस कर रहे थे ।
फ़िलहाल बीजेपी ने अपने तमाम विरोधियों और आलोचकों को निहत्था कर दिया है । उनकी कमज़ोरियों को उजागर कर दिया है । अब उनके लिए यहाँ से उठना एक दिन का काम नहीं होगा । बीजेपी आज पहले से कहीं संगठित है । उसके पास कई राज्य हैं जो कांग्रेस सिस्टम की तरह संघ सिस्टम में काम करते हैं । अब पहले की तरह उसकी सरकारें नहीं बिखरती हैं बल्कि सत्ता पर पकड़ बनाए रखने का गुर आ गया है । ऐसे मज़बूत माहौल में कांग्रेस के सहारे बीजेपी को टक्कर नहीं दिया जा सकता । अब बीजेपी को टक्कर कोई दक्षिणपंथी ही दे सकता है । कांग्रेस को अब भुला दिया जाना चाहिए । इसलिए नहीं कि वो आज हार गई है या कमज़ोर हालत में है बल्कि कांग्रेस बदल भी जाएगी तो भी कुछ मामलों में वैसी ही रहेगी । शिथिल और विचारधारा के नाम पर विचार विहीन । फ़िलहाल कांग्रेस के पास जो भी राज्य हैं उन्हें कांग्रेस के ब्रांड एंबेसडर की तरह उच्च कोटी का काम करना होगा । कांग्रेसी कल्चर का वर्क कल्चर बदलना होगा जो संभव होता नहीं दिख रहा ।
जो भी हो नया नतीजा आया है । उम्मीदों के साथ स्वागत किया जाना चाहिए । आशंकाओं से लदकर देखने का वक्त चला गया । सारी बहसों पर लंबे समय के लिए विराम लग गया है । सवाल हैं और रहेंगे लेकिन यह इस पर निर्भर करेगा कि संघर्ष कौन करेगा । तब तक के लिए सबको बधाई ।
रवीश कुमार
http://naisadak.blogspot.in/
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लिटरेरी कार्निवाल में हिन्दी का लेखक - पंकज प्रसून | Hindi writer in Literary Carnival - Pankaj Prasun

मैंने पूछा -‘वन बीएचके क्यों? वह बोला-‘जानता हूँ आप हिन्दी के लेखक हैं इसलिए’ लेखन में मुकाम हासिल करना आसान है, मकान हासिल करना बहुत टफ है। बुक करा लीजिये आसान किश्तों में।
लिटरेरी कार्निवाल में हिन्दी का लेखक
पंकज प्रसून
पिछले दिनों ‘लखनऊ लिटरेरी कार्निवाल’ में हिन्दी का लेखक यानी मैं तमाम सारी उम्मीदें लेकर गया था। पेज थ्री गेदरिंग थी वहां पर। साहित्य के तमाम पृष्ठ मिलकर भी पेज थ्री के ग्लैमर का मुकाबला नहीं कर सकते हैं। साहित्यकार और स्टार में फर्क साफ़ दिख रहा था। भीड़ तो जुटी थी पर इस भीड़ जुटने का कारण ऑफिस में छुट्टी का होना था। कुछ लोग सपरिवार कार्निवाल 'एंज्वाय' करने आये थे। भारत के भविष्य कुर्सियों को झूला बनाकर साहित्यिक स्टाइल में झूल रहे थे घुसते ही विंटेज कारों के काफिले से मेरा सामना हुआ। जहाँ कुछ आधुनिक नारियां उन कारों के इर्द गिर्द लोक लुभावनी मुद्राओं में पोज देकर कई युवा साहित्यकारों को श्रृंगार लिखने को प्रेरित कर रही थीं। एक फिलोसफर का दर्शन शास्त्र जो अब तक भटकाव का शिकार था, विषय केन्द्रित हो रहा था। उसे दर्शन बोध हो रहा था। विश्व विद्यालय के अंग्रेजी विभाग के शोध छात्र- छात्राएं हाथ में पिज्ज़े का डिब्बा लिए हुए समोसाजीवी हिन्दी शोधार्थियों को हेय दृष्टि से देख रहे थे। ठीक उसी तरह जैसे सलमान रुश्दी पंकज प्रसून को देखते होंगे। शहर के एक बड़े लेखक का स्वागत करने कोइ नहीं आया। कसूर संयोजकों का नहीं, लेखक के फेसकट का था, वह लिखने वाले लेखक थे। कुछ दिखने वाले लेखकों की खूब आवभगत की जा रही थी।

अन्दर प्रकाशक के नहीं। इंश्योरेंस कम्पनियों वालों के स्टाल थे। वहां पुस्तकें नहीं पालिसीज बिक रही थीं। मार्केटिंग मैनेजर पीछे ही पड़ गया, 'सर, प्लीज टेक दिस पालिसी। वनली फिफ्टी थाऊजेंड प्रीमियम। ट्वेंटी लाख मैच्योरिटी। 'मैं बोला-‘बहुत महंगी है' वह समझ गया कि मैं हिन्दी का लेखक हूँ। उसने पैंतरा बदला -'चिंता मत कीजिये सर दूसरा प्लान है मेरे पास पचास रूपये प्रीमियम। पांच सौ मैच्योरिटी' उसने हिन्दी को औकात दिखा दी थी। किसी तरह पिंड छुडा कर भागा मैं।
मैं कलाम की पुस्तक 'अग्नि की उड़ान' खोज रहा था। तभी एक स्टाल से रिसेप्शनिस्ट बोली -आइये सर, उड़ान एयर होस्टेस ट्रेनिंग इंस्टिट्यूट वेल्कम्स यूं'। मैं बोला - 'अग्नि की उड़ान ढूंढ रहा हूँ'। वह बोली -'सर, आप बुक पढ़िए, पर उड़ान इंस्टिट्यूट में अपनी बहन का एडमिशन जरूर करायें। डिस्काउंट ऑफर चल रहा है' ।
मैं लिटरेरी हॉल में इंट्री करने ही वाला था कि पीछे से एक सूटेड बूटेड साब ने आवाज़ दी। सर मेरे भी स्टाल पर आइये। फ्री मेडिकल चेक अप करा लीजिये। मेरी लम्बाई और वजन का अनुपात कैलकुलेट करके बोला -'सर आपका बी एम् आई बढ़ा हुआ है, खतरनाक हो सकता है। आप शहर के एक प्रतिभाशाली लेखक हैं, और आपको तो पता ही है कि आजकल साहित्यकारों पर काल सर्प योग चल रहा है, बस तीन महीने का कोर्स है। स्लिम एंड ट्रिम हो जायेंगे। अंग्रेजी लेखकों की तरह।
मैंने पूरी इच्छा शक्ति के साथ हॉल में घुसने की चेष्ठा की तभी एक कंस्ट्रक्शन कम्पनी वाले ने मेरी और रुख किया-‘आइये सर, वन बीएचके वनली ट्वेंटी लाख। ’ मैंने पूछा -‘वन बीएचके क्यों? वह बोला-‘जानता हूँ आप हिन्दी के लेखक हैं इसलिए’ लेखन में मुकाम हासिल करना आसान है, मकान हासिल करना बहुत टफ है। बुक करा लीजिये आसान किश्तों में। मैंने मना कर दिया। सामने से एक शायर आ रहे थे। मैं बोला -'ये बड़े शायर हैं, आप इनको अपना प्लान बताइये। ये खरीद लेंगे। वह बोला - क्या ख़ाक खरीदेंगे। दूसरों की ज़मीन से ही इनका काम चल जाता है, कई जमीनों पर अतिक्रमण कर रखा होगा'।
मैं लिटरेरी हॉल की और बढ़ रहा था। साहित्य की उम्मीद में। पर बार-बार बाजार बीच में आ जा रहा था। साहित्य बाजारवाद का शिकार क्यों होता जा रहा है। इस सवाल का जवाब मिल रहा था।
एक और घूँट पीकर पम्पलेट लेकर अन्दर आया तो एक अमेरिका से आया एक भारतीय युवा शायर उर्दू शायरी की धज्जियाँ उड़ा रहा था। ’वह एक सेर पेस कर रहा था’ उर्दू शायरी में अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग कर वह खुद को प्रयोगधर्मी बता रहा था। ऐसा उच्चारण था कि एक पहाडी को को भी खुद पर गर्व होने लगे। मुझे घोर आश्चर्य हुआ जब एक अंगरेजी लेखक को हिन्दी में बोलते देखा। वह स्टोरी को कहानी के अंदाज में पढ़ रहे थे। और हिन्दी पर एहसान कर रहे थे।
देश के तमाम सारे साहित्यिक आयोजन तब तक हिट नहीं माने जाते जब तक कि विवादों की भेंट न चढ़ें। इस विवाद के केंद्र में सबसे पहले महिला विमर्श रहता है जहां नारी अपनी पीड़ा को को लेकर तमाम सवाल उठाती है। यहाँ भी नारी तमाम सवाल उठा रही थी जो स्टालों पर गूँज रहे थे –‘ जीरो फिगर ताउम्र मेनटेन क्यों नहीं हो पाता है, एलोवेरा के जूस को आप मीठा क्यों नहीं बना पा रहे, आपके ब्यूटी ट्रीटमेंट पैकेज में पेडीक्योर की उपेक्षा क्यों की जा रही है? सामान्य साहित्यिक आयोजनों में महिला सशक्तिकरण की सिर्फ बात होती है। यहाँ दिख रहा था-‘ एक अंगरेजी पसंद पत्नी ने बीस हज़ार का हेयर स्पा पॅकेज बुक कराया था और पति के बाल विहीन खोपड़ी के लिए एक एक टोपी तक नहीं खरीद रही थी। उसको हेयर ट्रान्सप्लान्टेशन के स्टाल पर खड़े तक नहीं होने दे रही थी। उसका मानना था कि ये लोग बेवकूफ बनाते हैं। जबकि वह अपने पति कि बेवकूफ बना रही थी यानी यहाँ महिला सशक्तिकरण के साथ पुरुष दुर्बलीकरण भी दिख दिख रहा था।
हाल के अन्दर फिल्मों पर बात हो रही थी और दलित विमर्श बाहर चल रहा था, । शहर के उपेक्षित हिन्दी लेखक गेट पर खड़े होकर अपने भूत और भविष्य के बारे में चिंतित हो रहे थे। अपनी दीनता की बात कर रहे थे-‘चार महाकाव्य लिखने के बाद आखिर मैं एक टाई क्यों नहीं खरीद पाया’, ‘मेरा अभिनन्दन ग्रन्थ छापा गया पर यहाँ कोई नमस्कार करने वाला नहीं’। ’मेरे कृतित्व पर एमफिल हुआ पर वुडलैंड के जूते न ले पाया। ’’इसमें कौन सी बड़ी बात है, मेरे ऊपर तो पीएचडी हुयी है पर क्या मैं पीटर इंग्लॅण्ड की शर्ट खरीद पाया? मैंने हिन्दी के इन उपेक्षित साहित्यकारों के विमर्श को ही दलित विमर्श मान लिया था।
शाम ढल चुकी थी। जिस प्रतिष्ठान में साहित्यिक कार्निवाल हो रहा था उसी प्रतिष्ठान के ठीक बगल के एक दूसरे पंडाल में डीजे बज रहा था। साहित्य और शादी अगल-बगल चल रहे थे। दोनों ही हाई प्रोफाइल थे। साहित्य कोट पहन कर शादी के मंडप में घुस सकता था। शादी लहंगे में साहित्य के पास आ सकती थी। इसी को सांस्कृतिक विनमय कहते होंगे। आयोजकों ने डिनर की व्यवस्था क्यों नहीं की, यह राज भी पता चला। साथ में इस ज्ञान का बोध भी हो गया कि कोटधारी लेखक कभी भूखा नहीं सो सकता।
शाम के सांस्कृतिक कार्यक्रम में हिन्दी-उर्दू दिखाई पड़ी। एक ओर ग़ज़ल गायक मजाज लखनवी का शेर पढ़ रहा था –‘'हिजाबे फतना परवर अब उठा लेती तो अच्छा था, खुद अपने हुस्न को परदा बना लेती तो अच्छा था। ’तो दूसरी और डीजे से आवाज़ आ रही थी। गंदी बात। गंदी गंदी गंदी बात। अन्दर बेग़म अख्तर को याद किया गया जा रहा था, बाहर बेगम को ले जाने के लिए दूल्हा बारात लेकर आ चुका था। जैसे ही उनकी गायी ग़ज़ल बजी -'ऐ मोहब्बत तेरे अंजाम पे रोना आया’ दूसरी और 'तमंचे पे डिस्को शुरू हो गया। हिन्दी उर्दू का अद्भुत संगम हो गया था। गंगा जमुनी तहजीब जीवंत हो उठी थी।
लिटरेरी कार्निवाल की विदाई के वक्त बराती जमकर नाच रहे थे इसमें कुछ आयोजक भी थे। इस कोलाहल के पीछे का कारण एल्कोहल था। आयोजक नाचते हुए बोला-‘लखनऊ हम पर फ़िदा हम फ़िदा-ए-लखनऊ। तभी एक बाराती ने शेरवानी उतारी और हवा में लहराते हुए बोला –‘देखो उतर गया है लबादा-ए –लखनऊ।
पंकज प्रसून
टीएम-१५ टैगोर मार्ग
सी एस आई आर कालोनी
लखनऊ
मो-9598333829
ईमेल kavipankajprasun@gmail.com
पोलम-पोल " सर्वे की कसौटी पर खबरिया चैनल - अनंत विजय : Exit Poll and News Channels - Anant Vijay
कई ऐसी एजेंसियां भी मैदान में आ गई हैं जो अपना सर्वे मुफ्त में न्यूज चैनलों के मुहैया करवाती हैं और उनकी एकमात्र शर्त होती है कि उनके नतीजों को बगैर किसी फेरबदल के प्रसारित किया जाए । अब इसके पीछे का मोटिव तो साफ तौर पर समझा जा सकता है ।
लगता है कि न्यूज चैनल यह मानकर बैठे हैं कि जनमानस की स्मृति कमजोर होती है और उसे दो हजार चार और दो हजार नौ के सर्वे याद नहीं हैं । लिहाजा सटीक और विश्वसनीय का डंका पीटने में कोई कोताही नहीं बरती जा रही है ।

लोकसभा चुनाव के अंतिम चरण की वोटिंग खत्म होने के साथ ही देशभर के तमाम खबरिया चैनलों पर एक्जिट पोल या पोस्ट पोल के नतीजे आने शुरू हो गए । अलग-अलग चैनल तो अलग-अलग सर्वे करनेवाली एजेंसियां और अलग-अलग नतीजे । हर चैनल अपने अपने विषेशज्ञों की राय से इस या उस गठबंधन को चुनाव बाद मिलनेवाली संभावित सीटों का एलान कर चुका है । अमूनन हर चैनल भारतीय जनता पार्टी की अगुवाई वाले एनडीए गठबंधन को बहमुत देता नजर आ रहा है । अपवाद के तौर पर एक न्यूज चैनल है जो एनडीए को तकरीबन ढाई सौ सीट दे रहा है । लेकिन इसके उलट एक और चैनल एनडीए को साढे तीन सौ सीटें देने पर तुला हुआ है । तुर्रा यह कि हर चैनल अपने सर्वे के सबसे सटीक और सबसे विश्वसनीय होने का दावा भी करता चल रहा है । लगता है कि न्यूज चैनल यह मानकर बैठे हैं कि जनमानस की स्मृति कमजोर होती है और उसे दो हजार चार और दो हजार नौ के सर्वे याद नहीं हैं । लिहाजा सटीक और विश्वसनीय का डंका पीटने में कोई कोताही नहीं बरती जा रही है । उन्हें यह भी याद नहीं है पिछले दो लोकसभा चुनाव के दौरान तमाम एक्जिट पोल के नतीजे धरे रह हए थे । दो हजार चार के लोकसभा चुनाव के दौरान देश में फील गुड का वातावरण तैयार किया गया था । ऐसा माहौल था कि देश उन्नति के पथ पर तेजी से दौड़ रहा है और देश की इस तीव्र उन्नति का फायदा जनता को हो रहा है । अर्थवय्वस्था भी दहाई के आंकड़ें को छूने को बेताव दिख रही थी । इन तीव्रताओं और बेताबियों का भारतीय जनता पार्टी के नेताओं ने भी फायदा उठाना तय किया, लिहाजा तय समय से पहले लोकसभा चुनाव का एलान कर दिया गया । फील गुड फैक्टर और शाइनिंग इंडिया की पृष्ठभूमि में देश में चुनाव होने लगे । एक तरफ अटल बिहारी वाजपेयी जैसा तपा-तपाया नेता, जिसके ओजस्वी भाषण की जनता दीवानी थी । लोग घंटों तक उनके भाषणों का इंतजार करते थे । दूसरी तरफ उन्नीस सौ छियानवे के बाद देश की सत्ता से बाहर कांग्रेस । वही कांग्रेस जिसके बारे में नब्बे के दशक के अंत में राजनीतिक पंडितों ने यह भविष्यवाणी कर दी थी कि उसका अंत हो गया है । वही कांग्रेस जिसने सीताराम केसरी के पार्टी अध्यक्ष रहते विभाजन और नेताओं का पलायन दोनों झेला था। बाद में सोनिया गांधी के नेतृत्व में पार्टी अपने आपको मजबूत करने की कोशिश कर रही थी । उस वक्त कई राज्यों के विधानसभा चुनावों में पार्टी की करारी हार हो चुकी थी । वाजपेयी जी बनाम सोनिया गांधी के इस जंग में भारतीय जनता पार्टी की अगुवाई वाली राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन का पलड़ा भारी दिख रहा था । दो हजार चार के चुनाव के बाद न्यूज चैनलों से सर्वे दिखाने शुरू कर दिए थे । कमोबेश सभी सर्वे में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सत्ता में वापसी करता दिख रहा था । न्यूज चैनलों और अखबारों के सर्वे में एनडीए को दो सौ नब्बे तक सीटें दी गई थी । कुछ चैनलों ने थोड़ी सावधानी बरतते हुए ढाई सौ सीटें दी थी लेकिन इससे कम कोई भी नहीं गया था । इन्ही न्यूज चैनलों और अखबारों ने कांग्रेस को सहयोगियों के साथ एक सौ उनहत्तर से लेकर दो सौ पांच सीटें दी थी । दो हजार चार में जब मतगणना शुरू हुआ था तो ट्रेड मिल पर दौड़ते हुए स्वर्गीय प्रमोद महाजन का फुटेज और वहीं से दिया गया इंटरव्यू लोगों का अब भी याद है । उन्होंने सुबह-सुबह सुबह दावा किया था कि एनडीए की सत्ता में वापसी हो रही है । उनके अति आत्मविश्वास का कारण पिछले दो-तीन दिनों से दिखाए जा रहे एक्जिट पोल के नतीजे थे । लेकिन जैसे-जैसे दिन चढ़ता गया तस्वीर बदलती चली गई और एनडीए एक सौ नवासी और कांग्रेस अपने सहयोगियों के साथ दो सौ बाइस के आंकड़े तक पहुंच गया । तमाम एक्जिट पोल के नतीजे धरे के धरे रह गए । सभी सर्वे और भविष्यवाणी बेमानी साबित हुए थे । तकरीबन यही हाल दो हजार नौ के लोकसभा चुनाव के नतीजों के वक्त हुआ था । तमाम खबरिया चैनल और अखबारों ने दोनों गठबंधन को लगभग बराबर-बराबर सीटें मिलने का अनुमान लगाते हुए सर्व दिखाए थे । यह अवश्य था कि सभी सर्वे में यूपीए को ज्यादा सीटें दी गई थी । लेकिन तब भी नतीजे तो गलत ही साबित हुए थे । एनडीए की सीटें एक सौ उनसठतक सिमट गई तो यूपीए दो सौ बासठ तक जा पहुंची । यहां एक बार फिर से इन सर्वे और एक्जिट पोल के नतीजों पर सवाल खड़े हुए थे ।
इस बार के लोकसभा चुनाव खत्म होने और वोटों की गिनती के बीच तमाम न्यूज चैनलों पर आए इन सर्वे को देखने के बाद यह लगता है कि पूरे देश में बीजेपी या ज्यादा सटीक तरीके से कहें तो नरेन्द्र मोदी की लहर है । इन खबरिया चैनलों के सर्वे के मुताबिक मोदी लहर पर सवार होकर बीजेपी एक बार फिर रायसीना हिल पर कब्जा जमाने जा रही है वहीं दस साल तक रायसीना हिल्स पर राज करनेवाली कांग्रेस आजादी के बाद के सबसे बुरे दौर से गुजरती दिख रही है । इन चुनाव बाद सर्वे के नतीजों से तो यही लगता है कि कांग्रेस इस चुनाव में अबतक का सबसे खराब प्रदर्शन करने जा रही है । इन सर्वे में एक और बात जो रेखांकित करने योग्य है वह यह कि अलग-अलग चैनलों पर इस सर्वे का सैंपल साइज अलग-अलग है । अबतक दिखाए गए सभी सर्वे में सैंपल साइज बहुत ज्यादा बड़ा नहीं है । सैंपल साइज का आकार उतना महत्व नहीं रखता है लेकिन इसमें सबसे जरूरी यह होता है कि उसमें किन लोगों की नुमाइंदगी है । भारत में जब भी चुनाव होता है तो उसमें जाति और धर्म की अहम भूमिका होती है । इसलिए अगर सैंपल साइज में इस फैक्टर को नजरअंदाज कर दिया जाता है तो उसके गलत होने का खतरा बढ़ जाता है । इसी तरह से अगर सैंपल साइज बीस बाइस हजार का भी है और उसमें ग्रामीण और शहरी वोटरों का अनुपात गड़बड़ाता है तो नतीजों पर असर पड़ता है ।
भारत में चुनावी सर्वेक्षण बहुत पुरानी अवधारणा नहीं है । पश्चिम में यह अवधारणा बहुत पुरानी है और वहां इस वजह से सटीक होती है कि आबादी कम है और जाति धर्म संप्रदाय का ज्यादा झोल नहीं है । कई देशों में तो दो दलीय व्यवस्था होने से भी सर्वे के गलत होने के चांस कम होते हैं । भारत में यह अवधारणा साठ के दशक में आई जब उन्नीस सौ साठ के चुनाव में पहली बार दिल्ली की एक संस्था मे सर्वे किए थे । लेकिन इक्कीसवीं सदी के एन पहले जब भारत का आकाश प्राइवेट न्यूज चैनलों के लिए खुला तो फिर इस तरह के सर्वे की मांग बढ़ गई । हाल के दिनों में जिस तरह से न्यूज चैनलों की बाढ़ आ गई उसके बाद तो चुनाव के दौरान सर्वे की भी सुनामी आ गई । कई छोटी बड़ी एजेंसियां सर्वे के इस मैदान में उतर गई । जब मांग बढ़ी को सर्वे में एक तरह का खेल भी शुरू हुआ । हाल ही में सरवे करनेवाली एक एजेंसी के कुछ लोग कैमरे पर इस खेल को स्वीकारते नजर आए थे । कई ऐसी एजेंसियां भी मैदान में आ गई हैं जो अपना सर्वे मुफ्त में न्यूज चैनलों के मुहैया करवाती हैं और उनकी एकमात्र शर्त होती है कि उनके नतीजों को बगैर किसी फेरबदल के प्रसारित किया जाए । अब इसके पीछे का मोटिव तो साफ तौर पर समझा जा सकता है । इस बार के चुनाव नतीजों में कांग्रेस, बीजेपी और अन्य दलों के साथ साथ मीडिया की साख का भी फैसला होना है । राजनीतिक दलों के भविष्य के साथ साथ मीडिया के भविष्य का फैसला भी होगा ।
अनंत विजय
गर्व से कहो हम फासिस्ट हैं - संजय सहाय (संपादक हंस) Say it proudly we are fascist - Sanjay Sahay (Editor Hans)
गर्व से कहो हम फासिस्ट हैं
संजय सहाय
1921 में नेशनल फासिस्ट पार्टी (पीएनएफ) के जन्म के साथ ही इटली में फासिज्म का उदय हुआ. इस नए राजनीतिक विचार का अंकुरण प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान हो चुका था. यह सर्वसत्तावादी कट्टर राष्ट्रवाद की राजनीति पर आधारित पार्टी थी, जिसका उद्देश्य पूरी तरह से दक्षिणपंथी था, किंतु जिसकी राजनैतिक शैली वामपंथी तत्त्वों से प्रभावित थी.

प्रथम विश्वयुद्ध में हारे हुए जर्मनी और हवा का रुख देख मित्र शक्तियों के साथ मिल गए विजेता इटली, जिसकी आर्थिक व्यवस्था विजय के बावजूद ध्वंस के कगार पर पहुँच चुकी थी, दोनों में ऐसी परिस्थितियाँ बनती जा रही थीं जहाँ सर्वसत्तावादी, नस्लवादी, कट्टर राष्ट्रवाद को लोकप्रियता मिल सके. वर्साई संधि से ब्रिटेन और फ्रांस अवश्य लाभान्वित हो रहे थे किंतु इटली, जिसने छह लाख सैनिकों को युद्ध में खोया था, की जनता जून 1919 की इस संधि से स्वयं को छला हुआ महसूस कर रही थी और तत्कालीन नेतृत्व को इसके लिए दोषी मान रही थी. उधर हारा हुआ जर्मनी तो इस संधि से अत्यंत आहत था. अन्य सैन्य/ आर्थिक प्रतिबंधों के साथ-साथ जर्मनी को युद्ध के लिए जिम्मेदार होने के कारण 132 बिलियन मार्क का जुर्माना भी भरना था. नतीजा था कट्टर राष्ट्रवाद. जर्मनी में 1919 में ही बनी नात्सी पार्टी, जो फासिस्ट सिद्धांतों पर आधारित थी, अडोल्फ हिटलर के नेतृत्व में 1933 में सत्तासीन हो गई. मुसोलिनी के तीसरे रोमन साम्राज्य की घोषणा की ही तरह इसने भी खुद को तीसरे ‘राइश’ (राज्य/साम्राज्य) के रूप में पेश किया. पहला राइश औटो प्रथम के सन 962 में हुए राज्याभिषेक से लेकर नेपोलियन के युद्धों (1806) तक रहा. दूसरा राइश होहेनत्सोलर्न राजाओं के अंतर्गत औटो वान बिस्मार्क द्वारा एकीकृत किए गए जर्मनी के ‘इंपीरियल चांसलर’ नामित (1871) किए जाने से लेकर वर्साई संधि के पूर्व अंतिम चांसलर फ्रीड्रिक एबर्ट (1918) तक रहा. जर्मन फासिज़्म इतालवी फासिज़्म से इस मामले में थोड़ा भिन्न अवश्य रहा कि जर्मन फासिज़्म में नस्लवाद और आर्यन प्रभुताबोध चरम पर रहा. हालाँकि दोनों फासिस्ट राज्यों का अंत किस तरह हुआ यह किसी से छिपा नहीं है.
सामान्यत: ऐसी शक्तियों के उदय के लिए आवश्यक है कि पूरा समाज अनेक प्रकार की हीन ग्रंथियों और बोधों से ग्रस्त हो- जैसे, ‘हम सदियों गुलाम रहे’, ‘दूसरों ने हमें लूटा’, ‘हमारे सीधेपन का बेजा लाभ उठाया’, ‘हमारे वर्तमान नेताओं ने हमें ठगा’ आदि-आदि. ऐसी परिस्थिति में व्यक्ति केंद्रित, सर्वसत्तावादी और कट्टर राष्ट्रवादी शक्तियों का आकर्षण बेपनाह रूप से बढ़ जाता है. बावजूद इसके सावधानी बरतने की घोर आवश्यकता है. हमारे जैसे उदारवादी व्यवस्था के हिमायती लोग तो किसी न किसी तरह वैसे दिन भी काट लेंगे, लेकिन इसके दूरगामी परिणाम राष्ट्र के लिए बहुत गंभीर हो सकते हैं. यहाँ यह बताना दिलचस्प है कि 2003 में डॉक्टर लारेंस ब्रिट नाम के सज्जन ने भिन्न फासिस्ट राज्यों (मुसोलिनी, हिटलर, फ्रैंको, सुहार्तो व अन्य लातिनी मुल्कों के तानाशाहों) के अध्ययन के बाद यह निष्कर्ष निकाला कि इन सब फासिस्ट राज्यों के चरित्र में 14 बिंदु समान थे.
- एक, राष्ट्रवाद का सशक्त प्रचार.
- दो, मानवाधिकारों के प्रति धिक्कार (शत्रु व राष्ट्रीय सुरक्षा का भय दिखा लोगों को इस बात के लिए तैयार करना कि खास परिस्थितियों में मानवाधिकारों को अनदेखा किया जा सकता है, और ऐसी स्थिति में शारीरिक-मानसिक प्रताड़ना से लेकर हत्या तक सब जायज़ है.).
- तीन, शत्रु को और बलि के बकरों को चिह्नित करना (ताकि उनके नाम पर अपने समूहों को एकत्रित-उन्मादित किया जा सके कि वे ‘राष्ट्रहित’ में अल्पसंख्यकों, भिन्न नस्लों, उदारवादियों, वामपंथियों, समाजवादियों और उग्रपंथियों को मानवाधिकारों से वंचित रखने में समर्थन दें.).
- चौथा, सेना को आवश्यकता से अधिक तरजीह और उसका तुष्टिकरण.
- पाँचवाँ, पुरुषवादी वर्चस्व.
- छठा, मास मीडिया को येन-केन-प्रकारेण प्रभावित कर उसे अपना पक्षधर बनाना और नियंत्रण में रखना.
- सातवाँ, बुद्धिजीवियों, साहित्यकारों और संस्कृति कर्मियों पर नकेल कसना.
- आठवां, धार्मिकता व सरकार में घालमेल करते रहना (बहुसंख्यकों के धर्म और धार्मिक भावाडंबर का इस्तेमाल कर जनमत को अपने पक्ष में प्रभावित करते रहना).
- नौवाँ, कारपोरेट जगत को पूर्ण प्रश्रय देना (चूँकि कारपोरेट जगत से जुड़े उद्योगपतियों/ व्यापारियों द्वारा ही फासिस्ट ताकतें सत्ता में पहुँचाई जाती हैं, तो जाहिर है एक-दूजे के लिए...).
- दसवाँ, श्रमिकों की शक्ति को कुचलना.
- ग्यारहवाँ, अपराध और दंड के प्रति अतिरिक्त उत्तेजना का माहौल बनाना.
- बारहवाँ, पुलिस के पास असीमित दंडात्मक अधिकार देना.
- तेरहवाँ, भयानक भाई-भतीजावाद और भ्रष्टाचार.
- चौदहवाँ, चुनाव जीतने के लिए हर प्रकार के हथकंडे अपनाना.
माना कि डॉक्टर ब्रिट कोई बड़े इतिहासकार या शिक्षाविद नहीं हैं, पर कुछेक त्रुटियों के बावजूद उनके बिंदुओं को आसानी से खारिज नहीं किया जा सकता. उपरोक्त बिंदुओं में से अनेक को हम तथाकथित उदारवादी मुल्कों से लेकर भारतवर्ष तक की पूर्ववर्ती सत्ताओं द्वारा समय समय पर आजमाते देखते रहे हैं, पर बहुत संभव है कि आने वाले दिनों में भारत में बड़ी तादाद में इनका इस्तेमाल किया जाए. इस बात की भी बड़ी संभावना है कि निकट भविष्य में कतार में खड़े अपने सीनों पर हथेली टिकाए हम जोर-जोर से चीखते नजर आएँ- गर्व से कहो हम फासिस्ट हैं.
('हंस' से साभार)
हृषीकेश सुलभ - कहानी: हलंत | Hrishikesh Sulabh - halant (Hindi Kahani)
ज़ख़्म भले न भरें, पर समय उन पर पपड़ी तो डाल ही देता है

हलंत
हृषीकेष सुलभ
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अजीब-सी चुप्पी, जिसका कोई ओर-छोर नहीं था। लगता, मानो अम्मा विश्रांति की चादर ओढ़े गहरी निद्रा में सो रही हों......और बहन जलकुम्भियों से भरे थिर पोखर की तरह अपनी उम्र की विपरीत दिशा में मौन बैठी हो।......और मैं......। मुझे लगता मैं हलंत की तरह बिना स्वर वाले व्यंजन की तरह के नीचे लटका हूँ। मैं अक्सर सारी-सारी रात जागता। नींद आती भी तो उचट-उचट जाती। पिता और रज्जो दोनों मेरी रातों की नींद में......टूट-टूट कर आने वाले सपनों में अझुराए हुए थे।
बात बहुत पुरानी नहीं है। कुछ ही महीनों पहले की बात है। वह हादसों का मौसम था। उन दिनों सब कुछ अप्रत्याशित रूप से घटता। जिस बात की दूर-दूर तक उम्मीद नहीं होती, वह बात सुनने को मिलती। जिस घटना की कल्पना नहीं की जा सकती, वह घट जाती। जिस दृश्य को सपने में भी देखना सम्भव नहीं था, वह अचानक आँखों के सामने उपस्थित हो जाता।
अजीब समय था। विचित्रताओं से भरा हुआ समय। यहाँ तक कि उन दिनों सुख भी अप्रत्याशित ढंग से ही मिलता। यानी, कुछ अच्छा भी होता तो ऐसे अचानक होता कि मन के भीतर भय की लकीर छोड़ जाता। सुख का स्वाद मिट जाता और मन को भरोसा नहीं होता कि ऐसा भी हो सकता है। उन दिनों सुख और दुःख के बीच का फ़र्क़ लगभग मिट चला था। यह अपने-आप में एक बड़ा हादसा था। सुख और दुःख की अनुभूति के बीच अंतर का नहीं होना सामान्य स्थिति तो नहीं ही मानी जा सकती। इससे ज़्यादा त्रासद और प्राणलेवा स्थिति शायद और दूसरी नहीं हो सकती। औरों के लिए यह चरम आध्यात्मिक स्थिति हो सकती है, पर मेरे लिए नहीं।
मैं उन दिनों को याद करता हूँ तो मेरी रीढ़ थरथराने लगती है। मेरे लिए भय और अवसाद के दिन थे वे। मैं अब अच्छी तरह महसूस कर सकता हूँ कि लोग ऐसी ही स्तिथि में आत्महत्या करते होंगे। सुबह आँखें खुलते ही मैं अपनी मृत्यु के बारे में सोचना शुरु करता, तो यह सिलसिला रात की नींद तक चलते रहता। नींद आती, पर गहरी नहीं, उचटी-उचटी आती। सपने आते। अजीब-अजीब सपने। इन सपनों के सिरे एक-दूसरे में इस तरह अझुराए होते कि इनमें से एक मुक्कमिल सपने को याद करना मुश्किल था। हाँ इन सपनों के केन्द्रीय कथ्य के रूप में मृत्यु की उपस्थिति ज़रूर होती। मैं इन सपनों के छोर पकड़ने की कोशिशें करता और इस कोशिश में अपनी मृत्यु तक जा पहुँचता। मरने के अनगिन तरीक़े सोचता। उन्हें विश्लेषित करता। आत्महत्या के समय होनेवाली पीड़ा के आवेग को कभी मन ही मन मापता, तो कभी आत्महत्या के बाद अपने बारे में होनेवाली चर्चा-कुचर्चा के ताने-बाने बुनता। यह सब चलते रहता और बीच-बीच में हादसे होते रहते।
एक रात मेरे इस क़स्बाई शहर के अहिंसा मैदान में विशाल गड्ढा बन गया। हुआ यूँ कि रात में भयानक विस्फोट हुआ और और देखते-देखते शहर के एक छोर पर स्थित इस मैदान में पोखरण उतर आया। एक भयानक आवाज़ हुई और मैदान के ऊपर का आकाश गर्द-ओ-गुबार से पट गया। दिन भर की उड़ान के बाद घोसलों में छिपे पंछी इतने भयभीत हुए कि बाहर निकल पड़े।
अज़ादी के दिनों में गाँधी बाबा जब-जब दिल्ली-कलकत्ता-बम्बई में अनशन पर बैठते, मेरे शहर के गाँधी परमानन्द दास भी इस मैदान में चादर बिछाकर बैठ जाते। उन्हीं दिनों इस भूखंड को अहिंसा मैदान नाम मिला। यहाँ बच्चे फुटबॉल-क्रिकेट खेलते। मेरे बाबूजी बताया करते थे कि अपने बचपन के दिनों में वे भी इस मैदान में कबड्डी खेला करते थे। उन दिनों इस मैदान के किनारे-किनारे पेड़ों की क़तार थी और उनकी डालें धरती तक झुकी थीं और वे अपने दोस्तों के साथ डालों पर झूलते हुए दोला-पाती भी खेला करते। बाबूजी बताते कि उन दिनों इस मैदान के किनारे ढेरों फलदार वृक्ष हुआ करते थे। आम के दिनों में शहर के बच्चों का हुजूम जुटा रहता। जेठ-वैशाख में लू के थपेड़े भी बच्चों को रोक नहीं पाते और टिकोलों की लालच में उनकी आवाजाही बनी रहती। फिर एक समय आया जब पेड़ों ने फल देना पहले कम और बाद में बिल्कुल ही बन्द कर दिया। सूखने लगे। लोगों ने काटकर उन्हें चूल्हों में झोंक दिया।
अब यहाँ का नज़ारा बदल चुका है। चुनाव के दिनों में यहाँ राजनेताओं के हेलिकॉप्टर उतरते और भाषण होता। बाँस के खम्भों में बँधे भोंपूओं से निकलती तरह-तरह की आवाज़ें पूरे शहर पर छा जातीं। यहाँ सती परमेसरी का मेला भी लगता था। मुझे याद है। अपने बाबूजी के काँधे पर सवार होकर मैं यह मेला घूम चुका हूँ। इस मेले की गुड़ की जलेबी का स्वाद आज भी मेरी जीभ पर ठिठका हुआ है। इस मेले में द ग्रेट बाम्बे सर्कस का तम्बू तनता और मेला उजड़ने के हफ़्तों बाद उखड़ता। मैंने पहली बार इसी सर्कस में दहाड़ते हुए बाघ को देखा था और मेरी सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई थी। बाबूजी की दहाड़ से दुबकी हुई अम्मा के भय का अर्थ भी मुझे उसी दिन मिल गया था। बाद के दिनों में अम्मा अक्सर मेरी भीरुता से खीझकर कहती ‘बाघ का बेटा खरहा’। पिछले कुछ दिनों से इस अहिंसा मैदान में एक नया काम होने लगा था। हत्या के बाद हत्यारे इस मैदान में लाशें फेंकने लगे थे। हत्या शहर के किसी भी कोने में होती, पर लाश इसी मैदान से बरामद होती। विस्फोट पहली बार हुआ था। मेरे शहर के लोग बेहद कल्पनाशील हैं। उनका मानना था कि किसी दूसरे ग्रह के प्राणियों ने पृथ्वी के बहुत क़रीब से गुज़रते हुए इस विस्फोट को अंजाम दिया है। शहर के चारपेजी अख़बारों ने इतना हो-हल्ला मचाया कि पुलिस ने इस हादसे की तफ़तीश शुरु की। तफ़तीश के बाद पुलिस ने यह तथ्य ढूँढ़ निकाला कि अहिंसा मैदान में उग्रवादियों ने विस्फोटकों का परीक्षण किया था।
विस्फोट के बाद पुलिस की व्यस्तता बहुत बढ़ गई थी। जाँच में प्राप्त तथ्यों की पुष्टि के लिए साक्ष्य जुटाने में पुलिस लगी हुई थी। शहर में आतंक था। रात-बिरात अपने घरों से निकलने में डरते थे लोग। दिन में भी किसी चौक-चौराहे पर पुलिस का सामना हो जाता तो लोग नज़रें चुराते हुए निकल जाते। पुलिस बेवजह घूरती। ज़रा भी संदेह हुआ कि थाने ले जाकर घन्टों पकाती। इस विस्फोट के कारण राज्य सरकार के आला अधिकारियों का दौरे पर आना लगातार जारी था। इक्के-दुक्के बचे पुराने लोगों का कहना था कि अँग्रेज़ों के ज़माने से लेकर इस घटना के पहले तक कभी इतने अधिकारी ज़िले में दौरे पर नहीं आए। ज़िला के सारे थाने संवेदनशील घोषित हो चुके थे। ख़ुद राज्य के गृहमंत्री और पुलिस प्रमुख ने अपने दौरे के समय इसका एलान किया था। अब तक जिस पुलिस को असंवेदनशील माना जाता था, वह संवेदनशील हो गई थी। पुलिस की संवेदनशीलता अपना रंग दिखा रही थी। इस संवेदनशीलता का आलम यह था कि वे सारे लोग, जिनके घरों में शौचालय नहीं था और वे शहर के बाहरी इलाक़ों में टिन का डब्बा या प्लास्टिक की बोतलें लेकर फ़ारिग हुआ करते थे, संकटग्रस्त हो गए थे। ऐसे हाजतमंद लोग चोरों की तरह अपने घरों से निकलते और अपनी हाजत को जैसे-तैसे आधे-अधूरे निबटाकर वापस भागते। ऐसे परिवारों की औरतों का संकट और गहरा था। गश्त पर निकले पुलिस के जवान शहर की गश्ती छोड़कर साँझ का झुटपुटा होते ही बाहरी इलाक़ों में फैल जाते। औरतें अँधेरे का लाभ उठाने और दम साधकर बे-आवाज़ फ़ारिग होनेकी कोशिशें करतीं, पर पुलिसवालों की संवेदनशीलता उफ़ान पर थी और वे बे-आवाज़ क्रियाओं को भी सूँघ लेते और टार्च भुकभुकाने लगते। पुलिस की संवेदनशीलता का भारी असर शहर की रंडियों पर भी पड़ा था। उनके घूमने-फिरने पर कोई प्रतिबंध नहीं था, पर उनके साथ मटरगश्ती करनेवाले ग्राहकों की कमी हो गई थी। ऐसे मटरगश्ती करनेवालों पर पुलिस ने अपनी दबिश बढ़ा दी थी। पुलिस आधा-अधूरा संवेदनशील तो होती नहीं, सो वह हफ़्ता वसूलने के प्रति भी अतिरिक्त रूप से सजग और नियमबद्ध हो गई थी। कमाई के अभाव में रंडियाँ पुलिसवालों को ख़ुद को सौंपतीं। पर कुछ ही रंडियाँ ऐसा कर पातीं और अपने ठिकानों से निकल पातीं या अपने ठीयों पर रोशनी जला पातीं। बहुत बुरे दिन थे। बहुत बुरे। आतंकित करनेवाले बुरे दिन। इतने बुरे कि हल्की-फुल्की बीमारियों का असर भी इस आतंक के सामने फीका पड़ गया था। बस अड्डा और रेलवे स्टेशन के पॉकेटमारों और उचक्कों की जान भी साँसत में थी। पुलिस ने आला हाकिमों की लगातार आवाजाही में होनेवाले ख़र्चो का हवाला देते हुए हफ़्ते की रकम में बेतहाशा बढ़ोतरी कर दी थी। एक तो मुसाफिरों आवाजाही कम हो गई थी और ऊपर से रकम में यह बढ़ोतरी। उनकी जान निकल रही थी। शिकार को लेकर आपस मे ही झाँव-झाँव और मारकाट मची रहती थी। इस विस्फोट ने शहर की जड़ें हिला दी थीं।
मैं इन बुरे दिनों के गुंजलक से बाहर निकलना चाह रहा था। सच तो है कि मैं इस शहर से ही निकलने की तैयारी में था, पर एक के बाद एक घटनाओं का ऐसा सिलसिला शुरु हुआ कि मैं निकल नहीं सका। घटनाएँ बेड़ियों की तरह मेरे पाँवों को जकड़ती गईं। पहली बेड़ी तो बाबूजी ही बने। बचपन से ही उनके क्रोध का शिकार बनता रहा हूँ। क्रोध उनका स्थायी भाव था और उसे वे अपनी ताक़त मानते थे। और सचमुच उनका क्रोध बेहद ताक़तवर निकला। इसी क्रोध के हाथों वे पटखनी खा गए। ब्रेन हेमरेज हुआ और उन्हें लकवा मार गया। देह और दिमाग़ दोनों सुन्न। जिसके बिस्तर पर डर के मारे मक्खी तक नहीं बैठती थी, वह गू-मूत में लिथड़ा हुआ बिस्तर पर पड़ा था। गठिया से कराहती और निहुर-निहुर कर चलनेवाली अम्मा दिन-रात लगी रहती, पर यह सब अकेले उसके वश का नहीं था। मैंने बहुत धीरज के साथ बाबूजी की सुश्रुशा में अम्मा का हाथ बँटाना शुरु किया। बाबूजी चुपचाप बिस्तर पर पड़े रहते। बोलने की कोशिश करते पर शब्द गले में फँस जाते और अजीब-सी गों-गों करती आवाज़ निकलती। मैं जब भी उनके सामने होता, उनकी आँखें बहने लगतीं। वह लगभग तीन महीने तक इस यंत्रणा को भोगते रहे। पर इस तीन माह की यंत्रणा ने अम्मा की आँखों के आँसू पी लिये। बाबूजी की मृत्यु की प्रतीक्षा करते-करते अम्मा के मन की त्वचा भोथरी हो गई थी। कोई माने या न माने, पर मैं इस सच को नहीं झुठला सकता कि मन की भी, अदृश्य ही सही, त्वचा होती है। अम्मा ने अपने वैधव्य को सहजता से स्वीकार लिया। मृत्यु के बाद के रस्मी रुदन के सिवा और कोई ख़ास परेशानी उसने नहीं पैदा होने दी। उसका अपना स्वास्थ्य उस समय तक उसके वश में नहीं था, पर बाबूजी की मृत्यु के बाद जैसे-जैसे दिन बीतते गए वह अपने स्वास्थ्य को लेकर सतर्क रहने लगी। गठिया को तो जाना नहीं था और न ही झुकी हुई कमर सीधी होनेवाली थी, पर उसने बाबूजी की मृत्यु से पैदा हुए अवसाद को अपने भीतर पनाह नहीं दी।
दूसरी बेड़ी रज्जो बनी। हालाँकि रज्जो का मुआमला बाबूजी की बीमारी से पहले शुरु हो चुका था। काफ़ी पहले। बल्कि मेरे बाबूजी इस मामले में एक सक्रिय तत्त्व थे। उन्होंने रज्जो के मुआमले से भी अपने क्रोध के लिए रसायन अर्जित किया था। रज्जो उन्हें पसंद नहीं थी। इसलिए नहीं कि वह कुरूप थी या अशिक्षित थी या फिर चाल-चलन की ख़राब थी बल्कि, इसलिए कि रज्जो के पिता जाति के धोबी थे और उनके साथ उनके ही ऑफिस में काम करते थे। दोनों ने एक साथ लोअर डिविज़न क्लर्क के पद पर ज्वाइन किया था। बाबूजी बमुश्किल घिसटते हुए अपर डिविज़न क्लर्क हो सके थे और बड़ा बाबू बनने ही वाले थे कि फालिज मार गया। जबकि, रज्जो के पिता उन्हें पार करते हुए एओ यानी एडमिनिस्ट्रेटिव ऑफिसर बन चुके थे। वह बड़ा बाबू ज़रूर मेरे बाबूजी से पहले बने थे, पर एओ बनने के लिए उन्होंने डिपार्टमेंटल परीक्षा दी थी और पास होकर यह पद हासिल किया था। हालाँकि बाबूजी इसे पार करना नहीं, अपनी छाती पर पाँव रखकर आगे निकलना मानते थे।
मेरा और रज्जो का बचपन साथ-साथ गुज़रा है। हम संग-संग पले-बढ़े हैं। रज्जो बैंक की नौकरी के लिए परीक्षाएँ देना चाहती थी। उसने इकोनॉमिक्स आनर्स लेकर बी. ए. किया था और अच्छे नम्बरों से पास हुई थी। मैंने हिन्दी साहित्य में एम. ए. किया था और प्रोफेसर बनना चाहता था। ज़माने के चलन के हिसाब से मैंने पिछड़ी हुई फ़ालतू क़िस्म की पढ़ाई की थी, जिसका कोई भविष्य नहीं था। बाबूजी की इच्छा थी कि मैं सिविल सर्विसेज़ की परीक्षा दूँ और कलक्टर बनकर इसी शहर में आऊँ। बाबूजी जिलाधिकारी के दफ़्तर में ही काम करते थे। मैंने ‘हिन्दी कविता पर नक्सलवादी आन्दोलन का प्रभाव’ विषय पर पी. एच. डी. के लिए रजिस्ट्रेशन करा लिया था। बाबूजी की इच्छा का मान रखने के लिए मैंने सोचा था कि एक साल सिविल सर्विसेज़ की परीक्षा में बैठूँगा। पर मेरे बाबूजी को इस बात की भनक लग गई कि थी कि मेरे और रज्जो के बीच कोई चक्कर चल रहा है। बस, इतना ही काफ़ी था उनके लिए। उन्होंने ऐसा तांडव मचाया कि घर की दीवारें हिलने लगीं। अम्मा तो गौरैया की तरह इधर-उधर दुबकती फिरतीं और मैं पत्थर की मूर्ति की तरह निःशब्द उपस्थित रहता। मेरी छोटी बहन पुतुल, जो मेरे घर की प्रसन्नता की धुरी थी, बेहिस और बेजान-सी हो चली थी, पर वही एक थी जो बाबूजी का सामना करती। उसकी उपस्थिति में कुछ ख़ास था कि बाबूजी नरम पड़ जाते। ऐसे संकट के दिनों में वही बाबूजी को सम्हालती। और यह घर तो बाबूजी से ही था। उन दिनों हम सब यही मानकर जीते कि बाबूजी हैं, तो घर है। बाबूजी ख़ुश, तो घर ख़ुश।
बाबूजी के चलते काफी पहले से मेरे घर रज्जो का आना-जाना लगभग बन्द हो गया था। पहले पर्व-तेवहार के दिन आ जाया करती थी, पर धीरे-धीरे वह भी सिमट गया। हमसब एक ही कालोनी में पैदा हुए थे। नौकरी ज्वाइन करने के बाद मेरी अम्मा को लेकर जब बाबूजी इस कालोनी में रहने आए, मेरी बड़ी बहन गोद में थी। पर वह मेरे जन्म से पहले ही मर गई। उसे मलेरिया हो गया था। सुनते हैं कि उन दिनों इस ज़िले में यह बीमारी आम थी और अँग्रेज़ों के समय से चली आ रही थी। मेरी इस बड़ी बहन से बड़ा मेरा एक भाई भी था, जो शहर आने से पहले गाँव में ही पीलिया से मर चुका था। दो बच्चों की मौत के बाद जब मैं आया तो अम्मा ने ढेरों मनौतियाँ मानी। मैं बच गया। अम्मा बताती हैं कि जब मैं गर्भ में था तो मामला लगभग बिगड़ ही गया था, पर रज्जो की माँ ने दिन-रात उनकी देखभाल की। डॉक्टर ने अन्तिम तीन महीनों में बिस्तर पर से उतरने तक को मना किया था। बाबूजी ने जीवन में कभी चूल्हा फूँका नहीं था, सो एक दिन भात का माँड़ निकालते हुए हाथ जला बैठे। रज्जो की माँ उस दिन से मेरी पैदाइश के बाद अम्मा के सौर-घर से निकलने तक बाबूजी का भोजन अपनी रसोई से भेजती रहीं।
इस तरह की कॉलोनियों में अमूमन जैसा जीवन होता है, वैसा ही था हमारा जीवन। मेरे और रज्जो के प्यार में भी कुछ अनूठा या चकित करनेवाला या फिर चटपटा नहीं था। ऐसी कॉलोनियों में रहनेवालों के बच्चों के बीच जिस सहजवृत्ति से प्रेम पनपता है, वैसे ही पनपा था हमारा प्रेम। रज्जो विवाह के लिए उतावली तो नहीं थी, पर प्रेम में मेरे सर्दपन को लेकर उसके भीतर लगातार खीझ भरती जा रही थी। प्रेम ही नहीं, मेरे जीने के ढंग यानी जीवन के साथ मेरे बरताव को लेकर उसके भीतर एक निराशा भरती जा रही थी। वह मुझे चोट नहीं पहुँचाना चाहती थी। इसलिए वह मुझे सीधे-सीधे कायर या डरपोक तो नहीं कहती, पर उसके मन को भेदकर उसके चेहरे पर कुछ ऐसे ही भाव उभर आते। उसने अपेक्षाकृत एक बीच का शब्द मेरे लिए खोज निकाला था - मुंहचोर। जब बाबूजी जीवित थे और उनके आतंक के साये में पूरा घर थर-थर काँपते हुए जी रहा था, वह चाहती थी कि मैं अपनी माँ के पक्ष में तन कर खड़ा हो जाऊँ। जब रज्जो को लेकर पहली बार मेरे घर में बवाल मचा, वह स्वयं इस बाबत मेरे बाबूजी से संवाद करना चाहती थी। उसे अपने ऊपर भरोसा था कि वह उन्हें अपनी बातों से निरुत्तर ही नहीं बल्कि, अपने व्यवहार से विवश कर देगी कि वे उसे स्वीकार कर लें। उसे अच्छी तरह मालूम था कि मेरे बाबूजी उसके पिता से घृणा करते हैं, इसके बावजूद वह उनसे अपने लिए नमी की उम्मीद रखती थी। वह चाहती थी कि मैं अपने बाबूजी से अपने शोध का विषय “हिन्दी कविता पर नक्सलवादी आन्दोलन का प्रभाव” न छुपाऊँ। वह यह भी चाहती थी पिछले दस सालों से मैं जिन कविताओं को लिख रहा हूँ उन्हें प्रकाशित करने के लिए पत्र-पत्रिकाओं को भेजूँ। उसका मानना था कि मैं नाहक उन कविताओं की गुणवत्ता को लेकर चिन्तित और निराश रहता हूँ। वह अपनी इस धारण पर अडिग थी कि मेरे शोधगुरु प्रोफेसर रणविजय सिंह लम्पट और जाहिल हैं और वे तब तक मेरा शोध पूरा नहीं होने देंगे, जब तक मैं उनकी नीम पागल बेटी से विवाह के लिए राजी नहीं हो जाता।
बाबूजी के गुज़र जाने के बाद मेरे घर रज्जो के आने-जाने पर कोई प्रतिबंध नहीं था, पर वह तभी आई, जब एक दिन अम्मा उसकी बाँह पकड़ खींच लाईं। उसके बाद वह आती, पर पहले की तरह मुझसे मिलने नहीं......अम्मा की खोज-ख़बर लेने या मेरी छोटी बहन पुतुल से मिलने-बतियाने। अजीब दिन थे......जैसा कि मैंने पहले ही कहा कि सुख और दुःख का फ़र्क़ ही मिट चला था। पिता के विदा होने के बाद घर में चुप्पी थी। अजीब-सी चुप्पी, जिसका कोई ओर-छोर नहीं था। लगता, मानो अम्मा विश्रांति की चादर ओढ़े गहरी निद्रा में सो रही हों......और बहन जलकुम्भियों से भरे थिर पोखर की तरह अपनी उम्र की विपरीत दिशा में मौन बैठी हो।......और मैं......। मुझे लगता मैं हलंत की तरह बिना स्वर वाले व्यंजन की तरह के नीचे लटका हूँ। मैं अक्सर सारी-सारी रात जागता। नींद आती भी तो उचट-उचट जाती। पिता और रज्जो दोनों मेरी रातों की नींद में......टूट-टूट कर आने वाले सपनों में अझुराए हुए थे। आँख लगती तो साँकल खटखटाने की आवाज़ सुनाई पड़ती। जाने क्यों लगता कि रज्जो साँकल खटखटा रही है..... और नींद उचट जाती। यह जानते हुए भी कि किसी ने साँकल नहीं खटखटाई.......कोई आवाज़ नहीं हुई....रज्जो नहीं है दरवाज़े पर......मैं उठकर दरवाज़े तक जाता। दरवाज़ा खोलकर देखता। सोचता, इस पुराने सरकारी क्वार्टर के दरवाज़े में लगे इस साँकल को बदल दूँगा, पर.......। कभी नींद में खाँसने की आवाज़ सुनाई देती..... देर रात घने कुहासे में सड़क किनारे बैठकर खाँसते हुए किसी बूढ़े की आकृति दिखाई पड़ती। अस्पष्ट चेहरा....धीरे-धीरे पिता के चेहरे में बदलता हुआ चेहरा। खाँसी की तेज़ ढाँय-ढाँय करती आवाज़......जो धीरे-धीरे हँफनी में बदल जाती...... दर्द से लबरेज़ .....घुटती हुई हाँफ.....। यह प्राणलेवा अनुभव था।.....मृत्यु से ज़्यादा भयावह और आतंककारी अनुभव। मैंने पिता को कभी उनके जीवनकाल में इस तरह खाँसते-हाँफते नहीं देखा था। बीमारी के दिनों में भी नहीं। घर में जो कुछ था, पिता की बीमारी में छीज चुका था। बस अम्मा के गहने थे जिसे वह बेटी की शादी के लिए कलेजे से लगाकर बमुश्किल बचाए हुए थीं। फैमिली पेंशन के कागज़ात अभी दफ्तरों के चक्कर लगा रहे थे। रज्जो के पिता जी-जान से लगे हुए थे, पर मुआमला अकेले उनके वश का नहीं था। कागज़ातों को नगरी-नगरी द्वारे-द्वारे भटकना था। पिता की जगह पर सहानुभूति के आधार पर नियुक्ति के लिए आवेदन देने के समय तमाम सामाजिक दबावों के विपरीत जाकर रज्जो ने मेरी मदद की थी। उसने अम्मा की ओर से दिए गए आवेदन में सबको समझा-बुझाकर बहन का नाम दर्ज करवाया था। मेरी प्रकृति का हवाला देते हुए उसने मुझे लोकापवाद से बचाने की कोशिश की थी। फिर अचानक एक अच्छा दिन हमारे जीवन में आया। राज्य की राजधानी स्थित अकाउन्टेन्ट जेनरल के ऑफिस से फैमिली पेंशन के काग़ज़ात स्वीकृत होकर आ गए। अम्मा और बहन, दोनों एक-दूसरे को अँकवार में भरकर रोती रहीं। उस समय रज्जो भी थी। चुपचाप खड़ी रही। हमने जी भर कर रोने दिया दोनों को।
इस बीच और भी बहुत कुछ घटा था। जैसे, रज्जो ने बैंक के बदले सिविल सर्विसेज़ की परीक्षा की तैयारी शुरु की........और आरम्भिक परीक्षा में अच्छे रैंक से पास होकर मेन्स की तैयार में लगी थी। आरम्भिक परीक्षा पास करने और अच्छे रैंक लाने की ख़ुशी कब आई और कब चली गई पता ही नहीं चला। रज्जो का चेहरा इन दिनों भावशून्य हो चला था। वह चुप-चुप रहती। लगता मानो किसी ने चेहरे का सारा सत्त निचोड़ लिया हो। कभी-कभी तो मुझे उसके चेहरे से झाँकता हुआ अपनी अम्मा का चेहरा दिखने लगता। पिता जब जीवित थे अम्मा का चेहरा ऐसा ही बिना सत्त का दिखाई पड़ता था।
अम्मा के चेहरे पर रौनक कभी रही नहीं, सो अब भी नहीं थी, पर सुकून के भाव ज़रूर दिखने लगे थे। बस एक पुतुल थी,....पुतुल, मेरी छोटी बहन,.....जिसका चेहरा आश्चर्यजनक रूप से बदल गया था। बाबूजी की बीमारी.....फिर मृत्यु.....अम्मा के दुखों का मौन हाहाकार........घर का दैन्य.....मेरे निठल्लेपन से उपजी निःसंगता,..... यह सब झेलते हुए अपनी रंगत खो चुका उसका चेहरा इन दिनों अचानक दीप्ति से भरने लगा था। बया के खोते की तरह उलझे हुए उसके केश सज-सँवर कर लहराने लगे थे। उसकी आवाज़ महीन-मीठी और लयबद्ध हो चली थी। जब कभी वह सामने आती.......कभी चाय की प्याली लेकर या कभी नाश्ता-खाना लेकर........मेरे बहुत निकट,.....मैं उसे ग़ौर से देखता। अपने को ग़ौर से निहारते हुए मुझे पाकर वह अचकचा जाती।
जब रज्जो ने मुझसे कहा........
वह जाते हुए फागुन की साँझ थी। हमारी कॉलोनी के पीछे वाले हिस्से में एक छोटा-सा मैदान था। मैदान के एक किनारे शिरीष के कुछ पेड़ थे। उन पेड़ों की छाँह में पत्थर की तीन बेंचें थीं। बीच वाली बेंच पर बैठा मैं सामने मैदान में क्रिकेट खेलते बच्चों को देख रहा था कि रज्जो आती हुई दिखी। उसके हाथ में कोई किताब थी। वह पास आई। एक फीकी मुस्कान उसके चेहरे पर उभरी और वह मेरे बगल में बैठ गई।.....हवा.....हल्की हवा। मन को उत्फुल्ल करती हवा। शिरीष के पेड़ धुनिया बने रूई की तरह धुन रहे थे हवा को। सूरज जा चुका था। उसकी ललछौंही रोशनी की आस पसरी हुई थी, जैसे अभी-अभी लोप हुई किसी आलाप-घ्वनि का कम्पन पसरा हो। जाने क्यों मुझे औरों की तरह डूबता हुआ सूरज उदास नहीं करता। और ऐसी साँझ, जो हल्की हवा के पर लगाए तैर रही हो, अक्सर मुझे उत्फुल्ल बना देती है। सुबह होते ही जैसे चिड़ियों के पंख खुल जाते हैं, ऐसी साँझ में मेरे पंख खुलने लगते हैं। .......रज्जो का पास आकर यूँ बैठना मुझे बहुत अच्छा लगा था। अरसे बाद हम दोनों घर से बाहर...... शिरीष की छाँव में बैठे थे।
रज्जो ने मुझसे कहा......” पुतुल और हेमंत.....”
मैंने रज्जो की ओर देखा था और नज़रें झुका ली थीं। रज्जो के चेहरे पर दृढ़ता थी। इत्मिनान था। हमारे बीच कुछ पलों का मौन पसर गया था। “तुम अम्मा से बात कर लो।” रज्जो बोली।
“मैं?........तुम्हीं कर लो। अम्मा को भला क्या एतराज़ होगा!”
मेरी बात पर रज्जो के होंठ हिले थे। कोई आवाज़ नहीं। पर मैं समझ गया था कि रज्जो क्या कह रही है। कुछ देर तक फिर अबोला रहा हमारे बीच। रज्जो उठी। मेरी ओर देखती रही। मैं ख़ाली मैदान की ओर देख रहा था। बच्चे जा चुके थे। साँझ तेजी से रात में तब्दील हो रही थी। मेरी पीठ पीछे खड़े शिरीष के पेड़ों के ऊपर से......मैदान के दायीं ओर कॉलोनी की फेंस की दीवारों के उस पार से.....बायीं ओर मैदान के उस पार बने क्वार्टरों की छतों से उतर कर अँधेरा मैदान में भरने लगा था। अँधेरे को ठेलने की कोशिश में नाकाम हवा मुँह चुराकर जाने कहाँ छिप गई थी। कुछ देर पहले तक जो हवा मन-प्राण को उम्फुल्ल बना रही थी, उसका यूँ अचानक पराजित होकर छिप जाना मुझे बेचैन कर रहा था।
“यहीं बैठो रहोगे.......चलना नहीं?” रज्जे ने पूछा। उसका स्वर संयत था।
“नहीं..... अभी कुछ देर और बैठूँगा।......अम्मा से बात कर लेना.....जितनी जल्दी हो सके बात कर लेना......।” मेरा स्वर टूट रहा था।
“तुम चलो तो सही यहाँ से.....” उसका संयत स्वर स्वर दयार्द्र हो चला था।......” “रात-बिरात इस तरह मत भटका करो। देख ही रहे हो कि आजकल पुलिस बेवजह लोगों के पीछे पड़ी रहती है। कल हेमंत के एक दोस्त को सारी रात थाने में बिठाए रही पुलिस।..... चलो।”
हम दोनों साथ-साथ चल रहे थे शिरीष के पेड़ों के नीचे बनी पगडंडी पर। अँधेरे के बीच आकंठ डूबे थे हम दोनों, पर राह परिचित थी, सो चले जा रहे थे। जहाँ शिरीष के पेड़ों का सिलसिला ख़त्म होता था, वहीं से राह मुड़ती थी दाहिनी ओर और बायीं ओर क्वार्टरों का सिलसिला शुरु होता था।
“ तुम सहेजो अपने को......” रज्जो ने चलते हुए मेरा हाथ पकड़ लिया। “........मैं तुम्हें बदलने को नहीं कह रही। जानती हूँ, तुम्हें बदल नहीं सकती......चाहती भी नहीं कि तुम बदलो,.....पर सहेज तो सकते हो अपने को।........पुतुल और हेमंत हमारे लिए साझा दायित्व हैं। हेमंत ने पापा से बात की है। मेरी माँ तो बहुत ख़ुश है।......पर माँ-पाप दोनों चाहते हैं कि पहले मेरी शादी हो जाए.....।”
रज्जो की हथेली का कसाव बढ़ता जा रहा था। मुझे मरते हुए अपने पिता की हथेली का कसाव याद आ रहा था। मरते समय उनके लकवाग्रस्त हाथों में जाने कहाँ से सौ-सौ हाथियों की ताक़त आ गई थी। उन्होंने अचानक मेरा हाथ पकड़ लिया था। अक्सर बंद रहने वाली उनकी आँखें विस्फारित हो गई थीं और उनमें क्रोध के बदले करुणा की बाढ़ आ गई थी। अपनी अस्फुट गों-गों करती हुई आवाज़ में वह कुछ कहना चाह रहे थे। ......मानो अपनी हथेलियों के कसाव और अपनी अस्पष्ट आवाज़ में कोई याचना कर रहे हों। रज्जो की हथेलियों के कसाव में भी याचना थी। अदृश्य याचना।
शिरीष के पेड़ों का सिलसिला ख़त्म हो गया था। रज्जो की हथेली का कसाव धीमा हुआ। हमें दायीं ओर मुड़ना था। यहाँ से क्वार्टरों की क़तारें थीं, जो आगे जाकर दायीं ओर मुड़कर मैदान के उस पार बने क्वार्टरों वाली क़तार से मिल जाती थी। घरों की खिड़कियों-दरवाज़ों से छनकर आती रोशनी के टुकड़ों की हल्की मरियल-सी उजास फैली हुई थी। वह रुकी। मेरी ओर देखा। वह अँधेरे को चीरकर मेरी आँखों की राह मेरी आत्मा के अतल में उतरती हुई बोल रही थी “.....मैंने पापा को कह दिया है कि मैं अभी शादी नहीं करुँगी।...हेमंत अगर तैयार है शादी के लिए तो मुझे कोई एतराज़ नहीं।.......पर.....अगर......”
रज्जो के इस ‘पर....अगर‘ में सवाल थे। अनगिन सवाल। मैं क्या जवाब देता भला! सवाल चाहे कितने भी सही और ज़रूरी हों, उनके जवाब हर बार मिल ही जाएँ यह ज़रूरी नहीं। मैं उसके सवालों के जवाब नहीं दे सकता था। जवाब थे भी नहीं मेरे पास। मैंने कहा, “ तुम अम्मा से बात कर लो......जितनी जल्दी हो सके......”
रज्जो ने मेरा हाथ छोड़ दिया था। हम दोनो आगे बढ़े। पहले रज्जो का क्वार्टर था। उसके बाद आगे की पंक्ति में बायीं ओर मुड़ने पर मेरा क्वार्टर, जिसे खाली करने के लिए अंतिम सरकारी नोटिस आ चुका था। मैं आगे निकला। मैं जानता था, रज्जो वहीं खड़ी मुझे जाते हुए देख रही होगी..... लगातार..... अपलक... । बायीं ओर मुड़ते ही मुझे रज्जो दिखी थी।
सचमुच अजीब दिन थे। विचित्रताओं से भरे हुए दिन। इस बीच पुतुल की नौकरी के कागज़ात आ गए। उसने यहीं...इसी शहर के उसी दफ़्तर में, जिसमें बाबूजी काम करते थे, कम्प्युटर डाटा ऑपरेटर के पद पर ज्वाइन किया। रज्जो के पापा ही उसके इमीडियट बॉस थे, सो सब कुछ बहुत सहजता से हुआ। जिस दिन पुतुल ने ज्वाइन किया उसी शाम मेरे शोधगुरु प्रोफेसर रणविजय सिंह ने मुझे बुलाया था और साफ़-साफ़ कहा था कि मैं उनके धैर्य की परीक्षा न लूँ........कि उनका धैर्य अब जवाब देने लगा है.......कि मुआमला सिर्फ़ शोध का नहीं है और उनके पास मुझे तबाह करने के और भी हथियार हैं......ऐसे अचूक हथियार जिससे मुझे कोई नहीं बचा सकता.....आदि.....आदि....।
ये अजीब दिन.....विचित्र दिन आगे सरकते रहे। अम्मा ने पुतुल और हेमंत के विवाह की अनुमति दी। रज्जो के माता-पिता ने उत्साह और सम्मान के साथ पुतुल को अपनी बहू बनाया। सब-कुछ सादगी के साथ सम्पन्न हुआ। पूरे प्रकरण में रज्जो किसी अनुभवी दादी-नानी की तरह सूत्र संचालन करती रही। हेमंत ने बमुश्किल बीए पास किया था, सो उसके पिता ने शहर के एक नए बने शॉपिंग कॉम्प्लेक्स् में उसके लिए स्टेशनरी की एक दुकान खुलवा दी। अम्मा ने हेमंत और पुतुल के विवाह के लिए राज़ी होने से पहले रज्जो के सामने शर्त रखी थी कि अब रज्जो और मेरे बारे में वह अपने जीते जी कोई बात नहीं सुनेंगी। यह रहस्य रज्जो ने नहीं, ख़ुद अम्मा ने पुतुल को विदा करने के बाद लगभग पश्चाताप के स्वर में खोला था और साथ ही अपनी बातों से यह भी संकेत दिया था कि वे अपनी इस शर्त पर जीते जी अडिग रहेंगी ताकि ऊपर जाकर पति का सामना कर सकें। बिना बाप की बेटी की ज़िम्मेदारी उनकी लाचारी थी, सो जो बन सका, उन्होंने किया या जो हुआ, उसे स्वीकार किया। ......पर मैं उनकी लाचारी नहीं था, सो मेरे पिता का मान रखने के लिए वे तय कर चुकी थीं कि मैं और रज्जो अब एक नहीं हो सकते।
पेंशन से अम्मा की गृहस्थी चल रही थी। इस बीच रज्जो इंडियन रेवेन्यु सर्विसेज के लिए चुनी गई। जिस दिन यह ख़बर आई हमारे परिवारों में पर्व-त्योहार का माहौल था। रज्जो की सफलता ने कई तरह की ख़ुशियाँ दी थी। ज़िलाधिकारी के कार्यालय में लोअर डिविज़न क्लर्क से एडमिनिस्ट्रेटिव ऑफिसर बने रज्जो के पिता की हैसियत में उछाल आ गया था। मेरी अम्मा इस बात को लेकर ख़ुश थीं कि अब मेरी और रज्जो की हैसियत में आसमान ज़मीन का फ़र्क़ आ गया था, जिससे हमारे विवाह की सम्भावनाएं अम्मा के जीवन-काल के बाद तक के लिए मिट गई थीं। मैं ख़ुश था कि अब रज्जो को कोई यह नहीं कह पायेगा कि वह मेरे चक्कर में बरबाद हो गई।.........और रज्जो? एक रज्जो ही थी जिसके मन की थाह मुश्किल थी। अजीब है यह लड़की! अपने मन को अपनी मुट्ठी में भींचे रहती है। पहले ऐसा नहीं था। रज्जो ही थी जो पल-छिन में मौसम बदल देती थी। पंछियों की तरह फुदकती हुई चलती....... कभी झिर-झिर बहती पुरुवा की तरह लहराती तो कभी तेज़ पछिया की तरह उड़ती फिरती। कितने अलग थे वे दिन जब वह बात बे-बात मुझसे लड़ती......मेरे आलस्य और चीज़ों को बिखराए रहने की मेरी आदत पर बड़बड़ करती.......। बिजली-सी एक चमक, जो भरी रहती थी उसकी आँखों में.....जाने कहाँ छिटक कर चली गई! कदम्ब के फूल की तरह भरी-भरी सी अपनी देह को बिसार ही दिया था रज्जो ने। धीरे-धीरे बदलती गई रज्जो। कब और कैसे बदली, पता ही नहीं चला। जैसे आश्विन माह के निरभ्र आकाश में विहरते चन्द्रमा को लील जाए कोई, वैसे ही उसकी कांति बुझ गई थी। पुतुल और हेमंत ने रज्जो की सफलता पर पार्टी दी। कॉलोनी के बीच वाले मैदान में पंडाल बना था। पूरी कॉलोनी ने जश्न मनाया। रज्जो के पिता के भाग्य से ईर्ष्या करते हुए लोग आए और उन्हें बधाई दी। मैं सबसे अन्त में पहुँचा था। लगभग सारे लोग जा चुके थे और चीज़ें समेटी जा रही थीं। जिस दिन यह पार्टी थी, उसी दिन मेरे शोधगुरु प्रोफेसर रणविजय सिंह की नीम पागल बेटी ने छत से कूद कर आत्महत्या कर ली थी और मैं उसके दाह-संस्कार से लौटा था। ........ सच, कितने भयावह थे वे दिन!
रज्जो अपनी नौकरी के प्रशिक्षण के लिए दूसरे शहर चली गई। उसे विदा करने उसका सारा परिवार स्टेशन गया था। अम्मा भी थीं। मैं भी गया, पर ट्रेन खुलने पर। स्टेशन पहुँचा तो ट्रेन सरक रही थी। मैंने......हम दोनों ने एक-दूसरे को देख लिया था। दोपहर बाद की ट्रेन थी। मैं अमूमन शाम को घर में नहीं रहता था, पर उस शाम मैं कहीं नहीं गया। स्टेशन से सीधे घर लौटा और फिर घर से बाहर निकला ही नहीं। अम्मा रज्जो के घर पर थीं। बेटी के बिछोह में रोती-बिसूरती रज्जो की माँ को ढाढ़स देने में लगी थीं।
मुझे कई दिनों से लग रहा था मेरे भीतर कुछ सड़ रहा है और मैं उस सड़ाँध की बू से परेशान था। क्या बताता किसी को या क्या पूछता किसी से! ......यही कि मेरे भीतर कुछ सड़ गया है या सूँघ कर बताओ मुझे कि क्या सचमुच मुझसे कुछ सड़े हुए की बू आ रही? कई बार लगता घर में ही कहीं कुछ सड़ रहा है। उस शाम मैं घर पहुँच कर बहुत देर तक परेशान रहा। फिर कई दिनों से इधर-उधर बिखरी अपनी किताबों.... पुराने दिनों की कुछ तस्वीरों.....कुछ ख़तो.....अख़बारों की कुछ कतरनों....... कुछ कॅसेट्स.... सबको तरतीब देने में लगा रहा था। काग़ज़़ के टुकड़ों पर जहाँ-तहाँ पड़ी अपनी कविताओं को सहेजता रहा था। अरसे बाद कॅसेट प्लेयर को हाथ लगाया और फ़ैज़ को सुना....मक़ाम फैज़ कोई राह में जँचा ही नहीं......जो कूए-यार से निकले तो सूए-यार चले......। मन थोड़ा हल्का हुआ। सोच रहा था कि कुछ लिखूँ कि........। मैंने पहले ही कहा था न कि उन दिनों कुछ अच्छा भी होता, तो ऐसे अचानक होता कि मन के भीतर भय की लकीर छोड़ जाता।.... अब भला संगीत से अच्छा और क्या हो सकता है इस पृथ्वी, पर संगीत सुनते-सुनते मुझे किसी दूर देश में दिखने वाला वह कल्पित तारा सुहेल याद आ गया, जिसके उदित होते ही पूरी प्रकृति में एक गंध फैल जाती है.....मादक गंध और इस गंध से पृथ्वी के सारे जीव मर जाते हैं।....... मेरी देह काँपने लगी थी और मैं घुटनों में मुँह छिपाकर बिस्तर पर बैठ गया। अपनी थरथराती देह पर क़ाबू पाने की कोशिशें करता रहा। पर अन्दर बाहर सब काँपता रहा। मन मेरे वश में नहीं था और अपनी देह से अपरिचित ही रहा था अब तक, सो बहुत देर तक वैसे ही घुटनों में मुँह छिपाए बैठा रहा।......दरवाज़ा खुला था। सच कहूँ, मैं रज्जो की प्रतीक्षा कर रहा था। जाने क्यों मुझे लग रहा था कि रज्जो आ रही है। अगले किसी स्टेशन पर उतर कर उसने वापसी की ट्रेन पकड़ ली है और अब बस पहुँचने ही वाली है।..... घुटनों में मुँह छिपाए हुए उस रात कब मैं बिस्तर पर लुढ़क गया,....कब अम्मा घर लौटीं..... मुझे कुछ पता नहीं।
सुबह अम्मा की आवाज़ से नींद खुली। “उठ।.....देख पुलिसवाले आए हैं।.....पूछ रहे हैं तुझे.....।” अम्मा के चेहरे पर घबराहट थी। मैं कुछ जानूँ-समझूँ इसके पहले वे सब धड़धड़ाते हुए भीतर घुस आए। आठ-दस रहे होंगे। उनमें से एक शिकारी कुत्ते की तरह मेरे ऊपर झपटा था। उसने मुझे बिस्तर से नीचे खींचा और बेरहमी से मेरी एक बाँह मोड़कर पीठ पर चढ़ा दी थी।
“क्या नाम है तुम्हारा?”
मैंने अपना नाम बताया।
“बाप का नाम?”
मैंने पिता का नाम बताया।
“साले नक्सलाइट, घर में घुसरे बैठे हो.....बिल में घुसे हो चूहे की तरह और हम लोग महीनों से तुम्हारे लिए दर-दर भटक रहे हैं।...... चल साले तेरा खेल खतम। अब हमारा खेल चालू। चल......। बम पटकने में तो बहुत मजा आया होगा राजा ..... अब फटेगी स्साले तुम्हारी......” मैं चल रहा था, पर वे घसीटते हुए ले जाना चाहते थे, सो घसीटते हुए ले चले।
इसके बाद के दिन हस्ब-ए-मामूल गुज़रे। हाजत। हाजत में गाली-गलौज,.....मार-पीट। कोर्ट में पेशी। पुलिस रिमान्ड पर पन्द्रह दिनों तक रौरव नर्क की सी यातना। फिर जेल।.....रज्जो के पिता अपनी प्रतिष्ठा-हनन को लेकर क्षुब्ध और अपनी सरकारी नौकरी के कारण इस प्रकरण से तटस्थ। अम्मा के वश का कुछ था नहीं और हेमंत की सीमाएँ थीं। एक ओर पिता और दूसरी ओर उसका नया-नया शुरु हुआ व्यवसाय। उससे जितना भी सम्भव था, लगा रहा। आज भी मुक़दमे की पैरवी में कोर्ट-कचहरी के चक्कर वही काटता है। शुरु-शुरु में अम्मा हर हफ़्ते जेल में मिलने आती थीं और मुझे देखते ही रोने लगतीं। मैंने अम्मा से तो कुछ नहीं कहा, पर हेमंत को कहा कि वह अम्मा को समझाए कि हर हफ़्ते..........। पता नहीं हेमंत ने समझाया या स्वयं उन्होंने अपने को! धीरे-धीरे अम्मा के आने का अंतराल बढ़ता गया। ज़ख़्म भले न भरें, पर समय उन पर पपड़ी तो डाल ही देता है। और अम्मा तो ऐसे पपड़ियाए ज़ख़्मों के साथ जीने की अभ्यस्त थीं। पति का आतंक,......दो बच्चों की अकाल-मृत्यु......पुतुल का विवाह......। पहले लोअर कोर्ट ने बेल पेटिशन ख़ारिज किया और उसके बाद हाईकोर्ट ने। हेमंत की सारी कोशिशें बेकार गईं। हाईकोर्ट से बेल पेटिशन ख़ारिज होने के बाद मुझे ख़तरनाक प्रजाति का क़ैदी मानते हुए ज़िला जेल से राजधानी के सेन्ट्रल जेल में ट्रांसफर कर दिया गया था।
अब सब ठीक-ठाक है। वो अजीब समय......विचित्रताओं से भरा समय अब जा चुका है। अब हादसों का मौसम नहीं रहा। बाबूजी के पेंशन से अम्मा का गुज़ारा चल जाता है। देखरेख के लिए पुतुल है ही पास में। बाबूजी वाला क्वार्टर पुतुल के नाम अलॉट हो गया है। महीने दो महीने पर सबका हाल-समाचार देने हेमंत आ जाता है। वैसे भी अपने व्यवसाय के सिलसिले में उसका आना-जाना लगा ही रहेगा। पिछली बार वह अम्मा के हाथ के बनाए शक्करपारे लाया था। सुकून से कट रहे हैं मेरे दिन। जेल के साथियों को पढ़ाना चाहता हूँ, पर जेलर तैयार नहीं। उसका कहना है कि मैं बेहद ख़तरनाक़ क़ैदियों की कॅटेगरी में हूँ, सो मुझको इसकी इजाजत नहीं दी जा सकती। पर उसने मुझे आश्वासन दिया है कि वह जेल आईजी को इस बावत लिखेगा। ....हाँ, रातों को अब भी नींद नहीं आती। पहले भी नहीं आती थी। बस इतना ही फ़र्क़ है कि आजकल अगर कभी नींद आती है, तो मुझे सपने में अपने शहर का वह अहिंसा मैदान दिखने लगता है और मैं चौंक कर जाग जाता हूँ। सोचने लगता हूँ कि विस्फोट से बना वह विशाल गड्ढा क्या सचमुच भरा जा सकता है?......क्या वे इसे भर सकेंगे?....... इतनी माटी लायेंगे कहाँ से वे?...... या फिर उस गड्ढे को मेरे शहर के हत्यारे भरेंगे लाशों से? मेरी गिरफ़्तारी से पहले मेरे शहर के स्थानीय समाचार पत्रों में एक ख़बर आई थी कि अहिंसा मैदान के बीच के हिस्से को पार्क में विकसित किया जायेगा और उसमें गाँधी की प्रतिमा लगेगी। वह गड्ढा ठीक बीचोंबीच तो नहीं, लगभग बीच में है। मैं सोचता रहता हूँ कि अगर हत्यारों ने उस गड्ढे को लाशों से भर दिया तो?.......तो क्या उसके ऊपर की माटी पर फूल लगायेंगे सब। अगर फूल लगे, तो कौन से फूल लगेंगे?......गुलाब?....मोगरा?.... सेवंती?....वैजयंती?......या फिर गोभी के?......जैसे भागलपुर में एक कुआँ को लाशों से पाटकर.....उसके ऊपर माटी डालकर गोभी के फूल उगाए गए थे!.......अगर मैं इस समय अपने शहर में होता, तो पता करता कि आख़िर वे क्या करना चाहते हैं! पर क्या मैं रज्जो के जाने के बाद.....अगर गिरफ़्तार नहीं होता तो भी,.....वहाँ रज्जो के बिना रह सकता था?
कविताओँ मेँ इन दिनों माँ - अर्चना वर्मा | Mother in these day's poems - Archana Verma #HappyMothersDay

कविताओँ मेँ इन दिनों माँ
उन्नीस सौ नब्बे का साल ।
इस साल कवियों नेँ माँ पर कविताएँ लिखीं
अनगिनत।
कविताओं में इन दिनों जहाँ देखो तहाँ
चक्की चलाती गुनगुनाती हैँ माँ।
घर छोड़ नये नये दिल्ली आये कवियों का
आँचल की हवा से माथा सहलाती
लोरियाँ सुनाती है, दुलराती है बेहद
महज़ दुलराती है। न थकती, न सोती
सबने उसे सिर्फ़ जागते ही देखा है।
कहीं मेरे बेटे किसी दिन देख न लें यह तस्वीर
डरती हूँ।
वे तस्वीर को देखेंगे, फिर मुझे
चक्की की तरह खुद चलती हुई लगातार
घर और दफ़्तर का अलग अलग संसार
कौन कब साबुत बचा दो पाटों के बीच।
कल के कामों की सूची बनाती हूँ आज
अगले दिन की सूची मेँ
पिछले के बचे हुए कामों को चढ़ाती हूँ
चलती हुई सड़क तो कुचलती हुई सड़क है।
हर वक्त बाकी है कोई न कोई काम
हर वक्त थकान। हर वक्त परेशान।
कथाओं मेँ दुःस्वप्न हैँ। लोरियों में खबरदार।

माँ की गोद से बड़ा, बहुत बड़ा है संसार
डरावना और खूंख्वार।निर्मम ललकार।
अभ्यास के लिये आओ।
सँभालो अपने पंजे और नाखून, हथियार पैनाओ।
उँगली छुड़ा लेने का वक्त अब करीब है।
डरती हूँ।
तैयारी कभी पूरी नहीं होती भविष्य से मुकाबले की।
अभ्यास मेँ वे सचमुच अभ्यस्त न हो जायँ कहीं
केवल हथियार के।
चिह्न भी न बाकी रहें कहीं किसी प्यार के।
कैसे सिखाऊँ प्यार और हथियार साथ साथ
सिर्फ़ सैर में पिकनिक सा देखा है संसार
देहरी पार का, डरती हूँ।
डरती हूँ इस दिनों कविताओं से भी
कोनों में अँतरों मेँ छिपाती हुई फिरती हूँ
कहीं मेरे बेटे देख न लें वहाँ माँ की वह तस्वीर
और मुझे पहचानने से इंकार कर दें।
कीचड़
ऐन दरवाज़े से लेकर
सड़क तक पानी भर जाता था हर बरसात में
धीरे धीरे सूख कर कीचड़ में बदलता हुआ
बचपन मेँ उसको माँ ने सिखाया था
दो ईंटो के सहारे किच किच काँदों से बचकर
कीचड़ को पार करने का तरीका
एक ईँट डालो। पहला कदम ईंट पर।
दूसरी ईंट डालो। दूसरा कदम ईंट पर।
घूमकर पीछे से उठाओ पहली ईंट।
आगे ले आओ । याद रहे सन्तुलन सधा रहे।
अगला कदम ईंट पर।
घूमकर पीछे से उठाओ दूसरी ईंट । आगे ले आओ
ज़रा सा भी चूके और गये। अगला कदम ईंट पर।
घूम कर पीछे से उठाओ….
बरसों पहले चला था सड़क पर पहुँचने के पहले ही

सड़क का न अता न पता, कीचड़ की नदी है एक।
माँ से मिली पूँजी। ये ही दो ईंटे कुल। लथपथ।
झुकते सँभलते उठाते आगे ले आते पीठ दोहर गयी
पिंडलियाँ अकड़ चलीं।
जाँघों की रग रग में सीसा भरा है। बाहें बेजान हुईं।
घूम कर पीछे से उठाना है। आगे ले आना है।
कदम रखने को ईंट भर जगह। लथपथ।
अब तो उसे पीछे से घूमकर आगे के सिवा
और कुछ याद नहीं। पीछे भी पीछे सा
आगे भी आगे सा रहा कहाँ।
घूमकर पीछे भी आगे सा लगता है
आगे भी पीछे सा सुझाता है। जाने कहाँ जाना है
जैसे भी हो बस ईंटों को बचाना है।
उसे लौटना है माँ के संसार में।
धीरज अथाह और क्षमा भी अनन्त वही
दुनिया को दूसरा चेहरा पहनाना है
घूमकर पीछे से माँ के संसार को उठाना है
आगे ले आना है।
सड़क पार का मैदान अब
कीचड़ का समुद्र है, नीले और बैंगनी बुलबुलों में फूटता।
कब इतनी बारिश कहाँ हुई पता नहीं।
मैदान के पार शायद सड़क हो।
माँ से मिली पूँजी। कुल ये ही दो ईंटें।
पिता के संसार में कहाँ तक जायेंगी ?
इन्हीं को बचाने की धुन ऐसी अपने में खुद
गन्तव्य बन जायेगी। पाँव भर टिकाने की जगह।
वह भी लथपथ।
पिछली सदी की एक औरत का बड़ी हो गयी बेटी के नाम एक बयान
शायद तू ही ठीक कहती होगी,
मेरी बिटिया
बच्चे
हमेशा ही बेहतर जानते हैं
तेरी उम्र के बच्चे
खास तौर से।
रास्ता दिखाना कितना आसान है
खुद देखना कितना कठिन।
फिर भी
तेरी उंगली पकड़ कर, तुझे दिखाने
नहीं ले जा सकती वे रास्ते
जिन पर मैं चल आई।
वे भी नहीं जिन पर तू चले।
सदी का आखीर अभी दूर था।
जब मैने कभी कोई फ़ैसला सही वक्त पर
सही तौर से नहीं किया.
ठीक कहती है तू, मान लिया।
खासे तूफ़ान रहे ज़िंदगी में अपनी भी
ठीक कहती है तू , सब के सब
चाय की प्याली में आये थे।
नींव की ईंटों को मलबा कहा जाता है।
अंकुर भी उगाये थे। पाये थे अनेक सच
जिनको आज अपना कह सकती हूं
गंवाये भी होंगे ही कुछ न कुछ
जिनका हिसाब मैने रखा नहीं। गलती की।
तब इतना ही मालूम था, हिसाब रखो
तो जिंदग़ी के सौदे घाटे के ठहरते हैं
तब तू जो नहीं थी। इतनी बड़ी
बताने के लिये, जियो बेहिसाब तो
फ़ायदे भी पता नहीं चलते है।
औरत की उत्तरकथा तब तक
शुरू नहीं हुई थी,
पूरब कथा में कायदे इतने थे
कि आसानी से टूटते थे।
खुल कर सांस ली
और टूट गया कुछ न कुछ
खिलखिला कर हंसी, हताशा में सिर उठाया
देखा आकाश, और लो टूट गया कुछ और।
शून्य का पहाड़ा पढ़ा नहीं गया था।
फ़ायदे का गणित यूं गढ़ा नहीं गया था
कि लौट कर देखती और महज़
नुकसान नज़र आता।
कभी कोई
सही फ़ैसला सही वक्त पर नहीं किया
बस तुझे जन्म दिया
पाला पोसा बड़ा किया। यह भी
कोई करना था? हो जाता है बिना किये।
नतीजा? थका शरीर
अब खाली घोसला, सूनापन निचाट।
तू तो समझदार है. इतना संतोष करूं
अपने को इस ग़लती का मौका भी
देगी नहीं शायद ।
फ़ैसले जो मैने किये। समझने के पहले ही
ग़लत वक्त पर सही फ़ैसले थे
या शायद सही वक्त पर ग़लत।
शायद ग़लत वक्त पर ग़लत ही रहे होंगे.
तू जो कहती है कि सही वक्त पर सही
हुए होते जो फ़ैसले वे
ये तो हो ही नहीं सकते थे
जो मैने किये।
वरना कुछ और हुआ होता नतीजा

तू न हुई होती, हुआ होता
पहले हुआ होता खाली घोसला।
फिर निचाट सूनापन
फिर थका शरीर।
ठीक ही कहती है तू
जैसा तू समझे। मान लिया
लेकिन शुक्र है तब तू भी तो थी नहीं
समझाने के लिये
तुझे मैने जन्म दिया,
जाना कि जो कुछ भी पाया उगाया बनाया गंवाया
उस सबसे ज्यादा कीमती यह ग़लती थी
शुक्र है। समझ आने के पहले ही कर बैठी
कुछ भी नहीं था इसके जैसा
कुछ भी नहीं,कुछ भी पाना उगाना
बनाना गंवाना।
शुक्र है तू भी तब नहीं थी समझाने के लिये।
अर्चना वर्मा
ईमेल : mamushu46@gmail.com
बहीखाता | Bahikhata

"शब्दांकन" को कुछ ही वक़्त में या ऐसे कहूँ कि तक़रीबन शुरू होने के साथ ही, न सिर्फ रचनाकारों का बल्कि पाठकों का स्नेह भी मिलना प्रारंभ हो गया, ये होना उत्साहवर्धक तो था लेकिन यह भी समझा रहा था कि सम्पादन शुरू करना तो आसान था, किन्तु आगे आने वाले समय में स्तर बना रहे, स्तर उठे – ये कैसे होगा ?
विज्ञान, प्रबन्धन और कंप्यूटर की शिक्षा चुपचाप सहयोग देती रही, घर और व्यापार के बाद बचे वक़्त को सम्पादन और उससे जुडी गतिविधियों को देने लगा, अच्छी बात यह है कि ये गतिविधियाँ मुझे हमेशा से पसंद रही हैं, वो चाहे साहित्य, कला आदि से जुड़े इंसानों से मिलना हो, या तस्वीरें उतारना। इनमे नाटक की तैयारी और नाटक (हिंदी अंग्रेजी दोनों) देखना भी शामिल है, और संगीत ...... संगीत तो जहाँ तक याददाश्त ले जाती है वहां से ही अच्छा लगता रहा है.
सबसे महत्वपूर्ण रहा मेरी माँ का हिंदी अध्यापिका होना जिनके चलते बचपन से ही घर में हिंदी की किताबें दिखती रहीं, यही-कहीं किताबों से प्यार हुआ होगा जो कभी खत्म नहीं होना है। माँ स्वर्ग में यह देख के भी अवश्य खुश होती होंगी कि बेटा हिंदी से जुड़ा तो !
आप शायद सोच रहे होंगे कि इतनी लम्बी भूमिका किस बात के लिए बाँधी जा रही है?
मित्रो ! आज से शब्दांकन पर “बहीखाता” शुरू हो रहा है। “बहीखाता” उन रचनाकारों के लिए है जो अपनी अधिक-से-अधिक रचनाएँ “शब्दांकन” पर उपस्थित कराना चाहते हैं । शुरुआत कथाकारों से होगी और आगे आने वाले समय में अन्य विधाओं के रचनाकार भी शामिल किये जायेंगे. बहीखाते के लिए “पहले भेजें पहले प्रकाशित हो” का नियम रहेगा. आप अपनी रचनाएँ, विस्तार-से-लिख-परिचय, सम्पर्क आदि के साथ bahikhata@shabdankan.com पर भेज सकते हैं, प्रथम चरण में 31 मई तक प्राप्त रचनाएँ ही शामिल होंगी।
'बहीखाते' का खाता खोल रहे हैं, चर्चित और संवेदनशील कथाकार हृषीकेश सुलभ, उनकी कहानी ‘उदासियों का वसंत’... इंसानी रिश्तों को जिस बारीकी से देखती है वो रोमांचक है। शीघ्र ही उनकी अन्य कहानियाँ भी प्रकाशित होंगी।
"शब्दांकन" के पाठकों को जो देश-विदेश से अपना स्नेह दे रहे हैं उनको धन्यवाद। आपकी प्रतिक्रियाओं का इंतज़ार रहेगा।

भरत तिवारी
09 मई 2014
बी - 71, शेख सराय - 1 , नई दिल्ली - 110 017,
sampadak@shabdankan.com
बहीखाता
हृषीकेश सुलभ - कहानी: उदासियों का वसंत | Hrishikesh Sulabh - udasiyon ka vasant (Hindi Kahani)
स्मृतियाँ भी तो थकाती हैं कभी-कभी, जब वे ठाट की ठाट उमड़ती हुई बे-लगाम चली आती हैं

उदासियों का वसंत
हृषीकेश सुलभ
≡≡≡≡≡≡≡≡≡≡≡
ज़िन्दगी सहल नहीं रह गई थी। वे बसते-बसते उजड़ गए थे। उनकी देह और उनके मन, दोनों का छन्द भंग हो रहा था। .......और वे थे कि बार-बार भंग हो रहे छन्दों के सहारे जीवन की लय पकड़ने में लगे थे।
वे चले जा रहे थे।
श्लथ पाँव। छोटी-सी मूठवाली काले रंग की छड़ी के सहारे। यह छड़ी कुछ ही दिनों पहले, ......कल ही, उनकी ज़िन्दगी में जबरन शामिल हुई थी, .....बिन्नी की ज़िद पर।
वे छड़ी ख़रीदने के पक्ष में नहीं थे। किसी के सहारे, चाहे वह कोई निर्जीव वस्तु ही क्यों न हो, चलना उन्हें प्रिय नहीं। पर भला बिन्नी कहाँ माननेवाली! ज़िद पर अड़ जाती है तो एक नही सुनती। तमाम तर्क, .....‘‘आपको अभी ज़रूरत है। ......छड़ी लेकर चलने से कोई बूढ़ा थोडे़ ही हो जाता है, ......अभी आपको चलते हुए सतर्क रहने को कहा है डॉक्टर ने। ......नेलिंग हुई है पिंडली में और पाँव पर ज़रा भी ज़्यादा ज़ोर नहीं पड़ना चाहिए। .....छड़ी रहेगी तो वजन सम्भालेगी। ......पहाड़ी रास्ते हैं, ......ऊपर-नीचे, ....चढ़ना-उतरना, .......हर बात में आपकी मनमानी नहीं चलेगी.....!‘‘
बोलते हुए वह दम नहीं लेती। एक बार शुरु हो गई तो रूकने का नाम नहीं लेती है यह लड़की। लड़की ही तो है बिन्नी। उनके सामने तो लड़की ही है। वे दो सालों बाद पचास के हो जाएँगे और बिन्नी अभी इक्कतीस की है। सत्रह वर्षों का अंतराल कम नहीं होता। उन्हें बिन्नी की बात माननी ही पड़ी और यह छोटी-सी मूँठ वाली काले रंग की छड़ी उनकी ज़िन्दगी में शामिल हो गई।
वे चल रहे थे। अवसन्न मन। थके-हारे। मन के अतल में गहरे, ......कहीं बहुत गहरे छिपी कोई हूक उनका कलेजा चीरकर बाहर आने को बेचैन थी। उमड़-घुमड़ रही थी। सप्तम स्वर में बजते शंखध्वनि-सी शून्य में जाकर अँटकी हुई कोई चीख़। पकती, ......सयानी होती, .........सिकुड़ती त्वचा के नीचे चुभतीं अस्थियों की किरचें। आँखों की कोर पर सहमी हुई नमी.......। दिवंगत होता सा कुछ, .......लोप होता हुआ कुछ.....। कुछ नहीं, ......बहुत कुछ। कुछ जाना-सा और कुछ अनजाना। सब धीरे-धीरे, बिना किसी आहट के दूर जाता हुआ।
वे चले जा रहे थे अपनी आत्मा में लहराती अग्निपताकाएँ लिये। इन अग्निपताकाओं में उभरता-छिपता आत्मा के घाव-सा बहुत कुछ लहरा रहा था। कुछ बहुमुँहे घाव, ......कुछ बंद मुँहवाले और कुछ खुले मुँहवाले घाव। एक मौन भी था ठिठका हुआ, जिसे वे अपने साथ लिये चल रहे थे।
हल्की चढ़ायी थी। एक कॉटेज था सामने, जिसकी ओर बढ़ रहे थे वे पाँव घसीटते हुए। जब बिन्नी ने केरल चलने का प्लान बनाया, उन्हें मुन्नार याद आया। मुन्नार तब और छोटा था, ....बहुत छोटा। बस स्टैन्ड के पास चार-पाँच दुकानें और चालीस-पचास घर। आज भी छोटा ही है, पर पहले के मुक़ाबले बड़ा। मुन्नार से थोड़ी दूरी पर, .......लगभग दस-बारह किलोमीटर दूर थी वह जगह। वे उस जगह का नाम भूल चुके थे। बीस साल पुरानी डायरी निकालकर उन्होंने उस जगह का नाम ढूँढ़ा - लछमी इस्टेट। लक्ष्मी नहीं, .......लछमी। चारों ओर पहाड़ों की ढलान पर चाय के बगान। करीने से कटे-छँटे चाय के पौधों की झाड़ियों के बीच से ऊपर जाती चक्करदार सड़क। बीच-बीच में सघन वन। ऊँचे, नाटे, छायादार, पत्रहीन, .........तरह-तरह के वृक्षों, लताओं और वनस्पतियों से लदे हुए पहाड़। इन्हीं पहाड़ों में से एक के शिखर पर था वह कॉटेज।
जब मुन्नार आना अंतिम रूप से तय हो गया और ठहरने के लिए लिए बिन्नी होटल का चुनाव करने बैठी उन्होंने इस जगह का ज़िक्ऱ किया। बिन्नी ने गूगल मैप पर यह जगह ढूँढ़ निकाली। मुन्नार से पूरब की ओर जाती इस सड़क पर स्मृतियों के सहारे धीरे-धीरे वे आगे बढ़ते रहे और जैसे ही यह जगह,..........ये कॉटेज दिखा वे बच्चे की तरह चहक उठे थे -‘‘......यही, .....यही है, .....हन्डरेड परसेन्ट यही है। .....ये फाटक के पास वाला पेड़ अब बड़ा हो गया है बस। .....और वो जो.......‘‘ जैसे धरती का सीना फोड़कर अचानक कोई जलसोता फूट पड़ा हो! बिन्नी उन्हें नन्हें शिशु की तरह उत्साह,........उमंग और कौतूहल से भरते, .........छलकते हुए एकटक निहार रही थी। वे अपनी रौ में थे - ‘‘ये जो पेड़ है न, .....कामिनी का पेड़ है। जब हम लोग यहाँ रुके थे, उन दिनों यह सफ़ेद फूलों से लदा हुआ था। .....युवा पेड़.....फूलों से लदा हुआ। एक तो युवा और ऊपर से फूलों की चादर लपेटे आपके स्वागत के लिए द्वार पर खड़ा। .....अनूठा लगता था। ......मेरे दोस्त गोपी नायर का काटेज था यह। गोपी अक्सर यहाँ आकर महीनों रहता। उसने इसे लछमी इस्टेट वालों से दो साल के लिए लीज पर लिया था। उसकी ही सलाह पर ......या उसके ही आमंत्रण पर मैं राधिका और नन्हीं-सी टुशी के साथ केरल घूमने आया था। मुन्नार के इस कॉटेज में हमलोग दस दिनों तक रुके रहे थे। पता नहीं अब इसका कौन मालिक होगा! किसी ने ले रखा होगा या लछमी इस्टेट वालों ने अपने चाय बगान के किसी मुलाजिम को दे रखा होगा! ........गोपी भी तो नहीं रहा। सात-आठ साल हुए किसी सड़क दुर्घटना में......। इस काटेज के पीछे ढलान है। .....नीचे की ओर उतरती सपाट ढलान। दायीं ओर वाली पहाड़ी से तेज वेग के साथ उतरकर एक पहाड़ी नदी इस ढलान के बीचों बीच गुज़रती है। ........मैं इन दस दिनों में रोज़ इस नदी से मिलने जाता था। जाने क्यों यह नदी मुझे बहुत अपनी-अपनी सी लगती थी। पहाड़ से उतरती हुई यह नदी वेगवती ज़रूर थी पर संयम वाली भी लगती। इसके प्रवाह में लय थी। उतरती हुई आलाप ध्वनि जैसी गम्भीरता थी। वृक्षों-लताओं से हवाओं के मिलन की, ........पंछियों की बतकही की, ........और पुकारों की अंतर्ध्वनियों के अनगिन राग इसके प्रवाह की घ्वनियों में शामिल थे। ......गुँथे थे। ........‘‘
वे बोले जा रहे थे और बिन्नी उन्हें अपलक निहारती, ....शब्द-शब्द पीती जा रही थी। तुम उस नदी को ढूँढ़ो। .....आगे ले चलो कर्सर। ....ज़रूर दिख जायेगी वो नदी। ......ऐसी नदियाँ, ......पहाड़ों से उतरनेवाली नदियाँ मरती नहीं। .....वह होगी वहीं कहीं। मुझसे ज़्यादा तो टुशी को उस नदी से प्यार हो गया था। दो-ढाई साल की टुशी सुबह उठते ही नदी से मिलने जाने के लिए उतावली हो उठती थी। .....मैं उसके तट से गोल, ...चिकने, .......चमकते हुए तरह-तरह के छोटे-छोटे पत्थरों को चुनता और टुशी के सामने ढेर लगा देता। टुशी उन पत्थरों से खेलती। कभी घर बनाती, कभी कभी पेड़ और कभी फूल, ......पत्थर के फूल।‘‘
वे बेचैन हो गए थे उस नदी को देखने के लिए। .....वे वहीं उसी पहाड़ी पर बने किसी काटेज में ठहरना चाहते थे तकि उस काटेज को एक बार फिर देख सकें। फूलों की चादर ओढ़कर खड़े कामनी के उस पेड़ को, जो अब अधेड़ होने लगा होगा, देख सकें। वे उस नदी से मिलना-बतियाना चाह रहे थे जिसके तट पर उनकी बेटी टुशी ने पत्थरों के टुकड़ों से घरौंदे, ....पेड़ और फूल बनाए थे। वे फिर उस नदी के पाट के बीच उतरकर उसकी जलधारा को स्पर्श करना चाहते थे। वे चाहते थे उन सारी आवाज़ों को फिर से सुनना, जिन्हें वे अब तक अपनी स्मृतियों में बचाए हुए थे।
इंटरनेट पर काफी समय गँवाने के बाद बिन्नी लछमी एस्टेट में ठीक इस काटेज से लगभग एक फर्लांग पहले एक होम स्टे बुक करा सकी। जोसेफ होम स्टे। दिल्ली से कोच्चि की हवाई यात्रा। .....कोच्चि से मुन्नार सड़कमार्ग से। टैक्सी वाला एक रिटायर्ड फ़ौजी था और कामचलाऊ अँग्रेज़ी के साथ-साथ अच्छी हिन्दी बोल रहा था। ख़ुश मिज़ाज भी था, सो सारी राह वे उससे गप्पें करते रहे। टैक्सी वाला फ़ौज के अपने क़िस्से सुनाता और वे रस लेकर सुनते। बीच-बीच में बच्चों की तरह अपनी जिज्ञासाएँ प्रकट करते। कभी-कभी वे टैक्सी वाले को छेड़ने के लिए किसी घटना पर संदेह प्रकट कर देते, पर वह भी था जीवट वाला आदमी। हर तरह से उन्हें संतुष्ट करने की कोशिश करता। उसने रास्ते में एक जगह रुक कर इडियप्पम खाने की सलाह दी। उन्होंने स्वाद लेकर इडियप्पम खाया और अनिच्छा के बावजूद बिन्नी को भी खिलाया। मुन्नार पहुँचते-पहुँचते शाम हो गई थी। एक बार सबको चाय-कॉफी की तलब लग आई थी। चाय पीते हुए ही बिन्नी की नज़र उस दुकान पर गई थी, जिसमें तरह-तरह के हैट्स और छड़ियाँ टँगी थीं। ज़िद्दी बिन्नी ने उनकी एक न सुनी और यह छोटी मूँठ वाली काले रंग की छड़ी उनकी ज़िन्दगी में शामिल हो गई।
जोसेफ ने बस स्टैन्ड पर आदमी भेज दिया था। वह आगे-आगे मोटर सायकिल से राह दिखाते हुए चल रहा था। हालाँकि उनके होते किसी राह दिखाने वाले की, ....किसी रहबर की ज़रूरत नहीं थी। उन्हें सब कुछ याद था। बारीक़ से बारीक़ डीटेल्स पर हमेशा उनकी नज़र रहती और बातें, ........घ्वनियाँ, .......दृश्य सब उनकी स्मृतियों में बस जाते। ज़रूरत पड़ने पर वे यह सब अपनी स्मृतियों के ख़ज़ाने से यूँ निकालते, जैसे कोई जादूगर अपनी जेब से कबूतर निकाल कर उड़ा रहा हो। जोसेफ होम स्टे पहुँचते-पहुँचते अँधेरा हो चुका था। स्वागत के लिए जोसेफ कॉटेज के गेट पर खड़ा था। घुँघराले बालों वाले तीस-पैंतीस साल के जोसेफ ने मुस्कुराते हुए स्वागत किया था।
यह कॉटेज दो हिस्सों में बँटा था। आगे के हिस्से में दो बेडरूम, एक लिविंग रूम और सामने बरामदा और फूलों से सजा लॉन। पीछे की ओर था एक बेडरूम, एक लिविंग रूम, छोटा सा बरामदा और सामने छोटा-सा ढालुआँ लान, जिसमें फूलों की पतली क्यारियाँ थीं। कँटीले तारों के फेंस से घिरे इस छोटे लॉन के बाद घना जंगल था। दीर्घ जीवन जी चुके शाल के ऊँचे अनुभवी वृक्षों के बीच-बीच में कई अन्य प्रजातियों के वृक्ष थे और फूलों से लदफद जंगली लताएँ थीं। सूर्य इसी ओर से हर सुबह घने वन के गझिन संसार में प्रवेश करते और अपनी लालिमा से ढँक देते वृक्षों की काया को। वृक्षों से छनकर जब नीचे गिरतीं किरणें, जंगल की धरती लाल फूलों की छापेवाली चुनरी की तरह लहरा उठती। ........जब उन्होंने इस हिस्से को ही पसंद किया, जोसेफ ने रात को, सोने से पहले दरवाज़ों-खिड़कियों को हर हाल में बंद रखने का आग्रह किया था और अक्सर जंगली जानवरों के आ जाने की सूचना दी थी। इस काटेज से लगभग पचास फीट नीचे जोसफ होम स्टे का मुख्य और अपेक्षाकृत बड़ा काटेज था। वहाँ से यहाँ आने-जाने के लिए पत्थरों को तराश कर सीढ़ियाँ बनी थीं। नीचे वाले हिस्से में ही किचेन था। दोनो कॉटेज इन्टरकॉम से जुड़े थे। वे रात को ही ऊपर जाकर उस कॉटेज को देखना चाहते थे, जिसमें वह अपनी पहली मुन्नार यात्रा के दौरान राधिका और टुशी के साथ ठहरे थे, पर जोसेफ की सलाह पर उन्हें रुकना पड़ा। बिन्नी कमरे को उनकी रुचि के हिसाब से व्यवस्थित कर रही थी और वे जोसेफ से उस ऊपर वाले काटेज के बारे में जानकारियाँ ले रहे थे। उस काटेज को इन दिनों भारतीय मूल की किसी फ्रांसिसी महिला ने लीज़ पर ले रखा था। वह साल में एक बार दो-तीन महीनों के लिए आती थी और बाक़ी दिनों में वह काटेज बंद ही रहता। एक स्थानीय आदमी उसकी देख-रेख करता। महीने में एक बार साफ़-सफाई कर देता।
बिन्नी ने रात के खाने के लिए जोसेफ को बताया। कोकोनट मिल्क में बना चिकेन और सादी रोटियाँ। वे केरल के लच्छा पराठे खाना चाहते थे, पर जानते थे कि बिन्नी किसी क़ीमत पर राज़ी नहीं होगी। बिन्नी ने कुछ स्नैक्स तुरंत लाने को कहा था और वे फिर किसी बच्चे की तरह ख़ुश हो गए थे अपनी पसंद का ड्रिंक मिलने की प्रत्याशा में। इस मामले में बिन्नी के हुनर का कोई जवाब नहीं। उसे मालूम है कि उन्हें कब, क्या और कितना ड्रिंक चाहिए और किस ड्रिंक के साथ कौन-सा स्नैक्स।
उनकी रात सहज ही गुज़री थी। लम्बी यात्रा की थकान थी। ......और स्मृतियाँ भी तो थकाती हैं कभी-कभी, जब वे ठाट की ठाट उमड़ती हुई बे-लगाम चली आती हैं। उन्होंने बिन्नी के हाथों तैयार दो पेग ग्लेनविट लिया और कोकोनट मिल्क में पके चिकन के दो टुकड़ों के साथ दो फुल्की रोटियाँ। बीस साल पहले यहाँ रोटियों के लिए तरस कर रह गए थे वे। बिन्नी एक छोटा पेग लेकर साथ देने बैठती है। कभी पूरा ले लेती है, तो कभी उस इकलौते छोटे पेग का भी बहुत सारा भाग छोड़ देती है। उनकी नज़र में यही एक बुरी आदत है बिन्नी में कि वह ड्रिंक बरबाद करती है। ...... फिर बिन्नी की बाँहों में बँधकर सारी रात इत्मिनान से सोते रहे वे। पहली बार बिन्नी के साथ सोये। .......सुकून के साथ, .....निर्भय होकर। वैसे बिन्नी का साथ उन्हें भयभीत नहीं करता, निर्भय करता है। एक आश्वस्ति का भाव, ......जो दुःखों और निराशा के अंधकूप से बाहर आने के बाद मिलता है, ....वैसा ही भाव भर जाता है उनके भीतर जब बिन्नी साथ होती है। पता नहीं बिन्नी कब सोई या कब तक जागती रही। उन्होंने बिन्नी को अपनी बाँहों में भरा या बिन्नी ने, .......उन्हें नहीं पता। एक तो थकन और फिर ग्लेनविट का सुरूर। सुबह जब उनकी आँखें खुलीं, उनकी उम्मीद के विपरीत बिन्नी गहरी नींद सो रही थी। बिन्नी उन्हें अक्सर बताती रही थी कि वह रात को चाहे कितनी भी देर से सोये, पर जागती अलसुब्ह है और दिन में नींद की क्षतिपूर्ति करती है।
सुबह जब उनकी नींद खुली बिन्नी की बाँहें उनसे लिपटी हुई थीं। जब उसकी बाँहें हौले से हटाकर वे उठे, वह गहरी नींद में होते हुए कुनमुनाई थी। वे उसे निहारते रहे। जुल्फ़ों से झाँक रहा था उसका चेहरा। गोरा रंग, ...जैसे दूध में ईंगुर घोल दिया हो किसी ने। ......नींद में भी दीप्ति से भरा हुआ। बड़ी-बड़़ी आँखों के बंद पटों पर झालर की तरह टँगी बरौनियाँ। सुग्गे की चोंच-सी खड़ी नाक और कतरे हुए पान से सुघड़ होठ, .......और अधखुले बटनों वाले सफ़ेद कुर्ते से झाँकते दो अमृतकलश। वे सम्मोहन में डूब ही रहे थे कि बिन्नी ने करवट बदल ली थी। वे अचकचा उठे थे। पल भर में उनके चेहरे पर अनगिनत भाव आए, .......गए। उन्होंने अपने को सहेजा था और नित्यक्रिया से निबट कर बिन्नी की नींद में खलल डाले बिना बाहर निकल गए थे।
वे उस कॉटेज के सामने थे। वे सबसे पहले कामिनी के वृक्ष की ओर बढ़े। उसके नीचे जा खड़े हुए। उसके तने को, ........नीचे तक झुक आयीं डालों-पत्तियों को स्पर्श किया। कामिनी पर बहार आ रही थी। कुछ ही दिनों में यह वृक्ष फूलों की चादर से ढँकने वाला था। अभी फूल कम थे, पर कलियों के गुच्छों से लदा हुआ था वृक्ष। वे कामिनी-वृक्ष से निःसृत होती गंध को अपनी साँसों में भर रहे थे। वे कुछ देर तक आँखें मूँदे वहीं, ......वृक्ष के नीचे खड़े रहे। केवल उनकी आँखें मुँदी थीं। .....देह और आत्मा का रोम-रोम खुल गया था। वे फाटक के बिल्कुल पास पहुँचे। लकड़ी की पतली फट्टियों से बना छोटा-सा फाटक। अपनी छोटी मूँठ वाली काले रंग की छड़ी से फाटक को ठकठकाया। ........थोड़ी देर प्रतीक्षा करते रहे। फिर आवाज़ दी। कोई प्रत्युत्तर नहीं मिला। वे बेचैन हो रहे थे। वह उमड़ती-घुमड़ती हूक, .......अँटकी हुई चीख बाहर आने को उद्धत हो रही थी। वे कॉटेज के पीछे की ओर गए। पर कहीं कोई नहीं था। कॉटेज बन्द पड़ा था। सुनसान था। काटेज को छोड़कर ऊपर की ओर आगे जाती सड़क के किनारे एक मोटे तने वाला सेमल का विशाल पेड़ था। बूढ़ा पेड़, जिसकी मोटी जड़ों की कई शाखाएँ बाहर निकल आयी थीं। खोड़रों वाला पेड़। इन खोड़रों में सुग्गों के घोंसले थे। वे वहीं, ......सेमल-वृक्ष के नीचे, उसकी बाहर निकल आई एक मोटी जड़ पर बैठ गए थे।
उन्होंने बीस साल पहले के इस सेमल को याद किया था। इतना बूढ़ा नहीं था यह उन दिनों। इसकी विशाल काया में खोड़र नहीं थे । पंछियों के घोंसले ज़रूर थे, पर ऊपर की डालों पर। अब भी होंगे। उन्हें पतली-छोटी चोंच, सुनहले सिर और नीले रंग के पंखों वाली थ्रश चिड़ियों का वह झुंड याद आया, जो इस सेमल पर रहता था। सुबह उनकी मीठी आवाज़ से नींद खुलती और वह टुशी को लेकर सामने के बरामदे में आ जाया करते थे। नन्हीं टुशी इनको देखकर ख़ूब ख़ुश होती। इक्के-दुक्के ग्रे हार्न बिल भी दिख जाया करते थे। पीली, कठोर और बड़ी चोंच वाले भूरे पक्षी। टुशी उन्हें देखकर डरती थी। वे सोच रहे थे, .......इन्हीं भूरे पक्षियों ने इस सेमल के तने को अपनी चोंच से खोखला किया होगा। पहले उन्होंने ही इस खोड़र को अपना घोंसला बनाया होगा। फिर वे कहीं चले गए होंगे, तब सुग्गों को ये खोड़र मिले होंगे रहने के लिए। घोंसले आसानी से नहीं बसते। उन्होंने भी तो बया की तरह राधिका को रीझाने के लिए बहुत मुश्किलों से अपना घोंसला बनाया था। एक तिर्यक मुस्कान उभरी थी उनके होठों पर, जिसे उन्होंने अपने मन की आँखों से देखा और अपनी ही मुस्कान से आहत हुए।
वे सेमल-वृक्ष के नीचे बैठे पास से गुज़रती सड़क के पार उस कॉटेज के भीतर राधिका और टुशी को अपने मन की आँखों से तलाश रहे थे। सामने बिन्नी खड़ी थी। लगभग हाँफती हुई। तेज़ क़दमों से चढ़ाई वाली राह तय की थी उसने।
‘‘चाय नहीं पी आपने.......‘‘
‘‘तुम नींद में थी, ......सो चला आया।‘‘ उनकी आवाज़ कातर हो रही थी।
‘‘जोसेफ चाय रख गया था। ....मैं इंतज़ार करती रही। ठंडी हो गई होगी। ......चलिए।‘‘ बिन्नी के स्वर में शिकायत नहीं, ममता थी। वह उनके बिल्कुल पास आकर खड़ी हो गई थी। बिन्नी ने अपना दोनों हाथ उनकी ओर बढ़ाया था ताकि वे उसके सहारे उठ सकें। वे उठे। बिन्नी ने झुककर सेमल की जड़ों से टिकी छड़ी उठाई और उन्हें पकड़ा दी। वे दाएँ हाथ में छड़ी लिये चल रहे थे। बिन्नी उनसे सट कर चल रही थी, ....बायीं ओर। चलते हुए उन्होंने अपना बायाँ हाथ बिन्नी के काँधे पर रख दिया और बोले - ‘‘अच्छा किया तुमने कि यह छड़ी ले ली। ......चढ़ने में तो नहीं, पर उतरने में इसका साथ होना भरोसा दे रहा है।‘‘
बिन्नी पल भर के लिए रुकी। वे भी ठिठके। बिन्नी उनकी दायीं ओर आई और उसने उनके हाथ से छड़ी ले ली। वे पहले तो चौंके। ....फिर मुस्कुराए। उन्होंने अपना दायाँ हाथ बिन्नी के काँधे पर रखते हुए अपना पूरा भार उस पर डाल दिया था। पूछा था - ‘‘ख़ुश?‘‘
‘‘हूँऊँऊँऊँ.....!‘‘ बिन्नी ने अपनी बायीं बाँह उनकी कमर में लपेट दी थी। वह लाड़ कर रही थी और वे बिन्नी के लाड़ को सहेज रहे थे।
फर्लांग भर के रास्ते में बिन्नी ने मीलों का सफर तय किया। उसने उन्हें छड़ी वापस कर दी थी पर वे वैसे ही उसके काँधे पर सिर टिकाए चलते रहे थे। उतरती हुई ढालुई राह उन्हें होम स्टे वाले कॉटेज तक ले आई। बिन्नी ने दूसरी चाय का आर्डर दिया। फूलों की पतली क्यारियों वाले ढालुएँ लॉन में बैठकर दोनों ने चाय पी।
यह एक ख़ुशनुमा सुबह थी। सामने खड़े वृक्षों के पार से आकर धूप के छोटे-छोटे पाखी लॉन में फुदक रहे थे। हवा जब-जब डालियों-पत्तों को हिलाती-डुलाती ये धूप के पाखी फुदक उठते। उन्हें सुनहले सिर वाली नीले रंग की थ्रश चिड़िया दिखी थी, ....ठीक सामने, .....काले द्राक्ष जैसे गोल-गोल झब्बेदार फलों वाले एक छोटे-से वृक्ष पर। अभी टुशी होती ख़ुश हो जाती। ....पता नहीं अब टुशी को यह सब कितना याद होगा! यह चिड़िया याद भी होगी या नहीं!
........पाँच बरस बीत गए टुशी को देखे। गई, तब से एक बार भी नहीं लौटी। अब तो इस साल बाईसवाँ लगेगा उसका। यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया के सांता बारबरा कैम्पस से उसने पिछले साल अर्थशास्त्र में पोस्ट ग्रेजुएशन किया और इस साल शोध के लिए चुन ली गई है। पाँच साल पहले जब राधिका का बुलावा आया, टुशी दुविधा में थी, पर उन्होंने उसे दुविधा मुक्त कर दिया था। वह पापा को छोड़कर जाना नहीं चाहती थी। वे नहीं चाहते थे कि बाहर जाकर पढ़ने की अपनी सहज इच्छा को दबा कर टुशी यहाँ रहे। वे यह भी नहीं चाहते थे कि वह राधिका से दूर होती जाए और वे जीवन भर इस लांछन के साथ जीएँ कि उन्होंने अपने स्वार्थ के लिए बेटी को उसकी माँ से काट कर अलग कर दिया। .....उसके कैरियर को नष्ट किया। अजीब दिन थे वे, जब उन्होंने टुशी को विदा किया! ....वे जानते थे कि टुशी जब तक ख़ुदमुख़्तार नहीं हो जाती राधिका उसे मिलने-जुलने के लिए भी आने नहीं देगी। .....पर उन्होंने टुशी को प्रसन्नता के साथ विदा किया। इस प्रसन्नता के गर्भ में जो हाहाकार छिपा था, उसे वे दबाए रहे। टुशी को इसकी भनक तक नहीं लगने दी। और टुशी? वह बच्ची ही तो थी। सोलह-सत्रह की उम्र भी भला कोई उम्र होती है! सपनों और उमंगों के पंख लगाकर इस डाल से उस डाल उड़ती हुई उम्र। हालाँकि टुशी के मन में कहीं बहुत गहरे अपने पापा के अकेलेपन और अवसाद की टीस और चिन्ताएँ थीं, पर.....। वे जानते हैं कि ये टीस और चिन्ताएँ लगातार उसके भीतर बनी रहती हैं और उसे गाहे-ब-गाहे ज़्यादा परेशान करती हैं। जब उनका पाँव टूटा और उसे यह ख़बर मिली बेचैन हो गई थी। रो-रो कर कई दिनों तक उसने अपना बुरा हाल किये रखा। फोन करती और बिलख-बिलखकर बस एक ही रटन कि ‘पापा मुझे आना है आपके पास, .....पापा मुझे....।‘ राधिका ने बस एक बार फोन किया था। उनका कुशल-छेम पूछने के लिए नहीं, .....यह कहने के लिए कि उन्हें टुशी को समझाना चाहिए कि अभी उसका जाना उसके कैरियर पर बुरा असर डालेगा, .....कि अगर उसकी तैयारियाँ ठीक से न हुईं तो रिसर्च के लिए स्कालरशिप नहीं मिल पायेगा और फिर अब तक की पढ़ाई का कोई अर्थ नहीं रह जाएगा, .....कि उन्हें टुशी को.......। उन्होंने टुशी को हर तरह से समझाया। डॉक्टर भटनागर से फोन पर बात करवाई। बिन्नी से भी। बिन्नी का मोबाइल नम्बर दिया कि वह जब चाहे सीधे उससे बात कर उनके बारे में सारी सच्ची जानकारियाँ ले सकती है। उन्होंने यह भी बताया टुशी को कि बिन्नी मेरी दोस्त है और जब तक मैं अपने पैरों से चलने-फिरने लायक़ नहीं हो जाता दिन-रात मेरी देखभाल करेगी। .......पता नहीं टुशी ने कितना भरोसा किया, .....कितना समझ सकी, .....या कितना अपने मन को मार कर समझने का नाटक किया! यह आज भी उनके लिए रहस्य बना हुआ है। पर इन दिनों ख़ूब प्रसन्न रहती है टुशी। फ़ोन पर बातें करते हुए उसकी प्रसन्नता छलक-छलक पड़ती है। इन्टरनेट पर चैटिंग करते हुए तो लगता है, ......लैपटॉप से कूद कर बाहर आ जायेगी और गले में बाँहें डाल कर झूल जाएगी। वहाँ जाकर टुशी का रूप-रंग और निखर आया है। उसने राधिका से न रूप-रंग लिया है और न ही स्वभाव। हाँ, प्रतिभा ज़रूर ली है। बिन्नी से भी ख़ूब पटने लगी है उसकी। वह बिन्नी को पसंद करती है। पता नहीं क्या सोचती है बिन्नी के बारे में!
एक सुबह अकारण, यानी न वे नशे में थे और न ही फिसलन थी, वे वाशरुम में गिरे। और गिरे भी तो ऐसे कि अपने दाएँ पाँव की पिंडली की एक हड्डी तोड़ बैठे। उनके ड्राइवर और पड़ोसियों ने उन्हें लाद कर अस्पताल पहुँचाया। उसी शाम ऑपरेशन हुआ। आपरेशन के तीसरे दिन जब बिन्नी का फ़ोन आया, तो उसे मालूम हुआ। फिर तो बिन्नी ने सबकुछ टेकओवर कर लिया। दस दिनों तक, ज़ख़्म के टाँके सूखने और प्लास्टर होने तक वह रोज़ सुबह अस्पताल आ जाती और रात तक रुकती। प्लास्टर होने के बाद, जब वे घर गये, बिन्नी साथ थी। वहाँ भी यही रूटीन। वह रात को तभी निकलती, जब उनका ड्राइवर आ जाता। रात की देखभाल का जिम्मा उसी पर था। बिन्नी उन्हें एक पल के लिए भी छोड़ना नहीं चाह रही थी, पर वे इसके लिए तैयार नहीं थे कि वह रात में रुके। हालाँकि इस बीच उन्हें विवश होकर कई बार बिन्नी का रात में रुकना स्वीकार करना पड़ा। जिस दिन भी ड्राइवर ने औचक छुट्टी मार दी, बिन्नी रुकी। कई बार ऐसा भी हुआ कि ड्राइवर के होते हुए भी बिन्नी अपने घर नहीं गई और वे उसे जाने के लिए नहीं कह सके। प्लास्टर कटा। फिर फ़िज़ियोथेरॉपी शुरु हुई। फ़िज़ियोथेरापिस्ट को देखते ही उनकी रूह काँप जाती थी। बच्चों की मानिंद वे हर सम्भव कोशिश करते कि आज जान छूट जाए, ........पर बिन्नी सामने आकर खड़ी हो जाती। वे बहाने करते और बिन्नी तर्क देती। साँप-सीढ़ी के खेल की तरह कई बार वे बिन्नी के प्रति कटु होने का नाट्य करते और जब उनकी एक न चलती, मिन्नतें करते। पर बिन्नी को डिगा पाना मुश्किल था। ........बिन्नी की दिनचर्या बरक़रार रही। देवदूत की तरह बिन्नी प्रकट ही नहीं हुई बल्कि, उनके जीवन में शामिल हो गई। वे संकोच करते रहे, पर बिन्नी ने कभी संकोच नहीं दिखाया। बिन्नी के सामने उनकी एक न चलती थी। डॉक्टर की सलाह पर अमल करने के मुआमले में वह बेहद कठोर थी। ज़रा भी छूट देने की हिमायती नहीं।
चाय ख़त्म हो चुकी थी। नाश्ता भी। बिन्नी भीतर थी। लैपटॉप पर अनुवाद का अपना काम निबटा रही थी। वह अपना काम अपने सिर पर लिये चलती है। जब तक डेड लाइन न आ जाए वह टालती रहती है। कहती है कि दबाव में ही वह बेहतर काम कर पाती है। वे गुमसुम बैठे थे, .....अपने भीतर के सान्द्र, ......निविड़ एकांत में डूबे हुए। वे वहाँ थे भी और नहीं भी थे। वे अपने एकांत में धीरे-धीरे घुलते हुए लोप हो जाते और फिर उसके भीतर डूबते-उतराते, ........लिथड़ते, .........फिर से आकार लेते और प्रकट होते अपने होठों पर तिर्यक मुस्कान के साथ। धूप सीधी गिरने लगी थी। धूप उन्हें प्रिय लग रही थी, पर उन्हें बादलों की प्रतीक्षा थी। धुआँ-धुआँ से बादल, जिन्हें उन्होंने अपनी पिछली यात्रा में मुन्नार की घाटियों में अठखेलियाँ करते हुए देखा था।
दोपहर के भोजन के बाद वे नदी तट तक जाना चाहते थे और बिन्नी चाहती थी कि वे थोड़ा आराम कर लें। उनकी आकुलता देखकर बिन्नी ने ज़िद नहीं की। पूछा - ‘‘ आप अकेले जाएँगे या.......?‘‘
‘‘नहीं-नहीं तुम भी चलो। उस नदी को देखकर तुम सम्मोहित हो जाओगी। ......अनूठी है वह नदी। .......पारदर्शी जल, .....तरह-तरह के आकारों-रंगों के पत्थरों से सजा हुआ तल, .....और झिर-झिर प्रवाह। जल-प्रवाह का ऐसा संगीत कि जादू की तरह बस जाए आत्मा में। .....चलो तुम भी।‘‘
वे बिन्नी के साथ निकले, ......वही अपनी छोटी मूँठवाली काले रंग की छड़ी लिये। धीरे-धीरे ऊपर की ओर चढ़ते हुए उस कॉटेज के पास पहुँचे। उन्होंने ठिठक कर कॉटेज को भर आँख देखा। उनकी आँखों में कोई सपना तैर गया था। बिन्नी उन्हें एकटक निहार रही थी। उनकी आँखें नम हो रही थीं। वर्षों से संचित सपना छलकने-छलकने को आतुर हो रहा था। जैसे सावन-भादो के मेघ उनमत्त होकर उड़ेलते हैं जल पृथ्वी पर....वैसे ही उनमत्त दिख रही थीं उनकी आँखें। बिन्नी ने हौले से अपनी हथेली उनके काँधे पर रख दी। उनकी आँखों में अपने सम्पूर्ण वजूद के साथ उतरने की कोशिश की। बोली - ‘‘ नदी से मिलने नहीं चलना आपको? ......चलिए।‘‘
फिर वही तीर्यक मुस्कान की रेख-सी खिंच गई उनके होठों पर। उन्होंने अपनी आँखें झुका लीं। बोले - ‘‘चलो। .....जानती हो बिन्नी, ......मैं यह कॉटेज ख़रीदने वाला था। राधिका इसे खरीदना चाहती थी। गोपी ने कहा था कि वह लछमी इस्टेट वालों से बात करेगा। अगर वे लोग बेचने को तैयार न हुए तो लम्बे समय के लिए लीज पर तो लिया ही जा सकता है। फिलहाल इसका लीज मेरे नाम है ही। अगर राधिका चाहे तो इसे आगे उसके नाम ट्रांसफ़र करवाया जा सकता है। राधिका का चचेरा भाई था गोपी नायर। गोपी ने ही राधिका से मेरी मुलाक़ात करवाई थी।‘‘
वे धीरे-धीरे चलने लगे थे। थोड़ी दूर की चढ़ाई के बाद उस पार की ढलान शुरु होती थी। इसी ढलान के बीच से बहती थी वह नदी। बिन्नी उनसे सट कर चल रही थी। लगभग उनके काँधे पर झुकी हुई। इतनी क़रीब कि उसकी साँसें उनकी गरदन को, .......चेहरे को छू रही थीं। वे ऊपर चढ़ते हुए धीमी आवाज़ में बोल रहे थे - ‘‘...... मैं सोच ही रहा था कि इस कॉटेज के बारे में बात करुँ कि वह दुर्घटना हो गई और गोपी नहीं रहा। सड़क दुर्घटना में बहुत दर्दनाक़ मौत हुई थी उसकी। ....... राधिका से पहली बार उसके घर ही मिला था मैं। सुनहले बार्डरवाली सफ़ेद मालबरी रेशमी साड़ी में बडी़-बड़ी आँखोंवाली साँवली राधिका से, ......वो जिसे पहली नज़र में प्यार हो जाना कहते हैं न, ......वैसा ही प्यार हो गया था मुझे। ......गोपी और मैं साथ-साथ काम ही नहीं करते थे, अच्छे दोस्त भी थे। मैं उसके यहाँ एक पारिवारिक आयोजन में शामिल होने गया था। राधिका कुछ ही दिनों पहले दिल्ली रहने आई थी। कोच्चि से अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद उसने आईआईटी दिल्ली में एमटेक में दाखिला लिया था। वह डिजाइन की छात्रा थी। .....उस शाम पूरे आयोजन में मेरी आँखें राधिका के पीछे-पीछे घूमती रही थीं। उसे मालूम हो गया था कि मेरी आँखें उसका पीछा कर रही हैं। उसने मेरी आँखों के रास्ते मेरे मन की आकुलता पढ़ ली थी। जैसे ही मुझसे उसकी आँखें मिलतीं, वह नज़रें झुका लेती और कुछ देर के लिए उस भीड़ में जाने कहाँ छिप जाती। मेरी बेचैनियों का मज़ा लेती रही थी वह।‘‘
doobवे अपनी रौ में थे। चढ़ाई ख़त्म हो चुकी थी। और दूसरी ओर की नीचे उतरती हुई ढ़लान शुरु हो रही थी। रपटीली ढ़लान, ........दूब की चादर से ढँकी हुई। बिन्नी ढलान पर उतरते उनके पाँवों को लेकर सतर्क थी। उनकी देह के भार को अपने काँधे पर साझा कर रही थी। ......स्मृतियाँ, जो उनके एकांत में मौन दुबकी हुई थीं, ..........बाहर आने को आकुल थीं। वे चाहते थे रोकना। अपने को बंद रखना, पर मुन्नार की सिहरन भरी हवा की आँच उन्हें पिघला रही थी। ठंडी सिहरन भरी हवा की आँच गर्म लू के थपेड़ों की आँच से ज़्यादा ताक़तवर होती है। वह कॉटेज, वह घर, ......जिसके सम्मोहन में खिंचते हुए वे मुन्नार तक आए थे, अपनी जगह पर था। उसे कहीं नहीं जाना था, सो वह टिका हुआ था। जैसे पृथ्वी टिकी हुई है अपने अदृष्य अक्ष पर, वैसे ही उनकी स्मृतियों की अदृष्य आभा के अक्ष पर टिका था कॉटेज। बस उसमें रहनेवाला, उसमें नहीं था। वहाँ कोई और होता तो भी, .....वह खुला और लोगों की आवाजाही से भरा भी होता, तो भी उनके लिए वह सूनसान ही होता। नहीं रहना और नहीं रह पाना में बड़ा फ़र्क़ होता है। वह कॉटेज था पर वे राधिका और टुशी के साथ उस में नहीं रह पाए थे। और अब, जबकि एक तृशा, ......एक हाहाकार, .....एक नामालूम-सी व्यग्रता उन्हें खींच लाई थी, उनके भीतर बहुत कुछ बीत रहा था। .......लोप हो रहा था। एक दीर्घ अवसान हो रहा था उनकी आत्मा के अतल में। वे बार-बार इस लोप होने को, .......बीतने को, .......इस अवसान को अपने मन की अदृश्य भुजाओं में भींचकर रोकना चाह रहे थे।
बिन्नी मुस्कुराई थी। कुछ देर तक उनकी अँगुलियाँ उसके रूखे हो चले बालों में घूमती रही थीं। वे समझ नहीं पा रहे थे कि वे बिन्नी को सींच रहे हैं या अपने भीतर पसरे बंजरपन को। फिर उन्होंने अपनी अँगुलियों से बिन्नी के होठों को छुआ था।
सामने नदी थी। नदी में जल न के बराबर था। लगभग सूखी हुई नदी। बीच-बीच में, ......कहीं-कहीं, ........छिट-फुट जल के छिछले चहबच्चे थे। नदी तल में बिछे पत्थर के निरावृत टुकड़े। निस्तेज। धूमिल। जल ही तो था जो उन्हें सींचता, ......जिसका प्रवाह उन्हें माँजकर चमकाता, .......आकार देता और आपने साथ लाये खनिजों से उन्हें रँगता, ......आभा देता। जल की थाप से ही मृदंग की तरह बोलते थे ये पत्थर और लहरें अपने प्रवाह से इन्हें तारवाद्य की तरह झंकृत करतीं थीं। अब जल नहीं था।
उन्हें काठ मार गया था। उनके पाँव थरथरा रहे थे। उनकी देह को सँभाल पाना अब काले रंग की छोटी-सी मूँठ वाली छड़ी के वश में नहीं था। उनकी देह का लगभग पूरा भार बिन्नी के काँधे पर था। अपनी देह की सारी शक्ति संचित कर बिन्नी उन्हें तब तक सँभाले रही थी, जब तक वे धीरे-धीरे ज़मीन पर बैठ नहीं गए थे। वे नदी को निर्निमेश निहार रहे थे। बिन्नी उनके पास थी। रेत के बगूलों के बीच फँस जाने पर पशु-पक्षी जैसे अपने शिशुओं को छाप लेते हैं धूल-धक्कड़ और तेज़ हवा से बचाने के लिए, वैसे ही खड़ी थी बिन्नी उनकी पीठ पर। कभी उन्हें देखती, तो कभी नदी को, .......और कभी पीछे मुड़कर उस चढ़ाई का अंदाज़ा करती, जिससे उतरते हुए यहाँ तक आए थे वे। पानी की बोतल साथ नहीं थी। बिन्नी को मालूम था कि उन्हें प्यास महसूस हो रही होगी। पर अब किया क्या जा सकता था! कुछ नहीं। धीरे-धीरे उनकी साँसें पुरानी लय में लौटने लगी थीं। बिन्नी उनसे मुन्नार, इस कॉटेज, इस नदी के बारे में पहले ही इतना कुछ सुनती रही थी कि उसके लिए कुछ भी अपरिचित नहीं था। वह नदी तट तक गई। उसने कुछ छोटे-छोटे पत्थरों को चुना और उनके सामने लाकर रख दिया। वे पहले तो उन्हें देखते रहे। ....फिर छुआ। बिन्नी की ओर देखा। बिन्नी फिर भागती हुई नदी तट तक गई और अपने गले में लिपटे स्टोल में ढेर सारे छोटे पत्थरों को बटोर लाई। उसने देखा, वे घर बनाने की कोशिश कर रहे थे। पहले उन्होंने घर बनाया। फिर चिड़िया, .......और फिर फूल।
वे बड़ी देर तक दूब से पटी ढलान पर नन्हें-नन्हें पत्थरों से बनी आकृतियों को निहारते रहे थेे। अजीब दिख रहे थे वे। वे सोच रहे थे कि अगर उन्होंने अपने अतीत को भुला दिया तो क्या यह अब तक के जीवन की आहुति नहीं होगी! ........मिथकों और पुराकथाओं की तरह क्या उनके वर्तमान में गर्द-ओ-गुबार की तरह बहुत कुछ अयाचित नहीं घुस आएगा! ऐसा अतीत विहीन घातक वर्तमान क्या वे जी सकेंगे! किंबदंतियों की तरह यह जीना क्या उनकी आत्मा के पटल पर अपमान की नई लिखावटें दर्ज़ नहीं करता जायेगा! अपनी चित्तवृति से से युद्ध करते हुए दैन्य, दुविधा और निग्रह, ....सब था उनके चेहरे पर। वे अपने जीवन के, ......अतीत के, तथ्यों के स्वीकार-अस्वीकार के युद्ध में उलझे हुए थे। कुछ देर तक यूँ ही बैठे रहे वे। थ्रश चिड़ियों का एक झुंड नदी तट पर आया। वे सब फुदकते हुए नदी तल में एक छोटे चहबच्चे के किनारे तक पहुँचीं। वे चिड़ियों का जल-किलोल निहारते रहे। चिड़ियों का झुंड उड़ा। फिर वे अचानक बिन्नी से बोले - ‘‘चलो.....।‘‘
बिन्नी ने अपने दोनों हाथ बढ़ा दिए। वे खड़े हुए। बिन्नी ने नीचे से छड़ी उठाकर दी। उन्होंने दाएँ हाथ में छड़ी ली। बायाँ हाथ बिन्नी के काँधे पर रखा और चलने लगे। बिन्नी ने अपना दायाँ हाथ पीछे किया और धीरे-धीरे उनकी कमर को सोमलता की तरह लपेट लिया।
वे अपेक्षाकृत तेज़ी से ढलान चढ़ रहे थे। .......बहुत लम्बी नहीं चली थी उनकी प्रेम कहानी। पहली मुलाक़ात के तीसरे दिन ही वे राधिका से मिले और यह मिलने-जुलने का सिलसिला पाँच महीनों तक चलता रहा। छठवें महीने उन्होंने एक सादे और पारिवारिक आयोजन में राधिका से विवाह कर लिया था। उनके कुछ दोस्तों के सिवा ज़्यादातर गोपी और राधिका के परिवार के लोग ही थे। उनका अपना कोई घरवाला या रिश्तेदार नहीं था। माँ-पिता, जब वे अबोध थे, तभी गुज़र चुके थे। बड़े पिताजी ने पाला-पोसा। ज़िन्दगी आकार ले ही रही थी कि वे भी चल बसे और उनके बेटों ने सम्पत्ति की लालच में ऐसा आतंक मचाया कि उन्होंने विरक्त मन सबकुछ छोड़कर अपने शहर से ही नाता तोड़ लिया। ........बीच की कथा दुःखों और संघर्ष की अनंत कथा है। दिल्ली पहुँचकर वो सब किया जो ऐसे हालातों में जीवित रहने तथा अपनी निर्मिति के लिए एक आदमी कर सकता है। पर उन्होंने ऐसा कुछ नहीं किया जो पश्चाताप का कारण बने। प्रतिभा के बल पर हमेशा अव्वल रहे और सबकुछ बनता गया। बड़ी कम्पनी की ऊँची नौकरी, ......दोस्तों से भरा एक संसार, .......अपना घर, ......गाड़ी और एक उछाह भरा व्यस्त जीवन। विवाह के बाद जीवन उन्हें ज़्यादा सुन्दर और आश्वस्तकारी लगने लगा था। साल भर के भीतर ही टुशी आ गई। जब टुशी ढाई-तीन की रही होगी वे राधिका के साथ मुन्नार आए थे।
जब टुशी दस की हुई राधिका पोस्ट-डॉक्टरल रिसर्च के लिए स्कॉलरशिप पर स्टैनफ़ोर्ड चली गई। तब से टुशी के यूएस जाने तक वे टुशी के पापा और माँ दोनो रहे। दोस्त तो थे ही उसके बचपन से। माँ बनकर टुशी को पालते हुए उन्होंने जीवन को नए सिरे से जाना-पहचाना। स्त्री-जीवन के अनन्त दुखों के सूत्र उनके हाथ लगे। उनकी आत्मा की धरती पर कई नए हरे-भरे प्रदेश रचे-बसे। यह माँ वाला कायांतरण ही उनके जीवन की फाँस बन गया। सात साल तक कोई पिता अपनी बेटी को माँ बनकर पाले-पोसे और........। हालाँकि इन सात सालों में दो बार आई राधिका। रिसर्च के बाद वहीं दो सालों तक बतौर रिसर्च लीडर एक प्रॉजेक्ट में रही। इसके बाद वहीं स्टैनफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी के स्कूल ऑफ डिज़ाइन में पढ़ाने लगी। शुरु में उन्होंने राधिका की वापसी के लिए बहुत कोशिशें की। उससे मिन्नतें की, .....टुशी का हवाला दिया, पर.......। टुशी के जाने के बाद उन्होंने राधिका से उसकी वापसी के बारे में कोई सम्वाद नहीं किया था। कई सालों बाद उन्होंने उस दिन राधिका की आवाज़ सुनी थी, जब उसने इस बात के लिए फ़ोन किया था कि वे टुशी को समझाएँ कि टुशी उनके पास जाने की ज़िद न करे। .......ज़िन्दगी सहल नहीं रह गई थी। वे बसते-बसते उजड़ गए थे। उनकी देह और उनके मन, दोनों का छन्द भंग हो रहा था। .......और वे थे कि बार-बार भंग हो रहे छन्दों के सहारे जीवन की लय पकड़ने में लगे थे।
वे जोसेफ होम स्टे के सामने वाले हिस्से के लॉन में गार्डेन चेयर पर बैठे बिन्नी के साथ चाय पी रहे थे। यह हिस्सा ख़ाली ही था। बिन्नी मौन थी। वातावरण में अदृश्य काँपते मौन के स्पन्दन को वह अपनी देह और आत्मा की त्वचा पर महसूस कर रही थी। बिन्नी मौन के इस गुंजलक से उन्हें बाहर निकालना चाह रही थी। और चाह रही थी ख़ुद भी इससे बाहर निकल कर अपने फेफड़े में प्राणवायु भरना। वह इस गुंजलक के दुर्निवार कपाटों को खोज कर उन्हें खोल देना चाहती थी ताकि उन तक भी प्राणवायु पहुँच सके। अपने विशाल डैने फैलाए ग्रे हार्न बिल वापस अपने बसेरों की ओर जा रहे थे। अपने चौड़े ताक़तवर डैनों की धारदार गति से हवा को काटते। सरसर की अजीब-सी रहस्यमय ध्वनि के साथ वे आगे निकल गए। वे उस सेमल को पार करते हुए आ रहे थे, जो कॉटेज के सामने था। अब उस सेमल पर इनका बसेरा नहीं था।
दिन सिमट रहा था। अब साँझ का झिटपुटा घिरने लगा था। रोज़ तीसरे पहर बरसने वाले बादल आज जाने कहाँ आवारगी करते रहे! अपनी तिपहरी कहीं और बिताकर अब पहुँचने लगे थे। उनके आने की आहट से साँझ का अहसास तेजी से घना हो रहा था। देखते-देखते धुआँ-धुआँ बादलों से पूरी घाटी भर गई। कुछ वृक्षों के शिखर पर जा बैठे, ......कुछ घाटी में तैरने लगे। एक मेघ-समूह कॉटेज के बरामदे में घुसकर जाने क्या तलाश रहा था! उनके होठों पर मुस्कान तिर गई। उन्होंने बिन्नी की ओर देखा और अपनी आँखों से बादलों की ओर संकेत किया। बिन्नी ने बादलों की ओर देखा था और फिर उनके प्रसन्न चेहरे की ओर देखने लगी थी। उसे मालूम था कि वे सुबह से इन बादलों की प्रतीक्षा में थे। यहाँ आने से पहले वे यहाँ की मेघलीलाओं का वर्णन करते रहे थे। बिन्नी बोली - ‘‘ चलिए बरामदे में। ....अब लगता है वर्षा शुरु होगी।‘‘
‘‘हूँऊँऊँ....!‘‘ एक अह्लाद भरी हुँकारी भरते हुए वे उठे। बिन्नी के साथ बरामदे में पहुँचे। उनको आता देख बादलों ने बरामदा ख़ाली कर दिया था। वे बरामदे में रखी बेंत की कुर्सी पर बैठ गए। बिन्नी ने बरामदे की बत्ती का स्विच ऑन किया। हल्की रोशनी वाला बल्ब दीप्त हुआ। ...........बहुत कुछ ऐसा था उनके पास, जिससे वे मुक्त हो सकते थे। बहुत सारी स्मृतिया, .........बहुत सारे सुख-दुःख, जिनका बोझ वे अपनी आत्मा पर लादे ढो रहे थे और बहुत-सी आदतें, जिन्हें वह सहलाते हुए पाले-पोसे हुए थे ......और बहुत सारी घ्वनियाँ और दृश्य, जिन्हें वह अपनी आँखों में भरकर जी रहे थे, उनसे मुक्ति सम्भव थी। पर वे मुक्त नहीं होना चाहते थे। एक दुर्दम हठ। वे सहज घट जाने वाले पल को अघट बनाने की पर ज़िद पर तुले हुए थे। वे दुर्निवार पलों के सामने अपनी छाती तानकर खड़े थे। वे अमुक्त जीना चाहते थे, यह जानते हुए भी कि अमुक्त नहीं जी सकते। बिना मुक्त हुए, सब धू-धू कर जल उठेगा इन लहराती हुई अग्निपताकाओं की लपटों की आँच में । भस्म हो जायेगा सब कुछ। ये जो, .......कुछ बहुमुँहे घाव, ......कुछ बंद मुँहवाले और कुछ खुले मुँहवाले घाव टीस रहे हैं, इनकी टीस और बढ़ जाएगी। हर पल सजग और सचेत रहते हुए, ......गरदन की नसों पर अतीत, वर्तमान और भविष्य के अँगूठों का दाब सहते हुए जीने का हठयोग कर रहे थे वे।
रात थी। देर से आनेवाले मेघ जमे हुए थे और झमाझम बरस रहे थे। हवा भी थी। झोंकों-झपेड़ों के साथ जंगल में वर्तुलाकार भाँवर काटती हवा। धरती और आकाश के बीच लम्बवत् वलय बनाती हुई हवा। घाटी की तलहटी से ऊपर उठकर पहाड़ों के शिखर को छूती और शिखर छू कर नीचे तलहटी तक उतरती.....नाचती.....जलबूँदों से खेलती हवा।........ यह हवा उनको उड़ाए लिये जा रही थी। सामने बिन्नी थी। हल्के नीले रंग की कुर्ती और पेशावरी पाजामा पहने बिस्तर पर लेटी हुई।
......बिन्नी उन्हें फेसबुक पर मिली थी। उसने ही फ्रेंड रिक्वेस्ट भेजा था। फिर लगभग तीन-चार दिनों की चैटिंग के बाद उसने मिलने की इच्छा प्रकट की थी। पहली बार उससे मिलने जाते हुए वे असहज थे। उनके भीतर डर की एक लकीर लहरा उठी थी। वे दोनों एक कॉफी शॉप में मिले थे। पहली मुलाक़ात में बिन्नी ने उनसे बहुत कुछ पूछ लिया था। मसलन, ....उनके घर-परिवार के बारे में, ......कुछ अतीत और कुछ वर्तमान के बारे में। बिन्नी उन्हें सहज और समझदार लगी थी। गम्भीर भी। और सुन्दर तो वह थी ही। गोरी-चिट्टी, .....तीखे नाक-नक्ष और साँचे में ढली देह वाली। इसके बाद उनकी बिन्नी से ऐसी ही चार-पाँच मुलाक़ातें हुईं। कभी किसी रेस्तराँ में, .......तो कभी किसी कॉफी शॉप में। एक बार उन्होंने साथ-साथ श्रीराम सेन्टर में नाटक भी देखा। अक्सर सुनसान रहने वाली उस अर्द्धचन्द्राकार नीम-अँधेरी सड़क पर पैदल चलते हुए वे बिन्नी के साथ मंडी हाउस मेट्रो स्टेशन तक आए थे। साथ-साथ पैदल चलते हुए बिन्नी उनसे सट कर चल रही थी। उन्हें पता तक नहीं चला कि कब वह उनके काँधे पर झुक आई, ........कब उसने अपना सिर टिका दिया, ........और कब उसकी बाँहें उनकी कमर से लिपट गईं। जब सिकन्दरा रोड का किनारा आया, बिन्नी ने अलग होते हुए कहा था - ‘‘यह सड़क मुझे बहुत प्रिय है। जाड़ों में इस सुनसान सड़क पर मैं अक्सरहाँ अपने सुख-दुःख को उधेड़ती-बुनती हुई कई फेरे लगाती हूँ।‘‘
अगले सप्ताह वे बिन्नी के घर थे। बिन्नी ने उन्हें खाने पर बुलाया था। मदनगीर में चौबीस नम्बर की सँकरी-सी गली के एक मकान के तीसरे तल्ले पर दो कमरों के चारों तरफ़ से बन्द दमघोंटू फ्लैट में पहुँच कर जिस सच से उनका सामना हुआ, वह अकल्पनीय तो नहीं, पर विस्मित करने वाला ज़रूर था। बिन्नी के किचन से आ रही मसालों की ख़ुशबू में पूरा घर आप्लावित था। दो कमरे थे। एक में क़िताबों के कुछ बँधे, .......कुछ अधखुले बंडल, दो बड़े बैग, .....और भी कुछ सामान जैसे-तैसे ठुँसे हुए थे। दूसरे में एक गद्दा ज़मीन पर बिछा था। गद्दे पर सफ़ेद चादर थी हल्के बैंगनी रंग के छोटे-छोटे आर्किड के फूलों की छाप वाली। बिन्नी का खुला हुआ लैपटाप, .......कुछ क़िताबें, जिनमें खुले हुए पन्नों वाली एक अँग्रेज़ी की क़िताब, .....एक नेलकटर, .....एक मॉइस्चराइज़र ट्युब, .......एस्प्रिन टैबलेट्स का एक रैपर, ....सब बिस्तर पर ही पड़ा था। एक स्टील का आलमीरा भी कमरे में था, जिसके एक पल्ले में शीशा लगा हुआ था। बिन्नी ने सकुचाते पूछा था - ‘‘ आपको नीचे बैठने में दिक्क़त तो नहीं होगी?‘‘
उन्होंने तेजी के साथ अपने भीतर उभरते कुछ पुराने दृश्यों को नियंत्रित किया था। चेहरे पर किसी कुशल अभिनेता की तरह इत्मिनान का भाव लाते हुए मुस्कुरा कर बिन्नी की ओर देखा था। .......वे दीवार से पीठ टिकाए गद्दे पर बैठे थे और सामने खड़ी बिन्नी बोल रही थी - ‘‘ अभी हफ्ता भर पहले ही इस घर में शिफ्ट हुई हूँ। सब इधर-उधर बिखरा पड़ा है। बस किचन को किसी तरह ठीक-ठाक कर सकी हूँ कि खाना बन जाए। वैसे भी कुर्सियाँ हैं भी नहीं। सोच रही हूँ चार प्लास्टिक की कुर्सियाँ, एक टेबल...और एक फोल्डिंग कॉट ले लूँ। ...... आप बस पाँच मिनट दीजिए, .....चिकेन तैयार है, ......गरम-गरम रोटियाँ सेंक लूँ, ...फिर ......। आप रोटियाँ लेंगे या चावल बना दूँ? ......या पराठें?’’
‘‘नहीं-नहीं, ........रोटियाँ ही ठीक रहेंगी। चिकेन के मसालों की ख़ुशबू से भूख इतनी तेज़ हो गई है कि पानी आ रहा है मुँह में। जल्दी करो...।’’ उन्होंने हँसते हुए कहा था।
‘‘ नवाबों के शहर लखनऊ की हूँ। लखनऊ के लोग नानवेज के स्पेशलिस्ट होते हैं। ....हर फैमिली की अपनी रेसिपी होती है। .....बस दो मिनट।‘‘ बिन्नी किचन की ओर भागी थी।
उन्होंने ख़ूब सराह-सराह कर खाना खाया था और वहीं उस नीचे बिछे हुए गद्दे पर लेटे हुए आराम कर रहे थे। बिन्नी उनकी बगल में दीवार से पीठ टिकाए बैठी थी, उनकी एक हथेली को अपने बाएँ हाथ की हथेली में लेकर दाएँ हाथ से सहला रही थी। कभी तलहथी, तो कभी अँगुलियों को सहलाती हुई बोल रही थी बिन्नी - ‘‘.........पिछले दो-तीन महीनों से तनाव में थी। जीवन नर्क हो गया था, पर मैं नर्क का दरवाज़ा तोड़कर भाग निकली। ......हम दोनों तीन साल से लिव-इन रिलेशन में रह रहे थे। मैं नहीं गई थी उसके पास रहने। तुहिन ही आया था मेरे पास। हालाँकि उस समय इस बात से क्या फ़र्क़ पड़ता था कि कौन किसके पास रहने गया! ........या अब भी, अश्लील होकर अतीत बन चुके इस सम्बन्ध की कथा में इस बात का कोई अर्थ नहीं कि मैं उसके पास रहने गई या वह मेरे पास आया। मैं उन दिनों अच्छी नौकरी कर रही थी। चालीस हज़ार तनख़्वाह थी मेरी। मैं जी.के. के पम्पोश में रहती थी। कुछ ही महीनों बाद जब उसकी नौकरी लगी, उसकी सलाह पर मैंने अपनी नौकरी छोड़ दी और घर से ही अनुवाद का काम करने लगी। तुहिन के प्यार में बौरा गई थी मैं। एक लाख से ऊपर तनख़्वाह थी उसकी। लगभग छोड़ी हुई नौकरी के वेतन के करीब-करीब मैं भी अनुवाद से कमा लेती। जीतोड़ मेहनत करती और उसकी देखरेख भी। मेरी कमाई से घर चलता और उसकी तनख़्वाह से नई ख़रीदी गई कार के लोन की किश्त का भुगतान होता और बाक़ी जल्दी ही फ्लैट ख़रीदने के लिए जमा हो रहा था। वह रूठता और मैं उसे मनाती। मैं रूठती और फिर अपने रूठने से, अपने ही परेशान हो जाती। मुझे लगता, मैं रूठकर उसे तनाव दे रही हूँ, सो ख़ुद ही मान जाती और अपराधबोध से भर कर उससे वायदा करती कि अब नहीं होगा ऐसा। ......अब सोचती हूँ अपनी मूर्खताओं पर तो हँसी आती है मुझे। ......कुछ महीनों पहले मेरा माथा तब ठनका, जब वह अकारण मुझसे खीझने और ऊबने लगा था। जिन बातों और अदाओं पर वह फिदा रहता था, वे बातें और वे ही अदाएँ उसे चिढ़ाने लगी थीं। मेरी नंगी देह काँपती रह जाती और वह......! कल तक जो दीवानों की तरह मेरे पीछे-पीछे डोल रहा था, .......जो रात-रात भर जागता और आटे की लोई की तरह मेरी देह को गूँधता, वह मुँह चुराए फिर रहा था। .......और एक दिन उसने रहस्य खोला कि .........उसे अपने ऑफिस की एक लड़की से प्यार हो गया है। वह उसके साथ काम करती है। ......कि वह उससे शादी करना चाहता है। .......पर वह मुझे भी प्यार करता है और मेरे बिना जी नहीं सकता। .....कि अगर मैंने उसे छोड़ दिया तो वह उस लड़की के साथ सामान्य जीवन नहीं जी पाएगा। .......मैं सुनती रही पहले। फिर रोई ........चीख़ी-चिल्लाई .........दो दिनों तक खाना नहीं खाया। पहली बार तुहिन ने दो दिनों बाद मुझे मनाया। मैं मान गई। आप सोच सकते हैं कि दो दिनों तक भूखी रह कर मैंने कितनी बड़ी मूर्खता की थी। यह मान जाना तुहिन को स्वीकारना नहीं बल्कि, अपनी मूर्खता से वापसी थी मेरी। इस बीच तुहिन हाथ-पाँव जोड़ता रहा। एक बार जाने किन कमज़ोर पलों में मैंने तुहिन को अपने पास आने दिया था और उसके बाद मुझे अपनी ही देह से घिन आने लगी थी। मुझे सेक्स बहुत प्रिय है, पर वह बलात्कार था। पर क्या करती मैं? ख़ुद ही तो बलात्कार के लिए तैयार हो गई थी। बहुत मुश्किलों से उबर सकी थी मैं। तुहिन मेरे निकट आने की हर सम्भव कोशिशें करता। पर मैंने उसे इसके बाद अपनी अँगुली तक नहीं छूने दी। ......मैं अब और सहने को तैयार नहीं थी। ......वह चाहता था, उस लड़की से शादी करना, जो उससे उम्र में कुछ छोटी थी और उसके बराबर कमा रही थी। ........वह चाहता था कि मैं भी उसके जीवन में प्रेमिका की तरह उपस्थित रहूँ। ......वह चाहता था कि मैं उसे शादी के लिए अनुमति दे दूँ और उसकी रखैल बन कर रहूँ। जिस रात तुहिन ने यह प्रस्ताव दिया उसके दूसरे दिन मैं किराए का मकान लेने निकली। एक दोस्त ने मदद की और मकान उसी शाम मिल गया। दूसरे दिन अपनी क़िताबें सहेजती रही। और तीसरे दिन अपनी क़िताबों और कपड़ों के साथ यहाँ आ गई। अपना सारा सामान वहीं छोड़ आई मैं। मैं चाहती तो उसे कह सकती थी कि वह पम्पोश वाला फ्लैट छोड़कर चला जाए, पर.......। पीछे-पीछे वह आया था भागते हुए। दूसरे दिन यह गद्दा .........गैस का चूल्हा .........कुछ बर्तन लेकर मेरी अनुपस्थिति में आया और नीचे मकान मालिक के पास रख गया। अब इसे कहाँ फेंकती! मकान मालिक संदेह करता.....। बहुत थक गई थी। लगातार बिना सोए .......अपने-आप से जूझते-लड़ते हुए भी तो थकान होती ही है। इस घर में जब से आई हूँ ख़ूब सो रही हूँ। जाने कैसे इतनी नींद लिये इतने दिनों से जी रही थी! सोचती हूँ लखनऊ हो आऊँ। अम्मा-पापा से मिले दो साल बीत गए। दोनों नाराज़ हैं। तुहिन के साथ मेरे लिव-इन रिलेशन को वे किसी क़ीमत पर स्वीकार करने को तैयार नहीं हुए थे और उन लोगों ने मुझसे अपने रिश्ते तोड़ लिये। पापा से मिलने को जी छटपटा रहा है। वे बीमार चल रहे हैं। मेरी दोनों छोटी बहनों की इस बीच शादियाँ हो चुकी हैं। जल्दी ही जाऊँगी लखनऊ। यह मकान भी बदलूँगी। अगले दो-तीन महीनों में व्यवस्थित हो जायेगा सब। आज पहली बार मेरे किचन में खाना बना है। सोचा, आपके साथ अपनी नई गृहस्थी का पहला भोजन शेयर करूँ ......सो रात ही आपको कहा था मैंने कि आप मेरे साथ खाना खाएँगे........। आपको अजीब लग रहा है न यह सब सुन कर? ’’
अपने सवाल के जवाब का इंतज़ार किए बिना बिन्नी ने उनकी हथेली को अपने चेहरे से सटा लिया था। बिन्नी ने जब बोलना शुरु किया था, वे लेटे हुए थे और बिन्नी बैठी थी। पर जब उसने अपनी बात के अंत में सवाल किया वे बैठे हुए थे और उनकी गोद में सिर रखे बिन्नी लेटी हुई थी। उनकी मुद्राएँ कब बदल गईं, उन्हें भी पता नहीं चला।
वे ग़ौर से बिन्नी को निहार रहे थे। हौले-हौले उनकी आँखें बिन्नी के चेहरे पर टहल रही थीं। उदासियों के घने कोहरे में डूबा हुआ था बिन्नी का चेहरा।
‘‘उदासियों का भी अपना वसंत होता है।‘‘ धीमे स्वर में कहा था उन्होंने और बिन्नी की उदास आँखों में उनकी आँखें बहुत गहरे तक उतर गई थीं। बिन्नी ने अपनी आँखें हौले से बंद कर ली थीं।
उनकी एक हथेली बिन्नी का सिर सहला रही थी। अँगुलियाँ उसके बालों में उलझ रही थीं। दूसरी हथेली बिन्नी के हाथ में थी। वह बोली -‘‘आपकी अँगुलियाँ बहुत लम्बी और नाज़ुक हैं।‘‘
वे मुस्कुराते हुए उसे चुपचाप निहारते रहे थे। बिन्नी ने फिर कहा था -‘‘ आपको मालूम है...आपकी अँगुलियों में जादू है...?‘‘
बिन्नी की उदासियों का गझिन कोहरा कुछ झीना हुआ। उन्होंने कहा था -‘‘तुम्हारी प्रशंसा से मैं आत्ममुग्ध नहीं होनेवाला।‘‘
बिन्नी मुस्कुराई थी। कुछ देर तक उनकी अँगुलियाँ उसके रूखे हो चले बालों में घूमती रही थीं। वे समझ नहीं पा रहे थे कि वे बिन्नी को सींच रहे हैं या अपने भीतर पसरे बंजरपन को। फिर उन्होंने अपनी अँगुलियों से बिन्नी के होठों को छुआ था।
..........वे बिन्नी को निहार रहे थे। गरज-बरस कर थम चुके थे मेघ। कमरे में हल्की रोशनी थी। हल्के नीले रंग की कुर्ती और पेशावरी पाजामे में सोई बिन्नी के होठ नींद में लरज़ रहे थे। उन्होंने अपनी अँगुली से उसके होठों को छुआ। उनके छूते ही और ज़ोर से लरज़े उसके होठ। उन्होंने अँगुली से ही होठों को सहलाया। नींद में ही कुनमुनाई थी बिन्नी और उसकी आँखें खुल गई थीं।
करवट सोई बिन्नी पीठ के बल हो गई। उसने आँखें बन्द कर ली थीं। वे उसके चेहरे पर झुक रहे थे। उनकी उष्म साँसों की छुवन से बिन्नी के चेहरे की त्वचा का रंग बदलने लगा था। चेहरे की गोराई में ईंगुर की लालिमा घुलने लगी थी। उसकी त्वचा से छनकर उसके मन का अंतरंग झिलमिल कर रहा था। ......बिन्नी के होठों की पंखुड़ियों पर चिराग़ जल उठा। उर्ध्व उठती, ......काँपती, ....लपलपाती लौ। बिन्नी की दोनों बाँहें ऊपर उठीं और वे उसके पाश में बँध गए थे। .........बिन्नी की निरावृत देह को जहाँ-जहाँ उनके होठों ने छुआ, ......असंख्य दीप-शिखाएँ झिलमिला उठीं। उसके मदिर रोमहास में वे सुधबुध खो रहे थे। उसके रुधिर का संगीत उसकी शिराओं में गूँज रहा था। बिन्नी की आत्मा के अतल में बतास फूट रहा था और वे ग्रे हार्न बिल की तरह अपने डैने फैलाए परवाज़ भर रहे थे। ........कि अचानक चुनचुन करती एक थ्रश चिड़िया घुस आई उस कमरे में। पीले रंग की समीज़ और नीले रंग की सलवार पहने ‘‘पापा......पापा‘‘ पुकारती टुशी की छाया उनकी आँखों के सामने लरज़ी और लोप हो गई। पंख कटे ग्रे हार्न बिल की तरह गिरे वे। ...........बिन्नी की मुँदी हुई आँखें, मुँदी रहीं ......बहुत देर तक। उसे दिन में देखी हुई ढलान वाली वह नदी याद आई......जिसकी जलधारा सूख गई थी।
रात असहज कटी, .....दोनों की। आकुलता थी, पर आर्त्तनाद नहीं था। न बिन्नी के अतल में और न उनके। सप्तम स्वर में बजते शंखध्वनि-सी शून्य में जाकर अँटकी हुई जिस चीख़ को साथ लिये वे जी रहे थे, वो चीख़ घुल गई थी, .......या नीचे कहीं गिर कर धूल-माटी में मिल गई थी, ......या फिर विवशताओं की किसी ऊँची भीत पर जाकर बैठ गई थी! दो अबोले आख्यान एक साथ गूँजते रहे सारी रात उस कमरे में। दुखते, टीसते, कराहते, छटपटाते हुए कई-कई आभाओं और गतियों वाले क्षण आते-जाते, ....कभी ठिठकते और कभी विराम करते रहे थे रात भर। अपनी आत्मा में अग्निपताकाओं का आरोहण उन्होंने स्वयं ही किया था और अब अपने ही हाथों अवरोहण कर रहे थे। इन अग्निपताकाओं में कुछ उभरे हुए, .......कुछ छिपे हुए आत्मा के घाव-सा जो बहुत कुछ लहरा रहा था वो सब अपनी टीस और मवाद के साथ दब गया था।
अगम था सब कुछ उनके लिए। .......और बिन्नी के लिए? बिन्नी के लिए कुछ भी अगम नहीं था। वह उनकी तरह अँधियारे में नहीं भटक रही थी। अँधेरा था ज़रूर, पर बिन्नी उसे पहचान रही थी। वह राख-माटी के बगूलों के बीच अपने लिए राह बनाकर निकलना सीख गई थी इन कुछ ही महीनों में। उसे उस गंध की तलाश थी, जो उसकी प्राणवायु से निःसृत होती और उनकी प्राणवायु से टकरा कर नई गंध में ढलती, पर........।
वे कमरे से बाहर जाकर लिविंग रूम में बैठे थे। मौन। उनका चेहरा कुछ उबड़खाबड़ हो गया था। आँखों के नीचे हल्की स्याही छा गई थी। ठुड्डी और गाल की हड्डी कुछ उभर आई थी। अपने ही जीवन के रहस्यों के गुंजलक को काटकर बाहर निकलने की कोशिशों में वे लोप हो गए थे और वहाँ होते हुए भी नहीं थे। उनके चारों ओर पसरा था एक वीरान, ...हू-हू करता उजाड़ बंजर।
बिन्नी उनके पास आई। उन्होंने उसकी ओर निमिश भर को देखा। बिन्नी बहुत पास आकर खड़ी हुई, .....लगभग उनसे सट कर। वे बैठे रहे। बिन्नी बोली - ‘‘सर, आपने ही कहा था, .....उदासियों का भी अपना वसंत होता है। ......क्या हम दोनों इस वसंत को नहीं जी सकते?’’
वे फफक उठे, .......जैसे कोई वाण महावेग से चलते हुए आकर पृथ्वी से टकराया हो और जल की अनगिन धाराएँ फूट पड़ी हों। धनुही की तरह उनपर झुक आई थी बिन्नी की देह और उन्होंने सहारे के लिए अपनी बाँहों से उसकी कमर को बाँध लिया था। ........वे रो रहे थे। उनकी आँखें धरासार बरस रही थीं और बिन्नी उनका सिर सहला रही थी।
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