कविताओँ मेँ इन दिनों माँ
उन्नीस सौ नब्बे का साल ।
इस साल कवियों नेँ माँ पर कविताएँ लिखीं
अनगिनत।
कविताओं में इन दिनों जहाँ देखो तहाँ
चक्की चलाती गुनगुनाती हैँ माँ।
घर छोड़ नये नये दिल्ली आये कवियों का
आँचल की हवा से माथा सहलाती
लोरियाँ सुनाती है, दुलराती है बेहद
महज़ दुलराती है। न थकती, न सोती
सबने उसे सिर्फ़ जागते ही देखा है।
कहीं मेरे बेटे किसी दिन देख न लें यह तस्वीर
डरती हूँ।
वे तस्वीर को देखेंगे, फिर मुझे
चक्की की तरह खुद चलती हुई लगातार
घर और दफ़्तर का अलग अलग संसार
कौन कब साबुत बचा दो पाटों के बीच।
कल के कामों की सूची बनाती हूँ आज
अगले दिन की सूची मेँ
पिछले के बचे हुए कामों को चढ़ाती हूँ
चलती हुई सड़क तो कुचलती हुई सड़क है।
हर वक्त बाकी है कोई न कोई काम
हर वक्त थकान। हर वक्त परेशान।
कथाओं मेँ दुःस्वप्न हैँ। लोरियों में खबरदार।
माँ की गोद से बड़ा, बहुत बड़ा है संसार
डरावना और खूंख्वार।निर्मम ललकार।
अभ्यास के लिये आओ।
सँभालो अपने पंजे और नाखून, हथियार पैनाओ।
उँगली छुड़ा लेने का वक्त अब करीब है।
डरती हूँ।
तैयारी कभी पूरी नहीं होती भविष्य से मुकाबले की।
अभ्यास मेँ वे सचमुच अभ्यस्त न हो जायँ कहीं
केवल हथियार के।
चिह्न भी न बाकी रहें कहीं किसी प्यार के।
कैसे सिखाऊँ प्यार और हथियार साथ साथ
सिर्फ़ सैर में पिकनिक सा देखा है संसार
देहरी पार का, डरती हूँ।
डरती हूँ इस दिनों कविताओं से भी
कोनों में अँतरों मेँ छिपाती हुई फिरती हूँ
कहीं मेरे बेटे देख न लें वहाँ माँ की वह तस्वीर
और मुझे पहचानने से इंकार कर दें।
कीचड़
ऐन दरवाज़े से लेकर
सड़क तक पानी भर जाता था हर बरसात में
धीरे धीरे सूख कर कीचड़ में बदलता हुआ
बचपन मेँ उसको माँ ने सिखाया था
दो ईंटो के सहारे किच किच काँदों से बचकर
कीचड़ को पार करने का तरीका
एक ईँट डालो। पहला कदम ईंट पर।
दूसरी ईंट डालो। दूसरा कदम ईंट पर।
घूमकर पीछे से उठाओ पहली ईंट।
आगे ले आओ । याद रहे सन्तुलन सधा रहे।
अगला कदम ईंट पर।
घूमकर पीछे से उठाओ दूसरी ईंट । आगे ले आओ
ज़रा सा भी चूके और गये। अगला कदम ईंट पर।
घूम कर पीछे से उठाओ….
बरसों पहले चला था सड़क पर पहुँचने के पहले ही
सड़क का न अता न पता, कीचड़ की नदी है एक।
माँ से मिली पूँजी। ये ही दो ईंटे कुल। लथपथ।
झुकते सँभलते उठाते आगे ले आते पीठ दोहर गयी
पिंडलियाँ अकड़ चलीं।
जाँघों की रग रग में सीसा भरा है। बाहें बेजान हुईं।
घूम कर पीछे से उठाना है। आगे ले आना है।
कदम रखने को ईंट भर जगह। लथपथ।
अब तो उसे पीछे से घूमकर आगे के सिवा
और कुछ याद नहीं। पीछे भी पीछे सा
आगे भी आगे सा रहा कहाँ।
घूमकर पीछे भी आगे सा लगता है
आगे भी पीछे सा सुझाता है। जाने कहाँ जाना है
जैसे भी हो बस ईंटों को बचाना है।
उसे लौटना है माँ के संसार में।
धीरज अथाह और क्षमा भी अनन्त वही
दुनिया को दूसरा चेहरा पहनाना है
घूमकर पीछे से माँ के संसार को उठाना है
आगे ले आना है।
सड़क पार का मैदान अब
कीचड़ का समुद्र है, नीले और बैंगनी बुलबुलों में फूटता।
कब इतनी बारिश कहाँ हुई पता नहीं।
मैदान के पार शायद सड़क हो।
माँ से मिली पूँजी। कुल ये ही दो ईंटें।
पिता के संसार में कहाँ तक जायेंगी ?
इन्हीं को बचाने की धुन ऐसी अपने में खुद
गन्तव्य बन जायेगी। पाँव भर टिकाने की जगह।
वह भी लथपथ।
पिछली सदी की एक औरत का बड़ी हो गयी बेटी के नाम एक बयान
शायद तू ही ठीक कहती होगी,
मेरी बिटिया
बच्चे
हमेशा ही बेहतर जानते हैं
तेरी उम्र के बच्चे
खास तौर से।
रास्ता दिखाना कितना आसान है
खुद देखना कितना कठिन।
फिर भी
तेरी उंगली पकड़ कर, तुझे दिखाने
नहीं ले जा सकती वे रास्ते
जिन पर मैं चल आई।
वे भी नहीं जिन पर तू चले।
सदी का आखीर अभी दूर था।
जब मैने कभी कोई फ़ैसला सही वक्त पर
सही तौर से नहीं किया.
ठीक कहती है तू, मान लिया।
खासे तूफ़ान रहे ज़िंदगी में अपनी भी
ठीक कहती है तू , सब के सब
चाय की प्याली में आये थे।
नींव की ईंटों को मलबा कहा जाता है।
अंकुर भी उगाये थे। पाये थे अनेक सच
जिनको आज अपना कह सकती हूं
गंवाये भी होंगे ही कुछ न कुछ
जिनका हिसाब मैने रखा नहीं। गलती की।
तब इतना ही मालूम था, हिसाब रखो
तो जिंदग़ी के सौदे घाटे के ठहरते हैं
तब तू जो नहीं थी। इतनी बड़ी
बताने के लिये, जियो बेहिसाब तो
फ़ायदे भी पता नहीं चलते है।
औरत की उत्तरकथा तब तक
शुरू नहीं हुई थी,
पूरब कथा में कायदे इतने थे
कि आसानी से टूटते थे।
खुल कर सांस ली
और टूट गया कुछ न कुछ
खिलखिला कर हंसी, हताशा में सिर उठाया
देखा आकाश, और लो टूट गया कुछ और।
शून्य का पहाड़ा पढ़ा नहीं गया था।
फ़ायदे का गणित यूं गढ़ा नहीं गया था
कि लौट कर देखती और महज़
नुकसान नज़र आता।
कभी कोई
सही फ़ैसला सही वक्त पर नहीं किया
बस तुझे जन्म दिया
पाला पोसा बड़ा किया। यह भी
कोई करना था? हो जाता है बिना किये।
नतीजा? थका शरीर
अब खाली घोसला, सूनापन निचाट।
तू तो समझदार है. इतना संतोष करूं
अपने को इस ग़लती का मौका भी
देगी नहीं शायद ।
फ़ैसले जो मैने किये। समझने के पहले ही
ग़लत वक्त पर सही फ़ैसले थे
या शायद सही वक्त पर ग़लत।
शायद ग़लत वक्त पर ग़लत ही रहे होंगे.
तू जो कहती है कि सही वक्त पर सही
हुए होते जो फ़ैसले वे
ये तो हो ही नहीं सकते थे
जो मैने किये।
वरना कुछ और हुआ होता नतीजा
तू न हुई होती, हुआ होता
पहले हुआ होता खाली घोसला।
फिर निचाट सूनापन
फिर थका शरीर।
ठीक ही कहती है तू
जैसा तू समझे। मान लिया
लेकिन शुक्र है तब तू भी तो थी नहीं
समझाने के लिये
तुझे मैने जन्म दिया,
जाना कि जो कुछ भी पाया उगाया बनाया गंवाया
उस सबसे ज्यादा कीमती यह ग़लती थी
शुक्र है। समझ आने के पहले ही कर बैठी
कुछ भी नहीं था इसके जैसा
कुछ भी नहीं,कुछ भी पाना उगाना
बनाना गंवाना।
शुक्र है तू भी तब नहीं थी समझाने के लिये।
अर्चना वर्मा
ईमेल : mamushu46@gmail.com
1 टिप्पणियाँ
बहुत सुंदर रचनाऐं !
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