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कहानी: हाँ मेरी बिट्टु - हृषीकेश सुलभ

प्रेम के रंग कहाँ पकड़ आते हैं, कभी पानी का तो कभी आग का, कभी आकाश का नीलापन तो कभी गोधुलि... कथाकार 'हृषीकेश सुलभ' को बहुत अच्छी तरह इन रंगों के राज़ पता हैं और न सिर्फ पता है बल्कि वो उन्हें अपनी क़लम में उनके अलग-अलग शेड्स को भरना भी जानते हैं... जिंदा-कहानी की बेमिसाल कहानी  है "हाँ मेरी बिट्टु".

भरत तिवारी
लखनऊ, 14/02/2015


कहानी

हाँ मेरी बिट्टु

हृषीकेश सुलभ




उसके आते ही मेरा कमरा उजास से भर गया। 

‘‘भाई साहब! नमस्ते!......मैं अन्नी हूँ,.... अन्नी।’’

मुझे भौंचक पाकर वह खिलखिला उठी। फिर बहुत सहजता और विश्वास से उसने कहा - ‘‘मैं जानती थी कि मुझे अचानक अपने कमरे में पाकर आप चौंक उठेंगे।’’

मैं हाथ में आईना लिये उसे निहार रहा था। मैं आईना टाँगने के लिए उचित जगह की तलाश में था। कमरे की दीवारों पर कीलें ठोकना मुझे कभी अच्छा नहीं लगा, सो पहले से ठोकी गई कीलों में से चुनाव करने में लगा था कि वह दबे पाँव कमरे में आ गई।

‘‘आप मुझे पहचानते हैं ? पहचानिए तो सही.......मैं कौन हूँ ?’’ अपनी बड़ी-बड़ी आँखों को नचाती हुई वह बिल्कुल मेरे पास आ गई। उसके होठों में मुस्कान छिपी थी। आँखों में शरारत भरी चमक छलक रही थी। 

‘‘नहीं।’’ मैंने गम्भीर आवाज़ में कहा - ‘‘नहीं, हम शायद पहली बार मिल रहे हैं।’’

हालाँकि अब मैं उसे पहचान गया था। उसके पीछे दरवाज़े की ओट में दीवार से सटे खड़े सुनीत पर मेरी नज़र पड़ चुकी थी। मुझे यह समझते देर नहीं लगी कि मुझे चौंकाने के लिए बनी इस योजना में सुनीत आधे मन से शामिल है। 

‘‘मेरा नाम अन्नी है।’’ उसने मुझे चुप पाकर अपनी बात दुहराई।

‘‘मैं सुन चुका हूँ।.....और ?’’

‘‘और ?......और बस मेरा नाम अन्नी है। और क्या ?’’ वह फिर हँसी। हँसते हुए उसके दाँतों की धवल पंक्तियाँ लहरा उठीं, जैसे पंक्तिबद्ध सफ़ेद कबूतर आकाश में लहरा रहे हों।

वह कोई शरारत न कर बैठे, इस भय से उसकी खिलखिलाहट थमने से पहले सुनीत कमरे के भीतर आ गया। उसके चेहरे पर परेशानी के चिह्न थे। उसने कहा - ‘‘सर! यह अन्नी है।......मेरी....’’

‘‘.....पत्नी......बस यही बताने के लिए भीतर चले आए। थोड़ी देर और छिपकर खड़े नहीं रह सकते थे ?.....बुद्धु!’’ अन्नी का चेहरा रूआँसा हो उठा।

‘‘ अन्नी!’’ सुनीत ने झपटती हुई आवाज़ के बल पर उसे चुप कराना चाहा। 

‘‘भाई साहब! देखा आपने ?.......सारा खेल ख़राब कर दिया इसने। मेरी सारी प्लानिंग चौपट हो गई।....एक फ्रेज है न....गुड़ को ख़राब करनेवाला......’’

‘‘सारा गुड़ गोबर कर दिया इसने।’’ मैंने मुहावरा याद दिलाते हुए कहा।

‘‘एक्ज़ैक्ट!.....गुड़ गोबर कर दिया इसने।’’

‘‘नहीं।’’ मैंने मुहावरा दुहराया - ‘‘सारा गुड़ गोबर कर दिया इसने........’’ और हम तीनों खिलखिला उठे।

बीस-बाईस साल की दुबली-पतली, गोरी-चिट्टी.....बड़ी-बड़ी आँखों और चुहल भरी बातों वाली यह लड़की उस दिन बहुत देर तक मेरे कमरे को व्यवस्थित करने में लगी रही। वह किसी तानाशाह की तरह हुक्म देती और मैं और सुनीत दौड़कर उसका हुक्म बजाते। नृत्य सीख रही लड़की की तरह उसने अपना दुपट्टा एक काँधे से होते हुए कमर में लपेट रखा था। चेहरे पर झुक आई लटों को झटकती हुई पूरे कमरे को उसने अपनी चपल गति और बातों की गूँज से भर दिया था।

‘‘तख़्त इधर लगेगा.....यहाँ......क्योंकि यहाँ सुबह की पहली किरण आकर आपको जगा देगी और आप आलसी सुनीत की तरह देर तक सोए नहीं रह पाएँगे।......यहाँ लिखने की मेज ठीक रहेगी। सामने का सब कुछ यहीं से बैठे-बैठे देखा जा सकता है।.....आम.......अमरूद.......और लीची के पेड़।.....इन पेड़ों पर मैना चिडि़यों का झुंड रहता है। पीली चोंच वाली यह चिडि़या बहुत ढीठ होती है,......मेरी तरह। सुग्गे भी आते हैं, पर डरपोक होते हैं,......इस सुनीत की तरह।.....और सबसे बड़ी बात यह है कि सामने का आकाश हमेशा यहाँ से देखा जा सकता है।.....खुला-खुला आकाश देखकर मन में उत्साह भरा रहेगा।.......यहाँ कोई बड़ी सी तस्वीर अच्छी लगेगी।.......भाभीजी की कोई बड़ी सी तस्वीर है आपके पास ?......अच्छा रहेगा.......कमरे में उनकी उपस्थिति से सब कुछ भरा-भरा सा लगेगा।....और भाई साहब,.....यहाँ,....छोटे स्टूल पर.....’’ अन्नी के ऐसे निर्देशों और सुझावों का ताँता लगा हुआ था।

अन्नी के अनुसार सब कुछ तात्कालिक रूप से व्यवस्थित हो गया। हमलोगों ने चाय पी। चाय अन्नी ने ही तैयार किया। चाय पीने के बाद उसने आदेश दिया - ‘‘आज रात का खाना आप हमारे साथ खाएँगे। ठीक नौ बजे सुनीत आकर आपको साथ ले जाएगा।......कहीं घूमने मत निकल जाइएगा।’’

मेरे ऊपर उसकी साधिकार टिप्पणियों से सुनीत परेशान हो रहा था। उसने चिढ़ते हुए कहा - ‘‘अब चलो भी। सर को थोड़ी देर आराम करने दो।......शिफ्ट करने के चक्कर में सारा दिन भाग-दौड़ करते रहे हैं।.....थक गए होंगे।’’

‘‘तुम घर में भी सर-सर क्या रट रहे हो ?.....आफि़स में कहना। घर में भाई साहब नहीं बोल सकते ?’’ उसने सुनीत पर जवाबी हमला किया। मैं बेसाख़्ता हँस पड़ा।

उन दोनों के जाते ही मेरा कमरा ख़ाली-ख़ाली लगने लगा। थोड़ी देर पहले तक उन दोनों की नोक-झोंक,.....अन्नी की खिलखिलाहटें,......चपलता,.......और चिकोटी की तरह मज़ेदार चुभन देनेवाली सुनीत की बातों से यह कमरा लबालब भरा था। अचानक पूरे कमरे में उदासी पसर गई। सोने की तरह दिप-दिप दमकते अन्नी के चेहरे की आभा से भरा यह कमरा उसके जाते ही गुमसुम हो उठा।

मैं बतौर सज़ायाफ़्ता यहाँ तबादले पर आया था। उन दिनों वसंत का मौसम था और लाल फूलों से ढँके सेमल के ऊँचे दरख़्तों से यह क़स्बाई शहर पटा हुआ था। सेमल, कदम्ब और मेरे लिए अपरिचित कई तरह के जंगली वृक्षों की घनी छाँह में बेतरतीब ढंग से छोटे-छोटे महल्ले बसे हुए थे। बीच-बीच में खेत थे। धान और पाट की फसल से भरे हुए खेत। एक बरसाती नदी अपनी कई उपधाराओं के साथ शहर के बीच गुँथी हुई थी। नदी पर एक बड़ा पुल था और उपधाराओं पर छोटी-छोटी लोहे की पुलिया। इस छोटे से शहर के लैंडस्केप ने मेरे मन के भीतर कुंडली मारकर बैठे तबादले के दुःख को विदा कर दिया था। सज़ा देनेवालों के प्रति मेरे मन की कलुषता धुल गई थी। मैं उन्हें इस कृपा के लिए धन्यवाद देने लगा था। हालाँकि यहाँ आने से पहले इस जगह का जो नक्शा मेरे मन में था, उसमें कालाजार के दहशतनाक चित्र थे। मैं खीझ, ऊब और इस्तीफा देने की हद तक निराशा से भरा हुआ था।......इस कमरे में पहुँचते ही मन बदलने लगा। दस दिनों तक एक लॉज में रहा और फिर किराये का यह एक छोटा-सा कमरा मिला। इस कमरे को सुनीत ने ही ढूँढ़कर निकाला था। हमदोनों एक ही दफ़्तर में थे। और अब वह मेरा पड़ोसी भी था। उसकी नई नौकरी थी। वर्ष भर पहले उसने नौकरी ज्वायन की थी और कुछ महीनों पहले ही अन्नी से उसका विवाह हुआ था। ब्ज़ि ज़ि

मृदुभाषी सुनीत के चेहरे से मुस्कान और दृढ़ता के मिले-जुले रंगों की आभा हमेशा फूटती रहती। अन्नी ख़ूब बोलती। चुहल करती। पूरे घर में फिरकी की तरह डोलती फिरती अन्नी और सुनीत अपनी एक टिप्पणी से उसे उलझाकर मुस्कराते रहता। अन्नी किसी नदी की वेगवती धारा की तरह बहती और वह उसे किनारों की तरह बाँधे निश्चल पड़ा रहता। दोनों लगभग एक ही उम्र के थे।

अन्नी को सुबह जागने की आदत थी और सुनीत को नींद खुल जाने के बाद भी देर तक बिस्तर पर अलसाए पड़े रहने की। अन्नी को हरी सब्जि़याँ पसंद थीं और सुनीत को आलू प्रिय था। सुनीत खीर और सेवइयाँ चाव से खाता और अन्नी को बाहर जाकर चाट खाना अच्छा लगता। अन्नी सारा दिन कमरे को व्यवस्थित करती और सुनीत चीज़ें बिखेरता। सुनीत बिना टोके मेरी बातें, मेरे अनुभव, मेरे कि़स्से ध्यान से सुनता और अन्नी बीच-बीच में टोकती, प्रश्न करती,.....अपने तर्क रखती।

हम तीनों शाम को लगभग एक ही समय घर लौटते। मैं और सुनीत दफ़्तर से और अन्नी अपना कम्प्यूटर क्लास ख़त्म कर लौटती। अन्नी नहीं आई होती, तो सुनीत मेरे कमरे में आकर बैठता। अन्नी भागती हुई सीधे मेरे कमरे में आती। हमदोनों थरमस में चाय डालकर उसकी प्रतीक्षा कर रहे होते। अन्नी पहले आ गई होती, तो मैं, सुनीत के साथ उसके घर चाय पीने के लिए रुक जाता। अमूमन हर शाम हम तीनों साथ-साथ चाय पीते। कभी-कभी अन्नी खाने के लिए रोक लेती। मैं घंटों बैठता। गप्पें मारता और फिर रात का खाना खाकर वापस घर लौटता।

खाना परोसते-खिलाते समय अन्नी पूरी तरह बदल जाती थी। वह अचानक उम्र का बहुत बड़ा फ़ासला तय करती और उसका व्यवहार बदल जाता। मनुहार, दबाव और फिर डाँट-फटकार जैसे अस्त्रों के प्रयोग के बल पर ख़ुराक से ज़्यादा खिला देना उसकी फि़तरत में शामिल था। ऐसे अवसरों पर हमदोनों त्राहिमाम् कर उठते। मैं दोनों हाथ जोड़कर कहता - ‘‘दादी अम्मा! अब प्राण लेकर ही मानोगी क्या ?’’

सुनीत टिप्पणी करता - ‘‘यह फ्यूडल टेंपरामेंट है। जिस देश की नव्बे प्रतिशत जनता आधा पेट खाकर गुज़ारा करती हो,....और सैकड़ों लोग जहाँ रोज़ भूख से मरते हों, वहाँ ठूस-ठूस कर खाने से बड़ा अपराध क्या हो सकता है भला!’’

अन्नी उलझती और सुनीत पर जवाबी हमला करती - ‘‘जिस देश के कर्णधार बारह घंटों की नींद लें और जागने के बाद बिस्तर पर चाय पीकर ऊँघते हुए टॉयलेट में प्रवेश करें,.....टॉयलेट से निकलकर टी. वी. देखें,.....और फिर बिना शेव किए दफ़्तर भागें,.....उस देश का तो भगवान ही मालिक है!......क्यों भाई साहब! ऐसे देश को कौन बचाएगा ?’’

‘‘तुम.....सिर्फ़ तुम बचा सकती हो दादी अम्मा।’’ मैं चाटुकारिता करते हुए अन्नी का पक्ष लेता - ‘‘डाल दो इसकी थाली में दो रोटियाँ और......।’’ और फिर गिड़गिड़ाता - ‘‘.....और मेरे प्राण बख़्श दो।....तुम जानती हो......मुझे रात में लिखना-पढ़ना होता है।’’

‘‘हाँ, मालूम है मुझे। इन दिनों ख़ूब लिख-पढ़ रहे हैं आप।....आपके खर्राटों से कमरे की दीवारें दरक गई हैं। मकान मालिक जल्दी ही आपको निकाल बाहर करेगा।’’

‘‘तुमने इतना स्वादिष्ट खाना बनाना किससे सीखा ?’’ मैं उसे फुसलाने की कोशिश करता।

‘‘माँ से।....मेरी भाभी भी बहुत बढि़या खाना बनाती हैं।’’ वह गर्व से भर उठती।

‘‘अन्नी! तुम कम्प्यूटर में बेकार समय बरबाद कर रही हो।......तुम नौकरी कर लो। गूँगे-बहरे बच्चों के स्कूल में टीचर हो जाओ।......चीख़ती रहना.....या फिर किसी होटल में शेफ की नौकरी कर लो’’ सुनीत अपने स्वर में अतिरिक्त मिठास भरते हुए सलाह देता।

‘‘भाई साहब! इसे मना कीजिए......यह मुझे टीज़ कर रहा है।’’ अन्नी मेरे सामने आकर खड़ी हो जाती।

मेरी इच्छा होती कि वह मेरे गले में बाहें डालकर झूल जाती या मेरे वक्ष में मुँह छिपा लेती,......या मैं अपनी दोनों हथेलियों में उसका चेहरा भरकर उसे दुलार करता,......उसका माथा चूमता।


*



मैं छुट्टियों में पहली बार अपने शहर,.......अपने घर जा रहा था। अन्नी और सुनीत मुझे विदा करने रेलवे स्टेशन आए थे। थोड़ी देर पहले वर्षा रुकी थी। सब कुछ धुला-धुला था। पेड़ों की पत्तियाँ,....सड़कें,.....और रेल की पटरियों के किनारे बिछे पत्थर के टुकड़े; सब नहा-धोकर जैसे किसी यात्रा पर जाने को तैयार थे। आसमान अभी साफ़ हो रहा था। बादल के टुकड़े थे, कुछ रूई की तरह सफ़ेद और कुछ राख की तरह मटमैले। सुबह के सूरज से खेलते हुए बादल के टुकड़े। रेलवे प्लेटफ़ार्म पर तफ़रीह करते हुए आर्द्र हवा के झोंके अन्नी के पल्लू और खुले बालों से छेड़-छाड़ कर रहे थे। गहरे जामुनी रंग के शिफ़ॉन की साड़ी में गोरी-चिट्टी अन्नी किसी ताज़ा खिले फूल की तरह चमक रही थी। सुनीत मेरी नज़रें बचाकर अन्नी को मुग्ध-भाव से देखते हुए गम्भीर बने रहने का नाट्य कर रहा था; जैसे पंख फैलाकर बाग़ में उड़ान भरती तितली का पीछा कोई शरारती बच्चा भोलेपन के नाट्य के साथ कर रहा हो। 

‘‘बिट्टु और भाभीजी की तस्वीरें लाना याद रखिएगा।’’ अन्नी दसवीं,.....बीसवीं या फिर सौवीं बार मुझे याद दिला रही थी। 

‘‘नहीं भूलूँगा।’’ मैंने मुस्कराते हुए कहा।

‘‘दोनों की एक साथ कोई बड़ी तस्वीर हो तो ज़रूर लेते आइएगा।......आपके कमरे में बस एक तस्वीर की ही कमी है।’’ अन्नी बोली।

‘‘तुम एक लिस्ट बनाकर दे दो।’’ सुनीत आदतन बीच में टपका।

‘‘थैंक्स फॉर सजे़शन!’’ अन्नी ने निचले होंठ का बायाँ कोना टेढ़ा करते हुए उसे मुँह चिढ़ाया। फिर मुझसे कहा - ‘‘भाई साहब! सब पूरियाँ ख लेंगे।......ज़्यादा नहीं हैं।.....और सामान पर नजार रखेंगे। ऐसा न हो कि आप दिन में ही खर्राटें भरने लगें और सामान लेकर कोई चम्पत...।’’

‘‘हर स्टेशन पर नीचे नहीं उतरेंगे।......अच्छे बच्चों की तरह बिना हिले-डुले बैठे रहेंगे।’’ उसकी बात काटते हुए सुनीत ने व्यंग्य भरा जुमला जड़ दिया।

‘‘तुम चुप नहीं रह सकते ?’’ वह बिफर उठी - ‘‘भाई साहब, इसे समझाकर जाइए।’’

अन्नी ने मेरी ओर ऐसे देखा कि मैं हँस पड़ा। हँसते हुए मैंने सुनीत के लिए आदेश पारित किया - ‘‘सुनीत! मेरी ग़ैरमौजूदगी में तुम अन्नी को तंग नहीं करोगे।.....इसकी हर बात मानोगे।.......और सप्ताह में दो दिन इसे बाहर ले जाकर चाट खिलाओगे।’’

वह झुककर बोला - ‘‘यस सर!’’

और ट्रेन आने की सूचना में हम तीनों की हँसी घुल गई। दो मिनट रुकनेवाली मेल ट्रेन आई। अन्नी ने मेरे पाँव छुए। सुनीत ने दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम किया। मैं ट्रेन में बैठा। ट्रेन खुली। हाथ हिलाते हुए अन्नी ने कहा - ‘‘भाई साहब! जल्दी लौटिएगा।’’

मैं बुदबुदाया - ‘‘हाँ, जल्दी ही आऊँगा।’’

मैं गया था पन्द्रह दिनों की छुट्टी लेकर और लौटा दो माह बाद। लम्बी प्रवास-अवधि गुज़ारकर घर गया था, सो पहला सप्ताह तो यूँ ही निकल गया। प्रवास के दिनों का दुःख-सुख सुनते-सुनाते इतनी भी फ़ुर्सत नहीं मिली कि यार-दोस्तों से मुलाक़ात कर सकूँ। बिट्टु दिन-रात चिपकी रहती। वह सप्ताह भर तक स्कूल नहीं गई। पत्नी ने भी स्कूल से छुट्टी ले ली थी। दूसरा सप्ताह यार-दोस्तों से मिलने-जुलने में बीत गया। फिर पत्नी बीमार पड़ी और अगले पन्द्रह दिन उसकी तिमारदारी में गुज़ारे। इस बीच अन्नी और सुनीत लगातार मेरी बातचीत में उपस्थित रहे।

मेरे तबादले के चलते घर का ढाँचा ही चरमराने लगा था। दो जगह की गृहस्थियों का आर्थिक बोझ, स्कूल की नौकरी के चलते पत्नी से अलग रहने की विवशता,......और पापा को मिस करती बारह साल की बिट्टु का दुःख। दोस्तों के सुझाव पर मैं वापसी सम्भावना तलाशने दिल्ली गया। पन्द्रह दिनों तक अपने मुख्यालय से मंत्रालय तक के चक्कर काटता रहा। माह-डेढ़ माह के भीतर तबादले की जुगत भिड़ाकर वापस लौटा। लगभग पन्द्रह दिन इसी मस्ती में गुज़रे कि ख़ुदा-ख़ुदा करके क़ुफ्ऱ तो टूटा और अब सज़ा के दिन बस ख़त्म ही होने वाले हैं। दो महीनों बाद मैं यह सोचते हुए नौकरी पर वापस लौटा कि दस-पन्द्रह दिन तो देखते-देखते कट जाएँगे और तबादले का आदेश आ जाएगा।



*




ट्रेन से उतरकर अपने कमरे में पहुँचते ही सबसे पहले मैंने सूटकेस खोलकर अन्नी के लिए पत्नी का दिया गिफ़्ट-पैक निकाला। भागते हुए उसके घर पहुँचा।

अन्नी के घर चुप्पी थी। दरवाज़ा खुला था। बाहरवाले कमरे में बैठा सुनीत पहले मुझे देखकर चौंका। फिर उठकर मेरा स्वागत किया। मेरी आँखें अन्नी को ढूँढ़ रही थीं। 

‘‘ अन्नी कहाँ है ?’’

‘‘कब आए आप ?’’

‘‘अभी। बस पहुँचा ही हूँ। अन्नी कहाँ गई ?’’ मैं उतावला हो रहा था।

वह मुस्कराया, एक फीकी मुस्कान। बोला - ‘‘सोई है।’’

‘‘सोई है ?....अभी ?..... अन्नी और इस वक़्त नींद ?’’ मैं आसमान से गिरा। 

‘‘हाँ, थोड़ी तबीयत ख़राब है। जगाता हूँ।’’

‘‘नहीं। छोड़ दो।....क्या हुआ उसे ?’’ मैं परेशान हो उठा।

‘‘कुछ ख़ास नहीं।....बता रहा हूँ।.....पहले चाय बनाकर ले आऊँ ? चाय पीते हुए बातें करते हैं। मैंने भी चाय नहीं पी है।’’ मेरी स्वीकृति की प्रतीक्षा किए बिना उसने उठते हुए कहा - ‘‘इतने दिनों में तो फिर भाभीजी के हाथ की बनी चाय की लत लग चुकी होगी।’’

कमरे में अजीब कि़स्म की असंगता पसरी हुई थी। कोई बहुत प्रिय चीज़ खो जाने की आकुलता की छाया पूरे घर में डोल रही थी। जी किया कि भीतरवाले कमरे में जाकर सोई हुई अन्नी को एक नज़र देख लूँ या फिर झिंझोड़कर जगा दूँ। पर मैंने अपने को रोका। सुनीत चाय लेकर आया। 

हम दोनों चाय पी रहे थे। सुनीत ने बताना शुरु किया - ‘‘चिंता की कोई बात नहीं।......आप तो जानते हैं कि यह लड़की काफ़ी सेन्सिटिव है। बस, सारा प्रॉब्लम इसी सेन्सिटिवनेस को लेकर है।....पिछले दिनों एबॉर्शन हो गया.....।’’

‘‘कब ?’’

‘‘लगभग पन्द्रह-बीस दिन हुए। दोनों अनुभवहीन।....आप थे नहीं। हालाँकि आप गए उन्हीं दिनों,.....आपके जाने से दो-चार दिनों पहले ही हमलोग कन्फ़र्म हुए थे। सोचा था, आपसे बातें करूँगा। अन्नी तो उसी दिन,....जिस दिन कन्फ़र्म हुआ, आपको बताने चहकती हुई दौड़ी जा रही थी। मैंने डाँटा कि किसी बात को तो गम्भीरता से लिया करो,......पर शायद यहीं चूक हो गई मुझसे।...बहरहाल,......जब प्रॉब्लम शुरु हुआ हमलोग डॉक्टर के यहाँ गए।......वहाँ पता चला कि एबॉर्शन का केस है।.......यहाँ तक तो फिर भी सब कुछ ठीक था। सेंटिमेंटल क्राइसिस था और इससे उबरा जा सकता था, पर कम्प्लीकेशंस बढ़ते गए। अल्ट्रासाउंड करवाया, तो पता चला कि ओवरी से जुड़नेवाली ट्यूब में कोई अननेचुरल ग्रोथ है।.....डॉक्टर ने कहा,.....यह कैंसर भी हो सकता है और नहीं भी हो सकता। बस!.....इसको सिर्फ़ इतना ही मालूम हुआ कि कोई ग्रोथ है और इसके दिमाग़ में घुस गया कि कैंसर ही है। दुनिया भर की फ़ालतू हेल्थ मैग्जिन्स पढ़ती रहती है। कहीं पढ़ लिया होगा कि ग्रोथ का मतलब कैंसर होता है।......कल पापा आ रहे हैं। हमलोग दो-तीन दिनों में लखनऊ चले जाएँगे। यहाँ तो इलाज़ की कोई सुविधा है नहीं। वहीं वायप्सी टेस्ट होगा।......फिर देखा जाएगा,.....जैसी डॉक्टर की राय होगी,....लखनऊ या दिल्ली में ऑपरेशन....। अब आप आ गए हैं, तो थोड़ा इत्मीनान महसूस कर रहा हूँ। कई दिनों से तंग कर रही थी कि आपको ख़बर कर दूँ। मैंने किया नहीं।.......कल से एक नया मरज़ शुरु हो गया है। बार-बार पूछ रही है कि अगर मैं मर जाऊँ तो तुम दूसरी शादी करोगे ?......आज सुबह नींद खुली और फिर वही सवाल। मैंने चिढ़कर कह दिया, हाँ करूँगा,.....फिर तो जान देने पर उतारू हो गई। बहुत समझाया, तब जाकर थोड़ी देर पहले सोई है।’’

अपने चेहरे पर एक फीकी मुस्कान चस्पाँ करते हुए सुनीत ने अपनी बात ख़त्म की। मैं उठा और भीतरवाले कमरे के दरवाज़े के पास आकर खड़ा हो गया। अन्नी सो रही थी। थोड़ी देर तक दरवाज़े के पास से उसे निहारने के बाद मैं कमरे के भीतर गया। मुझे लगा, कमरे की एक-एक चीज़ मुझसे शिकायत कर रही है कि मैं इतनी देर से क्यों लौटा ? मैं उसके सिरहाने बैठा। अन्नी ने आँखें खोलकर मुझे देखा। मैंने उसके सिर पर हाथ फेरा। वह बिसूर-बिसूर कर रोने लगी। मैंने उसका सिर उठाकर अपनी गोद में रख लिया। उसके बालों में अँगुलियाँ फिराता रहा। अन्नी रोए जा रही थी। सुनीत दरवाज़े पर निःशब्द खड़ा देख रहा था। थोड़ी देर रो लेने के बाद अपने-आप उसके आँसू थमे। अन्नी ने अपने को सहेजा और उठकर बैठ गई। बोली - ‘‘आपने तो कहा था कि जल्दी आऊँगा।’’

‘‘ अन्नी! एक ज़रूरी काम से दिल्ली जाना पड़ा।’’ मैंने सफ़ाई दी।

‘‘आपको मालूम है कि मुझे कैंसर हो गया है ?.....अगर इस बीच मैं मर जाती तो ?’’ अपनी बड़ी-बड़ी आँखों से नाराज़गी छलकाती हुई अन्नी ने सवाल किया।

‘‘तुम्हें कैंसर नहीं हुआ है और न हो सकता है। तुम मरोगी भी नहीं।’’ ज्योतिषियों की तरह मैंने दृढ़ स्वर में कहा।

‘‘आप डॉक्टर हैं या भगवान ?’’

‘‘पिछले जन्म में डॉक्टर था और इस जन्म में ईश्वर के रूप में मैंने अवतार लिया है।’’ मेरे इस जुमले पर खिलखिला उठी अन्नी। सुनीत भी हँसा। कई दिनों बाद परिचित खिलखिलाहट की ध्वनि सुनकर इस घर की हवा चौंक उठी।

‘‘भाई साहब, आप मुझे बहला रहे हैं।’’ वह फिर उदास होने लगी। बोली - ‘‘कैंसर से कोई बचता है भला!......इस सुनीत की तो लाटरी ही खुल गई है। आज सुबह इसने मुझे धमकी दी है कि मेरे मर जाने के बाद यह दूसरी शादी कर लेगा।......ठीक है। कर लेगा, तो कर ले......पर आप उस नईवाली अन्नी को प्यार मत कीजिएगा।’’

‘‘पगली हो तुम।’’ मैंने डाँटा। फिर कहा - ‘‘चल उठ,....देख तेरे लिए क्या लाया हूँ।’’

सुनीत बाहरवाले कमरे में रखा गिफ़्ट-पैक उठा लाया। उसे खोलकर देखा। उसमें धानी रंग की साड़ी थी। वह चहकी - ‘‘भाई साहब!......यह मेरा फ़ेवरेट कलर है। मैं इसे आज ही पहनूँगी,.....नहीं तो सुनीत इसे नईवाली को पहना देगा।’’

अन्नी की ज़िद पर मैंने फिर चाय पी। वह मेरी पत्नी और बिट्टु के बारे में पूछती रही। बातें करते हुए अन्नी का जी नहीं भर रहा था। फिर शाम को आने का वायदा करके मैं बाहर निकला। सुनीत मेरे साथ बाहर तक आया। अचानक कुछ याद करते हुए उसने कहा - ‘‘सर! आपको बधाई!’’

‘‘किस बात की ?’’ मैंने पूछा।

‘‘फिर से होम टाउन में तबादले के लिए। आपके तबादले का आर्डर कल आया।’’

‘‘अरे! इतनी जल्दी आ गया ?’’ मैं चकित हुआ।

‘‘आपके आने में देर हो रही थी, तभी मैं समझ गया था कि आप ट्रांसफर मैनेज करने में लगे होंगे। अच्छा हुआ। दो जगह बँटकर रहने के दुःख से मुक्ति मिली।.....ठीक है सर, आप निकलिए।......आपको दफ़्तर भी जाना होगा। मैं तो आज छुट्टी पर हूँ।.....शाम को साथ ही खाना खाएँगे।’’

हमदोनों विदा हुए। मेरे आने से पहले तबादले का आदेश पहुँच गया, यह जानकर मुझे ख़ुश होना चाहिए था, पर मन के भीतर कोई उत्साह नहीं था।



*




अन्नी और सुनीत लखनऊ जा रहे थे। सुनीत के पापा लेने आए थे। हम सब रेलवे प्लेटफ़ार्म पर खड़े उसी ट्रेन की प्रतीक्षा कर रहे थे, जिससे मैं अपने शहर गया था। वही दो मिनट रुकनेवाली ट्रेन। यह मेरे शहर को छूती हुई लखनऊ तक जाती थी।

नवम्बर की हल्की ठंड। झिरझिर बहती हवा और पीली धूपवाली सुबह थी। अन्नी उसी धानी रंगवाली साड़ी में थी, जिसे मैं लाया था। उस साड़ी में अन्नी को देखकर मैं कुछ ज़्यादा ही भावुक हो रहा था। मैंने अपने को भटकाने के लिए सुनीत से पूछा - ‘‘ट्रेन लेट तो नहीं है ?....पता कर लिया है ?’’

‘‘पता कर लिया है। लेट नहीं है।’’ सुनीत बोला। एक-एक निमिष हाथी के पाँव की तरह बोझिल हो रहा था। अपने बोझिल पाँव घसीटते हुए जैसे-तैसे सरक रहा था समय। अन्नी और सुनीत के पापा पत्थर की बेंच पर बैठे थे। वह अख़बार के पन्नो पलट रहे थे और अन्नी रेल की पटरियों के उस पार फैले धान के खेतों को निहार रही थी। धीमे चलते समय की चुप्पी को तोड़ने के लिए मैंने दफ़्तर के फालतू प्रसंगों पर चर्चा शुरु की। 

ट्रेन आने की सूचना सुनते ही अन्नी उठी। मेरे पास आई। मेरी बाहें पकड़कर लगभग खींचती हुई मुझे सुनीत से थोड़ी दूरी पर ले गई। बोली - ‘‘भाई साहब, मैं जानती हूँ,.....यह सुनीत झूठ बोल रहा है। मुझे चिढ़ा रहा है कि दूसरी शादी कर लेगा।.....मुझे कैंसर नहीं है।.....मैं ठीक होकर जल्दी ही वापस आऊँगी.....और तब इस सुनीत को इसकी शैतानियों का मज़ा चखाऊँगी। आप थे नहीं, उस बीच इसने मुझे ख़ूब तंग किया है।......आप बिट्टु और भाभीजी को ले आइए। सब यहीं रहेंगे,....एक साथ। बहुत मज़ा आएगा। मैं, बिट्टु और भाभीजी; तीनों मिल जाएँगे। फिर तो आप दोनों की एक नहीं चलेगी। मेरे लौटने से पहले भाभीजी और बिट्टु को ज़रूर ले आइएगा। मैं ऑफिस में फ़ोन करके अपनी वापसी की तारीख़ आपको बता दूँगी।......आप मुझे रिसीव करने आएँगे न ?’’

‘‘हाँ।’’ बमुश्किल मेरे होठ काँपे। मेरी आँखों की पुतलियों के नीचे छिपा समुद्र उमड़ रहा था। मैंने अपनी हथेलियों में अन्नी का चेहरा भर लिया। अन्नी ने मेरी आँखों में झाँका। बोली - ‘‘भाई साहब! आप बच्चों की तरह रोने लगे।....मुझे कुछ हुआ थोड़े ही है!......देखिए तो कितनी अच्छी लग रही है आपकी दी हुई साड़ी!......यही साड़ी पहन वापस लौटूँगी मैं।......ऐसी ही.....हँसिए....।’’

ट्रेन आ चुकी थी। सुनीत और उसके पापा सामान चढ़ा चुके थे। मैं अन्नी को बाहों में सहेजते हुए ट्रेन तक लेकर गया। मेरे पाँव छूकर वह ट्रेन में चढ़ गई। चढ़ते हुए उसने फिर पूछा - ‘‘मुझे रिसीव करने आएँगे न आप ?’’

‘‘हाँ,.....हाँ मेरी बिट्टु....आऊँगा।’’ मैंने रुँधे हुए कंठ से मुस्कराते हुए कहा। 

ट्रेन खुली। विदा के लिए मेरे हिलते हुए हाथ को प्लेटफ़ार्म पर छोड़ अन्नी को लेकर ट्रेन चली गई। जाती हुई ट्रेन की आवाज़ में गुँथे अन्नी के शब्द.....‘‘यही साड़ी पहनकर लौटूँगी मैं..... मुझे रिसीव करने आएँगे न आप ?....’’ किसी लोकगायक के कंठ से फूटे गीत की आस की तरह गूँजते रहे।

अन्नी और सुनीत चले गए। मेरे तबादले का आदेश दफ़्तर में मेरी प्रतीक्षा कर रहा था और मैं अन्नी की वापसी पर उसे रिसीव करने का वचन साथ लिये लौट रहा था। 
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हृषीकेष सुलभ

गालिब छुटी शराब: एक लेखक का जीवन दर्शन - सीमा शर्मा

रवीन्द्र कालिया जी की कालजयी कृति गालिब छुटी शराब की एक बेहतर समीक्षा करती डॉ० सीमा शर्मा

गालिब छुटी शराब: एक लेखक का जीवन दर्शन

सीमा शर्मा


संस्मरण हिन्दी गद्य साहित्य की आकर्षक सुरूचिकर एवं आधुनिकतम विधा है। जीवन अभिव्यक्ति की यह विधा संस्मरण पर आधारित है या कहा जाए ‘स्व’ की स्मृतियों का शब्दांकन है। ‘‘संस्मरणकार अपनी स्मृति के धरातल पर अपने व्यक्तिगत जीवन में आए लोगों के जीवन के विशिष्ट पहलू कथात्मक शैली में रेखांकित करता है। हर व्यक्ति अपने जीवन में अनेक व्यक्तियों के सम्पर्क में आता है। सामान्य व्यक्ति उन क्षणों को विस्मृत कर देता है, किन्तु संवेदनशील व्यक्ति इन स्मृतियों को अपने मनःपटल पर अंकित कर लेता है। इन क्षणों की स्मृति जब कभी उसे आकुल कर देती है तभी संस्मरण साहित्य की सृष्टि होती है।’’ संस्मरण में स्मृति मूल तत्व है। समय बीत जाने पर सभी छोटी-बड़ी बातें स्मृति का अंग बन जाती हैं। संस्मरणकार अपनी इन्हीं स्मृतियों का शब्दांकन करता है।

डॉ० सीमा शर्मा

संपर्क:
एल-235, शास्त्रीनगर,
मेरठ-250004
मोबाईल: 09457034271
ईमेल: sseema561@gmail.com

‘गालिब छुटी शराब’ रवीन्द्र कालिया जी का आत्मकथात्मक संस्मरण है। इसका प्रकाशन सन् 2000 में हुआ, तब से इस पुस्तक के कई संस्करण आ चुके हैं। यह तथ्य इस पुस्तक की ख्याति को सिद्ध करता है। ‘गालिब छुटी शराब’ में रवीन्द्र कालिया ‘स्व’ के साथ-साथ पूरे साहित्य जगत से पाठक को बड़े सुरूचिपूर्ण ढंग से परिचित कराते हैं। इस पुस्तक में ऐसी सामर्थ्य है कि जितनी बार पढ़ो, उतनी ही नई और रूचिकर लगती है। कोई पृष्ठ खोलो, कोई भी पंक्ति पढ़ो, पाठक को बांधकर रखने की ऐसी सामर्थ्य है इस पुस्तक में, जो बहुत कम देखने को मिलती है।

‘गालिब छुटी शराब’ में लेखक अपने साथ कोई सहानुभूति नहीं दिखाते। उन्होंने ‘स्व’ का चित्रण ऐसी तटस्थता के साथ किया है जैसे किसी और के विषय में लिख रहे हों। वे ‘स्व’ की कमजोरियों पर हँसने का साहस रखते हैं पर कहीं भी महिमामण्डन नहीं करते, किसी के लिए भी कितना मुश्किल है ऐसा करना? पहले ही पेज पर इसका अच्छा उदाहरण देखने को मिल जाता है’ ‘‘अपनी सुविधा के लिए मैंने एक मुहावरा भी गढ़ लिया था- “शराबी दो तरह के होते हैंः एक खाते-पीते और दूसरे पीते-पीते। मैं खाता पीता नहीं पीता-पीता शख्त था।’’ उर्दू कथाकार शमोएल अहमद की कहानी ‘सृंगारदान’ के बहाने खुद की जीवन शैली पर लेखक का तीखा व्यंग्य- ‘‘सिंगारदान की तर्ज पर हवेली का अतीत मेरी जीवन शैली को भी प्रभावित कर रहा था। मैं दिन भर बिना नहाए-धोए किसी-न-किसी काम में मशरूफ रहता और तवायफों की तरह शाम को स्नान करता और सूरज गुरूब होते ही सागरोमीना लेकर बैठ जाता। रानीमंडी में शाम को स्नान करने की ऐसी बेहूदा आदत पड़ी जो आज तक कायम है। सूरज नदी में डूब जाता है और हम गिलास में।’’ (पृ० 163)

‘गालिब छुटी शराब’ में शराब भी एक महत्वपूर्ण पात्र है, और इसके कितने रूप देखने को मिलते हैं। शराब ने लेखक के जीवन में कई तरह की भूमिकाएँ निभाई कभी वह स्फूर्ति प्रदान करने वाली चीज़ थी, कभी खाने से भी ज्यादा जरूरी तो कभी सबसे ज्यादा जरूरी लेखक के शब्दों में- ‘‘कम पीने में यकीन नहीं था। कोशिश यह थी कि भविष्य में और अच्छी ब्रांड नसीब हो। शराब के मामले में कभी मोहताज नहीं रहना चाहता था, न कभी रहा। इसके लिए मैं कितना भी श्रम कर सकता था। भविष्य में रोटी नहीं अच्छी शराब की चिन्ता थी।’’ (पृ० 9) लेकिन यही शराब मौत के दरवाजे तक ले जाती है। अगर जीना है तो आदतें बदलना जरूरी है। डॉक्टर ने साफ शब्दों में आगाह किया- ‘‘जिन्दगी या मौत में से आपको एक का चुनाव करना होगा।’’ निःसन्देह लेखक ने जीवन का चुनाव किया और पूरी ईमानदारी से किया। इस पूरी पुस्तक में अपनी दुर्दशा के लिए किसी और पर दोषारोपण नहीं किया, न ही स्वयं की किसी गलती को सही ठहराने का प्रयास, शराब को भी नहीं- ‘‘शराबी बीमार होता है तो शराब की बहुत फज़ीहत होती है। मैं बीमार पड़ा तो शराब मुफ्त में बदनाम होने लगी। मुझे इस बात की बहुत पीड़ा होती थी, कुछ-कुछ वैसी, जो आपके प्रेम में पड़ने पर आपकी माशूका की होती है, जब लोग उसे आवारा समझने लगते हों। कुछ लोग प्रेम को चरित्र का दोष मान लेते हैं। शराब तो इतनी बदनाम हो चुकी थी कि शराबी को मलेरिया भी हो जाए तो लोग सारा दोष शराब के मत्थे मढ़ देंगे।’’ (पृ० 259)

लेखक ने इस पुस्तक में अपनी सामान्य मानवीय कमजोरियों पर खुलकर लिखा है। दुनिया में शायद ही कोई ऐसा हो जो कमियों से मुक्त हो; पर अपनी सच्चाई को इस साहस के साथ लिख देने का कार्य तो विरले ही कर पाते हैं- ‘‘यह सोचकर आज भी ग्लानि से आकण्ठ डूब जाता हूँ, माँ अपनी दवा के लिए पैसे देतीं तो मैं निस्संकोच ले लेता। वक्त जरूरत उनके हिसाब में गड़बड़ी भी कर लेता। कहना गलत न होगा, बड़ी तेजी से मेरा नैतिक पतन हो रहा था।’’ (पृ० 20) एक अन्य उदाहरण ‘‘मेरी माँ की चिता धू-धूकर जल रही थी, तो मेरी प्रबल इच्छा हुई कि मैं जेब से सिगरेट का नया पैकेट जलाकर राख कर दूँ, जो मैंने शमशाम घाट जाने से जरा पहले मंगवाया था। सिगरेट मंगवाते समय भी मुझे बहुत ग्लानि और अपराधबोध हुआ था। अवसाद के उन मर्मान्तक क्षणों में भी मैं अपनी क्षुद्रताओं और लालसाओं से ऊपर नहीं उठ पाया था।’’ (पृ० 280) ‘‘शमशाम से दो ही रास्ते फूटते हैं, एक अध्यात्म की ओर हरिद्वार जाता है और दूसरा मयखाने की तरफ। मैं दूसरे रास्ते का पथिक रहा हूँ।’’ (पृ० 290) ऐसी महत्वपूर्ण व साहसी स्वीकारोक्तियों से भरी पड़ी है यह पुस्तक।

अपना पूरा जीवन साहित्य को समर्पित करने वाले रवीन्द्र कालिया जी ने कितने साहित्यिक आन्दोलन देखे, कई पीढ़ियों के लेखकों और उनकी रचनाओं को बहुत करीब से देखा। साहित्यिक परिदृश्य व साहित्यकारों में व्याप्त अन्तर्विरोधों और दोगलेपन को देखा। बहुत बड़े-बड़े सात्यिकार कैसे गुटबाजी में शामिल रहते हैं, दूसरे लेखक को नीचा दिखाने में कोई कसर नहीं छोड़ते। अग्रज कथाकार अपने अनुजों से कितनी ईर्ष्या रखते हैं। सामान्य पाठक के लिए तो यह कौतूहल का विषय है। सामान्य जन के लिए तो साहित्यकार बड़े सम्माननीय और अनुकरणीय होते हैं। जब उसे अपने अनुकरणीयों के इस व्यवहार का पता चलता है तो वह खिन्न तो होता है पर कम से कम सच्चाई जान तो पाता है। ‘गालिब छुटी शराब’ एक ऐसी पुस्तक है, जिस पर अधिकतर प्रतिष्ठित साहित्यकारों ने अपनी टिप्पणी की है। ज्ञानरंजन जी ने ‘गालिब छुटी शराब’ पर बड़ी सटीक टिप्पणी की है- ‘‘हिन्दी में इस तरह से लिखा नहीं गया। हिन्दी में लेखक आमतौर पर नैतिक भयों और प्रतिष्ठापन के आग्रहों से भरा है। हिन्दी में बड़े और दमदार लेखक भी यह नहीं कर सके। तुम बहादुर और हमारी पीढ़ी के सर्वाधिक चमकदार लेखक हो। इस किताब ने तुम्हें हम सब से ऊपर कर दिया है। हिन्दी में यह अप्रतिम उदाहरण है। ’’दिस बुक इज ग्रेट सक्सेस’’ यहां पर कमलेश्वर जी द्वारा की गई अभिव्यक्ति भी दर्शनीय है- ‘‘एक ऐसे समय में, जो आदमी के विरूद्ध जा रहा है, जब आदर्शवाद, राजनेताओं, मसीहाओं पर से विश्वास उठना शुरू हो जाए, जब चीजें बेहूदी दिखाई पड़ने लगे जब संवाद का शालीन सिरा ही न मिले- ऐसे समय में लेखकों ने खुद का उधेड़ना शुरू किया। पहले अपने को तो पहचान लो। देखो तुम भी वैसे तो नहीं हो। रवीन्द्र कालिया की ‘गालिब की छुटी शराब’ कितनी मूल्यवान पुस्तक है।’’

इस पुस्तक पर बड़े-बड़े साहित्यकारों ने अपने-अपने ढंग से प्रतिक्रियाएँ दी हैं, साथ इस पुस्तक में भी लगभग सभी प्रतिष्ठित लेखकों ने स्थान पाया है और पूरा का पूरा साहित्यिक परिदृश्य पूर्ण जीवन्तता के साथ देखने को मिलता है। अमरकान्त जी की जीवनशैली को उकेरती ये पंक्तियाँ- ‘‘उन दिनों अमरकान्त और शेखर जोशी भी करोलबाग कॉलोनी में रहते थे। सुबह चाय पिलाने दूधनाथ सिंह हम लोगों को अमरकान्त जी के यहाँ ले गये। अमरकान्त जी बाबा आदम के जमाने की कुर्सी पर बैठे थे। वह अत्यन्त आत्मीयता से मिले। उनके यहाँ चाय बनने में बहुत देर लगी हम लोगों ने उनके यहाँ काफी समय बिताया। दीन-दुनिया से दूर छल-कपट रहित एक निहायत निश्छल और सरल व्यक्तित्व था अमरकान्त का। हिन्दी कहानी में जितना बड़ा उनका योगदान था, उसके प्रति वह एकदम निरपेक्ष थे, जैसे उन्हें मालूम ही न हो कि वह हिन्दी के एक दिग्गज रचनाकार हैं। हाड़माँस का ऐसा निरभिमानी कथाकार फिर दुबारा कोई नहीं मिला।’’ (पृ० 96) अमरकान्त जी से भिन्न व्यक्तित्व अश्क जी का चित्रण- ‘‘अमरकान्त जी के घर के ठीक विपरीत अश्क जी के यहाँ का माहौल था। गर्मागर्म पकौड़े और उससे भी गर्म-गर्म बहस। कहानी को लेकर ऐसी उत्तेजना, जैसे जीवन-मरण का सवाल हो। उनके घर पर उत्सव का माहौल था, जैसे अभी-अभी हिन्दी कहानी की बारात उठने वाली हो। नये कथाकार अग्रज पीढ़ी को धकेलकर आगे आ गए थे, उससे अश्क जी आहत थे, आहत ही नहीं ईर्ष्यालु भी थे। राकेश-कमलेश्वर से उनकी नौक-झौंक चलती रही। एक तरफ वह परिमल के कथाविरोधी रवैये के खिलाफ थे, दूसरी ओर नयी कहानी या नयापन उनके गले से नीचे नहीं उतर रहा था। उनकी नजर में उनकी अपनी कहानियाँ ही नहीं  यशपाल, जैनेन्द्र और अज्ञेय की कहानियाँ भी नयी कहानी की संवेदना से कहीं आगे की कहानियाँ हैं। हम लोगों यानि विमल, परेश और मेरे साथ अश्क जी की अकहानी को लेकर लम्बी बहस हुई। यह भी लग रहा था कि वह नए कथाकारों को चुनौती देने के लिए हमारी पीढ़ी को अपने सीमा सुरक्षा बल की तरह पेश करना चाहते थे। हम लोग नए बटुकों की तरह पूरा परिदृश्य समझने की कोशिश कर रहे थे।’’ (पृ० 97)

कालिया जी स्वयं को एक कथाकार मानते हैं और ‘कथा’ को अपने जीवन का अभिन्न अंग मानते हैं- ‘‘मैंने जीवन में जो कुछ भी पाया कथा लेखन के कारण। जितना भी भारत देखा, कहानी ने दिखा दिया। जिन्दगी में शादी से लेकर नौकरियाँ, छोकरियाँ तक, गर्ज़ यह कि जो कुछ भी मिला, कहानी के माध्यम से ही। कहानी ओढ़ना-बिछौना होती गई। कहानी ने नौकरियाँ दिलवाई तो छुड़वाई भी। कहानी ने ही प्रेस के कारोबार में झोंक दिया। कहानी के कारण घाट-घाट का पानी पीने का ही नहीं घाट-घाट का दारू पीने का भी अवसर मिला।’’ (पृ० 98) क्योंकि कालिया जी का कहानी से अधिक लगाव रहा है इसलिए कहानी से जुड़े विभिन्न आन्दोलन और बहसों पर भी इस पुस्तक में विस्तार से प्रकाश डाला गया है। यथा- ‘‘कहानी के केन्द्रीय विधा के रूप में स्थापित हो जाने से ‘परिमल’ के खेमें में बहुत खलबली थी। कहानी समय के मुहावरे, वास्तविकता के प्रामाणिक अंकन तथा सामाजिक परिवर्तन के संक्रमण की अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम बन गई थी। ‘परिमल’ काव्य की ऐंद्रजालिक और व्यक्तिवादी रोमानी बौद्धिकता को कहानी पर आरोपित करके कुछ कवि कहानीकारों- कुंवरनारायण, रघुवीर सहाय, सर्वेश्वर तथा कुछ कहानीकार कवियों- निर्मल वर्मा आदि को नए कहानीकार के रूप में प्रतिष्ठित कराने के प्रयत्न में था। आज मुझे लगता है कि यह अकारण नहीं कि ‘परिमल’ एक भी सफल कथाकार उत्पन्न नहीं कर पाया। श्रीलाल शुक्ल अपवाद हैं जबकि वे अपने आप को परिमिलयन नहीं मानते। ‘परिमल’ की पूरी मानसिकता व्यक्तिवादी थी, जो कहानी को समाजोन्मुख धारा में एक नगण्य सा रूप बनकर रह गई थी।’’ (पृ० 95) नई कहानी आन्दोलन के सम्बन्ध में कालिया की यह टिप्पणी भी दर्शनीय है- ‘‘राकेश, कमलेश्वर और यादव नई कहानी के राजकुमार थे, जिन्होंने कहानी के शहंशाहों को धूल चटाकर सिंहासन पर कब्जा कर लिया। लग रहा था कि वे किसी बिजनेस इंस्टीट्यूट से मार्केटिंग का डिप्लोमा लेकर कथाक्षेत्र में उतरे हैं।’’ (पृ० 104)

साहित्यजगत में कितनी ईर्ष्या भावना, दोगलापन, स्वार्थ-लोलुपता, अहम् की भावना और स्वयं को श्रेष्ठ और दूसरे को नीचा दिखाने की कोशिश होती है। वार और पलटवार दोनों ही देखने को मिलते हैं। तब ऐसा लगता है कि व्यवसाय कोई भी हो, इन्सान की अपनी दुर्बलताएँ रहती ही हैं- ‘‘भैरव जी ने साठोत्तरी पीढ़ी के कथाकारों को हरामियों की पीढ़ी कह दिया था और वह (दूधनाथ सिंह) इस बात से उत्तेजित था। वह गुस्से में पत्ते की तरह काँप रहा था। उसने बताया कि अभी अमरकान्त, शेखर जोशी और मार्कण्येय के साथ टहलते हुए भैरव प्रसाद गुप्त ने यह घोषणा की है।’’ (पृ० 219) इसका बदला भी लिया गया- ‘‘कहानी के स्तालिन को जगाओ। कुछ हरामी उनसे मिलने आए हैं’’ इस तरह अपना विरोध जताकर भैरव गुप्त ने भी अपने अपमान को कभी नहीं भुलाया ये बात अलग थी कि शुरूआत उन्होंने ही की थी। बदले की भावना में कहे गये शब्द- ‘‘देखो जी यह है रवीन्द्र कालिया। मैं जब तक सम्पादक रहा, इनकी एक कहानी न छपने दी। (पृ० 221) इतने बड़े लेखकों और सम्पादकों के बीच चलने वाली साहित्यिक बहसें आश्चर्यजनक तो लगती हैं आहत भी करती हैं पर यह सच है।
‘गालिब छुटी शराब’ में रवीन्द्र कालिया जी द्वारा लिया गया नरेश मेहता का साक्षात्कार और अनिता गोपेश द्वारा लिखा गया संस्मरण भी बहुत महत्वपूर्ण है। अमरकान्त जी ने रवीन्द्र कालिया जी पर जो संस्मरण लिखा ‘रवीन्द्रः हँसना ही जीवन है’ में ‘गालिब छुटी शराब’ पर बहुत महत्वपूर्ण विचार व्यक्त किए हैं- ‘गालिब छुटी शराब’ करीब उपायहीन आत्मविनाश के कगार पर खड़े एक ऐसे प्रतिभाशाली व्यक्ति की कहानी है, जो अद्भुत जिजीविषा एवं रचनात्मक इच्छाशक्ति से कर्म और उम्मीद की दुनिया में वापस आता है। आप सचमुच नहीं जानते कि यह चमत्कार कैसे हो जाता है। दूसरी खूबी इस रचना की यह है कि आज के समाज (सिर्फ लेखक ही नहीं) के अनगिनत लोगों की कथा है। तीसरी बात कि यह त्रासद विनाशकारी ज्वार में बुरी तरह फंसे ऐसे व्यक्ति के उबरने की ऐसी कथा है यह जो दार्शनिक हास्य व्यंग्य की शैली में कही गई है।’’ (लमही जुलाई-सितम्बर, 2009, पृ० 20)

इस पुस्तक में कालिया जी कहीं भी स्वयं को विशिष्ट या महान साबित करने की कोशिश नहीं करते वरन् सामान्य से भी सामान्य व्यक्ति के रूप में अपना चित्रण करते हैं, जबकि उनके व्यक्तित्व से कौन परिचित नहीं है, साहित्यकार के रूप में या सम्पादक के रूप में और सबसे बढ़कर एक अच्छे इंसान के रूप में। कालिया जी के शब्दों में ‘‘अपने बारे में भी मेरी राय कभी उतनी अच्छी न रही थी। जिन्दगी में इतनी बार शिकस्त का सामना हुआ था कि कभी अपने को मुकद्दर का सिकन्दर नहीं समझ पाया, हमेशा अपने आपको मुकद्दर का पोरस ही पाया। मुझे हर दूसरा शख्स सिकन्दर नजर आता था।’’

इस कृति को साहित्य से जुड़े लोगों ने जितना सराहा है उतना ही सामान्य पाठक ने भी परन्तु जब एक सामान्य पाठक किसी साहित्यिक कृति को पढ़ता है तो वह, उस कृति के साहित्यिक महत्व को नहीं समझता वह तो उसे व्यवहारिक दृष्टि से पड़ता है, उसे अपने जीवन से जोड़कर देखता है। इसके प्रमाण के रूप में ‘प्रमोद उपाध्याय’ के पत्र को देखा जा सकता है- ‘‘पहले ही पत्र ने मुझे चौंका दिया। वह पत्र एल०आई०जी० 20, मुखर्जी नगर, देवास-455001 से प्रमोद उपाध्याय का था। उन्होंने लिखा- आपका संस्करण ‘गालिब छुटी शराब’ जो पढ़ा तो हतप्रभ रह गया और उसी दिन से तय कर लिया कि अब शराब नहीं पीऊंगा। आज भी नहीं पी। बाकायदा खाना खा रहा हूँ। बचपन में हाईस्कूल कक्षा में पढ़ा था साहित्य समाज का दर्पण होता है या स$हित की भावना। इतना सब कुछ और बहुत कुछ पढ़ने के बाद वह निबन्ध आज ताज़ा और हकीकत की शक्ल लेकर खड़ा है। यदि संस्मरण नहीं पढ़ता तो प्रेरित नहीं होता। जबकि दुनिया भर (मेरी अपनी) के सभी साथियों, रिश्तेदारों, कुटुम्बियों ने सबकुछ समझाने की कुचेष्टाएँ तीस सालों से की असफल। बहरहाल आपका यह संस्करण कब तक उपयोगी रहता है, हम दोनों (मैं और मेरी पत्नी) देखते हैं। कोशिश तो रहेगी ही। आज परीक्षा का आठवां दिन है- प्रमोद। पत्र पढ़कर मैं चमत्कृत हुआ।’’ (लमही, पृ० 17, जुलाई-सितम्बर 2009)। यह तो केवल एक उदाहरण है। ऐसे कितने पाठक होंगे जिन्हें साहित्य प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से प्रभावित करता है। साहित्य का उद्देश्य केवल मनोरंजन नहीं हो सकता, वह तो मनोरंजन के साथ ही कई अन्य उद्देश्य छुपाए रहता है। ‘गालिब छुटी शराब’ भी एक ऐसी कृति है, जिसे पढ़ते हुए हर वर्ग के पाठक को अलग-अलग अनुभूति होती है।

‘संस्मरण लिखते समय एक खतरा हमेशा बना रहता है कि किसी मित्र पर लिखते समय आप अपने आप पर ज्यादा लिख जाते हैं, मित्र पर कम।’ (पृ० 277) पर इस कृति में हर जगह एक सन्तुलन है, कहीं भी कम न ज्यादा। इस कृति में ऐसी सामर्थ्य है कि इसका साहित्यिक महत्व हमेशा बना रहेगा। ‘गालिब छुटी शराब’ हिन्दी साहित्य की एक महत्वपूर्ण पुस्तक है। इसकी भाषा भी इस कृति की विशेषता है- सजीव एवं चित्रात्मक। बात कितनी भी पुरानी हो परन्तु पूरी जीवन्तता के साथ पाठक के सामने आती है। भाषा सहज और हर वर्ग के पाठक के लिए ग्राह्य है, यही कारण है कि पाठक पूर्ण रूप से लेखक की भावनाओं के साथ जुड़ता चला जाता है। ‘गालिब छुटी शराब’ अपनी विशेषताओं के कारण एक ऐसी पुस्तक बन गई है, जिसका साहित्यिक महत्व कभी समाप्त नहीं हो सकता।
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वर्तमान साहित्य फरवरी, 2015 - आवरण व अनुक्रमणिका


वर्तमान साहित्य

साहित्य, कला और सोच की पत्रिका

वर्ष 32 अंक 2  फरवरी, 2015
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संपादक:
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संपादकीय: कबिरा हम सबकी कहैं / विभूति नारायण राय

चर्चित कहानी बनाम प्रिय कहानी:

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मीडिया:
कैसे बदलाव हो रहे हैं मीडिया में/ प्रांजल धर

स्तंभ:
तेरी मेरी सबकी बात/ नमिता सिंह

रायपुर प्रसंग:
खरे और खोटे क्रांतिकारी/ श्यामसुंदर शर्मा

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कहानी: डायरी, आकाश और चिड़ियां - गीताश्री

गीताश्री की कहानी 'डायरी, आकाश और चिड़िया'... विस्मयकारी ढंग से पाठक को बाँधती, सस्पेंस में रखती, स्त्री-विमर्श को बारीक-नई गुर्दबीन से देखती कहानी है। 
कल रात पढ़ी और 'रोली' और उसकी 'वीडा' की पीड़ा अबतक साथ हैं , समझ नहीं आ रहा दोषी कौन है, कहीं हम ही तो ....

भरत तिवारी 
८/२/२०१५, नई दिल्ली


hindi-writer-kahani-गीताश्री-की-कहानियां-shabdankan-कहानी: डायरी, आकाश और चिड़ियां - गीताश्री

कहानी

डायरी, आकाश और चिड़ियां

गीताश्री


“ओ डायरी...  ओ माई फ्रेंड...  आई लव यू... ”

देखो... मेरे चारो तरफ रौशनी की तितलियां उड़ रही हैं। मेरे कंधे पर कौन बैठा है आकर। वह तब भी नहीं उड़ती जब मैं हाई हील पहन कर खटर पटर करती घूमती हूं घर भर में। तुम तो जानती हो, मुझे कितना लगाव है इन सबसे। मुझे अंधेरे में सोना बिल्कुल अच्छा नहीं लगता। अंधेरे में तुमसे बात नहीं कर पाती ना... । जानती हो, ब्लैक वाली ड्रेस मुझे हर हाल में चाहिए। प्लीज प्लीज... मम्मा को मनाओ ना... उसे पहन कर मैं औसम लगूंगी न। डिस्को भी जाऊंगी उसे पहन कर... पिक्स एफबी पर अपलोड करूंगी। 

अरे हां... एफबी से याद आया... आज कल मम्मा ने सख्ती कर दी है। रोज एक घंटे के लिए मैं उस पर बैठ सकती हूं। 

ओह... कितना धुप्प अंधेरा है यहां... कुछ सूझता नहीं. जिंदगी इतनी अंधेरों से क्यों घिर गई है, बताओ. क्या वजह है। जो चाहती हूं, मिलता नहीं, जो सोचती हूं, ठीक उसके उल्टा हो रहा है इन दिनों. मेरे दिन कब आएंगे... कुछ बता पाओगी... मैं चाहती हूं, तुम मुझे किसी ऐसी घाटी का पता दो, जहां मेरा अगला कदम वहां ही पड़े। फूल हो, झरने हो, तितलियां हो... बादलों के टुकड़े हों, नदी हो... मैं फूलो का बिस्तर बना कर सो जाना चाहती हूं... सूकून की नींद, कोई चीख, कोई गाली, कोई गूंज सुनाई न दे...  

वीडा... सुनो, इंटरेस्टिंग बात... 

“आज मैं मैनहट्टन घूमी, टाइम स्क्वायर देखा। ओलेक्जेंडर मेरा अच्छा जीवन साथी हो सकता है। वह इंडियन्स की तरह नहीं है। मेरा कितना ध्यान रखा उसने। उसने खूब पैम्पर किया मुझे। हैंडसम है ना. मुझे मैनहट्टन में उसके साथ रिक्शे की सवारी बहुत अच्छी लगी। देखो, इंडिया की तरह वहां भी फुटपाथ पर छोटी दुकानें हैं। आईसक्रीम खाते हुए अपना वैशाली मार्केट बहुत याद आया। छोड़ो, कल हम नासा की ओर निकल जाएंगे। मुझे डिज्नीलैंड भी जाना है। अब अमेरिका आई हूं तो सारा घूम लूं। यही तो यादें रह जाएंगी। मुझे हडसन नदी में क्रूज पर चढना है। हां, शायद कल मैं स्टैचू आफ लिबर्टी देखने जाऊं... तो क्रूज में ही जाना होगा ना। नदीं के बीचो बीच जो है। मुझे अमेरिका की हवा अच्छी लगती है। खास कर इसका मैसी स्टोर। सब कहते हैं, महंगा स्टोर है, यहां से मत खरीदो। पर मुझे यहां की ड्रेसेज बहुत पसंद है। मैं पहन कर बहुत क्यूट और सेक्सी लगती हूं ना। तुमने मुझे देखा है ना... मैंने अपने हेयर रिबांडिंग भी करा लिया है... खुले बाल हवा में लहराते हुए... ”

अच्छा, ये बताओ, मेरी फेस पेंटिंग कैसी लग रही है। मैंने डिज्नीलैंड में बनवाया। आह... क्या जगह है। सभी बच्चों को एक बार यहां जरुर जाना चाहिए। अलग ही दुनिया है। कल्पनालोक की तरह। सपनों की परियों को मैंने वहां घूमते देखा। कितनी सुंदर ड्रेस, हेयर स्टाइल। अरे पता है, कार्टून के सारे कैरेक्टर वहां शाम को फेरी लगाते हैं, मैंने हाथ मिलाया। और हां... यू कांट इमेजिन... मैंने वहां देखे, तरह तरह के भिखारी, कैसी वेश बनाए. अपने इंडिया के भिखारी कितने घटिया तरीके से रहते हैं। यहां के भिखारी भी गाते बजाते रहते हैं या अजीब अजीब सा वेश धरे... मैंने तो खूब फोटो खिचवाई... ”

ओह... पढते पढते रागिनी रुक गई। हथेलियों के बीच मरियल सी डायरी कमसमा रही थी। उसकी धड़कन रागिनी की नसों में महसूस हुई। कोई सांस जैसे तड़क कर टूट जाना चाहती हो। रागिनी ने अपना हाथ अपने सीने पर रखा। धड़कनो के कोरस में एक जिंदगी अपने पन्ने खोल रही थी। 

रागिनी को डायरी पढते हुए यकीन नहीं आ रहा था कि कोई 14 साल की लड़की, इस हद तक सोच सकती है। वो तो कल तक बच्ची थी सबकी नजर में। मां , मौसी और मामा सबकी नजर में। दबी-चुप चुप सी रहने वाली रोली, किसी ने घर में उसकी तेज आवाज नहीं सुनी होगी। लिखना पढना और टीवी देखना जैसे उसकी दुनिया थी। वैसे किसे फुरसत भी थी कि बड़ी होती रोली की हथेलियों को अपने हाथ मे लेकर पूछता कि तू इतनी शांत क्यों है रोली। आज चंद पन्ने पढने के बाद रागिनी का मन हो रहा है, रोली से पूछे... कई सवाल, जो आंधी की शक्ल में उठे हुए हैं।  

रोली तो कभी अमेरिका गई नहीं ? ओलेक्जेंडर से मिली नहीं? डिज्नीलैंड कभी गई नहीं। फेस पेंटिग कभी कराया नहीं। ऐसा कुछ नहीं किया जैसा उसने साफ साफ डायरी में दर्ज किया है। 

ओलेक्जेंडर तो बुआ की लड़की सोनाली का मंगेतर है। मंगनी के लिए सोनाली हाल ही में अमेरिका से होकर आई है। रागिनी अपने परिवार समेत उसकी मंगनी में गई थी। रागिनी की बड़ी बहन हिमानी नहीं जा पाई थी। अमेरिका की यात्रा कोई आसान भी तो नहीं। फिर क्या हुआ इसे। सारे विवरण ऐसे लिख रही है जैसे खुद वहां हो। सारी सटीक और सही। बिना वहां गए, कहां से आया ये अनुभव... सब सुनी सुनाई बातें, इतने विश्वसनीय ढंग से लिखा है। 

रागिनी ने दूसरा पन्ना पलटा। 

“माई वीडा... 

“शीला की जवानी” पर मैंने कल डांस किया... सबको बहुत पसंद आया। मौसी भी कितनी खुश थी। मैं डांसर भी बन सकती हूं... तुम क्या कहती हो। चलो, कोई बात नहीं... मैं अच्छी इंगलिश बोलती हूं... सब बहुत तारीफ करते हैं। पूछते हैं, कहां से आया अमेरिकन एक्सेंट... अरे भाई... मैं हूं ही अमेरिकन... इंडिया तो बस कुछ दिनों के लिए आई हूं। मुझे फिर वहां वापस चला जाना है ना... ”

आधा पन्ना पढते पढते रागिनी के हाथ कांप गए। ये लड़की किसकी बातें लिख रही हैं? 

“आज फेसबुक पर मुझे दोस्त मिला है। मेरी ही उम्र का है। वो सबसे अलग है। वो मेरा साथ देगा। उसने कहा है कि बस तुम घर से निकल जाओ। हमारे पैरेंटस अभी तक अपने सपने देखने और पूरा करने में लगे हैं। उन्हें हमारी क्या परवाह। चलो आओ... मैं तुम्हें दुनिया दिखाता हूं। मैं जाऊं उसके साथ ? तुम क्या कहती है... हमेशा की तरह मुझे सही जवाब देना... वीडा... ”


 पंकज सुबीर और गीताश्री की 'डायरी, आकाश और चिड़ियां'


पंकज सुबीर और गीताश्री की कहानी डायरी, आकाश और चिड़ियां
गीताश्री उन कहानीकारों में से हैं जिन्होंने कहानी के लिए एक नई भाषा गढ़ी है। हालाँकि इसका श्रेय कुछ दूसरे कहानीकारों तथा गीताश्री की ही समकालीन कुछ महिला कथाकारों को दिया जाता है लेकिन, सच यही है कि उस नई भाषा को गढ़ने में गीताश्री की भूमिका बहुत महत्त्वपूर्ण है। एक सच और ये भी है कि गीताश्री को उनकी समकालीन महिला कथाकारों की तुलना में कभी उतना महत्त्व नहीं दिया गया जितना दिया जाना चाहिए था और दूसरी तरफ कुछ स्वप्रचारित नाम खूब चर्चाओं में बने रहे। गीताश्री की कहानियों ने पहले पहल उस प्रकार के चरित्रों की बात की जिन पर बाद में कई कहानीकारों ने काम किया। गीताश्री की कहानियों के उद्दंड और बिगड़ैल पात्र अपने रचाव और बनाव के कारण पाठकों ने खूब पसंद किए। गीताश्री की कहानियाँ एक अलग प्रकार की चमक लिए होती हैं। उनकी कहानियों में कुछ अजनबी सा माहौल और वातावरण होने के बाद भी ये कहानियाँ पठनीयता की दृष्टि से बहुत समृद्ध होती हैं। गीताश्री की कहानियों को मैं समय से कुछ आगे की कहानियाँ कहता हूँ। समय से आगे की कहानियाँ इसलिए कि ये कुछ पहले लिख दी गईं हैं। अभी इनके पाठक तैयार नहीं हुए हैं। इन कहानियों के पात्र समय से पूर्व गढ़ दिए गए हैं। लेकिन इसमें लेखक का कोई दोष नहीं होता। वो तो आने वाले समय की आहटों को वर्तमान में सुनता है, गुनता है और उससे अपनी कल्पना का भविष्य गढ़ देता है। कि.... लो ऐसा होगा तुम्हारा आने वाला समय। हम उसको नकारते हैं, उस पर हँसते हैं, और पूछते हैं कि ये कौन सी दुनिया है ? ये किस ग्रह से आए हुए पात्र हैं ? क्या मंगल ग्रह से उतारे गए हैं ? और फिर हम देखते हैं एक दिन कि वैसा हो गया है, वैसा हो रहा है। अपने ही जीवन में हम उस समय के भी साक्षी बनते हैं जिसको हम काल्पनिक समय कह रहे थे। गीताश्री की कहानियाँ समय से आगे जाकर पात्रों का चयन करती हैं। लेखक को यही तो करना चाहिए, समय से आगे और समय के पीछे जाए और वर्तमान में खड़ा रहे। उसे तीनों कालों को साधना होता है।   

कहानी को लेकर कहा जाता है कि कहानी तो सुनने की विधा है। कोई कहानी सुनाए और आप सुनें। कहानी का जा रस है जो उसका प्रवाह है वो उसी उत्सुकता में भी होता है कि आगे क्या हुआ? लेकिन यदि कहानी को पढ़ना हो तो बहुत ज़ाहिर सी बात है कि उस कहानी में फिर रस और प्रवाह दोनो हो और साथ में उत्सुकता भी हो कि अब आगे क्या होगा। गीताश्री की कहानियों में ये सब तत्त्व खूब होते हैं। अब जैसे इसी कहानी की बात की जाए ‘डायरी आकाश और चिड़ियाँ’। इस कहानी में गीताश्री ने डायरी के माध्यम से एक अलग ही संसार रचा है। हम सब के अंदर एक ‘एलिस’ होती है, जिसका अपना एक ‘वंडरलैंड’ होता है। और ये ‘एलिस’ हमेशा ही अपने ‘वंडरलैंड’ के बारे में और अधिक, और अधिक जानने को बेताब रहती है। हम सबके सपनों में कुछ सुनहरी तितलियाँ होती हैं जो अपने पँखों का तिलस्मी जादू जगा जगाकर हमें एक रहस्य लोक में बुलाती हैं। बचपन हमेशा हमारे अंदर होता है। हमेशा। एक ओर जहाँ बचपन की अपनी फंतासियाँ होती हैं तो दूसरी ओर अपनी पीड़ाएँ भी होती हैं। बचपन अक्सर पीड़ाओं से घबराकर फंतासियों की ओर भागना चाहता है। या मैं अपने वाक्य को ठीक करूँ  तो यूँ कहा जाए कि हम सब अपनी पीड़ाओं से घबराकर अपनी फंतासियों की ओर भागना चाहते हैं, भागते हैं । हम सब अपने अपने ‘रौरव’ से ‘वंडरलैंड’ की ओर भाग जाना चाहते हैं। हम भाग नहीं पाते लेकिन, बचपन भाग जाता है। क्योंकि बचपन के पास गुणा भाग अधिक नहीं होता है। बचपन सपनों को लेकर केलकुलेशन नहीं करता। बचपन और हममे फर्क बस यही होता है कि हम शतरंज की तरह जीवन जीते हैं। शतरंज की तरह मतलब ये कि इस चाल का अगली दस पन्द्रह चालों पर क्या प्रभाव पड़ेगा उसका गुणा भाग करने के बाद ही अपनी वर्तमान चाल चलते हैं। जबकि बचपन जिस चाल को चल रहा है केवल उसी पर केन्द्रित होता है। यहाँ मैं बार बार बचपन शब्द का उपयोग कर रहा हूँ, जबकि गीताश्री की कहानी की पात्र चौदह साल की है। चौदह साल को किशोर उम्र कहा जाएगा, बचपन नहीं । और कम से कम आज के समय में तो बिल्कुल ही नहीं। लेकिन, कभी कभी ऐसा नहीं होता है। कभी कभी ये किशोर अवस्था आती ही नहीं है। या तो बचपन के बाद एकदम युवावस्था आ जाती है, जब जीवन की कठिन परिस्थितियाँ ऐसा कर देती हैं। या कभी ऐसा भी होता है कि जीवन बचपन में ही देर तक स्थगित सा खड़ा रह जाता है। आगे ही नहीं बढ़ता। क्योंकि आगे बढ़ने के लिए आवश्यक खाद पानी नहीं मिल पाता है। गीताश्री की इस कहानी की नायिका भी ऐसी है। बचपन में ही स्तब्ध और स्थगित सी।

‘आपका बंटी’ फिर-फिर कहानियों में लौटता है। उसे लौटना ही है। काया बदल कर, रूप बदल कर। कुछ पात्र देशकाल की सीमाओं का अतिक्रमण करने के लिए ही पैदा होते हैं। बंटी, यहाँ रोली की देह में कायांतरण करके लौटा है। वह सुधा ओम ढींगरा की एक कहानी जो पूरी तरह से अमेरिकी जीवन शैली पर आधारित कहानी थी ‘टारनेडो’, उसमें भी लौटा था, क्रिस्टी के रूप में। क्रिस्टी और रोली दरअसल बंटी का ही एक्स्टेंशन हैं। बंटी असल में कोई पात्र नहीं है। वह एक समस्या है, और जब तक समस्या रहेगी तब तक पात्र भी रहेगा। इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि उसका नाम क्या है। वो कहाँ है ? भारत में या अमेरिका में? उसका होना ही महत्त्वपूर्ण है। रोली की पीड़ा को गीताश्री ने डायरी के माध्यम से उजागर किया है। फंतासी से भरी हुई डायरी। सपनों से भरी हुई डायरी। घाटी, नदी, फूल, झरने, तितलियाँ और बादल, ये केवल रोली की डायरी नहीं है, ये हम सबकी डायरी है। हमारे सपनों में ये सब आना चाहते हैं, लेकिन इनके लिए अब हमारे सपनों में भी स्पेस नहीं है। हमारे सपने भी गणितीय समीकरणों से भरे हुए हैं। जहाँ गणित होता है वहाँ  घाटी, नदी, फूल, झरने, तितलियाँ और बादल, नहीं हो सकते बल्कि, वहाँ तो सपने भी नहीं हो सकते। गणित सबको पी जाता है। सारे रस को। जीवन में रस की हर अंतिम बूँद को गणित पी जाता है, और जीवन को नीरस कर देता है। गणित को रस पसंद नहीं, उसे खुश्की पसंद है, सूखापन पसंद है। रोली के जीवन के सारे रस को ये गणित धीरे धीरे चूस रहा है। रोली उसे देख रही है लेकिन कुछ कर नहीं पा रही।

रोली अपने सपनों में अपनी बुआ की लड़की के सपनों के बीज बो देती है। वो कायांतरण कर जाती है अपनी बुआ की लड़की सोनाली में। क्योंकि, सोनाली के जीवन में वह सब कुछ है जो रोली के सपनों में है। इसीलिए वह सोनाली बन कर डायरी लिखती है। बच्चों की दुनिया में कुछ भी जड़ नहीं होता। यही उस दुनिया की विशेषता होती है कि उस दुनिया में सब कुछ चेतन होता है। वहाँ डायरी भी जड़ वस्तु नहीं है। डायरी तो वैसे भी जड़ नहीं होती। मगर यहाँ तो उसका भी एक नाम है -‘वीडा’। बच्चे अपनी दुनिया में हर किसी को नाम से बुलाना चाहते हैं। नाम से पुकारना प्रतीक होता है सम्मान का। और हमारी दुनिया में तो हम उनको भी नाम से नहीं पुकारना चाहते जिनके बाकायदा नाम हैं। हम तो चाहते हैं कि उनको भी बिना नाम के पुकारे ही हमारा काम चल जाए। मतलब फलाना, ढिकाना, अमका, ढिमका कह कर। मगर रोली की दुनिया में उसकी डायरी का भी नाम है -‘वीडा’। ‘वीडा’ जो रोली के सबसे ज़्याद क़रीब है। जिससे वो अपनी हर बात, हर सपना शेयर करती है। जिन्हें वो अपनों से शेयर करना चाहती है। जब अपने मन की कहने के लिए कोई चेतन नहीं मिलता तो फिर जड़ का ही सहारा लिया जाता है। जैसा ये रोली कर रही है। वह दरअसल डायरी नहीं लिख रही, वह तो अपने मन की बात कह रही है। अभिलाषाएँ, कामनाएँ, जिनमें है फेसबुक, अमेरिका, यमुना एक्सप्रेस हाइवे और शीला की जवानी पर नाचना भी। सपने एक बिन्दु और विषय पर रुकना नहीं जानते, इसीलिए तो वे सपने होते हैं। सारे सपने ‘वीडा’ को बताए जा रहे हैं। ‘वीडा’ एक फ्रेंच शब्द होता है जिसका अर्थ होता है जीवन। रोली ने अपने लिए एक दूसरा जीवन बना लिया है। सोनाली के सपनों को अपने लिये ‘वीडा’ के द्वारा तलाश रही है वह।

अलग हो चुके माँ बाप के बच्चों के जीवन पर, उनकी मनोस्थिति पर कई कई कहानियाँ लिखी जा चुकी हैं और आगे भी लिखी जाती रहेंगीं। असफल दाम्पत्य बहुत कहानियों को जन्म देता है। असफल दाम्पत्य का दंश बच्चों को ही सहना होता है। और यदि बच्चे उस समय किशोरावस्था में हों तो और अधिक। तथा यदि लड़की हो तो और और अधिक। सुधा ओम ढींगरा की कहानी टारनेडो की तरह यहाँ भी लड़की अपनी माँ के नए प्रेमी की नज़रों से परेशान है। और भाग जाना चाहती है उनसे दूर। उन आँखों से दूर, जो आँखें देखते ही देखते हाथ बन जाती हैं, जिनकी उँगलियाँ निकल आती हैं और जो उसकी देह पर फिरने लगती हैं। गन्दी और काली छिपकलियों की तरह। पुरुष हमेशा स्त्री को तलाशता है, उम्र और देह की हर परिधि के पार। तलाश के क्रम में घूरता है वो हर स्त्री देह में संभावना। अपने पुरुष की संतुष्टि की संभावना। स्त्री इस तलाशे जाने को ठीक पहले ही सैकेंड में चीन्ह लेती है। लड़की भी उस घूरने से ही घिन्ना रही है। और उसीसे भाग रही है। एकाकीपन, भाग जाने का उतना बड़ा कारण नहीं होता है। एकाकीपन धीरे धीरे अपनी आदत डलवा देता है। हम उसमें रमने लगते हैं। भागने को लेकर हमेशा ही तात्कालिक कारण तलाशे जाते हैं। कि अभी क्या हुआ, क्या ऐसा जो भाग जाने का कारण बना। घर, दुनिया में सबसे अधिक सुकून देने वाला स्थान होता है, ऐसे में यदि कोई उस सबसे अधिक सुकून देने वाले स्थान को अपनी मर्जी से छोड़ कर चला जाता है (भाग जाता है) तो उसके गहरे कारण होते हैं। इतना आसान नहीं होता है घर को छोड़ देना।

वीडा के बाद जो दूसरा पात्र रोली को मिलता है वो है शोएब। पात्र का धर्म लेखिका ने जानबूझकर चयन किया है। दूसरे पात्र का नाम शोएब होना सोच समझ कर हुआ है। लेखिका ने रोली के एकाकीपन के बरअक्स कुछ दूसरे सवालों की भी पड़ताल की है। दूसरे सवाल जो इन दिनों हवाओं में बहुत गूँज रहे हैं। लेखिका ने उन सवालों की जड़ तक पहुँचने की कोशिश की है। दूसरे पक्ष के अंदर गहरे उतर कर। धर्म, समाज और परंपराओं ने हम सबके ‘वीडा’ (जीवन) की उन्मुक्तता को बाधित किया है। हमारे पंखों को कतरा है। हम क्यों वैसे नहीं रह सकते जैसा हम रहना चाहते हैं। क्यों हमें ये बताया जाता है कि हमारे लिए क्या अच्छा है और क्या बुरा। अच्छा या बुरा होना ग्लोबल कैसे हो सकता है, यूनिवर्सल कैसे हो सकता है। हर व्यक्ति का अच्छा बुरा उसके लिये अलग होगा। हम सब तो कितने अलग अलग हैं ? रोली का दूसरा ‘वीडा’ शोएब है। ग़लत है कि सही, इस पर लेखिका ने बहुत कुछ नहीं कहा है। रोली की दुनिया वीडा से लेकर शोएब तक फैली हुई है। शोएब उसे फेसबुक में मिला है। फेसबुक पर नहीं, फेसबुक में। क्योंकि फेसबुक एक दुनिया है। विरचुअल दुनिया। आभासी दुनिया। जब वास्तविक दुनिया हमें कष्टप्रद लगने लगती है तब ही तो हम आभासी दुनिया में अपने सुख तलाशने जाते हैं। 

कहानी दो स्तरों पर चलती है एक मनोवैज्ञानिक स्तर पर, जहाँ वह रोली के मन की परतों में गहरे उतरती जाती है, सूक्ष्म से सूक्ष्म की पड़ताल करते हुए। रोली के बहाने कई प्रश्नों का उत्तर तलाशते हुए। दूसरा स्तर घटनाक्रम के स्तर पर है। कहानी मनोवैज्ञानिक स्तर पर जितनी सशक्त है, घटनाक्रम के स्तर पर उतनी नहीं है। कोई भी मनोवैज्ञानिक कहानी अपने लिए घटनाक्रम के स्तर पर भी अलग शब्दावलि चाहती है। वहाँ सपाट बयानी से काम नहीं चलता है। इसीलिए अक्सर मनोवैज्ञानिक धरातल पर रची गई कहानियों में अक्सर लेखक घटनाक्रम को लाने से बचता है। या, अगर लाता भी है तो उसको इसी रंग में रँगकर लाता है। ये कहानी चूँकि केवल और केवल रोली की कहानी है इसलिए इसमें पाठक केवल रोली से ही जुड़ता है। उसे घटनाओं में कोई दिलचस्पी नहीं है। घटनाएँ तो होती हैं। होती रहती हैं। उनके लिए पत्रकारिता है। इस कहानी में ‘वीडा’ और फेसबुक दोनों मिलकर जो दुनिया रच रहे हैं दरअसल कहानी वही है।  कहानी का दूसरा पक्ष कमजोर इसलिए भी है क्योंकि स्वयं लेखिका के लेखन का सशक्त पहलू भी मनोविज्ञान है। किशोरियों और युवतिओं का मनोविज्ञान। और इस कहानी में भी लेखिका ने अपने उस मजबूत पहलू को बहुत सुंदरता के साथ उभारा है। रोली की मनोदशा को वाक्य दर वाक्य, शब्द दर शब्द, सुंदरता के साथ चित्रित किया है। कुछ वाक्य तो इस प्रकार से गढ़े हैं कि वे लकड़ी के टुकड़े पर मारे गए धातु के टुकड़े की तरह वाइब्रेट होते हैं और होते ही रहते हैं। ‘मेरे चारों तरफ रौशनी की तितलियाँ उड़ती हैं’। ‘मैं फूलों का बिस्तर बना कर सोना चाहती हूँ’। और एक बहुत महत्त्वपूर्ण वाक्य -‘’हमारे पैरेंट्स अभी तक अपने सपने देखने और पूरा करने में लगे हैं’। यह वाक्य कहानी की धुरी है जिसके चारों तरफ कहानी घूम रही है। या इस प्रकार की कई कई कहानियाँ घूम रही हैं। अपने सपने, पैरेंट्स के अपने सपने। एक समय के बाद पैरेंट्स के सपने बच्चों के रास्ते में आने लगते हैं। रंग बदल कर, रूप बदल कर। ये सपने बच्चों की आँखों में चुभने लगते हैं। दरअसल समय के एक निश्चित अंतराल के बाद सपनों की परिभाषाएँ बदलती हैं। हर पीढ़ी के अपने सपने होते हैं। यदि सपने, समय के ग्लेशियर में जम जाएँ, फ्रीज़ हो जाएँ तो वो सपने नहीं रहते, सपनों की ममी बन जाते हैं। हर पीढ़ी अपने सपनों की ममी लेकर घूमती है और चाहती है कि उसके बाद की पीढ़ी इस ममी को अपने काँधे पर लेकर घूमे। यही होता आ रहा है और यही होता रहेगा।

रोली की एक और पीड़ा है, वो अभी माँ नहीं बनना चाहती। माँ....? अपने छोटे भाई की माँ। बंटी की माँ। जो उसे बना दिया गया है। जैसा कि वो शोएब के साथ फेसबुक पर चैटिंग करते समय कहती है ‘मैं अपने छोटे भाई बंटी की माँ बना दी गई हूँ। पापा घर से गायब हैं, मम्मी बंटी को मुझे थमा कर निकल जाती हैं। मैं बंटी की आया बन कर रह गई हूँ।’ रोली ने यहाँ पर अपने आप को पूरी तरह से खोल दिया है शोएब के सामने। शोएब जो पता नहीं क्या है। उसकी उम्र क्या है, वो करता क्या है, कुछ पता नहीं। विरचुअल दुनिया में सामने डिस्प्लै हो रहे शब्द महत्त्वपूर्ण होते हैं उसके अलावा कुछ भी नहीं। शोएब उसे कभी ‘बेबी’, कभी ‘डियर’ तो कभी ‘स्वीटी’ कह कर संबोधित कर रहा है। संबोधन जो वो सुनना चाहती है। सुनना चाहती है अपनों से। सदियों से यही तो होता आया है कि हम उसी चीज़ की तलाश में घर छोड़ कर निकल पड़ते हैं जो हमें घर में नहीं मिलता है। फिर चाहे वो रोली को मिलने वाले संबोधन हों चाहे बुद्ध को मिलने वाला सत्य हो। खोजना है तो निकलना ही पड़ेगा। बिना निकले खोज नहीं होती। शोएब का चरित्र लेखिका ने बिल्कुल नहीं उभारा है। शायद जानबूझ कर। कि, कोई फर्क नहीं पड़ता इससे कि वो कौन था ? बस ये कि हाँ कोई था। कहानी को सूक्ष्म रूप से देखा जाए तो ये उस प्रश्न का भी उत्तर देती है जो इन दिनों हवा में खूब है। शोएब उसी प्रश्न के उत्तर का एक अंश है। जबकि, उत्तर का बड़ा हिस्सा रोली के घर में ही है। डायरी, आकाश और चिड़िया, ये नाम खूब सटीक रखा है लेखिका ने। यहाँ डायरी  ‘वीडा’ अर्थात जीवन का प्रतीक है और शोएब आकाश का। जिनको जी लेने के लिए चिड़िया उत्कंठित है।  इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि वो आकाश किस नाम का है शोएब नाम का या सुरेश नाम का।

ये कहानी गुलाब की पंखुरियों के जलते हुए तवे पर गिरने की कहानी है। यदि आपने गुलाब की पंखुरियों की कोमलता को छूकर महसूस नहीं किया है तो आप समझ नहीं पाएँगे कि गर्म तवा उनके लिए कितनी विपरीत परिस्थिति है। बाल मनोविज्ञान और किशोर मनोविज्ञान सबसे रहस्यमयी दुनिया है। जहाँ पहले से तय कुछ भी नहीं है। जहाँ समीकरण नहीं चलते । जहाँ दो और दो का जोड़ कभी भी चार नहीं होता। कभी भी नहीं। जो दो और दो को चार करने के विरोध में खड़ी हुई ही दुनिया है। गीताश्री ने इस दुनिया की कहानी को अपने ही अंदाज़ में रचा है। अपने विशिष्ट अंदाज़ में। बाहर की घटनाओं का विवरण एक और जहाँ कहानी का कमज़ोर पक्ष है तो वहीं मन के अंदर की घटनाओं का विवरण सशक्त पक्ष है। और इसलिए, कि कहानी तो वास्तव में वहीं की है अंदर की, मन के अंदर की, इस कहानी को महत्त्वपूर्ण कहानी कहा जाएगा। जाने पहचाने विषय में कुछ नया तलाशने की कोशिश है ये कहानी डायरी, आकाश और चिड़िया।  

पंकज सुबीर
पी. सी. लैब
सम्राट कॉम्प्लैक्स बेसमेंट
बस स्टैंड के सामने
सीहोर 466001 मप्र
मोबाइल 9977855399
“देखो वीडा... मैं कल सारी रात डिस्को में नाचती रही। मजा आया। सब मुझे कैसे घूर रहे थे न. ब्लैक, चमचम ड्रेस मुझ पर अच्छी लगती है न. मैंने बीयर भी पी। खूब धमाल किया। मेरे दोस्तों ने मुझे पैम्पर किया। अहा... मजा आया। कितनी रौशनी थी न वहां... कोई बात नहीं... मैं तैयार हूं, इसी वीकेंड, उसी नियोन लाइट में ठुमकने के लिए... ”

“अरे वीडा... अभी अभी मैं लौंग ड्राइव पर गई थी। ओह... क्या बताऊं... कितना मजा आया। खुली हवा, सरसराते पेड़, सीटियां बजाते पेड़, झूम झूम कर नाचते पेड़, हल्का अंधेरा और हम और वो... ये मत पूछना कि कौन... बस हम साथ थे... दूर निकल गए थे। कोई शोर नहीं था। मुझे अच्छा लग रहा था... मैं सड़क पर उतर कर दौड़ रही थी... वह हौर्न बजा बजा कर परेशान और मैं... यमुना एक्सप्रेस वे पर मस्ती कर रही थी... , अमेरिका में मिस करुंगी न ये सब... ”

पढते पढते थरथरा गई रागिनी। 

यकीन नहीं आया कि यह डायरी रोली की है या सोनाली की, जिसकी जिंदगी डायरी में रोली दर्ज करती जा रही है। अपनी जिंदगी जीते जीते वह परकाया प्रवेश कर जाती है। 

पूरी डायरी रागिनी से पढी नहीं गई। आंखें डबडबा आईं। डायरी भरी हुई थी ऐसे अनगिन रोमांचक विवरणो से। पढना जरुरी था। शायद कोई क्लू मिल जाए। रागिनी की हथेलियों में सांसे लेती हुई डायरी थी, जिसमें अंधेरे और रौशनियों में डूबी हुई अनेक आवाजें आ रही थीं। समंदर पार से यहां तक की आवाजें। तरह तरह की कामनाएं, अभिलाषाएं और परकटी छटपटाती तितलियों का रंगीन संसार। इतनी किताबे पढीं होंगी रागिनी ने, किसी किताब ने इतना विचलित नहीं किया कभी। जिंदगी की किताबें शायद, ज्यादा बेचैन और कातर करती हैं। 

हर पन्ने पर लिखी थी रोली ने अपने दिल की दास्तान। अपने दुख, अपने सुख... वह डायरी से रोज बातें करती थी। लिख लिख कर उसे अपनी बातें कहती थी। और अंत में पूछती थी... ”बता मैं क्या करुं?” ढेर सारे सवालों के चिन्ह लगा देती थी। जवानी की दहलीज से चंद कदम दूर एक छोटी लड़की जिंदगी और रिश्तों के कितने सारे सवालों से जूझ रही थी और उसके माता पिता को इसका अहसास तक नहीं। रागिनी को उसकी डायरी से पहली बार पता चला कि हिमानी और उसके पिता रौशन में अक्सर झगड़े होते हैं और कुछ दिन पहले ही वह हमेशा के लिए घर छोड़ कर चला गया था। तब से रोली की उदासी बढ गई थी। 

आखिरी कुछ पन्नों में उसने लिखा था—

“मेरी दोस्त... अब पापा घर नहीं लौटेंगे। मुझे पता नहीं वे कहां होंगे। उन्होंने कभी मुझे फोन नहीं किया। उन्हें हमारी जरा भी परवाह नहीं। होती तो क्या वे फोन नहीं करते। चुपके से मिलने भी तो आते। मम्मी कौन सा दिन भर घर में रहती हैं। क्या वे हमें बिल्कुल प्यार नहीं करते। बताओ वीडा... ???”

एक पन्ने पर लिखा था... 

“आज मम्मी किसी से मोबाइल पर बात कर रही थीं कि मैं भी घर छोड़ कर कहीं चली जाऊंगी। उन्हें बता देना, फिर आएंगे बच्चों से मिलने। जब उन्हें परवाह नहीं तो मैं ही क्यों अपनी जिंदगी बच्चों के पीछे खराब करुं। वैसे भी मेरी कमाई से ये घर नहीं चल सकता। मैं इतने महंगे स्कूल में दोनों बच्चों को कैसे पढा पाऊंगी। रोली की पढाई छुड़ा दूंगी। काम पर लगा दूंगी... ”

“दोस्त... बताओ... क्यों न मैं खुद ही घर से चली जाऊं... कोई काम तलाश लूं। मैं अच्छी इंगलिश बोल लेती हूं, सुंदर हूं, स्मार्ट हूं, कहीं न कहीं काम मिल ही जाएगा। यहां से दूर, किसी शो रुम में रिशेप्निस्ट का काम कर लूंगी... लेकिन अब कभी यहां लौट कर नहीं आऊंगी... मै मम्मी पर बोझ नहीं बनना चाहती। क्या कहती हो दोस्त... माई वीडा... ”

रागिनी को “वीडा” शब्द परेशान कर रहा था। वह इतना तो समझ गई थी कि यह अंग्रेजी का शब्द नहीं है। किसी अन्य विदेशी भाषा का कोई शब्द है और जिसका जरुर कोई खास अर्थ होगा। 

उसने तुरंत सोनाली को फोन लगाया। सोलानी ने जो बताया, सुन कर रागिनी सन्न रह गई। “वीडा” एक फ्रेच शब्द है जिसका अर्थ होता है लाइफ-यानी जीवन। रोली ने अपनी डायरी को अपनी जिंदगी बना लिया था और उससे सारी बातें करती थीं। वह डायरी में अपनी नहीं, दूसरो की जिंदगी जी रही थी। खासकर सोनाली की जिंदगी। जब से सोनाली अमेरिका से लौटी है, उसकी तस्वीरें रिश्तेदारों में घूम रही हैं। सोनाली ने बताया कि उसका अल्बम रोली के पास काफी समय तक पड़ा रहा। एक एक तस्वीर के बारे में वह विस्तार से जानना चाहती थी। पूछती रहती थी। सुनते समय उसकी आंखें जुगनूओं की तरह चमकतीं। तब किसी ने इतना ध्यान नहीं दिया था कि रोली यब सब देखते सुनते सोनाली में तब्दील हो चुकी थी। वह अपनी देह में नहीं थी। 

अब तो वह सदेह गायब थी। 

पूरे घर में कोहराम मचा हुआ था। परिवार के हरेक सदस्य के चेहरे का रंग उड़ा हुआ था। ऐसी अनहोनी की किसी ने कल्पना तक नहीं की थी। जो नहीं होना चाहिए था, वो हो गया था। रोली घर से गायब थी। संकट की इस घड़ी में पूरा परिवार इकठ्टा हो गया था। सोसाइटी में अभी किसी को भनक नहीं लगी थी। रागिनी मौसी ने मना कर दिया था रोली की मां हिमानी को। किसी को कानोकान ये खबर न हो। रोली के मामा इस बात से चिंतित थे कि कहीं सोसाइटी में बात खुल गई तो कितनी बदनामी होगी। कई बार समाज का भय, मातम मनाने की इजाजत भी नहीं देता।

हिमानी भी कुछ कुछ इसी बात को लेकर परेशान थी। किशोर बेटी की चिंता के साथ साथ अपनी बदनामी का भी भय उन्हें खाए जा रहा था। कहां ढूंढे उसे। रोली का अपना मोबाइल हाल में उसके पिता ने गिफ्ट किया था जिसे वह टूयशन पढने समय साथ ले जाया करती थी, वह भी घर पर रखा था। उसकी किताबें, कपड़े, कुछ भी नहीं ले गई। सारा सामान यथावत धरा हुआ था। फिर गई कहां। क्या हुआ उसे... किसी की समझ में नहीं आ रहा था। 

रागिनी मौसी का दिमाग लगातार सोच में डूबा हुआ था। आखिर कोई लड़की स्कूल से सीधे कहां और क्यों गायब हो सकती है। 

रात घिर आई थी। काली स्याही में डूबी रात कुछ ज्यादा ही भयावह लग रही थी। हिमांशु मामा सिर पकड़े बार बार घड़ी देख रहे थे। बेचैनी से मोबाइल की तरफ देखते। शायद कहीं से कोई फोन आ जाए और लड़की का पता लग जाए। वे पुलिस को तुरत बताने के पक्ष में नहीं थे। वे चाहते थे, मामला परिवार के स्तर पर निपट जाए तो अच्छा है। वे बार बार हिमानी से पूछते कि रोली के साथ कहीं उसका कोई झगड़ा तो नहीं हुआ था। वह इनकार करती। रोली के पिता अब तक नहीं आए थे। उन्हें खबर तो दे दी गई थी। सुबह तक लड़की नहीं लौटती है तो पुलिस को खबर देनी होगी। उसके बाद खबर सब जगह फैल जाएगी। 

हिमानी के होठों पर प्रार्थनाएं और बददुआएं दोनों थीं। वह ईश्वर से दुआ भी कर रही थी और अपने पति रौशन का नाम लेकर कुछ बदबुदा भी रही थी। 

रागिनी ने नोटिस किया। उसे लगा कहीं कुछ गड़बड़ है जिसकी परदेदारी है। वह हिमानी से कैसे पूछे। बेटी के गायब होने से खुद ही अधमरी सी हो रही है। ज्यादा पूछने पर बिखर जाएगी। आंखें दिन से ही बरस रही हैं। रागिनी मौसी जल्दी धैर्य नहीं खोतीं और न ही जल्दी किसी बात पर रिएक्ट करती हैं। उनका दिमाग संकट की घड़ी में भी संयम से चलता है। तभी घर में सभी उन्हें सकंटमोचक भी कहते हैं। रोली के गायब होने की सबसे पहली सूचना हिमानी ने रागिनी को ही दी। रागिनी ने फिर भाई को खबर दी। रोली का छोटा भाई पूरे घर में दी दीदीईदीईदीईई करता घूम रहा है। कभी रोता है तो कभी मां का कुरता खींच कर पूछना चाहता है। किचन सूना पड़ा था। किसी का मन चाय तक बना कर पीने का नहीं हुआ। अनजाने भय ने सबको जकड़ लिया था। रागिनी भी भीतर से भयभीत थी। आए दिन शहर में इतनी घटनाएं हो रही हैं। अखबार घटनाओं से पटे रहते हैं। रोली तो नादान है, कमसिन है। इतनी छोटी लड़की खुद तो नहीं भाग सकती। इसके पीछे जरुर किसी का हाथ होगा... रागिनी ने सोचते सोचते रोली का सामान खंगालना शुरु किया। सबसे पहले उसका मोबाइल चेक किया। वह कंटैक्ट लिस्ट देख कर चौंक गई। सारे नाम और नंबर वह डिलीट कर गई थी। कोई मैसेज तक नहीं छोड़ा था। सारे डिलीट। इसका मतलब रोली ने सबकुछ प्लान ढंग से किया। 

“हिमानी... रोली को कोई भगा नहीं ले गया, वह खुद भागी है-“

रागिनी ने हिमानी को स्पष्ट कर दिया। 

“लेकिन क्यों... वह क्यों भागेगी... क्या कष्ट दिया था उसे ?”

हिमानी सुबक रही थी। 

हिमांशु चीखा-“मैं नहीं मान सकता। इतनी हिम्मत कहां से आई उस लड़की में... जरुर उसके बाप का हाथ होगा उसे भगाने में... देखना, आने दो उसे... अभी तक पहुंचा नहीं... कैसा बाप है, खबर सुनकर दौड़ा चला आता। उसे कोई क्या फर्क पड़ता है... तुम लोग मरो या जीओ... सेल्फिश मैन... ”

हिमांशु की पूरी देह गुस्से से कांप रही थी। उसका बस चलता तो रोली के पापा का गला दबा देता। 

रागिनी ने उसे टोक दिया। 

“भाई... इतनी जल्दी किसी निष्कर्ष पर पहुंचना ठीक नहीं है। हमें कुछ पता नहीं, एक्चुअली हुआ क्या है। कोई क्लू भी नहीं मिल रहा है। कल पुलिस को बताना तो पड़ेगा ही। पर मुझे हैंडल करने दो भाई... तुम शांत हो जाओ। ये वक्त आपस में झगड़ने का नहीं है। परिवार पर बहुत बड़ा संकट आ खड़ा हुआ है। मुझे उस नन्हीं सी जान की चिंता है। रात इतनी हो गई है, कहां गई होगी, क्या कर रही होगी, उसके साथ क्या हो रहा होगा ?”

“हम हाथ पर हाथ धरे तो नहीं बैठ सकते न... ”

हिमानी सुबकते हुए चिल्लाई। “खोजो उसे... जाओ... पुलिस को बताओ... अब देर करोगे तो पता नहीं क्या होगा... ”

“प्लीज... डौंट क्रिएट पैनिक... ” रागिनी ने सबको टोका। 

उसके दिमाग में कुछ चल रहा था। वह उठी और रोली की बुक सेल्फ तलाशने लगी। सारी किताबें उलट पुलट डालीं। नोट बुक देखें। एक एक पन्ना चेक किया, शायद कुछ लिखा हो, कोई क्लू छोड़ा हो। कपड़े देख लिए, स्टडी टेबल पर भी कुछ नहीं मिला। अचानक रागिनी को कुछ ध्यान आया। 

हिमानी के रुम में झपटती हुई पहुंची। डायरी अब भी उसके हाथ में थी. 

मुझे रोली का फेसबुक चेक करना होगा। शायद वहां कुछ मिले। 

बोलते बोलते रागिनी ने कंप्यूटर आन कर दिया। वाई फाई बंद पड़ा था। औन किया फिर भी चारो लाइटें नहीं जलीं। दो लाइट जलीं और बाकी भुक भुक कर रही थीं। जब मुसीबत आती है तो चारो तरफ से आती है... भुनभुनाती हुई रागिनी ने अपना बैग टटोला। शायद डाया केबल, फोटोन मिल जाए तो उससे ही नेट कलेक्ट हो जाए। 

“सुनो... मोडम को दो चार बार और औफ करो... तब चलने लगे शायद। रोली ही इसका इलाज जानती थी... अक्सर गड़बड़ ही रहती है... ”

हिमानी की बेदम आवाज आई। 

कुछ देर की मशक्कत के बाद नेट चलने लगा। रागिनी ने राहत की सांस ली। कई बार जिंदगी तकनीक पर कितनी निर्भर हो जाती है... । फेसबुक खोलते ही जैसे ही रोली का नाम लौग इन किया, ईमेल अपने आप सामने आ गया। असली मुसीबत तो पासवर्ड की थी. 

“रोली का पासवर्ड किसी को पता है ?”

रागिनी के सवाल का किसी के पास कोई उत्तर नहीं था। उसने सबकी तरफ सवालियां निगाह से देखा। 

“कैसी मां हो... ?? कमसेकम अपने बच्चों के बारे में पूरी नजर रख सकती हो या उसकी गतिविधियों के बारे में जानकारी रख सकती हो।“

रागिनी के स्वर में धिक्कार भाव को हिमानी ने समझा और सिर झुका लिया। वह मौन भाव से अपने तमाम अपराधो को स्वीकारने को तत्पर थी जैसे। 

“अपनी बेटी से इतना कन्सर्न रहता तो आज ये नौबत न आती... ” मन ही मन बुदबुदाती हुई रागिनी ने तरह तरह के पासवर्ड ट्राई करने शुरु किए। कभी हिमानी का नाम, पापा का नाम, छोटे भाई का नाम, सोनाली का नाम, फिर नामो से थक गई तो रागिनी ने टाईप किया... डायरी। नहीं खुला। फिर टाइप किया—माई लाइफ... , नहीं खुला... । डायरी आई लव यू टाइप किया, फिर भी नहीं खुला। रागिनी पूरी कोशिश करके थक गई। 

हिमानी असहाय आंखों से रागिनी को देखती रही। 

एक बार टाइप करके देख... ”मम्मा, आए लव यू... ” शायद खुल जाए। 

नहीं खुला... 

“पापा कम बैक टाइप” करके देख... 

फिर भी बात नहीं बनी... रागिनी सोच में डूब गई। पूरी कोशिश कर ली। आखिर इस लड़की ने क्या पासवर्ड रखा होगा। रोली का छोटा भाई, कबीर दौड़ता हुआ आया और टेबल पर पड़ी डायरी झपट्टा मार कर ले भागा। 

रागिनी उसे पीछे भागी। तब तक हिमानी ने डायरी देख ली। हल्की रौशनी में रागिनी ने “वीडा” शब्द देखा। भक्क से रौशनी जली। उसकी बांछे खिल गई। उसने “वीडा” टाइप किया... 

फेसबुक औन नहीं हुआ। 

ओह... 

अब सारी आशाएं धूमिल। फेसबुक से कोई क्लू मिलने की संभावनाएं खत्म-सी हो गईं। यूं ही अनमने ढंग से रागिनी ने टाइप किया... ”वीडामाईलाइफ”

और फेसबुक नहीं औन हुआ। रागिनी अब हताश होने लगी थी। कई तरह शब्द ट्राई कर चुकी थी। ये आखिरी कोशिश थी, ये भी सफल नहीं हुई। कई तरह के सवालों के बादल मन में उमड़ने लगे। क्यो रोली इतन चालाक हो सकती है कि पासवर्ड इतना कठिन रखे। 

पासवर्ड का अपना मनोविज्ञान होता है। लोग आमतौर पर आसानी से याद आने वाला, घर के लोगो के नाम, जन्म दिन, अपनी उम्र...  

रागिनी सोचते सोचते रुक गई। उंगलियां अपने आप टाइप करने लगीं... ”वीडामाईलाइफ14.”

रागिनी जोर से चिल्लाई... खुल गया खुल गया... ओ माईगौड... 

हिमांशु आवाज सुन कर भी अंदर नहीं आया। हिमानी भी अंदर नहीं आई। शायद वह फेसबुक पेज से खुलने वाले रहस्यों के सामना करने को तैयार नहीं हुई थी। 

रागिनी अधैर्य थी। उसने बिना किसी का इंतजार किए फेसबुक के वाल पर सर्च न करके सीधा इनबाक्स में खोजना शुरु किया। वह जानती थी कि फेसबुक वाल तो सावर्जनिक जगह है, सब कुछ दिखता है, इश्तिहार की तरह। जो भी राज होगा, वह इनबाक्स में होगा। 

और इनबाक्स जैसे अंटा पड़ा था। कई अनजान लड़को और लड़कियों से। जिनमें शुरुआत रोली की तरफ से की गई थी। 

हाय. हैलो के बाद... वह एक सवाल पूछती थी सबसे... व्हेर आर यू फ्राम ?

हैव यू वीन टू अमेरिका, हैव यू सीन इट ?

एक लडडके शोएब से सबसे ज्यादा लंबी चैट थी। बाकी से टुकड़ो टुकड़ो में बातचीत थी। शोएब से पूरी चैट पढते हुए रागिनी समझ गई कि वह शोएब से अपनी परेशानी शेयर करती थी। 

रोली के गायब होने वाले दिन या उससे ठीक पहले का चैट तलाशती हुई रागिनी की आंखें टिठक गईं।

किस रोमांचक  कथा-गाथा की तरह चीजें सामने खुली पड़ी थीं। 

रोली-“व्हाट टू डू, डूड ?”

“यू टेल मी... आए एम विद यू बेबी “

“मैं अपने घर में नहीं रहना चाहती, फीलिंग लोनली डूड ”

“अब क्या हुआ... ?”

“बहुत कुछ हो गया... अब तुम सुनो, जो मैं कहूं, वो करो... मैं कल स्कूल जाऊंगी, पर वापस घर नहीं आउंगी। मैं मोबाइल भी साथ नहीं ले जाऊंगी। मैं नहीं चाहती कि कोई मुझे खोज ले। मुझे कभी घर वापस नहीं आना।“ 

“कहां जाओगी स्वीटी ?”

“कहीं भी...  तुम कहीं रख देना... कहीं काम दिलवा दो... मैं कहीं भी रह लूंगी... यहां से दूर... घर का माहौल बहुत खराब हो चुका है। मैं अपने छोटे भाई की मां बना दी गई हूं। पापा घर से गायब हैं, मम्मी बंटी को मुझे थमा कर निकल जाती हैं अपने काम पर। देर रात आती हैं। मैं न पढाई कर पाती हूं न कहीं निकल पाती हूं। मैं बंटी की आया बन कर रह गई हूं।“

“हम्म्म्... ये तो अच्छा नहीं हो रहा तेरे साथ” 

“मुझे अपनी जिंदगी जीनी है... यहां से आजाद... वैसे भी मम्मी हमेशा सुनाती रहती हैं... क्या क्या बताऊं... 

“बात क्या है... ये तो बता... कुछ और वजह तो नहीं ?”

शोएब... ”

“हां बोल... ”

“मेरी मम्मी का दोस्त सूरजपाल मुझे बिल्कुल पसंद नहीं। मैंने मम्मी को बोला... आपको कोई और नहीं मिला था दोस्ती के लिए? आप किसी को भी अपना दोस्त बना लीजिए, इस लंपट को क्यों घर बुलाती हैं ? जब देखो तब ड्रिंक की बोतल लेकर धमक जाता है। उसके साथ कई बार अजीब अजीब लोग होते हैं... वे मुझे घूरते हैं, मुझे घिन्न आती है। मैं बंटी को लेकर कमरे में बंद हो जाती हूं... ”

“तूने मम्मी से बात की ?”

“कहा था... मम्मी ने कहा कि पापा की तरह बाते मत कर... ये लोग मुझे मेरी डिजाइन ड्रेसेज के एक्सपोर्ट इम्पोर्ट में हेल्प करते हैं। कभी कभार यहां आ जाते हैं... कुछ पल मैं भी हंस बोल लेती हूं तो तुझे भी अच्छा नहीं लगता... तू दूर रहा कर... ”

“ओह... वेरी बैड... ”

“चल कल मिलते हैं फिर बात करते हैं... ”

“पर रहेगी कहां, करेगी क्या... ? “ मैं इसी चिंता में हूं... मैं भी तो छोटा हूं... हम तो बच्चे हैं न... पकड़े गए तो जानती है हमारा क्या हाल होगा... मेरे मम्मी पापा भी मुझे मार डालेंगे... मैं तेरी मदद भी करना चाहता हूं... तेरी तकलीफ देखी नहीं जा रही “

“वेट वेट... मैं एक अटैचमेंट भेज रहा हूं... देखो... कल यहां ट्राई करेंगे, उसके बाद कुछ सोचेंगे “

“चल बाय... ”

“सी यू डियर... ”

रागिनी ने अचैटमेंट खोला। ओह... तो मैडम यहां मिलेंगी। हल्की राहत महसूस हुई। उसने शोएब का प्रोफाइल खोला। उम्र 16 साल, मोदी नगर निवासी, स्कूल का कोई जिक्र नहीं। मोबाइल नंबर जरुर चमक रहा था। रागिनी ने अपने मोबाइल में नं. सेव किया और फेसबुक लौगआउट कर दिया। 

रोली के प्रति अथाह स्नेह से भरी हुई रागिनी को सारा माजरा समझ में आ गया था। बहन होते हुए भी हिमानी ने इतनी बड़ी बात हम सबसे छिपाई। असली कारण तो अब समझ में आया। डायरी लिए हुए रागिनी कमरे से बाहर निकली। वहां पहले की तरह ही सब बैठे हुए थे। रागिनी कुछ कहती कि दरवाजे पर किसी ने बेल बजाई। हिमांशु उठ कर खोलने गया। रात के 12 बज गए थे। इतनी रात और कौन होगा। रौशन ही होगा। वही थे। बदहवास से खड़े। रागिनी को डर था कि कहीं दोनों एक दूसरे को देखकर चिल्लाने न लग पड़े। 

हिमांशु की आंखें क्रोध से लाल थीं और वह कुछ बोलना चाह रहा था। रौशन को देखते ही हिमानी दौड़ी, रौशन ने उसे थाम लिया। दोनों का विलाप देर तक कमरे में गूंजता रहा। उन आंसूओं में सारी शिकायतें, सारे विषाद, सारे झगड़े सब बह रहे थे। शब्द जैसे मौन थे। दोनों कुछ बोल नहीं पा रहे थे। रागिनी की आंखें बरस रही थीं। हिमांशु ने अपना चेहरा छिपा लिया था। रागिनी को लगा कि दुख सबको जोड़ता है। 

डायरी की बात सबको पता चल गई। तय किया गया कि सुबह तक का इंतजार करने के बजाए रात को ही खास खास जगहो पर खोजने निकला जाए। दो गाड़ियां निकलीं। रागिनी और हिमांशु एक साथ। हिमानी और रौशन एक गाड़ी में चले। रागिनी चाहती थी इस खोज में पुलिस का साथ ले। लेकिन उसकी लंबी प्रक्रिया से सब घबरा रहे थे। फिर भी रागिनी ने रोली की तस्वीर अल्बम से निकाल ली थी।  जरुरत पड़ने पर पुलिस को दे सकती थी। नोयडा की पुलिस वैसे भी दिल्ली पुलिस की तरह सक्रिय दिखाई नहीं देती। रागिनी के दिमाग में कुछ चल रहा था। शायद वह स्पष्ट थी कि खोज में कहा जाना है। रागिनी ने किसी को कुछ नहीं बताया। अलग अलग कारो में रागिनी और हिमांशु, हिमानी और रोशन बंटी  को लेकर घर से निकले। 

मोबाइल पर लगातार हिमानी रोती जाती और रौशन की आवाज डूबती जाती। हिमांशु का भाषण फिर से चालू था- “सब मां बाप का कसूर है। बच्चों को टाइम नहीं देते। उनके कलह का असर है ये सब. इस उम्र में बच्चे सबसे ज्यादा केयर चाहते हैं। उन्हें तन्हा छोड़ेगे तो यही होगा... ऐसे मां बाप को अपनी इगो ज्यादा प्यारी है... ”

रागिनी ने प्रतिवाद किया... ”भाई, रोली को भी क्या ऐसे करना चाहिए। कोई घर छोड़ कर जाता है भला। वह भी इस तरह। उसने कभी अपने मन की बात अपनी मां को बताई। मुझसे इतनी करीब थी। मुझसे कहती। किसी से भी कहती। घरेलू तनाव में कई बार बच्चे इगनोर हो जाते हैं। इसका ये मतलब तो नहीं कि घर छोड़ दें। घर तो बच्चों का भी होता है न। रोली बड़ी हो रही है, उसे अपने मां बाप की समस्याओं को भी समझना होगा, उसके साथ तालमेल बिठाना होगा। बुरे दिन हमेशा नहीं रहते। अच्छे दिन भी आते हैं। हमें बुरे दिन काटने होते हैं। साथ रह कर। जैसे सुख में साथ रहते हैं तो दुख में कैसे भाग सकते हैं अपने घरवालो को छोड़ कर। वह भी अपनी जान को जोखिम में डाल कर। समय कितना खराब है। कुछ हो जाएगा उसे तो... जिस जिंदगी को वह इतना प्यार करती थी, उसे खतरे में कैसे डाल सकती है वह ... ?”

बातें करते करते दोनों बहुत दूर निकल आए थे। डायरी का अंतिम पन्ना फड़फड़ाया... हल्की लाइट में कुछ अक्षर चमके- “यहां से कुछ दूर... काम की तलाश... ”

“भाई... गाड़ी हापुड़ हाइवे की तरफ ले चल।“ 

“क्यों ?”

“चल तो सही।“ 

“क्या है वहां ?”

‘चल तो... बताती हूं... ’ हिमांशु ने तेजी से गाड़ी बढाई। मोबाइल बज रहा था। 

रागिनी ने कहा- ‘मत उठा, अब रोली के साथ बात करेंगे।‘ 

हापुड़ हाइवे पर एक नया मौल बना था। गाड़ी सीधे वहीं खड़ी की। दोनों उतर कर गेट की तरफ भागे। गार्ड कुर्सी पर बैठा बैठा ऊंघ रहा था।  

गार्ड को जगाया। मोबाइल स्क्रीन पर रोली की फोटो दिखाई। उसने कुछ बहस की, कुछ पूछताछ की। 

जब गाड़ी वहां से मुड़ी तो सबके चेहरे पर हताशा थी। वहां कुछ पता नहीं चला। रागिनी ने शोएब का फोन कई बार मिलाया, हर बार स्वीच औफ आता रहा। रोली के मिलने का कोई ओर छोर नजर नहीं आ रहा था। रागिनी ने ऐलान किया... हम कल सुबह यहां फिर आएंगे। रात खराब करने के कोई फायदा नहीं। उसे इतनी तो तसल्ली थी कि रोली कहीं महफूज है। बस एक बार शोएब का फोन लग जाए या फोन औन हो जाए। पुलिस की सहायता ले तो रात भर में ही खोजना कोई मुश्किल न होता। पर हिमांशु और रौशन दोनों इस हंगामे के लिए तैयार नहीं थे। पुलिस तक मामला जाते ही सारे रिश्तेदारो में बात फैल जाती। रागिनी समझती थी कि इसका असर रोली की जिंदगी पर भी पड़ेगा और एक और खतरा जो उसे सताने लगा था, हल्के हल्के। हिमानी ने सुबकते हुए बोल ही दिया था-“रोली ने ये क्या किया... पूरे फेसबुक पर भागने के लिए उसे ये मुसलमान लड़का ही मिला था... क्या होगा... भगवान जाने... ”

रागिनी जानती थी कि कल तक रोली नहीं मिलती है तो बवाल तय है। उसके जैसी संतुलित स्त्री भी एक पल के लिए कंपकंपा गई। कुछ भी हो, उसे जी जान लगा कर रोली को खोजना ही होगा। आधी रात को मदद के लिए किसे पुकारे। इस रात की सुबह जरुरी थी। 

और रागिनी को जैसे डूबते को तिनके का सहारा मिलता है वैसे ही सुभाष चौपड़ा की याद आई। ऊंची पहुंच वाला दोस्त। आधी रात को फोन करना उचित नहीं लगा लेकिन मुसीबत में पड़ा इनसान करे तो क्या करे। रागिनी ने फोन मिला दिया। कई बार रिंग जाने के बाद उधर से किसी ने फोन उठा ही लिया। 

लंबी बात हुई। सबने देखा, रागिनी का चेहरा खिल उठा था। जैसे केस सौल्व कर लिया हो। अब सबको सुबह का इंतजार करना था। 

नोएडा के ग्रेट इंडिया मौल के बाहर रोजमर्रा की चहल पहल शुरु हो चुकी थी। 11 बजे मौल खुल जाता है। सुबह सुबह वहां की हवा में सनसनी फैली हुई थी। सुभाष चौपड़ा और रागिनी, बैक साइड एक्जीट गेट के पास खड़े थे। अधछिपे से। मेन गेट के पास हिमानी और रोशन बेचैनी से टहल रहे थे। रात भर की जागी आंखें लाल हो रही थीं। कौलेज-स्कूल के स्टुडेंट आने शुरु हो गए थे। सस्ती टिकट पर सिनेमा देखने का चस्का उन्हें वीक डेज में मल्टीप्लेक्स में ले आता है। सुभाष चोपड़ा की निगाह हर आने जाने वाले पर जमी थी। उन्होंने रोली और शोएब की तस्वीर दिमाग में बिठा ली थी। इनके साथ दो लोग और थे जो लगातार मोबाइल पर कुछ निर्देश ले रहे थे। गेट का गार्ड शायद भरोसे में ले लिया गया था। वह भी इस चहल पहल को ऩजरअंदाज कर अपने काम में जुटा था। अचानक सुभाष चोपड़ा का मोबाइल बजा। रागिनी और सुभाष झपटते हुए अंदर भागे। सिंतबर की हल्की ठंड में चेहरा, माथा ढंके एक दुबली पतली लड़की, एक मंझोले कद के लड़के के साथ चुपचाप कब अंदर दाखिल हो गई थी, किसी ने देखा नहीं था। 

रागिनी ने लड़की को दबोच लिया और सुभाष के साथ के दो लोगो ने उस लड़के को अपनी गिरफ्त में लेकर वहां से दूर चले गए। सबकुछ इतना आनन फानन में हुआ कि आते जाते लोगो को कुछ समझ में नहीं आया। रोली मिल गई थी। शोएब का मोबाइल सुभाष चोपड़ा के कब्जे में था। शोएब का सुबह सुबह मोबाइल औन करना ही उस पर भारी पड़ा था। 

रोली की कलाई भिंचे हुए हिमानी को बस एक ही चिंता खाए जा रही थी आखिर लड़की रात को कहां रह कर आई ? कुछ किया तो नहीं ? रोशन लगातार शोएब को गालियां बकता जा रहा था... ”छोड़ूंगा नहीं साले को... उसके पूरे खानदान को अंदर करवाऊंगा... याद रखेगा कमीना... ।“ 

हिमानी ने रागिनी से कहा... ”पहले डाक्टर के पास चल।“

रोली ने रागिनी मौसी को देखा, वह ड्राइव कर रही थीं। चेहरे पर आंधी तुफान के चिन्ह मौजूद थे और पेशानी पर चिंता की लंबी लकीरें, दूर तक खींची हुई। बदहवास रोली ने मां को देखा, उसे लगा मां की आंखें एक्सरे मशीन में बदल चुकी हैं।
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गीताश्री

पशु योनि के तोरण द्वार - विभूति नारायण राय

कबिरा हम सबकी कहैं 

पशु योनि के तोरण द्वार

विभूति नारायण राय

vibhuti narain rai's editorial of Vartman Sahitya January 2015 issue
यह समझना बड़ा दिलचस्प होगा कि इस घर वापसी का मतलब क्या है? जाति व्यवस्था की जकड़न में फंसा हिंदू समाज अपने बीच के ही अधिसंख्य को मनुष्य मानने से इनकार करता रहा है। ज्यादातर दलित, पिछड़े और आदिवासी मनुष्य के रूप में स्वीकृति पाने की छटपटाहट के चलते मुसलमान या ईसाई बने थे। अब यदि उनमें से कोई घर वापसी करना चाहे तो उसे कौन-सा दर्जा मिलेगा—मनुष्य का या फिर वह वापस उसी पशु योनि में जाएगा जिससे बचने के लिए उसने अपना घर छोड़ा था?
कौमों के इतिहास में कई बार ऐसे निर्णायक क्षण आते हैं जब यह कहा जा सकता है कि उसके बाद वे वही नहीं रह गर्इं जो उसके पहले थीं। जीवन में उथल-पुथल लाने वाले ये क्षण अपने समाजों को आत्मान्वेषण का अवसर देते हैं, कई बार अपनी गलतियों से सीख कर उसे संकट से उबरने का मौका भी देते हैं और बाज वक्त गलतियों से सबक लेने में चूक जाने वाले समाजों को हमने नष्ट होते हुए भी देखा है। 16 दिसंबर, 2014 ने पाकिस्तान को एक ऐसा ही अवसर दिया है। इस दिन सुबह-सुबह आर्मी पब्लिक स्कूल पेशावर के 137 बच्चों को तहरीके-तालिबान पाकिस्तान ने निर्ममता के साथ कत्ल कर दिया। इस नृशंस हत्याकांड से पूरा पाकिस्तान दहल उठा। किसी के लिए भी यह विश्वास करना कठिन था कि जिन तालिबानों को पाकिस्तानी राज्य और फौज ने पैदा किया और पाल-पोस कर बड़ा किया था वे ही अपने आकाओं के बच्चों को इतनी निर्ममता से कत्ल करेंगे। प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को पाकिस्तानी इस्टेबलिशमेंट की इस स्थापना को सार्वजनिक रूप से नकारना पड़ा कि तालिबानों में कुछ अच्छे तालिबान हैं और कुछ बुरे। इस घटना के बाद पाकिस्तान में कई तरह की बहसें चलीं पर जल्दी ही वे पुराने अंतर्विरोधों में खो गर्इं। जहां जनता का एक बड़ा हिस्सा तालिबानों के पक्ष में कोई भी तर्क सुनने के लिए तैयार नहीं था वहीं धार्मिक कठमुल्लों का प्रतिनिधित्व करने वाले कई तरह के बहाने तलाश रहे थे। मैंने बड़ी दिलचस्पी के साथ ये बहसें पढ़ीं और सुनीं। मेरा पहली बार अपालजिस्ट शब्द से परिचय हुआ। हिंदी में इसके लिए कोई सटीक शब्द न ढूंढ़ पाने के कारण मैं अपालजिस्ट ही लिख रहा हूँ। अपालजिस्ट वह व्यक्ति है जो आंख में उंगली डालकर सच दिखलाए जाने पर भी उससे इनकार करता है। जमाते-इस्लामी और जमाते-उलमा-ए-पाकिस्तान जैसी मजहबी पार्टियों को छोड़ भी दिया जाए तो भी पाकिस्तानी सिविल सोसाइटी और मुख्य धारा की राजनैतिक पार्टियों में भी ऐसे लोगों की कमी नहीं है जिन्हें अपालजिस्ट की श्रेणी में रखा जा सकता है। ये हर आतंकी हमले के पीछे अमरीकी, इस्रायली या भारतीय हाथ होने का ढोल पीटने लगते हैं और कई बार तो इनके और आतंकवादियों के बयानों से बड़ी दिलचस्प स्थिति पैदा हो जाती है। मसलन, लाहौर में वाघा सीमा के करीब 2 नवंबर, 2014 को एक आत्मघाती हमला हुआ जिसमें 50 से अधिक लोग मारे गए। पत्रकारिता, राजनीति या सिविल सोसाइटी में बैठे अपालजिस्टों ने फौरन यह शोर मचाना शुरू कर दिया कि इसे भारत या अमेरिका ने कराया है। आतंकी गुटों में भी इसका श्रेय लेने की होड़ लग गई और एक से अधिक आतंकी गुटों ने इसकी जिम्मेदारी ली। एक बड़े आतंकी गुट जमातुल अहरार, जो तहरीके-तालिबान पाकिस्तान का ही एक हिस्सा है, ने छुटभैयों को डपटते हुए चुप कराया और यह घोषित किया कि इतना बड़ा काम तो वही कर सकता है। इस दावे के पक्ष में उसने आत्मघाती हमलावर 25 वर्षीय हनीफुल्ला उर्फ हमजा का चित्र और उसका जीवनवृत्त अपने वेबसाइट पर पोस्ट भी कर दिया। स्वाभाविक था कि अपालजिस्ट दाएं-बाएं झांकने लगें। पेशावर हमले ने तो इस अपालजिस्ट तबके को भी निरुत्तर कर दिया। हर संकट में तालिबान के साथ खड़े इमरान खान जैसे व्यक्ति को कहना पड़ा कि अब इंतहा हो गई है और पूरे पाकिस्तानी समाज को मिल कर दहशतगर्दों के खिलाफ लड़ना चाहिए। पर टीवी. एंकर मुबस्सिर लुकमान, भूतपूर्व तानाशाह परवेज मुशर्रफ और आईएसआई के पूर्व निदेशक जनरल हमीद गुल सरीखे लोगों की अभी भी कमी नहीं है जो पेशावर घटना के पीछे भारतीय और अफगानी हाथ ढूंढ़ रहे हैं। इनमें लेफ्टिनेंट जनरल (रिटायर्ड) हमीद गुल वह व्यक्ति है जिसने तालिबानों को पाल-पोस कर बड़ा किया है। पेशावर की इस घटना को लेकर लोगों में गुस्सा इतना जबरदस्त था कि उन्होंने कुछ अकल्पनीय भी कर डाला। पाकिस्तानी सिविल सोसाइटी के लोग इस्लामाबाद की उस लाल मस्जिद पर चढ़ दौड़े जिसके खिलाफ बोलने की कुछ महीनों पहले कल्पना भी नहीं की जा सकती थी।

 हुआ कुछ ऐसे कि एक पाकिस्तानी चैनल ने लाल मस्जिद के इमाम मौलाना अब्दुल अजीज से पेशावर कांड पर उसकी प्रतिक्रिया पूछी तो न सिर्फ उसने तहरीके-तालिबान पाकिस्तान के हत्यारों की निंदा करने से मना कर दिया बल्कि वारदात में मारे गए मासूम बच्चों को भी शहीद मानने से इनकार कर दिया। इस पर सबसे पहले पाकिस्तान की सिविल सोसाइटी के सिर्फ दो-तीन सदस्यों ने लाल मस्जिद के सामने विरोध स्वरूप मोमबत्तियां जलार्इं और फेसबुक के माध्यम से लोगों को इसमें शरीक होने का न्योता दिया। आश्चर्यजनक रूप से दो-तीन दिनों में ही कई सौ लोगों की भीड़ वहां हर शाम इकट्ठी होने लगी और लाल मस्जिद वालों की उनके खिलाफ हिंसा करने की चेतावनी भी बेमानी हो गई। फलस्वरूप पाकिस्तानी हुक्मरानों को मौलाना अब्दुल अजीज के खिलाफ एफ.आई.आर. दर्ज करानी पड़ी। अब तक मौलाना अजीज की गिरफ़्तारी नहीं हुई है किंतु इस जन उभार का नतीजा यह हुआ कि एक दिन लाल मस्जिद का नायब इमाम अपने तालिबइल्मों के साथ आतंकवाद के खिलाफ सिविल सोसाइटी के आंदोलन में शरीक हुआ और वहां उसने बच्चों पर हमले की मजम्मत की। इस दुर्भाग्यपूर्ण घटना के जो अच्छे-बुरे नतीजे निकले उनमें जहां एक तरफ शुरुआती दौर में धार्मिक कट्टरपंथियों के खिलाफ पाकिस्तानी समाज एकजुट दिखाई दिया, वहीं पर लोकतांत्रिक संस्थाएं कमजोर पड़ीं और सेना की राज्य के मामलात में पेशावर की घटना के बहाने दखलंदाजी बढ़ती हुई दिखी। अभी सब कुछ बहुत तरल अवस्था में है इसलिए आगे जाकर पाकिस्तानी राष्ट्र और समाज का क्या बनेगा, कह पाना मुश्किल है।

 हमें पेशावर के बहाने भारत में बढ़ रही कट्टरता पर भी कुछ देर रुक कर सोचना होगा। 2014 में देश में जो सरकार बनी है उसमें बहुत सारे अंतर्विरोध हैं। एक तरफ तो यह विकास का ऐजंडा साथ लेकर चलना चाहती है, दूसरी तरफ उसके अंदर ही ऐसे तत्वों की कमी नहीं है जो भारत को एक मध्ययुगीन समाज में तबदील करने का प्रयास कर रहे हैं। इतिहास और विज्ञान को लेकर इनकी दृष्टि न सिर्फ अविवेकी और पिछड़ी हुई है वरन उस वैज्ञानिक चेतना को नष्ट करने पर तुली है जो हमने पिछले सौ वर्षों में हासिल की है। पाठ्य-पुस्तकों के पुनर्लेखन की बात हो रही है। इसमें कोई बुराई नहीं है, समय के साथ हमारे ज्ञान क्षेत्र में जो वृद्धि होती है उसके आलोक में पाठ्य-पुस्तकों में समय समय पर कुछ-न-कुछ जोड़ा-घटाया जाना ही चाहिए पर, यह काम एक खास तरह की विद्वता और संवेदनशीलता की मांग करता है। पिछड़े दृष्टिकोण के अधकचरे विद्वान इतना महत्वपूर्ण दायित्व मिलने पर क्या कुछ कर गुजरेंगे इसकी कल्पना मात्र से ही सिहरन होती है। हाल में हिंदुत्व के खाने में बैठे कुछ तथाकथित इतिहासकारों ने अपनी इतिहास दृष्टि का परिचय देने वाले कुछ ऐसे बयान दिए हैं जिनसे मिथक और इतिहास की विभाजक रेखा ही गड्ड-मड्ड हो गई लगती है अचानक पूरे देश में ‘घर वापसी’ की बाढ़-सी आई हुई है।


यह समझना बड़ा दिलचस्प होगा कि इस घर वापसी का मतलब क्या है? जाति व्यवस्था की जकड़न में फंसा हिंदू समाज अपने बीच के ही अधिसंख्य को मनुष्य मानने से इनकार करता रहा है। ज्यादातर दलित, पिछड़े और आदिवासी मनुष्य के रूप में स्वीकृति पाने की छटपटाहट के चलते मुसलमान या ईसाई बने थे। अब यदि उनमें से कोई घर वापसी करना चाहे तो उसे कौन-सा दर्जा मिलेगा—मनुष्य का या फिर वह वापस उसी पशु योनि में जाएगा जिससे बचने के लिए उसने अपना घर छोड़ा था? विश्व हिंदू परिषद के एक वरिष्ठ पदाधिकारी के समक्ष मैंने यह प्रश्न रखा तो पहले वे थोड़ा अचकचाए फिर उन्होंने कहा कि वापसी उसी स्थान पर होगी जहां से वह व्यक्ति गया था। अब कोई उनसे पूछे कि एक बार नरक से निकल जाने के बाद कौन उसमें वापस आना चाहेगा? 4 जनवरी, 2015 के टाइम्स आॅफ इंडिया में 1981 में मीनाक्षीपुरम के 700 दलितों द्वारा इस्लाम कबूल किए जाने की घटना पर एक आलेख छपा है जिसमें सरदार मुहम्मद नाम के एक व्यक्ति का मार्मिक उल्लेख आपका ध्यान आकर्षित कर सकता है। जब तक वह दलित था उसे न तो पक्का मकान बनाने की इजाजत थी और न ही बसों में सीट पर बैठ कर यात्रा करने की। मुसलमान बनते ही उसने पक्का मकान बना लिया और अब सम्मानपूर्वक बस में सीट पर बैठ कर यात्रा भी कर सकता है। घर वापसी के पुरोधाओं को  उसके इस बयान पर ध्यान देना चाहिए कि बावजूद इसके कि धर्म परिवर्तन करने से आरक्षण में मिलने वाली सुविधाओं से वह और उसका परिवार वंचित हो गया है, नई हासिल हुई सामाजिक प्रतिष्ठा के कारण उसे मुसलमान बनने पर कोई अफसोस नहीं है। हम पाठ्य-पुस्तकों में लाख पढ़ाते रहें कि भारत में इस्लाम तलवार और पैसे के बल पर फैला, हकीकत वही है जो मीनाक्षीपुरम के धर्मांतरण की जांच करने वाले सरकारी आयोग के निष्कर्षों से निकली थी। हिंदुत्ववादी संगठनों के इस दुष्प्रचार पर कि इस धर्मांतरण के पीछे पेट्रोडॉलर का हाथ है, आयोग की स्पष्ट राय थी कि मीनाक्षीपुरम में धर्मांतरण मुख्य रूप से सामाजिक अन्यायों और भेदभाव के कारण हुआ है। जब तक जातियां हैं, तब तक यह भेदभाव और अन्याय है और तब तक घर वापसी केवल शोरशराबा भरा नाटक मात्र ही रहेगी। पेशावर से भारत यह सबक ले सकता है कि यदि राज्य कट्टरपंथियों को पाले पोसेगा और उन्हें प्रोत्साहन देगा तो एक दिन वे भस्मासुर की तरह उसके लिए ही खतरा बन जाएंगे।

 संकट के समय ही व्यक्ति की प्रतिबद्धता का पता चलता है। देश में सत्ता परिवर्तन होते ही हमारे तमाम धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवियों को सांप सूंघ गया है। पिछली सरकार के दौरान बढ़- चढ़ कर सांप्रदायिकता के खिलाफ बोलने और लिखने वाले बहुत से सूरमा अब खामोश हैं। कुछ ने तो भगवा खेमे में दोस्ती के सूत्र भी तलाश लिए हैं। हाल ही में रायपुर में एक बड़ा अश्लील साहित्य उत्सव हुआ जिसमें हवाई टिकटों पर हिंदी के लेखक-लेखिकाओं को इकट्ठा किया गया था। वहां क्या कुछ हुआ इसकी फेसबुक और दूसरे सोशल मीडिया पर काफी लानत-मलामत की जा चुकी है, इसलिए उस पर और अधिक लिखना समय और स्थान की बरबादी होगी। मैं पाठकों का ध्यान सिर्फ उस जमावड़े की तरफ आकर्षित करना चाहता हूँ जो इस तमाशे में शरीक हुआ था। यह तो समझ में आता है कि इसमें कलावादी शिरकत कर रहे थे पर, कल तक जो दलित और स्त्री विमर्श का झंडा उठाए घूम रहे थे, उनकी भागीदारी पर क्या कहा जाय। जब तक दिल्ली में कांग्रेस सत्ता में थी और इनाम इकराम का भरोसा था उन्हें छत्तीसगढ़ में आदिवासियों पर जुल्म होता दिखता था पर अब लगता है कि उनके भी अच्छे दिन आ गए हैं। ‘वर्तमान साहित्य’ के इस अंक से हम एक महत्वपूर्ण कालम गोल मेज आरंभ कर रहें हैं जिसमें समय और समाज से जुड़े मुद्दों पर गंभीर समाजशास्त्री भाग लेंगे। यह हमारे इस प्रयास का हिस्सा है कि वर्तमान साहित्य सिर्फ साहित्य की पत्रिका बनकर न रह जाए बल्कि उसमें गंभीर सामाजिक मुद्दों पर भी बहसें हों और उनमें हर पक्ष को अपनी बात कहने का मौका मिले। इस अंक में गोल मेज में भाग लेने वाले उन परिस्थितियों का जायजा ले रहे हैं जिनके चलते पश्चिम बंगाल में लगातार चौंतीस वर्षों से कायम वाममोर्चा सरकार उखाड़ फेंकी गई और ऐसे हालात बन गए जिनमें भाजपा वहां पर एक बड़ी शक्ति बनकर उभरी है। वाममोर्चा का पराभव किसी ग्रीक ट्रेजेडी-सा लगता है। कुछ वर्ष पूर्व तक इतनी बड़ी पराजय की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। कैसे क्रांतिकारी भूमि सुधारों और सत्ता के निचले पायदानों तक लोकतंत्र लाने वाली पार्टी दलालों, हत्यारों और बूथ लुटेरों का संगठित गिरोह बन गई इसकी पड़ताल करना एक तकलीफदेह अनुभव है।

 2014 बीत गया और अपने साथ बहुत सारी खट्टी-मीठी यादें छोड़ गया है। काल ने इस वर्ष हमसे बहुत सारे असाधारण रचनाकर्मी छीन लिए। इस वर्ष दक्षिण अफ्रीका की नोबेल पुरस्कार प्राप्त लेखिका नदीन गार्डिमर, महान अभिनेता रिचर्ड एटनबरो, कालजई किस्सागो गैब्रील गार्सिया मार्खेज, जिंदादिल प्रगतिशील नाट्यकर्मी जोहरा सहगल, दिलचस्प कालम निगार खुशवंत सिंह, महान इतिहासकार विपिन चंद्र, मराठी कविता के सशक्त दलित हस्ताक्षर नामदेव धसाल, ज्ञानपीठ सम्मान प्राप्त हिंदी कथाकार अमरकांत, कन्नड़ के प्रसिद्ध उपन्यासकार यू.आर.अनंतमूर्ति, हिंदी कथाकार मधुकर सिंह, दलित एक्टिविस्ट और संपादक तेज सिंह, बांग्ला के क्रांतिकारी कवि नवारुण भट्टाचार्य, फक्कड़ चिंतक अशोक सेकसरिया और हिंदी कवि नंद चतुर्वेदी हमारा साथ छोड़ कर चले गए। वर्तमान साहित्य परिवार की तरफ से उन्हें भावभीनी श्रद्धांजलि। इसी वर्ष देश के असाधारण चुनाव हुए। कांग्रेस से अखिल भारतीय दल होने का दर्जा और सत्ता दोनों भाजपा ने छीन लिया। अच्छे दिनों का वादा करके आई सरकार को बने हुए छह महीनों से कुछ ही अधिक हुआ है, इसलिए उसके कामकाज पर अभी कुछ टिप्पणी करना उचित नहीं होगा। सिर्फ उसके एक बहुप्रचारित कार्यक्रम के बारे में पाठकों से अपने अनुभव साझा करना चाहता हूँ। दिल्ली की सर्दी से डर कर गोवा भाग आया हूँ और वहीं बैठकर यह संपादकीय लिख रहा हूँ। देशी-विदेशी पर्यटकों से भरे गोवा में प्रधानमंत्री मोदी के स्वच्छ भारत अभियान का कोई असर नहीं है। टूटी-फूटी सड़कें तथा फुटपाथ कूड़े और गंदगी से बजबजा रहे हैं, रास्तों तथा समुद्र तटों पर आवारा कुत्ते और गायें निर्द्वंद्व घूम रही हैं और देश के दूसरे हिस्सों की तरह जगह-जगह फैला पॉलीथिन का ढेर है। नई सरकार और नए साल दोनों को उर्दू का एक शेर समर्पित है।

 यकम जनवरी है नया साल है,
 दिसंबर में पूछेंगे क्या हाल है?