कहानी: हाँ मेरी बिट्टु - हृषीकेश सुलभ

प्रेम के रंग कहाँ पकड़ आते हैं, कभी पानी का तो कभी आग का, कभी आकाश का नीलापन तो कभी गोधुलि... कथाकार 'हृषीकेश सुलभ' को बहुत अच्छी तरह इन रंगों के राज़ पता हैं और न सिर्फ पता है बल्कि वो उन्हें अपनी क़लम में उनके अलग-अलग शेड्स को भरना भी जानते हैं... जिंदा-कहानी की बेमिसाल कहानी  है "हाँ मेरी बिट्टु".

भरत तिवारी
लखनऊ, 14/02/2015


कहानी

हाँ मेरी बिट्टु

हृषीकेश सुलभ




उसके आते ही मेरा कमरा उजास से भर गया। 

‘‘भाई साहब! नमस्ते!......मैं अन्नी हूँ,.... अन्नी।’’

मुझे भौंचक पाकर वह खिलखिला उठी। फिर बहुत सहजता और विश्वास से उसने कहा - ‘‘मैं जानती थी कि मुझे अचानक अपने कमरे में पाकर आप चौंक उठेंगे।’’

मैं हाथ में आईना लिये उसे निहार रहा था। मैं आईना टाँगने के लिए उचित जगह की तलाश में था। कमरे की दीवारों पर कीलें ठोकना मुझे कभी अच्छा नहीं लगा, सो पहले से ठोकी गई कीलों में से चुनाव करने में लगा था कि वह दबे पाँव कमरे में आ गई।

‘‘आप मुझे पहचानते हैं ? पहचानिए तो सही.......मैं कौन हूँ ?’’ अपनी बड़ी-बड़ी आँखों को नचाती हुई वह बिल्कुल मेरे पास आ गई। उसके होठों में मुस्कान छिपी थी। आँखों में शरारत भरी चमक छलक रही थी। 

‘‘नहीं।’’ मैंने गम्भीर आवाज़ में कहा - ‘‘नहीं, हम शायद पहली बार मिल रहे हैं।’’

हालाँकि अब मैं उसे पहचान गया था। उसके पीछे दरवाज़े की ओट में दीवार से सटे खड़े सुनीत पर मेरी नज़र पड़ चुकी थी। मुझे यह समझते देर नहीं लगी कि मुझे चौंकाने के लिए बनी इस योजना में सुनीत आधे मन से शामिल है। 

‘‘मेरा नाम अन्नी है।’’ उसने मुझे चुप पाकर अपनी बात दुहराई।

‘‘मैं सुन चुका हूँ।.....और ?’’

‘‘और ?......और बस मेरा नाम अन्नी है। और क्या ?’’ वह फिर हँसी। हँसते हुए उसके दाँतों की धवल पंक्तियाँ लहरा उठीं, जैसे पंक्तिबद्ध सफ़ेद कबूतर आकाश में लहरा रहे हों।

वह कोई शरारत न कर बैठे, इस भय से उसकी खिलखिलाहट थमने से पहले सुनीत कमरे के भीतर आ गया। उसके चेहरे पर परेशानी के चिह्न थे। उसने कहा - ‘‘सर! यह अन्नी है।......मेरी....’’

‘‘.....पत्नी......बस यही बताने के लिए भीतर चले आए। थोड़ी देर और छिपकर खड़े नहीं रह सकते थे ?.....बुद्धु!’’ अन्नी का चेहरा रूआँसा हो उठा।

‘‘ अन्नी!’’ सुनीत ने झपटती हुई आवाज़ के बल पर उसे चुप कराना चाहा। 

‘‘भाई साहब! देखा आपने ?.......सारा खेल ख़राब कर दिया इसने। मेरी सारी प्लानिंग चौपट हो गई।....एक फ्रेज है न....गुड़ को ख़राब करनेवाला......’’

‘‘सारा गुड़ गोबर कर दिया इसने।’’ मैंने मुहावरा याद दिलाते हुए कहा।

‘‘एक्ज़ैक्ट!.....गुड़ गोबर कर दिया इसने।’’

‘‘नहीं।’’ मैंने मुहावरा दुहराया - ‘‘सारा गुड़ गोबर कर दिया इसने........’’ और हम तीनों खिलखिला उठे।

बीस-बाईस साल की दुबली-पतली, गोरी-चिट्टी.....बड़ी-बड़ी आँखों और चुहल भरी बातों वाली यह लड़की उस दिन बहुत देर तक मेरे कमरे को व्यवस्थित करने में लगी रही। वह किसी तानाशाह की तरह हुक्म देती और मैं और सुनीत दौड़कर उसका हुक्म बजाते। नृत्य सीख रही लड़की की तरह उसने अपना दुपट्टा एक काँधे से होते हुए कमर में लपेट रखा था। चेहरे पर झुक आई लटों को झटकती हुई पूरे कमरे को उसने अपनी चपल गति और बातों की गूँज से भर दिया था।

‘‘तख़्त इधर लगेगा.....यहाँ......क्योंकि यहाँ सुबह की पहली किरण आकर आपको जगा देगी और आप आलसी सुनीत की तरह देर तक सोए नहीं रह पाएँगे।......यहाँ लिखने की मेज ठीक रहेगी। सामने का सब कुछ यहीं से बैठे-बैठे देखा जा सकता है।.....आम.......अमरूद.......और लीची के पेड़।.....इन पेड़ों पर मैना चिडि़यों का झुंड रहता है। पीली चोंच वाली यह चिडि़या बहुत ढीठ होती है,......मेरी तरह। सुग्गे भी आते हैं, पर डरपोक होते हैं,......इस सुनीत की तरह।.....और सबसे बड़ी बात यह है कि सामने का आकाश हमेशा यहाँ से देखा जा सकता है।.....खुला-खुला आकाश देखकर मन में उत्साह भरा रहेगा।.......यहाँ कोई बड़ी सी तस्वीर अच्छी लगेगी।.......भाभीजी की कोई बड़ी सी तस्वीर है आपके पास ?......अच्छा रहेगा.......कमरे में उनकी उपस्थिति से सब कुछ भरा-भरा सा लगेगा।....और भाई साहब,.....यहाँ,....छोटे स्टूल पर.....’’ अन्नी के ऐसे निर्देशों और सुझावों का ताँता लगा हुआ था।

अन्नी के अनुसार सब कुछ तात्कालिक रूप से व्यवस्थित हो गया। हमलोगों ने चाय पी। चाय अन्नी ने ही तैयार किया। चाय पीने के बाद उसने आदेश दिया - ‘‘आज रात का खाना आप हमारे साथ खाएँगे। ठीक नौ बजे सुनीत आकर आपको साथ ले जाएगा।......कहीं घूमने मत निकल जाइएगा।’’

मेरे ऊपर उसकी साधिकार टिप्पणियों से सुनीत परेशान हो रहा था। उसने चिढ़ते हुए कहा - ‘‘अब चलो भी। सर को थोड़ी देर आराम करने दो।......शिफ्ट करने के चक्कर में सारा दिन भाग-दौड़ करते रहे हैं।.....थक गए होंगे।’’

‘‘तुम घर में भी सर-सर क्या रट रहे हो ?.....आफि़स में कहना। घर में भाई साहब नहीं बोल सकते ?’’ उसने सुनीत पर जवाबी हमला किया। मैं बेसाख़्ता हँस पड़ा।

उन दोनों के जाते ही मेरा कमरा ख़ाली-ख़ाली लगने लगा। थोड़ी देर पहले तक उन दोनों की नोक-झोंक,.....अन्नी की खिलखिलाहटें,......चपलता,.......और चिकोटी की तरह मज़ेदार चुभन देनेवाली सुनीत की बातों से यह कमरा लबालब भरा था। अचानक पूरे कमरे में उदासी पसर गई। सोने की तरह दिप-दिप दमकते अन्नी के चेहरे की आभा से भरा यह कमरा उसके जाते ही गुमसुम हो उठा।

मैं बतौर सज़ायाफ़्ता यहाँ तबादले पर आया था। उन दिनों वसंत का मौसम था और लाल फूलों से ढँके सेमल के ऊँचे दरख़्तों से यह क़स्बाई शहर पटा हुआ था। सेमल, कदम्ब और मेरे लिए अपरिचित कई तरह के जंगली वृक्षों की घनी छाँह में बेतरतीब ढंग से छोटे-छोटे महल्ले बसे हुए थे। बीच-बीच में खेत थे। धान और पाट की फसल से भरे हुए खेत। एक बरसाती नदी अपनी कई उपधाराओं के साथ शहर के बीच गुँथी हुई थी। नदी पर एक बड़ा पुल था और उपधाराओं पर छोटी-छोटी लोहे की पुलिया। इस छोटे से शहर के लैंडस्केप ने मेरे मन के भीतर कुंडली मारकर बैठे तबादले के दुःख को विदा कर दिया था। सज़ा देनेवालों के प्रति मेरे मन की कलुषता धुल गई थी। मैं उन्हें इस कृपा के लिए धन्यवाद देने लगा था। हालाँकि यहाँ आने से पहले इस जगह का जो नक्शा मेरे मन में था, उसमें कालाजार के दहशतनाक चित्र थे। मैं खीझ, ऊब और इस्तीफा देने की हद तक निराशा से भरा हुआ था।......इस कमरे में पहुँचते ही मन बदलने लगा। दस दिनों तक एक लॉज में रहा और फिर किराये का यह एक छोटा-सा कमरा मिला। इस कमरे को सुनीत ने ही ढूँढ़कर निकाला था। हमदोनों एक ही दफ़्तर में थे। और अब वह मेरा पड़ोसी भी था। उसकी नई नौकरी थी। वर्ष भर पहले उसने नौकरी ज्वायन की थी और कुछ महीनों पहले ही अन्नी से उसका विवाह हुआ था। ब्ज़ि ज़ि

मृदुभाषी सुनीत के चेहरे से मुस्कान और दृढ़ता के मिले-जुले रंगों की आभा हमेशा फूटती रहती। अन्नी ख़ूब बोलती। चुहल करती। पूरे घर में फिरकी की तरह डोलती फिरती अन्नी और सुनीत अपनी एक टिप्पणी से उसे उलझाकर मुस्कराते रहता। अन्नी किसी नदी की वेगवती धारा की तरह बहती और वह उसे किनारों की तरह बाँधे निश्चल पड़ा रहता। दोनों लगभग एक ही उम्र के थे।

अन्नी को सुबह जागने की आदत थी और सुनीत को नींद खुल जाने के बाद भी देर तक बिस्तर पर अलसाए पड़े रहने की। अन्नी को हरी सब्जि़याँ पसंद थीं और सुनीत को आलू प्रिय था। सुनीत खीर और सेवइयाँ चाव से खाता और अन्नी को बाहर जाकर चाट खाना अच्छा लगता। अन्नी सारा दिन कमरे को व्यवस्थित करती और सुनीत चीज़ें बिखेरता। सुनीत बिना टोके मेरी बातें, मेरे अनुभव, मेरे कि़स्से ध्यान से सुनता और अन्नी बीच-बीच में टोकती, प्रश्न करती,.....अपने तर्क रखती।

हम तीनों शाम को लगभग एक ही समय घर लौटते। मैं और सुनीत दफ़्तर से और अन्नी अपना कम्प्यूटर क्लास ख़त्म कर लौटती। अन्नी नहीं आई होती, तो सुनीत मेरे कमरे में आकर बैठता। अन्नी भागती हुई सीधे मेरे कमरे में आती। हमदोनों थरमस में चाय डालकर उसकी प्रतीक्षा कर रहे होते। अन्नी पहले आ गई होती, तो मैं, सुनीत के साथ उसके घर चाय पीने के लिए रुक जाता। अमूमन हर शाम हम तीनों साथ-साथ चाय पीते। कभी-कभी अन्नी खाने के लिए रोक लेती। मैं घंटों बैठता। गप्पें मारता और फिर रात का खाना खाकर वापस घर लौटता।

खाना परोसते-खिलाते समय अन्नी पूरी तरह बदल जाती थी। वह अचानक उम्र का बहुत बड़ा फ़ासला तय करती और उसका व्यवहार बदल जाता। मनुहार, दबाव और फिर डाँट-फटकार जैसे अस्त्रों के प्रयोग के बल पर ख़ुराक से ज़्यादा खिला देना उसकी फि़तरत में शामिल था। ऐसे अवसरों पर हमदोनों त्राहिमाम् कर उठते। मैं दोनों हाथ जोड़कर कहता - ‘‘दादी अम्मा! अब प्राण लेकर ही मानोगी क्या ?’’

सुनीत टिप्पणी करता - ‘‘यह फ्यूडल टेंपरामेंट है। जिस देश की नव्बे प्रतिशत जनता आधा पेट खाकर गुज़ारा करती हो,....और सैकड़ों लोग जहाँ रोज़ भूख से मरते हों, वहाँ ठूस-ठूस कर खाने से बड़ा अपराध क्या हो सकता है भला!’’

अन्नी उलझती और सुनीत पर जवाबी हमला करती - ‘‘जिस देश के कर्णधार बारह घंटों की नींद लें और जागने के बाद बिस्तर पर चाय पीकर ऊँघते हुए टॉयलेट में प्रवेश करें,.....टॉयलेट से निकलकर टी. वी. देखें,.....और फिर बिना शेव किए दफ़्तर भागें,.....उस देश का तो भगवान ही मालिक है!......क्यों भाई साहब! ऐसे देश को कौन बचाएगा ?’’

‘‘तुम.....सिर्फ़ तुम बचा सकती हो दादी अम्मा।’’ मैं चाटुकारिता करते हुए अन्नी का पक्ष लेता - ‘‘डाल दो इसकी थाली में दो रोटियाँ और......।’’ और फिर गिड़गिड़ाता - ‘‘.....और मेरे प्राण बख़्श दो।....तुम जानती हो......मुझे रात में लिखना-पढ़ना होता है।’’

‘‘हाँ, मालूम है मुझे। इन दिनों ख़ूब लिख-पढ़ रहे हैं आप।....आपके खर्राटों से कमरे की दीवारें दरक गई हैं। मकान मालिक जल्दी ही आपको निकाल बाहर करेगा।’’

‘‘तुमने इतना स्वादिष्ट खाना बनाना किससे सीखा ?’’ मैं उसे फुसलाने की कोशिश करता।

‘‘माँ से।....मेरी भाभी भी बहुत बढि़या खाना बनाती हैं।’’ वह गर्व से भर उठती।

‘‘अन्नी! तुम कम्प्यूटर में बेकार समय बरबाद कर रही हो।......तुम नौकरी कर लो। गूँगे-बहरे बच्चों के स्कूल में टीचर हो जाओ।......चीख़ती रहना.....या फिर किसी होटल में शेफ की नौकरी कर लो’’ सुनीत अपने स्वर में अतिरिक्त मिठास भरते हुए सलाह देता।

‘‘भाई साहब! इसे मना कीजिए......यह मुझे टीज़ कर रहा है।’’ अन्नी मेरे सामने आकर खड़ी हो जाती।

मेरी इच्छा होती कि वह मेरे गले में बाहें डालकर झूल जाती या मेरे वक्ष में मुँह छिपा लेती,......या मैं अपनी दोनों हथेलियों में उसका चेहरा भरकर उसे दुलार करता,......उसका माथा चूमता।


*



मैं छुट्टियों में पहली बार अपने शहर,.......अपने घर जा रहा था। अन्नी और सुनीत मुझे विदा करने रेलवे स्टेशन आए थे। थोड़ी देर पहले वर्षा रुकी थी। सब कुछ धुला-धुला था। पेड़ों की पत्तियाँ,....सड़कें,.....और रेल की पटरियों के किनारे बिछे पत्थर के टुकड़े; सब नहा-धोकर जैसे किसी यात्रा पर जाने को तैयार थे। आसमान अभी साफ़ हो रहा था। बादल के टुकड़े थे, कुछ रूई की तरह सफ़ेद और कुछ राख की तरह मटमैले। सुबह के सूरज से खेलते हुए बादल के टुकड़े। रेलवे प्लेटफ़ार्म पर तफ़रीह करते हुए आर्द्र हवा के झोंके अन्नी के पल्लू और खुले बालों से छेड़-छाड़ कर रहे थे। गहरे जामुनी रंग के शिफ़ॉन की साड़ी में गोरी-चिट्टी अन्नी किसी ताज़ा खिले फूल की तरह चमक रही थी। सुनीत मेरी नज़रें बचाकर अन्नी को मुग्ध-भाव से देखते हुए गम्भीर बने रहने का नाट्य कर रहा था; जैसे पंख फैलाकर बाग़ में उड़ान भरती तितली का पीछा कोई शरारती बच्चा भोलेपन के नाट्य के साथ कर रहा हो। 

‘‘बिट्टु और भाभीजी की तस्वीरें लाना याद रखिएगा।’’ अन्नी दसवीं,.....बीसवीं या फिर सौवीं बार मुझे याद दिला रही थी। 

‘‘नहीं भूलूँगा।’’ मैंने मुस्कराते हुए कहा।

‘‘दोनों की एक साथ कोई बड़ी तस्वीर हो तो ज़रूर लेते आइएगा।......आपके कमरे में बस एक तस्वीर की ही कमी है।’’ अन्नी बोली।

‘‘तुम एक लिस्ट बनाकर दे दो।’’ सुनीत आदतन बीच में टपका।

‘‘थैंक्स फॉर सजे़शन!’’ अन्नी ने निचले होंठ का बायाँ कोना टेढ़ा करते हुए उसे मुँह चिढ़ाया। फिर मुझसे कहा - ‘‘भाई साहब! सब पूरियाँ ख लेंगे।......ज़्यादा नहीं हैं।.....और सामान पर नजार रखेंगे। ऐसा न हो कि आप दिन में ही खर्राटें भरने लगें और सामान लेकर कोई चम्पत...।’’

‘‘हर स्टेशन पर नीचे नहीं उतरेंगे।......अच्छे बच्चों की तरह बिना हिले-डुले बैठे रहेंगे।’’ उसकी बात काटते हुए सुनीत ने व्यंग्य भरा जुमला जड़ दिया।

‘‘तुम चुप नहीं रह सकते ?’’ वह बिफर उठी - ‘‘भाई साहब, इसे समझाकर जाइए।’’

अन्नी ने मेरी ओर ऐसे देखा कि मैं हँस पड़ा। हँसते हुए मैंने सुनीत के लिए आदेश पारित किया - ‘‘सुनीत! मेरी ग़ैरमौजूदगी में तुम अन्नी को तंग नहीं करोगे।.....इसकी हर बात मानोगे।.......और सप्ताह में दो दिन इसे बाहर ले जाकर चाट खिलाओगे।’’

वह झुककर बोला - ‘‘यस सर!’’

और ट्रेन आने की सूचना में हम तीनों की हँसी घुल गई। दो मिनट रुकनेवाली मेल ट्रेन आई। अन्नी ने मेरे पाँव छुए। सुनीत ने दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम किया। मैं ट्रेन में बैठा। ट्रेन खुली। हाथ हिलाते हुए अन्नी ने कहा - ‘‘भाई साहब! जल्दी लौटिएगा।’’

मैं बुदबुदाया - ‘‘हाँ, जल्दी ही आऊँगा।’’

मैं गया था पन्द्रह दिनों की छुट्टी लेकर और लौटा दो माह बाद। लम्बी प्रवास-अवधि गुज़ारकर घर गया था, सो पहला सप्ताह तो यूँ ही निकल गया। प्रवास के दिनों का दुःख-सुख सुनते-सुनाते इतनी भी फ़ुर्सत नहीं मिली कि यार-दोस्तों से मुलाक़ात कर सकूँ। बिट्टु दिन-रात चिपकी रहती। वह सप्ताह भर तक स्कूल नहीं गई। पत्नी ने भी स्कूल से छुट्टी ले ली थी। दूसरा सप्ताह यार-दोस्तों से मिलने-जुलने में बीत गया। फिर पत्नी बीमार पड़ी और अगले पन्द्रह दिन उसकी तिमारदारी में गुज़ारे। इस बीच अन्नी और सुनीत लगातार मेरी बातचीत में उपस्थित रहे।

मेरे तबादले के चलते घर का ढाँचा ही चरमराने लगा था। दो जगह की गृहस्थियों का आर्थिक बोझ, स्कूल की नौकरी के चलते पत्नी से अलग रहने की विवशता,......और पापा को मिस करती बारह साल की बिट्टु का दुःख। दोस्तों के सुझाव पर मैं वापसी सम्भावना तलाशने दिल्ली गया। पन्द्रह दिनों तक अपने मुख्यालय से मंत्रालय तक के चक्कर काटता रहा। माह-डेढ़ माह के भीतर तबादले की जुगत भिड़ाकर वापस लौटा। लगभग पन्द्रह दिन इसी मस्ती में गुज़रे कि ख़ुदा-ख़ुदा करके क़ुफ्ऱ तो टूटा और अब सज़ा के दिन बस ख़त्म ही होने वाले हैं। दो महीनों बाद मैं यह सोचते हुए नौकरी पर वापस लौटा कि दस-पन्द्रह दिन तो देखते-देखते कट जाएँगे और तबादले का आदेश आ जाएगा।



*




ट्रेन से उतरकर अपने कमरे में पहुँचते ही सबसे पहले मैंने सूटकेस खोलकर अन्नी के लिए पत्नी का दिया गिफ़्ट-पैक निकाला। भागते हुए उसके घर पहुँचा।

अन्नी के घर चुप्पी थी। दरवाज़ा खुला था। बाहरवाले कमरे में बैठा सुनीत पहले मुझे देखकर चौंका। फिर उठकर मेरा स्वागत किया। मेरी आँखें अन्नी को ढूँढ़ रही थीं। 

‘‘ अन्नी कहाँ है ?’’

‘‘कब आए आप ?’’

‘‘अभी। बस पहुँचा ही हूँ। अन्नी कहाँ गई ?’’ मैं उतावला हो रहा था।

वह मुस्कराया, एक फीकी मुस्कान। बोला - ‘‘सोई है।’’

‘‘सोई है ?....अभी ?..... अन्नी और इस वक़्त नींद ?’’ मैं आसमान से गिरा। 

‘‘हाँ, थोड़ी तबीयत ख़राब है। जगाता हूँ।’’

‘‘नहीं। छोड़ दो।....क्या हुआ उसे ?’’ मैं परेशान हो उठा।

‘‘कुछ ख़ास नहीं।....बता रहा हूँ।.....पहले चाय बनाकर ले आऊँ ? चाय पीते हुए बातें करते हैं। मैंने भी चाय नहीं पी है।’’ मेरी स्वीकृति की प्रतीक्षा किए बिना उसने उठते हुए कहा - ‘‘इतने दिनों में तो फिर भाभीजी के हाथ की बनी चाय की लत लग चुकी होगी।’’

कमरे में अजीब कि़स्म की असंगता पसरी हुई थी। कोई बहुत प्रिय चीज़ खो जाने की आकुलता की छाया पूरे घर में डोल रही थी। जी किया कि भीतरवाले कमरे में जाकर सोई हुई अन्नी को एक नज़र देख लूँ या फिर झिंझोड़कर जगा दूँ। पर मैंने अपने को रोका। सुनीत चाय लेकर आया। 

हम दोनों चाय पी रहे थे। सुनीत ने बताना शुरु किया - ‘‘चिंता की कोई बात नहीं।......आप तो जानते हैं कि यह लड़की काफ़ी सेन्सिटिव है। बस, सारा प्रॉब्लम इसी सेन्सिटिवनेस को लेकर है।....पिछले दिनों एबॉर्शन हो गया.....।’’

‘‘कब ?’’

‘‘लगभग पन्द्रह-बीस दिन हुए। दोनों अनुभवहीन।....आप थे नहीं। हालाँकि आप गए उन्हीं दिनों,.....आपके जाने से दो-चार दिनों पहले ही हमलोग कन्फ़र्म हुए थे। सोचा था, आपसे बातें करूँगा। अन्नी तो उसी दिन,....जिस दिन कन्फ़र्म हुआ, आपको बताने चहकती हुई दौड़ी जा रही थी। मैंने डाँटा कि किसी बात को तो गम्भीरता से लिया करो,......पर शायद यहीं चूक हो गई मुझसे।...बहरहाल,......जब प्रॉब्लम शुरु हुआ हमलोग डॉक्टर के यहाँ गए।......वहाँ पता चला कि एबॉर्शन का केस है।.......यहाँ तक तो फिर भी सब कुछ ठीक था। सेंटिमेंटल क्राइसिस था और इससे उबरा जा सकता था, पर कम्प्लीकेशंस बढ़ते गए। अल्ट्रासाउंड करवाया, तो पता चला कि ओवरी से जुड़नेवाली ट्यूब में कोई अननेचुरल ग्रोथ है।.....डॉक्टर ने कहा,.....यह कैंसर भी हो सकता है और नहीं भी हो सकता। बस!.....इसको सिर्फ़ इतना ही मालूम हुआ कि कोई ग्रोथ है और इसके दिमाग़ में घुस गया कि कैंसर ही है। दुनिया भर की फ़ालतू हेल्थ मैग्जिन्स पढ़ती रहती है। कहीं पढ़ लिया होगा कि ग्रोथ का मतलब कैंसर होता है।......कल पापा आ रहे हैं। हमलोग दो-तीन दिनों में लखनऊ चले जाएँगे। यहाँ तो इलाज़ की कोई सुविधा है नहीं। वहीं वायप्सी टेस्ट होगा।......फिर देखा जाएगा,.....जैसी डॉक्टर की राय होगी,....लखनऊ या दिल्ली में ऑपरेशन....। अब आप आ गए हैं, तो थोड़ा इत्मीनान महसूस कर रहा हूँ। कई दिनों से तंग कर रही थी कि आपको ख़बर कर दूँ। मैंने किया नहीं।.......कल से एक नया मरज़ शुरु हो गया है। बार-बार पूछ रही है कि अगर मैं मर जाऊँ तो तुम दूसरी शादी करोगे ?......आज सुबह नींद खुली और फिर वही सवाल। मैंने चिढ़कर कह दिया, हाँ करूँगा,.....फिर तो जान देने पर उतारू हो गई। बहुत समझाया, तब जाकर थोड़ी देर पहले सोई है।’’

अपने चेहरे पर एक फीकी मुस्कान चस्पाँ करते हुए सुनीत ने अपनी बात ख़त्म की। मैं उठा और भीतरवाले कमरे के दरवाज़े के पास आकर खड़ा हो गया। अन्नी सो रही थी। थोड़ी देर तक दरवाज़े के पास से उसे निहारने के बाद मैं कमरे के भीतर गया। मुझे लगा, कमरे की एक-एक चीज़ मुझसे शिकायत कर रही है कि मैं इतनी देर से क्यों लौटा ? मैं उसके सिरहाने बैठा। अन्नी ने आँखें खोलकर मुझे देखा। मैंने उसके सिर पर हाथ फेरा। वह बिसूर-बिसूर कर रोने लगी। मैंने उसका सिर उठाकर अपनी गोद में रख लिया। उसके बालों में अँगुलियाँ फिराता रहा। अन्नी रोए जा रही थी। सुनीत दरवाज़े पर निःशब्द खड़ा देख रहा था। थोड़ी देर रो लेने के बाद अपने-आप उसके आँसू थमे। अन्नी ने अपने को सहेजा और उठकर बैठ गई। बोली - ‘‘आपने तो कहा था कि जल्दी आऊँगा।’’

‘‘ अन्नी! एक ज़रूरी काम से दिल्ली जाना पड़ा।’’ मैंने सफ़ाई दी।

‘‘आपको मालूम है कि मुझे कैंसर हो गया है ?.....अगर इस बीच मैं मर जाती तो ?’’ अपनी बड़ी-बड़ी आँखों से नाराज़गी छलकाती हुई अन्नी ने सवाल किया।

‘‘तुम्हें कैंसर नहीं हुआ है और न हो सकता है। तुम मरोगी भी नहीं।’’ ज्योतिषियों की तरह मैंने दृढ़ स्वर में कहा।

‘‘आप डॉक्टर हैं या भगवान ?’’

‘‘पिछले जन्म में डॉक्टर था और इस जन्म में ईश्वर के रूप में मैंने अवतार लिया है।’’ मेरे इस जुमले पर खिलखिला उठी अन्नी। सुनीत भी हँसा। कई दिनों बाद परिचित खिलखिलाहट की ध्वनि सुनकर इस घर की हवा चौंक उठी।

‘‘भाई साहब, आप मुझे बहला रहे हैं।’’ वह फिर उदास होने लगी। बोली - ‘‘कैंसर से कोई बचता है भला!......इस सुनीत की तो लाटरी ही खुल गई है। आज सुबह इसने मुझे धमकी दी है कि मेरे मर जाने के बाद यह दूसरी शादी कर लेगा।......ठीक है। कर लेगा, तो कर ले......पर आप उस नईवाली अन्नी को प्यार मत कीजिएगा।’’

‘‘पगली हो तुम।’’ मैंने डाँटा। फिर कहा - ‘‘चल उठ,....देख तेरे लिए क्या लाया हूँ।’’

सुनीत बाहरवाले कमरे में रखा गिफ़्ट-पैक उठा लाया। उसे खोलकर देखा। उसमें धानी रंग की साड़ी थी। वह चहकी - ‘‘भाई साहब!......यह मेरा फ़ेवरेट कलर है। मैं इसे आज ही पहनूँगी,.....नहीं तो सुनीत इसे नईवाली को पहना देगा।’’

अन्नी की ज़िद पर मैंने फिर चाय पी। वह मेरी पत्नी और बिट्टु के बारे में पूछती रही। बातें करते हुए अन्नी का जी नहीं भर रहा था। फिर शाम को आने का वायदा करके मैं बाहर निकला। सुनीत मेरे साथ बाहर तक आया। अचानक कुछ याद करते हुए उसने कहा - ‘‘सर! आपको बधाई!’’

‘‘किस बात की ?’’ मैंने पूछा।

‘‘फिर से होम टाउन में तबादले के लिए। आपके तबादले का आर्डर कल आया।’’

‘‘अरे! इतनी जल्दी आ गया ?’’ मैं चकित हुआ।

‘‘आपके आने में देर हो रही थी, तभी मैं समझ गया था कि आप ट्रांसफर मैनेज करने में लगे होंगे। अच्छा हुआ। दो जगह बँटकर रहने के दुःख से मुक्ति मिली।.....ठीक है सर, आप निकलिए।......आपको दफ़्तर भी जाना होगा। मैं तो आज छुट्टी पर हूँ।.....शाम को साथ ही खाना खाएँगे।’’

हमदोनों विदा हुए। मेरे आने से पहले तबादले का आदेश पहुँच गया, यह जानकर मुझे ख़ुश होना चाहिए था, पर मन के भीतर कोई उत्साह नहीं था।



*




अन्नी और सुनीत लखनऊ जा रहे थे। सुनीत के पापा लेने आए थे। हम सब रेलवे प्लेटफ़ार्म पर खड़े उसी ट्रेन की प्रतीक्षा कर रहे थे, जिससे मैं अपने शहर गया था। वही दो मिनट रुकनेवाली ट्रेन। यह मेरे शहर को छूती हुई लखनऊ तक जाती थी।

नवम्बर की हल्की ठंड। झिरझिर बहती हवा और पीली धूपवाली सुबह थी। अन्नी उसी धानी रंगवाली साड़ी में थी, जिसे मैं लाया था। उस साड़ी में अन्नी को देखकर मैं कुछ ज़्यादा ही भावुक हो रहा था। मैंने अपने को भटकाने के लिए सुनीत से पूछा - ‘‘ट्रेन लेट तो नहीं है ?....पता कर लिया है ?’’

‘‘पता कर लिया है। लेट नहीं है।’’ सुनीत बोला। एक-एक निमिष हाथी के पाँव की तरह बोझिल हो रहा था। अपने बोझिल पाँव घसीटते हुए जैसे-तैसे सरक रहा था समय। अन्नी और सुनीत के पापा पत्थर की बेंच पर बैठे थे। वह अख़बार के पन्नो पलट रहे थे और अन्नी रेल की पटरियों के उस पार फैले धान के खेतों को निहार रही थी। धीमे चलते समय की चुप्पी को तोड़ने के लिए मैंने दफ़्तर के फालतू प्रसंगों पर चर्चा शुरु की। 

ट्रेन आने की सूचना सुनते ही अन्नी उठी। मेरे पास आई। मेरी बाहें पकड़कर लगभग खींचती हुई मुझे सुनीत से थोड़ी दूरी पर ले गई। बोली - ‘‘भाई साहब, मैं जानती हूँ,.....यह सुनीत झूठ बोल रहा है। मुझे चिढ़ा रहा है कि दूसरी शादी कर लेगा।.....मुझे कैंसर नहीं है।.....मैं ठीक होकर जल्दी ही वापस आऊँगी.....और तब इस सुनीत को इसकी शैतानियों का मज़ा चखाऊँगी। आप थे नहीं, उस बीच इसने मुझे ख़ूब तंग किया है।......आप बिट्टु और भाभीजी को ले आइए। सब यहीं रहेंगे,....एक साथ। बहुत मज़ा आएगा। मैं, बिट्टु और भाभीजी; तीनों मिल जाएँगे। फिर तो आप दोनों की एक नहीं चलेगी। मेरे लौटने से पहले भाभीजी और बिट्टु को ज़रूर ले आइएगा। मैं ऑफिस में फ़ोन करके अपनी वापसी की तारीख़ आपको बता दूँगी।......आप मुझे रिसीव करने आएँगे न ?’’

‘‘हाँ।’’ बमुश्किल मेरे होठ काँपे। मेरी आँखों की पुतलियों के नीचे छिपा समुद्र उमड़ रहा था। मैंने अपनी हथेलियों में अन्नी का चेहरा भर लिया। अन्नी ने मेरी आँखों में झाँका। बोली - ‘‘भाई साहब! आप बच्चों की तरह रोने लगे।....मुझे कुछ हुआ थोड़े ही है!......देखिए तो कितनी अच्छी लग रही है आपकी दी हुई साड़ी!......यही साड़ी पहन वापस लौटूँगी मैं।......ऐसी ही.....हँसिए....।’’

ट्रेन आ चुकी थी। सुनीत और उसके पापा सामान चढ़ा चुके थे। मैं अन्नी को बाहों में सहेजते हुए ट्रेन तक लेकर गया। मेरे पाँव छूकर वह ट्रेन में चढ़ गई। चढ़ते हुए उसने फिर पूछा - ‘‘मुझे रिसीव करने आएँगे न आप ?’’

‘‘हाँ,.....हाँ मेरी बिट्टु....आऊँगा।’’ मैंने रुँधे हुए कंठ से मुस्कराते हुए कहा। 

ट्रेन खुली। विदा के लिए मेरे हिलते हुए हाथ को प्लेटफ़ार्म पर छोड़ अन्नी को लेकर ट्रेन चली गई। जाती हुई ट्रेन की आवाज़ में गुँथे अन्नी के शब्द.....‘‘यही साड़ी पहनकर लौटूँगी मैं..... मुझे रिसीव करने आएँगे न आप ?....’’ किसी लोकगायक के कंठ से फूटे गीत की आस की तरह गूँजते रहे।

अन्नी और सुनीत चले गए। मेरे तबादले का आदेश दफ़्तर में मेरी प्रतीक्षा कर रहा था और मैं अन्नी की वापसी पर उसे रिसीव करने का वचन साथ लिये लौट रहा था। 
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हृषीकेष सुलभ

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