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गालिब छुटी शराब: एक लेखक का जीवन दर्शन - सीमा शर्मा

रवीन्द्र कालिया जी की कालजयी कृति गालिब छुटी शराब की एक बेहतर समीक्षा करती डॉ० सीमा शर्मा

गालिब छुटी शराब: एक लेखक का जीवन दर्शन

सीमा शर्मा


संस्मरण हिन्दी गद्य साहित्य की आकर्षक सुरूचिकर एवं आधुनिकतम विधा है। जीवन अभिव्यक्ति की यह विधा संस्मरण पर आधारित है या कहा जाए ‘स्व’ की स्मृतियों का शब्दांकन है। ‘‘संस्मरणकार अपनी स्मृति के धरातल पर अपने व्यक्तिगत जीवन में आए लोगों के जीवन के विशिष्ट पहलू कथात्मक शैली में रेखांकित करता है। हर व्यक्ति अपने जीवन में अनेक व्यक्तियों के सम्पर्क में आता है। सामान्य व्यक्ति उन क्षणों को विस्मृत कर देता है, किन्तु संवेदनशील व्यक्ति इन स्मृतियों को अपने मनःपटल पर अंकित कर लेता है। इन क्षणों की स्मृति जब कभी उसे आकुल कर देती है तभी संस्मरण साहित्य की सृष्टि होती है।’’ संस्मरण में स्मृति मूल तत्व है। समय बीत जाने पर सभी छोटी-बड़ी बातें स्मृति का अंग बन जाती हैं। संस्मरणकार अपनी इन्हीं स्मृतियों का शब्दांकन करता है।

डॉ० सीमा शर्मा

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ईमेल: sseema561@gmail.com

‘गालिब छुटी शराब’ रवीन्द्र कालिया जी का आत्मकथात्मक संस्मरण है। इसका प्रकाशन सन् 2000 में हुआ, तब से इस पुस्तक के कई संस्करण आ चुके हैं। यह तथ्य इस पुस्तक की ख्याति को सिद्ध करता है। ‘गालिब छुटी शराब’ में रवीन्द्र कालिया ‘स्व’ के साथ-साथ पूरे साहित्य जगत से पाठक को बड़े सुरूचिपूर्ण ढंग से परिचित कराते हैं। इस पुस्तक में ऐसी सामर्थ्य है कि जितनी बार पढ़ो, उतनी ही नई और रूचिकर लगती है। कोई पृष्ठ खोलो, कोई भी पंक्ति पढ़ो, पाठक को बांधकर रखने की ऐसी सामर्थ्य है इस पुस्तक में, जो बहुत कम देखने को मिलती है।

‘गालिब छुटी शराब’ में लेखक अपने साथ कोई सहानुभूति नहीं दिखाते। उन्होंने ‘स्व’ का चित्रण ऐसी तटस्थता के साथ किया है जैसे किसी और के विषय में लिख रहे हों। वे ‘स्व’ की कमजोरियों पर हँसने का साहस रखते हैं पर कहीं भी महिमामण्डन नहीं करते, किसी के लिए भी कितना मुश्किल है ऐसा करना? पहले ही पेज पर इसका अच्छा उदाहरण देखने को मिल जाता है’ ‘‘अपनी सुविधा के लिए मैंने एक मुहावरा भी गढ़ लिया था- “शराबी दो तरह के होते हैंः एक खाते-पीते और दूसरे पीते-पीते। मैं खाता पीता नहीं पीता-पीता शख्त था।’’ उर्दू कथाकार शमोएल अहमद की कहानी ‘सृंगारदान’ के बहाने खुद की जीवन शैली पर लेखक का तीखा व्यंग्य- ‘‘सिंगारदान की तर्ज पर हवेली का अतीत मेरी जीवन शैली को भी प्रभावित कर रहा था। मैं दिन भर बिना नहाए-धोए किसी-न-किसी काम में मशरूफ रहता और तवायफों की तरह शाम को स्नान करता और सूरज गुरूब होते ही सागरोमीना लेकर बैठ जाता। रानीमंडी में शाम को स्नान करने की ऐसी बेहूदा आदत पड़ी जो आज तक कायम है। सूरज नदी में डूब जाता है और हम गिलास में।’’ (पृ० 163)

‘गालिब छुटी शराब’ में शराब भी एक महत्वपूर्ण पात्र है, और इसके कितने रूप देखने को मिलते हैं। शराब ने लेखक के जीवन में कई तरह की भूमिकाएँ निभाई कभी वह स्फूर्ति प्रदान करने वाली चीज़ थी, कभी खाने से भी ज्यादा जरूरी तो कभी सबसे ज्यादा जरूरी लेखक के शब्दों में- ‘‘कम पीने में यकीन नहीं था। कोशिश यह थी कि भविष्य में और अच्छी ब्रांड नसीब हो। शराब के मामले में कभी मोहताज नहीं रहना चाहता था, न कभी रहा। इसके लिए मैं कितना भी श्रम कर सकता था। भविष्य में रोटी नहीं अच्छी शराब की चिन्ता थी।’’ (पृ० 9) लेकिन यही शराब मौत के दरवाजे तक ले जाती है। अगर जीना है तो आदतें बदलना जरूरी है। डॉक्टर ने साफ शब्दों में आगाह किया- ‘‘जिन्दगी या मौत में से आपको एक का चुनाव करना होगा।’’ निःसन्देह लेखक ने जीवन का चुनाव किया और पूरी ईमानदारी से किया। इस पूरी पुस्तक में अपनी दुर्दशा के लिए किसी और पर दोषारोपण नहीं किया, न ही स्वयं की किसी गलती को सही ठहराने का प्रयास, शराब को भी नहीं- ‘‘शराबी बीमार होता है तो शराब की बहुत फज़ीहत होती है। मैं बीमार पड़ा तो शराब मुफ्त में बदनाम होने लगी। मुझे इस बात की बहुत पीड़ा होती थी, कुछ-कुछ वैसी, जो आपके प्रेम में पड़ने पर आपकी माशूका की होती है, जब लोग उसे आवारा समझने लगते हों। कुछ लोग प्रेम को चरित्र का दोष मान लेते हैं। शराब तो इतनी बदनाम हो चुकी थी कि शराबी को मलेरिया भी हो जाए तो लोग सारा दोष शराब के मत्थे मढ़ देंगे।’’ (पृ० 259)

लेखक ने इस पुस्तक में अपनी सामान्य मानवीय कमजोरियों पर खुलकर लिखा है। दुनिया में शायद ही कोई ऐसा हो जो कमियों से मुक्त हो; पर अपनी सच्चाई को इस साहस के साथ लिख देने का कार्य तो विरले ही कर पाते हैं- ‘‘यह सोचकर आज भी ग्लानि से आकण्ठ डूब जाता हूँ, माँ अपनी दवा के लिए पैसे देतीं तो मैं निस्संकोच ले लेता। वक्त जरूरत उनके हिसाब में गड़बड़ी भी कर लेता। कहना गलत न होगा, बड़ी तेजी से मेरा नैतिक पतन हो रहा था।’’ (पृ० 20) एक अन्य उदाहरण ‘‘मेरी माँ की चिता धू-धूकर जल रही थी, तो मेरी प्रबल इच्छा हुई कि मैं जेब से सिगरेट का नया पैकेट जलाकर राख कर दूँ, जो मैंने शमशाम घाट जाने से जरा पहले मंगवाया था। सिगरेट मंगवाते समय भी मुझे बहुत ग्लानि और अपराधबोध हुआ था। अवसाद के उन मर्मान्तक क्षणों में भी मैं अपनी क्षुद्रताओं और लालसाओं से ऊपर नहीं उठ पाया था।’’ (पृ० 280) ‘‘शमशाम से दो ही रास्ते फूटते हैं, एक अध्यात्म की ओर हरिद्वार जाता है और दूसरा मयखाने की तरफ। मैं दूसरे रास्ते का पथिक रहा हूँ।’’ (पृ० 290) ऐसी महत्वपूर्ण व साहसी स्वीकारोक्तियों से भरी पड़ी है यह पुस्तक।

अपना पूरा जीवन साहित्य को समर्पित करने वाले रवीन्द्र कालिया जी ने कितने साहित्यिक आन्दोलन देखे, कई पीढ़ियों के लेखकों और उनकी रचनाओं को बहुत करीब से देखा। साहित्यिक परिदृश्य व साहित्यकारों में व्याप्त अन्तर्विरोधों और दोगलेपन को देखा। बहुत बड़े-बड़े सात्यिकार कैसे गुटबाजी में शामिल रहते हैं, दूसरे लेखक को नीचा दिखाने में कोई कसर नहीं छोड़ते। अग्रज कथाकार अपने अनुजों से कितनी ईर्ष्या रखते हैं। सामान्य पाठक के लिए तो यह कौतूहल का विषय है। सामान्य जन के लिए तो साहित्यकार बड़े सम्माननीय और अनुकरणीय होते हैं। जब उसे अपने अनुकरणीयों के इस व्यवहार का पता चलता है तो वह खिन्न तो होता है पर कम से कम सच्चाई जान तो पाता है। ‘गालिब छुटी शराब’ एक ऐसी पुस्तक है, जिस पर अधिकतर प्रतिष्ठित साहित्यकारों ने अपनी टिप्पणी की है। ज्ञानरंजन जी ने ‘गालिब छुटी शराब’ पर बड़ी सटीक टिप्पणी की है- ‘‘हिन्दी में इस तरह से लिखा नहीं गया। हिन्दी में लेखक आमतौर पर नैतिक भयों और प्रतिष्ठापन के आग्रहों से भरा है। हिन्दी में बड़े और दमदार लेखक भी यह नहीं कर सके। तुम बहादुर और हमारी पीढ़ी के सर्वाधिक चमकदार लेखक हो। इस किताब ने तुम्हें हम सब से ऊपर कर दिया है। हिन्दी में यह अप्रतिम उदाहरण है। ’’दिस बुक इज ग्रेट सक्सेस’’ यहां पर कमलेश्वर जी द्वारा की गई अभिव्यक्ति भी दर्शनीय है- ‘‘एक ऐसे समय में, जो आदमी के विरूद्ध जा रहा है, जब आदर्शवाद, राजनेताओं, मसीहाओं पर से विश्वास उठना शुरू हो जाए, जब चीजें बेहूदी दिखाई पड़ने लगे जब संवाद का शालीन सिरा ही न मिले- ऐसे समय में लेखकों ने खुद का उधेड़ना शुरू किया। पहले अपने को तो पहचान लो। देखो तुम भी वैसे तो नहीं हो। रवीन्द्र कालिया की ‘गालिब की छुटी शराब’ कितनी मूल्यवान पुस्तक है।’’

इस पुस्तक पर बड़े-बड़े साहित्यकारों ने अपने-अपने ढंग से प्रतिक्रियाएँ दी हैं, साथ इस पुस्तक में भी लगभग सभी प्रतिष्ठित लेखकों ने स्थान पाया है और पूरा का पूरा साहित्यिक परिदृश्य पूर्ण जीवन्तता के साथ देखने को मिलता है। अमरकान्त जी की जीवनशैली को उकेरती ये पंक्तियाँ- ‘‘उन दिनों अमरकान्त और शेखर जोशी भी करोलबाग कॉलोनी में रहते थे। सुबह चाय पिलाने दूधनाथ सिंह हम लोगों को अमरकान्त जी के यहाँ ले गये। अमरकान्त जी बाबा आदम के जमाने की कुर्सी पर बैठे थे। वह अत्यन्त आत्मीयता से मिले। उनके यहाँ चाय बनने में बहुत देर लगी हम लोगों ने उनके यहाँ काफी समय बिताया। दीन-दुनिया से दूर छल-कपट रहित एक निहायत निश्छल और सरल व्यक्तित्व था अमरकान्त का। हिन्दी कहानी में जितना बड़ा उनका योगदान था, उसके प्रति वह एकदम निरपेक्ष थे, जैसे उन्हें मालूम ही न हो कि वह हिन्दी के एक दिग्गज रचनाकार हैं। हाड़माँस का ऐसा निरभिमानी कथाकार फिर दुबारा कोई नहीं मिला।’’ (पृ० 96) अमरकान्त जी से भिन्न व्यक्तित्व अश्क जी का चित्रण- ‘‘अमरकान्त जी के घर के ठीक विपरीत अश्क जी के यहाँ का माहौल था। गर्मागर्म पकौड़े और उससे भी गर्म-गर्म बहस। कहानी को लेकर ऐसी उत्तेजना, जैसे जीवन-मरण का सवाल हो। उनके घर पर उत्सव का माहौल था, जैसे अभी-अभी हिन्दी कहानी की बारात उठने वाली हो। नये कथाकार अग्रज पीढ़ी को धकेलकर आगे आ गए थे, उससे अश्क जी आहत थे, आहत ही नहीं ईर्ष्यालु भी थे। राकेश-कमलेश्वर से उनकी नौक-झौंक चलती रही। एक तरफ वह परिमल के कथाविरोधी रवैये के खिलाफ थे, दूसरी ओर नयी कहानी या नयापन उनके गले से नीचे नहीं उतर रहा था। उनकी नजर में उनकी अपनी कहानियाँ ही नहीं  यशपाल, जैनेन्द्र और अज्ञेय की कहानियाँ भी नयी कहानी की संवेदना से कहीं आगे की कहानियाँ हैं। हम लोगों यानि विमल, परेश और मेरे साथ अश्क जी की अकहानी को लेकर लम्बी बहस हुई। यह भी लग रहा था कि वह नए कथाकारों को चुनौती देने के लिए हमारी पीढ़ी को अपने सीमा सुरक्षा बल की तरह पेश करना चाहते थे। हम लोग नए बटुकों की तरह पूरा परिदृश्य समझने की कोशिश कर रहे थे।’’ (पृ० 97)

कालिया जी स्वयं को एक कथाकार मानते हैं और ‘कथा’ को अपने जीवन का अभिन्न अंग मानते हैं- ‘‘मैंने जीवन में जो कुछ भी पाया कथा लेखन के कारण। जितना भी भारत देखा, कहानी ने दिखा दिया। जिन्दगी में शादी से लेकर नौकरियाँ, छोकरियाँ तक, गर्ज़ यह कि जो कुछ भी मिला, कहानी के माध्यम से ही। कहानी ओढ़ना-बिछौना होती गई। कहानी ने नौकरियाँ दिलवाई तो छुड़वाई भी। कहानी ने ही प्रेस के कारोबार में झोंक दिया। कहानी के कारण घाट-घाट का पानी पीने का ही नहीं घाट-घाट का दारू पीने का भी अवसर मिला।’’ (पृ० 98) क्योंकि कालिया जी का कहानी से अधिक लगाव रहा है इसलिए कहानी से जुड़े विभिन्न आन्दोलन और बहसों पर भी इस पुस्तक में विस्तार से प्रकाश डाला गया है। यथा- ‘‘कहानी के केन्द्रीय विधा के रूप में स्थापित हो जाने से ‘परिमल’ के खेमें में बहुत खलबली थी। कहानी समय के मुहावरे, वास्तविकता के प्रामाणिक अंकन तथा सामाजिक परिवर्तन के संक्रमण की अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम बन गई थी। ‘परिमल’ काव्य की ऐंद्रजालिक और व्यक्तिवादी रोमानी बौद्धिकता को कहानी पर आरोपित करके कुछ कवि कहानीकारों- कुंवरनारायण, रघुवीर सहाय, सर्वेश्वर तथा कुछ कहानीकार कवियों- निर्मल वर्मा आदि को नए कहानीकार के रूप में प्रतिष्ठित कराने के प्रयत्न में था। आज मुझे लगता है कि यह अकारण नहीं कि ‘परिमल’ एक भी सफल कथाकार उत्पन्न नहीं कर पाया। श्रीलाल शुक्ल अपवाद हैं जबकि वे अपने आप को परिमिलयन नहीं मानते। ‘परिमल’ की पूरी मानसिकता व्यक्तिवादी थी, जो कहानी को समाजोन्मुख धारा में एक नगण्य सा रूप बनकर रह गई थी।’’ (पृ० 95) नई कहानी आन्दोलन के सम्बन्ध में कालिया की यह टिप्पणी भी दर्शनीय है- ‘‘राकेश, कमलेश्वर और यादव नई कहानी के राजकुमार थे, जिन्होंने कहानी के शहंशाहों को धूल चटाकर सिंहासन पर कब्जा कर लिया। लग रहा था कि वे किसी बिजनेस इंस्टीट्यूट से मार्केटिंग का डिप्लोमा लेकर कथाक्षेत्र में उतरे हैं।’’ (पृ० 104)

साहित्यजगत में कितनी ईर्ष्या भावना, दोगलापन, स्वार्थ-लोलुपता, अहम् की भावना और स्वयं को श्रेष्ठ और दूसरे को नीचा दिखाने की कोशिश होती है। वार और पलटवार दोनों ही देखने को मिलते हैं। तब ऐसा लगता है कि व्यवसाय कोई भी हो, इन्सान की अपनी दुर्बलताएँ रहती ही हैं- ‘‘भैरव जी ने साठोत्तरी पीढ़ी के कथाकारों को हरामियों की पीढ़ी कह दिया था और वह (दूधनाथ सिंह) इस बात से उत्तेजित था। वह गुस्से में पत्ते की तरह काँप रहा था। उसने बताया कि अभी अमरकान्त, शेखर जोशी और मार्कण्येय के साथ टहलते हुए भैरव प्रसाद गुप्त ने यह घोषणा की है।’’ (पृ० 219) इसका बदला भी लिया गया- ‘‘कहानी के स्तालिन को जगाओ। कुछ हरामी उनसे मिलने आए हैं’’ इस तरह अपना विरोध जताकर भैरव गुप्त ने भी अपने अपमान को कभी नहीं भुलाया ये बात अलग थी कि शुरूआत उन्होंने ही की थी। बदले की भावना में कहे गये शब्द- ‘‘देखो जी यह है रवीन्द्र कालिया। मैं जब तक सम्पादक रहा, इनकी एक कहानी न छपने दी। (पृ० 221) इतने बड़े लेखकों और सम्पादकों के बीच चलने वाली साहित्यिक बहसें आश्चर्यजनक तो लगती हैं आहत भी करती हैं पर यह सच है।
‘गालिब छुटी शराब’ में रवीन्द्र कालिया जी द्वारा लिया गया नरेश मेहता का साक्षात्कार और अनिता गोपेश द्वारा लिखा गया संस्मरण भी बहुत महत्वपूर्ण है। अमरकान्त जी ने रवीन्द्र कालिया जी पर जो संस्मरण लिखा ‘रवीन्द्रः हँसना ही जीवन है’ में ‘गालिब छुटी शराब’ पर बहुत महत्वपूर्ण विचार व्यक्त किए हैं- ‘गालिब छुटी शराब’ करीब उपायहीन आत्मविनाश के कगार पर खड़े एक ऐसे प्रतिभाशाली व्यक्ति की कहानी है, जो अद्भुत जिजीविषा एवं रचनात्मक इच्छाशक्ति से कर्म और उम्मीद की दुनिया में वापस आता है। आप सचमुच नहीं जानते कि यह चमत्कार कैसे हो जाता है। दूसरी खूबी इस रचना की यह है कि आज के समाज (सिर्फ लेखक ही नहीं) के अनगिनत लोगों की कथा है। तीसरी बात कि यह त्रासद विनाशकारी ज्वार में बुरी तरह फंसे ऐसे व्यक्ति के उबरने की ऐसी कथा है यह जो दार्शनिक हास्य व्यंग्य की शैली में कही गई है।’’ (लमही जुलाई-सितम्बर, 2009, पृ० 20)

इस पुस्तक में कालिया जी कहीं भी स्वयं को विशिष्ट या महान साबित करने की कोशिश नहीं करते वरन् सामान्य से भी सामान्य व्यक्ति के रूप में अपना चित्रण करते हैं, जबकि उनके व्यक्तित्व से कौन परिचित नहीं है, साहित्यकार के रूप में या सम्पादक के रूप में और सबसे बढ़कर एक अच्छे इंसान के रूप में। कालिया जी के शब्दों में ‘‘अपने बारे में भी मेरी राय कभी उतनी अच्छी न रही थी। जिन्दगी में इतनी बार शिकस्त का सामना हुआ था कि कभी अपने को मुकद्दर का सिकन्दर नहीं समझ पाया, हमेशा अपने आपको मुकद्दर का पोरस ही पाया। मुझे हर दूसरा शख्स सिकन्दर नजर आता था।’’

इस कृति को साहित्य से जुड़े लोगों ने जितना सराहा है उतना ही सामान्य पाठक ने भी परन्तु जब एक सामान्य पाठक किसी साहित्यिक कृति को पढ़ता है तो वह, उस कृति के साहित्यिक महत्व को नहीं समझता वह तो उसे व्यवहारिक दृष्टि से पड़ता है, उसे अपने जीवन से जोड़कर देखता है। इसके प्रमाण के रूप में ‘प्रमोद उपाध्याय’ के पत्र को देखा जा सकता है- ‘‘पहले ही पत्र ने मुझे चौंका दिया। वह पत्र एल०आई०जी० 20, मुखर्जी नगर, देवास-455001 से प्रमोद उपाध्याय का था। उन्होंने लिखा- आपका संस्करण ‘गालिब छुटी शराब’ जो पढ़ा तो हतप्रभ रह गया और उसी दिन से तय कर लिया कि अब शराब नहीं पीऊंगा। आज भी नहीं पी। बाकायदा खाना खा रहा हूँ। बचपन में हाईस्कूल कक्षा में पढ़ा था साहित्य समाज का दर्पण होता है या स$हित की भावना। इतना सब कुछ और बहुत कुछ पढ़ने के बाद वह निबन्ध आज ताज़ा और हकीकत की शक्ल लेकर खड़ा है। यदि संस्मरण नहीं पढ़ता तो प्रेरित नहीं होता। जबकि दुनिया भर (मेरी अपनी) के सभी साथियों, रिश्तेदारों, कुटुम्बियों ने सबकुछ समझाने की कुचेष्टाएँ तीस सालों से की असफल। बहरहाल आपका यह संस्करण कब तक उपयोगी रहता है, हम दोनों (मैं और मेरी पत्नी) देखते हैं। कोशिश तो रहेगी ही। आज परीक्षा का आठवां दिन है- प्रमोद। पत्र पढ़कर मैं चमत्कृत हुआ।’’ (लमही, पृ० 17, जुलाई-सितम्बर 2009)। यह तो केवल एक उदाहरण है। ऐसे कितने पाठक होंगे जिन्हें साहित्य प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से प्रभावित करता है। साहित्य का उद्देश्य केवल मनोरंजन नहीं हो सकता, वह तो मनोरंजन के साथ ही कई अन्य उद्देश्य छुपाए रहता है। ‘गालिब छुटी शराब’ भी एक ऐसी कृति है, जिसे पढ़ते हुए हर वर्ग के पाठक को अलग-अलग अनुभूति होती है।

‘संस्मरण लिखते समय एक खतरा हमेशा बना रहता है कि किसी मित्र पर लिखते समय आप अपने आप पर ज्यादा लिख जाते हैं, मित्र पर कम।’ (पृ० 277) पर इस कृति में हर जगह एक सन्तुलन है, कहीं भी कम न ज्यादा। इस कृति में ऐसी सामर्थ्य है कि इसका साहित्यिक महत्व हमेशा बना रहेगा। ‘गालिब छुटी शराब’ हिन्दी साहित्य की एक महत्वपूर्ण पुस्तक है। इसकी भाषा भी इस कृति की विशेषता है- सजीव एवं चित्रात्मक। बात कितनी भी पुरानी हो परन्तु पूरी जीवन्तता के साथ पाठक के सामने आती है। भाषा सहज और हर वर्ग के पाठक के लिए ग्राह्य है, यही कारण है कि पाठक पूर्ण रूप से लेखक की भावनाओं के साथ जुड़ता चला जाता है। ‘गालिब छुटी शराब’ अपनी विशेषताओं के कारण एक ऐसी पुस्तक बन गई है, जिसका साहित्यिक महत्व कभी समाप्त नहीं हो सकता।
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