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स्त्री संघर्ष की दास्तान - 'रंग राची’ : शशांक मिश्र | Book Review of Sudhakar Adeeb's 'Rang Raachi' by Shashank Mishra


‘रंग राची’ के बहाने स्त्री संघर्ष की दास्तां

~ शशांक मिश्र


भारतीय परिप्रेक्ष्य में ऐतिहासिक और साहित्यिक रूप से मध्यकाल का बहुत महत्व है। यह वही समय है जब साहित्य में भक्तिकाल के बहाने पूरे भारतीय समाज में एक नये मूल्य स्थापित हो रहे थे, जिसमें मनुष्य को मनुष्य के रूप में तलाशा जा रहा था, वहीं इतिहास में तमाम छोटे-छोटे राजघरानों को विजित कर मुगल साम्राज्य की स्थापना हो रही थी। यह दोनों ही घटनायें भारतीय समाज के चाल-चरित्र को बदलने में अहम भूमिका अदा कर रही थीं। साहित्य में जहाँ भक्तों/सन्तों ने किसी आलम्बन के आवरण में सही, अपनी बात कर रहे थे, वहीं मुगलों के आने से एक ऐसे कामगार वर्ग का उत्थान हो रहा था, जो आर्थिक रूप से सक्षम था और साथ ही निम्न जातियों से सम्बद्ध भी था। इसी परिदृश्य में भक्तिकाल में एक आवाज़ मीराबाई की भी थी। जिसे विभिन्न विद्वानों ने स्त्री-अस्मिता के बड़े पैरोकार के रूप में पहचाना। यह पहचान कोई झूठी पहचान नहीं थी। जहाँ मध्यकाल पूरी तरह से सामन्ती ताकतों के गिरफ्त में था, वहीं एक स्त्री पूरी मुखरता के साथ उसका प्रतिरोध कर रही थी। सामन्ती समाज में कुलीन जातियों के समक्ष निम्न जातियों के पुरुष भी आवाज़ नहीं उठा पाते थे, वहाँ मीरा ने आवाज़ ही नहीं उठाई बल्कि ‘‘सिसोद्यौ रूठ्यो तो म्हारो कांई कर लेसी’’ की घोषणा कर दी। इसी मीरा पर विभिन्न आलोचकों, विद्वानों, साहित्यकारों ने अपने-अपने दृष्टिकोण से विचार किया है। इसी क्रम में हालिया प्रकाशित उपन्यास सुधाकर अदीब कृत ‘रंग राची’ भी सम्मिलित है। यह उपन्यास मीरा के विभिन्न पदों पर आधारित 18 उपशीर्षकों में विभाजित है। जो मीरा के विभिन्न आयामों को स्पष्ट करता है। यह उपन्यास मीरा के लोक प्रचलित एवं ऐतिहासिक दोनों कहानी के संगम प्रयास पर आधारित है। मीरा का विवाह चित्तौड़ के युवराज भोजराज के साथ हुआ और मीरा ने अल्प आयु में वैधव्य को प्राप्त किया, जिसके पश्चात खुले आम मीरा ने घोषणा कर दी ‘‘मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरा न कोई’’ यह स्त्री के मुक्ति महाकांक्षा की स्पष्ट घोषणा भी थी, मेरा मन जिसे चाहे, उसे में वरण करूँ, इसके बीच कोई दूसरा नहीं की भी अस्पष्ट आवाज़ सुनाई देती है।

इसी तरह की आवाज़ों को सुनने का एक वृहद प्रयास सुधाकर अदीब कृत ‘रंग राची’ में किया गया है। इस उपन्यास में प्रतिरोध एवं संघर्षों की एक लम्बी दास्तां को व्यापक एवं ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखा गया है। मीरा ‘‘एक ऐसी स्त्री थी जो कि एक राजकुल में जन्मीं और दूसरे राजकुल में ब्याही गयीं। उन्होंने सामन्ती व्यवस्था का वैभव और तिरस्कार दोनों भोगा, सहा और उसे तृण सम त्याग दिया।’’ मीरा ने इसी सामन्ती और शोषक व्यवस्था का निरन्तर प्रतिरोध किया। पुरुष छोटा हो या बड़ा कभी किसी स्त्री की अधीनता या डाँट-फटकार सुनना कभी पसन्द नहीं, क्योंकि सदैव उसका पुरुष गर्व जग जाता है, जब कि स्त्रियों को सदैव पैर की जूती बनाये रखना पसन्द करते हैं। राज कुँवर विक्रमादित्य द्वारा साधू-सन्तों को परेशान करने पर अपने भाभी सा मीरा से हल्की से डाँट खाने पर अपने को कुम्भा महल में बन्द कर लेते हैं। ‘‘मीराँ भाभी ने कैसे उस बाहरी आदमी के सामने मुझे डाँटा? कहाँ वह भिखारी? और कहाँ मैं राजकुंवर?..’’ जैसी सामन्ती सोच रखते है। इस पूरे प्रकरण में अन्ततः मीरा दासी चम्पा से स्पष्ट कह देती हैं, ‘‘कह दिया न ...... नहीं आ सकती। जो करना हो कर लें।’’
उपन्यास - रंग राची,
लेखक - सुधाकर अदीब
प्रकाशक - लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद
पृष्ठ सं.- 448,  सं. 2015
मूल्य - रु. 600/- सजिल्द


आगे मीरा गिरिधर गोपाल से अपनी मनोदशा को एक मात्र आलम्बन के बहाने व्यक्त कर रही हैं, जब कि सच यह है कि किसी प्रकार पुरुष समाज एक वैधव्य प्राप्त स्त्री को ताने-दे-देकर मार देना चाहता है। ‘‘सुना है कि लोग कहते हैं मैं अपने सुहाग को खा गयी। कितना घिसा-पिटा मुहावरा है यह? यह एक स्त्री का अपने सुहाग को खा जाना। कोई यह क्यों नहीं कहता कि सुहाग स्त्री को खा गया?.... एक विवाहित पुरुष खाता ही तो रहता है अपनी स्त्री को सारा जीवन... तिल-तिल कर...पल-प्रतिपल...सोखता रहता है वह अपनी ब्याहता स्त्री को... उसके तन-मन को... उसकी समस्त सारी युवनाई को... उसके समस्त सौन्दर्य को... उसकी समस्त ऊर्जा को... इच्छाओं को... और कुचलता रहता है उसके समूचे अस्तित्व को... उसके मान को... सम्मान को उसके वर्तमान को... और फिर यदि वह इस संसार को पहले छोड़कर चल दिया तो ध्वस्त कर जाता है वह स्त्री के भविष्य को.....।’’ मीरा का यह मनोसंवाद, उनकी पूरी चेतना, संघर्ष और वैधव्य जीवन की मार्मिक कहानी के साथ-साथ प्रतिरोध के बयान को भी दर्ज करता है। आज भी समाज इससे बहुत आगे निकल नहीं पाया है। आज कभी किसी व्यक्ति को घर से किसी कार्यवश बाहर निकलना पड़ जाता है तो इसी दौरान कोई वैधव्य प्राप्त स्त्री सामने आ जाए तो व्यक्ति सम्मुख गाली न दे पाये तो उसके पीछे अवश्य वैधव्य को गाली देता है, क्योंकि उसने धारणा बना रखी है कि सामने आने से अशुभ हो गया अब कोई कार्य पूर्ण नहीं हो सकता। वह यह कतई नहीं सोचता है, उसका जीवन तो वैसे ही संकटग्रस्त है, वह दूसरे को क्या संकट में डालेगी।

मीरा का वैधव्य के पश्चात कृष्ण के शरण में जाने को भी सामन्ती राज परिवार पचा नहीं सका। सुधाकर अदीब ने धनाबाई के बरक्स इस पर सवाल किया है कि ‘‘इसमें आखिर बुराई क्या है?..... क्या एक स्त्री को अपने दुःख कष्टों के निवारण हेतु ईश्वर की शरण में जाने का भी अधिकार नहीं?’’ मध्यकालीन सामन्ती पुरुष समाज मीरा को इसकी अनुमति नहीं देता इसमें उसके कुल का मान-सम्मान गिरता है। कृष्ण आराधक मीरा कृष्ण के गुणगान आम-जन मानस में करती हैं, तो राजदरबार को ठेस लगती है, क्योंकि राजदरबार कभी जनता के लिए सोचता ही नहीं कि वह भी मनुष्य है, वही रक्त-मज्जा उनके शरीर में है, सत्ता सदैव ही उन्हें निकृष्ट कीड़े-मकौड़े की मानिन्द समझती रही है। तो मीरा का उनसे राग रखना कहाँ पसन्द आता। चित्तौड़ के विजय-स्तम्भ के दर्शन के समय मीरा कहा एक वाक्य उनकी आकांक्षा को स्पष्ट करता है, ‘‘कहने दो! जिसे जो कहना हो कहे। मीराँ को किसी का डर नहीं पड़ा है... इन वृक्षों की शाखाओं पर तोतों और मैनाओं को देखो... मीराँ इन्हीं की तरह उन्मुक्त रहना चाहती है...।’’ इसी उन्मुक्तता की तलाश जीवन भर रही मीरा को, जब उस बन्धन से मुक्त होती हैं मीरा, तो फिर कभी उस बन्धन को स्वीकारा भी नहीं। मीरा चित्तौड़ से निकली तो फिर कभी वापस आने के बारे में सोचा नहीं। शायद मीरा यही सोचती रहीं है कि आजाद मीरा को अब बन्धन स्वीकार... नहीं लौटना है चित्तौड़ के राणा वंश में।
मीरा का संघर्ष अस्मिता का संघर्ष था, जिसके लिए मीरा निरन्तर प्रयासरत थी। मीरा ने स्पष्ट घोषणा कर दी थी, ‘‘नहीं बनना ऐसी ‘सती माता’ मुझे... क्योंकि अव्वल तो मैं इस गर्हित प्रथा से सहमत ही नहीं हूँ जो सारा जीवन घर-गृहस्थी और देहबन्धन में खटनेवाली स्त्री पर जुल्म की हद है... मैं इसे बिल्कुल स्वीकार नहीं कर सकती और यही नहीं... मेरा मानना है कि इसे किसी भी समझदार स्त्री को स्वीकार नहीं करना चाहिए।’’ सती प्रथा के विरूद्ध मीरा का यह संघर्ष मध्यकाल के समय कितना कठिन और दुरूह रहा होगा, इसी से सोचा  जा सकता है कि तमाम जन जागरण, कानून के पश्चात भी सन् 1987 में रूप कँवर जैसी घटना उसी राजस्थान में घट जाती है, अखबारों की सुर्खियाँ बनती है। उन्हीं कुप्रथाओं में से बाल-विवाह सब कुछ के बाद भी राजस्थान की सच्चाई है। मीरा आगे भी कहती है, स्वेच्छा से शायद ही कोई सती हुआ हो या तो जबरदस्ती या अफीम के नशे में वेदी पर बैठा कर फूँक दिया गया हो। इसी के साथ ही स्पष्ट उद्घोष कर देती है कि ‘‘अब मैं भी मुक्त हूँ।... मैं तो पहले भी कान्हा जी की ही ब्याहता थी और आज भी उन्हीं की ब्याहता हूँ और सदा रहूँगी।’’ इसी के साथ ही मीरा समाज के समक्ष एक सवाल भी उछाल देती है कि ‘‘यदि सती हो जाना पतिव्रता होने का प्रतीक है तो यह पुण्य व्रत एक तरफा क्यों? फिर किसी स्त्री के काल कवलित हो जाने पर उसके पति महाशय भी उसकी चिता के साथ क्यों नहीं आत्मदाह कर लेते? जीवन भर साथ देने वाली पत्नी भी तो जीवन संगिनी ही होती है।’
‘स्त्री को पुरुष सत्ता बार-बार नियति चक्र में ढकेलती है। उसे अपनी परिस्थितियों से समझौता करने पर बाध्य करती है। कभी पिता कभी पति तो कभी पुत्र या फिर कोई और दूसरा।’ पुरुष सत्ता सदा नियन्ता के रूप में अपने को चाहा, भारतीय धर्मशास्त्रों ने भी स्पष्ट व्यवस्था दी है कि स्त्रियाँ सदैव पुरुषों के अधीन रहें, चाहे जिस रूप में। लेकिन मीरा ने इस अधीनता को भोजराज के रहने पर भी स्पष्ट कह दिया था, पहले गिरिधर गोपाल, इसके बाद आप।

उपन्यास के एक संवाद जिसमें मीरा विष्णुगुप्त को प्रत्युत्तर दे रही है, शिक्षित हुए बिना व्यक्ति न तो स्वयं का विकास कर सकता है और न ही आने वाली पीढ़ियों का। स्त्री शिक्षा की दशा-दिशा आज भी सोचनीय है। पुरुष कितना लोलुप होता है, उसे स्त्री के संवेदना, उसकी सोच किसी से भी मतलब नहीं होता है, उसे हर स्त्री वस्तु के रूप में नज़र आती है। मीरा के प्रति भी सामन्ती राणा विक्रमादित्य यही सोचता है, उनके साथ समागम चाहता है, विष्णुगुप्त के द्वारा संदेश भेजता है। विष्णुगुप्त, राणा के सन्देश के साथ ही अपना समागम सन्देश भी सुना देता है। मीरा इस प्रस्ताव को भरे सन्त समाज में कृष्ण के बहाने कहती भी है। एक स्त्री से पुरुष समाज कितना भयभीत रहता है? मीरा के जनमानस में भारी समादर को देखकर राणा चिन्तित रहता है, सदैव यही सोचता रहता है कि कहीं मीरा जनमानस में लोगों के बीच विद्रोह की चिंगारी न बो दे। इसी का प्रतिफल रहा कि मीरा को मारने के लिए सर्पदंश, जहर आदि के द्वारा विभिन्न प्रयास किए जाते रहे। स्त्री-अस्मिता को रौंदने के लिए समाज विभिन्न प्रयास करता है, कभी घर-परिवार के बहाने, राज परिवार के मान-सम्मान के बहाने। इसमें असफल रहने पर चरित्र हनन, दोषारोपण आदि के बहाने। वहीं राणा मीरा को समागम और रानी बनाने के लिए सन्देश भेजता है, वहीं राणा विक्रमादित्य इसमें असफल रहने पर परपुरूष से समागम का आरोप लगाता है। इन सब के बावजूद मीरा निरन्तर उस सामन्ती समाज को चोट देती रहीं।

शशांक मिश्र
c/o  डॉ. रविकान्त
24, टीचर फ्लैट, मिलनी पार्क,
लखनऊ विश्वविद्यालय,
लखनऊ-226007 ईमेल: shashankojas@gmail.com मो. -9454331111
सिमोन ने कहा कि स्त्री की स्वतंत्रता के लिए आर्थिक स्वतंत्रता जरूरी है। शायद मीरा भी इस लिए चित्तौड़ को त्याग कर भ्रमण करते हुए अपनी आकांक्षा-इच्छा को उद्घोषित कर सकीं क्योंकि उन्हें ‘‘सांगा ने मेड़तणी मीराँ बहू के लिए लाखों की वार्षिक आमदनी वाली  ‘पुर’ तथा ‘मांडल’ की जागीर उसके नाम लिख दी।’’ ‘स्त्री अस्मिता के लिए मीराबाई का प्रतिरोध उनके समय में जितना कण्टकाकीर्ण था, आज भी स्त्रियों के लिए कोई कम चुनौती-भरा नहीं है। आज भी सामाजिक मान्यताएँ एवं अवधारणाएँ स्त्री को पुरुष से बराबरी करने में अनेक बाधाएँ खड़ी करती रहती हैं। मीराँ जिस सामन्ती युग में जन्मीं पलीं-बढ़ीं और ब्याही गयीं वह परम्पराओं और मर्यादाओं के बन्धन में स्त्री को पूरी तरह से जकड़े हुए था।’’

निष्कर्षतः यह उपन्यास अपने स्वरूप में विस्तृत एवं इतिवृत्तातमकता को समेटे, कृष्ण आलम्बन के आवरण में मीरा द्वारा पूरे मध्यकालीन जड़ सामन्ती समाज का कदम-कदम प्रतिरोध एवं स्त्री-मुक्ति आकांक्षा की ऐतिहासिक महागाथा है।



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प्रथम 'आपस सम्मान' विजय रंजन को मिला | First 'Aapas Samman' to Vijay Ranjan


साहित्य निरन्तर जीने की प्रेरणा देता है ...

बीते दिनों फैजाबाद के प्रेस क्लब में आयोजित सम्मान समारोह में विजय रंजन को प्रथम 'आपस सम्मान' से नवाज़ा गया


संघर्ष और अंग्निपक्षी संवेदनाओं का संवाहक है, मानबहादुर सिंह की कविताएं वहां से आती हैं जहां भूख, प्यास, हमारी वासनाएं खेत में ही पैदा होती हैं। असल में यह उनकी कविता का मेनोफेस्टो है। लोक जीवन से जुड़ी कविताएं आकुलता, विडम्बना के खिलाफ लगातार आवाज उठाती हैं। कविता उन्हें आसानी से  मिली थी, या किसी मित्र ने नहीं दिया था, बल्कि संघर्ष से दो दो हाथ करते हुए कविता का साथ हो गया। उक्त विचार के.एन.आई. सुल्तानपुर के हिन्दी विभागाध्यक्ष, आलोचक डॉ. राधेश्याम सिंह के हैं। वे आचार्य विश्वनाथ पाठक शोध संस्थान (आपस) द्वारा प्रेस क्लब में आयोजित मानबहादुर सिंह की कविता विषय पर व्याख्यान दे रहे थे। डॉ. राधेश्याम सिंह ने मानबहादुर सिंह की कविता ‘बीड़ी बुझने के करीब’ से लेकर ’आदमी का दुख’ तक का विषद विवेचन प्रस्तुत किया।

कार्यक्रम का शुभारम्भ दयानंद सिंह मृदुल की सरस्वती वंदना से हुआ। संस्थान के निदेशक डॉ. विन्ध्यमणि ने अतिथियों के प्रति स्वागत उद्बोधन प्रस्तुत किया। इसके उपरान्त मुख्य अतिथि अवधी आंदोलन के प्रस्तोता डॉ. रामबहादुर मिश्रा और अध्यक्षता कर रहे डॉ. माधव प्रसाद पाण्डेय ने साहित्यकार विजय रंजन को आचार्य विश्वनाथ पाठक की स्मृति में दिया जाने वाला ‘आपस सम्मान’ प्रदान किया। आलोचक डॉ. रघुवंशमणि और डॉ. सुशील कुमार पाण्डेय साहित्येन्दु ने विजय रंजन के रचना कर्म पर विश्लेषण प्रस्तुत किया। मुख्य अतिथि डॉ. रामबहादुर मिश्रा ने अपने उद्बोधन में कहा साहित्य निरन्तर जीने की प्रेरणा देता है, यह प्रेरणा मानबहादुर सिंह की कविताओं से और प्रेरित होती है। अध्यक्षता कर रहे अमेठी कालेज के हिन्दी विभागाध्यक्ष डॉ. माधव प्रसाद पाण्डेय ने कहा विजय रंजन का सम्मान साहित्यिक निरन्तरता को पुष्ट करता है।


समारोह में फैजाबाद के डॉ. सत्यप्रकाश त्रिपाठी, डॉ. ललित मोहन पाण्डेय, स्वप्निल श्रीवास्तव, कृष्ण प्रताप सिंह, आर.डी. आनन्द, सौमित्र मिश्र, डॉ. नीलमणि सिंह, डॉ. पवन, डॉ. सुधान्शु वर्मा, डॉ. सुमति दूबे, पूनम सूद, उषा किरण शुक्ल, डॉ. ओंकार त्रिपाठी और साहित्य सेवियों ने भाग लिया। कार्यक्रम के अन्त में संस्थान के निदेशक और संचालक डॉ. विन्ध्यमणि ने आभार व्यक्त किया। 

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काशीनाथ सिंह, मृदुला गर्ग सहित 113 साहित्य शिल्पी सम्मानित | UP Hindi Sansthan Awards 2014 - Photographs


हिन्दी दिवस के मौके पर सोमवार 14, सितम्बर को उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने वरिष्ठ कथाकार काशीनाथ सिंह को ‘भारत-भारती सम्मान’ से अलंकृत किया



उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान की ओर से यशपाल सभागार में आयोजित सम्मान समारोह में संस्थान की ओर से घोषित 113 साहित्य शिल्पियों को पुरस्कृत किया गया। यह पुरस्कार वर्ष 2014 में प्रकाशित पुस्तकों पर प्रदान किए गए।

संस्थान का सर्वोच्च ‘भारत-भारती सम्मान’ ‘रेहन पर रघु’ उपन्यास के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार पाने वाले मशहूर कथाकार काशीनाथ सिंह को दिया गया। भारत भारती सम्मान स्वरूप चयनित साहित्यकार को पांच लाख रुपए की धनराशि प्रदान की गयी।

वहीं ‘लोहिया साहित्य सम्मान’ कथाकार मृदुला गर्ग को दिया गया। भारत-भारती और लोहिया साहित्य के सम्मान के साथ ही पुरस्कारों के क्रम में चार लाख रुपए धनराशि के  पुरस्कार के तहत विनोद कुमार शुक्ल को  ‘हिन्दी गौरव सम्मान’, डॉ. कृष्ण बिहारी मिश्र को ‘महात्मा गांधी सम्मान’, प्रो. अभिराज राजेंद्र मिश्र को ‘पंडित दीनदयाल उपाध्याय साहित्य सम्मान’ और कर्नाटक हिन्दी प्रचारक समिति को ‘राजश्री पुरुषोत्तम दास टंडन सम्मान’ से नवाजा गया।

इसी तरह, दो लाख रुपए धनराशि के पुरस्कार की शृंखला में प्रताप दीक्षित, डॉ. पुष्पा भारती, राजकृष्ण मिश्र, डॉ. रामकठिन सिंह, डॉ. रंगनाथ मिश्र, डॉ. रमा सिंह, कमल नयन पाण्डेय, मोहन दास नैमिशराय, बलराम और उमाशंकर सिंह यादव को ‘साहित्य भूषण सम्मान’ से अलंकृत किये गए।

संस्थान की ओर से वर्ष 2014 में प्रकाशित पुस्तकों पर नामित पुरस्कार 50 हजार रुपए की धनराशि के साथ 28 पुस्तकों के लिए दिए गए। इसके अलावा पुस्तकों के लिए ‘सर्जना पुरस्कार’ 20 हजार रुपए के लिए 30 पुस्तकों पर भी दिए गए।
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कहानी: डर ~ सपना सिंह | Kahani 'Dar' by Sapna Singh #हिन्दी_में_बोलो #हिंदी_दिवस


sapna singh सपना सिंह

डर

~ सपना सिंह


  "एक लड़की का जन्म लिया है         
        तो उम्र भर सिर्फ ‘बचने’ की सोचो          
        अपने आपको सुरक्षित रखने की जुगत 
                                     इतनी बड़ी बन जाती है...
              कि बाकी हर संभावना इसके आगे बौनी"

लड़की के साथ गैग रेप...। भीगा तौलिया आंगन में फैलाते हुये उसके कानों में टी.वी. पर आती आवाज़ टकराई... लॉबी में रखा टी.वी. लगातार आमंत्रित करता है... ब्रेकिंग न्यूज...किचन की ओर जाते उसकी निगाह टी.वी. पर पड़ती है न्यूज रीडर लगातार पूरे एक्साइटमेन्ट के साथ बोल रहा है... एम.बी.ए. की छात्रा पढ़कर लौटते वक्त कार में लिफ्ट लिया...और...। उफ ये आजकल की लड़कियां भी इस तरह राह चलते किसी से भी लिफ्ट ले लेना... आफत न्यौतना ही तो है।

‘‘सुमि, कहां खोई हो... मेरे मोजे कहां हैं ..? कितनी बार कहा, जूतों के साथ ही रक्खा करो...’’ पतिदेव का कर्कश स्वर कानों से टकराया... वह आटा सानना छोड़ मोजे ढूंढने लपकी। हर बार इसी सब के लिये झाड़ पाती है, मोजे, जूते, रूमाल, मोबाइल। यही तीन कमरों का घर... वही दो एक मेज... वही अलमारियां... फिर भी वही सब चीजों के लिये कच-कच उसका बड़बड़ाना एक बार शुरू होता है तो जल्दी खत्म होने पर नहीं आता... मेरी चड्डी-बनियाइन... सही जगह पर क्यों नहीं रखती ? अब वह तो अपने हिसाब से सही जगह पर ही रखती है, पर, उसकी सही जगह अक्सर पतिदेव के लिये गलत ही होती है अब लो, इसी बात पर मूड़ ऑफ। ये मर्द और इनका मूड... इनकी बड़-बड़ से क्या हमारा मूड नहीं बिगड़ता? पर जतायें किसे...? चुप रहो तो कहेंगे घर पर रहना बेकार बोलो तो सुनेंगे ही नहीं... जैसे उनसे नहीं दीवार से कह रहे हो... थोड़ा तेज बोलो तो, कहेंगे... चिल्लाती क्यों रहती हो हर वक्त... ब्लडप्रेशर बढ़ जायेगा... गिर पड़ोगी किसी दिन भट्ट से...।

‘‘मम्मी!... चोटी करो...।’’ बेटी कंघा लेकर खड़ी है।

‘‘करती हूँ... पहले दूध खत्म करो।’’

‘‘पहले चोटी करो... वही तुनकता उद्दण्ड’’ स्वर... जो उसे भीतर तक खदबदा डालता है, उसने उस स्वर को नजर अंदाज किया और दूध में बोर्नविटा मिलाने लगी ।

‘‘मम्मी... जल्दी करो... ऑटो आ जायेगा...।’’

बेटी बेसब्र हो रही है मुंह से निकलते ही बात पूरी हो जानी चाहिये... वह भुनभुनाते हुये बेटी के बाल बनाने लगी।

‘‘कस के करो ...’’

‘‘तुम ठीक से... सीधे खड़ी रहो...।’’ उसने बेटी को डपटा...

‘‘ढीला कर रही हो...’’ बेटी तुनकी और अपने बाल छुड़ाकर शीशे के सामने खड़ी हो खुद से चोटी बनाने लगी।

जब मेरा किया पसंद नहीं आता तो... खुद ही किया करो...अब से मत आना मेरे पास...कहते हुये कुछ याद आ गया बहुत-बहुत पहले का कोई दृश्य... इतनी बड़ी लड़की अपनी मां से भी लम्बी... मां से अपनी दो चुटिया गुथवाती... इसी तरह मां को टोकती झुंझलाती...। क्या दुनिया में किसी लड़की को अपनी मां की गुंथी चोटी पसंद नहीं आती...?

पतिदेव का स्पेशल कमेंट है... तुम मां-बेटी की पटती नहीं...।

‘‘मम्मी। पिन लगा दो...’’ वो स्कूल का दुपट्टा लिये खड़ी है... अब इसमें भी झिक-पिक। इस वर्ष आठवीं से ही सलवार कुर्ता चल गया है... तर्क हैं लड़के सीढि़यों के नीचे खड़े हो,... झांकते हैं... स्कर्ट खतरनाक है... निचली क्लास की स्कर्ट भी डिवाइडर टाइप की हो गई है।... कुछ भी देख पाने पर पूरा अंकुश। उसकी आंखे बेटे के मासूम चेहरे पर अटक जाती है, ये चेहरे... कैसे शैतान चेहरों में तब्दील हो जाते हैं।

उसे याद आता है... वो चचेरा भाई, उससे छ-सात साल छोटा, वह पूरी तरह बड़ी और बो बड़े होने की प्रक्रिया से गुजरता हुआ। इस दोपहर नॉवल पढ़ते - पढ़ते वह नींद में जा पहुंची थी... गले में सरसराहट... उनींदी आंखों में कौंध सा गया कुरते का गला उंगलियों से हटाकर यत्नपूर्वक झांकने की कोशिश करता... कौतूहल भरा चेहरा... जैसे किसी रहस्य लोक में घुसने की चोरी करते पकड़ा गया हो उसने किसी को बताया नहीं... पर दिनों तक अपने उस भाई से नजरे चुराती रही थी।

टी.वी. पर विज्ञापन चल रहा है किसी सैनेटरी पैड का... हवा की तरह हल्की-फुल्की लड़की... कुछ ज्यादा फुदक रही हैं पीरियड्स में इतना घूमना-फिरना ? पर उसे तो दुनिया की सोच बदलनी है न... जैसे, सिर्फ स्राव ही परेशानी का सबब हो जिससे बेहतरीन पैड-वैड लगाकर छुटकारा पाया जा सके... उन दिनों की खिन्नता, दर्द असुविधा... ये सब... इनका क्या करे...? दरअसल मामला है... पूरी तरह इस्तेमाल का... उन दिनों को लेकर भी कोई बहाना नहीं... अब बाजार में ये, ये चीज भी मौजूद है... जिसका इस्तेमाल तुम्हें पूरी स्वच्छंदता देगा।

‘‘मम्मी, ये क्या है’’ बेटे की सहज जिज्ञासा।’’

‘‘ये-ये लड़कियों का डायपर है...’’ पांच साढ़े पांच साल के बच्चे को और क्या बताये ? जैसे तुम छोटे थे तो पहनते थे न वैसे ये बड़ी लड़कियों का...।

‘‘दीदी का भी।’’

‘‘ हां...।’’

‘‘दीदी... क्या शू-शू करती हैं...’’ इतने में दीदी ने एक चपत उसके सिर में लगाई, मम्मी की ओर रोष से देखते हुये। भुनभुनाई... मम्मी... कुछ भी बताती रहती हो’’

बड़ी होती बेटी उससे संबंधित हर बात में सकुचाई रहती है, पैड छुपाकर लाया करो ऐसे क्यों लाती हो...पापा से क्यों मंगाती हो।

वो भी तो थी इस उम्र में ऐसी ही... कपड़ा फाड़ने हुये लगता अदृश्य हो जाये, कपड़े की चिडर्र किसी कानों तक न पहुंचे और फिर गदे कपड़े को अखबार में लपेटकर बाउंडरी के उस पार उछालना... ऐसे कि वह इधर न गिरकर उस पार पानी भरे प्लांट में गिरे... और ये सब होते बीतते कोई देख न ले... आंगन में चारपाई पर लेटे धूप सेंकते पापा या फिर वहीं चटाई पर बैठ स्वेटर बुनती मां... या फिर छोटे भाई बहन या बागिया की घास निकालता चपरासी, वो छोटे छोटे पल कितने भारी होकर गुजरते थे, अब ये पैड वैड होने से कितनी सहूलियत हो गई है तब कहां मिलते थे छोटे कस्बों शहरों में...।

नयी पत्रिका आई है, फुरसत में वह इन हल्की-फुल्की पत्रिकाओं को पढ़ना पंसद करती है सबकुछ तो होता है इनमें ड्राइंग रूम से लेकर बेडरूम तक में एक औरत को कैसे होना रहना चाहिये खुद से लेकर घर और आस-पड़ोस सब सुन्दर साफ और व्यवस्थित, सबसे पहले सवाल-जवाब के कॉलम पढ़ती है वो विशेषज्ञों द्वारा दिये... गये जवाब... कितने बदल गये हैं... आजकल के सवाल पहले जहां इन कॉलमों में पति द्वारा उत्पीडि़त बचपन में हुये यौन उत्पीड़न से उपजे अपराध बोध विवाह पूर्व प्रेम प्रसंग को लेकर उपजा अर्न्तद्द... आदि से संबंधित सवाल होते थे... वहीं अब सवाल चौंकाते हैं ज्यादातर सवाल रिलेशनशिप से जुड़े होते हैं, एम बी.ए. की छात्रा का सवाल है -

अपने ब्वायफ्रेड के साथ उसके सेक्सुअल रिलेशन है... क्या ये गलत है?। दूसरा सवाल है - क्या शादी से पहले अपने पार्टनर के साथ सेक्स एंजॉय करना गलत है?... पर जब मेरी उम्र की लड़कियां शादी करके सेक्स एंजॉय कर रही है तो मैं क्यों नहीं...।

ऐसे सवाल और उनके वैसे ही जवाब इंगित करते हैं... वक्त बहुत तेजी से बदला है... अब सेक्स टैबू नहीं रहा... शायद छोटे शहरों कस्बों में अब भी हो... पर बड़े शहरों में सेक्स पिज्जा बर्गर की तरह तेजी से नयी पीढ़ी द्वारा स्वीकार्य हो रहा है शायद प्रेम या रिलेशनशिप की अनिवार्यता भी पीछे छूट जाये... एक भूख जिसे पूरा किया जाना...जरूरी हो! कहीं पढ़ा था, अमेरिका, यूरोप में सेक्स अनुभव लेने की औसत उम्र उम्र सोलह वर्ष है ऐसे आंकड़े सर्वे आजकल प्रतिष्ठित पत्रिकायें खूब करती हैं... उनके रिजल्ट भी चौंकाने वाले होते हैं।...यह सब पढ़ - सुन देख डरती है वो...

डर तो और भी बहुत सारे है... बचपन से आज तक ये डर साथ-साथ रहा है हर वक्त हर कहीं... बहुत बचपन की घटनायें... वर्षों डराती रहीं... जाने कौन था वो... जो रात के अंधेरे में 6-7 साल की बच्ची की पीठ पर अपने शरीर की रगड़ देता रहा था... चारपाई की पाटी को कसकर थामें उस रात के एक-एक पल की दहशत... अब तक डरावनी यादों की तरह सिहरा देती है।

पापा के ऑफिस के सभी लोग मेला देखने जा रहे हैं वो भाई-बहन भी कालोनी के अन्य बच्चों की तरह जीप में ठूंस लिये जाते हैं भाई आगे पापा की गोद में... वो पीछे छोटे कर्मचारी चपरासियों के साथ कुछ और बच्चे भी वह किसी की गोद में थी, सारी राह कुछ चुभता सा... नीचे की ओर... दर्द चुभन से बेहाल... वह उठना चाहती...पर बुरी तरह ठुंसी जीप लौटते में वह जिदिया गई थी... आगे... बैठेगी... पापा के पास... भाई को पीछे जाना पड़ा था...। क्या उसे भी वैसे ही कुछ चुभा होगा?

धुंधला चुकी थीं ये यादें... फिर, फिर से जिंदा हो गई... अपनी पूरी... भयानकता के साथ... बेटी की पैदाइश के साथ हर वक्त, हर कहीं वह हमेशा सावधान चौकन्नी रहती है... एक अघटित की आशंका हरदम सिर पे लटकती तलवार सी बेटी आंख से ओझल न हो... स्कूल से ट्यूशन से... जब तक घर न लौट आये चैन की सास लेना मुहाल।

और ये आज कल की लड़कियां... जानबूझकर जोखिम मोल लेती किसी से भी लिफ्ट ले लेना... ब्वायफ्रेंड से अकेले में मिलना... शार्टकट के चक्कर में सुनसान रास्ते जाना... ये सब आफत को न्यौता देना ही तो है, अखबार चैनल सनसनी ‘वारदात’... सारे सारे दिन ब्रेकिंग न्यूज... में आरूषि, रूचिका शिवानी...डर... डर... डर ।

ढेरों घटनायें... देर तक सोचती है वो , कैसे, क्या करने पे बचा जा सकता था... किसने किया होगा... आरूषि का कत्ल? क्यों किया होगा रूचिका ने आत्महत्या...? और वह हाई प्रोफाइल पत्रकार शिवानी भटनागर! कितने अनुतरित सवाल।

एक लड़की का जन्म लिया है तो उम्र भर सिर्फ ‘बचने’ की सोचो अपने आपको सुरक्षित रखने की जुगत इतनी बड़ी बन जाती है... कि बाकी हर संभावना इसके आगे बौनी।

‘‘मम्मी! मैं जा रही हॅूँ... देर हो रही है...’’ बेटी का स्वर झुँझलाया हुआ... मतलब इरा अभी नहीं आई थोड़ी दूर पर रहने वाले मौसेरे भाई की बेटी की क्लास में है दोनों साथ ट्यूशन जाती हैं सुविधा भी सुरक्षा भी एक से भले दो...। पर उसे दो मिनट भी देर हुई नहीं कि, इनका झुंझलाना शुरू।

‘‘मम्मी... फोन करो मामी को इरा चली का नहीं...’’

‘‘आती होगी...।’’

‘‘कल से... मैं... नहीं रुकूंगी... उसकी वजह से हमेशा लेट होते हैं...। ‘‘पीछे बैठना पड़ता है... जगह नहीं मिलती...।’’ बेटी की पड़ता है... जगह नहीं मिलती...। बेटी की आवाज तल्ख है मम्मी की ये सब बाते उसकी समझ में नहीं आतीं... इसके साथ आओ... अकेले मत जाओ... सुनसान रास्ते से मत जाओ ..। लेकिन, क्या वो चाहती है ये सब करना कहना... कितनी मन्नतों से मांगी थी बेटी, पर बेटी की मां बनते ही कैसे तो एक डर भी भीतर पैदा हो गया ना ये सामान्य मातृत्व का डर नहीं था जो अपने बच्चे की सुरक्षा को लेकर हरदम सचेत रहता है वह गिर न जाये... कोई चोट न... लगा बैठे... कुछ नुकसान न कर ले अपना... इन सब डरो के साथ - साथ एक और अदृश्य सा डर जो प्रत्यक्षतः कहीं नहीं दिखता था... पर था... और दिन ब दिन बेटी के बढ़ने के साथ ही वह भी बढ़ रहा था डगमग चलते पाव कब का स्थिर, मजबूत चाल चलने लगे, गिरने पड़ने चोट खाने का कोई भय नहीं, फिर भी, आंखों के दायरे से बाहर नहीं जाने देना चाहती वो उसे कब मुक्त होगी वह इन डरो से क्या कभी ये दुनिया वैसी होगी जहां कोई लड़की अपनी पूरी उम्र बगैर डरे जी पाये, ईश्वर ने सृष्टि रचते हुये ये जो इतने सारे तरह तरह के जीवन जन्तु बनाये... उन सब में... उसके जैसा बिल्कुल उसका दूसरा कम उसका पूरक उसी की नस्ल का...। क्या एक के बिना दूसरे का अस्तित्व संभव है...? फिर, क्यों और कैसे एक ही सत्ता दिन ब दिन और और मजबूत होती गयी और दूसरा सिर्फ दास-नुमा भूमिका में उतरता गया, कैसी विडंबना है - डर भी उसी से है और डर भगाने के लिये सहारा भी उसी का है, औरताना जिंदगी के उम्र का कोई पड़ाव इस... डर से अछूता बचा है क्या ? छोटी बच्चियों से लेकर दादी नानी की उम्र तक की औरत तभी एक सलामत जब तक सामने पड़ने वाले पुरुष के भीतर का पिशाच जाग न जाये... और पिशाच को जगने न देने के लिये तमाम एहतियात... न ऐसे न रहो... ये न पहनो...यों न बैठो... ऐसे न चलो... यूं न देखो...बंदिशें, सलाहें सहूलियतें समझाइशें...।

सपना सिंह
द्वारा प्रो. संजय सिंह परिहार
म नं. 10/1279, 
अरूण नगर 
रीवा (म.प्र.) 486001
मो. 09425833407

वह उतान पड़ी है कमरे में, स्कूल बैग, ड्रेस, बोतल, जूता मोजा सब बिखरे पड़े हैं कितनी बार कमरे को व्यवस्थित रखने को कह चुकी है... पर वह सुनती नहीं... ज्यादा बोलने पर झुंझला जाती है। पतिदेव का कहना है - तुम कुछ सिखाती नहीं, अब वो न सुने उसके कहे को तो? यूं भी स्कूल से थके यादें आये बच्चों पर कड़कडना उसे अच्छा नहीं लगता दो बजे तक उसकी अपनी बैटरी भी डिस्चार्ज हो चुकी होती है जैसे - तैसे बच्चों का खाना परोस उसे खुद भी बिस्तर ही दिखता है।

देखो, कैसी तो बेहोश सी सो रही है। सोचते हुये... वह इधर उधर बिखरी चीजों को समेटने लगी हैं उसकी आहट ने बेफिक्र सोई बेटी को शायद नींद में ही झिझोड दिया है... फैले पैर को सिकोड़ करवट ले उनीदी आंखे खोलती हैं बेटी का यों पैर सिकोड़ना... पता नहीं क्यों उसे भीतर तक मथ देता है . आहटें, बेटियों को ही पैर सिकोड़ने पर क्यों मजबूर कर देती हैं...?

‘‘कोई नहीं... मैं हूँ...।’’ न डरो, आश्वस्त सी करती कहती हैं... और फिर चीजें समेटने में जुट जाती हैं... उफ ये ट्यूशन वाला बैग... कल से चेन खुली है इसकी... सोचते हुये बैग उठाती है... खुली चेन को बंद करते भीतर कुछ चमकता है...ये क्या है...? अरे, ये यहां... इसके बैग में... कितने दिनों से वह इसे किचन में ढूँढ रही थी... पर, इसे इसने बैग में क्यों रक्खा है...? हाथ में पकड़े फल काटने के चाकू पर उसकी नजरे जम सही गई हैं... उसे चक्कर सा महसूस होता है... जाने कब, कैसे उसके भीतर का डर उसकी बेटी के भीतर प्रत्यारोपित हो गया... कब, कैसे...?
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#हिंदी_दिवस : गली - गली में धूम मची है अंग्रेज़ी की भारत में अब - प्राण शर्मा | #HindiDiwas Pran Sharma


प्राण शर्मा

गली - गली में  धूम मची  है अंग्रेज़ी  की  भारत में अब
सब के मनों में सोच बसी  है अंग्रेज़ी  की भारत में  अब

घर - घर में अब  अंग्रेज़ी के पत्र - रिसाले क्यों ना आएँ
घर - घर में अब  अंग्रेज़ी  के  पोथे - वोथे क्यों ना भाएँ

सब अंग्रेज़ी में लिखते  और  अंग्रेज़ी   में  लिखवाते  हैं
बच्चों  को   भी  अंग्रेज़ी    में  पढ़ते  देख  के  हर्षाते  हैं

यूँ तो सभाओं में हिंदी  की  यश - गाथा गायी जाती है
हिंदी  भारत  के  माथे  की   बिंदी  बतलायी  जाती  है

काश कि बेचारी हिंदी की  चाल नज़र आये सब को ही
काश  कि  बेचारी  का  हाल  नज़र  आये  सब  को  ही

हिंदी  के  अधिकार समूचे काश कोई तो दिलवा पाता
हिंदी  को  रोज़ी  की  भाषा  काश कोई तो बनवा पाता

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‪#‎विश्व_हिंदी_सम्मेलन‬ - अलादीन | Vishwa Hindi Sammelan - Aladin


मुख्यमंत्री शाल 'ओढ़कर' गवर्नर का स्वागत करेंगे

- अलादीन


वही हुआ जिसकी आशंका थी. भोपाल में आयोजित विश्व हिंदी सम्मेलन की व्यवस्था भारतीय जनता पार्टी के किसी सम्मेलन की सी होकर रह गई है. पहले दिन प्रधानमंत्री के आगमन पर लगे नारों से लेकर उनके और शिवराज के चुनावी भाषणों तक ही राजनीति रही हो ऐसा भी नहीं है. आयोजन में शामिल सभी सरकारी प्रतिनिधियों के साथ स्थानीय माखनलाल चतुर्वेदी विश्वविद्यालय के एक-एक छात्र को स्वयंसेवक के रूप में तैनात किया गया था. सनद रहे कि यह विश्वविद्यालय इस समय संघ की सबसे बड़ी प्रयोगशाला बना हुआ है. संघी कुलपति कुठियाला के नेतृत्व में यहां से सभी उदार लोगों को ठिकाने लगाया जा रहा है और पत्रकारिता के नाम पर वेदपुराण पढ़ाया जा रहा है.

हिंदी के नाम पर हो रहे इस सम्मेलन में हिंदी के चर्चित चेहरे न के बराबर दिख रहे हैं. अगर कोई नजर आ रहा है तो कुरते की बाहें चढ़ाये और भगवा रंग के पास लटकाये घूमते भाजपा कार्यकर्ता. सम्मेलन में अपना सांकेतिक हिंदूवादी राजनीतिक भाषण (बिहार की गरीबी का जिक्र, रामचरित मानस का जिक्र) समाप्त करके मोदी जी बाहर क्या निकले माहौल में पूरी तरह अफरातफरी हो गई. 5,000 से अधिक अतिथियों के लिए बने मोबाइल शौचालयों की हालत भारतीय रेल के जनरल डिब्बे के शौचालयों जैसी हो गई थी. करीब एक लाख वर्ग फुट में बना मुख्य दिनकर सभागार तो एयर कंडीशंड था लेकिन उसके बाहर तपती गर्मी ने अतिथियों का हाल बेहाल कर रखा था. न पानी का पता था न खाने का. और तो और आयोजन स्थल पर पर्याप्त संख्या में स्वयंसेवक भी नहीं थे जो लोगों को रास्ता दिखा सकें. कहा जा सकता है कि दिल्ली पुस्तक मेला और विश्व पुस्तक मेला जैसे आयोजन इस सम्मेलन की तुलना में सौ गुना अधिक व्यवस्थित होते हैं.

साहित्यकारों से अपनी अरुचि तो जनरल वीके सिंह पहले ही उन्हें दारूकुट्टे  कहकर जता चुके थे. रही सही कसर सुषमा स्वराज ने मंच से यह कहकर पूरी कर दी कि हमने साहित्यकारों को जानबूझकर नहीं बुलाया. जिस शहर में चार-चार पद्मश्री और तीन अकादमी पुरस्कार विजेता साहित्यकार रहते हों वहां आयोजित सम्मेलन में हिंदी साहित्यकारों से ऐसी बेरुखी चौंकाने वाली थी. समांतर सत्रों में जाने ऐसा कौन सा गोपनीय एजेंडा चलाया जा रहा है कि वहां पत्रकारों को प्रवेश की इजाजत ही नहीं है. शाम को मोदी शैली में प्रेस विज्ञप्ति जारी कर दी जाएगी. 

हिंदी सम्मेलन में हिंदी की भी खूब हिंदी हुई. क्या मोदी क्या शिवराज सबने जमकर अपने भाषण में अंग्रेजी के शब्दों का प्रयोग किया. शिवराज सिंह चौहान जब राज्यपाल का स्वागत करने बढ़े तो उद्घोषिका ने कहा कि मुख्यमंत्री शाल 'ओढ़कर' गवर्नर का स्वागत करेंगे. 

मोदी जी से आप जब उम्मीद करते हैं कि बस अब वे इससे आगे नहीं फेंकेंगे, वे तत्काल एक लंबी छलांग लगा देते हैं. मसलन कल वो कहने लगे कि वह उत्तर प्रदेश के दूधवालों को चाय पिला-पिलाकर इतनी हिंदी सीख गये. अब जाने कौन तो वे दूध वाले हैं जो खुद इतनी अच्छी हिंदी बोलते हैं. हमें लगा था चाय वाला जुमला चुनाव के बाद खतम हो गया लेकिन बिहार चुनाव आते ही मोदी के भीतर का चायवाला एक बार फिर बाहर आने को कुलबुलाने लगा है. 

बहरहाल, सबसे ज्यादा ठगे हुए वे सदस्य हैं जो बकायदा 5000 रुपये देकर यहां आए हैं. आए तो थे वे यहां हिंदी समाज के दिग्गजों से मिलने लेकिन यहां मिल रहे हैं केवल भाजपा के सांसद, विधायक और छुटभैय्ये नेते. 

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👉 हम न मरहिं मारहि संसारा - मैत्रेयी पुष्पा (आत्मकथा गुड़िया भीतर गुड़िया से) | Rajendra Yadav from Maitreyi Pushpa's Autobiography


पता नहीं लोग क्यों राजेन्द्र जी को स्त्रियों के लिए बदनाम करते हैं, मुझसे तो उन्होंने केवल इतना कहा, सिर उठाकर बात करिए मैत्रेयी पुष्पा, कहानी लिखती हो, हमसे कहानी पर बहस करनी होगी ...

~ मैत्रेयी पुष्पा


अब समापन की ओर बढ़ रही हूँ। इस किताब के बारे में क्या सोचूँ? क्या कहूँ? ऐसे ही जैसे कि मेरा जीवन क्या बनेगा, मैं कहाँ जानती थी? जिन्दगी से गुजरते हुए किन मुकामों तक पहुँचूँगी? या चलते हुए ठोकर खाकर कितनी बार गिरूँगी? गिरकर उठ पाऊँगी भी? बदन की धूल झाड़ने की हिम्मत मिले तो खुदा की नियामत।

यही होता रहा तो मैं भी उन्हीं लेखकों की जमात में शामिल हो जाऊँगी जो असलियत को अपने शब्दों से ऐसा जटिल बना देते हैं कि उसका यथार्थ रूप ही गायब हो जाए। कला का नाम देकर जटिलतर ‘बेहतर’ का पर्याय माना जाए। 

मैंने इस किताब में अपनी समूची सामर्थ्य लगाकर सुन्दर कम और सत्य ज्यादा लिखा है, इस बात का विश्वास कैसे दिला सकती हूँ? कुम्हार की तरह अपने गढ़े पात्र को उँगलियों की गाँठों से टनाटन बजाकर दिखाऊँ, मगर कुम्हार का भी यकीन कौन करता है, जब तक कि अपने हाथों ग्राहक पात्र को जाँच नहीं लेता।

मैंने यह पुस्तक पूरे मन से लिखी है, लेकिन जब तक इसमें पाठकों का मन न रमे, मनोरम कैसे हो सकती है? बिलकुल ऐसे ही जैसे मेरी माँ ने मेरे जीवन का वृक्ष रोपा, विकसित किया। शिक्षा विद्या के फूल खिलाए। अब उस वृक्ष पर रचनाओं के फल लगे हैं, जो मुझे प्यारे से प्यारे लगते हैं, जैसे कि मैं माताजी को लगती थी, लेकिन मेरे गुण-दोषों का आकलन तो निष्पक्ष भाव से ही हो पाएगा, जो शिक्षक, साथी और पड़ोसी करेंगे। बस, ऐसे ही इस पुस्तक के गुण-दोषों का ब्यौरा पाठक देंगे। अब यह जीवन मेरा नहीं, मैं जितनी अपने लिए हूँ, उससे ज्यादा दूसरों के लिए। किताब भी कितनी ही स्वांतः सुखाय क्यों न हो, दूसरों के जीवन को प्रभावित न करे तो किस काम की?

मैं इस पांडुलिपि को उलटती-पलटती हूँ। अपनी लापरवाहियों को पकड़ना चाहती हूँ। कभी आलस्य तो कभी आत्ममुग्धता मुझे ही क्या, बड़े-से-बड़े रचनाकार को भरमाकर भटका देती है। मन की विचलित अवस्था और अनियन्त्रित आवेग भी लेखक को आलतू-फालतू लिखने के लिए उकसाते हैं। मैं ऐसे ही दोषों को खोजती हुई लगातार अपने श्रम और ध्यानावस्था के जुड़े तारों को जाँच रही हूँ कि कहीं सूत्र टूटे तो नहीं? शब्दों की बुनावट में कोई झोल ही रह गई हो... बहुत सम्भव है क्योंकि मैंने लेखकीय जीवन में झटके भी कम नहीं खाए।

अभी ज्यादा दिन नहीं बीते सन् 2003 की बात है, अगस्त का महीना था दलित लेखक संघ द्वारा आयोजित किया गया राजेन्द्र यादव का अमृत महोत्सव (75वाँ जन्मदिवस) मनाया जा रहा था। संघ की अध्यक्ष सुश्री विमल थोराट के आग्रह पर मैं उस आयोजन में मंच से बोलने के लिए राजी हुई। मैं मंच पर जिनके साथ थी, उनमें डॉ. नामवर सिंह और प्रसिद्ध कथाकार कमलेश्वर जी थे। आज साहित्य के साथ अपने आत्मीय साथ को सभागार में सुनाना था, संस्मरण बताने बोलने थे।

जैसी कि मेरी आदत है, अच्छी या बुरी, जब बोलती हूँ तो श्रोताओं के सामने मेरी जुबान मेरा दिल निकालकर रख देती है। और लिखती हूँ तो कलम हृदय से जुड़ जाती है।

क्या बोला था? यही कि राजेन्द्र यादव से मेरा परिचय कैसे हुआ (यह मैं इस पुस्तक में पहले ही लिख आई हूँ)। यह भी कहा कि जो इलजाम लेखिकाएँ या कवयित्रियाँ राजेन्द्र जी पर लगाती हैं, उनका मुझे पता न था। हुआ यह भी कि मेरा ऐसा कोई अनुभव नहीं कि राजेन्द्र जी ने मुझ पर डोरे डाले हों या छापने का लालच देकर अपनी पुरुष प्रवृत्ति के लिए लुभाया हो। यों तो मैं कोई फूहड़ वेश में नहीं गई थी। डॉक्टरों की दुनिया से आई थी, रहन-सहन का सलीका ही नहीं, सजने-सँवरने के नुस्खे भी जानती थी, जानना जरूरी क्यों हो गया था? क्योंकि हम स्त्रियों को सजावट के संस्कार में पारंगत किया जाता है, सिंगार-पटार के लिए उकसाया जाता है। कमोबेश मेरा संस्कार ऐसा ही था कि अपने अच्छे से अच्छे वेश में बाहर निकलो। मैं उसी तरह ‘हंस’ के ऑफिस गई थी और इसके लिए अतिरिक्त सजग भी नहीं थी।
मैत्रेयी, हम जिसको लाख कोशिशों के बाद भी अपने काबू में नहीं कर पाते, उसके बारे में झूठी-सच्ची कहानियाँ प्रचारित करते हैं। स्त्री हो तो उसको अश्लील और बदचलन कहना बड़ा आसान हो जाता है। तुम लिखने से बाज नहीं आओगी और नए बिन्दु तलाशती जाओगी, तुम्हारी ‘सहेलियाँ’, तुम्हें जिन्दा न छोड़ें तो ताज्जुब क्या है?
पता नहीं लोग क्यों राजेन्द्र जी को स्त्रियों के लिए बदनाम करते हैं, मुझसे तो उन्होंने केवल इतना कहा, सिर उठाकर बात करिए मैत्रेयी पुष्पा, कहानी लिखती हो, हमसे कहानी पर बहस करनी होगी।

आगे ऐसी ही कुछ बातें... बस!

मगर कुछ दिनों बाद जोर का हंगामा मचा, मौखिक नहीं, लिखित तूफान उठे। मेरे घर कोरियर से एक पत्रिका आई ‘प्रथम प्रवक्ता’ जिसका इस बार विषय था -  ‘आज की औरत: मुकम्मल जहाँ की तलाश’।

‘साहित्य और स्त्री विमर्श’ स्तम्भ में मेरी तस्वीर सबसे ऊपर कोने में छपी हुई थी। शीर्षक था - ‘सनसनी फैलाने का जोखिम’। और जिसने यह चर्चा आयोजित की थी, उसने अपने शब्दों में लिखा था - मैत्रेयी पुष्पा ने राजेन्द्र यादव के अभिनन्दन समारोह में अपने लेखकीय अनुभव को जिस तरह सम्पूर्ण स्त्री जाति से जोड़ा, वह न केवल निन्दनीय है, बल्कि लेखिकाओं की अस्मिता को कठघरे में खड़ा करता है।

आगे लिखा - जिस तरह हम औरतें सजधज कर सिंगार-पटार करके पुरुष सम्पादकों को रिझाती हैं, उसी तरह मैं भी पूरी तैयारी के साथ सजधज कर ‘हंस’ सम्पादक के कमरे में कहानी लेकर पहुँची। लेकिन यह देखकर मुझे हैरानी हुई कि मेरी देहयष्टि को देखने की बात तो दूर, इस विश्वामित्र ने मुझ जैसी मेनका की ओर नजर उठाकर देखा तक नहीं।

चर्चा आयोजित करनेवाली कोई साधना थी, जिसने अपनी ओर से यह भी कोष्ठक में दिया - (गलत, राजेन्द्र जी हिन्दी साहित्य में काले चश्मे के पीछे से स्त्री देह को भेदने के लिए ही बदनाम हैं)। यह भी लिखा कि हंस जैसी प्रतिष्ठित पत्रिका के सम्पादक राजेन्द्र यादव, जिन्होंने पहले सजी-धजी महिला की ओर नजर नहीं उठाई, उनकी रचना छपने पर खुद हंस का अंक लेकर उनके घर तक पहुँचाने गए। इससे जुड़ा छोटा-सा सवाल यह भी है कि क्या मन्नू जी (मन्नू भंडारी) ने मैत्रेयी को राजेन्द्र यादव के पास पहुँचाया?

चर्चा आयोजिका की इसी टिप्पणी पर लेखिकाओं ने अपने-अपने वक्तव्य दिए, जबकि सिर्फ डॉ. निर्मला जैन को छोड़कर उस सभागार में कोई भी लेखिका मौजूद नहीं थी।

मैं स्तब्ध, मैं हतप्रभ!

मन्नू भंडारी कहती हैं - मैत्रेयी पर मैं कोई टिप्पणी नहीं कर सकती। मैंने उससे कभी नहीं कहा कि तुम राजेन्द्र के पास जाओ। वैसे भी तब मैं उज्जैन में रहती थी।

प्रतिष्ठित आलोचक प्रो. निर्मला जैन - वे न केवल उत्तेजित ही हुईं, बल्कि मैत्रेयी पर बात करने के लिए तैयार ही नहीं हुईं। पर उन्होंने कहा, मैत्रेयी ईमानदार प्रतिक्रिया बर्दाश्त नहीं करती। ‘इदन्नमम’ और ‘गोमा हँसती है’ से उसने अच्छी शुरुआत की थी, लेकिन आज वह स्त्री-विमर्श ‘खुली खिड़कियाँ’ से जिस तरह की बातें करती है, उसका कोई मतलब नहीं। वह खराब स्तम्भ है। उसके बाद के लेखन में कोई दम नहीं। बल्कि कहना चाहिए कि ‘कस्तूरी कुंडल बसै’ और अभी-अभी प्रकाशित ‘कही ईसुरी फाग’ उपन्यास के नाम पर धोखा है। वैसे मेरा संवाद कृष्णा सोबती या मन्नू भंडारी से तो हो सकता है, लेकिन मेरी दृष्टि में मैत्रेयी ऐसी बड़ी लेखिका नहीं जिसके लेखन पर मैं टिप्पणी करूँ। उनकी रुचि सनसनी फैलाने और राजेन्द्र यादव की तरह विवाद में बने रहने की है।

मृदुला गर्ग - मैं इसे बिलकुल बचकाना मानती हूँ। मैत्रेयी पुष्पा को कौन अपना प्रतिनिधि लेखक समझता है? मुझे नहीं मालूम। मुझे तो कभी ऐसी परिस्थितियों से गुजरना नहीं पड़ा। हर किसी के अपने अलग अनुभव होते हैं।

चित्रा मुद्गल - आखिर देखने लायक चीज को ही तो कोई देखेगा। लेकिन वह तो कहीं से देखने लायक नहीं। मैत्रेयी की माया वही जाने। मैं इस तरह की बेहूदी और बचकानी बात पर टिप्पणी नहीं कर सकती। वह अपने को क्रान्तिकारी महिला समझती है। चर्चा में बने रहने का यह सस्ता हथकंडा हो सकता है। राजेन्द्र जी और मैत्रेयी दोनों महान हैं।

चन्द्रकान्ता - क्या मंच पर कोई पुरुष लेखक मौजूद नहीं था, जो उसके वक्तव्य पर विरोध करता। राजेन्द्र जी स्वयं स्त्री-विमर्श के पुरोधा बनते हैं, सबसे पहले उन्हें ही विरोध करना चाहिए था। यह उसका निजी अनुभव हो सकता है, लेकिन मेरे जानते कोई भी लेखिका पुरुष सम्पादकों को रिझाकर लेखिका नहीं बन सकती। मैं तो मैत्रेयी को एक औसत लेखिका समझती हूँ। लेकिन जिस तरह उसने सार्वजनिक मंच से लेखिकाओं का अपमान किया, वह शर्मनाक है। उसके खिलाफ निन्दा प्रस्ताव तो कम है, उसे सार्वजनिक रूप से अपने वक्तव्य के लिए माफी माँगनी चाहिए। खेद की बात तो यह है कि मैत्रेयी का स्त्री-विमर्श एकमात्र देह और सेक्स पर खड़ा है।
गुड़िया भीतर गुड़िया पर अनंत विजय की समीक्षात्मक टिप्पणी
14, दिसम्बर 2008

सन् 2002 में जब चर्चित उपन्यासकार मैत्रेयी की आत्मकथा का पहला खंड छपा था तो उसके शुरू में लेखिका की टिप्पणी थी - इसे उपन्यास कहूं या आपबीती......? तब इस बात को लेकर खासा विवाद हुआ था कि ये आत्मकथा है उपन्यास । लेकिन ये विवादज करने वालों ने शायद ये ध्यान नहीं दिया इस तरह का प्रयोग कोई नई बात नहीं थी ।
हिंदी में इस तरह का पहला प्रयोग भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने 1876 में पहली बार - एक कहानी, कुछ आपबीती, कुछ जगबीती में किया था । लेकिन जब छह साल बाद जब उनकी आत्मकथा का दूसरा खंड- गुडिया भीतर गुडिया- प्रकाशित हुआ तो लेखिका ने इस बात से किनारा कर लिया और पाठकों के सामने पूरी तौर पर इसे आत्मकथा के रूप में प्रस्तुत किया, और एक अनावश्यक विवाद से मुक्ति पा ली।
पहले खंड - कस्तूरी कुंडल बसै- में लेखिका ने मैं के परतों को पूरी तरह खोल दिया लेकिन दूसरे खंड में मैं को खोलने में थोड़ी सावधानी बरती गई है, ऐसा लगता है। पहले खंड में मैत्रेयी और उनेक मां के संघर्षों की कहानी है और दूसरे में सिर्फ मैत्रेयी का संघर्ष है या कुछ हद तक उनके पति डॉक्टर शर्मा का द्वंद । पहला खंड इस वाक्य पर खत्म होता है - घर का कारागार टूट रहा है।
उससे ही दूसरे खंड का क्यू लिया जा सकता है और जब दूसरा खंड आया तो न केवल कारागार टूटा बल्कि घर का कैदी पूर्ण रूप से आजाद होकर सारा आकाश में विचरण करने लगा । 'गुडिया भीतर गुडिया' में शुरुआत में तो उत्तर प्रदेश के एक कस्बाई शहर से महानगर दिल्ली पहुंचने और वहां घर बसाने की जद्दोजहद है, साथ ही एक इशारा है पति के साथी डॉक्टर से प्रेम का का भी।
लेकिन दिलचस्प कहानी शुरू होती है दिल्ली से निकलनेवाले साप्ताहिक हिन्दुस्तान के सह संपादक की रंगीन मिजाजी के किस्सों से। किस तरह से एक सह संपादक नवोदित लेखिका को फांसने के लिए चालें चलता है, इसका बेहद ही दिलचस्प वर्णन है । साथ ही इस दौर में लेखिका की मित्र इल्माना का चरित्र चित्रण भी फ्रेंड, फिलॉसफर और गाइड के तौर पर हुआ है, कहना ना होगा कि इल्माना के भी अपने गम हैं और इसी के चलते दोनों करीब आती हैं।
मैत्रेयी पुष्पा और राजेन्द्र यादव के बारे में इतना ज्यादा लिखा गया कि मैत्रेयी की आत्मकथा की उत्सुकता से प्रतीक्षा करनेवाले पाठकों की रुचि ये जानने में भी थी कि मैत्रेयी, राजेन्द्र यादव के साथ अपने संबंधों को वो कितना खोलती हैं । लेकिन मैत्रेयी पुष्पा और राजेन्द्र यादव के संबंधों में सिमोन और सार्त्र जैसे संबंध की खुलासे की उम्मीद लगाए बैठे आलोचकों और पाठकों को निराशा हाथ लगेगी।
हद तो तब हो जाती है जब राजेन्द्र यादव राखी बंधवाने मैत्रेयी जी के घर पहुंच जाते हैं, हलांकि मैत्रेयी राखी बांधने से इंकार कर देती हैं। राजेन्द्र यादव को लेकर मैत्रेयी को अपने पति डॉक्टर शर्मा की नाराजगी और फिर जबरदस्त गुस्से का शिकार भी होना पड़ता है।
लेकिन शरीफ डॉक्टर गुस्से और नापसंदगी के बावजूद राजेन्द्र यादव की मदद के लिए हमेसा तत्पर दिखाई देते हैं, संभवत: अपनी पत्नी की इच्छाओं के सम्मान की वजह से। लेखिका ने अपने इस संबंध पर कितनी ईमानदारी बरती है, ये कह पाना तो मुश्किल है,लेकिन मैं सिर्फ टी एस इलियट के एक वाक्य के साथ इसे खत्म करूंगा- भोगनेवाले प्राणी और सृजनकरनेवाले कलाकार में सदा एक अंतर रहता है और जितना बड़ा वो कलाकार होता है वो अंतर उतना ही बड़ा होता है।
अगर मैत्रेयी पुष्पा की आत्मकथा- गुडिया भीतर गुड़िया- को पहले खंड- कस्तूरी कुंडल बसै -के बरक्श रखकर एक रचना के रूप में विचार करें तो दूसरा खंड पहले की तुलना में कुछ कमजोर है। लेकिन इसमें भी मैत्रेयी जब-जब गांव और अपनी जमीन की ओर लौटती हैं तो उनकी भाषा, उनका कथ्य एकदम से चमक उठता है।
अंत में इतना कहा जा सकता है कि गुड़िया भीतर गुड़िया यशराज फिल्मस की उस मूवी की तरह है, जिसमें संवेदना है, संघर्ष है , जबरदस्त किस्सागोई है. दिल को छूने वाला रोमांस है , भव्य माहौल है और अंत में नायिका की जीत भी - जब राजेन्द्र यादव अस्पताल के बिस्तर पर पड़े हैं और मैत्रेय़ी को फोन करते हैं तो डॉक्टर शर्मा की प्रतिक्रिया - क्या बुड्ढा अस्पताल में भी तुम्हें बुला रहा है?
लेकिन वही डॉ. शर्मा कुछ देर बाद यादव जी के आपरेशन के कंसेंट फॉर्म पर दस्तखत कर रहे होते हैं । इस आत्मकथा में एक और बात जो रेखांकित करने योग्य है वो ये कि मैत्रेयी पुष्पा ने अपनी आपबीती के बहाने दिल्ली के संपादकों और लेखक समुदाय के स्वार्थों बेनकाब किया है ।

Gudia Bhitar Gudiya
Maitriye Pushpa
Hardbound: Rs. 355
Paperback: for Rs. 265
Pages: 352p
Year: 2009
Language: Hindi
Publisher:
Rajkamal Prakashan
1-B, Netaji Subhash Marg,
Daryaganj,
New Delhi-02
info@rajkamalprakashan.com
Phone:
+91 11 2327 4463/2328 8769
Fax: +91 11 2327 8144

कमल कुमार - औरत को औरत पाठ नहीं करना चाहिए, साहित्यिक पाठ करना चाहिए। उसके झूठ की मैं दाद देती हूँ। सारी दुनिया कहती ही नहीं, जानती भी है कि राजेन्द्र यादव ने उन्हें लेखिका बनाया है और अब जब वे यह कहती हैं कि वे सजधज कर गईं और राजेन्द्र यादव ने देखा तक नहीं, कौन विश्वास करेगा? अगर आज वह इस स्थिति पर पहुँच गई है तो राजेन्द्र यादव को ‘यूज’ कर सकती है। तो यह अच्छी बात है। सीढ़ी के रूप में राजेन्द्र यादव का इस्तेमाल किया, और अब इस कटी पतंग की डोर राजेन्द्र यादव के हाथ में है, बस तरस खाया जा सकता है।

नासिरा शर्मा - मैत्रेयी के तजुर्बों  से मैं इनकार नहीं करती। मेरा ख्याल है, मेैत्रेयी के जेहन में उन्हीं लेखिकाओं का ध्यान आया होगा, जो उनके घेरे में आती हैं या फिर जिनको वे जानती हैं। हकीकत यह है कि उनके उपन्यासों के पात्रों में उनका खुद का ही अनुभव और चरित्र है। यह मैत्रेयी का अपना सच हो सकता है।


मेरा कलेजा मुँह को आने लगा। एक ही वाक्य बार-बार अन्दर से भाषा की तरह उठता - हज जानेवाली बिल्लियाँ!

कमलेश्वर जी मिले थे तभी, बोले - ‘‘मैत्रेयी, यह क्या हो रहा है? मेरे पास कोरियर द्वारा कुछ लेखिकाओं की टिप्पणियाँ आई हैं। कैसा अनर्गल बक रही हैं!’’

‘‘आप तो थे वहाँ। आपने भी तो सुना था मेरा वक्तव्य। क्या जो मेरे नाम पर छपा है, ऐसा फूहड़ कुछ कहा था मैंने?’’

‘‘अजीब हालत है इन औरतों की।’’

अब कमलेश्वर जी से मैं फोन पर बात कर रही थी - ‘‘मुझे क्या करना चाहिए?’’

‘‘चुप रहना चाहिए। देखो, साहित्य की दुनिया में विवाद उठते हैं, यह कोई नई बात नहीं। लेकिन नुकसान की बात यह है कि विवाद लेखक को इस या उस गुट से जोड़ देते हैं। इससे रचनाशीलता बाधित होती है। ऊर्जा छीजने लगती है। मेरी बात ध्यान से सुनो मैत्रेयी, समझो कि जिस तरह हम गर्मी में खुद को राहत देने के लिए ठंडी जगह खोजते हैं, पंखा, कूलर का इस्तेमाल करते हैं, सर्दी में खुद को बचाने के लिए गर्म कपड़े पहनते हैं, उसी तरह रचनात्मकता को बचाने के लिए मन के मौसम को सन्तुलित रखना होगा।’’

कमलेश्वर जी की सलाह पर मैं खुद को नियन्त्रित करके अमल कर रही थी, मगर सबसे ज्यादा आहत हुई थी मन्नू भंडारी के वक्तव्य पर।

नहीं माना मन, उनको फोन किया और पूछा - मन्नू दी, आप क्या कह रही हैं? ये लोग मुझे घेर रही हैं, आप समझ नहीं रहीं? आप याद कीजिए कि जब आपने मुझे राजेन्द्र जी के हंस कार्यालय का फोन नम्बर दिया था, कहानी देने का प्रस्ताव रखा था, आप उज्जैन में नहीं थीं, यहीं थीं दिल्ली में। मैं जब आपसे पहली बार मिली हूँ, और आपका फोन मेरे घर आया है, वह समय 1990 का नवम्बर महीना था। आप उज्जैन के ‘प्रेमचन्द पीठ’ पर तो 1992 में गई हैं। अपने कागज देख लीजिए। यह बात कहूँ तो अब बेमानी होगा क्योंकि अब तो आप अपनी आत्मकथा ‘एक कहानी यह भी’ में सही सन बता चुकी हैं, लिखित रूप में।

मन्नू दी ने उस समय कहा था, मेरे फोन के जवाब में - मैत्रेयी, हो सकता है, मैं भूल गई हूँ। बीमारी के कारण परेशान रहती हूँ।

मुझे बार-बार यह ख्याल आता है, आयोजिका स्त्री ने कृष्णा सोबती से क्यों नहीं टिप्पणी ली? अनामिका से क्यों नहीं पूछा कुछ? राजी सेठ भी इस चर्चा में शामिल नहीं हुईं या की नहीं गईं? क्षमा शर्मा को चटखारे लेने की अभ्यस्त आयोजिका क्यों नहीं हिला पाई? क्या इन लेखिकाओं की कोई अहमियत नहीं थी? या वे इतनी मजबूत हैं कि आयोजिका की हिम्मत पस्त हो गई? क्षमा ने मुझे क्यों पहले ही फोन किया? बाकियों ने क्यों मुझसे पूछने की जहमत नहीं उठाई? क्या ये सभी किसी ऐसे ‘सुनहरे’ मौके की तलाश में थीं कि अपने भीतर की कालिख निकाल सकें। क्या कुंठा इतनी जमा हो गई थी कि वमन करना जरूरी हो गया?

मेरे पास उस दिन के वक्तव्य का कैसेट है, मैं उनको सच बता सकती थी। मैंने साहित्य में आने से पहले साहित्यकारों की कैसी-कैसी महान मूर्तियाँ गढ़ ली थीं। लेखिकाएँ तो मेरे लिए और भी महत्त्वपूर्ण होती थीं, खासतौर पर मन्नू भंडारी जैसी लेखिकाएँ। मगर क्या किया जाए, वे हमारी बातें भूल जाती हैं। अब भी भूल रही हैं कि सन् 1990 में मिलने के बाद उज्जैन जाने 1992 तक वे मुझसे मिली नहीं। कितनी ही बार वे हमारे घर आई हैं, बहुत-बहुत बार मैं उनके घर गई हूँ। मुझे यहाँ तक याद है कि मोहिता की शादी (1991) के चार-छह दिन बाद उनसे मेरा साड़ियों का आदान-प्रदान हुआ था और यह भी याद है कि अपनी आत्मकथा ‘एक कहानी यह भी’ लिखने के दौरान उन्होंने मुझसे पूछा था, तुम मेरी बीमारी में रात में आई थीं न? मैंने सही-सही बता दिया और अतिरिक्त उत्साह में आ गई। मन्नू दी ने ही मेरे आवेग पर विराम लगा दिया था - मैत्रेयी, तुम से मेरी दोस्ती डॉक्टरों के कारण थी। ‘आं ऽऽ...’ करके रह गई मैं फोन के दूसरी ओर।

यह सब मैं क्यों लिख रही हूँ? इसलिए कि समझ चुकी हूँ, लेखिकाएँ और लेखक कोई देवी-देवता नहीं होते, उनकी अपनी जरूरतों के हिसाब से उदारताएँ, सद्भावनाएँ, कुंठाएँ और टुच्ची हरकतें भी होती हैं।

समीक्षक: रामचन्द्र शुक्ल, रामविलास शर्मा, नामवर सिंह के नाम पर हम उन्हें ऐसे देखते हैं, जैसे उनका लिखा/बोला वेदवाक्य हो। सत्य और अमर-अजर। डॉ. निर्मला जैन से बड़ी कोई समीक्षक महिला नहीं, जो कह दें, पत्थर की लकीर...। मगर चुनौती देता हुआ नए से नया साहित्य?

पत्थर की लकीरें पानी के बुलबुलों में कब डूब जाएँ, वे भी नहीं जानते। स्थापित व उभरते आते समीक्षक अपने कद में डॉ. मैनेजर पांडेय हों, डॉ. विजय बहादुर सिंह, वीरेन्द्र यादव, मधुरेश के साथ रोहिणी अग्रवाल की प्रखरता अपने आप में कम तो नहीं। डॉ. परमानन्द श्रीवास्तव का ज्ञान क्षीण तो नहीं हुआ, भले पक्षपात का आरोप लगता रहे। ये लोग आज के साहित्य को ठीक तोल रहे हैं।

मैं अक्सर ही कुचक्रों में फँस जाती हूँ, मरीचिका की भँवरों के अपने तेवर होते हैं। ऐसे दमघोंटू माहौल में तालमेल कैसे बिठाऊँ? चलते आ रहे ढर्रे को महान परम्परा कहूँ तो मेरे लेखकीय स्वाभिमान का क्या होगा? हमारा साहित्य-समाज अपनी ‘महान’ छवि में इस तरह कैद है कि जड़ीभूत सा लगता है। मैं क्या करूँ, यह तो ऐसा मुद्दा है, जिसमें उठा-पटक होने की बहुत जरूरत है। गहराई तक खोदने और तोड़ने का कितना-कितना काम बाकी है। टूटन-फूटन हर हाल में जरूरी है, नया तभी बनने के आसार होंगे। इसी बात की सजा के रूप में मेरे बारे में गलत बयानी की जाती है। अफवाहें फैलाई जाती हैं। झूठ दर्ज किए जाते हैं। मुझे गुस्सा आता है, लड़ने के लिए तैयार हो जाती हूँ, ये लोग कौन होते हैं, जो किसी रचनाकार की अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का हनन करें?

उफ! यह रवैया कब से जारी है...इस दमन का विरोध क्यों नहीं किया जाता? यह कौन-सी सभ्यता है?

राजेन्द्र यादव कहते हैं - ‘‘चुप रहो, कुछ भी कहने की जरूरत नहीं।’’ कमलेश्वर जी समझाते हैं - ‘‘कोई प्रतिक्रिया मत जताना, यही तुम्हारा जवाब होगा। आरोपों का उत्तर देना, समय गँवाना होता है।’’

अरे! वे वक्तव्य... छोटी-छोटी पत्रिकाओं में अश्लीलता के दलदल में पछाड़ी जाती मैं... ऐसी अभद्र गालियाँ कि इन सभ्य औरतों से गाँव की स्त्रियाँ शरमा जाएँ। यही होता रहा तो मैं भी उन्हीं लेखकों की जमात में शामिल हो जाऊँगी जो असलियत को अपने शब्दों से ऐसा जटिल बना देते हैं कि उसका यथार्थ रूप ही गायब हो जाए। कला का नाम देकर जटिलतर ‘बेहतर’ का पर्याय माना जाए। मैं सोचती हूँ, जो कुछ मैंने लिखा या लिखना चाहती हूँ, वह इसी उलझन भरी बेरहम दुनिया के रेशमी पर्दे उघाड़कर/फाड़कर ही तो निकला या निकलना है। मैं सच कहती हूँ, जब कभी इस शील, सुन्दर, सौम्य और शिष्ट मानी जाने वाली तथाकथित दुनिया के बरअक्स अपने आवेग और आनन्द में, इच्छा और आकांक्षा में, सपनों और व्यवहार में दो पैराग्राफ लिख देती हूँ, लगता है सम्मान कमा लिया।

मैं शान्त रही।

कुछ दिनों से मैं जिस दौर से गुजर रही थी, उसे भूलने लगी। मैं उन लोगों में मगन थी, जो स्त्री को लेकर नए लेखकीय व्यवहार पर ध्यान केन्द्रित कर रहे थे। मेरा यह विचार दृढ़ हो रहा था कि मुझे स्त्री-जीवन की वह छवि पेश नहीं करनी है, जो मर्यादा, शील-शुचिता और इज्जत के नाम पर स्त्री की नकली तस्वीर है, दमन और दबाव के कारण आँखें झुकाए हुए... आवाज को घूँटे हुए...हाथ-पाँवों को सेवा में समर्पित किए हुए... मुझे ऐसी जिन्दगी देखकर ठेस लगती है। अपने भीतर मची उथल-पुथल का अंदाजा लगाती हूँ तो थर्राने लगती हूँ। मैं... उनमें से एक... सेवा श्रम और सेक्स के लिए समर्पित... बदलाव चाहिए ही चाहिए।
‘त्रिया चरित्र’ कहो तो कह सकते हो। इस पौराणिक शब्द को मैंने गाली नहीं माना, इसे मैं ‘सर्वाइविल ऑफ फिटेस्ट’ मानती हूँ
पन्द्रह दिन ही गुजरे होंगे कि एक दोपहर को डॉ. साहब घटिया कागज का चार पन्ने वाला अखबार लहराते हुए कमरे में मेरे पास आए। उसे खोलते हुए बोले - ‘‘देखा यह?’’ उनके चेहरे पर विजय भाव भरी हँसी खेल रही थी।

मुझे काटो तो खून नहीं। अब तक जिस जिन्दगी से बेजार थी, उसे बदलने का संकल्प ले रही थी... अचानक भीतर का साहस थराथरा उठा! सामने खड़े पुरुष को अखबार के साथ देखना ऐसा ही लगा जैसे कोई न्यायालय में अभियुक्त के झूठे बयानों पर सच्चे सबूत ले आए। मेरे सामने वे पंक्तियाँ प्रकट होने लगीं, जिनके बूते पर मुझे मुजरिम बनाया गया, लिखित रूप में मेरा बयान... इसी बयान को गढ़कर जलाई गई हमारे मुक्ति-संघर्ष की भावना। चली आ रही ऐसी परम्पराओं के लांछनों ने लिया है स्वाद स्त्री-विलाप का। क्या ऐसे ही क्रूर रवैयों में बँधी हमारी दादी-नानी नहीं चीख रहीं हजारों सालों से?

मैं अखबार हाथ में ले लेती हूँ, ऐसे देखती हूँ, जैसे फिर से आहत होने के लिए देखना जरूरी है। सच में कोई चीज तो है, जो मुझ में पुरुषों की ही नहीं स्त्रियों की भी दिलचस्पी जगा रही है। लोकप्रियता (?) दिनोंदिन बढ़ रही है। कहते हैं, ऐसे पर्चे सारे देश में कोरियर द्वारा भेेजे गए हैं। मेरे यहाँ भी लेखिकाओं के वक्तव्यों भरे अखबार की यह तीसरी किस्त है। मुझे अलग, डॉक्टर साहब को अलग और ‘तिरुपति आइ सेंटर’ के नाम से अलग कि बेटी और दामाद भी देख लें... क्या भेजनेवालों को यह पता है कि बेटी इस अखबार को देखकर पुरुषों की तरह हिंस्र खुशी से पुलकित नहीं होगी, उसकी आँखों में स्त्री की आँखों जैसी उदासी उमड़ आएगी।

मैंने इतना ही सोचा कि आँखें खुद व खुद भर आईं। डॉक्टर साहब मुझे कुछ पढ़कर सुनानेवाले थे और उनकी वक्र मुस्कराहट जता रही थी कि अब हो जाओ लज्जित होने के लिए तैयार।

मैंने आँखें झुका लीं। आँसुओं से युद्ध करने लगी, लेकिन भीतर जमी साहस की शिलाएँ पिघलकर भीतर ही भीतर इस कदर बहने लगीं कि गला भर आया, पलकें भी आँसुओं का वजन लादे हुए... जुबान लाचार हो गई। दुख और गुस्से के लिए सारे शब्द रुदन में डूब गए। अब तक भारी ओढ़ने की तरह लादी दहशत मैंने कब की उतार फेंकी थी, लेकिन आज कहाँ से आकर लद गई? लावा जैसा उमड़ता ताप मुझसे भाषा में न बँधेगा, मैंने मान लिया।

‘‘अरे! तुम रो रही हो!’’

मैं रो रही थी।

‘‘तुम क्या जानती हो कि इसमें क्या लिखा है?’’

मैं चुप, आँसू पीती हुई... चुप्पी के हवाले ही मेरी सारी भूमिका, इसकी आड़ में सन्ताप अपना भंडार छिपाए हुए... यह हुनर मैंने कब सीखा, याद नहीं, आज काम आया तो जाना यह विद्या बहुत जरूरी थी। आज कह सकती हूँ कि अच्छी रचना दुख, यातना और अपमान की चुनौतियों से जन्म लिया करती हैं। हालत यह हुई कि खामोशी आँसुओं में डूबती चली गई।

उन्होंने मेरे सिर पर हाथ धर दिया। अब मैं रोते-रोते फफकते-फफकते ही यह कहना चाहती थी - यह तो मैंने कब का देख पढ़ लिया, तब गुस्सा आया था। लेकिन आज जब तुम लेकर आए तो ऐसा अपमान लगा कि रो दी... दिल ऐसा फटा कि खून पानी कि बस तरल ही तरल...

अब हम कमरे में खड़े आपस में सीने से लगे एक-दूसरे की धड़कन महसूस कर रहे थे। मैं शर्मिन्दा सी सोच रही थी, पति के समाने बेइज्जत होना, सबसे ज्यादा यन्त्रणा देनेवाला है।

ऐसा हाल क्यों बना? डॉ. साहब चुम्बन के बाद पूछ रहे हैं।

मैं निरीह बच्ची सी और भी रो रही हूँ। कहने को बहुत कुछ था मगर कह पाऊँ तब न। कहना चाहती हूँ, इस सबका कारण राजेन्द्र यादव ही हैं, उनके अमृत महोत्सव पर मेरा दिया गया वक्तव्य तो तोड़ा-मरोड़ा बहाना बनाया गया है। यह सब कुछ भी न होता अगर मैंने राजेन्द्र यादव पर एक किताब सम्पादन करनेवाले स्त्री और पुरुष को अपना निजी अनुभव लिखित रूप में दे दिया होता। साहित्य में दादागीरी न माननेवाली स्त्री की अच्छी फजिहत होती है।

हाँ, ऐसा कुछ भी न होता अगर राजेन्द्र यादव के अमृत महोत्सव के लिए मैं उनके चमचों को ढाई हजार रुपये चन्दा के रूप में दे देती। मैंने नहीं दिए, इस पर तो खुद राजेन्द्र जी नाखुश थे। उन्होंने ही कहा - तुम्हारे पास रुपये नहीं थे तो मुझसे लेकर दे देतीं।

मैं हक्का-बक्का रह गई थी और बोल पड़ी थी - फिर आपने ही क्यों नहीं दे दिए?

- मेरे देने से देना माना नहीं जाता।

- और मुझे आपके जन्मदिन पर चन्दा करना सुहाता नहीं, राजेन्द्र जी। जब तक आप जिन्दा हैं, जन्मदिन आपका निजी मामला है। जब आप नहीं रहेंगे, तब आपके पाठक मनाएँ या नहीं मनाएँ, आपका साहित्य तय करेगा। अभी से इतनी चिन्ता क्यों? चन्दा क्यों?

मैं यह संवाद पति से कैसे करती, मैं तो अपनी तौहीन पर राजेन्द्र यादव से मुखातिब थी। सोच रही थी, अपने भक्तों को राजेन्द्र जी ने ही तो नहीं मेरे पीछे छोड़ दिया, क्योंकि जो कुछ मेरे लिए लिखा है, उससे यही बू आती है - हमारी बिल्ली, हम से ही म्याऊँ।

गिरिराज किशोर जैसे जाने-माने रचनाकार ने राजेन्द्र जी से मेरे सामने ही नहीं, अरुण प्रकाश के सामने क्यों कहा था - कहीं साले तुम्हीं तो नहीं मचवा रहे यह बवंडर। खामख्वाह इनको परेशान कर रखा है।

सोचा बहुत कुछ, पति से कुछ नहीं कहा।

मैंने फोन उठा लिया। नम्बर डायल कर दिया।
‘हलो।’’

‘‘राजेन्द्र जी, मुझे आपसे एक बात पूछनी है।’’

‘‘तुम तो अक्सर एक सौ या एक हजार बातें पूछने के मूड में रहती हो।’’

‘‘हँसी की बात नहीं है यह।’’ भरी हुई आवाज को मैंने यथासम्भव सामान्य किया।

‘‘अफसोस की? कब जा रही हो संसार से?’’

‘‘यह पूछने के बाद कि आपके यहाँ मेरा रिकार्ड कैसा है? राजेन्द्र जी, आपके जीवन में बहुत-सी स्त्रियाँ आई हैं, मुझे मालूम है। क्या मेरा जैसा रिश्ता किसी से रहा?’’ कहते हुए मेरा स्वर भर आया फिर से।

‘‘नहीं रहा, तुम मेरी मूर्ख मित्र हो।’’

‘‘यह मेरी बात का जवाब नहीं। आप देख रहे हैं, साहित्य की दुनिया में कैसे बवंडर उठ रहे हैं आपको लेकर मेरे लिए...’’

‘‘तुम कितनी तबाह हो गईं कि आवाज रोने का रूप लग रही है।’’

जैसे उन्होंने गहरा साँस खींचा हो... क्षण भर चुप ही रहे वे।

‘‘डॉक्टरनी, आज समझ लो और हमेशा के लिए गाँठ बाँध लो, जो ऊल-जलूल बक रहे हैं, वे तुम्हारे प्रतिद्वन्द्वी हैं। उन्हें न तुम्हारे रूप-रंग से कुछ लेना-देना है, न तुम्हारे और मेरे सम्बन्धों की पड़ताल से। उन्हें बस भय है तुम्हारे लेखन से। कहूँ कि एकदम नए और महत्त्वपूर्ण लेखन से। और धुँआधार अनवरत लेखन से...। मैत्रेयी, हम जिसको लाख कोशिशों के बाद भी अपने काबू में नहीं कर पाते, उसके बारे में झूठी-सच्ची कहानियाँ प्रचारित करते हैं। स्त्री हो तो उसको अश्लील और बदचलन कहना बड़ा आसान हो जाता है। तुम लिखने से बाज नहीं आओगी और नए बिन्दु तलाशती जाओगी, तुम्हारी ‘सहेलियाँ’, तुम्हें जिन्दा न छोड़ें तो ताज्जुब क्या है? सुन रही हो न?

‘‘रही बात मेरे और तुम्हारे सम्बन्ध की, बहुत सोचा अपने रिश्ते को क्या नाम दूँ? क्या हम आपस में ऐसे ही नहीं, जैसे कृष्ण और द्रौपदी रहे होंगे? बहुत आत्मीयता, बहुत भरोसा और सेक्स का लेशमात्र नहीं...

‘‘फिर हम तुम दोनों यादव।’’ कहकर वे हँस पड़े। जाति को ठहाके में उड़ाते से।

मेरे भीतर नीम रोशनी की छायाएँ स्वस्तिक और पद्मों की शक्ल में फैलने लगीं। मुझे लगा सृजन की मुरझाती आकांक्षा ने पुनर्जीवन पाया है। और यहीं से मुझे तथाकथित बौद्धिक-चेतना-सम्पन्न साहित्य के दरबार में नवरत्न सरीखी लेखिकाओं और एक साधारण शिक्षिका की क्रमशः साहित्यिक प्रतिबद्धता और प्रेम में अन्तर करना आ गया। कल्पना नाम की हिन्दी अध्यापिका मुझे देहली पब्लिक स्कूल के एक समारोह में मिली। जिसे मेरी बेटी की बेटी वासवदत्ता ने मेरा परिचय दिया - मेरी नानी मैत्रेयी पुष्पा।

कल्पना ने बड़ी-बड़ी आँखें करके आश्चर्य भरी खुशी से देखा और कहा - ‘‘क्या मैं सच मानूँ कि मैत्रेयी जी को देख रही हूँ? आपके उपन्यास पढ़े हैं, मैम। मिलना चाहती थी बहुत-बहुत। क्या पता था मेरी इच्छा इतनी गहन है कि लेखिका स्वयं मेरे सामने! वेलकम मैम स्वागत।’’

मेरे हृदय से निकला - तुम साहित्य के प्रबुद्ध संसार की सदस्य नहीं, मगर हजारों विद्यार्थियों के उस भविष्य की मार्ग निर्देशक हो, जो हिन्दी की रचनात्मक प्रकृति से बनता है।

मैं इसी भेंट से प्रेरित फिर से नई किताब लिखने की बात सोच सकती हूँ।

क्या तारीफ मेरी कमजोरी है? मैं हर समय प्रशंसा पाना चाहती हूँ? नहीं तो निन्दाओं, अफवाहों और आलोचनाओं पर तिलमिला क्यों जाती हूँ? अगर कल्पना मेरी तारीफ न करती तो क्या मैं लिखना छोड़ देती? मुझे समझ लेना चाहिए कि जो आत्मविश्वास मैंने अपनी मेहनत, लगन और प्रतिभा से अर्जित किया है, वही मेरी स्वतन्त्रता का वाहक है। और जो मैं तारीफों के जरिए आश्वस्ति पा लेना चाहती हूँ, वह निश्चित ही साहित्यिक पराधीनता है। परमुखापेक्षी रहने की विवशता है।

यदि मैं खुद को दो पल्लेवाली तुला पर न तोलती और काँटा प्रशंसाओं की ओर झुका रहने देती तो निश्चित ही आराम से बैठती। आलस्य का जश्न मनाती। मनोरथों की दुनिया में कैद होकर उद्यम छोड़ देती। सोचकर देखती हूँ तो मुझे बचपन की वह चोरी भी सार्थक लगती है, जिसको बुन्दों के आकर्षण में सम्पन्न किया था। आकर्षण में उद्यम करना अनैतिक हो सकता है, अकर्मण्य नहीं माना जा सकता। अनुचित साहस ही सही, मैं किसी भी कायरता को उचित नहीं मान पाती।

इसलिए ही इस्मत चुगताई को सलाम करती हूँ, अनैतिक माने जाने वाले कोने-अन्तरों को रोशनी में लाकर समाज के सामने रख दिया। दकियानूस और कायरों ने ‘लिहाफ’ से बाहर आते सच को ‘सजा का फरमान’ दिया। मगर उस सत्य से कचहरियाँ हार गईं। आखिर होता यही है, उन लेखक लेखिकाओं के नाम गुम होते जाते हैं, जो नए समय की नब्ज नहीं बनते।

यह मेरी पुस्तक उस सवाल का भी कारण बनेगी, जो मुझसे अक्सर ही साक्षात्कारकर्ता पूछा करते हैं - बाधाओं, रुकावटों, निषेधाज्ञाओं से घिरी हुई आप परेशान होती हैं, मगर ऐसे घर से अलग क्यों नहीं होतीं? क्या आप स्त्री स्वतन्त्रता को इस रूप में नहीं देखतीं कि स्त्री का वजूद निष्कंटक हो।

फिर मैं क्या कहूँगी?

यही कि जब हद से गुजर जाने वाले अंकुश, हुक्मनामे और धमकियाँ जिन्दगी को असहनीय बना देते हैं तो मुझे अपना बचपन (कस्तूरी कुंडल बसै) याद आता है। उस समय मुझे अपने अनकिये की सजा मिलती रहती थी। मुझे लड़की का शरीर दिया कुदरत ने, उस शरीर को झपटने, नोंचे-बकोटे जाने और बेइज्जत होने का दंड मैं पाती। आज तो मैं अपने तन से मनचाहा करती हूँ (लिखूँ या घर से बाहर निकलूँ) तभी सुनने-सहने को मिलता है। स्थिति बेहतर ही हुई है। मुझे बड़ी मुश्किल से सर पर छत नसीब हुई है, छोड़ दूँ तो मौसमों की मार में मेरा क्या होगा? भले यह घर मेरे लिए युद्धस्थल बन जाए, मगर मेरे पाँव तो इस जमीन पर जमे हैं। यहाँ खड़ी रहकर ही मैं बाड़ें तोड़ने की ताकत पाती हूँ। रास्ते निकालती हूँ। मेरे लिए रास्ते बनाना जितना मुश्किल होता है, उस रास्ते से लौटना उससे भी ज्यादा मुश्किल होता है, लगभग असम्भव। मैं नहीं जानती कि मेरी इस धुन का क्या होगा? इस जिद को कौन सा किनारा मिलेगा? यह दृढ़ता किसके हाथों टूटेगी? मैं तो इतना ही समझ पाई हूँ कि हमारे गाँव में आँधी आती थी, बड़े से बड़े वृक्ष गिर जाते थे, मगर कुछ अरसे बाद ही नई ललछौंही पत्तियों वाली शाखाएँ ठूँठ से फूट निकलती थीं। कारण कि वहाँ मिट्टी पानी के साथ कूड़े-कचरे और गोबर का खाद भी होता था। मैं अपने मुक्ति-वृक्ष को और कहीं जाकर क्यों रोपूँ? छाया, ताजगी और ऑक्सीजन की जरूरत सबसे पहले मेरे घर को है। हाँ, ऐसा ही वृक्ष हर घर में हो, जिसमें स्त्री रहती है।

यह वजह रही होगी कि ऐसी किताबों की चाह स्त्रियों को रहती है। प्रस्तुत प्रसंग में ऐसी ही झलक है। डॉ. ऋचा शर्मा ने पूना (अहमद नगर) से फोन किया। बताने लगीं, उन्होंने मुझे पत्र लिखे हैं। मैं याद नहीं कर पा रही थी। कहा कि वे मुझसे मिलने दिल्ली (नोएडा) आई थीं। मेरी स्मृति को जगाने के लिए बोलीं, मैं वही, जिसके पति आपकी किताबों से नफरत करते हैं, मगर पढ़े बिना भी रहते नहीं। मैं पढ़ती हूँ तो नाराज होते हैं। बहरहाल मैं आपको इस विश्वविद्यालय में बुलाना चाहती हूँ।

‘‘मैं... नहीं, मैं इस समय...’’ इतना ही कह पाई थी कि उधर से ऋचा ने कहा - ‘‘आप हवाई जहाज से आएँगी कि समय नष्ट न हो और आपकी सेहत भी ठीक रहे। हमारी यूनिवर्सिटी ए.सी. सैकेंड क्लास का रेलवे किराया देती है, मैं आपके लिए अपनी माँग रखूँगी और मनवा लूँगी। इस विश्वविद्यालय की ही नहीं, दूसरी जगहों से अध्यापिकाएँ, शोध छात्राएँ, सामाजिक कार्यकर्ता और आपकी बहुत सी पाठिकाएँ आपको देखने और सुनने आएँगी क्योंकि वे आपकी पुस्तकें पढ़ती हैं। आपको आना है, बस।’’

फोन बन्द हो गया। अब तक झेलीं कठिनाइयाँ, अवरोध, निन्दाएँ और लांछनों की कड़ुआहट फटने लगी। थक्के कणों में बदल गए और कण ऐसे ही तिरोहित होने लगे, जैसे पानी के बुलबुले फूट जाते हैं।

ऋचा जैसी स्त्रियों से मेरा क्या नाता है? छात्राओं से क्या सम्बन्ध है? त्रिवेन्द्रम और हैदराबाद जैसे शहरों को मैंने दूर से देखा है। मेरी पहचान केवल अपनी किताबों के जरिए बनी है। जुड़ाव मेरे लेखन के कारण हो रहा है। ‘औरतों के खिलाफ जुल्म का खुलासा’ सच में ही क्या यह इतना बड़ा मसला है कि मुझ जैसी मामूली स्त्री से स्त्रियाँ जुड़ जाएँ। मेरे अनुभव क्या उन सबके अनुभवों के आसपास हैं? मेरी तरह वे भी आजादी का रास्ता ढूँढ़ रही हैं? नहीं तो कहाँ दिल्ली कहाँ पूना! कहाँ खिल्ली, सिकुर्रा, कहाँ अहमद नगर... हजारों मीलों की दूरी पर रहते हम लोग, मगर निडर एक तरह से ही होना चाहते हैं। शायद यह भी जानते हैं कि हमारा चलन स्वाभाविक नहीं माना जाएगा, हैरत से देखेंगे लोग।

यह दुनिया किताबों ने दिखाई है और हिम्मत इसे व्यवहारिक बनाएगी। मगर तभी बनाएगी, जब हम पढ़ेंगे और सोचेंगे। ऐसा नहीं हुआ तो सामान्य शरीर लेकर भी अपाहिजों की जिन्दगी जिएँगे।

इस अपाहिजपन से मुक्त होने के लिए ही मैं अनामिका के सामने और अनामिका (कवयित्री, गद्य लेखिका) मेरे सामने दिल खोल पाती है। हमारी मित्रता पीड़ा भरी दास्तानों में सामने आती है - नैतिकता के मानसिक कष्ट, ऊपर से थोपी हुई शर्मिन्दगी ढोते-ढोते मौत की इच्छा... हमने पढ़-लिखकर अपना वजूद मर्दों के आसरे डाल रखा है। हम अपने पुरुषों के विश्वास पर आत्मविश्वास खोते चले गए। मैं अहमद नगर में स्त्रियों को बताऊँगी, लेखिका हो या कवयित्री, आप जिसको देखने के लिए लालायित हुईं, सुनने के लिए यहाँ तक चली आईं, उसी दर्दमन्दी की उपज हैं, जो हमारे देश की करोड़ों-करोड़ों स्त्रियों की पीड़ा और यन्त्रणा से पैदा हुआ दुख है।

अब, जब मैं यह पुस्तक लिख रही हूँ तो याद आ रही हैं, वे लेखिकाएँ, जो मुझसे बड़ी और अनुभवशील हैं। क्या वे दुखों की राह चलकर यहाँ तक नहीं आईं? निश्चित आई होंगी तो फिर मुझसे उन्हें नफरत क्यों हुई? क्या वे नहीं जानतीं कि यह समय स्त्री का संघर्षकाल है, नफरत इसे कुन्द कर देगी। हम अपने अभियान में खुद ब खुद जाहिल हो जाएँगे। भूल जाएँगे कि हम कौन थे? आत्मा की सजगता खो जाएगी। हाँ, हम अच्छी स्त्री, सती नारी का रूप हो सकते हैं क्योंकि खानदान और समाज की इज्जत में चुप रहेंगे।

घृणा के मगरमच्छ के जबड़े में कसी लेखिकाएँ कराह-कराहकर मुझे कोस रही हैं। नुक्ताचीनी कर रही हैं। मुझे अज्ञान मानकर पुराने जमाने की माँ-दादियों की तरह बता रही हैं कि मुझे क्या करना था, क्या नहीं। मुझे उनकी सीख से इनकार नहीं करना चाहिए। नहीं तो देशभर में वे मुझे बदनाम कर देंगी।

मैं तड़प उठती हूँ, ऐसी बातों पर कि यही साहित्य की दुनिया की तहजीब है? मैंने इनमें से किस किससे अपनी भावनाएँ जोड़ी थीं... जिनके साथ मैं आत्मीयता और सम्मान के सूत्र में बँधी रही हूँ। वे जितनी मुझसे खफा हैं, मुझे उनकी उतनी ही याद आती है। उन्हें इतना गुस्सा कि आपे से बाहर होकर कुछ भी कहती जाएँ, इसलिए ही आता है क्योंकि वे मुझे प्यार करती थीं। और क्या पता वे अनर्गल बातें उन्होंने इस रूप में कही ही न हों, जिस रूप में छपी हैं। मेरा वक्तव्य भी तो तोड़ा-मरोड़ा गया है। एक शब्द बदल जाए तो सारा अर्थ बदल जाता है। मन्नू दी को लेकर ही देख लिया जाए, मैंने कहा उन्होंने मुझे ‘हंस’ सम्पादक से कहानियों के लिए मिलने को कहा था। उस पत्रिका में लिखा गया - मन्नू भंडारी ने मुझे राजेन्द्र यादव के पास पहुँचाया - इस घटिया मिजाज के वाक्य पर मन्नू दी भड़कतीं न तो क्या करतीं? डॉ. निर्मला जैन, ‘इदन्नमम’ पर सारगर्भित आलेख लिख चुकी हैं।

मेरी पुस्तक, तुम सन्देश देना कि जिनका जिक्र मैंने अपनी लिखावट में किया है, उनसे कहीं न कहीं मैं जुड़ी हूँ। मेरी भावनाएँ अपने पूरे प्रवाह में अभिव्यक्त होने के लिए अकुलाती हैं। नफरत से छुटकारा पाने पर मुझे शान्ति मिलती है। लगता है जीवन प्रेम का सरोवर ही है। और जब इस सरोवर में काई शैवाल और जीव-जन्तु भी होते हैं तो भी यह मानव-हृदय के लिए अस्वाभाविक नहीं हो पाता। मनुष्य का सम्बन्ध तो जल से ही रहता है।

आप कल्पना कर सकते हैं कि दो विरोधी मत रखनेवाले साहित्य के दिग्गज मेरे लेखन को लेकर इस तरह सहमत हों कि आन्तरिक चेतना रिलमिल जाए - 

‘‘अगर मैं कहता हूँ कि स्वतन्त्रता के बाद रांगेय राघव और फणीश्वरनाथ रेणु के साथ मैत्रेयी तीसरा नाम है, जो कथा-साहित्य में धूमकेतु की तरह आया है। तो, न तो किसी पर अहसान कर रहा हूँ, न नए नक्षत्र की खोज का श्रेय लेना चाहता हूँ। सिर्फ उस लेखन से जुड़ना चाहता हूँ, जो हिन्दी के संकुचित फलक का विस्तार कर रहा है।’’
 - राजेन्द्र यादव (हंस)

‘दिल्ली से झाँसी और उरई की यात्रा।’

‘‘यात्रा के दौरान एक बात तो यह समझ में आई कि मैत्रेयी पुष्पा को बुन्देलखंड में अपने लेखक के रूप में व्यापक मान्यता मिली है। हमने उनका घर-गाँव आदि भी देखे और वे स्थान भी, जो उनके उपन्यासों में आए हैं।
 - अशोक वाजपेयी (जनसत्ता)

बेशक मेरी यह पुस्तक इस बात की गवाह होगी कि मैंने यहीं से अपराधबोध जैसी ग्रन्थियों से छुटकारा पा लिया। समझ में यह आ गया कि किसी दल, गुट या बात-बात में ‘राजेन्द्र यादव के गिरोह’ की सदस्यता का ठप्पा साथी रचनाकार ही लगाते हैं। अब तक मैं पागल तो नहीं, लेकिन अज्ञान जरूर रही। ‘हंस’ कार्यालय जाने की जरूरत होती तो भी नहीं जाती, राजेन्द्र यादव के साथ होनेवाली यात्राओं से बचती। ‘हंस’ में लिखने के उनके प्रस्ताव को कभी नजरंदाज करके तो कभी ठुकराकर आत्मतुष्टि प्राप्त करने की कोशिश करती। इस सबके बावजूद यह भी सोचे बिना नहीं रह पाती कि क्या मैं अपनी स्वाभाविकता से कटती नहीं जा रही? निश्चित ही मैं उस मुकाम तक पहुँचा दी गई हूँ, जहाँ कृतज्ञता को अपने हृदय से साफ करती जा रही हूँ, वरन् कृतज्ञता तो मेरी प्रकृति का अहं हिस्सा रही है।

‘उफ्’ करके रह जाती मैं, गहरा साँस खींचती। क्या मैं खुद को पहचान पा रही हूँ? मैं दूसरों की निगाह में अच्छी औरत बनने की प्रक्रिया में... और मेरी रचनात्मकता का रुख नेपथ्य की ओर... नहीं नहीं, मैं अब भी सहृदय स्त्री हूँ, यह सोचकर प्यार की बाढ़ पति की ओर छोड़ देती। लेकिन यह अब कैसा प्यार है? न तू तू, मैं मैं, न मान भरी शिकायतें... मीठे लम्हे कहाँ गुम हो गए? राजेन्द्र यादव से बचने के यत्न में मैं हर ओर से कठोर होती जा रही हूँ। निर्दयता ऐसी तारी हुई कि अपनी कारगुजारियों को कामयाबी मानने की हठ पकड़ बैठी।

लेकिन मेरा यह अभियान कभी कमलेश्वर जी ने तोड़ा, कभी कमला प्रसाद जी ने तो कभी काशीनाथ सिंह ने। राजेन्द्र जी को थोड़ी-सी भी हारी-बीमारी हो, मेरे फोन पर ‘कॉल्स’ की झड़ी लग जाए। मैं झटके खाती रहूँ कि क्या ये सब मुझे अब भी उनकी करीबी मान रहे हैं? इतनी दूरियाँ बनाने का मकसद फिर क्या हुआ? यह ठप्पा या लोगों का विश्वास टूटेगा नहीं तो मैंने अपने स्वभाव से मुठभेड़ क्यों की? गद्दारी पर उतर आई। दुष्टता का चोगा पहनकर जैसे सुरक्षित हो गई। मैंने अपनी आत्मा के साथ जुल्म किया। अपनी बेरुखी दिखाकर राजेन्द्र यादव के सामने अपनी कौन-सी छवि रखना चाहती थी? मैं ‘हंस पत्रिका की लेखिका’ के रूप में प्रचारित अपने लेखकीय चेहरे को उन लोगों के कहने से दागदार मान बैठी, जो खुद उस जनचेतना की पत्रिका में छपने के लिए लालायित रहते हैं। नहीं सोचा कि जब इन लोगों की कलम राजेन्द्र जी के लिए लिखने को लालायित रहती है तो मुझे रोकने के उपाय क्यों किए जा रहे हैं?

और मैं क्यों सोचने लगी कि वे स्त्रियाँ किस्मतवाली हैं, जिनके पुरुष अपनी पत्नियों, प्रेमिकाओं या बहन-भाभियों को राजेन्द्र जी की ग्रहण-छाया से दूर ले गए। किसी ने वे सन्त महात्माओं के यहाँ दीक्षा दिलवाकर पवित्र कीं तो किसी ने अपने कब्जे में लेकर कुँआरी का सत्त बचाया और किसी ने राजेन्द्र यादव को गालियाँ दिलवाकर चैन पाया। वे कंठी पहनें, मंगलसूत्र गले में बाँधें या हीरे-मोतियों के गहनों से सजें, हंस की दुनिया से निकलकर वे भारत देश की सती और सुखी स्त्रियाँ हैं।

समझ में नहीं आता कि मैं कैसे उस घाट लगूँ, जहाँ रोली, चन्दन, अक्षत और बैसान्दुर की पवित्रता में स्त्री का वास निवास है? ऐसा मेरे पति भी नहीं कर पाए कि मेरे लिए कोई रास्ता निकालें, उपाय सोचें।

राजेन्द्र यादव के भयानक विरोधी, मेरे चरित्र पर हमला करते हैं, मेरे कागज-कलम को दुश्मन की निगाह से देखते हैं। इससे क्या होगा? कागज-कलम से दूर रखने का पुराना मंत्र झूठा पड़ चुका। नया मंत्र खोजना होगा। इस खोज में कितना समय लगे, कौन जानता है। फिलहाल तो मेरे ऊपर से लेखन का भूत उतरता दिखता नहीं। मेरी आँखों में दृढ़ता भरी चुनौती-सी उतर आती है। मेरा रूप कठोरता धारण कर लेता है।

पति की निगाहें बार-बार उठती हैं, मुझे समझाती हैं - तुम मेरे कब्जे में रहोगी तभी पत्नी मानी जाओगी। मेरे घर में रची-बसी गृहलक्ष्मी सी।

कब्जे में कैसे रहूँ? तुम तो हमारी समकालीन लेखिकाओं के पतियों जैसे चतुर सुजान नहीं, सीने में मोम का दिल लिए फिरते हो। जिन्हें दुश्मन मानकर अपने बयान जारी करते हो, उनके सामने आते ही पिघलने लगते हो। क्या ख्याल है राजेन्द्र यादव के बारे में? कभी सोचती हूँ, मेरी तरह तुम्हें भी उनको देखकर कोई अपना याद आता है। आखिर वे उसी भूमि से आए हैं, जहाँ तुम्हारे पैतृक घर की खिड़कियाँ खुलती हैं, जहाँ तुम्हारी माँ ने दीपक जलाए थे। उन दीयों की रोशनी में तुमने अपने रास्ते देखे थे, उन दीपकों की लौ जलती है, अँधेरे कटते हैं और तुम हमवतनों को पहचानते हुए दो पल ठहर जाते हो।

और निश्चित ही तुम मेरी तरक्की पर न्यौछावर हो, नहीं तो वीरेन्द्र यादव तुम्हें क्यों अजीज हैं? विजय बहादुरसिंह तुम्हें क्यों मोहते हैं, मैनेजर पांडेय से क्यों घनिष्ठता लगती है? इसलिए कि वे प्रमाण देकर बताते हैं, तुम्हारी पत्नी आगे बढ़ रही है। यह बात तुम सुनते हो वात्सल्य प्रवण माता-पिता की तरह! आखिर तुम क्या हो मेरे? दोस्त या दुश्मन? सच मानो में कभी स्वाभाविकता की नजर से देखती हूँ तो कभी आश्चर्यजनक भूमिका में पाकर कौतूहल से भर जाती हूँ। क्या तुम्हारी चतुराइयाँ ऐसी हैं, जो मुझे दुखित और चकित करती हैं?

डॉक्टर साहब...

क्या अपने दिल की बात कहूँ? कुछ पूछूँ आमने-सामने पड़कर?

‘अब तुम मेरी कहाँ...’ जैसा कुछ तो नहीं कहोगे? समझते तो हो कि जब कोई युवक, कोई युवती वैवाहिक जीवन आरम्भ करते हैं तो गृहस्थ की बहुत सारी जिम्मेदारियाँ ले लेते हैं। मैंने और तुमने भी लीं, कहो कि नया जीवन प्रारम्भ किया था, लेकिन क्या मैंने कभी तुम से तुम्हारे घर-परिवार, तुम्हारी बोली-बानी, तुम्हारे रहन-सहन या तुम्हारे मीत सखा/सखियों को भूल जाने के लिए कहा? नहीं न! क्या मैंने तुम्हारे आगे बढ़नेवाले रास्तों पर संदेहों के जाल बिछाए? मैं तो यही सोचती हूँ कि हम दोनों ने एक-दूसरे के भाव, भाषा, आकांक्षाओं और सपनों में उतर जाने की कोशिश की।

मगर आज हकीकत यह है कि जब न तब आमने-सामने निखालिस पति (मालिक) पत्नी (दासी) की तरह... महान पारम्परिक संस्कृति ने हमें जागरूकता और चेतना सम्पन्नता के नए मिजाज से पीछे नहीं धकेल दिया?
मैं तो समझती थी, पहली बार कलम हाथ में ली, कागज पर कुछ शब्द उकेरे, शब्दों की ध्वनि बजी, तुम्हारे पास होती हुई दूर तक गई। दूर गाँव से दूर शहर से, देश से दूर तक...

तुमने क्या कुछ नहीं सुना? मैं कब से तुम्हें सुनाने को उत्सुक... तुम्हारे पास खुद ही चली आई थी।

मैं अब किसी भी डर भय के बिना एकटक उनको देख रही थी।

‘‘आखिर तुम मेरे कौन हो?’’

उन्होंने मुझे मेरी तरह ही देखा, मगर आँखों से लगा दिल में न जाने क्या-क्या कर डालने का जज्बा है।

और उन्होंने न जाने क्या कहना चाहा, जो एक बात मुझे याद रह गई है, शायद वही अकेली बात कही होगी।
‘‘तुम आखिर क्या हो?’’

‘‘मैं तुम्हारी मोहब्बत जानम।’’

‘‘मोहब्बत! ऐसा कब से?’’ अविश्वास सा करती हुई मैं...

उनकी स्वाभाविक धीमी आवाज - ‘‘तभी से मेरी जान, जब तुम्हें अपनी दुल्हन बनाकर बैलगाड़ी में विदा कराकर लाया था। ‘अनोखी रात’ फिल्म कितनी कितनी बार देखी। कैसेट खरीद लिया। अब सीडी है मेरे पास। मैं फिल्म का हीरो संजीव कुमार और तुम जाहिदा, माथे तक घुँघट खींचे, नाक में नथ पहने मुस्कराती हुई! मेरे मन में गीत बजता है - ओह रे ताल मिले नदी के जल में, नदी मिले सागर में, सागर मिले कौन से जल में, कोई जाने ना...

‘‘जीवनगीत तुम्हारे गाँव सिकुर्रा से चला, कहानी अलीगढ़ तक आ गई। अलीगढ़ का काफिला पैसेंजर ट्रेन से दिल्ली तक आया। अपना किस्सा आगे चलता चला गया और जिन्दगी की दास्तान की डोर तुम्हारे हाथ में आ गई। अब क्या... सुना है तुम अगले हफ्ते हवाई जहाज से किसी यूनिवर्सिटी में व्याख्यान देने जा रही हो। क्या शानदार चेहरा निकला मोहब्बत का!’’

डॉक्टर साहब... मेरे पति, नहीं साथी, स्मृतियों के कई झरोखे खुल गए। झरोखों में से किसी पर्दे की लहराने वाली छाया नहीं, सच की धूप, ईमानदारी की चमक अपनी रोशनी में मुझे कितने ही नजारों के आसपास ले गई।

वे जिन साहित्यकारों से अपनी नापसंदगी दिखाते हैं, क्या सच में ही वे उन्हें पसन्द नहीं? जवाब में मैं क्या कह सकती हूँ?

राजेन्द्र यादव बीमार हुए, डॉक्टर साहब उन्हें एम्स लेकर दौड़ रहे हैं। व्हीलचेयर खुद ही धकेलते हुए इस विभाग से उस विभाग तक।

सत्यप्रकाश जी के साथ ई.एन.टी. वार्ड में खड़े हैं। हर बृहस्पतिवार डॉ. आलोक ठक्कर को अभिवादन करते हुए।

चित्रा और मृदुला गर्ग के बेटी-बेटे... डॉ. साहब मॉर्चिरी के आगे... पोस्टमार्टम... माँ-बाप कैसे देखेंगे?

मार्कण्डेय जी बीमार हैं, जाना है। परिचय नहीं तो क्या हुआ? ऐसे ही न जाने कितनी-कितनी स्थितियाँ! विजयकिशोर मानव जानते हैं उनकी हमदर्दी।

अब इन दिनों।

एक फोन कॉल।

सवेरे के साढ़े पाँच बजे थे। मैंने ही फोन उठाया।

‘‘हलो!’’

‘‘राजेन्द्र जी! क्या हुआ?’’

‘‘डॉक्टरनी!’’

‘‘हाँ, हाँ, राजेन्द्र जी।’’

‘‘डॉक्टरनी, ऑपरेशन होने जा रहा है। तुम्हें मालूम है। मैं तैयार कर दिया गया।’’

‘‘आप घबरा रहे हैं! नहीं न?’’

‘‘नहीं! लेकिन यहाँ ऑपरेशन के लिए अपनी कंसेंट (रजामंदी) देनेवाला कोई नहीं।’’

‘‘कोई नहीं? क्यों? मन्नू दी या रचना या दिनेश या और कोई रिश्तेदार? आपकी बहन...?’’

‘‘नहीं, कोई नहीं। इसलिए अब यह काम तुमको ही करना होगा, डॉक्टरनी।’’

‘‘मैं... मुझे?’’

डॉ. साहब चौकन्ने हुए। कहूँ कि यह? डॉक्टर साहब जो मेरी मोहब्बत है, मेरे रग-रेशों के जानकार। मेरे मन का अल्ट्रासाउंड करने वाले।

‘‘किस का फोन था?’’

मैं चुप! सोच में डूबी सी - फोन का चोगा हाथ में लिए हुए।

‘‘क्या बुड्ढा अस्पताल में भी तुम्हें बुला रहा है?’’ आवाज में आशंकाओं के तार खिंचे। होंठों पर भी कड़ुआहट सी।

ओ मेरी मोहब्बत! तभी तक जब तक मैं इनके लिए मरती-मिटती रहूँ। अपनी इच्छा से सरकना भी गुनाह...

न जाने इस संकटकाल में मैंने क्या सोचा, मुझे क्या हुआ, एकदम बात पलट दी।

‘‘मुझे नहीं, तुम्हें बुला रहे हैं राजेन्द्र यादव।’’

क्यों बोली मैं ऐसा? सच की जगह झूठ क्यों बोला? किसके साथ न्याय किया? किसे धोखा दिया? मैं तिकड़म कर गई?

जो भी हुआ, यही मेरी जिन्दगी का रूप है। यही सम्बल है। यही जीवन का आधार... ‘त्रिया चरित्र’ कहो तो कह सकते हो। इस पौराणिक शब्द को मैंने गाली नहीं माना, इसे मैं ‘सर्वाइविल ऑफ फिटेस्ट’ मानती हूँ। जिन्दगी को बचाकर रखने का तरीका। ...मान लीजिए, यह हमारी खरगोश-वृत्ति, ताकतवरों से भिड़ जाने का या अपने ही जैसों को बचाने के नुस्खे... नहीं जानती कि क्या हैं, लेकिन जो है फिलहाल यही हमारा उद्देश्य... मेरे स्त्री-जीवन की यह तस्वीर अपनी मासूमियत, चालबाजियों और संवेदना के नुस्खों को लेकर हाजिर-नाजिर... हाँ, मेरा बेनकाब चेहरा आपके सामने है, क्योंकि जीवन में बन्धन बहुत हैं। हमदर्दी पर सौ-सौ पहरे... मन की यह भावना आगे बढ़ने के लिए शरीर का सहयोग माँगती है और मेरे शरीर पर पतिव्रत का कब्जा है। क्या मैंने खुद को इसलिए ही कभी पत्नी नहीं माना? क्या मैं जान गई थी कि संवेदना और प्यार बहुत सुन्दर भावनाएँ हैं, मगर इनको व्यावहारिक रूप से अपनाने के लिए स्त्री को पूरा का पूरा युग बदलना पड़ेगा। अभी तो हालत यह है कि यदि मालिक को चुनौती ही दे दी तो मरदाने अहंकार से टकराहट होनी निश्चित है। तलवार की धार पर चलने का हुक्म स्त्री के लिए पूर्वनियोजित है।

उफ्! मैं वृक्ष के सहारे खड़ी बेल... तभी तो मेरे भीतर पत्ता-पत्ता हिलता है। वजूद में डगमगाहट है। कौन काँप रहा है? मैं या मेरा अभिप्राय?

दृश्य में मेरी मोहब्बत!

डॉक्टर साहब गहन सहानुभूति और अनुराग से भरे हुए और मैं इन क्षणों में असम्पृक्त सी अपने ही रूप में रंग भरने लगी। विश्वास पैदा होता गया। अपने ‘त्रिया चरित्र’ का भरोसा कर लिया और मरदाने संस्कारों (अहंकार, स्वामित्व, बलिष्ठताबोध) को भावात्मक विवेक से समेट लिया। ऊष्मा थी कि कठोर से कठोर संस्कार पिघल गए। यह पिघलना और नए में ढालना और व्यक्ति को मनुष्य बनाना मेरे खयाल में स्त्री का नैसर्गिक गुण है। इस गुण को वह चली आ रही शारीरिक निर्बलता और सामाजिक असुरक्षा के गर्भ में तपाकर बाहर लाती है।

अब नई कथा लिखी जा रही थी।

जो अब तक संदेहों, आशंकाओं और अन्ततः लांछनों में घिरा पर-पुरुष था, वही ‘प्रिय और भरोसेमंद’ मित्र के रूप में सामने था।

जल्दी से जल्दी।

जितनी तेजी से चल सकें, हमें फॉर्टिस अस्पताल पहुँचना था, जहाँ राजेन्द्र यादव का ऑपरेशन...।

गाड़ी तेज रफ्तार से रास्ते पर रास्ता पार करती जा रही है। इस संकट की घड़ी में यह कम दिलासावाली बात नहीं। इससे भी बड़ी बात यह कि मैं अपनी जिम्मेदारी डॉ. साहब को सोंपकर खुद को काफी हलका महसूस कर रही हूँ। जानती हूँ, पहले कई बार ऐसा हो चुका है, बस लोगों का भरोसा बढ़ता गया। और मैं डॉ. साहब के दिल से जा मिली। स्त्री का भय अब कहाँ है? कहाँ है वह दहशत, जिसने मुझे कुशल राजनीतिकार बना दिया है।

ज्यों-ज्यों अस्पताल पास आ रहा है, हम दोनों को चिन्ता समान रूप से घेरती जा रही है। हम बारी बारी गहरी साँसें लेते हैं। एक-दूसरे को सूझबूझ भरी नजर से टटोलते हुए सांत्वना देते से...। यों तो सवेरा होता चला आ रहा है और धुँधलका छटने लगा। फिर भी ‘ऑपरेशन’ शब्द आँखों के आगे अँधेरों के गोले उड़ाता है। दिल धड़क जाता है। आशंकाएँ बुरी तरह भीतर ही भीतर खोंट रही हैं। ‘जनरल एनस्थिसिया’ राजेन्द्र जी को किस करवट... उनकी हाई शुगर और ब्लड प्रैशर... ओह, ये बीमारियाँ ऐन समय पर सुरसा मुँह फाड़े खड़ी हैं।

डॉक्टर साहब (मेरी मोहब्बत) इस समय उसी रूप मेें तैयार होकर आए हैं, जैसे मन्नू भंडारी आतीं, रचना आतीं, दिनेश आते... निश्चित ही मैंने पुरुष की परपुरुष के लिए संवेदना को जीता है, जो अपनी स्त्री के माध्यम से उस तक आया है। मैं आशा से भरी हुई, डॉक्टर साहब राजेन्द्र जी को हर खतरे से बचाएँगे।

और अब!

अस्पताल के एक गहन कक्ष में कंसेंट फॉर्म भरा जा रहा है  I here-by authorized for ‘Fortis Hospital’ to perform surgery of left knee. I hereby give my consent for the operation with the full knowledge of possible complications, which have been explained to me in my mother-tongue. I am fully aware that surgery is being performed in good faith and no guarantee has been given about the result.

—R.C. Sharma

ओह... मेरी ओर देखती हैं दो आँखें... कि दिल में उतरती चली जाती है गहन भावना, मन की पारदर्शी रंगत नजरों में और आत्मीयता का उन्मेष मेरी साँसों में। छलकती नजर ने भरोसे गहरे कर दिए। इन क्षणों को यों ही सह जाना किसके बस की बात है?

खड़ी, बुत की तरह बेहरकत, देखती रहती हूँ... राजेन्द्र जी को स्टेªचर पर ले जाते हुए वार्ड बॉय के साथ तेज कदमों से आगे बढ़ते जाते और बीच रास्ते हाथ थामकर ऑपरेशन जोन में प्रवेश दिलाकर वापिस आते डॉक्टर साहब...

इस उषाकाल में मेरे निकट खड़े डॉक्टर साहब, एक हाथ में राजेन्द्र जी का सिगार-पाइप और दूसरे हाथ में उनकी बैसाखी सँभाले हुए हैं। जिन अँधेरों को आँखों में भरे हुए हम यहाँ तक आए थे, उनमें से ही रोशनी के छोटे-छोटे चँदोबे नजरों के आगे बिखरने लगते हैं। क्या मैं धरती के सितारों के बीच खड़ी हूँ?

हाँ, खड़ी हूँ। उन्हीं के प्रकाशमान लम्हों में चल रही हूँ।

मैं कहाँ से कहाँ तक पहुँच गई! इस जगह को क्या नाम दूँ? शीश झुकाए हुए एक प्रार्थना बस, क्योंकि कितनी-कितनी दुआएँ कबूल हुईं।

क्या पाया और हमारा क्या-क्या नष्ट हुआ, सब कुछ इस कहानी में है। अब हम वैसे कहाँ रहे, जैसे कि हुआ करते थे। सम्भवतः यही रचनात्मक जीवन-दृष्टि है और यही है साहित्य की शक्ति।

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